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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन
यहाँ पर गौतम इन्द्रभूति प्रद्भुत रस का प्राश्रय हैं। भगवान् महावीर बालम्बन-विभाव हैं। उनकी दिव्यभूति उद्दीपन विभाव है । भगवान् की विभूति का कारण जानने की जिज्ञासा अनुभाव है । वितर्क, भावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव है।
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बीरोदय महाकाव्य में वत्सल रस का वर्णन दो स्थलों पर मिलता है। दोनों स्थल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हैं :
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(क) बरसल रस की अभिव्यञ्जना कवि द्वारा सर्वप्रथम वहाँ होती है, जहाँ जिवकारली रात्रि में देखे गए सोलह-स्वप्नों के विषय में राजा को बताती है । राजा सिद्धार्थ प्रसन्न होकर उसे बताता है कि ऐसे स्वप्न पुत्रोत्पत्ति के पूर्व देखे जाते है, अतः वह एक लोकविश्रुत पुत्र को जन्म देगी। स्वप्नों का अर्थ जानकर eft fकारिणी भी प्रत्यधिक प्रसन्न होती है :
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"पृथ्वीनाथ : पृथु कथनां फुल्लपायोजनेत्रो प्रोक्त प्रतिसुपृथुप्रोथया तीथंरूपाम् । श्रुत्वा तथ्यामविकलfगिरा हर्षण मन्थराङ्ग
इत्थं तावत्प्रथयतितरां स्वाथ मन्मङ्गलार्थाम् ॥ त्वं तावदीक्षितवती शयनेऽप्यनन्यां
स्वप्नावलि त्वनुवरि प्रतिभासि धन्या । भो भो प्रसन्नवदने फलितं तथा स्याः
कहानीह शृणु मञ्जुनमं ममाऽऽस्यात् ॥ प्रकलङ्कालङ्कारा सुभगे देबागमार्थमनवद्यम् । गमयन्ती सन्नयतः किलाऽऽप्तमीमांसिताख्या वा ॥ लोकत्रये कतिलको बालक उत्फुल्लनलिननयनेऽद्य । उबरे तवावतरितो होङ्गितमिति सन्तनोतीदम् ।।
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! पुत्र इति भूत्रयाधिपो निश्चयेन तव तीर्थनायकः । गर्भ इष्ट इह व सतां क्वचिन्स्वप्नवन्दमफलं न जायते ॥! वाणीमित्य मनोषमङ्गलमयी माकण्यं सा स्वामिनो
वामश्च महीपतेर्मतिमतो मिष्टामय श्रीमुखात् । प्राप्यसुते कण्टकिततनुसम्बाहिनी जाता यत्सुतमात्र एव सुखवस्तीर्थेश्वरे किम्पुनः ।'
१. बीरोदय, ४।३७-६२