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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्यों में भावपक्ष २७३ इस स्थल पर राजा सिद्धार्थ और प्रियकारिणी वत्सल रस. के प्राश्रय है। उत्पत्स्यमान पुत्र प्रालम्बन विभाव है । सोलह स्वप्न उद्दीपन विभाव हैं । रोमाञ्चित होना, मानन्दाथ प्रवाहित करना इत्यादि अनुभाव हैं । हर्ष, गर्व, भावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। (ख) इस काव्य में वत्सल रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला दूसरा स्थल बह है जहाँ बालक वर्धमान अपनी बाल क्रीडानों से सबको प्रसन्न करते हैं : "इङ्गितेन निजस्याथ वर्धयन्मोदवारिधिम् । जगदालादको बालचन्द्रमाः समवर्धत ।। रराण मातुरुत्सङ्गे महोवारविचेष्टितः । क्षीरसागरवेलाया इवाङ के कौस्तुभो मणिः ।। प्रगादपि पितः पार उदयाद्रेरिवांशुमान् । सर्वस्य भूतलस्यायं चिताम्भोज विकासयन् । देवतानां कराने तु गतोऽयं समभावयत् । वल्लीनां पल्लवप्रान्ते विकासि कुसमायितम् ॥ कदाचिच्चेवो भालमलञ्चके तदा स्मितम् । तदध्रिनखरश्मीनां व्याजेनाप्याततान सा ।। यदा समवयस्केषु बानोऽयं समवर्तत । अस्य स्फूतिविभिन्नेव काचेषु मणिवत्तदा ।। समानायुष्कदेवोध-मध्येऽथो बालदेवराट् । कालक्षेां चकारासो रममाणो निजेच्छया ।। दण्डमापद्यते मोही गर्त मेत्य मूहुर्मुहुः ।। महात्माऽनुषभूवेदं वाल्यक्रीडासु तत्परः ।। परप्रयोगतो दृष्टेराच्छादनमुपेयुषः । शिरस्यापात एवं स्यादिगान्ध्यमिति गच्छतः ॥ नवालकप्रसिदस्य बालतामधिगच्छतः । मुक्तामयतयाऽप्यासीत्कबलत्वं न चास्य तु ॥' (तत्पश्चात् अपनी बालसुलभ नाना प्रकार की चेष्टामों रूप क्रियाकलाप से जगत् को पालादित करने वाले वे बालबन्द्रमा रूपी भगवान् हर्षरूपी समुद्र की पति करते हुए स्वयं बढ़ने लगे। महान् उबार चेष्टानों को करने वाले वह माता की गोद में इस प्रकार सुशोभित होते थे जैसे क्षीरसागर की वेला के मध्य भाग में कौस्तुभ मणि सुशोभित होती है । सभी भूतलवासियों के हृदय-कमल को विकसित १. वीरोदय, ८-१६
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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