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________________ २०. महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन मनोहारी अङ्गका वर्णन अवश्य ही करता है । कुछ नहीं तो सूर्योदय या चन्द्रोदय के बहाने ही वह पर्वत-सुषमा का चित्रण कर देता है ; या उसे कोई तीर्थस्थान घोषित करके अपने काव्य के पात्रों को वहां पहुंचा देता है। हमारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में क्रमशः सुमेरु, हिमालय-विजयाई, कांचन और श्रीपुरु इन पांच पर्वतों का यथास्थान वर्णन किया है । सर्वप्रथम देवगिरि सुमेरु का वर्णन आपके समक्ष प्रस्तुत है :सुभर-पर्वत इस पर्वत का उल्लेख कवि ने अपने काव्यों में तीन बार किया है, दो बार बोरोदय में प्रोर एक बार जयोदय में । वीरोदय में सर्वप्रथम जम्बूदीप की स्थिति को बताते समय सुमेरु पर्वत का वर्णन मिलता है। जिसके अनुसार उसे एक लास योजन ऊंचा बताया गया है । सुमेरु पर्वत को स्वर्ण-निर्मित माना गया है, इसलिए कवि का यह कथन है कि सुमेरु पर्वत, पृथिवी को धारण करने वाले शेषनागरूप दण्ड के ऊपर स्थित सुवर्ण-कलश के समान है।' इसके पश्चात् कवि ने सुमेरु-पर्वत का वर्णन भगवान् महावीर के जन्माभिषेक के समय किया है। भगवान महावीर के जन्म के बाद देवगण अभिषेक के उद्देश्य से बालक महावीर को सुमेरु पर्वत पर ले गये। वह सुमेरु पर्वत चारों मोर वनों से घिरा हुमा था; और उसमें जन-समुदाय को छाया देने वाले फलदार वृक्ष थे, इस प्रकार यह पर्वत पुरुषार्थ-चतुष्टय-समन्वित, जनसुखकारी पुरुष के समान शोभायमान था। उस सुर पर्वत पर सोलह जिन-मन्दिर प्रवस्थित थे, जिस प्रकार नीति-चतुष्टय से समन्वित पुरुष जनता पर शासन करता है, उसी प्रकार वह सुमेरु पर्वत अपने चार वनों से सभी पर्वतों के राजा के रूप में विद्यमान था। देवगणों ने जब भगवान् को सुमेरु पर्वत के उच्च शृङ्ग पर मवस्थित किया, तब ऐसा लगता था, मानो किसी के सम्मुख न झुकने वाला सुमेरु पर्वत भगवान् की गरिमा से प्रभावित होकर झुक गया है । १. 'संविद्धि सिद्धि प्रगुणामितस्तु पाथेयमाप्तं यदि वृत्तवस्तु । इतीव यो वक्ति सुराद्रिदम्भोदस्तस्वहस्तांगुलिरङ्गिनम्भोः ।। मधस्थविस्फारिफणीन्द्रदण्डश्छत्रायते वृत्ततयाऽप्यखण्डः । सुदर्शनेऽत्युत्तमशैलदम्भं स्वयं समाप्नोति सुवर्णकुम्भम् ।। . -वीरोदय, २।२-३ २. सुरदन्तिशिरःस्थितोऽभवद् घनसारे स च केशरस्तवः । शारदभ्रसमुच्चयोपरि परिणिष्ठस्तमसां स चाप्यरिः ।। वनराजचतुष्टयेन यः पुरुषार्थस्य समधिना जयन् ।। प्रतिभाति गिरीश्वरः स च सफलच्छायविधि सदाचरन् ।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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