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महाकवि ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन
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प्रत्येक वस्तु पूर्वरूप को छोड़ती हुई नवीन रूप को धारण करती है, किन्तु वह अपने मूलस्वरूप को नहीं छोड़ती। अतः प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय-धौम्य - इन तीन रूपों को धारण करती है ।"
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एक ही वस्तु किसी के लिए प्रपेक्षित मोर किसी के लिए अनपेक्षित होती है । अतः वस्तु में सत् और असत् दोनों गुण पाये जाते हैं । इन दो गुणों की विवक्षा एक ही व्यक्ति नहीं कर सकता। इसलिए प्रस्ति नास्ति के प्रतिक्ति वस्तु में प्रवक्तव्य नामक तीसरा गुण भी पाया जाता है। इस प्रकार (क) प्रस्ति, (ख) नास्ति, (ग) अवक्तव्य, (घ) प्रस्ति नास्ति, (ङ) प्रस्ति - प्रवक्तव्य, (च) नास्तितथ्य के भेद से वस्तु के एक संयोगी, द्विसंयोगी, और त्रिसंयोगी कथन करने से सात धर्म सिद्ध हो जाते हैं। जैन दर्शन में इनको हो सप्तभङ्ग कहा जाता है । प्रत्येक भङ्ग के पूर्व में 'स्यात्' पद जोड़ा जाता है, जब व्यक्ति 'स्यादस्ति' कहता है तब अन्य छः धर्मो का स्थान गोरा हो जाता है और जब व्यक्ति 'स्याद्नास्ति' कहता है, तब 'स्यादस्ति' आदि अन्य छः धर्मो की प्रप्रधानता हो जाती है । अत: विवक्षापूर्वक वस्तु के धर्मों का कथन ही स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद मोर अपेक्षावाद) कहलाता है । इसकी सहायता से हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं ।"
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द्रव्य स्वरूप एवं भेद
जन-दर्शनानुसार श्री ज्ञानसागर का कहना है कि वस्तु में स्थित ध्रुव नामक विशेषता को गुरण कहा जाता है, और उत्पाद तथा व्यय नामक विशेषतानों को पर्याय कहा जाता है। गुरण एवं पर्याय से युक्त वस्तु का नाम ही द्रव्य है । 3 जैनदर्शन ग्रन्थों और ज्ञानसागर के काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता हैं कि कवि ने द्रव्य के भेद इन ग्रन्थों के आधार पर ही किए हैं। उनके अनुसार द्रष्यों के दो प्रकार हैं - सचेतन और प्रचेतन । चेतन द्रव्य ही स्वयं भोक्ता, स्वतन्त्र एवं महत्त्वपूर्ण पदार्थ हैं । चेतन द्रव्य या जीव के चार प्रकार हैं- देव, नारकी, मनुष्य मोर तियंञ्च । इनमें से देव, नारकी और मनुष्य इन तीन जीवों को चर या त्रस जीव कहा जाता है । तिर्यञ्च जीवों की चर एवं प्रचर (स्थावर ) के भेद से दो aff हैं। चर जीव उन्हें कहते हैं, जिनकी एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं
१. वीरोदय, १६।१-३
२. (क) वीरोदय, बुε|४- १७
३.
( क ) 'समुत्पादव्ययघ्रोव्यलक्षणं क्षीरणकल्मषाः । गुणद्रव्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ।।
- जैन धर्मामृत, ८१४ (ख) 'ध्रुवांशमाख्यान्ति गुणेन नाम्ना पर्येति योऽन्यदुद्वितयोक्त धामा । द्रव्यं तदेतद् गुणपर्ययाभ्यां यद्वाऽत्र सामान्यविशेषताभ्याम् ॥' - बीरोदय, १६।१८