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.. . महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन उपर्यस्त महा तों का पालन करने के फलस्वरूप ही व्यक्ति में सत्यवादिता, दया, सदाचार, कर्मठता और निर्लोभता जैसे स्पृहणीय गुण प्रा जाते हैं।
जन-धर्म में ब्रह्मचर्य त को विशेष महत्त्व दिया गया है। भगवान् महावीर एवं सेठ सुदर्शन में यह गुण प्रचुर रूप से दृष्टिगोचर होता है।' इतना ही नहीं कवि श्रीज्ञानसागर ने इन दोनों महापुरुषों के माध्यम से परोपकारपरायणता और सहिष्णुता जैसे अद्भुत गुणों की भी शिक्षा दी है।
जन-धर्म केवल वानप्रस्थियों के लिए ही नहीं, अपितु गृहस्थों के लिए भी उपयोगी है । गृहस्थों को सदाचरण, प्राहार-विहार, अतिथिपूजन, देवपूजन, प्रात्मकल्याण मादि अपेक्षित गुणों की शिक्षा देने में यह धर्म पूर्णतया समर्थ है । यह धर्म व्यक्ति को अन्धविश्वास से भी दूर रहने की शिक्षा देता है।'
___इस प्रकार अपने काव्य के पात्रों के माध्यम से कवि ने इस धर्म की उपयोगिता को सिद्ध करने में विलक्षण सफलता प्राप्त की है। प्रकारान्तर से इस तथ्य का वर्णन इस शोध-प्रबन्ध में भी मन्यत्र हो चुका है, अतः पुनरावृत्ति के भय से यहाँ इसका विस्तृत वर्णन नहीं किया गया है। कवि को दार्शनिक विचारधारा
जैन धर्म के समान ही कवि को जन-दर्शन पर भी पूरी-पूरी मास्था है। उन्होंने अपने काव्यों में साहित्य की गङ्गा के साथ दर्शन की यमुना का भी अद्भुत समन्वय किया है। यहां उनके द्वारा प्रस्तुत जैन-दर्शन से सम्बन्धित तत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत हैस्यादवाव सिद्धान्त
यह जैन-दर्शन का वस्तु के यथार्थस्वरूप को जानने में सहायक परम प्रसिद्ध सिद्धान्त है । सभी जैन-दार्शनिकों ने इसका विस्तृत वर्णन किया है ।।
श्री ज्ञानसागर की भी इस सिद्धान्त के प्रति रुचि है । उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु में प्रक्रियाकारिता होतो है । प्रतः निरर्थक वस्तु का प्रभाव मानना चाहिए। १. (क) वीरोदय, ८।२३.४३
(ख) सुदर्शनोदय, ५२१६, ७।२६, ६।२६ २. (क) वीरोक्य, १८।३३-३६
(स) सुदर्शनोदय, ४१४०-४५
(ग) दयोदयचम्पू, ७१८ ३. (क) अयोदय, २७;६५-६६
(ख) वीरोदय, १५वा सर्ग। (ग) सुदर्शनोदय, ४११४, ४७ (घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, मष्टम सर्ग । (ङ) दयोदयसम्पू, लम्ब १२२२-२४; लम्ब ७वलोक ३७ पोर ३८ के बीच
का गद्यभाग। ४. श्रीमन्माषवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, माहत-दर्शन, पृ० सं० १६६-१७६