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________________ महाकवि -ज्ञानसागर का जीवन-दर्शन ४२१ मुनि श्रीज्ञानसागर इन विधियों का न तो घमं, प्रथं एवं काम की प्राप्ति में उपयोग मानते हैं और न मोक्ष की प्राप्ति में। व्यक्ति की इनमें प्रवृत्ति होना तो बिल्कुल मूर्खता है ।" श्रीज्ञानसागर की दृष्टि में जंन धर्म की उपयोगिता जैनधर्म पर रुचि नहीं प्रास्था है । दिखाई है । कहना न होगा कि कवि श्रीज्ञानसागर की केवल उन्होंने कहीं भी सनातन धर्म या बौद्ध धर्म के प्रति प्रपनी इसका एक कारण तो यह है कि यह प्रास्था उन्हें संस्कार में मिली थी, किन्तु इसका दूसरा विशेष कारण यह भी है कि वास्तव में यह धर्म ग्रन्य धर्मों की अपेक्षा मानवमात्र के लिए उपयोगी है। इसकी उपयोगिता के प्रनेक प्रमाण कवि ने अपने काव्यों में प्रस्तुत किए हैं। यह सिन्दिग्ध है कि इस धर्म की सबसे बड़ी विशेषता सत्य, हिंसा, ब्रह्मचर्य, प्रस्तेय और अपरिग्रह नामक पंच महाव्रत हैं । वैसे तो इन पांचों व्रतों की महिमा सभी धर्मों में मान्य है, किन्तु जैन धर्म में इनका कठोरता से पालन करना आवश्यक है । इस धर्म के अनुसार सत्य महाव्रत का पालन इसलिए प्रावश्यक है कि पुरुष वाणी से पवित्र हो । असत्य वचन बोलकर दूसरों को ठगने वाला व्यक्ति भेद खुलने पर सत्यघोष ब्राह्मण की तरह अवश्य ही दुःखद परिणाम भोगने को बाध्य हो जाता है । हिंसा महाव्रत का पालन हमें प्राणिमात्र के प्रति दया की शिक्षा देता है । क्योंकि प्रत्येक प्राणिमात्र को चोट लगने पर कष्ट की अनुभूति होती है। हिसा करने वाले को यह सोचना चाहिए कि मैं जिनकी हिंसा कर रहा हूँ, उन्हें जो कष्ट हो रहा है, कदाचित् कोई मुझे मारे तो मुझे भी वैसा ही कष्ट सहन करना पड़ेगा । ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन हमें कामुकता से हटने की शिक्षा देता है । इस महाव्रत का पालन करने से निस्सन्देह हो पुरुष का जोवन मर्यादित हो जाता है | फलस्वरूप वह अपना जीवन लोककल्याण में लगा सकता है । प्रस्तेय महाव्रत का पालन हमें कर्मठता सिखाता है। चोरी करने वाला व्यक्ति निष्क्रिय होकर चोरी से लाये पदार्थों पर निर्भर हो जाता है, जबकि प्रस्तेय महाव्रत का पालन करने वाला व्यक्ति श्राजीविकोपार्जन के लिये कुछ न कुछ कार्य प्रवश्य करता है । परिग्रह महाव्रत का पालन पुरुष में निर्भीकता का गुण उत्पन्न कर देता है । इस महाव्रत का पालन हमें सिखाता है कि संसार में कोई भी पदार्थ प्रपना नहीं है, यहाँ तक कि शरीर भी नहीं, अतः किसी वस्तु पर ममता नहीं रखनी चाहिए । १. (क) जयोदय, २८८ (ख) वीरोदय, १५।६१ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४/५
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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