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________________ ६४ महाकवि ज्ञानसागर के काम्य-एक अध्ययन एक कोए को रोता हुआ देखकर जयकुमार सुलोचना के अनिष्ट की माशंका करके मूच्छित हो गया । पुरोहित के वचनों से प्राश्वस्त होकर जयकुमार ने प्रागे चलना प्रारम्भ कर दिया। जैसे ही हाथी एक गढ्ढे के बीच में पहुंचा, वैसे ही जयक मार से द्रोह करने वाली सर्पिणी, जो मरकर कालीदेवी हुई थी, ने सरयू और गंगा नदी के संगम पर मगर का रूप धारण करके जयकुमार के हाथी को पकड़ लिया। हाथो को डूबता हुमा देखकर हेमाङ्गद आदि भी घबराकर उसी गढ्ढे प्रविष्ट होने लगे। पंचनमस्कार मन्त्र का स्मरण करके जिनेन्द्र भगवान् का ध्यान करती हुई सुलोचना भी अपनी सखियों के साथ गंगा नदो में प्रविष्ट होने लगी। गंगा नदी के किनारे रहने वाली गंगा देवी ने सब वृत्तान्त जानकर काली देवी को डांटा और उन सबको किनारे ले आई। वहां उसने एक भवन का निर्माण किया और मणिमय सिंहासन पर बिठाकर सुलोचना का सत्कार किया। जयकमार ने गंगादेवी के विषय में जिज्ञासा प्रकट की। सुलोचना ने बताया कि यह अपने पूर्वजन्म में मुझसे स्नेह रखने वानी, विन्ध्यपुरी के निवासी विन्ध्यकेतु और प्रियंगुश्री की विन्ध्यत्री नाम की पुत्री थी। सर्प के काटने से यह इस रूप को प्राप्त हुई है। जिज्ञासा शान्त हो जाने पर जयकुमार ने गंगादेवी को विदा कर दिया । तत्पश्चात् जयकुमार ने भरतचक्रवर्ती से हुई भेंट वार्ता सुनाकर सबको सन्तुष्ट किया और उनके द्वारा दी गई भेंट सबो दी। दूसरे दिन पुनः यात्रा प्रारम्भ हुई। सुन्दर दृश्यों के वर्णन से सुलोचना को प्रसन्न करते हुए जयकुमार अपनी राजधानी हस्तिनापुर पहुंचे। वहां पुरोहितों, सौभाग्यवती स्त्रियों, मन्त्रियों, सेठों प्रादि सभी ने उन दोनों का स्वागत किया। किसी शुभ दिन में जयकुमार ने उत्सव का आयोजन करके हेमांगद इत्यादि के सामने ही सुलोचना को पटरानी बना दिया। कुछ दिनों बाद हेमांगद इत्यादि काशी वापस चले गये । राजा प्रकमान ने हेमांगदमा राज्याभिषेक करके अपनी पत्नी सुप्रभा एवं अनेक राजामों के साथ भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण कर ली और कैवल्य प्राप्त कर लिया। उधर जयकुमार पौर सुलोचना परस्पर अनुकूल रहते हुए सुख का उपभोग करने लगे (यहाँ पैंतालिसा पर्व समाप्त होता है।) एक दिन महल की छत पर सुलोचना के साथ बैठे हुये बयकुमार ने कृत्रिम हाथी पर बैठे हुए विद्याधर दम्पती को देखा मोर उन्हें देखकर पूर्वजन्म का स्मरण होने से-'हा मेरी प्रभावती'-कहकर मूधित हो गया। सुलोचना भी कपोतयुगल को देखकर पूर्वजन्म का स्मरण होने से-'हा मेरे रतिवर'कहकर मूच्छित हो गई। दोनों ने ही उपचार से चेतना प्राप्त की। जयकुमार ने दुःखी होकर सुलोचना को सान्त्वना दी। इस घटना से श्रीमती, शिवंकरा इत्यादि सपत्नियों की दृष्टि में सुलोचना अपराधिनी बन गई। जयकुमार के कहने
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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