SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के स्रोत ६३ बाँध लिया और उन्हें राजा प्रकम्पन को सौंप दिया। उसने मरे हुए वीरों के दाहसस्कार और घायलों को चिकित्सा का प्रबन्ध किया। इसके बाद वह नगरी में माया। अन्य राजानों के साथ नगर में पहुँचकर बांधे गये राबामों को भी समझाया । तत्पश्चात् नित्यमनोहर चैत्यालय में आकर सबने जिनेन्द्रदेव की स्तुति की (चवालिसा पर्व यहाँ समाप्त हो जाता है।) . जिनेन्द्रदेव की स्तुति के पश्चात् जयकुमार अपने निवासस्थान पर चले गये । महाराज प्रकम्पन ने सुलोचना को उसके महल में भेज दिया। इसके बाद मंत्रियों से परामर्श करके बंधे हुये विद्याधर राजामों को भी मुक्त कर दिया। प्रकीति को समझा बुझाकर उन्होंने जयकुमार और प्रककोति की सन्धि भी करा दी और अपनी प्रक्षमाला नाम की पुत्री का विवाह प्रकीति के साथ कर दिया। अन्य राजामों को भी रत्न, हाथी और घोड़े देकर सम्मानसहित विदा किया। जयकुमार से परामर्श करके अकम्पन ने अपने सुमुख नामक दूत को अपराधमाजन हेतु भरत-चक्रवर्ती के पास भेजा। दूत ने राजा प्रकम्पन की मोर से क्षमायाचना को तो सम्राट भरत ने राजा प्रकम्पन को अपना पूज्य और जयकुमार को अपना सेनापति बताया। सम्राट भरत के प्रशंसात्मक वचनों से सन्तुष्ट होकर सुमुग्व उनसे प्राज्ञा माँगकर राजा अकम्पन के पास पहुँचा और उनके सामने भरत का मन्तव्य प्रकट कर दिया। जयकुमार सलोचना के सान सुख का अनुभव करता हुआ बहुत समय तक अपने श्वसुर के घर रहा। एक दिन अपने मंत्री का पत्र पाकर उसने राजा प्रकम्पन से अपने नगर वापस जाने के लिए अनुमति मांगी। राजा प्रकम्पन ने जयकुमार और सुलोचना को सम्पत्तिवात्सल्यपूर्वक विदा किया। जयकुमार मोर सुलोचना विजया नामक हाथी पर बैठे। जयकुमार अपने भाईयों और सुलोचना के हेमांगद इत्यादि भाईयों के साथ गंगा नदी के किनारे चलने लगे। सायंकाल होने पर उन्होंने गंगा नदी के तट पर ही अपना पड़ाव डाला । सुलोचना के साथ रात्रि बिताकर जयकुमार अपने भाईयों, सुलोचना और उसके हेमांगद इत्यादि भाईयों को वहीं छोड़कर दूसरे दिन अयोध्या पहुंचे। वहाँ अकंकीति इत्यादि ने उनका स्वागत किया। सभागृह में पहुँचकर, एक भव्य सिंहासन पर बैठे हुए राजा भरत को उन्होंने प्रणाम किया। भरत ने जयकुमार को प्रिय वचनों से सन्तुष्ट किया। जयकुमार के विनम्र वचनों को सुनकर सम्राट भरत ने जयकुमार को उनके लिए और सुलोचना के लिए वस्त्राभूषण देकर विदा दिया। सम्राट भरत से विदा लेकर जयकुमार हाथी पर चढ़कर गंगानदी के किनारे पहुँचा । वहाँ पर एक सूखे वक्ष की डाली के अग्रभाग पर स्थित, सूर्य को भोर उन्मुख
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy