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(घ) निर्गमनविधिचक्रबन्ध
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"निर्विण्णस्य जयस्य संसृतिपथः सिद्धि समिच्छो पुनः, गम्भीरां समवाप्य सम्मतिमतः पृच्छांस साक्षात्कविः । मर्मस्पर्शितया प्रबन्धति सतां यं कञ्चिदीशो विधिम्, विष्ण्योत्तानितसङ्गतैः स महितो नमण्यविघ्नो निधिः ॥ "
- जयोदय, २६।१०७
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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन
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प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों के प्रथमाक्षरों को पढ़ने से 'निर्गमनविधि' शब्द बनता है । इस शब्द का तात्पर्य यह निकलता है कि इस सगं में जयकुमार के परिग्रह-स्याग कर नगर से निकलने का वर्णन दिया गया है ।