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महाकवि भानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष दूसरी सर्ग का सारांश देने को । ये सभी चक्रबन्ध वास्तव में 'जयोदय' महासस के सार रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
महाकवि ने अपने 'वीरोदय' नामक महाकाम में गोमूत्रिकाबन्ध, यानबन्ध प्रपनन्ध और तालवन्तबन्ध नामक पार चित्रामङ्कारों का प्रयोग किया है
यहां उन सभी के उदाहरण प्रस्तुत हैं
पोभूत्रिकाबन्ध
"रमयन् गमयंत्वेष वाङ्मये समयं मनः । न मनागनयं द्वेष पाम वा समयं जनः ॥"
-वीरोदय; २२०
लोक से गोमूत्रिकाबन्ध बनाने की विधि यह है कि इसमें श्लोक की प्रथम पंक्ति के पहले, तीसरे, पांचवे, सातवें, नवे इत्यादि विषम प्रारों को चित्र की प्रथम पंक्ति में रखा जाता है और इसी प्रकार श्लोक की द्वितीय पंक्ति के पहले, तीसरे, पांचवे, सातवें, नवें इत्यादि विषम प्रक्षरों को चित्र की तीसरी पंक्ति में रखा जाता है और दोनों पंक्तियों के बीच के दूसरे, चौथे, छठे, पाठवें इत्यादि बम प्रमरों को क्रमशः द्वितीय पंक्ति में रखा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोक का एक अक्षर लेकर, एक प्रक्षर छोड़ा जाता है। लिए हुए मक्षरों से प्रथम भौर तृतीय पंक्ति बन जाती है; मोर छोड़े गये प्रक्षरों से द्वितीय पंक्ति बन बाती है । इस बन्ध में लिखित श्लोक की विशेषता यह होती है कि दूसरे, चौथे पादि सम प्रक्षर दोनों पंक्तियों में एक ही होते हैं। प्रतः इस बन्ध में निबद्ध लोक को पढ़ते समय एक प्रक्षर तृतीय पंक्ति का और एक अक्षर द्वितीय पंक्ति का लेना होगा जैसा कि उपर्युक्त चित्र में है।