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महाकविज्ञानसागर के संस्कृत-प्रम्यों में कलापक्ष
कलशबन्ध
"परमागमलम्बेन नवेन सन्नयं लप । यन्न सम्नरमङ्गं मां नयेदिति न मे मतिः ।। "
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- सुदर्शनोदय, ९॥७९
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इस बन्ध में इलोक का प्रारम्भ कलश की प्राधारशिला से होता है। तत्पश्चात् श्लोक को कलश के ठीक बीच में दायीं घोर पढ़ते हुये शीर्षस्थान तक ले जाया जाता है। पुनः ठीक बीच के बायीं प्रोर से पढ़कर पुनः प्राधारशिला पर पहुंचकर फिर बीच में मोर तत्पश्चात् कलश के बाहरी भाग में पढ़ा जाता है, जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में है ।