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________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन प्रस्तुत श्लोकों में विजयाधं श्राधी विजय को देने में समर्थ हैं, अतः पर्वत की 'विजयार्द्ध' यह संज्ञा (विशेष्य) साभिप्राय होने से परिकरांकुर लंकार है । ३२८ संसृष्टि प्रलङ्कार 'सेण्टा संसृष्टिरेतेषां भेदेन यदिह स्थितिः । - काव्यप्रकाश १०।१३६ श्रीज्ञानसागर के काव्यों में संसृष्टि अलंकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हो जाते हैं । इसका कारण यह है कि कवि की कविता प्राय: प्रनुप्रास बलंकार से प्रलंकृत है । धनुप्रास के साथ ही साथ अन्य प्रलंकार भी निरपेक्ष रूप से स्थित हैं । हम उनके काव्यों में शब्दालंकारों, प्रर्थालंकारों मोर शब्दार्थालंकारों की इस प्रकार से तीनों प्रकार की, संसृष्टि के उदाहरण प्राप्त करते हैं। यहाँ कवि की इस क्षमताको द्योतित करने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं "मृगीशश्चापलता स्वयं या, स्मरेण सा चापलताऽपि रम्या । मनो बहाराङ्गभूतः भणेन मनोजहाराऽय निजेक्षणेन ॥' -- — वीरोदय, ३।२५ प्रस्तुत श्लोक में अन्त्यानुप्रास और यमक की संसृष्टि स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रही है । प्रतः यहाँ पर शब्दालंकारों की संसृष्टि है । दूसरा उदाहरण शब्दार्थालंकारसंसृष्टि का है 1"नमंल्यमेति किल धौतमिवाम्बरन्तु स्नाता इवात्र सकला हरितो भवन्तु । प्राग्भूभूतस्तिलकवद्रविराविभाति चन्द्रस्तु चोरवदुदास इतः प्रयाति ॥ " -जयोदय, १८/६३ ( प्रातःकाल का सुन्दर वर्णन है :- प्राकाश निर्मल होने के कारण घुला हुम्रा सा प्रतीत होता है । दिशाओंों को देखकर ऐसा लगता है मानों उन्होंने स्नान कर लिया हो, सूर्य प्राची दिशा के राजा के तिलक के समान प्रकट हो रहा है और चन्द्रमा चोर की भाँति उदास होकर प्राकाश से प्रस्थान कर रहा है ।) प्रस्तुत श्लोक की प्रथम दो पंक्तियों में उत्प्रेक्षा भोर द्वितीय दो पंक्तियों में उपमा अलंकार निरपेक्ष रूप से विद्यमान है, साथ ही अन्त्यानुप्रास की छटा भी स्पष्ट ही दृष्टिगोचर हो रही है । भ्रतः एक ही स्थल पर दो प्रर्थालंकार और एक userine की निरपेक्ष स्थिति होने के कारण संसृष्टि नामक अलंकार है । सङ्कर पलङ्कार "प्रङ्गाङ्गित्वेऽलक कृतीनां तद्वदेकाश्रयस्थिती । सन्दिग्धत्वे च भवति सङ करस्त्रिविधः पुनः ॥ - साहित्यदर्पण, १०६८
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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