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महाकवि मानसागर के काम्य-एक अन्वयन मसन्तप्तान्तरङ्गोऽपि तपसि प्रणिधि पतः। न त्यागमहितोऽप्यासीत्यक्ताशेषपरिग्रहः ॥ संगीतगुणसंस्थोऽपि सन्नकिंचनरागवान् । वर्णनातीतमाहात्म्यो वरिणतोचितसंस्थितिः॥ श्रीयुक्तदशधर्मोऽपि नवनीताधिकारवान् । तत्त्वस्थितिप्रकाशाय स्वात्मनकायितोऽप्यभूव ॥ (ख) बोरोदय में वरिणत शान्तरस
बीरोदय महाकाव्य तो प्रायोपान्त शान्तरस प्रधान महाकाव्य है। इस काग्य के नायक भगवान महावीर के हृदय में स्थित शम नामक स्थायीभाव विशिष्ट वातावरण में प्रबुद्ध होकर शान्त रस का रूप धारण कर लेता है। मणमगुर संसार इस रस का मालम्बन-विभाव है। और लोगों की स्वार्थपरता, धर्मान्धता इत्यादि उद्दीपन विभाव हैं । त्याग की इच्छा, तपश्चरण की मोर उन्मुख होना इत्यादि अनुभाव हैं । निर्वेद, स्मृति, इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । वीरोदय महाकाव्य के शान्तरस के कुछ उद्धरण प्रापके सम्मुख प्रस्तुत हैं :
(क) भगवान महावीर विवाह का विरोध करते हुए अपने पिता को समझाते हैं:
"पुरापि श्रूयते पुत्री ब्राह्मी वा सुगरी पुरोः । मनूचानस्वमापन्ना स्त्रीषु शस्यतमा मता ॥ उपान्त्योऽपि जिनो बालब्रह्मचारी जगन्मतः । पाण्डवानां यथा भीष्मपितामह इति श्रुतः ।। अन्येऽपि बहवो जाताः कुमारश्रमणा नराः । सर्वेष्वपि जयेष्वग्रगतः काम नयो यतः ।। + +
+ राज्यमेतदनाय कोरवाणामभूदहो।। तथा भरतन्दोःशक्त्योः प्रपंचाय महात्मनोः ।। राज्यं भुवि स्थिरं वासोत्प्रजायाः मनसीत्यतः । शाश्वतं राज्यमध्येतुं प्रयते पूर्णरूपतः ॥""
उपर्युक्त श्लोकों में जगत को निस्सारता रूप मालम्बन का वर्णन हमा है, भीष्म पितामह, कोरव भरत-वाहुवली के वृत्तान्त उद्दीपन विभाव है। मति म यभिचारिभाव है। यहाँ शान्तरस की स्पष्ट अभिव्यञ्जना है।
१. जयोदय, २८॥३५-४० २. वीरोदय, ३६.४५