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________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन प्रिय से मिलन की उत्सुक, स्त्रियों के कटाक्षरूपी बारणों से पीटा गया यह लाल सूर्य मानों कमलों के समीप पहुंच गया है । महान् लोग सुख और दुःख में एक सा भाव धारण करते हैं, इसी प्रकार सूर्य भी उदय होते समय और मस्त होते समय रक्तवर्ण वाला ही होता है । सूर्य के प्रस्त होने पर उसके साथ- साथ दिवस भी प्रवसान को प्राप्त हो रहा है, जो निर्मल स्वभाव वाले लोग होते हैं, वे ही कृतज्ञता को धारण करते हैं । इस समय पश्चिम दिशा की कान्ति मूंगे की शोभा को हरण करने वाली है भ्रमर कमलों के अन्दर ही बन्द हो गये हैं । सूर्य प्रस्ताचल को जा रहा है, चन्द्रमा का उदय हो रहा है, इन दोनों को देखकर ऐसा लगता है, मानों कामदेव अपने दोनों नेत्रों को लाल करके, पथिक जनों पर . रोष प्रकट कर रहा है । X X X दिन की समाप्ति पर सूर्य का प्रभाव ब्याकुल हो गया है औौर चन्द्रमा भी नहीं दिखाई दे रहा है, इसलिए मनुष्यों के नेत्र हो रहे हैं । पक्षिरण अपने- अपने घोसलों का आश्रय ले रहे हैं । । रक्तवर्ण सूर्य को देखकर ऐसा लगता है, मानों दिनभर मदिरा का पान करने से उसका शरीर लाल हो गया है, और किसी मद्यप की भाँति उन्मत्त होकर वह अब गिरना ही चाहता है । X X इस समय सूर्य पश्चिमी समुद्र में जा रहा है, उन्मत्त भ्रमर कमलों के उदरों में जा रहे हैं। पक्षी अपने घोसलों में जा रहे है, और कामदेव घोरे चलने वाली स्त्रियों की ओर जा रहा है । १ X २२२ रात्रि-वर्णन - कविवर ज्ञानसागर की रचनाओं में रात्रिवर्णन दो बार दयोदयचम्पू में, एक बार सुदर्शनोदय में श्रीर दो बार जयोदय में, इस प्रकार से पांच बार किया गया है । दयोदय - चम्पू में रात्रि वर्णन से सम्बन्धित सर्वप्रथम वह स्थल आपके समक्ष प्रस्तुत है जब घण्टा धीवरी ने अपने पति मृगसेन को क्रोध में श्राकर घर से बाहर निकाल दिया था : जिस प्रकार दुर्व्यसन करने वाले लोगों के मन में अन्धकार रहता है, उसी प्रकार यह रात्रि भी अन्धकार से परिपूर्ण है । चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतों के समान रात्रि में भूत-पिशाच क्रियाशील हैं । जिस प्रकार घने जंगल में जन-संचार नहीं होता उसी प्रकार रात्रि में भी जन-संचार रुक गया है। सांख्य दर्शन में मान्य सांस्याचार्य, उलूक तनय की ध्वनि के समान, उल्लू की ध्वनि सुनाई दे रही है । बौद्धमतावलम्बियों की प्रमारणवार्ता के समान, रात्रि में भी कररणीय प्रोर अकरणीय का विचार नहीं हो पाता । विनियोग-प्रथा के समान डाकुद्मों को उत्साहित करने वाली रात्रि का रूप भयंकर पिशाचिनी के समान है। जिस प्रकार पिशाचिनी प्रपने गले में हड्डियों की माला को धारण करती है, उसी प्रकार यह रात्रि तारों को १. जयोदय, १४।१-२४
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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