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महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन - कौशल
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धारण कर रही है । पिशाचिनी के हाथ में खप्पर होता है, रात्रि में प्राकाश: . में चन्द्रमा है | भूखी पिशाचिनी जैसे भिक्षा मांगने जाती है, उसी प्रकार यह रात्रि सारे संसार में व्याप्त हो गई है । '
रात्रि वर्णन का दूसरा प्रसङ्ग तब मिलता है, जब गुरणपाल की प्राज्ञा से चाण्डाल सोमदत्त को मारने का प्राश्वासन देता है । पर इस स्थल पर कवि ने रात्रि का उल्लेख मात्र ही किया है । 2
सुदर्शनोदय में रात्रि वर्णन वहाँ मिलता है, जहाँ श्रभयमती रानी की पण्डितादासी रानी की आज्ञा से सुदर्शन को श्मशान में से ले आने के लिए जाती है
कलिकालरूपिणी, अन्धकारप्रसारिणी रात्रि का भागमन हुआ, जिसमें ज्ञानी महर्षि रूपी सूर्य का अस्तित्व समाप्त हो गया । कमल मुरझा गए हैं और उन पर भौंरे भी नहीं मंडरा रहे हैं। पक्षिगण संचरण - विहरण बन्द करके वृक्षों में निष्क्रिय होकर बैठे हैं। चोरी, डकैती, भय इत्यादि में वृद्धि हो रही है। प्रन्धकार के कारण पथिक को मार्ग दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है । अन्धकार के विनाशक चन्द्रमा का गगन - मण्डल में प्रादुर्भाव हो गया है । कृष्णपक्ष की ऐसी, कलियुग के समान भयंकर अन्धकार से परिपूर्ण उस रात्रि में वह पण्डिता दासी श्मशान भूमि में गई ।
जयोदय में जिस समय जयकुमार सुलोचना के साथ गङ्गा नदी के तट पर रुकते हैं, उस समय से सम्बन्धित रात्रि का वर्णन कवि ने प्रत्यधिक विस्तार से किया है । कवि के इस रात्रि-वन के कुछ मनोहारी उद्धरण प्रस्तुत हैं
(अ) 'मित्रं समुद्रस्य च पूर्वशैलशृङ्ग तु सोमः कलशायतेऽलम् । सिहीसुतस्याप्यरदेव पन्तु सुधांशुबिम्बस्य पदानि सन्तु ।'
(जयोदय, १५।१५)
( अर्थात् समुद्र का मित्र चन्द्रमा, उदयाचल की चोटी के ऊपर स्थित कलश के समान लग रहा है । उस चन्द्रमा का बिम्ब ऐसा लगता है, मानों राहु के दांतों का घाव हो ।)
(ब) "रामोऽपि राजा हृतवानिदानीं तारावराजीवनकृद्विधानी ।
-निशाचरं सन्तमसं विशाल: सलक्ष्मणोऽसौ फरवालजालः ॥' (जयोदय, १५/७३)
(इस समय तारा के पति बालि के जीवन का विधान करने वाले, लक्ष्मण हित राम रूपी, तारागणों का विधान करने वाले, कलंक से सुशोभित चन्द्रमा ने,
१. दयोदय, २ श्लोक ३१ से पहले का गद्यभाग एवं श्लोक ३१
२.
दयोदय, ३ श्लोक ७ के बाद दूसरा गद्यभाग ।
३. सुदर्शनोदय, ७ गीत सं० ३