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महाकवि मालसागर के संस्कृत ग्रन्थों में कलापक्ष
३२१ वैसे तो कवि ने अपनी कृतियों में पोर भी अनेक सुन्दर-सुन्दर उपमाएं प्रयुक्त को हैं, किन्तु उन सबको उक्त करना और उनका स्पष्टीकरण करना सोपप्रबन्ध की वृद्धि के भय से यहां पर संभव नहीं, फिर उपमा के उपर्युक्त उदाहरण कवि की उपमाप्रियता के द्योतक हैं हो। प्रतः अब अन्य अलङ्कारों के उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे। उत्प्रेक्षा'सम्भावना स्यादुत्प्रेक्षा ।'
-कुवलयानन्द, ३२ कवि द्वारा प्रयुक्त प्रर्यालङ्कारों में उत्प्रेक्षा मलद्वार का द्वितीय स्थान है । कवि के काम्यों के परिशीलन से लगता है कि उसके काम्यों में मात्रा को दृष्टि से भले ही उपमा का स्थान हो, किन्तु चमत्कार को रष्टि से उत्प्रेक्षा ही अलकारों में सर्वोपरि है । प्रस्तुत हैं, उत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण- सुलोचना के सुन्दर हाव के सम्बन्ध में कवि की उद्भावना देखिये
"समुत्कीर्य करावस्या विधिना विधिवेदिना। तच्छेषांक्षः कृतान्येवं परजानीति सिध्यति ।"
-जयोदय, २४५ (सुलोचना के हाथों को देखकर यह सिद्ध हो जाता है कि विधाता मे सुलोचना के हावों का निर्माण करने से बची हुई सामग्री से ही कमलों की रचना की है।) उत्प्रेक्षा के माध्यम से सायंकाल की शोभा का अवलोकन कीजिए--
'वेरको बिम्बमितोऽस्तगामि उदेष्यवेतन्यशिनोऽपि नामि।। समस्ति पाग्येषु रुषाः निषिक्तं रतीश्वरस्याक्षियुगं हि रक्तम् ॥"
-जयोदय, १५३१० (सब सूर्य का बिम्ब अस्ताचलगामी हो रहा था और चनमा उसब होने पा रहा पा । पस्त होता हुपा सूर्य और उदित होता हुमा पनामा-ये दोनों ऐसे लगते मानों पविक बनों पर रोष के कारण लालिमा को प्राप्त कामदेव के नेत्र ही हों।)
मस्त होते हुये सूर्य को सालिमा और उदित होते हुये चनामा को नानिमा को ध्यान में रखकर कवि ने उक्त हेतप्रेमा की है। कामदेव के नेत्रों को सपना के उपमानस्स में प्रस्तुत कर दिया है।
राजा सिद्धार्थ की समृद्धिमालिता और यशस्विता के सम्बन्ध में कवि की उस्प्रेक्षा देखिये