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उपलब्ध हुए हैं। महाकवि ज्ञानसागर ने न केवल संस्कृतभाषा में ही, प्रपितु हिन्दी भाषा में भी अपनी कल्याणी काव्यकला का कमनीय परिचय दिया है । इस प्रकार प्राप मानवजाति के कल्याणहेतु प्रजीवन साहित्यसाधना में लगे रहे; भीर अन्त में प्राप दिनाङ्क एक जून सन् उन्नीस सौ तेहत्तर ईशवीय को नसीराबाद में सदा के लिए समाधिष्ट हो गए ।
मानवसमाज का कल्यारण करने में महाकवि ज्ञानसागर की काव्यसम्पत्ति महाकवि प्रश्वषोष की काव्यसम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवती है । क्योंकि महाकवि ज्ञानसागर ने भारतीय मनीषाप्रसूत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह नामक पाँचों ही सार्वभौम महाव्रतों के परिपालन की सत्प्रेरणा देने की इच्छा से एक चम्पूकाव्य प्रोर चार महाकाव्यों की सरस सर्जना करके मानवसमाज को संयमपूर्वक अपना जीवन बिताने का सर्वाङ्गीण सन्देश दिया है । उनके दयोदयचम्पू के नायक का जीवन पाठकों के मनःपटल पर हिंसा की छवि बनाता है; समुद्रदत्तचरित्र का नाटक सत्य और स्तेय की समुचित शिक्षा देता है; वीरोदय के नायक श्रीमहावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के प्रति प्रास्था जगाते हैं; जयोदय का नायक अपरिग्रह के महत्त्व को अभिव्यक्त करता है; प्रौर सुदर्शनोदय के नायक के जीवन में आने वाले घातप्रतिघात इन उपर्युक्त जीवनोपयोगी सभी महाव्रतों (संयमों) के पालन की शिक्षा के साथ ही . साथ अपने व्यक्तित्व की पवित्रता की घीरतापूर्वक रक्षा करते रहने का प्रभविष्णु सन्देश देते हैं । उल्लेखनीय है कि महाकवि ज्ञानसागर प्राजीवन ब्रह्मचर्य महाव्रत के समानान्तर पर गृहस्थ जीवन के लिए परमोपयोगी परदारविरति को भी नैष्ठिक ब्रह्मचर्यं महाव्रत के ही समान मानते हैं। समाज के शाश्वत हितहेतु उनकी यह विचारधारा निश्चय ही उनकी स्वतन्त्र मनीषा एवं दार्शनिक क्रान्ति की परिचायिका है । फलस्वरूप महाकवि ज्ञानसागर के ये काव्य समवेतरूप में मानव समाज का समग्र कल्याण करने में, अभी तक अनुपम ही हैं । इसके अलावा साहित्यिक दृष्टि से भी ये काव्य कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष के काव्यों से प्रतिस्पर्धा सी करते हुए प्रतीत होते हैं । कथावस्तु, चरित्रचित्रण, भावपक्ष, कलापक्ष, वर्णन विधान, परिवेश प्रादि की दृष्टि से भी ये काव्य प्रतीव सजीव घोर सहृदयहृदयाह्लादकारी हैं। इनसे संस्कृतसाहित्य की प्रभूतपूर्व श्रीवृद्धि हुई हैं, यह कहने में कोई प्रत्युक्ति नहीं होगी ।
मेघा, मनीषा, प्रतिभा, लोकंषणा भीर संयम से घनी महाकवि ज्ञानसागर के उपर्युक्त संस्कृत काव्यों की सविधि सर्वाङ्गीण समीक्षा भी परमावश्यक थी । क्योंकि स्वर्ण को जब तक कसौटी पर नहीं कसा जाता, तब तक उसकी वास्तविकता सन्दिग्ध ही रहती है । इसी प्रकार चन्दन को जब तक घिसकर नहीं परखा जाता, तब तक उसकी सुगन्धि पर सम्देह बना ही रहता है। इसी कारण से मेरी यह