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________________ (vi) अपने परिवेश में पाने वाले लोगों के जीवन को भी सुख-शान्तिमय बनाता हुमा सबका वन्दनीय बन जाता है। काश ! भारतीय मनीषियों द्वारा समुपदिष्ट संयमित जीवन के इन तत्त्वों पर मानवसमाज ने ध्यान दिया होता। इनके प्रयोग के परिणामों का प्रचार-प्रसार किया होता। इनका अधिकाधिक पालन किया होता। मेरा विश्वास है कि तब निश्चय ही भारतीय मानवसमाज एवं विश्व मानव समाज में राष्ट्राध्यक्षों के प्रयत्नों के बावजूद भी लोगों में हत्या करने कराने की होड़ नहीं लगती; सचाई का दिवाला नहीं निकलता; चोर-बाजारी का तथा चोरियों पर कैतियों का बोलबाला नहीं होता; किसी की अमानत में कोई खयानत नहीं होती; प्रबलामों का शीलहरण नहीं होता; मोर जमाखोरी करने वालों की जाति ऊंची नहीं होती। यही कारण है कि माज मानव का जीवन संघर्ष का पर्याय बन चुका है; और उसे कहीं भी भणमात्र के लिए भी पार्यन्तिक सुख-शान्ति का अनुभव नहीं हो पा . मानवसमाज की इस प्रवाञ्छनीय दशा से कलावादी साहित्यकार भले ही प्रभावित न हो, क्योंकि वह 'कला' की उपासना 'कला के लिए' करता है। किन्तु जो साहित्यकार 'कला' की उपासना 'जीवन के लिए' करता है, वह तो निश्चय ही इससे प्रभावित होता है; और अपनी काव्यकला के माध्यम से मानवजीवन की इस उपर्युक्त प्रवाञ्छनीय दशा में सुधार लाने का प्रयत्न भी करता है। उसके इस साहित्यिक अनुष्ठान में उसकी व्यक्तिगत राष्ट्रीयता, जाति, जीविका, धर्म, दर्शन प्रादि कुछ भी बाधा नहीं पहुंचाते हैं। क्योंकि वह जानता है कि मानवता से बढ़कर कुछ भी संरक्षणीय नहीं है। इसीलिए बह कान्तासम्मित अपने साहित्यिक सन्देशों से 'मानवमात्र के कल्याण की कामना करने में मग बाता है। ऐसे ही मानवतावादी, सुधारवादी, संवेदनशील साहित्यकारो में महाकवि ज्ञानसागर का नाम, पब तक की उपलब्ध प्रकाशित साहित्यिक सम्पत्ति के पाषार पर निश्चय हो कनिष्ठिकाधिष्ठित है। प्रापका जन्म राजस्थान प्रान्त के सोकर नामक जनपद में राणोली नामक एक ग्राम में सन् १८९२ ईशवीय में हुमाया। पापके पिता का नाम सेठ श्रीचतुर्भुज खण्डेलवाल और माता का नाम तबरी देवी था। इनके अतिरिक्त इनके पांच भाई थे जिनमें एक तो पैदा होने के कुछ ही क्षण बाद कालकलित हो गया था। यह प्राजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे पोर संस्कृत वाङ्मय, जैनधर्म तथा जैनदर्शन का विधिवत् अनुशीलन-परिशीलन एवं प्रचारप्रसार करते रहे। यह प्रात्मकल्याणहेतु अपनी माध्यात्मिक साधना के साथ ही साथ मानवसमाज का भी कल्याण करने की कामना से साहितिक साधना भी अनवरत करते रहे; जिसके फलस्वरूप प्राज के मानवसमाज को खोवचम्म, समुद्रस्तपरिण, बीरोश्य, जबोदय और सुदर्शनोपय से पांच संसावकायान्य
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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