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भूमिका
लेखक-डॉ० हरिनारायण दीक्षित एम० ए०, पी-एच. डी०, गे० लिट्, व्याकरणाचार्य, साहित्याचार्य, सांख्ययोगाचार्य, रीडर तथा अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, कुमायूं विश्वविद्यालय,
नैनीताल (यू०पी०) मानवजीवन को सुख-शान्तिमय बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने बहिसा. सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह नामक पांच महाव्रतों के परिपालन का उपदेष दिया है। चूंकि मानवजीवन के लिए परमोपयोगी तथा परमावश्यक संयम का सार-सर्वस्व इन्हीं महाव्रतों मे समाया हुमा है और ये किसी भी देश और किसी भी काल की सीमा से बंधे हुए नहीं हैं, प्रतः विश्व के किसी भी देश और किसी भी समय का कोई भी मानव इन महाव्रतों का पालन करके अपने जीवन को स्पृहणीय एवं लोकप्रिय बना सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। किन्तु ध्यातव्य है कि इन महाव्रतों का परिपालन बिना किसी प्रतिबन्ध (शत) के किया जाना चाहिए; पोर न केवल कर्म से ही, अपितु वाणी तथा मन से भी किया जाना चाहिए; तभी ये शतप्रतिशत फलदायक होते हैं। तत्त्वद्रष्टामों का अनुभव रहा है कि सम्पूर्णनिष्ठा के साथ इन महाव्रतों का पालन करने वाले मनुष्य से विश्व का कोई भी प्राणी, कोई भी जीव-जन्तु, यहाँ तक कि प्रकृति भी, वैरभाव नहीं रखता है। उससे कोई भी किसी भी प्रकार का द्रोह, द्वेष, ईर्ष्याभाव, मसूयाभाव मादि जैसा कोई भी दुर्भाव नहीं रखता है। सभी उसके मन, वचन पौर कार्यों की पवित्रता पर विश्वास रखते हैं। पर्थ उसकी वाणी से निकले हुए वाक्यों का अनुगमन करते हैं; उसके योग-क्षेम के लिए सारा समाज जागरूक हो उठता है। उसके उपयोग में माने वाली किसी भी वस्तु का उसे प्रभाव नहीं रहता है। उसके शरीर में, उसके वचनों में और उसके मन में एक अद्भुत शक्ति, एक मादरणीय भाकर्षण तथा एक विलक्षण प्रात्मबल का उदय हो जाता है; जिससे वह अनुपम गुणों का मामय बन जाता है और उसके उपदेशों में उसके विचारों की विपक्षण संवाहकता पर कर लेती है। वह त्रिकालज्ञ हो जाता है; दूरदर्शी हो जाता है; उसे अपना प्रतीत, अपना बर्तमान मौर अपना भविष्य स्पष्ट हो जाता है । इस प्रकार वह अपने संयमित जीवन से स्वयं सुख-शान्तिपूर्वक रहता हुमा