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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन ६-नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, वन, चन्द्रोदय, चन्द्रास्त, मूर्योदय. मर्यान, सन्ध्या,
रात्रि, प्रदोष. अन्धकार, दिन, मध्याह्न, जनक्राडा. मधुरा प्रमात्मव, मगया, वियोग, प्रेम, विवाह, कुमारोत्पत्ति, संवाद, दूना भर पर, मगया,
नायकाभ्युदय, मुनि यज्ञ इत्यादि का यथावगर मुन्दर यान । गहिये। ७-शृङ्गार. वीर पोर शान्त रसों में से कोई एक रम (प्रय न) होना
चाहिए, और शेष रस उस प्रङ्गी रस के प्रङ्ग (महामा) ना । ८-नाटक के ही समान पंचसन्धियों (मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श, उपगढति) का
समावेश होना चाहिए। ६-प्रायः पूरे सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिये, पर सगं के अन्त में
छन्द अवश्य बदल जाना चाहिए। १.-प्रत्येक सर्ग के अन्त में अग्रिम सर्ग में प्राने वाली कथा को सूचना होनी
चाहिये। ११-सर्ग का नामकरण उस सर्ग में वर्णित कथा के प्राधार पर करना चाहिये । १२-काव्य को लोकरंजक एवं उत्तम अलंकारों से अलंकृत होना चाहिए। १३-दुष्टों की निन्दा पौर सज्जनों की प्रशंसा होनी चाहिए । १४-महाकाव्य को मनोहर बनाने के लिए प्रावश्यक है कि नायक के गुणों का
वर्णन करने के पश्चात् उसके द्वारा उसके शत्रुनों को पराजय का वर्णन हो। साथ ही शत्र के भी वंश और पराक्रम का वर्णन करना चाहिए, ताकि यह सिर हो जाय कि नायक अपने से हीन व्यक्ति को नहीं, अपितु अपने समान
ही बलशाली व्यक्ति को हराने में समर्थ है। ११-महाकाव्य का नामकरण कवि, कथावस्तु, नायक या अन्य किसी आधार पर
किया जाना चाहिये ।'
महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षणों में से यदि कोई लक्षण महाकाव्य में न घटे, पर उसका प्रतिपाद्य अच्छा हो, उसका वर्णन सहृदय को सहज ही प्राकष्ट कर सके तो भी ऐसे काम्य को महाकाव्य की संज्ञा दैना उचित ही होगा।
___ जयोदय के अनुशीलन से यह स्पष्ट हुमा है कि महाकाव्य की ये सभी विशेषतायें उसमें पाई जाती हैं, विवरण इस प्रकार है। १. जयोदय की कथावस्तु २८ सों में निबद्ध है।
१. (क) भामह, काव्यालकार ११६-२३
(ख) दण्डी, काव्यादर्श, १११४-१६
(1) विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, ६।३१५ के उत्तरार्ध से ३२५ के पूर्वार्ध तक । २. रडी, काम्यावशं, ११२०-२२