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________________ महाकवि मानसागर का वर्णन-कौशल २४३ करते हैं। कवि ने इस गोष्ठी का प्रत्यधिक स्वाभाविक वर्णन किया है, उसका संक्षिप्तीकृत रूप प्रस्तुत है : रात्रि में स्त्री-पुरुषों ने मधुर वार्तालाप सहित मद्यपान किया। उन्मत्त. होकर सभी स्त्री-पुरुष काम-चेष्टायें करने लगे। मदिरा पीने के कारण उन्मत्त पति सपत्नियों का नाम लेने लगे; इस समस्या को दूर करने के लिए पत्नियां अपने पतियों को मोर भी मदिरा पिलाने लगीं। मद्य पीकर पुरुष अपनी स्त्रियों के मुखकमल को निरन्तर निहारने लगे। मद्य पीकर पुरुष खाली पात्रों को इधर-उधर छोड़ने लगे। मख का पात्र छोड़ने वाली स्त्रियों के अधरों का उनके चतुर पति पान करने लगे। मद के कारण स्त्री-पुरुषों के नेत्र कोकनद की शोभा धारण करने लगे। उन्मत्त पुरुष अपनी स्त्रियों से यथार्थ वचन कहने लगे। x x x मदिरा वश में होकर स्खलित वाणी में पोर अधिक मदिरा की याचना करने लगे। सभी स्त्री-पुरुष हास-परिहास में संलग्न होने लगे। एक स्त्री दूसरी स्त्री को नेत्र बोलकर उसके प्रिय का दर्शन करने का उपदेश देने लगी। कोई स्त्री अपनी सखी के रोष को दूर करने का प्रयत्न करने लगी। पति अपनी स्त्रियों से प्रणय-निवेदन करने लगे। विरहिणी स्त्रियां पीड़ा का अनुभव करने लगी। स्त्रियाँ पुनः पुनः मान का अभिनय करने लगीं। + + x इस प्रकार मद्यपान करके स्त्री-पुरुषों ने परमसुख एवं लालसा का अनुभव किया ।' (ङ) सारांश महाकवि ज्ञानसागर की रचनाओं में पाए हुए पदार्थों के वर्णन के परिशीलन से उनकी वर्णन-कला-कुशलता का ज्ञान पाठकों को भी हो जाएगा। कवि ने प्रायः दष्टिगोचर होने वाले सभी पदार्थों का वर्णन अपने काव्यों में किया है। उनके काव्यों में इन वर्णनों को दोहराया भी नहीं गया है। अतः एक ही स्थान पर होने के कारण उनका मानन्द लेने में पाठक ऊबता नहीं, यदि कहीं इन वर्णनों को एक से अधिक बार किया भी गया है, तो प्रावश्यकतानुसार। श्री ज्ञानसागर का प्रकृति-वर्णन प्राय: प्रतीकात्मक है। उन्होंने अपने काम्य में प्रकृति-वर्णन स्वयं को सुकुमार कवि सिद्ध करने के लिए नहीं किया है, अपितु प्रसङ्गवश किया है । जैसे उनका पर्वत-वर्णन पाठक को कहीं न कहीं ले ही जाता है-जिनदर्शन के लिए या, मुनिदर्शन के लिए i. इसी प्रकार उनका समुद्र-वर्णन वीर भगवान् की ही महिमा का उद्घोष करता है। कवि ने अपने काव्यों में ऋतु-वर्णन (छह-ऋतुमों का) एक एक बार किया है । सम्भवतः कवि ने ऋतु-वर्णन पुनः इसलिए नहीं किया क्योंकि प्रत्येक विशिष्टता का वर्णन वह अपने ऋतु-वर्णन में उसी ही स्थल पर कर गए हैं। उनका शरद्वर्णन मोर बसन्त-वर्णन वास्तव में पाठक को लुभाने वाला है। १. जयोदय, १६वा सर्ग,
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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