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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष प्रति जरा भी ममता नहीं रह गई थी । म्रतः उसने इस पृथ्वी के प्रमङ्कारस्वरूप - मुनीश्वर के पास जाकर देगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली। मनोरमा ने भी छाया के समान उसका अनुकरण किया, और सुदर्शन के समान ही समस्त विधानों का सम्पादन किया। उन्हीं मुनिराज के वचनों को प्रमाण मानकर उसने अपने नारी जन्म को सार्थक किया । समस्त परिग्रह को छोड़कर उसने केवल एक श्वेत वस्त्र धारण करते हुए प्रायिका व्रत को धारण किया क्योंकि स्त्रियों के दिगम्बरत्व का निषेध है । यहाँ पर संसार की निःसारता श्रालम्बन-विभाव है । राजा-रानी का व्यवहार, मनोरमा की प्रेरणा, विमलवाहन मुनि के दर्शन भोर उनके उपदेश उद्दीपन विभाव हैं। सांसारिकता के त्याग का निश्चय, यतिवेश धारण करना, दिगम्बर बन जाना, श्वेतवस्त्र वार करना, प्रार्थिका व्रत धारण करना इत्यादि अनुभाव हैं। निर्वेद, मति धृति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । (ग) शान्तरस की अभिव्यञ्जना कराने वाला स्थल वह है जहाँ रानी अभयपती जो कि व्यन्तरी बन चुकी है - पुदर्शन से बदला लेने पाती है । - व्यन्तरी के दुर्व्यवहार का सुदर्शन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सुदर्शन का देह सम्बन्धी ममत्व पूर्णरूपेण समाप्त हो जाता है और केवल्यज्ञान की प्राप्ति हो जाती है : "प्रात्मन्ये वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं चिन्तयतोऽस्य धीमतः । न जातुचिदभूल्लक्ष्यस्तत्कृतोपद्रवे पुनः ॥ त्यक्त्वा देहगत स्नेहमात्मन्ये कान्ततो रतः । बभूवास्य ततो नाशमगू रागादयः क्रमात् ॥ निःशेषतो मले नष्टे नंमत्यमधिगच्छति । प्रादर्श इव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत् ।। नदीपो गुणरत्नानां जगतामेकदीपकः । स्तुतान्यनतयाऽधीतः स निरञ्जनतामषात् ||"" २५७ ( प्रात्मा में ही अपनी बात्मा द्वारा परमात्मतत्त्व का चिन्तन करते हुए बुद्धिमान सुदर्शन का ध्यान व्यन्तरी के उपद्रवों पर जरा भी नहीं गया । शरीर सम्बन्धी स्नेह को छोड़कर प्रन्त में वह प्रात्मा में ही लोग हो गए । उनके रागादि क्रमशः नष्ट हो गए । बिस प्रकार मलिनता के नष्ट हो जाने पर दर्पण में स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, उसी प्रकार उनकी कर्मरूपी मल से रहित मात्मा में यह जगत् प्रतिबिम्बित हो रहा था। गुणरूप रत्नों के सागर तीनों जगत् के एकमात्र प्रकाशक, सर्वबन्ध वह सुदर्शन केवल ज्ञानी हो गए ।) १. सुदर्शनोदय, ११८३-८६
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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