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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
यहाँ पर तन्त्रज्ञान ग्रालम्वन-विभाव है। सम्पूर्ण ममत्व की समाप्ति, प्रन्तःकरण का निर्मल हो जाना अनुभाव हैं ।
(घ) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में वरित शान्तरस --
श्रीसमुद्रदनचरित्र का प्रायोपान्त परिशीलन करने से पता चलता है कि इसमें शान्तरस का ही एकच्छत्र साम्राज्य है । चौये सगं से नवें सगं तक हमें शान्तरस की ही छटा सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। मुख्य रूप से शान्तरस का प्रारम्भ वहाँ से होता है, जहाँ पर राजा अपराजित सर्वारिग्रह का त्याग करके दिगम्बर हो जाते हैं। राजा चकान के सर्वपरिग्रह त्याग करने पर इस रस का पूर्ण परिपाक हो जाता है ।
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इस काव्य में सात स्थानों पर शान्तरस की अनुभूति होती है। इनमें से एक स्थल वह है जहाँ रानी रामदत्ता प्रार्थिका व्रत धारण कर लेनी है। एक स्थल पर भद्रमित्र, एक स्थल पर मिचन्द्र, एक स्थल पर राजा अपराजित भोर तीन स्थलों पर राजा चक्रायुध इस रस के ग्राश्रय | जन्म-मरण का चक्र प्रादि श्रालम्बन विभाव हैं। प्रियजन का नाश, मुनियों का सदुपदेश, विश्वसनीयों द्वारा प्रतिकूल आचरण, पूज्य जनों का यतिवेश धारण करना आदि उद्दीपन विभाव हैं। श्रार्थिका व्रत धारण करना, सम्पत्ति का दान कर देना, राज्य छोड़कर वन जाना, दिगम्बर- वेश धारगा करना, रागादि से रहित होना आदि अनुभाव हैं । शान्तरस के ३ महत्वपूर्ण स्थल इस प्रकार हैं :--
(क) इस काव्य में शान्तरस की सुन्दरं प्रभिव्यञ्जना उस स्थल पर हुई है, जहाँ राजा अपराजित मुनि के उपदेश सर्वपरिग्रह का परित्याग कर देते हैं : "कानमलं भूत्र तपस्विना श्रीपिहिताश्रवेण । ऋतुतमेव धराततेऽस्य वसन्तनाम्ना सुमनोहरेण ॥
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X वेरिवेरुदार: भूतेऽनुभूते म मुदोऽधिकारः । उद्यानपालक कुक्कुटे नराजित नोक इवागमे ॥ समेत्य पश्चादभिवन्द्य पाजानः । परिश्रवः स्वस्परमं तं श्रुत्वा विदेस्त्रिदन्तः ॥ ततोऽत्र भोगाच्च भवादुदासीभवन्महात्मा कृतकराशिः । विहाय देहादखिलं यदन्यद् दधो यथाजातपदं स धन्यः ॥ १
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( काव्य के नायक चक्रायुध के उद्यान में पिहिताश्रव नामक एक प्रभावशाली
मुनि का आगमन हुग्रा । उद्यान के माली के मुंह से मुनि का ग्रागमन सुनकर चक्रायुध के पिता प्रसन्न होकर मुनि के पास पहुँचे। जब राजा म्रपराजित ने अपने
१. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ६॥३१-३६