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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में भावपक्ष
२५६ जीवन-मरण के विषय में मुनि से सुना, तो उनका हृदय विरक्ति से भर उठा। उन्होंने सभी सांसारिक पदार्थों का परित्याग कर दिया, और हिंगम्बर मुनि बन गए ।)
यहाँ जन्म-मरण का चक्र पालम्बन विभाव है। मुनि के दर्शन मोर उनके वचन उद्दीपन-विभाव । सर्वपरिग्रह त्याग कर मुनिवेश धारण करना अनुभाव है। हर्ष, निर्वेद, मति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं।
(ख) काव्य का नायक चक्रायुध एक दिन दर्पण में मुख देखते समय अपने शिर पर एक सफेद बाल देख लेता है। फलस्वरूप वह संसार और इस सांसारिक जीवन की निःसारता के विषय में सोचने लगता है और अपना राज्य अपने पुत्र को देकर वन प्रस्थान करता है :
"रुचिकरे मुकुरे मुख मुद्धरन्नय कदापि स चक्रपुरेश्वरः । कमपि देशमुदीक्ष्य तदासितं समवदद्यमदूतमिवोदितम् ।। ननु जरा पृतना यमभूपतेमंम समीपमुपञ्चितुमीहते । बगदाधिकृतह तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति प्रदोबत ॥ तरुणिमोपवनं सुमनोहरं दहति यच्छमनाग्निरतः परम । भवति भस्मकलेव किलासको पलितनामतया समुदासको ।
परमभावसञ्चितसम्पदा परमभाववशं कलयन् हृदा। पयुजेऽत्यजन्निजवैभवं प्रतिविधातुमुदीय सर्वभवम् ॥ परिणगिवाजयितुं स नवं धनं गज इब प्रभवेश्च न बन्धनः । सदनतः प्रचचाल वनं प्रति भवितुमत्र तु पूर्णतया यतिः ॥"'
उपर्यक्त स्थल पर संसार की परिवर्तनशीलता पालम्बन-विभाव है। शिर पर श्वेत केश दिखाई देना उद्दीपन विभाव है। राज्य छोड़कर वन को बस देना अनुमान है। निर्वेद मति इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं।
() वन जाने के पश्चात् चकायुध ने अपराजित मुनि के दर्शन किए। उनके पवनों को सुनकर उसने समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। उसका मन्तःकरण भी धीरे-धीरे निर्मल हो गया। शरीर से विरक्त उसने संयम की शुद्धि के लिए मयूरपिच्छी की पौर शौच के लिए कमण्डलु को निर्विकार भाव से ग्रहण कर लिया । त्याग और बैराग्य से उसने सभी कर्मों को अपने से दूर कर दिया। अन्त में उसे कैवल्य की प्राप्ति हो गई।
"इति गुरोरिव गारुडिनोऽप्यहिवंचनमभ्युपगम्य नपो बहिः।
झगितिकंचुकमुख्यमपाकरोद्गरमिवान्तरमप्यांना स हि ॥ १. बीसमुद्ररत्तचरित्र, ७॥१-२३