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________________ २६० महाकवि ज्ञानसागर के काव्य यथाजातपदं लेभे परित्यज्याखिलं बहिः । शरीराच्च विरक्तः सन्नन्तरात्मतया स हि ॥ पिच्छां संयमशुद्ध्यर्थं शौचार्थ च कमण्डलुम् । निर्विण्णास्तस्तया दधे नान्यत्किञ्चिन्महाशयः ॥ पटेन परिहरणोऽपि बहुनिष्कपटोऽभवत् । प्रभूषणत्वमव्याप्तो भुवो भूषरणतां गतः ॥ एक अध्ययन नामनुद्भवां चक्रे पुरापुतिन्तु शोधयन् । शस्त्रवेद्य इवातोऽभूत्सद्य एवावृतेः क्षयः ॥ चक्रीव चक्रेण सुदर्शनेन य श्रात्मशञ्जितवान् शुभेन । चक्रायुधः केवलिराट् स तेन पायादपायाद् धरणीतले नः ॥ १ यहां पर वस्तुतत्त्व का ज्ञान प्रालम्बन-विभाव है । गुरु के वचन उद्दीपनविभाव हैं। सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग मनुभाव है। निर्वेद, मति, जीवदया इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं । (ङ) दयोदय- चम्पू में वर्णित शान्तरस इस काव्य का अन्तिम भाग शान्तरस से युक्त है । समस्त रसों को परिणति शान्त रस में उसी प्रकार हुई है. जिस प्रकार समस्त नदियों की परिणति समुद्र में होती है । अतः शान्त रस के उदाहरण के रूप में काव्य का यही प्रतिम भाग प्रस्तुत है अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण सोमदत्त ने सेठ की पुत्री विषा राजकुमारी गुणमाला और प्राधा राज्य प्राप्त कर लिया। एक दिन राजकार्य के पश्चात् जब वह घर प्राया तो उसने और विषा ने एक मुनिराज को देखा। दोनों ने उनको यथोचित सम्मान दिया। मुनि के विरक्तिपूर्ण वचनों से प्रभावित होकर, सोमदत्त ने सांसारिक मोहमाया का परित्याग कर दिया। समस्त बाह्यवस्तुओं का परित्याग करके वह दिगम्बर मुनि बन गया। बिषा ने भी पति का अनुकरण किया। उसने प्रौर वसन्तसेना वैश्या ने भी विरक्त होकर प्रायिका व्रत धारण कर लिया : "यावच्च समाजगाम राजकार्थ कृत्वा तावदेव सुकेतु नामा मुनिश्वर्या पर्यायपरिणतो पिथमगात् । यतिः प्रवसरमुपेत्य वचोगुप्तिमतीत्य भाषासमितिमवलम्बितवान्"ग्रहो संसारकान्तारे चतुष्पथसमन्विते । मार्गत्रयन्तु संरुद्धमतीव दुरतिक्रम: :: १. श्री समुद्रदत्तचरित्र, ८५०, ६१-३० ----
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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