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महाकवि - ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन
अग्रगण्य । भद्रमित्र की धरोहर को यह वापस नहीं करता है मोर उल्टे उसे ही झूठा कहकर सभा से निकलवा देता है ।"
प्रमादी
सत्य के प्रति तो सत्यघोष प्रमादी है ही, साथ ही व्यवहार में भी प्रमाद करता है । वह तो अपने को कुशल समझता है, किन्तु दूसरे की चतुराई नहीं समझ पाता । रानी रामदत्ता के ग्रामन्त्रण पर वह उसके साथ शतरंज खेलने को तैयार हो जाता है | रानी रामदत्ता उसे हराकर उसकी छुरी, जनेऊ भोर मुद्रिका पर प्रधिकार प्राप्त कर लेती है। इन्हीं तीनों वस्तुनों को वह उसकी प्रनुपस्थिति में उसके घर भेज कर दासी से भद्रमित्र के सातों रत्न माँग लेती है । भद्रमित्र को ठगने वाला सत्यघोष रानी के द्वारा मात खा जाता है ।
प्रतिशोध की भावना से युक्त
जब दरबार में सत्यघोष की वास्तविकता का ज्ञान होते ही उसे प्रपदस्थ करके घम्मिल को मंत्री योर भद्रमित्र को राजसेठ बना दिया जाता है तो सत्यघोष अपनी मानहानि से क्षुब्ध होकर, चिन्ता में घुल-घुल कर मृत्यु को प्राप्त होता है । 3 मरकर सर्प हो जाता है। राजा के भण्डार में सर्प रूप में रहने वाला वह दुष्ट एक दिन राजा सिहसेन को उस लेता है और स्वयं भी मरकर चमरमृग हो जाता है । * चमरमृग की योनि से पुनः उसे सर्प की योनि मिलती है, वह फिर राजा के जीब प्रशनिघोष हाथी के मस्तक को डस लेता है । घम्मिल का जीव बन्दर उस सर्प को मार देता है । इस योनि में मरकर सत्यघोष तीसरे नरक में जाता है, पुनः अजगर की योनि में प्राता है, प्रोर श्रीधरा मोर यशोधरा नामकी प्रायिकाओं भोर सिहसेन के रूप में उत्पन्न भद्रमित्र (सिहचन्द्र मुनिराज ) को खा जाता है । फलस्वरूप पंकप्रभा नाम के चौथे नरक के कष्टों का भागी बनता है। इस प्रकार मरने के पश्चात् भी वह राजा सिहसेन और भद्रमित्र से बदला लेता ही रहता है। उन्हें तो अपने पुण्यों के कारण सद्गति ही प्राप्त होती है, किन्तु यह पापमय प्रवृत्ति होने के कारण दु:ख पूर्ण जीवन ही व्यतीत करता है, और नरक के कष्टों को सहता है।
१. श्री समुद्रदत्तचरित्र, ३ । २८-३२
२. बही, ३।४०-४४ ३. बही, ४।५
४. वही, ४।११, ३५
५. वही, ४।३५
६. वही, ४।३७, ५ ३२