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(घ) स्वयंवरमतिचक्रबन्ध
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"स्वर्गोदारमिदं क्षणं सुमनसामीशोपलब्धादरम् 'यत्रोद्दामसुधाकरोद्यमविधिः सत्त्वप्रतिष्ठाक्षमः । वर्त्ततापि पुनीतसारमधुरा पद्मालयानां ततिः, तिष्ठन्ती स्वयमापतानवनव। रम्भाप्य मन्दस्थितिः ॥ "
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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन
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इस चक्रबन्ध के घरों के प्रथम प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'स्वयंवरमतिः'
- यह शब्द बनता है । यह शब्द इस बात का संकेत देता है कि इस सर्ग में 'अनेक राजा सुलोचना स्वयंबर में पहुँचने की इच्छा रखते हुये काशी की ओर प्रस्थान करते हैं ।'