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________________ भानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान प्रतएव जहाँ 'नलचम्पू' जैसे चम्पूकाव्य केवल बौद्धिक विमासियों और प्रौढ़-संस्कृत-भाषा के शातामों के ही परिशीलन का विषय है, वहाँ 'योदय-पम्पू संस्कृत भाषा के साधारण जानकार के भी पढ़ने योग्य है। ___उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि कविवर का चम्मू-काम्य परम्परा में यह इलाध्य प्रयास है । उन्होंने जहां चम्पू-काव्य विधा की समृद्धि की है, वहाँ सहृदय सामाजिकों की इच्छा का भी पूरा ध्यान रखा है। मतः इस काम्य को भी संस्कृत साहित्य की एक प्रेरक निषि मानना चाहिए। सारांश स्पष्ट है कि श्री ज्ञानसागर के ये पांचों संस्कृत-काव्य-ग्रन्थ संस्कृत साहित्य में अपना-अपना विशिष्ट स्थान पाने के योग्य हैं। काव्य के माध्यम से दर्शन की शिक्षा देने में जैन-धर्म की वकालत करने में कविवर को स्पृहणीय सफलता मिली है। व्यक्ति या तो कवि ही होता है या दार्शनिक हो। किन्तु हमारे कवि दार्शनिक भी है। इसलिए उनको संस्कृत-साहित्य में माधुनिक प्रश्वघोष की संज्ञा दी जानी पाहिए। अनुप्रास की व्यापक एवं नवीन परम्परा को चलाने पोर निभाने के कारण 'उपमा कालिदासस्य' के समान ही 'अनुप्रासो ज्ञानसागरस्य' की उक्ति भी प्रसङ्गत नहीं होगी। प्रायः शन्दालङ्कारों का प्रयोग करने के कारण कवियों के काव्य दुरूह हो जाते हैं, जबकि हमारे कवि के काव्य मन्त्यानुप्रास के सुष्ठु प्रयोग से भोर भी अधिक प्रवाहमय हो गए हैं। प्रतः पाठकों से निवेदन है कि जातीयता मोर साम्प्रदायिकता को भुलाकर श्रीज्ञानसागर का संस्कृत कवियों में भोर उनके काव्यों का संस्कृत-काव्यों में उच्च स्थान स्वीकृत करें।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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