SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकवि मानसागर का वर्णन-कौशल विपरीत होने पर यह पृथ्वी अनेक राहों से युक्त हो गई हो। हाषियों के मस्तक से निकलती हुई गणमुक्तामों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानों शत्रु की लक्ष्मी इस समय मांसू बहा रही हो। चमकती हुई पञ्चल तलवारबीर के हत्य को उत्साहित करती हुई सौभाग्य-समूह को प्रकट कर रही थी। रणभूमि इस समय ब्रह्मा की शिल्पशाला सी लग रही थी। रणभूमि में एड के नष्ट हो जाने पर श्वेत पत्र गिर रहे थे । शवों का मांस खाने के इच्छक पक्षी यहाँ पर मंडरा रहे थे। मत पुरुष की स्त्रियों के नेत्रों से बहता हुमा पत्रप्रवाह मोर हाथियों के मनस्वस से बहता हुमा मदजल यमुना के स्वरूप को धारण कर रहा था। पुखस्थल रणशोभा का क्रीडा सरोबर हो रहा था, जिसमें सैनिकों के केशों से युक्त शिर, शेवास से युक्त कमलों के समान बिखर रहे थे। स्त्रियों के मस्तक से बहते हुए कंकुम-जल से युठभूमि भर गई थी। जयकुमार ने युद्ध के लिए धनुष धारण किया । पुट को देखकर विद्वानों के हृदय कांप रहे थे, मुकुट समूह में से मणियाँ गिर रही थीं। जयकुमार ने अपनी वीरता के कारण शत्रुषों को तिनके के समान बना दिया। x x x जयकुमार के हाथ की तलवार सर्प से भी भयंकर थी। यह मनुष्यों के अंक को सजा रही थी। परस्पर तलवारों के प्रहारों से चिनगारियों निकल रही थीं। रक्त से सिचित युवभूमि में टूटते हए, हाथियों के दांत विजेता के कीतिवम के समान लग रहे थे। शत्र उस समय निबंल हो रहा था और जयकुमार हर्षित होकर शोभा को प्राप्त कर रहे थे। अपनी सेना को विनष्ट होता हमा देखकर पर्ककोति न्य को प्राप्त कर रहा था। x + x पताका रूपी बगुले, हायी रूपी बादल, बाण रूपी मोर, तमवार रूपी विषली, डोम की ध्वनि स्पी, बावल की गड़गड़ाहट वाला यह यूर वर्षा का रूप धारण कर रहा था। जयकुमार ने अपने गज को पककोत्ति की पोर प्रेरित किया। सोने की रेखा से चिह्नित बाण को जयकुमार के छोड़ने पर शत्रुसमूह अपने प्राण छोड़ रहा था। इसके पश्चात् जयकुमार ने परिजय नाम के रथ को ग्रहण किया। अन्धकार को नष्ट करने वाले दीपक के समान जयकुमार ने शत्रु को समाप्त किया। इसके पश्चात जयकुमार और प्रकीति बिहपुत्रों के समान सड़ने लगे । जयकुमार के बाण चलाने पर देवगण जय-जयकार कर रहे थे। अपनी पराजय से प्रकीति चिन्तित हो रहा पा, मोर जयकुमार विजय से युक्त हो गए थे।' कविकृत मन्दिर-वर्णन और समवशरण मण्डप वर्णन हमें तत्कालीन वास्तुकला का ज्ञान कराते हैं । यात्रा-वर्णन से यह ज्ञात हो जाता है कि हमारे मालोच्य महाकवि यात्री-हदय के पारसी थे। मार्ग में यात्री श्यों को किस प्रकार मार पौर प्रसन्नता से निहारता है, मार्ग में रहने वाले लोग किस प्रकार एकटक नवरों १. बयोदय, ८।१४
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy