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________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन -कुण्डनपुर के जिन मन्दिरों में निरन्तर घण्टे भेरी इत्यादि का नाद होता रहता है उनमें उत्तम धूप के जलने से प्रचुर मात्रा में बादलों का रूप धारण करने वाला घूम्र-पटल उत्पन्न होता है । अतः मन्दिरों के शिखिरों के अग्रभाग में स्थित सुवर्ण कलशों की कांति ऐसी लगती थी, मानो घूम्रसमूह रूप बादलों के मध्य में बिजली चमक रही हो । रात्रि में चन्द्रमा की किरणें जब उन मन्दिरों के द्वारों के ऊपरी भाग पर पड़ती हैं, तब ऐसा लगता है मानों उन द्वारों के शिखरों पर जटिल चन्द्रकान्तमणियों के बहते हुए जल का पिपासु चन्द्रमा का मृग वहाँ माता है, किन्तु द्वारों में चित्रित मृगाधिपों के भय से वापिस लोट जाता है । उन मन्दिरों की ध्वजानों में जिनमुद्रा प्रति है । वायु के वेग से वे सभी ध्वजाएं फहराती रहती हैं । उन ध्वजानों में बजती हुई घण्टियाँ मानों पुण्यार्जन के लिए जन-समुदाय को सम्बोधित कर रही हैं ।' मन्दिर - सौन्दर्य वर्णन में कवि की एक उद्भावना उसी की शब्दावली में प्रस्तुत है :"जिनालयस्फटिक सोधदेशे तारावतारच्छल तोऽप्यशेषे । सुपमिः पुष्पगरणस्य तत्रोचितोपहारा इव भान्ति रात्री ॥” ( वीरोदय, २३६ ) (प्रर्थात् स्फटिक - मरिण निर्मित, श्वेत वर्ण वाली उन जिन मन्दिरों की छतों पर जब रात्रि में नक्षत्र प्रतिबिम्बित होते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है, मानों देवगणों ने पुष्पवृष्टि रूप समुचित उपहार दिए हों । ) २३६ - अब चम्पापुरी के मन्दिरों का प्रत्यल्प, किन्तु स्वाभाविक वर्णन प्रस्तुत हैचम्पापुरी के जिन मन्दिर, पर्वतों के समान ही उंचे एवं विशाल थे । मृगाधिपों से प्रधिवासित पर्वतों के समान उस नगर के मन्दिरों के शिखरों पर चारों ओर सिहों की मूर्तियां बनी हुई थीं। प्रभ्रपटलचुम्बी पर्वत के समान, वे मन्दिर भी अपनी ऊंचाई से मेघसमूह का स्पर्श करते थे । इस प्रकार वे ऊंचे जिनालय पृथ्वी श्रीर प्राकाश को नापने वाले मानदण्ड से प्रतीत होते थे । २ जब जयोदय के नायक-नायिका जयकुमार मोर सुलोचना तीर्थयात्रा के लिए निकले, तब उन्होंने हिमालय पर्वत पर एक उत्तम देवालय देखा। उस मन्दिर में भगवान् की प्रभावशालिनी मूर्ति थी। वह मन्दिर भक्तों की मनोवांछा को पूरा करने वाला था । वह मन्दिर अत्यधिक प्रभाव से उसी प्रकार युक्त था, जिस प्रकार सूर्य की कान्ति से सुमेरु पर्वत । ऐसे उस महिमाशाली मन्दिर में नीतिश जय प्रविष्ट हुए 13 १. वीरोदय, २।३३-३५ २. सुदर्शनोदय, १।३१ ३. जयोदय, २४।५६-६०
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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