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महाकषि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल
२३७ इसके अतिरिक्त कविवर की रचनामों में नागमन्दिर', सिडकूट-जिनमन्दिर', पार्श्वनाथमन्दिर' एवं सुमेरु पर्वत के १६ जिनमन्दिरों का भी स्थानम्पान पर उल्लेख है। समवशरण मणप
जिस सभामण्डप में जिनेन्द्रदेव वीरभगवान् ने जनता को "सन्देश दिया, उसका कवि ने बड़ा ही सजीव वर्णन किया है :
उस समवशरण मण्डप का निर्माण इन्द्र की माशा से पनाधिप कुबेर ने किया था। गोलाकार वह सभामण्डप मध्य में एक योजन विस्तृत प्रौर ढाई कोश ऊँचा था। उस मण्डप में, चारों मोर खाई से घिरा हुमा धूलिशाल नामक परकोटा था। फिर उस मण्डप में तीन मेखलामों और चार बावड़ियों से युक्त चार मानस्तम्भ थे । मानस्तम्भों पोर खाई के समीप में मालती इत्यादि पुष्पों से परिपूर्ण एक पुष्पवाटिका थी। इसके बाद पञ्चरत्ननिर्मित एक अद्भुत परकोटा था। इस परकोटे के बाद, दूसरा परकोटा रजत-निर्मित था। इन परकोटों के पश्चात् हंसचक्रवाक इत्यादि से चिह्नित १०८ की संख्या में फहराती हुई ध्वजामों की पंक्ति थी। इसके पश्चात् पुष्पद्वीप में मानुषोत्तर पर्वत विद्यमान था। रजत-निर्मित परकोटे में प्रष्ट-मङ्गल-द्रव्य थे। यह चार गोपुरदारों से प्रकाशमान था । इसके पश्चात् विद्यमान नाट्यशालामों में दिव्याङ्गनायें भगवान् के यश की घोषणा करती हुई नृत्य कर रही थीं। इसके बाद सप्तकम, प्राम्र, प्रशोक और चम्पक जाति के वृक्षों से युक्त चारों दिशामों में चार वन थे। इसी कोट के प्रत्येक द्वार पर उपस्थित देवगण भगवान् की सेवा कर रहे थे। उसके पश्चात् कल्पवृक्षों से सुशोभित वन पा। यहीं पर चारों दिशामों में सिद्धार्थ नाम के वृक्ष थे। तीसरा परकोटा स्फटिकमणि-निर्मित था। इस परकोटे के मागे जिनेन्द्रदेव के चारों पोर बारह कोष्ठ थे, बिनमें विद्यमान देव इत्यादि भगवान् का उपदेश सुनते थे । इसी समवशरण मण्डप के मध्य में स्थित गन्धकुटी में सिंहासन के ऊपर वीर भगवान् शोभायमान थे। भगवान के पीछे एक अशोकवक्ष था। उस समय उस मण्डप में आकाश से पुष्पवृष्टि हो रही थी । वीर भगवान् के दोनों मोर यक्ष चंबर इला रहे थे। उस सभामण्डप में वीर भगवान् के मुख की कान्ति करोड़ों सूर्यों को तिरस्कृत कर रही थी। भगवान् के ऊपर जन्म-जरा-मृत्यु इत्यादि विपत्तियों से बचाने वाले तीन छत्र
१. दयोदयचम्पू, ५ श्लोक ६ के सद का मद्यभाग। २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ५२२७ ३. दयोदयचम्पू, १ श्लोक २२ के पूर्व का गबभाग । ४. (क) बीरोदय, ७।२०
(ख) जयोदय, २४.८