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महाकषि मानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापन (झ) मरतलम्बनवकवन्ध
"भर्तुश्चित्तमवेत्य सुन्दरतमं काशीविशामीश्वरः, रजन्तुंगतरङ्गवारिरचिताम्भोराशितुल्यस्तवः । तत्रासोच्छशलाञ्छनस्य रसनात्प्रारब्धपूर्णात्मनः, नर्मारम्भविचारणे तत इतो लक्ष्यं वबन्धात्मनः ॥"
-जयोदय, १९५
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प्रस्तुत चक्रवम्ब के बहों परों के प्रथम प्रारों को मिलाने से 'भरतलम्पन' शम्य बनता है, जो इस बात की ओर संकेत करता है कि इस सगं में स्वयम्बर इत्यादि की सूचना सहित भरत-चक्रवर्ती से क्षमायाचना का वर्णन किया गया है।