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(च) नृपपरिचय, वरमालारोपचक्रबन्ध
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"नूवातोऽभिनवं मदं समचरत् भारान्तु बन्धावलिः पञ्चाश्चर्य परम्परा समभवत्स्वर्लोकतः सद्रुचा । पद्मावाप्तिसमासमुच्चमरिणभिः सम्पत्तिमर्थिष्वयं, यच्छन्सन्नृप प्राप वस्त्रपगृहं रिष्टोरुवर्चो जयः ॥ "
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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययनः
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इस चक्रबन्ध के घरों में स्थित प्रथम मोर पष्ठ प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने
से 'नृपपरिचय' घोर 'बरमालारोप' ये दो शब्द बनते हैं। इन दोनों शब्दों से यह
तात्पर्य निकलता है कि इस सर्प में राजाधों का परिचय बरिणत है एवं मनोनीत वर
को माला पहिनाने का भी संकेत मिलता है ।