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________________ २१२ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन रचनामों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि प्राकृतिक पदार्थों में यदि किसी पदार्थ ने उन्हें अधिक प्रभावित किया है, तो वह है ऋतु । उन्होंने प्रायः प्रत्येक ऋतु का सर्ग-पर्यन्त वर्णन करने का सफल प्रयत्न किया है । उन्होंने अपने काव्यों में बसन्त, शरद, हेमन्त, ग्रीष्म और वर्षा का वर्णन किया है । तो लीजिए, सर्वप्रथम ऋतुराज वसम्त का ही अभिनन्दन कीजिए बसन्त-वर्णन ___ कवि की रचनायों में वसन्तवर्णन दो स्थलों पर मिलता है । ऋतुराज बसन्तवर्णन का प्रथम स्थल तो वह है, जब सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी गर्भवती होतो हैं । उस समय ऋतुराज वसन्त के प्रागमन पर कामदेव के बल में वृद्धि हो गई, सूर्य उत्तरायण पर अवस्थित हो गया, पृथ्वी के चारों भोर फूलों का पराग विखर गया, वायु इस पराग को वनस्थली में बिखरा रहा है, पुंस्कोकिल का मधुर-स्वररूप मंत्रोच्चारण, कामदेवरूप अग्नि, भ्रमरों का गंजन, वन-लक्ष्मी पौर ऋतुराज के विवाह का दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। प्रशोक-वक्ष पीड़ित-पथिक को मूच्छित करके अपने नाम को निरर्थक कर रहा है । चन्दन-वक्षों की सुरभि से सुरभित मलय-पर्वत से माने वाली हवा उत्तरदिशा की ओर प्रवहमान हो रही है । एक ओर यह ऋतु स्त्रियों को वन विहार के लिए प्रेरित कर रहा है, दूसरी पोर विरही जनों को संताप दे रहा है । वसन्त ऋतु में विकसित होती हुई अाम्रमंजरी कोयल को सुख पहुँचा रही है। खिले हुए पुर विश्वविजिगीषु कामदेव के बारण हैं; और कोयल का स्वर प्रयाण-सूचक शंख निनाद है। भ्रमर कामो-पुरुष के समान ही ग्राम्रमंजरी को चुम्बन कर रहे हैं। भ्रमरों से शब्दायमान, पाम्र मंजरी से संयुक्त, सहकार के वृक्ष पथिक जनों की उनकी स्मति जगाकर पीड़ित कर रहे हैं। पुष्पोत्पत्ति, भ्रमरगुंजन मलयानिलप्रवहण, नारीचेष्टा, कोकिलस्वर-ये पांचों पुष्पधन्वा वामदेव के बारण है, इन्हीं से कामदेव संसार में विजय प्राप्त करता है, और दियोगी जनों को पीड़ित करता है। विकसित पुष्पों का पराग चारों पोर इस प्रकार फैल रहा है, मानों वसन्तश्री के मुख की शोभा को बढ़ाने वाला चूर्ण हो, या वियोगी जन के शरीर में लगाने वाली भस्म हो, या कामदेव की पताका का वस्त्र हो। भ्रमरों की पंक्ति पथिक-जनों को रोकने वाला अंकुश है, अथवा दनस्थली की सुन्दर वेणी है, या. कामरूपी गजराज को बांधने की श्रृंखला है। पलाश के लाल फूल पथिक को सहज ही में उसकी स्त्री का स्मरण करा देते हैं। सूर्य की मन्दगति को लक्ष्य में रखकर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि सूर्य सम्भवतः विभिन्न प्राभूषणों से सुसज्जित मृगनयनी स्त्रियों के मुखकमलों का दर्शन करने के कारण ही गगन-मानं पर धीरेपोरे जाता है। भ्रमर और कोकिलों द्वारा मानों कामदेव लोगों को अपने वश में कर रहा है। लवंगंलता पल्लवित और पुष्पित हो रही है। दक्षिण दिशा से माने वाली
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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