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कहानियों का आलम्बन लिया है । प्रारम्भिक नैतिक जीवन बनाने के लिए यह पुस्तक पठनीय है । प्रवचन कर्ताओं को यह पुस्तक प्रवचन करने की कला सिखाती है । इस ग्रन्थ को 82 शीर्षकों में विभाजित किया है । एक-एक शीर्षक वर्तमान की ज्वलन्त समस्याओं का निराकरण करता है एवं भगवान महावीर के सिद्धान्तों की स्थापना करता है । इस पुस्तक का अंग्रेजी, कन्नड़, मराठी भाषा में भी अनुवाद किया जा रहा है । यह पुस्तक आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने मुनि अवस्था में लिखी है।
15. सचित्त विवेचन जिह्वा इन्द्रिय की चाटुकारिता के वशीभूत होकर, सचित्त वनस्पति खाने वालों को यह पुस्तक सावधान करती है कि थोड़े से रसना इन्द्रिय के स्वाद के कारण वनस्पति एवं जल आदि का सचित्त भक्षण नहीं करना चाहिए अर्थात अचित्त करके ही ग्रहण करना चाहिये । इस पुस्तक में वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी दृष्टिगोचर होता है क्योंकि आज विज्ञान कह रहा है कि जल एवं वनस्पति आदि को उबाल कर काम में लेना चाहिये । बिना गर्म की हुई वस्तुओं को खाने से वैक्टीरिया अथवा वायरस जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं । अर्थात् यह पुस्तक जहाँ दया धर्म की रक्षा का उपदेश देती है तो दूसरी तरफ अपने स्वास्थ्य लाभ का भी संकेत करती है । यह पुस्तक लगभग 54 पृष्ठीय गद्य रूप में प्रकाशित है । यह पुस्तक महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने क्षुल्लक अवस्था में लिखी थी, उस समय आपका नाम क्षुल्लक ज्ञान भूषण था ।
16. सचित्त विचार - इस पुस्तक में सचित्त विवेचन का ही विषय है । लेखक ने सचित्त विवेचन को प्रस्तावना में इसका उल्लेख इस प्रकार किया है कि मैंने सबसे पहले सचित्त नामक निबन्ध लिखा था। लोगों ने इस निबन्ध को विस्तार से लिखने को कहा। अतः सचित्त विचार की विषय वस्तु को विस्तार करके सचित्त विवेचन लिखा अर्थात् सचित्त विवेचन के पूर्व सचित्त विचार नामक पुस्तक लिखी गई है । सचित्त विचार बाईस पृष्ठीय पुस्तिका के रूप में प्रकाशित है । यह पुस्तक आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने दीक्षा के पूर्व लिखी थी, उस समय आपका नाम ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री था।