________________
काव्यशास्त्रीय विधाएँ
१३७
सत्य की विजय भद्रमित्र को खा
क्योंकि इसमें काव्य का मुख्य उद्देश्य 'आगे नायक का वैराग्य एवं छिपा हुआ है । भद्रमित्र की माता द्वारा व्याघ्री के रूप में जाना, ' पुनः सिंहचन्द्र के रूप में जन्म, २ नवग्रेवेयक के प्रहमिन्द्र के रूप में जन्म उ ये सब 'विमर्श-सन्धि' से सम्बन्धित स्थल हैं। पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र से ऐसा लगता है कि सम्भवत: नायक मोक्ष न प्राप्त कर सके । अन्त में चक्रायुध (भद्रमित्र ) सांसारिक पदार्थों का परित्याग करके कैवल्यज्ञान प्राप्त कर लेता है । प्रतः मोक्ष एवं सत्य की विजय होती है, यही काव्य की 'निर्वहण सन्धि' है ।
९. 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' के परिशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने महाकाव्य-विषयक छन्दों के नियमों को अपनाने का पूर्ण प्रयास किया है। काव्य के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम और नवम सर्गो में क्रमशः उपजाति, वियोगिनी, वंशस्थ, स्वागता, द्रुतविलम्बित और मनुष्टुप् छन्दों का प्रयोग किया गया है। तृतीय सर्ग में उपजाति, इन्द्रवज्रा और वसन्ततिलका छन्दों का मिश्रित प्रयोग है । प्रत्येक सगं के धन्त में छन्द बदला गया है ।
१०. 'श्रीसमुद्रदत्तचरित्र' में भी मन्त्यानुप्रास की छटा सर्वत्र विद्यमान है । इसके प्रतिरिक्त कवि ने इस काव्य को यमक उपमा, प्रर्थान्तरन्यास, ७ परिसंख्या 5, विरोधाभास, प्रादि प्रलंकारों से सुसज्जित किया है ।
&
११. प्रस्तुत काव्य के प्रथम सर्ग में कवि ने सज्जनों की प्रशंसा ' १० निन्दा की है ।"
सिंहपुर के राजा सिंहसेन के ब्राह्मण मंत्री भद्रमित्र के रत्नों को हड़पना चाहता है, भद्रमित्र को उसके रत्न प्राप्त हो जाते हैं
१२. श्रीसमुद्रदलचरित्र' का नायक भद्रमित्र है । इस काव्य में शत्रुरूप में कवि ने सत्यघोष को प्रस्तुत किया है । सत्य घोष किन्तु सत्य की विजय होती है; प्रोर सत्यघोष की वास्तविकता सबको ज्ञात
।
१.
२. बही, ४६ ३. वही,
४. वही, ९।३०-३१
श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४६
५।१६
एवं दुर्जनों की
५. वही, १।१५
६. वही, ३।१७
७. वही, ४।२
८. वही, ६०६
६. वही ६।५-७
१०. वही, १/१५, १७ - १८, २१-२४ ११ वही, १।१६-१७, १६-२४