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________________ ३७० प्रार्था 76 महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन 'यस्याः पादे प्रथमे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि । भ्रष्टादश द्वितीये चतुर्थ के पञ्चदश सार्यां ।। " . मात्रा की दृष्टि से कवि के काव्यों में प्रयुक्त इस छन्द का स्थान प्राठवां है। इस छन्द में जयोदय के १६३, बीरोदय के २६, सुदर्शनोदय और दयोदयचम्पू का एक-एक (इस प्रकार से कुल २२१) श्लोक निबद्ध हैं । कवि ने इस छन्द के समस्त भेदों का प्रयोग किया है। इस छन्द का प्रयोग कवि ने स्वयंवरवर्णन ' प्रर स्वप्न-वर्णन में किया है । वसन्ततिलका 'रभी जो गो वसन्ततिलका ।' - श्रुतबोध, ४ - छन्दोऽनुशासनम् २।३१ कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में मात्रा की दृष्टि से वसन्ततिलका छन्द का स्वाम दस है । यह छन्द जयोदय के १२१, वोरोदय के ४०, सुदर्शनोदय के १५, श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के २ प्रौर दयोदय चम्पू के ५- - इस प्रकार से कुल १८३ श्लोकों में निबद्ध किया गया है । इस छन्द का प्रयोग कवि ने काव्य के उपसंहार में धोर प्रभातवर्णन में किया है । काल भारिरंगी विषमे सजसा यदा गुरु चेद्, सभरा येन तु कालभारणीयम् ।' - छन्दोमञ्जरी, ३।१२ कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में मात्रा की दृष्टि से इस छन्द का बारहवाँ स्थान है। यह छन्द के वल जयोदय के १४१ श्लोकों में निबद्ध है। इस छन्द का प्रयोग कवि ने पाणिग्रहण वर्णन एवं बारात वर्णन में किया है। बालविक्रीडित "मसर्जः सततैर्गेन युक्त मे कोनविशवत् । शार्दूलकीर्ति प्राहुछिन्नं द्वादशसप्तभिः ॥ 1 - सुबुततिलक, १३६ कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दों में इस छन्द का स्थान मात्रा की दृष्टि से १३वीं है । यह छन्द जयोदय के ६४, बोरोदय के ३८, सुदर्शनोदय के २०, इलोकों में प्रयुक्त १. जयोदर, ६।१, ३-१३१ २. वीरोदय, ४।३४-३६, ३६-५६ ३. वही, २२1१-२७ ४. जयोदय, १८ १ ८६ ५. वही, १२।१ - ८१, ८३-११८, १२१-१३६
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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