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________________ महाकविमानसागर के संस्कृत-पम्पों में भावपक्ष २४५ नामक स्थायीभाव ही बलशाली होते हैं, जबकि 'पूज्य-जनों के प्रति प्रेम' में मात्र स्नेह से काम नहीं चलता, उसमें स्नेह मोर पता की मात्रा लगभग समान ही होती है। प्रतः स्नेह मोर अदा के सम्मिश्रण रूप भक्ति को 'भक्तिरस' का स्थायीभाव नहीं माना जा सकता है । प्रतः मनोवैज्ञानिक माधार को ध्यान में रखते हुए हम रसों की संख्या दस से अधिक नहीं मान सकते। (ङ) कवि श्री ज्ञानसागर के संस्कृत काव्यों में अङ्गीरस . मानसागर जी के काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि वह उपयुक्त रसों में से एक रस को ही प्रधान रस के रूप में प्रस्तुत करते हैं, अन्य रसों को वा उस प्रधान-रस के सहायक के रूप में ही उपस्थित करते हैं। किसी राज्य के संचालन में जो स्थिति सम्राट मोर सामन्तों की होती है, काव्यों में वही स्थिति प्रधान रस पोर सहायक रसों की होती है। प्रधान रस को ही मनीरस कहा जाता है, मन्य सहायक रसों का नाम काव्यशास्त्र में प्रङ्ग रस है । उत्तम कवि यह प्रयास करते हैं कि उनके काव्य को पढ़कर पाठक एक रस का अच्छी प्रकार मानन्द उठा सकें, इसलिए वह मङ्गरसों को इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि उनसे मिलने वाला मामन्द, मनीरस से मिलने वाले मानन्द को कम न करे। जब हम अपने मालोच्य कवि श्रीज्ञानसागर के पांचों काव्यों-बयोदय, वीरोग्य, सुदर्शनोदय, श्रीसमुदवत्तचरित्र भोर दयोदयचम्पू का परिशीलन करते है तो ज्ञात होता है कि कवि ने इन पांचों काव्यों में 'शान्तरस' का ही मनीरस के रूप में वर्णन किया है। मान्तरस का स्वरूप भारतीय काव्यशास्त्रियों की शान्तरस के विषय में प्रवधारणा है कि सत्त्वगुणसम्पन्न पुरुष के हृदय में स्थित शम नामक स्थायी भाव ही प्रास्वादन योग्य होकर शान्त-रस को पदवी पाता है। इसका रङ्ग कुन्दपुष्प के समान श्वेत है, अपवा चन्द्रमा के समान है, जो सारिवकता का पोतक है । पुरुषों को मोक्ष रूप पुरुषार्ष की प्राप्ति कराने वाले श्रीभगवान् नारायण ही रस के देवता है। संसार को निःसारता, दुःसमयता और तत्त्वज्ञानादि इसके मालम्बन-विभाव है। महषियों के मामम, भगवान् के क्रीडाक्षेत्र, तीर्थस्थान, तपोवन, सत्सङ्ग मादि इसके उद्दीपनविभाव है। यम-नियम, यतिवेष का धारण करना, रोमाञ्च इत्यादि इसके अनुभाव हैं । निर्वेद, स्मृति, पूति, स्तम्भ, जीवदया, मति, हर्ष इत्यादि इसके व्यभिचारिभाष हैं। इस रस का प्रादुर्भाव होने पर व्यक्ति में ईर्ष्या, द्वेष, ममत्व इत्यादि भावों का सवा प्रभाव हो जाता है । वह सुख-दुःख से रहित एक विलक्षण ही मानन की प्राप्ति करता है । इसके अतिरिक्त शुजारावि सांसारिक-रस हैं, उनमें हमें धर्म, पर्व, काम-इन-तीन पुरुषार्थों की झलक देखने को मिलती है, किन्तु प्रक्षोकिन मानन्द की अनुभूति कराने वाले शान्त-रस में हम सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष की झलक
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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