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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापन ३७७ (ई) गुण 'गुण' शब्द का तात्पर्य है बढ़ाने वाला। लौकिक जगत् में गुणवान् व्यक्ति में शोम्यं, पोदाय्यं. सारल्य, धर्य प्रादि गुणों के समान साहित्य-जगत में माधुर्य, मोज पोर प्रसाद ये तीन गुण सगुण काव्य में देखे जाते हैं। हम देखते हैं कि समाज में जिस व्यक्ति के पास जितने अधिक गुण होते हैं, उसमें उतनी अधिक मानवता होती है। ऐसे व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी खूब होती है । इसी प्रकार साहित्यजगत में जिस काव्य में माधुर्यादि गुण जितनी अधिक मात्रा में प्रयुक्त किये जाते हैं, उस कान्य में रसाभिव्यञ्चना भी उसी मात्रा में होती है। मोर ऐसा काव्य साहित्य जगत् में प्रतिष्ठा भी प्रषिक प्राप्त करता है। निर्गुण व्यक्ति के समान ही माधुर्यादि गुणों से रहित काव्य रसाभिव्यञ्जना में समर्थ न होने के कारण सहृदयग्राह्य नहीं होता। अत: यदि शोयं, प्रौदार्य प्रादि गुण मानवता के चोतक हैं, तो माधुर्यादि गुण रसाभिव्यञ्जना के घोतक हैं । स्पष्ट है. कि गुणों की सत्ता काम्य में जहां-जहाँ होगी, वहां-वहाँ रसाभिव्यञ्जना होगी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली शूरता, उदारता इत्यादि के समान ही काग्य की मात्मा रस की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली मधुरता इत्यादि विशेषतामों को ही 'गुण' कहा जाता है।' काव्यशास्त्रियों में रस के उत्कर्षापायक इस तत्त्व के भेदों के विषय में विभिन्न मान्यताएं प्रचलित हैं । किन्तु मान्यता केवल तीन गुणों को ही प्राप्त हुई है। मोर के तीन गुण हैं-माधुर्य, मोज पोर प्रसाद ।। माधुर्य गुरण का स्वरूप एवं उसके प्रमिग्यञ्चक तत्व मन को द्रवीभूत करने वाला संयोग शङ्गार में विद्यमान प्राह्लादस्वरूप गुण ही माधुर्य गुण है । संयोग शङ्गार के अतिरिक्त इस गुण का चमत्कार करुण, विप्रलम्भ और शान्तरस में भी क्रमिक अतिशयता से देखा जाता है। माधुर्य गुण के अभिग्यञ्जक तत्त्व इस प्रकार हैं (क) वर्णो का संयोग प्रगने वर्ग के पंचम वणों से। (ब) टवर्ग को छोड़कर कवर्ग, चवर्ग, तवर्ग और पवर्ग को प्रयोग । १. "ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शोर्यादय इवात्मनः । उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥" -काम्यप्रकाश (मम्मट), ८१६६ २. माधुयोजःप्रसादास्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश ।" -वही, ८६८ का पूर्वार्ष। ३. "माहादकत्वं माधुयं शृङ्गारे द्रुतिकारणम् ।। करणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम् ।" -बही, ८१६८ का उत्तरार्ष, ६६ का पूर्वार्ष।
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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