SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकयि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन होकर वनविहार हेतु एक उद्यान को प्रस्थित हुए। उद्यान में रानी अभयमती भी पहुँबी । उसी समय सुदर्शन की पत्नी मनोरमा भी अपने पुत्र को लेकर उद्यान में माई । तब उसको देखकर वहां पर प्राई हुई कपिला ब्राह्मणी ने रानी से उसका परिचय पूंछा। रानी से सुदर्शन को पुत्रवान् जानकर कपिला ने कहा कि सुदर्शन तो नपुंसक है। यह पुत्र उसका कैसे हो सकता है ? पर जब रानी को कपिला की बात का विश्वास नहीं हुआ तो उसने अपने साथ घटित पूर्ण वृत्तान्त रानी को कह सुनाया, जिसे सुनकर रानी ने कहा कि कपिला, सुदर्शन ने झूठ कह कर तुझे धोखा दिया है । इस पर कपिला ने रानी को ही चुनौती दे दी कि वही सुदर्शन को वश में कर दिखाए। कपिला की चुनौती ने रानी के मन में सुदर्शन के प्रति कामभाव जागरित कर दिया । फलस्वरूप वह सर्वत्र ही कल्पना में सुदर्शन के ही दर्शन करने लगी और निरन्तर कुश होती गई। रानी की दशा देखकर दासी एक दिन पूंछ बैठी तो रानी ने अपनी मनोव्यथा का सही-पही कारण उसे बता दिया । दासी ने रानी को समझाया कि उसे राजा के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुष से कामजन्य स्नेह नहीं करना चाहिए। पर रानी के ऊपर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ । वह बोली कि तू मेरे दुःख को नहीं समझ रही है । स्त्री तो भोग्या होती है। उसे एकान्तता पर नहीं, वरन् अनेकान्तता पर ही विश्वास रखना चाहिए। और अवसर पाते ही बलवान् पुरुष के साथ रमण कर लेना चाहिए। प्रतः तू उपदेश बन्द कर पोर सुदर्शन को यहाँ लाने का प्रबन्ध कर। रानी को ऐसी हठपूर्ण बातों को सुनकर दासी ने सोचा कि यह मेरी स्वामिनी हैं और मैं इनकी दासी हैं। अतः इनको उपदेश देने में में समर्थ न हो सफेंगी। फिर सेवक को तो स्वामी की प्राशा का हरसंभव उपाय से पालन करना ही उचित है । उसने मन में विचार किया कि सदर्शन अहमी एवं चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान में प्रतिमावत में ध्यानशील होते हैं। प्रतः इस अवस्था में उन्हें पूजा हेतु मिट्टी के पुतले के बहाने रनिवास में लाया जा सकता है। सप्तम सर्ग रानी की दासी ने मनुष्य की प्राकृति वाला मिट्टी का एक पुतला बनवाया, रात्रि हो जाने पर उसे वस्त्र से अच्छी तरह ढंककर पीठ पर सादकर अन्तःपुर में प्रवेश करने का ज्योंही प्रयत्न किया त्योंही द्वारपाल ने उसे बीच में ही रोक दिया। तब दासी ने द्वारपाल से निवेदन किया कि रानी अभयमती एक व्रत कर रही है, जिसमें उन्हें मनुष्य के पुतले को पूजना है। यह पुतला मैं इसी उद्देश्य से भीतर ले जा रही हूं। अत: मुझे जाने दो। द्वारपाल ने दासी की एक न सुनी पोर मन्दर पाती हुई दासी को धक्का देकर बाहर किया तो उसकी पीठ पर रखा हुमा 'पुतला'
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy