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________________ महाकवि भानसागर के संस्कृत-प्रन्थों में कलापन प्रस्तुत श्लोक में तृतीय चरण चतुर्थ परण के रूप में पावृत्त हुमा है, इसलिए यह पुच्च-यमक है।' एकदेशन अन्त्य यमक "महो किमाश्लेषि मनोरमायां स्वयाऽनुरूपेण मनोरमायाम् । जहासि मत्तोऽपि न किन्नु मायां विदेति मेऽस्यर्थमकिन्नु मायाम् ॥" -सुदर्शनोदय, ११३८ स्पष्ट है कि प्रस्तुत श्लोक में प्रथम चरण के अन्त्य भाग की द्वितीय परण के अन्त्य भाग में पोर तुतीय चरण के अन्त्य भाग की चतुर्थ परण के अन्त्य भाष में पावृत्ति होने के कारण अन्त्य यमक है। श्लेषलिष्टः पदैरनेका भिषाने मेष इष्यते ।" (साहित्यदर्पण, १०१२) कविवर ज्ञानसागर ने श्लेष प्रसार का स्वतन्त्र रूप से भी प्रयोग किया हैं, और अन्य मलकारों के सहायक के रूप में भी। यहां कुछ ऐसे वर्णन प्रस्तुत है, जिनमें श्लेष की सत्ता स्वतन्त्र है। सर्वप्रथम शीतकाल-वर्णन में श्लेष की चटा देखिए (क) “शामिषु विपल्लवत्वमर्थतत् सङ्कुचितत्वं खलु मित्रेऽतः । शत्यमुपेत्य सदा चरणेषु कलहमिते हिषगणेऽत्र मे शुक् ॥" . -वीरोदय, en (इस श्लोक के दो प्रथं निकलते हैं-एक शीतकाल के पक्ष में मोर दसरा मापकाल में पक्ष में । श्लोक का प्रथम प्रथं इस प्रकार है-शीतकाल को प्राप्त करके वृक्षों का पत्तों से रहित हो जाना, दिन का छोटा होना, परों का ठिठुरना पौर संतों का किटकिटाना मेरे लिए शोक का कारण है ।लोक का द्वितीय मयं इस प्रकार है-कुटुम्बीजनों का विपत्तिग्रस्त होना, मित्र का संकुचित एवं उदासीनतामय व्यवहार, सदाचरण में षिल्य पोर ब्राह्मणों में कलह होना मेरे लिए शोचनीय है।) १. "अन्योन्यं पश्चिमयोरावृत्त्या पादयोभवेत्पुन्छः ।"... -वही, 10 का पूर्वार्द। २. "पा शिषा मा विषा विभज्य तत्रकोशणं कुर्याद । पावर्तयेत्तमंशं तत्रान्यत्रापि वा भूयः ॥" .. -वही, ३४२०
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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