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________________ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन इन्हीं कर्मों के फलस्वरूप जीव का संसार में बन्धन हो जाता है । वह प्रपमे शरीर को ही प्रात्मा मान लेता है । इन कर्मों का परिपाक भी उदय, उदीरणा, उदयाभावक्षय तथा प्रयत्न के भेद से चार प्रकार का है। इनमें समयानुसार कर्म - फल का मिलना उदय है, बलपूर्वक कर्मफल पाना उदीरणा है, कर्मोदय के अनुसार उसका फल भोगना उदभाभावक्षय है, मोर तटस्थ रहते हुए धीरे-धीरे कषायों से रहित होना प्रयत्न है ।" ४२६ जब व्यक्ति क्षपणक श्रेणी में चढ़ता है तो उसके प्रथम चारों घातिया कर्म मष्ट हो जाते हैं, और केवल ज्ञान प्राप्त करने पर तो व्यक्ति के शेष चारों कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। गुणस्थान नदर्शनानुसार प्रारमा के गुणों की क्रमिक विकास की स्थिति को गुरणस्थान कहते हैं । ये मिथ्यादृष्टि, इत्यादि नामों से चौदह प्रकार के होते हैं । 3 कवि ने बताया है कि क्षपणक श्रेणी में चढ़ते समय प्राठवाँ गुणस्थान होता हैं । * जैनधर्म के अनुसार पाठवे गुणस्थान को 'प्रपूर्वक रणसंयत' की संज्ञा दी गई है । विभिन्न क्षरणवर्ती जीवों के परिणाम का प्रपूर्व होना, एक समयवतों जीवों के परिणाम सदा धीर विश होना प्रपूर्वकरण है । ये प्रपूर्वकरण परिणाम किसी कर्म का उपशमन तो नहीं करते, किन्तु घातिया कर्म को नष्ट करने की भूमिका बांध देते हैं। प्रतः विशुद्धि वृद्धिङ्गत होने लगती है ।" प्रारमा श्री ज्ञानसागर ने बताया कि प्रात्मा के तीन भेद होते हूँ, बहिरात्मा, प्रन्तरात्मा प्रोर परमात्मा । शरीर को ही अपनो आत्मा समझने वाला व्यक्ति 'बहिरात्मा' है, चैतन्य को मात्मा मानने वाला व्यक्ति 'अन्तरात्मा' है, और देह से पृथक होकर निष्कलङ्क तथा सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्म तत्व में लीन रहने वाला १. वही, ११-१८ २. 'सुदर्शनोदय ६।८४-८६ ३. 'मिथ्याक सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः । प्रमत्त इतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणों तथा ॥ सूक्ष्मोपशान्तसंक्षीणकषाया योग्ययोगिनो । गुणस्थानविकल्पाः स्युरिति सर्वे चतुर्दश ।।' - जैनधर्मामृत, ६ । १-२ एवं इनके पूर्व की प्रस्तावना । ४. वीरोदय, १२३८ ५. 'अपूर्व: करणो येषां भिन्नं क्षरणमुपेयुषाम् । प्रभिन्नं सोऽन्यो वा तेऽपूर्वकरणाः स्मृताः । क्षपयन्ति न ते कर्म शमयन्ति न किञ्चन । केवल मोहनीयस्य शमन-क्षपणे रताः ॥ - जैन धर्मामृत, ११।३
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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