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काव्यशास्त्रीय विधाएं
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छन्
पुरुष को गतिशील बनाने का महत्वपूर्ण और मूर्त साधन हैं ---उसके चरणद्वय। इसी प्रकार काव्य-पुरुष की गति अवरुद्ध न हो, उसमें प्रवाह होइसके लिए कवि छन्दों का प्रावलम्बन लेता है। गद्य-काव्यों में इसकी इतनी प्रावश्यकता नहीं होती, किन्तु पद्य काव्य पूर्णतया इनका सहारा लेकर लिखा जाता है। छन्दों को इसी महत्ता के कारण महर्षि पाणिनि ने छन्दों को वेदों का चरण कहा है।' प्रात्मा (हृदय)
पुरुष केवल अपने शरीर के बल पर जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवित रखने वाली एक प्रमूर्त शक्ति है, और वह है प्रात्मा । इसी प्रकार काव्य भी केवल शब्दार्थमय शरीर से ग्राह्य नहीं बन सकता और न केवल छन्द प्रौर मलकार ही उसे ग्राह्य बना सकते हैं। वरन् काव्य को ग्राह्य बनाने के लिये भी प्रात्म-शक्ति पावश्यक है-उस प्रात्मशक्ति को हम साहित्यिक भाषा म 'रस' कहते हैं। इसके विना काव्य या तो निष्प्राण होता है, या पाठक के बौद्धिक व्यायाम का साधन । प्रतः बुद्धि प्रौर सहायता से युक्त अच्छे पुरुष के समान एक अच्छा काव्य भी वही माना जाता है जिसमें बुद्धि-पक्ष पोर हृदय-पक्ष का समन्वय हो । वर्य-विषय
प्रत्येक काव्य का कोई न कोई वर्ण्य-विषय होता है । चाहे काव्य किसी कथा पर आधारित हो, या किसी की भक्ति पर, या देश-प्रेम पर । वयं-विषय न होने पर कवि किसका वर्णन करेगा ? शैली
पुरुष अपना मुख्य ध्येय प्राप्त करने के लिए कोई न कोई मार्ग चुनता है। कवि के काव्य लिखने का मुख्य उद्देश्य है - सद्यः परनिति'। अपने इस उद्देश्य तक पहंचने के लिए उसे काव्य में कोई न कोई मार्ग चुनना पड़ता है। साहित्य में इसी मार्ग का प्रचलित नाम है शैली। गुण-दोष
जिस प्रकार मनुष्यों में गुण-दोष देखने को मिल जाते हैं, उसी प्रकार काव्यों में भी ये पाये जाते हैं। पर जिस प्रकार पूज्य ऋषिजन पुरुष को गुणों को ग्रहण करने का और दोषों से बचने का उपदेश देते हैं, उसी प्रकार साहित्यशास्त्री १. छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्ती कल्पोऽप पठ्यते ।
ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।। fक्षा प्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात्साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥
-पाणिनीय शिक्षा, श्लोक ४१ पोर ४२