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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष
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द्वेष को मैं समाप्त करना चाहता हूं। ये मेरे प्रनथं का कारण बन गए हैं। x x x यह तो मेरा दम्भ ही है जो ब्रह्मचारी होकर मैं बस्त्र धारण कर रहा हूँ। XXX अब मैं मन, बारणी भोर कर्म से भवनावेष्टित नगर को छोड़कर सज्जनों को श्रानन्द देने वाले बन को प्रेमपूर्वक जाता हूँ ! × × × इस प्रकार से विरक्त मन वाले भगवान् ने भेड़ इत्यादि पशुनों से भरे हुए जमरहित वन में जाकर दंगम्बरी दीक्षा ले ली। अपने केशों को उखाड़ दिया प्रीर मीन धारण कर लिया ।)
इन श्लोकों के प्रनुशीलन से ज्ञात हो जाता है कि यहाँ संसार को परिवर्तनबोलता मालम्वनविभाव है। निर्जेब, गति माथि व्यभिचारिभाव हैं। नगर मोर वन में समबुद्धि रखना, वनगमन, वस्त्रपरिस्थान, केशों को उखाड़ना इत्यादि अनुभाव हैं यहाँ शान्तरस का प्रास्वादन करने में बहवय पाठक को कोई बाधा नहीं बीबी ।
(ग) सुदर्शनोदय में बरित शान्त रस
इस काव्य का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि इसका अन्तिम भाग तो शान्त रस से युक्त है ही. साथ ही बीच-बीच में भी शान्त रस की झांकी देखने को मिल जाती है । प्रारम्भ से अन्त तक शान्त रस को अन्य रसों से संघर्ष करना पड़ा है, और इस संघर्ष में विजय शान्त रस की ही हुई है ।
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शान्तरस का बीज काव्य का वह स्थल है, जहाँ पर सेठ वृषभदास बैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । कपिला की दुष्प्रवृत्ति पर विजय के समय वह बीज अंकुरित होने लगता है। रानी प्रभयमती के ऊपर विजय के समय यह अंकुर पौधे का रूप ले लेता है । मनोरमा की प्रेरणा रूपी जल से यह पौधा सिंचित हो जाता है । देवदत्ता घोर पण्डितादासी को प्रबुद्ध करने के पश्चात् यह पौधा एक विशाल बृक्ष का रूप धारण कर लेता है । इस समय शान्त रस निर्वाध रूप से प्रास्वाद्य हो बाता है ।
सुदर्शनोदय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि इस काव्य में चार स्थलों पर शान्त रस का वर्णन किया गया है। एक स्थल पर सेठ वृषभवास शान्तरस के प्राय हैं, और प्रन्य स्थलों पर सुदर्शन इस रस का श्राश्रय है। मुनियों का उपदेश, उनका दर्शन, संसार में दुराचरण इत्यादि इस रस के उद्दीपन हैं। संसार की परिवर्तनशीलता घालम्वन-विभाव है। वनगमन, यतिवेशधारण करना इत्यादि अनुभाव हैं । निर्वेद, मति इत्यादि व्यभिचारिभाव है। सुदर्शनोदय में वर्णित शान्त उस के ३ उद्धरण प्रस्तुत हैं :
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बोदय ४।१३-१४