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प्रस्तावना
प्रस्तुत शोष विषय का महत्त्व
संस्कृत भाषा महिमशालिनी है। इसी भाषा में हमारे देश के धर्म एवं संस्कृति के ग्रन्थों की रच । हुई है। इस भाषा में रचा गया साहित्य मात्रा एवं कोटि की दष्टि से अन्य भाषाओं में रचे गये साहित्य की अपेक्षा अधिक मूल्य रखता है। किन्तु प्राज के पाश्चात्त्य सभ्यता के अन्धभक्त, खेद है कि इस भाषा को मतभाषा कहते हैं मोर इसका साहित्य 'माउट ऑफ डेट' कहलाता है।
इसके अतिरिक्त माज राष्ट्र में जातिवाद और सम्प्रदायवाद व्याप्त हैं। एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं । इस साम्प्रदायिकता का प्रभाव अन्य क्षेत्रों के समान संस्कृत-काव्य क्षेत्र में भी पड़ा है । बहुसंख्यक सनातनधर्मी लोग अन्य पल्पसंख्यक सम्प्रदायों के लोगों के किसी कार्य को महत्त्व नहीं देते। ये लोग अपने ही सम्प्रदाय के कवियों और विद्वानों की रचनाओं पर अपने विचार प्रकट करते हैं। इसका फल यह होता है कि साहित्य का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण भाग प्रकाश में आने से रह जाता है ।
कवि एक सामाजिक प्राणी है। प्रतः उस पर उसके धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। किन्तु समालोचक को धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि की मर्यादाओं को छोड़कर ही कवि की रचना की समीक्षा करनी चाहिए। हम यह नहीं कहते हैं कि समालोचक पर उसके धर्म जाति पादि बन्धनों का प्रभाव नहीं पड़ता। परन्तु जहाँ तक कवि के काव्य की समालोचना का प्रश्न है, वहां समालोचक को कवि के धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि से कोई प्रयोजन नहीं रखना चाहिए । क्योंकि समालोचक का कार्य तो कवि के मार्मिक बंदुष्य को अभिव्यक्ति करना है।
पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता के रङ्ग में रंगे हुए व्यक्तियों को यह जात होना चाहिए कि माज भी कवि संस्कृत भाषा की श्रीवृद्धि कर रहे हैं। प्रतः इन कवियों की कृतियों को देखने के पश्चात् संस्कृत को मतभाषा कहने के पहले उन्हें खूब विचार कर लेना चाहिए।
हवारे पालोच्य महाकवि श्रीज्ञानसागर ने भी संस्कृत भाषा में साहित्य सजना की है। किन्तु अनपर्म के होने के कारण उनका साहित्य भी सम्प्रदायवादी