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महाकवि ज्ञानसागर के काग्य-एक अध्ययन
(१) विकृतमातमभश्चक्रबन्ध
"विधुबन्धुरं मुखमात्मनस्त्वमृतः समुक्ष्यार्काङ्कितम्, कृत्वा करं मृदुनाशुकेन किलालकच्छविलाञ्चनम् । भासुरकपोलतलं पुन: प्रोञ्छन्त्यगुरुपत्रांकमा, भावेन विस्मितकृत्स्वतोऽभादपि तदा नितरां शुभा ॥"
--जयोदय, १८।१००
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बाबा
NAIN-911
RAJAPUR
प्रस्तुत चक्रवन्ध के मरों में विद्यमान प्रथम अक्षरों के पढ़ने से 'विकृतमानमः' शब्द बनता है। यह शब्द इस सर्ग में वर्णित परिवर्तित एवं चमकते हुये प्राकाश से युक्त प्रभात का द्योतक है।