Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
491
झानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थांक ३५
महाकवि धनजयविरचित
द्विसन्धान महाकाव्य
[ संस्कृत टीका तथा हिन्दी अनुवाद सहित ]
सम्पादक ------------- प्रा० खुशालचन्द गोरावाला
एम० ए०, साहित्याचार्य
ODar
HEADLA
मजद
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
बीर नि० संवत् २४९६ : विक्रम संवत् २०२७ : सन् १९७०
प्रथम संस्करण : मूल्य १५...
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय
संस्कृत भाषा का अर्थ-सामर्थ्य
संस्कृत भाषामें ऐसी उर्वरा सामर्थ्य है कि उसमें एक उक्ति एकसे अधिक अर्थों को व्यक्त करती है। सर्वप्रथम एक ही शब्द, चाहे वह क्रिया हो या संज्ञा, विभिन्न अर्थ रखता है जिसका सही निश्चय सन्दर्भके अनसार किया जा सकता है। इस प्रकारके पद संस्कृत कोशों में जिन्हें अनेकार्य या नानार्थकोश कहा जाता है, संग्रहीत है। दूसरे एक दीर्घ समस्त पद अक्षरोंके विभिन्न प्रकारसे वर्गीकृत वियोजित होनेपर भिन्न शब्दों और भिन्न अर्थोको प्रकट करते हैं। तीसरे, एक एक संयुक्त पदको विभिन्न प्रकारसे व्याख्या की जा सकती है और संयोजित शब्दों के सम्बन्धके अनुसार सनका अर्थ बदल जाता है ।
संस्कृत कवियोंके निर्माणमें यह अनिवार्य उपस्करण था कि उन्हें शब्दकोश तथा व्याकरणके सूत्र कण्ठस्थ होने चाहिए। इस प्रकारसे दक्ष कपि (विदग्ध कवि ) संस्कृतको इस प्रकृतिका लाभ सहज हो ले सकता था। यह प्रवृत्ति उसनी ही पुरानी है जितना संस्कृतका उपयोग । जैसे 'इन्द्रशत्रु' इस समस्त पदमें स्वरचिह्न कैसे और क्यों सही सम्बन्ध अभिव्यक्त करते हैं। संस्कृतके इस पक्षने दोहरी अर्थवत्ता या श्लेषको तथा घुमावदार कथन या वक्रोक्तिको जन्म दिया जो काव्यालंकरण माने जाते थे जब मितव्ययिता ओर प्रभावकारी ढंगसे सुबन्धु और बाण जैसे नैसर्गिक प्रतिभाशाली कवियों द्वारा उपयोग किये गये।
सविशेष रूपसे दक्षता प्राम प्रतिभा तथा कतिपय कवियोंके श्रमपूर्ण प्रयलोंने संस्कृतके इस लचोलेपनको बेहिसाब हद तक विकृत किया है जिसका परिणाम संधान काव्योंमें स्पष्ट रूपसे देखा जाता है। राघवपाण्डवीय ( १.३७.८, काव्यमाला, ६२, बम्बई १८९७ ) में कविराजने ठोक ही कहा है
प्रायः प्रकरणक्येन विशेषण-विशेष्ययोः । परिवृत्या क्वचित्तद्वदुपमानोपमानयोः ।। क्वचित्पदैपच नानार्थे: क्वचिद्वक्रोक्तिभङ्गिभिः ।
विधास्यते मया काव्यं श्रीरामायणभारतम् ।। प्राप्त विवरणसे पता चलता है कि जब अकबर १५९२ ई० में कश्मीर जाते हए लाहौर रुके तो उनके आमन्त्रण पर जिनचन्द्र सूरि उनको विद्वत्सभामें गये। वहां उनके एक शिष्य समयसुन्दरने उनके द्वारा बनायी गयी एक कृति ( अष्टलक्षार्थी ग्रन्थः) को बादशाहके सामने पढ़ा। यह अटलक्षी थी। उन्होंने बादशाहको स्पष्ट किया कि इसमें तीन साधारण संस्कृत शब्दोंका एक वाक्य है--'राजानो ददते सोख्यम्' जिसकी व्याख्या आठ लाख प्रकारसे की जा सकती है। यह कृति प्राप्य है तथा मुद्रित और प्रकाशित हो चुकी है ( देखें भानुचन्द्रचरित, प्रस्तावना, पृष्ठ १३, सम्पा० एम० डी० देसाई, सिन्धी जैन सीरीज, संख्या १५, बम्बई १९४१ ) । सो अर्थ देनेवाले एक पन, जिन्हें शतार्थी कहा जाता है, के उदाहरण उपलब्ध है, उदाहरणके रूपमें सोमप्रभ रचित को लिया जा सकता है (ई० ११७७-७९, एम० विन्टरनित्ज, हिस्टरी आँव इण्डियन लिटरेचर, गाग २ पृष्ठ ५७३, तथा एच० डी० बेलणकर, जिनरत्नकोश, पूना १९४४, पृष्ठ ३७१) । सन्धान काव्य
१- हेमचन्द्र ( १०८९-११७२ ई.), जिनके द्वयाश्रय काव्य संस्कृत तथा प्राकृत दोनोंमें सुविदित है, मे एक सप्तसन्धान काव्य रचा बताते हैं (देखें जि० को० पृष्ठ ४१६ ), किन्तु अभी तक यह प्रकाशमें नहीं आया । इसी नामका एक और काव्य मेवधिजयगणि (१७०३ ई०) द्वारा लिखित है। यह मो सों का पला संक्षिप्त काव्य है। इसके प्रत्येक नोकरी सात अर्थ निकलते हैं पांच तीर्थकरोंके तथा राम और कृष्ण
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
द्विसन्धान महाकाव्य विषयक । यह जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला ३, बनारस १९१७ में प्रकाशित है। २-नावि शान्तिराज कृत स्वोपज्ञ टीका सहित पंचुसंधान काव्य उपलब्ध है । जैन मठ कारकल ( सा० के० ) में इसकी दो पाण्डुलिपियर्या जपला मोलाती है। इन साइशिता नहीं जुटा है ( देखें, कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसुत्री, बनारस १९४८, पृष्ठ २९१ )। ३-चिदम्बर कृत रायव-पाण्डवीय-यादवीय ( विन्टरनिरज हि. ई० लि. भाग ३, आई, पृष्ठ ८३ ) त्रिसन्धान काव्य है, प्रत्येक पद्यसे तीन अर्थ निकलते है-एक रामायण से सम्बन्धित, दूसरा महाभारत तथा तीसरा भागवतपुराणसे सम्बन्धित । द्विसन्धानको विशेष लोकप्रियता
द्विसन्धान पद्धति अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है और भसके कुछ नमूने हमारे समक्ष है। (१) मिनाथचरित एक साथ ऋषभ और नेमि जिनकी जीवनीको व्यक्त करनेवाला एक संस्कृत द्विसन्धानकाव्य है । धार नरेश भोज के समय १०३३ में द्रोणाचार्यके शिष्य सुराचार्यने इसको रचना को थी ( देखें जि० को पृ० २१६ )। (२) रामपालचारत काव्य सन्ध्याकरनन्दिने रचा है। इसके प्रत्येक पद्यके दो अर्थ हैं एक नायक नामसे सम्बन्धित, दूसरा राजा रामराल से सम्बन्धित, जो ग्यारहवीं शताब्दीमें बंगाल के शासक ये { विन्टरनित्म, हिइं. लि भाग तीन, खण्ड १, पृष्ठ ८२)। (३) नाभेय-नेमिकाव्य (ईसवो बारहवों शतीका प्रारम्भ अनुमानित ) स्वोपज्ञ टोका युक्त एक द्विसन्धान काव्य है। इसके लेखक मुनिचन्द्र सूरिके प्रशिष्य तथा अजितदेव मूरिके शिष्य हेमचन्द्र सूरि है। कवि श्रीपालने, जो सिद्धराज तथा कुमारपाल राजाओंके समकालीन थे, इस रचनाको संशोधित किया था। इसमें ऋषभ तथा नेमि जिनके चरित्रका वर्णन है । (४) सूरि या पण्डित नामसे ज्ञात कविराज, जिनका सही नाम सम्भवतया मापन भट्ट था, कूत राघवपाण्डवीय एक द्विसन्धान काव्य है । यह एक साथ रामायण तथा महाभारतको कथा कहते है । जयन्तीपुरके कदम्बवंशीय नरेश कामदेव (१९८३-९७ ई.) उनके आश्रयदाता थे, जिनकी उन्होंने खुलकर प्रशंसा की (१.१३ ) । उन्होंने उनको तुलना धाराके मुंज ( ९७३-९५ ई० ) से की है। उनका समय ईसाकी बारहदों शतीका अन्तिम चरण माना जा सकता है। (५) हरदत्त जिनका समय निश्चित नहीं है, ने राघव नेपघीयकी इस प्रकारकी पद्य रचना की है कि प्रत्येक पदके दो अर्थ है-एक रामसे सम्बन्धित. दसरा नलसे सम्बन्धित । इस प्रकारको कुछ और भी रचनाएँ है । (६) वेंकटाधरिन् कृत यादवराघवीय रामकी कथा कहती है, किन्तु उलटा पढ़नेपर कृष्ण कथा कहती हैं। (७) पार्वती रुक्मिणीयमें दो विवाहोंकी कहानी है-एक शिव और पार्वतीकी तथा दूसरी कृष्ण और रुक्मिणीको (विटरनिरज, हि० ६० लि. भाग ३, आई, पृष्ठ ८३ )। धनंजय कृत द्विसन्धान
१-- पाण्डुलिपियाँ तथा टोकाएं-धनंजयकृत द्विसन्धानम् ( द्विसं० ) द्विराधानकाव्य अथवा राघवपाण्डवीय ( रा. पा० ) यदि उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन द्विसन्धान न भी माना जाये तो भी प्राचोनों में से एक अवश्य है । धनंजयके समय तक यह ( द्विसम्मा- म पर्याप्त प्रचलित हो चुका होगा। इसकी पाण्डुलिपियां पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध हैं (जि० को० पृ० १८५, क० ता. न. पृ० १२१-२ ) इसको कतिपय टीकाओं का भी पता चलता है।
१-~-विनयचन्द्र के प्रशिष्य देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र कात पदकौमुदी । २-पुष्यसेन शिष्य कृत टीका ।
३-कवि देवर कृत टोका। वे रामघट (परचादि धरट्टके मामसे ख्यात) के पुत्र थे। यह नन्होंने अपने आश्रयदाता अरल थेष्ठिन्के लिए लिखी थी। कहा जाता है कि इस टोका का नाम राघव पाण्डवीयपरीक्षा है। अरलु श्रेष्ठिन् कीति कर्नाटकके एक बड़े व्यापारी तथा जैन धर्म के प्रति तीव्र आस्थावान् तथा जयाके पुत्र थे। उनमें नैसर्गिक अच्छे गुण थे तथा वे कवियोंके आश्रयदाता (संरक्षक ) थे। देवरने प्रारम्भमें अमरकोति, सिंहनन्दि, धर्मभूपण, श्री वधंदेव तथा भट्टारकमुनिको नमस्कार किया है (जि. को
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय प० १८५) तथा क. ता. न. पृष्ठ १३१-२)। देवरको टोकाकी एक प्रति ताडपत्र पर कन्नड लिपिमें जैन सिद्धान्त भवन, रामें है ( देखें, जन हितषी १५, पृ० १५३-५४)। पूर्वप्रकाशन तथा यह संस्करण
धनंजय कृत द्विसन्धान सन् १८९५ में निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे काव्यमाला संख्या ४९ में बद्रीनाथकी टीका, जो कि विनयचन्द्रके प्रशिष्य तथा देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्रकी दीकाका संक्षिप्तीकरण है, के साथ प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत संस्करण में विनयचन्द्र के प्रशिष्य तथा देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र कृत पदको मुदी टीका शामिल की गयी है। प्रत्यक्ष ही काव्यमाला संस्करणमें दी गयी बद्रीनाथको टीका इस टीका पर आधारित है। सूक्ष्म रूपसे तुलना करने पर पता चलता है कि बद्रीनाथने कतिपय विस्तारको छोड़ दिया तथा संक्षिप्त किया और अपना ध्यान मूलको व्याख्या करने में अधिक रखा। धनंजयको कृतियाँ
परम्परानुसार धनंजयकी तीन कृतियाँ मानी जाती है : (१) विषापहार स्तोत्र (२) नाममाला तथा (३) द्विसन्धान या राघव-पाण्डवोय ।
विण पहारस्तोत्र कात्यपाला , मम्स १०:२: साजिन की स्तुतिरूप लिखित एक ४० पद्यों (३९ उपजाति तथा अन्तिम पुष्पिताया ) की धार्मिक स्तुति है। यह पूर्ण रूपसे सरल शब्दावली में प्रभावकारी कल्पना और उपराओं में रची गयी है। अन्तिम पर इलेषसे धनंजयका नामोल्लेख करता हुआ इस प्रकार है:
वितरति विहिता यथाकथंचिज्जिन विनताय मनीषितानि भक्तिः ।
स्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषाद् दिशति सुखानि यशो धनं जयं च ।।४।। दक्षिण कर्नाटकमें मूडबिद्रीकै जन मठमें इसकी एक संस्कृत टीका उपलब्ध है ( देखें, क० ता०प० पृष्ठ १९२-३ ) । सम्भवतया इसका नाम इसके १४वें श्लोकके प्रथम शब्दसे पड़ा और इस पद्यके साथ एक अनुश्रुति सम्बद्ध हो गयी कि इसका पाठ विषका नाश करता है। इसके कुछ विचार संकेत जोकि अपनी संचेतनामें पर्याप्त रूपसे परम्परागत है, आदिपुराणमें जिनसेनने तथा, सोमदेवने यशस्तिलवामें ग्रहण किये हैं (देखें प्रेमी कृत जन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ १०९, ff बम्बई १९५६ )।
नाममाला ( भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९५०) जिसे कुछ पाण्डुलिपियोंमें धनंजय निघण्टु भी कहा गया है, पर्यायवाची शब्दोंका एक संस्कृत शब्दकोश है । इन्हीं के नामसे एक बनेकार्थनाममाला भी मानी जाती है । नाममालाके अन्तमें निम्नलिखित तीन पद्म है
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । द्विसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥२०१॥ कर्वेधनंजयस्येयं सत्कवीनां शिरोमणेः । प्रमाणं नाममालेति श्लोकानां हि शतद्वयम् ॥२०२॥ ब्रह्माणं समुपेत्य वेदनिनदव्याजात् तुषाराचलस्थानस्थावरमोश्वरं सुरनदीच्याजात्तथा केशवम् । अप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधिध्वानोपदेशादहो ।
फूत्कुर्वन्ति धनंजनस्य च भिया शब्दाः समुत्पीडिताः ॥२०३।। कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें निम्नलिखित दो श्लोक सम्भवतया २०१ प्रमाण इत्यादिके बाद प्राप्त
Pr
जाते जगति वाल्मीको शब्द: कविरिति स्मृतः । कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति दण्डिनि ॥
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
२२
द्विसन्धान महाकाय
कवयः कवयश्चेति बहुत्वं दूरमागतम् । विनिवृत्तं चिरादेतत् कली जाते धनंजये ॥
में
ये पद्य श्री एस० बी० वी० वीर राघवाचेरियरने अपने निबन्ध, जिसकी नीचे समीक्षा की गयी है, 'पुनरुद्धृत किये हैं। यह एक मजेकी बात है कि पहला पद्य ( तीसरे पाद में किचित् अन्तर के साथ —- व्यासे जाते कवी घेति ) जल्हणने अपनी सूक्ति मुक्तावलि ( बड़ौदा १९३८ ) में कालिदासका बताया है। इसमें efuser सन्दर्भ है इसलिए यह कालिदासका बनाया नहीं हो सकता ।
द्विसन्धानकी रचनाये धनंजयको कवि योग्यताएँ प्रमाणशास्त्र में अकलंक तथा व्याकरण में पूज्यपादके समकक्ष सिद्ध होती हैं, एक वास्तविक रत्नत्रय सभी विशिष्ट तथा अप्रतिम । इन पद्योंमें तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि दिसन्धान तथा नाममालाका लेखक एक ही व्यक्ति है । यह स्वाभाविक है कि एक कवि जिसका संस्कृत शब्दों के समुद्रपर अधिकार हो, वह हिसन्धान काव्य सहज ही लिख सकता है ।
धनंजयका व्यक्तिगत परिचय
धनंजयने अपनेको अकलंक तथा पूज्यपादके समकक्ष बतानेके अतिरिक्त अन्य कोई परिचयात्मक जानकारी नहीं दी । द्विसन्धानको टीकामें नेमिचन्द्र ने द्विसन्धान सर्ग १८, श्लोक १४६ जिसमें अत्यधिक कोष है, के गवापर निम्नलिखित परिचयात्मक विवरण निकाला है। धनंजय वासुदेव तथा श्रीदेवी के पुत्र ये । उनके गुरुका नाम दशरथ था। वे दशरूपक के लेखकसे भिन्न हैं । धनंजय तथा उनकी कृतियोंके विषयमें सन्दर्भ
धनंजय तथा उनके काव्यको पर्याप्त प्रशंसा प्राप्त हुई है और उनको कविताको वह वैशिष्ट्य प्राप्त हुआ है कि वह द्विसन्धान कवि कहलाने लगे । द्विसन्धान शब्द या नाम दण्डि (७वीं शताब्दी अनुमानित) जितना प्राचीन तो प्रतीत होता ही है, तथा भोजके निम्नलिखित उद्धरण स्पष्ट बताते हैं कि धनंजय की तरह efore भी द्विसन्धान प्रबन्ध रचा था, जो यद्यपि हमें उपलब्ध नहीं हुआ । सम्भवतया काव्यादर्श और दशकुमारचरितके अतिरिक्त यह उनका तीसरा ग्रन्थ था ।
जैसा कि आर० जी० भण्डारकर ( नीचे देखें ) ने स्पष्ट किया है कि वर्धमान ( ११४१-११४९६० ) वे अपने गुणरत्नमहोदधि पृष्ठ ४३५, ४०९ तथा ९७ एगलिंग एडीशन में धनंजय कृत द्विसन्धानके पद्य ४६, ९/५१ तथा १८२२ उद्धृत किये हैं ।
भोज ( ११वीं शती ईसवीका मध्य ) के अनुसार द्विसन्धान उभयालंकार के कारण होता है । यह तीन प्रकारका है - वाक्य प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय अनेकार्थक स्थिति है तथा तीसरा राघवपाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथाओंको कहने वाला है । भोजने यहाँ एक महत्वपूर्ण सूचना दी है कि दण्डिने रामायण तथा भारतकी कथा पर द्विसन्धान काव्यकी रचना की थी ।
तृतीयस्य यथा दण्डिनो धनंजयस्य वा द्विसन्धानप्रबन्धो रामायणमहाभारतार्थावनुबध्नाति । जिल्द २, पृष्ठ ४४४ ( वी० राघवन्, भोजकृत - शृंगारप्रकाश, पृ० ४०६, मद्राउ, १९६३) हमारे लिए सर्वाधिक ofen यह है कि भोजने धनंजय और उनके सिन्धानका उल्लेख किया है । साथ साथ दण्डिके दिसन्धानप्रबन्ध का उल्लेख है ।
प्रभाचन्द्र ( ११वीं शती ईसवी ) अपने प्रमेयकुमलमार्तण्ड ( निर्णयसागर संस्करण, बम्बई १९१२, पृ० ११६, पंकि एक बम्बई १९४१ पृ० ४०२ ) ।
ननु व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकप दया क्या र्थप्रतिपत्ती तदविशिष्टवैदिकपदवाक्यार्थ प्रतिपत्तिरपि प्रसिद्धेरश्रुतकाव्यादिवत् । सन्न प्रतिपत्तावतीन्द्रियार्थदर्शिना किंचित्प्रयोजनमित्यप्यसारम् । लौकिक वैदिकपदानामेकत्वेध्यनेकार्थत्वव्यवस्थितेरन्यपरिहारेण व्याचिस्यासितार्थस्य नियमयितुमशकेः । न च प्रकरणादिभ्यस्तन्नियमस्तेषामप्यनेकप्रवृत्तिद्विसन्धानादिवत् ।
वादिराजने १०२५ ई० में लिखे अपने पार्श्वनाथचरित ( बम्बई, १९२६ ) में धनंजय तथा एकसे afe सन्धानमें उनकी प्रवीणताका उल्लेख किया है ( १।२६ ) ।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय
२३
अनेकभेदसंघाना खनन्तो हृदये मुहुः ।
बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्यैव प्रियाः कथम् ॥
जैसा कि के० बी० पाठकने स्पष्ट किया है, दुर्गसिंह ( १०२५ ई० अनुमानित ) ने अपने कन्नड़ पंचतन्त्र ( मैसूर १८९८ ) में धनंजय राघवपाण्डवोयका इन शब्दों में उल्लेख किया है
अनुपमकविवजं जी
येने राघवपाण्डवीय पेळ यशो
वनिताधीश्वरनादं
धनंजयं वास्वप्रियं केवळ ||८||
डॉक्टर बी० एस० कुलकर्णी, धारवाड़, ने सूचित किया है कि द्वारा स्थित पंचतन्त्रको ताडपत्रीय प्रतिमें पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करने वाले ये सब पद्म नहीं हूँ ।
विद्वानों में इस विषय में मतभेद है कि एक ही नागवर्मा हुए अथवा विभिन्न समयों में दो नागवर्मा ( ९९० तथा ११४५ ई० अनुमानित )। उनके बताये जाने वाले इस या उस प्रत्थोंके नामसे ( कर्णाटक कविचरित, बेंगलोर, १९६१, ०५३, ११४) व उनके छोम्बुधि
ग्रन्थ में निम्नलिखित पद्य मिलते है ।
जितबाणं हरियंतधः कृतमधूरं तारकासतियंततिमात्रं शिशिरात्यदंते सुरपप्रोडकोदंडदे- ।
ते तिरोभूतगुणाढ्य नब्जवन दंताविर्भत्र डिभारत देता तधनंजय क विभवं वागांदोलना किगं ॥
यहाँ पूर्वकदियों में धनंजयका उल्लेख किया गया है। आर० नरसिंहाचार्यका मत है कि यह द्विसन्धान के रचयिता धनंजयका उल्लेख है, किन्तु ए० बेंकट तुव्वस्थाका मत है कि दशरूपककार धनंजयका उल्लेख
अभिप्रेत है ।
जल्हण ( १२५७ ई० अनुमानित ) ने अपनी सूक्तिमुक्तावली में राजशेखर ( ९०० ई० अनुमानित ) के मुँह से धनंजय के विषय में निम्नलिखित पद्य कहा है ( गा० ओ० सी० सं०, ८२, बडोदा १९३८, पृष्ठ ४६ )
द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनंजयः ।
यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनंजयः ॥
यह लेखक के नामका धन तथा जय रूपमें पृथक्करण ठीक वैसा ही है जैसा स्वयं धनंजयने अपने काव्य में किया है
जैसा कि डॉ० हीरालाल जनने षड्खण्डागम धवलाटीका सहित, जिल्द १, अमरावती १९३८, प्रस्तावना पृ० ६२, वीरसेन्द्र ( वही जिल्द ६, पृ० १४ ) ते इति की व्याख्या में उपयोगी एक पद्य उधृत किया है। यह ठीक वैसा ही है जैसा धनंजयकृत नाममाला का ३९ व पञ्च ।
धनंजयका समय
उपर्युक्त सन्दर्भ हमें चनंजयका समय निर्धारित करने में मदद करते हैं। अकलंक ( ७-८वीं शती ईसबो ) तथा वीरसेन जिन्होंने ८१६ ईसदी में अपनी धवला टीका पूर्ण की थी, के मध्यमें हुए । धनंजयका समय ८०० ईसवी अनुमानित निर्धारित किया जा सकता है। किसी भी प्रकार वह भोज ( ११वीं शती का मध्य) जिन्होंने स्पष्ट रूपसे उनका तथा उनके द्विसन्धानका उल्लेख किया है, से वादके नहीं हो सकते ।
द्विसन्धानकाव्य
धनंजयकृत द्विसन्धानमें १८ सर्ग हैं तथा कुल श्लोक संख्या ११०५ जो कि विभिन्न छन्दोंमें लिखे गये हैं ( सूची अन्त में ) । प्रारम्भिक मंगल पद्य मुनिसुव्रत या नेमिका स्मरण किया है, उसके बाद सरस्वती की प्रशंसा की गयी है । दिगम्बर जैन लेखकोंकी यह सामान्य प्रवृत्ति है कि कथा राजा श्रेणिकके लिए गौतम द्वारा कही गयी बतायी जाती है । लेखकने घटनाओंके वर्णन को अपेक्षा विशिष्ट वर्णनों पर अधिक बल दिया है । अधिकांश लोक अलंकारयुक्त है और टीकाकारने उनको पूरी तरह अंकित किया है । अन्तिम अध्याय
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
द्विसन्धान महाकाव्य
( विशेष रूपसे श्लोक संख्या ४३ से आगे ) में लेखकने अनेक शब्दालंकारोंका चित्रांकन किया है, जैसा कि भारवि, माघ तथा अन्य कवियों में समान रूपसे मिलता है; श्लोक संख्या १४३ सर्वगत प्रत्यागतका उदाहरण हैं। यह मान कर कि सगँके अन्तमें दिये हुए पुष्पिका वाक्य (१, २, १६ वें सगमें उपलब्ध नहीं हैं ) लेखक के स्वयंके हैं, यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना नाम धनंजय, या धनंजय कवि, अथवा द्विसन्धान कवि दिया है तथा अपनी कृतिको द्विसन्धान काव्य अथवा अपर नाम राघवपाण्डवीय महाकाव्य कहा है। प्रत्येक सके अन्त में अन्तिम पद्य में श्लेषसे अपना नाम धनंजय दिया है जैसा कि विषापहार स्तोत्रमें । इसका अनुकरण राजशेखर के नामसे अभिहित पद्य में जल्हणने किया हूँ ।
यदि द्विसन्वान नाम रचना पद्धतिको व्यक्त करता है, जैसे प्रत्येक श्लोकके दो अर्थ या व्याख्या की जा सकती है, तो दूसरा नाम राघवपाण्डवीय काव्यकी विषयवस्तुका आभास देता हूँ कि यह एक साथ राम तथा पाण्डवोंकी कथा कहता है । इन दोनोंसे सम्बद्ध कथा-परम्परा भारतीय सांस्कृतिक विरासतका एक ऐसा अपरिहार्य अंग है कि कोई भी कवि जो एक साथ दो विषय लेना चाहता है, उस ओर अभिमुख होता है, विशेषतया इसलिए कि उन दोनोंका वर्णन करने वाले तथा वैकल्पिक चुनाव प्रस्तुतिकरणके लिए बड़ी संख्या में विस्तृत विवरण प्रदान करने वाले महाकाव्य उपलब्ध हैं । राघवपाण्डवीय नाम पर्याप्त प्रचलित है । धनंजय के अतिरिक्त कविराज, श्रुतकीति आदि कवियोंने इसे चुना है तथा इसी तरह के शीर्षक राघव यादवीय, राघवपाण्डव यादवीय उपलब्ध है ।
धनंजय काव्यका प्रथम शीर्षक द्विसन्धान है और वण्डिके बाद वह इस विधाके पुरस्कर्ता प्रतीत होते हैं: राघव पाण्डवीय मात्र दूसरा शीर्षक है ।
धनंजय तथा कविराज कृत राघव पाण्डवीय
धनंजय तथा कविराजके काव्यकी तुलना रुचिकर है। घनंजयके काव्यका एक नाम राघवन्पाण्डवीय है जो कि कविराजके काव्यका मूल शीर्षक है । धनंजय के काव्य में अठारह सर्ग तथा ११०५ पद्य हैं, जबकि कविराजके काव्यमें तेरह सर्ग तथा ६६४ पद्य हैं । धनंजयने श्लेषसे अपने नामका उल्लेख किया है जब कि कविराजने प्रत्येक सर्गके अन्तिम पथमें अपने आश्रयदाता कामदेवका नामोल्लेख किया है । वास्तवमें उनका काव्य कामदेवांक है । इन दोनों काव्योंकी विषयवस्तुकी पूर्ण तुलना एक प्रबन्धका विषय है । साधारणतया पढ़ने पर लगता है कि इन दोनों काव्यों में कोई बहुत बड़ी समानता नहीं है । घनंजयमें वर्णन अधिक है जब कि कविराजने श्लेषकी बाध्यता के बावजूद अपनी कथाके विवरणोंको सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है (देखें १.५४, ६९ आदि ) । जहाँ तक श्लेषका सम्बन्ध है कविराज भाषा पर अधिक योग्यता तथा अधिकार व्यक्त करते हैं । धनंजयका काव्य सर्वोच्च काव्यका प्रतीक स्मारक कहा जाता है, निःसन्देह उनका पाण्डित्य विशाल है, विशेषरूपसे नीतिशास्त्रका और उनके कतिपय अर्थान्तरन्यास वास्तव में गम्भीर एवं प्रभावकारी हैं । कविराजको शैली सहज तथा संक्षिप्त है जबकि धनंजयने प्रायः कठिन संस्कृत लिखी है, जिसे समझने के लिए प्रायः प्रयत्नको अपेक्षा होती है। उनके वर्णोंकी प्रस्तुतिमें द्वघर्थक श्लोक बहुत कम हैं जब कि कविराजकी रचनायें यह सामान्य बात है। जहाँ तक हमने देखा है इन दोषों काव्यों में किंचित् हो ऐसा होगा जिसे एक दूसरेका अनुकरण कहा जा सके ।
श्रुतकीर्ति और उनका राघव पाण्डवीय
एक और कवि हैं श्रुतकीर्ति त्रैविद्य जिन्होंने गत- प्रत्यागत पद्धति से जो विद्वानोंके लिए आश्चर्य और औत्सुक्यको वस्तु है, जैसा कि नागचन्द्र या लिखित रामचन्द्रचरित पुराण ( पाण्डुलिपि ) या पम्परामायण ( १ २४- ५, बंगलोर, १९२१ ) लिखा है
आवादिकथाrयप्रवणदोळ्" विद्वज्जनं मेचे वि द्यावष्टंभमन के परवादिक्षोणिभृत्पक्षभं । देवेंद्र दिदि कडिदं स्याद्वादविद्यास्त्रदि
राघव- पाण्डवीय की रचना की, अभिनव पम्पने अपने कन्नडमें
कीर्ति दिव्यमुनिवोल विख्यातियं वादिदं ॥२४॥
:
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय श्रुतकीर्तित्रविद्यवति राघवपाण्डवीय विबुधचमत्कृतियेनिसि गतप्रत्या
गतदि तेल्दभळकोतियं प्रकटिसिदं ॥२५॥ ये दो पद्य श्रवणबेलगोलके एक शिलालेख संख्या ४० सी ६४, सन् ११६३ ई० में उद्धृत हैं । इन अतीति विद्यका उल्लेख तेरदालके ११२३ ईसवीके एक शिलालेखमें है
पतु परवादीभपंचाननर सधर्म । श्रुतकीर्तित्रविद्यातिपर् षटुतर्ककर्कशह परवादिप्रतिभाप्रदीपपवनर् जतदोषर नेगळ्दरखिलभुवनान्तरदोळु ।
__ राजा गोंकने कोल्लागिरि या कोल्हापुरके माघनन्दि सैद्धान्तिकके (निम्ब सामन्तके गुरु) लिए भेजा पा तथा उनके साथी कनकनन्दो तथा श्रुतकीति अविद्य थे। कोल्हापुरसे प्राप्त ११३५ ईसवीके एक अन्य शिलालेख (एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द १९, पृष्ठ ३०, जन शिलालेख संग्रह भाग ४, बनारस १९६४, पछ १६२.६६ ) में ध्रुतकीतिका उल्लेख कोल्हापुरकी रूपनारायया वसदिके आचार्य रूपमें हुआ है
शकवर्षद सासिरदयवत्तेंटनेय राक्षससंवत्सरद कार्तिकबहुलपंचमिसोमवारदंदु श्रीमूळसंघदेसीयगण पुस्तकगारद कोल्लापुरद श्रीरूपनारायणवसदियाचाचरप्प श्रीश्रुतकीतिविध देवर कालं करि-इत्यादि ।
मागचन्द्रने उन्हें बती कहा है। उसी तरह तेरदाल शिलालेखमें भी। अर्थात् ११२३ ईसवी में वे व्रती ये फिन्तु ११३५ ईसवी में एक प्राचार्यको प्रप्तिधा प्राप्त कर चुके थे । विद्वानोंकी रायमें ( आर० नर. सिंहाचार्य, कर्नाटक कविचरित माग १, बेंगलोर १९६१, पृष्ठ ११० इ० ) नागचन्द्र ११०० ईसवीके । लगभग हुए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि श्रुतकीतिका समय ११०० से ११५० ईसवीके मध्य अनुमानित किया जा सकता है। अभी तक उनके राघव-पाण्डयोयकी कोई पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं हुई।
के० बी० पाठक धनंजय तथा श्रुतको तिकी एकता श्रुतकीतिके राघवपाण्डवीयसे निश्चित करनेवाले प्रथम व्यक्ति थे । आर० जी० भण्डारकरने इसे स्वीकार करने में संकोच ठीक ही व्यक्त किया है। किन्तु इस समानताके आधारपर प्रस्तावित धनंजयके समयकी बातमें पर्याप्त वजन है।
धनंजय तथा उनका द्विसन्धान या राघव-पाण्डवीय श्रुतकीर्ति और उनके राघव-पाण्डवीयसे भिन्न है : सर्वप्रथम क्योंकि धनंजय एक गृहस्थ ये जब कि श्रुतकीर्ति एक प्रतिन् सथा बादमें एक आचार्य। दूसरे, न तो धनंजय ही न अन्य स्रोत जो श्रुतकीतिका उल्लेख करते है, ऐसा प्रमाण देते है कि दोनों नाम एक ही कधिके है। तीसरे धनंजयकी नाममालासे वीरसेन (८१६ ईसवी) ने एक पद्य उद्धृत किया है तथा उनके द्विसन्धानका विशेष रूपसे धनंजयके नामोल्लेखके साथ भोजने ( १०१०-६२ ईसवी अनुमानित) उल्लेख किया है, जब कि श्रुतकीतिका समय ११०० से ११५० ठहरता है। अन्ततः, पदि धनंजयका द्विसन्धान दण्डिको समकक्षताके लिए प्रसिद्ध है और भोज ( ग्यारहवीं शतीका मध्य ) के द्वारा उल्लेख किया जा सकता है तो निश्चय ही यह श्रुतकीर्ति, जो ११३५ ईसवी में आचार्य थे, को रचना नहीं हो सकती। इसलिए इस एकताका कोई आधार नहीं है, और इसलिए इस एकताके आधार पर धनंजयका समय ११२३.४० ईसवी निर्धारित नहीं किया जा सकता। धनंजयके अध्येता
धनंजय तथा उनके द्विसन्धानने बहुत पहले से ही विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया है। यह आवश्यक है कि विस्तारसे उनके मन्तव्योंको यहाँ प्रस्तुत किया जाये तथा उपर्युक्त प्रमाण सामग्रीके सन्दर्भ में जांचापरखा जाये।
पाठक द्वारा श्रुतकीति तथा धनंजयको एकता
के० बी० पाठकने इंडियन एन्टीश्वेरो जिल्द १४, पृष्ठ १४.२६ में तेरदालके एक कनड़ी शिलालेखका का सम्पादन किया है। पैतीसवीं पंक्तिमें उन्हें श्रुतकीति विद्यका नाम मिला । अभिनव पम्पने श्रुतकीर्ति विद्यका उल्लेख राघवपाण्डवीयके लेखकके रूपमें किया है । मेषचन्द्रने समाधिशतक पर कन्नड भाषामें पम्प
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
द्विसन्धान महाकाव्य के सुपुत्रके निमित्त एक टीका लिखी और मेघचन्द्र के पुत्र (१) बोरनन्दिने शक सं० १०७६ में अपने आचारसारको रचना समाप्त की। इस उल्लेखके आधारपर पाठक पम्पका समय शक सं० १०७६ के कुछ पूर्वका स्वीकार करते हैं । तेरदाल शिलालेख, जिसमें श्रुतकीर्ति विद्यका नाम उल्लिखित है, का समय शक सं० १०४५ है । "इसमें और आचारसारके रचनाकालमें इक्कीस वर्षका अन्तर है। श्रुतकीर्ति विद्य ने शक सं० १०४५ के बाद ही अपने ग्रन्थका निर्माण अवश्य कर लिया होगा।" परन्त चकि कविने अपना वास्तविक नाम रचनासे सम्बद्ध नहीं किया, राघवपाण्डवीयका लेखक अज्ञात रहा होगा, यहाँ तक कि अपने समकालीनों. को भी इस बातसे परिचित नहीं कराया। और पम्प, जो जन और कविके रूपमें उससे अवश्य परिचित रहा होगा, ने उसके रचयिताके विषयमें यह महत्वपूर्ण तथ्य सुरक्षित हुआ। यहाँ फुटनोटमें के० वी० पाठकने लिखा है कि राघवपाण्डवीय नामके दो संस्कृत काव्य उपलब्ध हैं एक ब्राह्मण और दूसरा जन । परन्तु उपर्युक्त जन संस्कृत काव्य, जिसका रचयिता पम्पने श्रुतकीति विद्यको बताया, ब्राह्मण संस्कृत काव्यकी अपेक्षा लम्बा है । और बह धनंजयको रचनाके रूपमें प्रसिद्ध है यहां आठवें अध्यायको पुष्पिका और प्रथम अध्यायका अन्तिम पद प्रस्तुत किया मया है।" इससे स्पष्ट है कि श्रुतकीति विद्य और धनंजय एक ही व्यक्तित्व और कृतित्वकं दिग्दर्शक है । यहां यह उल्लेख करना आवश्यक नहीं कि धनंजय कोशके रचयिता कर्णाटकके दिगम्बर जैन है ।
पाठकका निष्कर्ष तथ्य संमत दिखाई नहीं देता। उनसे निर्णयमें कुछ त्रुटियाँ प्रतीत होती है । लगता है कि वे धनंजयको तो रचयिता मानते हैं और श्रुतकीतिको धनंजयको उपाधि स्वीकार करते हैं। परन्तु द्विसन्धान काव्य में उन्होंने कहीं भी इस ध्रुतिकोति विद्य जैसी उपाधिका उल्लेख नहीं किया है । यहाँ तक कि नाममालामें भी इसका कोई जिक्र नहीं जिसे पाठक धनंजयकी रचना मानते हैं। दूसरे विद्य एक चपाधि है जो आगम, तक और व्याकरणमैं दक्षता पाने की सूचिका है परन्तु श्रुतकीति इस प्रकारको कोई उपाधि नहीं, उसे तो अनेक जैनाचार्योंने अपने नियमित नामके रूपमें स्वीकारा है। अतएव धनंजय बोर श्रुतकीतिको एक मानना युक्तियुक्त नहीं । कविराजके समान श्रुतकीर्ति विद्या ने भी सम्भवतः राघवपाण्डवीय लिखा होगा वह हमें उपलब्ध नहीं । परन्तु उसे धनंजयफे राघवपाण्डथोयसे पृथक् ही मानना होगा। क्योंकि धनंजय और श्रुतकीतिको एक व्यक्तित्व मानने के लिए कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। तीसरे, श्रुतकीर्ति तेरदाल शिलालेख्न और पम्पके कथनानुसार ती था और बादमें कोल्हापुर शिलालेखमें इन्हें आचार्य के रूप में स्मरण किया है। परन्त उपलब्ध प्रमाणोंसे यह तुम जानते हैं कि धनंजय गहस्थ थे. मनि नहीं। उन्होंने अपनी ऐसी किसी परम्पराका भी उल्लेख नहीं किया और श्रुतकीर्तिके राघवपाण्डवोयके सन्दर्भमें अभिनव पम्प द्वारा प्रस्तुत वर्णन धनंजयके द्विसन्धान काव्यसे मेल नहीं खाता । श्रुतकोतिका राघवपाण्डवीय, गतप्रत्यागत प्रकारका है जब कि धनंजयका द्विसन्धान इस प्रकारका नहीं, उसमें तो गत-प्रत्यागत प्रकारके एक दो पद्य ही प्राप्त है। इस प्रकार, जैसा स्पष्ट है, वीरसेनने नाममालासे एक पद्य उद्धृत किया है, और भोजने धनंजय और द्विसन्धानका उल्लेख किया है, श्रुतकीति और धनंजय एक सिद्ध नहीं होते।
भण्डारकर द्वारा मान्य धनंजयका काल
आर० जी० भण्डारकर ( रिपोर्ट आन द सर्च पार मैनुस्क्रिप्ट्स इन द बाम्बे प्रेसीडेंसो ड्युरिंग व इयरस १८८४-८५, १८८५-८६, तथा १८८६-८७, बम्बई, १८९४ ) ने पनंजय नामक एक दिगम्बर जैनके काव्यको दो प्रतियोंका उल्लेच किया है। उन्होंने जिला है कि प्रथम भागके अन्तिम पद्यमें रचयिताको कवि कहा गया है। उन्होंने बादके पद्य को भी उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है कि "अकलंक को तर्कपद्धति, पूज्यपादका व्याकरण और द्विसन्धान के कविका काव्य ये त्रिरत्न है।" उन्होंने यह कह कर निष्कर्ष निकाला है कि संस्कृत कोष का रचयिता द्विसन्धान का भी रचयिता है । "कान्यका प्रत्येक पद्य द्वयर्थक है, दो प्रकारको अर्थ-प्रस्तुतिको द्विसन्धान कहा जाता है।" उनके समक्ष काव्यको दो प्रतियाँ ( नवम्बर ११४२ और ११४३ ) रहीं जिनमें दूसनी प्रति नेमिचन्द्रको टोका सहित है। उन्होंने भी लिखा है कि बर्धमान ( संवत् ११७९-सन् ११४७ ) ने अपने गुणरत्न महोदधि ( १०.५१,
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
प्रधान सम्पादकीय १८.२२, ४.६ ) में द्विसन्धानको उद्धृत किया है ( एगलिंगसंस्करण, पृष्ठ ९७,४०९,४३५ )।" काव्यका सही शीर्षक है-राघव-पाण्डवीय : प्रत्येक पद्यमें दो अर्थ है, प्रथम अर्थ महाभारत कथानकसे सम्बद्ध है और दुसरा रामकथाको व्यक्त करता है ।" चूंकि जैनाचार्योने ब्राह्मण लोक-साहित्य ( profane literature ) का अनुकरण किया है, और हम जनोंके मेघदूतसे परिचित है, यह कल्पना निरर्थक नहीं होगी कि धनंजयचे राघव-पाण्डवी यकी कथा कविराज नामक किसी ब्राह्मण कविसे ली है। कविराजका समय धाराधीश मुंजके बाद होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने संरक्षक जयन्तोपुरीके कामदेवकी तुलना मुंजा( मृत्यु ९९६ में हुई ) से की है । वर्धमानका काल ११४७ है । अतएव भण्डारकर कविराज और धनंजयको सन् १९६ और ११४७ के बोच रखते है, "यदि अनुकारणकी कल्पनाको सत्य माना जाये तो कविराजको धनंजयसे अवस्था में बड़े होना चाहिए । भण्डारफरने पाठकके मतपर भी विचार किया है । उन्होंने लिखा है : ऐसा कोई प्रमाण नहीं जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि श्रुतकीति और धनंजय एक है। परन्तु समकालीन पम्पके पुत्र के समयके माधारपर पूर्व निर्णीत समय सही बैठता है और निष्कर्ष दो व्यक्तित्वों और काव्योंको पृथक् स्वीकार करने के विपरीत नहीं पहुँचता।" भण्डारकरके मतको समीक्षा
आर० जो० भण्डारकर अपने मतकी अभिव्यक्तिमें अत्यन्त सावधान रहते है। उन्होंने धनंजय और श्रुतकीतिको एक मानने में पूर्ण स्वीकृति ध्यक्त नहीं की। उनका यह दृष्टिकोण एक सामान्य कयनके रूपमें स्वीकार किया जा सकता है कि जनाचार्योंने अपने कथा-साहित्यमें ब्राह्मण कथा-साहित्यका अनुकरण किया है, परन्तु धनंजयने कविराजका अनुकरण किया है। यह तथ्य किसी विशेष प्रमाणपर आधारित होना पाहिए । यहाँ भी भण्डारकर आग्रह करते हुए दिखाई नहीं देते, क्योंकि वे कहते है, "यदि अनुकरणको कल्पना सही है।" यदि धनंजयने किसीका अनुकरण किया है तो अब यह कहा जा सकता है कि उनके समक्ष दण्डोका द्विसन्धान रहा होगा जिनका उल्लेख एक नीचेके पद्यमें किया गया है। भण्डारकरका यह निष्कर्ष सही है कि कविराज मुंज ( ९९६ ई. ) के उत्तरवर्ती और धनंजय ११४७ ई० के पूर्ववर्ती रहे होंगे। नये तथ्योंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि धनंजय भोजके पूर्ववर्ती होंगे और कविराजका समय बारहवीं पशताब्दीके अन्तिम चरणमें नियोजित किया जा सकता है। पाठक द्वारा स्वमतकी पुनरुक्ति
प्रो० मेक्समूलरके उत्तरमें के० बी० पाठकने १९७० में "द जैन पोइम राघवपाण्डवीय ए रिप्लाई टू प्रो० मेक्समूलर" शीर्षक एक और शोधपत्र प्रकाशित किया { "द जर्नल आव द बाम्बे ब्रांच आव द रायल एशियाटिक सोसाइटी जिल्द २१, पृष्ठ १,२,३, दम्बई १९०४) उन्होंने अपनी पूर्व विचारधाराको बागे बढ़ाते हुए कहा कि तेरदाल शिलालेखके माघनन्दि सैद्धान्तिक श्रवणबेलगोलके शिलालेख नम्बर ४०में उल्लिखित किये गये हैं। उन्होंने यह बताया कि पम्पके पच श्रवणबेलगोल शिलालेखमें भी पाये जाते है। ध्रुतकीर्ति विद्य और देवकीर्ति ( मृत्यु शक सं० १०८५) साथी-समकालीन होना चाहिए। उन्होंने अधोलिखित गणना सम्बन्धी तथ्य हमारे समक्ष प्रस्तुत किये हैं
१. तेरदाल शिलालेख शक सं० १०४५ में श्रुतकीर्ति विद्यका उल्लेख करता है परन्तु राघवपाण्डवीयके रचयिताके सन्दर्भ में यह मौन है।
२. अभिनव पम्प शक सं० १०६७ में थुतकीर्ति अविद्या के काव्यका उल्लेख करता है।
३. श्रवणबेलगोल शिलालेख (नं. ४०, शक सं० १०८५) अभिनव पम्पके पद्योंको श्रुतकोति विद्यके पद्य रूपमें उल्लेख करता है और श्रुतकीर्ति की पहचान तेरदाल शिलालेखमें उल्लिखित श्रुतकीर्तिसे करता है।
इन कारणोंसे पाठक इस निष्कर्षपर पहुँचे कि श्रुतकीर्तिका अन्य शक सं० १०४५ में लिखा नहीं गया जना कि शक सं० १०६७ और १०८५ के बीच वह एक प्रसिद्ध काव्य माना जाता था। यह भी उल्लेखनीय
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धान महाकाव्य है कि पम्प उसे विद्वत्ताका आश्चर्यकारी नमना मानता है जिससे श्रुतकीर्तिने सुप्रसिद्धि अर्जित की। इन कथनोंसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पम्प केवल एक जनकाव्यसे परिचित थे और वह था सभी द्वारा प्रशंसित राघवपाण्डवोय । पाठकने यह भी देखा कि वर्धमान (वि० सं० ११९७ अथवा शक सं. १०६२ ) किस प्रकार अपने गणरत्नमहोदधिमें धनंजयके राघवपाण्डवोयका अनेक बार उद्धरण देते हैं और किस प्रकार चालुक्य नृपति जगदेवभल्ल द्वितीय (शक : 247)गा स.कालीन दुर्गासिंह पह कहता है कि धनंजय राघवपाण्डवीयको रचनासे बृहस्पति हो गये। यह कथन श्रुतकीर्तिके ग्रन्थके सन्दर्भमें होना चाहिए जिनका समय शक सं० १०४५ सिद्ध है। ऐसी कल्पना निरर्थक सिद्ध होगी कि अल्प समयमें शक सं. १०४५ और १०६२ के बीच समान शीर्षक वाले द्वयर्थक काव्य दिगम्बर जैन सम्प्रदायके दो कवियोंने रचे होंगे। यदि ऐसा होता तो श्रुतकीर्तिका अन्य शक सं० १०६० में विद्वत्ता की आश्चर्यकारी कृतिके रूपमें माना जाना समाप्त हो जाता। अतएव यह स्पष्ट है कि धनंजय श्रुतकीर्तिका द्वितीय नाम था
और उनके ग्रन्यका रचनाकाल शाक सं० १०४५ से १०६२ के बीच निर्धारित किया जा सकता है । पाठकके मतको दुर्बलताएं
यह स्वीकार कर लिया गया है, जैसा हमने अभी देखा, कि तेरदाल, कोल्हापुर और श्रवणबेलगोल शिलालेखोंमें उल्लिखित श्रुतकीति यही है जिन्हें पम्पने उद्धृत किया है। पम्पने और तेरवाल शिलालेख ( शक सं० १०४५-११२३ ई.) ने उन्हें प्रवो कहा है। परन्तु कोल्हापुर शिलालेख में उन्हें ११३५ ई. के आचार्यके रूपमें उल्लिखित किया गया है । पम्पने राघव-पाण्डवीयको उनसे सम्बन्धित माना है । विद्वानोंके बीच उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं स्वीकार किया गया था कि यह द्वयर्थक काव्य है बल्कि इसलिए कि वह गत-प्रत्यागत प्रकारका था । पाठकने कुछ तथ्यहीन तर्क प्रस्तुत किये है, परन्तु उन्होंने 'धनंजयका दूसरा ।। नाम श्रुतकीति है' यह सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया। अतएव वह स्वीकार्य नहीं। यह उक्त तथ्योंसे स्पष्ट है कि भोज धनंजय और उनके द्विसन्धान से परिचित था। वह और उनका अन्य स्पष्टतः श्रुतकीति और उनके राघवपाण्डवीयसे भिन्न है, परन्तु राघवपाण्डवीय प्रकाशमें नहीं आया है। हाँ, कविराज कृत राघवपाण्डवीय अवश्य प्रसिद्ध है, पर इन दोनोंसे वह भिन्न है । धनंजय पर राघवाचारियरके विचार
एस० ई० व्ही. वीर राघवाचारियरका निघण्टुक धनंजयका काल The date of Nighan tuka Dhananjaya शीर्षक एक लेख जर्नल आव द आन्ध्र हिस्टोरिकल रिसर्च सोसायटी, भाग २, नंबर २, पृष्ठ १८१-८४, राजमुंद्रो, १९२७ में प्रकाशित हुआ था। उनका उद्देश्य द्विसन्धान महाकाव्य अथवा राघव पाण्डवीय और धनंजय निघण्टु अथवा नाममालाके रचयिता धनंजयका काल निर्णय करना था ।
सुबन्धु और बाणमें श्लेष काव्य रचनेका एक विशेष गुण प्रसिद्ध है, परन्तु उनमें कोई भी द्वयर्थी कवि नहीं अर्थात् किसीने भी ऐसा काव्य नहीं रचा जो दो कथाओं अथवा सिद्धान्तोंको लिए हुए समानान्तर रूपसे समूचे काव्यमें दो व्याख्याओंको उपस्थित कर सके। राघवपाण्डवीयके रचयिता कविराज ( ६५०. ७२५ ई.) द्वयर्थी प्रबन्ध लिखने में पूर्ण दक्ष हैं। निघंटुक धनंजय, जो द्विसन्धान कान्यके समक। इ, मो उनके इस गुणको पुष्टि करता है । दशरूपककार धनंजयसे वे भिन्न है। निघंटुक धनंजयकार राजशेखर (८८०-९२० ई.) और जैन ( श्रीदेवी और वासुदेवके पुत्र, देखिए द्विसन्धानकाव्य १८, १४६ ) से पूर्ववर्ती हैं जब कि ब्राह्मण कलीन ( विष्णके पत्र और मंजका दरबारी कवि ) दशरूपककार धनंजय राजशेखरका उत्तरवर्ती है। 'प्रमाणमकलंकस्य' पद्य के अतिरिक्त दो अन्य अधोलिखित पद्य (निघंटु २.४९-५०) भी उद्धृत मिलते है ( नाममालाके ज्ञानपीठ संस्करणमें अनुपलब्ध )
जाते जगति वाल्मीको शब्द: कविरिति स्मृतः । कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति दण्डिनि ।। कवयः कवयश्चेति बहुत्वं दूरभागतम् । विनिवृत्तं चिरादेतत्कालो जाते धनंजये ।।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय
इन इलोकोंसे वीर राघवाचारियरने यह अनुमान लगाया है "कि दण्डी (६०.ई.के बाद नहों ) और धनंजयके बीच पर्याप्त अन्तर रहा है।" यह अम्सर ६०० और ८०० ई. के मध्य रखा जा सकता है।
कविराज वामन ( ८वीं शती ) की काव्यालंकार वृत्तिमें उल्लिखित है। उनका समय सुबन्धु और पाणभट्ट (५९०-६५० ई०) के दाद ठहरता है जिनका उल्लेख कविराजने वक्रोक्तिमें दक्ष कविके रूपमें किया है। द्विसन्धान कलापूर्ण है और ऐसा होने पर यदि कविराज धनंजय अथवा उनके द्विसन्धानसे परिचित होता तो निश्चय ही वे उन्हें भी यहाँ ( राधवपाण्डबीय, १.४१ ) सम्मिलित कर लेते । धनंजयका द्विसन्धान काव्यत्य प्रदर्शनकी भव्यता लिये हुए है। वह कविराजके राघवपाण्डवीयसे किसी भी प्रकार हीन नहीं, सम्भवतः ( अथवा निश्चित हो ) उच्च श्रेणीका ही बैठे। धनंजयने पूर्ववर्ती कवियोंका उल्लेख नहीं किया, अतएव कविराजका उल्लेख नहीं किया होगा, अथवा यह भी कहा जा सकता है कि धनंजय कविराज अथवा उनके कान्यसे अपरिचित रहे हों। इसका कारण उपेक्षा अथवा समयका अन्तराल हो सकता है। अतएव कविराजका समय ६५०-७२५ और निघण्टुक धनंजयका समय ७५०-८०० ई. नियोजित किया जा सकता है। राघवाचारियरके मतको समीक्षा F राघवाचारियर बार की निषेशगर प्रमानेमा काते है। यह उल्लेखनीय है कि जल्हण ( १२५७ ई० ) ने राजशेखर ( ९०० ई० ) के नाम पर धनंजयके पद्यको उद्धृत किया है। इसके बाद कविराज अपने राघवपाण्डवीय ( १.१८ ) में स्पष्टतः धार ( ९७३.९५ ई.) के मुंजका उल्लेख करते है
और अपने आश्रयदाता कदम्बवंशीय कामराज ( १.१३) के विषय में पर्याप्त कहते है। यह समसमें नहीं माता वीर राघवचारियरने इन तथ्योंकी उपेक्षा क्यों को । कविराजका कालनिर्णय करनेके लिए उनका समय आधार रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता।
बैंकटसुश्वियका खण्डन और विचार
वेंकट सुन्चिय 'दो आधसं आव दी राघवपाण्डवीय एण्ड गद्यचिन्तामणि' नामक शोषपत्र (जर्नल आफ ६ बी० बी० एस० सीरोज न्यु सोरीज ३, ६२, १९२५ १० १३४ ) में पाठकके निष्कर्षका विरोध करते हैं (१) तेरदाल शिलालेखके श्रुतकीति राघवपाण्डवीयके फतक रूपमें पम्परामायणमें उल्लिखित श्रुतकीतिसे अभिन्न होना चाहिए (२) श्रुतकीति कविका मूल नाम था और धनंजय मात्र संक्षिप्त नाम था, और (३) वह तथ्य अभिनव पम्प जानते थे जिन्होंने उनका उल्लेख उनके वास्तविक नाम रामायणसे किया है।
बी० सुम्वियके अनुसार अभिनव पम्पकी रामायणका रचनाकाल १९०० ई. के बाद और १०४२ ई. के पूर्व नहीं हो सकता। अतएव श्रुतकीर्तिका राघवपाण्डवीय १०४२ ई० के पूर्व लिखा गया होगा। उन्होंने आर० नरसिंहाचार्यके मतका उल्लेख किया है कि "श्रुतकीतिको रचनाका वर्णन जो पम्पको रामायणमें किया गया है, गत-प्रत्यागत काव्य प्रकारका है, यदि ऐसा काय जिसके एक ओर पढ़नेसे रामकथा और दूसरी ओर पढ़नेसे पाण्डकथा निकलती है, यह धनंजयके हिसन्धान काव्यमें लागू नहीं होता। यहाँ यद्यपि एक ही पद्यमें राम और पाण्डुकी कथा शब्द-चमत्कृति दिखाते हुए कही गयी है। फिर भी उसे गतरत्यागत काव्य नहीं कहा जा सकता अतएव धनंजयका राघवपाण्डवीय व श्रुतकोतिका राघवपाण्डवीय अभिन्न नहीं और इसलिए धनंजय और श्रुतकीर्ति एक नहीं कहे जा सकते ।।
बादिराज द्वारा पाश्र्वनाथ चरित ( समाप्तिकाल बुधवार, २७ दिसम्बर १०२५ ई.) में उल्लिखित पूर्वकवि सुम्वियके अनुसार वादिराजके पूर्ववर्ती रहे होंगे। अतएव अधिक सम्भावित यही है कि राघवपाण्डवोयके रचयिता धनंजय वादिराजके पूर्ववर्ती थे। श्रवणबेलगोल शिलालेख नं. ५४ (६७) में प्राप्त आचार्य परम्परामें मतिसागरके पश्चात् हेमसेन ( ९.५ ई० ) का नाम आता है। इन्होंका दूसरा नाम विद्या
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धान महाकाव्य धनंजय भी था । "अतएव यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि हेमसेन राघवपाण्डवीय स्थवा द्विसन्धान काव्यके कर्ता है और यह काव्य ९६०-१००० ई० में लिखा गया है।"
श्रुतकीतिका काव्य प्रकाशमें नहीं आया। वह निश्चित ही संस्कृतमें लिखा गया होगा। वेरदाल और श्रवणबेलगोल शिलालेख के श्रुतकीर्ति ११२३ ई. में विद्यमान थे और इनका राघवपाण्डवीय १०६० ई. के पूर्व नहीं लिखा गया ।
अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्रुतकीर्वि वही नहीं जिनका उल्लेख शिलालेखमें आया हुआ है, क्योंकि वे भिन्न-भिन्न परम्पराओंसे सम्बद्ध है। इन दोनों श्रुतकीर्ति नामक प्राचार्योने राघवपाण्डवीयको रचनाएं कीं और वे गतप्रत्यागत प्रकारक पद्यों में थीं. यह कल्पना तथ्यसंगत नहीं। मतयह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उक्त दोनों श्रुतकीर्तियों में कोई एक श्रुतकीर्ति ग्रन्थके रचयिता थे और इन श्रुतकीर्तिकी प्रशंसामें भी पम्परामायण में अथवा श्रवणबेलगोल शिलालेख में इन पद्योंका उपयोग किया है ताकि द्वितीय श्रुतकीर्ति भिन्न सिद्ध हो सकें। और चूंकि अभिनय पम्प जैसे उच्चकोटिके कविके सन्दर्भ में यह सोचना व्यर्थ है कि उन्होंने अन्य कवियों द्वारा निर्मित पद्योंको अपने ग्रन्थमें सम्मिलित किया होगा, अतः यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गतप्रत्यागत प्रकारक राघवपाण्डवीय पम्प रामायणमें उल्लिखित श्रुतकीति द्वारा रचा गया था न कि उक्त शिलालेखमें उल्लिखित श्रुतकीर्ति द्वारा।"
धनंजय और श्रुतकीर्तिके राघव पाण्डवीय भिन्न-भिन्न अन्य हैं, और उसमें कोई एक पूर्ववर्ती होंगे। परन्तु मुझे लगता है कि गतप्रत्यागत राघवपाण्डवीय द्विसन्धानको अपेक्षा अधिक कठिन है और इसलिए उसरवर्ती काव्य पहले लिखा गया और श्रुतकीर्तिने अपना ग्रन्थ धनंजयके अनुकरण पर बाद में लिखा। यदि यह विचार तथ्ययुक्त माना जाये तो श्रुतकीर्ति निश्चित रूपसे धनंजयके उत्तरवर्ती होंगे और उन्होंने अपना अन्य १०००-१२२५ ई० में लिखा होगा।"
पाठकके मतको विस्तृत समीक्षा करनेके बाद वेंकट सुब्बय्या कविराज और उनके राघवपाण्डवीयके सन्दर्भ में इन निष्कर्षापर पहुँचे : कविराजका आश्रयदाता कदम्बवंशीय कामदेव द्वितीय है। कविराज धनंजयके उत्तरवर्ती हैं, और उनका राघवपाण्डवीय १२३६ और १३०७ ई. के बीच लिखा गया है न कि १९८२. ९७ ई० के बीच जैसा कि पाठकने सुझाया है । बेंकट सुब्वियके निष्कर्षोंकी समीक्षा
__ वेंकट सुध्वियका यह विचार स्वीकार्य है कि श्रुतकीर्ति और उनका राघवपाण्डवीय धनंजय और उनके राघवपाण्डवी यसे भिन्न है। परन्तु उनका यह निष्कर्ष कि तेरदाल और श्रवणबेलगोल शिलालेखमें उल्लिखित श्रुतकीर्ति अभिनव पम्प द्वारा उल्लिखित श्रुतकीर्तिसे भिन्न होंगे, संदिग्ध सम्भावित और भ्रमित प्रमाणोंपर आधारित है । उन्होंने जो कहा वह सही हो सकता है परन्तु जैन आचार्य इतने संकीर्ण विचारधाराके नहीं रहे कि उन्होंने संघ, गण, गच्छ और बलिसे बाह्य साहित्यकारोंको सम्मान न दिया हो । वादिराजने अपने काव्यमें अपने पूर्ववर्ती लेखक और आचार्योका उल्लेख किया है। वे आचार्य और लेखक वादिराजके पारम्परिक पूर्ववर्ती हों, यह आवश्यक नहीं। धनंजय वादिराजके पारम्परिक पूर्व आचार्य थे और हेमसेन व धनंजय एक थे, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता । यह एक अन्य पहचान वैसी ही आधारहीन और प्रमाण रहित है जैसी कि पाठककी कल्पना जिसकी बेंकटसुम्वियने कटु आलोचना की है। प्रथम, धनंजय गृहस्थ थे। उन्होंने मुनि अवस्थाका कोई वर्णन नहीं किया और न आचार्य परम्पराका । अतः वे वादिराजके निकट पूर्ववर्ती होंगे, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता। द्वितीय, धनंजयने अपने किसी भी ग्रन्यमें अपना दूसरा नाम हेमसेन सूचित नहीं किया, और अन्तिम यदि विद्या-धनंजय नाम उपयुक्त माना जाये ( क्योंकि उसे "विद्याधनंजयपदं विशदं दधानों' भी पढ़ा जा सकता है ) तो 'विद्या' शब्द ही हेमसेनको किसी अन्य पूर्ववर्ती धनंजयसे पृथक कर देता है । अथवा यदि धनंजयको अर्जुन रूपमें स्वीकारा जाये तो हेमसेन विद्या धनंजय माने जा सकते हैं । अतएव उनकी यह पहचान और तिथि ९५०-१००० ई० स्वीकार नहीं की जा सकती।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय
३१
धनंजय पर साहित्यिक इतिहासकार
पाठक, भण्डारकर व अन्य विद्वानोंके अध्ययन से यह पता चलता है कि साहित्यिक इतिहासकारोंने धनंजय और उनके सिन्धानके विषय में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है । एम० विन्टर निरज (भा० सा० इ०, भाग ३; जर्मन संस्करण, पृ० ११२२ १३ वाराणसी १९६३ ) यह स्वीकार करते हैं कि धनंजयने ११२३-११४० ई० के बीच अपनी उपाधि श्रुतकीर्तिके नामपर ग्रन्थ लिखा । उन्होंने कदम्बवंशीय कामदेव ( ११८२-९७ ) के दरबारी कवि कविराजसे उन्हें पूर्ववर्ती माना । वामनकी काव्यालंकार वृत्ति ( ४.१.१० ) में उल्लिखित कविराजसे वे भिन्न हैं। ए० बी० कीथ ( ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ १३७, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९४८ ) ने कहा है कि दिगम्बर जैन लेखक धनंजय, जिन्हें शायद श्रुतकीर्ति कहा जाता था, ने ११२३ और ११४० के बीच अपना अन्य लिखा। इसके बाद कविराजका नाम आता है जिनका वास्तविक नाम कदाचित् मानव भट्ट था और जिनके आश्रयदाता कदम्बवंशीय राजा कामदेव ( ११८२- ९७ ) थे। एम० कृष्णमाचारी ( हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, १० १६९, १८७, फु० मद्रास, १९३७ ) घनंजयको नवीं दसवीं शती में रखते हैं और कविराजको १२वीं शतीके उत्तरार्ध में । अन्य प्रभाणों में नाममाला ( वाराणसी, १९५०) की प्रस्तावना, नाथूराम प्रेमीका जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ १०८, बम्बई १९५६, व ह्वी० गैरोलाका संस्कृत साहित्यका इतिहास, पु० ३५०-५१, वाराणसी, १९६० भी देखा जा सकता हूँ ।
आधुनिक भारतीय भाषाओंोंमें निर्मित सर्जनात्मक साहित्यपर एक लाख रुपये की पुरस्कार योजनासे भारतीय ज्ञानपीठने हमारे देशके शैक्षणिक प्रागण में गौरवमयी कोर्ति अर्जित की है। देशके गण्यमान्य साहित्यकार इस गौरवशाली पुरस्कार से सम्मानित किये जा चुके हैं। इसी प्रकार ज्ञानपीठने संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड प्राचीन हिन्दी में लिखित उपेक्षित साहित्यका प्रकाशन कर अपनी शक्ति व साधनका समुचित उपयोग किया है । फलतः लगभग साठ अन्योंका प्रथम बार प्रकाशन हो चुका है । विद्वत्क्षेत्र में इन ग्रन्थोंके सम्पादन विधिको भरपूर प्रशंसा की गयी है। ज्ञानपीठ लोकोदय ग्रन्थमालाने लगभग ३०० हिन्दी ग्रन्थोंका भी प्रकाशन किया है।
धनंजय का द्विसन्धान महाकाव्य संस्कृत साहित्य में उपलब्ध द्विसन्धान काव्योंमें सर्वाधिक पुराना और महत्वपूर्ण काव्य है । वह रामायण और महाभारतकी कथाको समानान्तर रूपले प्रस्तुत करता हूँ । अर्थात् प्रत्येक पद्य दो अर्थीको प्रस्तुत करता है, प्रथम अर्थ रामायणसे सम्बद्ध हैं और द्वितीय अर्थ महाभारतसे । वह संस्कृत भाषा fafa अर्थशक्तिका सुन्दर निदर्शन है। उसकी संस्कृत व्याख्या सहित सम्पादित एक सुन्दर संस्करणको आवश्यकता थी ।
कोल्हापुर २६ जनवरी १९७०
हम ज्ञानपीठ ट्रस्ट के संस्थापक श्रीमान् साहू शान्तिप्रसाद जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। यह उनकी अभिरुचि और उदारताका परिणाम है कि इस प्रकारका महत्त्वपूर्ण साहित्य ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है । श्रीमती रमा जैन, अध्यक्षा ज्ञानपीठ, के भी धैर्य और गाम्भीर्यको प्रशंसाके लिए शब्द अपर्याप्त हैं, जिनके अमित सहयोगसे इस काव्यका प्रकाशन सम्भव हो सका है। प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला भी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के लिए इस ग्रन्थका सम्पादन किया है ।
- हीरालाल जैन
- आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसंधानकाध्यस्थवृससूची वृत्तनाम सर्गाकः ( भाग्य:) श्लोकाः ( नागरी) १ अनुकूला 8.३०-३३ २ अनुष्टुभ् 7.१.१४; 9.१.५१; 18,१-१४४, ३ अपरवका 13.३७ ; 15.३४-४; 17.६५-६६ ; ४ इन्द्रवत्रा 8.२१,२३,४१,४२,४४ ; 10.३६ ; 17.८५-८६; ५ इन्द्रवंशा 11,७६; ६ उद्गता 17.१-३९; ७ उपजाति 2.३१,३३, ३.१-३८,४०% 5.१-६४; 6.४७-४८; 8.१८,२५,२८,२९,३४-४०,४३,४५-४७,
४९,५१,५४,५५,५७; 10.३९,४०; 11. ३२,३३,३५,३६ ; 12. ४८: 13.३०, ३२, ३५ ; 14. २५,२७-२८,३३-३६ : 16.१-८२; 17.४५,४६,५३,५५, ५७,६०,
६२-६४,६८,७३,७७; ८ औपच्छन्दसिक 10.४१,४२ : 13.३१ ( विषम चरण ); 17.४९,५४,६१,७९ ; १जलघरमाला 8.७,११,१३,१५,१७: १० जलोसतगति ४.२४%3; ११ तोटक 8.४८,५३६ १२ द्रतविलम्बित 5.६८: 6,५०:8.१-५,२०; १३ पुष्पितापा 2.३४ ; 5.६७ ; 13.३८ ; 15.१.३३ ; 17.५८,८३ ; १४ पृथ्वी 13.४४% १५ प्रमिताक्षरा 8.५६ ; 12.१-४६% 17.४३,४४,७८,८४ ; १६ प्रमुदितवदना 13.४०-४१ : १७. प्रहर्षिणी 5.६५ ; 8.६,८,२६ : ५.५२ ; 14.१-२४, १८ मत्तमयूर 8.३९; 8.१४,१९ ; 10.३७-३८; 13.१-२८,३६, 14.२६; १९ मन्दाक्रान्ता 13.४३ ; 14.३०; २० मालिनी 6.५१ ; 13.४२ ; 16.८३,८५; 17.८७ ; २१ रयोद्धता 8.१२; 10.१,३,५,७,९,११,१३,१५,१७,१९,२०,२१,२३,२५,२७,२९,३१,३३,३५,४४%
17.४८,५९ २२ वसन्ततिलका I.५२; 2.३०; 4.५५; 6.५२ ; 8.९,२२,५२ ; 10.४६ : 11.३४,३८,३९%,
____12.४७,५१,५२; 14.३८-३९ ; 15.४६-४८, ५०; 16.८६-८७ ; 17. ८९,९१; २३ वंशपत्रपद्रित 8.१६ २४ वंशस्थ 1.१.५१ : 6.१-४६; 10.४३ ; 11.३१, 13,३३,३९ ; 17.७१,७२,८२; २५ बियोगिनी 4.१.५४; 11.३९ ; 13.३१ (समचरण); 17.४१-४२ ॥
बंतालीय व वियोगिनी एकच. २६ वैश्वदेवी 2.१-२९ ; 8.२७ ; २७ शार्दूलविक्रीडित 7.९५; 14.३९, 18.१४५-१४६ ; २८ शालिनी 2.३२; 3.४१.४२ ; 6.४९; 8.१०,५; 11, १.३०,४० : 12.४९ ; 14.३२%;
17.४७,७०,७४,७५,८०,८१,९० २९ शिखरिणी 11.३७ : 12.५० ; 13.३४ ; 14.२९; 15.४९ ; 16.८४ : 17.४० ; ३० स्वागता .६६ ; 10.२,४,६,८,१०,१२,१४,१६,१८,२२,२४,२६,२८,३०,३२,३४ ; 14.३७ ।
17.५०,५२,५६,५९,६७, ८८; ३१ हरिणी ३,४३ ; 5.६९; 8.५८ ; 10.४५ ; 13.२९ ; 15.४५ ; 17.६९ ;
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ani
B महाकविधनञ्जय विरचितम् द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कविदेवरभट्टकृत 'पदकी मुदा' टीकासमन्वितम्
श्रीमान् शिवानन्दन ईशवन्द्यो भूयाद्विभूत्यै मुनिसुव्रतो वः । सद्धर्मसम्भूतिनरेन्द्र पूज्यो भिन्नेन्द्रनीलोल्लस दङ्गकान्तिः ॥ १ ॥ जीयान्मृगेन्द्रो विनयेन्दुनामा संवित्सदाराजित कण्ठपीठः । प्रक्षीबवादीभकपोलभित्तिं प्रमाक्षरैः स्वरैर्विद्वार्य ॥ २ ॥ तस्याथ' शिष्योऽजनि देवनन्दी सद्ब्रह्मचर्यव्रतदेवनन्दी | पदाम्बुजद्वन्द्वमनित्यमच्यं तस्योत्तमाङ्गन नमस्करोमि ॥ ३ ॥ मैलोक्यकीर्तेश्वरणारविन्दं पारे नयार्णोऽधितरां प्रणम्य । "विवासतां राघवपाण्डवीयां टीकां करिष्ये पदकौखुद ताम् ॥ ४ ॥
इदानीम् “नास्तिकत्वपरिहारः शिष्टाचारप्रपालनं पुण्यावाप्तिनिर्विभञ्च शास्त्रादौ तेन संस्तुतिरिति मनसि नृत्येक्ष्वाकुवंशोत्तंसीभूतस्य सकल भूतलैकछत्रितयशोमण्डलस्य दशरथतनयस्य सलक्ष्मणो लक्ष्मणान्वितस्य त्रैलोवयष्टकभानमर्दनस्य रामस्य धीरोदात्तगुणास्पदस्व तथा पाण्डुराजस्य राजाधिराजनमन्मुकुटतटजटितमणिगणकरनिकररक्षितपादारविन्दानां सोमवंश्यानां धीरोदात्तानाश्च (रायां) कथोद्योतनार्थं भगवतोर्मुनिसुव्रतनेम्योनंमत्कारं कुर्वतो द्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य काव्यस्य नान्दीश्लोकं व्याख्यास्यामः |
अन्तरंग तथा वहिरंग लक्ष्मीके स्वामी अतएव इन्द्रके द्वारा वन्दित शिवादेवीके नन्दन. श्री मुनिसुव्रतनाथ [ की भक्ति ] आप लोगोंकी सम्पत्तिका कारण हो । इनके शरीरका रंग तुरन्त तोड़े गये इन्द्रनीलमणिके समान है तथा रत्नत्रयमय समीचीन धर्मके प्रकाशक होनेके कारण वे चक्रवर्तियोंके द्वारा पूजे जाते हैं ॥१॥ आचार्य विनयचन्द्र रूपी सिंह चिरजीबी ही जिन्होंने न्याय वाक्य रूपी अपने नखोंके द्वारा मदान्ध वादी ( शास्त्रार्थंकर्ता ) रूपी हाथियोंके मस्तकों को फोड़ ( झुका ) दिया था तथा जिनके कंठरूपी सिंहासन पर भगवती शारदा सदा विराजमान थीं ||२|| इनके शिष्य देवनन्दी हुए थे जो निरतिचार ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें ही स्वर्ग सुख मानते थे। सबके द्वारा प्रार्थित तथा पूज्य इनके चरणकमलों के गुगलको मस्तक झुका कर प्रणाम करता हूं ॥३॥ देवनन्दी की कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त
| न्यायरूपी समुद्रको पार करनेके इच्छुकोंके लिए उनके चरणकमल नौकाके समान हैं । इन चरणको भलीभांति प्रणाम करके राघव पाण्डव कथामय इस द्विसन्धान काव्यकी 'पदकौमुदी' नामकी टीका करता हूं, जो कि इसके पढ़नेवालों को पार लगायेगी
सम्प्रति "नास्तिकता के परिहार, शिष्टाचारका पालन, पुण्यकी वृद्धि तथा विघ्नोंके विनाशके लिए शास्त्र के प्रारम्भ में इष्टदेवकी स्तुति करनी चाहिए ।" ग्य भावनाको मनमें लाकर इक्ष्वाकु वंशके मुकुट, सकल भूतलपर छत्र के समान छाये यशके स्वामी, शुभ लक्षण समन्वित, लक्ष्मी से बेष्टित, तीनों लोकोंके उपद्रवोंके मर्दक तथा धीरोदात्त नायक महाराज दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी तथा नमस्कार करते हुए राजाधिराजाओंके सुकुटीपर जड़े मणिसमूहसे निकली किरणोंकी राशिसे रञ्जित चरणकमलघारी, चन्द्रवंश में उत्पन्न, धीरोदात्त नायक पाण्डु राजाओंकी कथाको प्रसिद्ध करनेके लिए द्विसन्धानकाव्य के निर्माता कवि धनञ्जय-द्वारा किये गये भगवान् मुनिसुव्रतनाथ तथा नेमिनाथके नमस्कार के द्योतक मंगलश्लोककी व्याख्या करता हूँ ।
१. पाठः प० । २. त्र प०, द० । ३. पादा- १०, ६० । ४. प्रन्यमिति शेषः । अन्यपारं गन्तु मिच्छता मित्यर्थः । ५. मनसिकृत्य प० । ६. भुवस्त- प०, ६० ।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् 'श्रियं जगद्बोधविधौ विहायसि व्यदीपि नक्षत्रमिकमुद्गतम् ।
स यस्य वस्तीर्थरथस्य सुत्रतः प्रवर्तको नेमिरनश्वरी क्रियात ॥१॥ श्रियमिति । स सुव्रतो नाम 'विंशतितमतीर्थङ्करः अनश्वरी नित्यां मोक्षेणोपलक्षितां श्रियं लक्ष्मी क्रियात् । केषाम् ? वो युप्माकम् | कथम्मूतः ? तीरथस्य-तीर्थम् आगमः तदेव रथः शकटस्तस्य प्रवर्तकः प्रवर्तयिता । किं विशेषणाश्चितः सन् ? नेमिः नीयते हियो चक्रमनेनेवि निवंचनाचधारा । न हि नेमिमन्तरेणान्यो रथः सुखेन यातीत्यतो नेमिभूत्वा प्रवर्तक इति भावः । यस्य बोधविधौ केवलज्ञानानुष्ठाने । जगद्व्यदीपि भाति स्म । किमिव ? विहायसि गगने, उद्गतम् उदितम् । एक नक्षत्रमिव । एतेन भगवतो ज्ञानस्यानन्त्यं सूचितमस्तीति भावः ।।
इदानीं भारतीयः पक्षा–स नेमिः शिवानन्दनो द्वाविंशतितमतीर्थकरोऽनश्चरी श्रियं नियां लक्ष्मी कियात् । किंविशिष्टः ? प्रवतंकस्तीर्थरथस्य तीर्थचत्रिणः, सन् । वो युप्माकम् । पुनः किंविशिष्टः ? नुव्रतः नोमनानि निरतिचाराणि व्रतानि यस्थ रा तथोक्तः । यस्य बोधविधौ बोध एक दिश्रुश्चन्द्ररतस्मिन् बोधविधी सति तथा जगद्भुवनं व्यदीपि, अभासिष्ट इव यथा विहायसि नभरतले, बोधविधौ-सकलकलाकलापपरिपूर्णे चन्द्रे सति, नक्षत्रमेकमुद्गतं भाति । अत्र स एव भावः पूर्वोक्तः ।
अथ कवेः सुनतनेम्बोर्नमस्कारकरणादेव रामायण-भारतीबक्रथयोः कालः सूचितो भवतीत्याशयः । अत्र विप्रतिपद्यते कथं न चतुर्विंशतितीर्थकदृणां साधारणत्वात् समानधर्मत्वान द्वयोरेवाङ्गीकरणे कवरपरीक्षकस्वाभिधानलक्षणो नाम पक्षपातप्रसङ्गः स्यात् ? न हि जैनानां वचित्कदाचित्कञ्चित्कुतश्चित्कस्मिंश्चिद्वस्तुनि परीक्षकत्वाभावाद्विचारमन्तरेण पक्षपातोऽस्ति । नैवं मतम् । तेषां तीर्थकरसमुदावस्यापि ग्रहणात् । सुव्रतनेम्योर्ग्रहणादेव तीर्थकरसमुदायः कथंकारं लब्ध इत्ति चेत् ; नैवम् , स्मात्कारमुद्रामुद्रितस्य तस्याश्रयणात् । शब्दानामनेकार्थाभिधायकत्वात् । यथा श्वेताइवोऽत्र त्रयाणां ग्रहणम् । शुक्रतुरंगमस्य तथा तृतीबपाण्डवस्यार्जुनस्य भूरुहविशेषस्य चेति तथा सुनतोऽप्येकतीर्थकरस्तीर्थकरसमुदायो वा भवति, तस्य ग्रहणम् ।।
अन्वय-तीर्थरथस्य प्रवर्तको नेमिः स सुबप्तः वः अनश्वरी श्रियं क्रियात् , यस्य बोधविधीविहायसि उद्गतं एक नक्षमिव जगत् व्यदीपि ।
जिनतीर्थ (धर्म ) रूपी रथके आवर्तन के लिए धुरा-स्वरूप उन भगवान् मुनिसुव्रतनाथ [ की भक्तिके प्रसादसे ] आप लोगोंको अनन्तकाल पर्यन्त स्थायी मोक्ष-लक्ष्मी हो, जिनके केवलज्ञान रूपी चन्द्रमासे समस्त जगत् वैसे ही चमक उठा था जैसे नक्षत्रोंके अग्रणी सूर्यके आकाशमें उदित होनेपर होता है ॥१॥
अन्वय-तीर्थरथस्य प्रवर्तका सुचतः स नेमिः...... ।
जिनशासनरूपी रथक पुनः प्रवर्तक, निरतिचारवती भगवान नेमिनाथ [ की भक्तिके प्रसादसे आप लोगोंको वह लक्ष्मी हो जिसका कमी चिनाश नहीं होता है। तथा जिनके केवलज्ञानकल्याणक्रमी विधि हो जानेपर सारा संसार वैसे ही आलोकित हो उठा था जैसा प्रमुख नक्षत्र सूर्यके आकाशमें उदित होनेपर समस्त लोक होता है।
विशेषार्थ-बीसवें तीर्थंकर भगवान् मुनिसुव्रतनाथ तथा बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथको नमस्कार करनेसे श्री रामचन्द्रजी तथा श्री कृष्णचन्द्र के समयका संकेत हो जाता है। चौबीसों तीर्थंकरोंके एक सदृश तथा समानधर्मी होनेपर भी केवल उक्त दो तीर्थकरोको नमस्कार करनेके कारण क्यों न कविको अपरीक्षक तथा पक्षपाती कहा जाय ! जैनियोको किसी भी वस्तुमें, किसी भी स्थानपर, किसी भी समय, किसी भी कारणसे परीक्षा तथा विचार विना रञ्चमात्र भी पक्षपात नहीं होता है। अतः यहां भी नामोक्त दो तीर्थंकरोंसे
१. सर्गेऽस्मिन्वंशस्थं वृत्तम् । तल्लक्षणम्-"जतौ तु घंशस्थमुदीरितं जरौ" वृ. २०३।४७ । २. विंशस्ती- द. । ३. सुखमनेन च- प०, दः । ५. -रा नेमिः - ५०, द० ।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः
तद्यथा
स सुव्रतः शोभनानि व्रतानि यस्य तीर्थेकरसमुदायस्य स तथोक्तः । क्रियात् । श्रियमनदवरी निर्विघ्नां लक्ष्मीम् । किंचिशिष्टो, नेमिः, नीयन्ते प्राप्यन्ते सुरनरनागेन्द्राणां विभूतिं प्राणिनो धर्मपरा येनासौ नेमिः, प्रवर्त्तकः स्वर्गफलानां विभूतीनां निःश्रेयसपर्यन्तानां दातेति भावः केषां, वो युष्माकम् । किंविशिष्टः सन् प्रणेता वोढा । कस्य, तोर्थरश्रस्य । यस्य घातिचतुष्टयक्षयात् क्षत्रं कैवल्यस्वभाव उद्गतं समुत्पन्नं सत्, एकमित्र नव्यदीपि ? अपि तु अनेक मित्र शोभितम् । क्क, जगद्बोधविधौ, जगतां लोकानां बोधो हेयोपादेयफलस्तस्य विधिर्निर्माण, तस्मिंस्तथोक्ते । किंविशिष्ट ? विहायसि । विहायो विधिरूपम् । ओहाङ गतौ । विहानं विहा । विशिष्ट गतिरनन्यसंभाविनी । यस्, विपि रूपम् । यस् प्रयत्ने । यसनं यस् प्रयत्नः । विद्यो विशिष्टगतेस् यमन विहायस्तस्मिन् समवसरणप्रयत्ने, इत्यर्थः । एतेन समवसरणविहारप्रक्रमः कथितो भवतीत्यभिप्रायः काव्यटीकाकतुरमतिप्रसङ्गेन ॥१॥
"
हृदानीं श्रुतस्कन्धदेवतां वनदेवताव्याजेन ( साम्येन ) नमस्करोति-
सतीं श्रुतस्कन्धयने विहारिणीमनेकशाखागहने सरस्वतीम् । गुरुप्रवाहेण जडानुकम्पिना स्तुवेऽभिनन्द्ये वनदेवतामिव ॥२॥
1
सतीमिति । स्तुवै स्वीमि । कां सरस्वती सर्वज्ञभारतीम् । किंविशिष्टां सती पूर्वापर प्रमाणबाधारहिताम् । पुनः विारिणां विहरणशीलाम् । क्र, श्रुतस्कन्धवने श्रुतस्कन्धो द्वादशाङ्गं चदुर्दशपूर्वमिति यावत् स एत्र वनं तस्मिंस्तथोक्ते । पुनः कथम्भूते, अनेकशाखागहने, अनेकशाखाः, प्राभृतकादीनि यावत् । ताभिर्गहने 'तीर्थकर समुदाय' तात्पर्य है । मुनिसुव्रत तथा नेमिनाथकी स्तुति करनेसे तीर्थंकर समुदायकी स्तुति कैसे होगी ? यदि यह प्रश्न हैं तो स्याद्वाद दृष्टिकी शरण लेनेसे यह नहीं ही टिकेगा । शब्दोंके अनेक ई होते हैं । 'ता' कहने से सफेद घोड़ा, पाण्डव अर्जुन तथा कयफल वृक्षका ज्ञान होता है इसी प्रकार सुवत-नेमि समस्त तीर्थंकरोंके द्योतक हैं
अन्वय-- सुव्रतः नेमिः सः तीर्थस्थस्य प्रवर्तकः वः अनश्वरीं श्रियं क्रियात् यस्य उगतं क्षत्रं विहायसि जगद्बोधविधौ एकमिव न व्यदीपि ।
निरतिचार मद्दावती, स्वर्गसे लेकर मोक्षपर्यन्त स्थलों में ले जानेवाले तीर्थ ( धर्म ) रूपी मार्ग प्रवर्तक उन तीर्थंकरकी भक्तिके प्रसादसे आप लोगोंको निर्वाध महालक्ष्मीकी प्राप्ति हो, जिनका ज्ञानावरणी आदि चार घातिया कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न कैवल्यरूपी क्षत्र चलती हुई सभा ( समवशरण ) में संसारको हेय-उपादेय आदिका बोध कराता हुआ एक प्रकारसे ही नहीं चमका था अपितु अनन्त रूपों में प्रकट हुआ था ॥१॥
अव वनदेवताके उपलक्षणसे थुतस्कन्धको नमस्कार करते हैं
अन्वय---'जडानुकम्पिना गुरुप्रवाहेण अभिनन्द्ये अनेक शाखा गहने श्रुतस्कन्धयने विहारिणीं वनदेवताभित्र सतीं सरस्वतीं स्तुवे ॥२॥
कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य विवेकहीन मूर्खोके उद्धारक गुरुओंकी परम्परासे उत्तरोत्तर वर्द्धमान, प्राभृत आदि अनेक शाखाओं ( भेदों ) से गहन द्वादशांग तथा चतुर्दश पूर्व रूपी शास्त्रके वनमें विचरण करनेवाली अतएव वनदेवीके समान, पूर्वापर विरोध आदि दोषों से रहित होने के कारण सती सर्वज्ञकी वाणी ( दिव्य ध्वनि ) की विनती करता हूँ ।
वरुण देवता की कृपासे आये महान पूरके द्वारा बढ़ाये गये शाखाओंके विस्तारके कारण अगम्य तथा वृक्षोंके पुष्ट तथा उन्नत तनोंके लिए प्रसिद्ध वनमें विचरण करनेवाली अतएव साध्वी सरस्वती के समान वनदेवीको नमस्कार करता हूं ॥२॥
9. सम्भविन प० । २. वाणीम् ६० १ ३ 'जाता वेकवचनम्' । ४. "डलयोरभेदः" अतएव धनदेचतापक्षे 'जलानुकम्पिना इत्यादि । ५. 'शाखा प्राभृतकादीनि' ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् धने । पुनः कथम्भूते, अभिनन्ये, अभि समन्ताद्वर्धनीये । केन, कर्म गुरुप्रवाहेण, गुरखो गणधरादयस्तेषां प्रवाहः परम्परा, तेन । कथाभूतेन ? जडानुकम्पिना, जड़ा हेयोपादेयविकलाः, ताननुकम्पते, अनुकम्माविषयीकरोतीत्येवंशीलस्तेन । कामिव बनदेवतामिन धनलक्ष्मीभित्र । कथम्भूता बनर्देवताम् ! सती सानोपामसम्पूर्णलक्षणाम् । पुनः कथम्भूताम् ? विहारिणी', प्रकण विहरणदीलाम । छ ? श्रुतरकन्धवने श्रुता विख्याताः स्कन्धाः शाखाजन्मस्थानानि [तेषां वनम् तस्मिन् । कयम्भूते अनेकशाखागहने अनेकाश्च ताः शाखा विटपजन्मस्थानानि तेर्गहने] निविढे । पुनः कथम्भूने, अभिनन्ये अभिवसनीये ! के.न, गुरुपवान गरिन । कथम्भूनेग जानुकम्पिना, जलानुकम्पिनेति सम्बन्धः ॥२॥
चिरन्तने वस्तुनि गच्छति स्पृहां विभाव्यमानोऽमिनवैर्नयप्रियः ।
रसान्तरश्चित्तहरैजैनोऽन्धसि प्रयोगरम्यैरुपदंशकैरिव ॥३॥ चिरन्तन इति । अनो लोको गच्छति । कां, सहाम् । कस्मिन, वस्तुनि पदार्थे । किविशंपणाधित? चिरन्तने, पुरातने । कथग्गृतो जनः ? नवग्रियो नृतना मिलापुकः । पुनः बाथम्भूतो, विभाव्यभागः, आहायमानः। के रसान्तः शृङ्गारहास्यदरणारौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साद्भुतशान्ताय नव माटो रसाः स्मृताः ॥" [सं० अ० चि० ८.] इति रसेवककत्य निवृत्तेपत्तरोत्तरतया समुत्पद्यते इति कृत्वा रसान्तराणि ! कथम्भूतैः ? अभिनवैः, प्रत्यौः । पुनश्चिनहरैश्चेतोरसकैः । पुनः प्रयोगरम्पैः शब्दरचनारमणीयः । इन यथा । यथोपचंद्राय॑जानैः । नवनियो नानातिापी जनः । अन्धसि भक्ते । स्पृहां वाञ्छाम् । गच्छति प्राति । कथम्रतः ? प्रयोगरम्यैः, संरकारदिशेपोल्करमनोहरैः । विशिष्टः सन् ? विपच्यमानी रम्बमाणः । कैः ? रसान्तर:-रखाइम्त लवणतिरोपणकपाबका एते बसिन् मिना जायन्त ततो रशान्तराणि, तैः । किनिमिटैः ? चित्तौश्चित्ताहादिभिरिति ॥३||
स जातिमार्गो रचना च साऽऽकृतिस्तदेव सूत्रं सकलं पुरातनम् ।
विवर्तिता केवलमक्षः कृतिर्न कञ्चुकीरिव वयंमृच्छति ॥४॥ स इति । स जातिमागी जगतीपझ्याविछन्दः पतिः । चकारोवावधारणार्थी गम्यते । रचगा मैच, पदन्यासः । सैच आकृतिर्गद्यपद्यादिवन्ध लक्षणः संस्थानविशेषः, सा कथा, एकपुरपाश्रित चरित्रं सकलं समस्तम् । तदेव सूत्रम्, गद्यपद्मबन्धादिषु शास्त्रेषु सूज्यन्ते रच्यन्ते गुफ्यन्ते कथारूपतया अर्था येन तरसूत्रमिति
अन्चय-चितहरी अभिनवैः रसान्तरैः प्रयोगरम्यैः उपर्यशक विभाष्यमानः नप्रियः जनः अन्धसि इव चिरन्तने वस्तुनि स्पृहां गच्छति ॥३॥
चित्तके लिए आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित फलतः नवीन शृङ्गार आदि रसों तथा शब्दालंकारों और अर्थालंकारोंकी सुन्दर रचनामें प्रयुक्त घों के द्वारा प्रसन्न किया गया नूतनताका उपासक मनुष्य, भातके समान, प्राचीनसे प्राचीन कथामें अनुरस हो जाता है।
मनमोहक नये नये मोटे, खट्टे, फसैले आदि छह स्वादों तथा सुन्दर उपायोंसे बनाये गये ध्यञ्जनौके परोसे जानेपर नधीनताका प्रेमी मनुष्य पुरानी कथाके समान सनातन भातको भी खानेके लिए तैयार हो जाता है ॥३॥
अन्धय–स जातिमार्गो रचना आकृतिश्च सैव तदेव सकलं पुरातनं सूत्रं केवलमक्षरै विवर्तिता कृतिः कचुकीरिघ वयं न ऋच्छति ? ॥१॥
उपजाति आदि ही छन्द रहते हैं, पदद्वापय विन्यास भी पूर्व परम्परागत होता है, गद्य-पद्य मय ही आकार रहता है और सबके सय वही पुराने अलंकार-नियम रहते हैं तो भी
-य विवेक-वि-६० । २. विचरणशीलाम्-द०। ३. विशेषः-द। ५. अब इलेपोपमा--दछ । ५. याति का प० । ६. याम्न्छाम् १०। ७. चित्तानन्दि-५० । ८. इलेपोपभालंकारः ५० । १. दि बन्धद०,५०.
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः निर्वचनात् । पूर्वाचार्यप्रणीतत्वात् पुरातनं चिरन्तनम् । यद्यप्येवम् , तथापि केवलमक्षरैर्वर्णैः कृत्वा ! विवर्तिता परावृत्ता, सती। कृतिः काव्यम् । किम् वर्ण श्लाघाम् । न ऋच्छति आप्नोति ? अपि तु प्रामोत्येव । केव कञ्चकीरिव कसिशोभेव । यथा कञ्चुक्रश्रीरक्षरैरक्षेण सूच्या कृत्या परेषां ब्राह्मणादीनां वर्णानां द्रव्यं रान्ति ग्रहन्तीति निरुत्तरक्षराः 'द्विपकास्तैः, कर्तृभिः । केवलं परम् । विवत्तिता सती। किम् ? वर्ण श्लाघाम् न याति ? अपितु यात्येव । यद्यपिस एय जातिमार्गः, अङ्गबङ्गादिदेशोद्भवजनाभिप्रायः, सैव रचना हस्तावसरे फरविन्यास: (मावरणायनेकविन्यासः) सेवाकृतिः संस्थानं, केवलं सकलं तदेव सूत्र जन्तुजालरूपं चिरन्तन मिति सम्बन्धः । लपापा ॥४॥
कवेरपार्थामधुरा न भारती कथेव कर्णान्तमुपैति भारती ।
तनोति सालङ्कृतिलक्ष्मणात्विता सतां मुदं दाशरथेर्यथा तनुः ।।५।। कवेरिति । करिती वाणी । कर्णान्तं श्रुतिरन्नं नोपैति नाशयति । कथंभूता सती ? अपार्थार्थशून्या । अमधुरा माधुर्यगुणोज्झिता । कस्यचित् कचेरमधुरा सती, अर्थयुक्ता कन्तिमुपैति, कस्यचित्तवेरर्थशून्या राती मधुरा च । अर्थमाधुर्यगुणाभ्याभुज्झिता कालत्रयेऽपि कवर्भारती काणान्तं नोपैतीत्यभिग्नावः । कैव, भारतीकोत्र वगान्त नापैति । कर्णस्य गरेन्द्रस्य, अन्तो विनाशः, कन्तिस्तं कर्णान्तम् । कथम्भूता स्ती ? अपाश्री, अर्जुनशून्या तथा अभभुरा, मधु मधुनामानं नरेन्द्र, रौ ददौ, हतवानिलर्थः । स मधुरो नारायणः, [रामो दानभिति] अत्र दानवैदाने देङौ रक्षणे स्थादो मैं छेदने इति 'दारूपाणां चतुर्णा धातूनां रूपमेकविधिना स्वादतः कारणाच्छेदगायों गृहीतोऽस्ति । न विद्यते मधुरो अभ्यो सा अमधुरा, नारायणहिता । [ अमधुरा सती पार्थयुक्तत्वादपार्थी सती मधुरयुक्तल्वासथा' ] पार्थभरामा रहिता सती कर्णवधं नाश्नयतीति । स कभारती सतां परीक्षकाणा पुरुपाण मुदं ह तनोति । कथम्न्ता सती ? अलंकृतिलसणाऽन्दिता अलंकृतिरल्झारो लक्ष्म लक्षणं व्याकरगन् । अशनिश्च लक्ष्य चाहति । अन मारहारमाश्रयान सेनान्विता । यथा दाशरथे रामस्य रानु; शारीर, सतां सत्पुरुषाणां गुदं तनोति । कथम्भूता ? सालंकृतिलक्ष्मणान्वित्ता, सामरगेन सौमित्रिणा युक्तति राम्वन्धः । अत्र दलेपोपमा । अत्र कवेभारत्या दूषणभूषणे प्रदर्शिते ॥५॥ केवल अक्षरोंके विन्यासको बदल देनेसे ही क्या कोई रचना कञ्चुकके समान शोभित नहीं होती है ? अर्थात् होती ही है।
अंग-वंग आदि देशोंके ही पहिरनेवाले होते हैं, हाथके लिए बाँह आदि चिरन्तन शकल होती है तथा ताना-बाना तो पूराका पूरा पुराना ही रहता है तथापि दर्जियों के द्वारा पलट दिये जानेपर ही क्या कोई कपड़ा नूतन काव्यके समान शोभित नहीं होता है? अर्थात् होता ही है ॥४॥
अन्वय-अपार्था अमधुरा कवेः भारती भारतीकथेव कर्णान्तं नोपैति, अलंकृतिलक्ष्मणान्विता सा सतां मुदं तनोति यथा दाशरथेस्तनुः । ॥५॥ ___अर्थ शून्य तथा माधुर्य आदि गुणोंसे रहित कविकी वाणी, महाभारतको कथाके समान श्रोताओंके कानोतक नहीं पहुंचती है । अलंकार शास्त्र और व्याकरण-नियमों से युक्त घही कविकी याणी दशरथ-सुतके शरीरके समान सजनोंको प्रमुदित कर देती है।
अर्जुन बिहीन तथा मधुदैत्यके संहारकर्ता (श्रीकृष्ण ) रहित महाभारतका चरित कधिधाणीके समान राजा कर्ण के बध तक नहीं जा सकता है। [विश्वकी ] शोभा (सीता) तथा लक्ष्मणसे युक्त वह दाशरथि (श्रीराम)की छवि सहज ही भक्तोंको आह्लादित कर देती है ॥५॥
..-नां वर्णानां-६०, ५०। २. सूईके द्वारा धन कमानेवाले-अक्षर दर्जी । ३. रा ला दाने । रानमित्यत्र दुदायो दाने । दाण वैदाने । देखो स्मणे। छे [छो] दो मौ छेदने-६०। ५. अमधुरा सती अपार्था सती अर्थात् -इति पाठी युक्तः।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् ....- हृतोऽपि चित्ते प्रसभं सुभाषितैर्न साधुकारं वचसि प्रयच्छति ।
कुशिष्यमुत्सेकभियावजानतः पदं गुरोर्धावति दुर्जनः क सः ॥६॥
हृत इति 1 क स दुर्जनः खलो यो न प्रयच्छति ? कम् ? साधुकारम् । छ ? घचसि वाचि । कथम्भूतोऽपि ? हतोऽपि, गृहीतोऽपि । कैः कृत्वा सुभाषितैः सूनौः । क ? चित्ते हृदये । कथम ? प्रसभं बलास्कारेण । शिष्यं विनेयम् । उत्सेकभिया गर्वभयेन । अवजानतोऽवहेलयतोऽवज्ञाविषयीकुर्वतः । गुरोः यूरेः, पदं पदवी छ धावति ? अपि तु न । अत्र गुरुदुर्जगयोवैषम्यमिति भावः । विषमालङ्कारः ॥६॥
ततोऽधिके तादृशि वा कृतश्रमः परैः कृतं निन्दतु तत्र का व्यथा । ध्यलोकदग्थ्योऽयमादिनि स्वसत्यनाश्वानपि मन्युना तपन् ॥७॥
तत इति । ततस्तन्मात् परकृताद धिके काव्ये । तादृशि वा परकृतकाव्यसदृशे वा 1 कृतश्रमो विहिताभ्यासः सन् । परैः कृतं कायं निन्दनु दूषयतु, तत्र का व्यथा पीड़ा ? अपि तु न कापि । युक्तमेतत् । पर, व्यतीकवैदग्ध्यहतेऽसत्यचातुरीजर्जरीभूते । अपवादिनि, अपवदत्येवंशीलतः परदोपग्राहकस्तस्मिन् । अनाश्वान् तपस्थी । मन्युना कोपेन । ज्वलति दीतो भवति । कथम्भूतः ? तपन्नपि तपस्यन्नपि ॥७॥
कृतावतारायतिपुण्यनायकैरजातशत्रुप्रमुखैरियं कृतिः ।
न वार्च्यते केन न राघवारिभिर्नरोत्तमैः कोटिशिलेव चालिता ||८||
कृति | था, उपमानार्थः । केनेव न वाय॑ते पूज्यते कृतिरियम् ? अपितु विश्वजनेनाज़त इत्ययमों लम्यते । "द्वौ नौ प्रकृतमथं गमयतः" [ न्यायसं० पृ० ६.] इति वचनात् । यथा विश्वेनार्च्यते तथा मया कविना धनञ्जयनेति भावः । कथम्भूता ? कृतावतारा, कृतो विहितोऽवतारोऽवतरणं यस्यां सा तथोक्ता । कैः कर्तृभिः ? राघवारिभिः रामरावणादिभिः | कथम्भूतैः ? आयतिपुण्यनायकैः, आयतिरुत्तरकालरतया प्रधान पुण्यभायुषः स्थितिं यावत् , तस्य स्वाभिनस्तैः । पुनः, अजातशत्रुप्रमुखैः, न जाता शत्रवः प्रमुखाः संमुग्या
अन्वय-सुभाषितैः चित्तें प्रसभं हृतोऽपि दुर्जनः वचसि साधुकारं न प्रयच्छति । सः कुशिष्यमुत्सेकभियावधानतः गुरोः पद क धावति ? ॥६॥
मन ही मन कवियोंकी सूक्तियोंपर पूर्णरूपसे मोहित होकर भी दुर्जन मुखसे "साधु साधु" नहीं कहता है। किन्तु शिष्यकी सुन्दर रचनापर सर्वथा मुग्ध तथापि कुशिष्योंकी ईया अथवा अहंकारके डरसे उपेक्षा दिखाकर वचनोंसे प्रशंसा न करनेवाले गुरुकी समानता क्या वह दुर्जन कभी कर सकता है ?॥६॥
यदि यह पुरुष दूसरोंके काव्यकी निन्दा करता है जिसने दूसरोंके सदृश अथवा दूसरोंसे बढ़कर रचनाएं की हैं तो इसमें दुखी होनेकी कोई बात नहीं है। किन्तु झूठ-मूठ ही विद्वत्ताकी डींग मारनेवाले दूसरोंके निन्दक एमपर तो तपस्वी साधुका भी क्रोध भभक उठता है ॥७॥
अन्वय-यतिपुण्यनायकैः अजातशत्रुप्रमुखैः नरोत्तमः कृतावतारा राघवारिभिः चालिता कोरिशिलेव इयं नया कृतिः केन न अर्यते ॥८॥
विश्ववन्धु साधुओंके अग्रणी, श्रेष्ठ मनुष्य, पुण्यके स्वामी जिनसेन आदिके द्वारा पहिले लिखी गयी और राघणके द्वारा हिलायी गयी कोटिशिलाके समान यह नूतन रचना किसके लिए पूज्य नहीं है ?
१. इतरैः दर, प० । २. निन्दके ६०, प० । ३. अपवदती-६०, ५०। ४. अनान्तरालंकारः द, प० । ५. लब्धः-३०, ५० । ६. अनेना-१०, २० । ७. माद्यति पुण्यमा-प०, ६० । ८. -स्य नायकाः स्वा- पद।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः येषां तैः । पुनः कथम्भूता ? चालिता, चर्चिता ! कैः ? नरोत्तमैजिनसेनादिभिराचार्यैः । केव चारिता ? कोटिशिलेव । कैः ? नरोत्तमैनारायणैः । अत्र लोकघूज्यत्वाद्बहुवचनम् । कथम्भूतैस्तैः ? कृतावतारायतिपुण्यनायकविहितावतारदीर्घदेवप्रधानैः । पुनरजातशत्रुप्रमुखैरिति सम्बन्धः ।
अथ भारतीयपक्ष:--.नया नूतना सर्वदेयं कृतिरय॑ते । केन सुखेन त्वा । कीदृशी ? कृतावतारा । क? नरोत्तमैधीरोदात्तगुणास्पदैवारः । कीदृशैः १ अजातशत्रुप्रमुखैर्युधिष्ठिरप्रमुत्रैः । पुनः कीदौः ? नराधवारिभिः, नरोर्जुनः, अर्घ विघ्न यारपती त्येवंशीलोऽघवारी, नरोऽधवारी येषां तैनराघवारिभिरिति कवेभिप्रायः। अथवा नराणां मनुष्याणामधं पापं वारयन्तीत्यधवारिणस्तैस्तथोक्तः । “राज्ञि धर्मिणी धर्मीठाः, पापे पापा समे समाः । राजानमनुवर्त्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥" [चा. नी. द. १३॥८॥ ] इति वचनात् कवेर्ने भिचन्द्रस्वाशयः । चालिता प्रवर्तिता। कैः ? नरोत्तमैः समन्तभद्रादिभिः सूरिभिः । यथा नरोत्तमैः' कोटिशिला चालितोस्थिताः । अत्रोभयेषामाचार्यनारायणानां विशेषणानि' ज्ञातव्यानीति सम्बन्धः । अत्र इलेपोपमा ॥८॥
अथापरागोऽप्यपरागत्तां गतः स पश्चिमोऽपि प्रथमो विपश्चिताम् । अनुज्ञया वीरजिनस्य गौतमो गणाग्रणीः श्रेणिकमित्यवोचत ॥ ९ ॥
अथति । अथशब्दो मङ्गलवाची । उक्तञ्च-“हेतौ निदर्शने प्रश्ने स्तुतौ कण्ठसमीकृतौ । आनन्तयेधिकारार्थे माङ्गल्ये घाथ इष्यते ॥" गणाग्रणीगौतमो गणधरः । श्रेणिक मगधदेशस्वामिनं प्रति इति वक्ष्यमाणापक्षया अबोचतावादीत् । अनुज्ञयाऽऽज्ञया । कस्य? वीरजिनस्य,वर्द्धमानत्य 'चतुर्विशतितमतीर्थकरत्य । कीदृशो गौराम: ? अपरागोऽप्यपरागतां गतः अपरागतां वाच्यतां गतोऽपि कथमपरागो रजोमलरहितो भवतीति बिगद्धम् । परिहियते-अव्ययानामनेकार्थत्वादपिशब्दोऽत्र कारणाथै गम्यते । अपि यस्मात्कारणात् , अपरागतां गतः-पष्टे क्लुनि माद्यन्भिनकलत्रादौ प्रीतिः रागः, अपगती रागो यस्य सः तथोक्तस्तस्य भावोऽपरागता तो पातिराहित्यं गतः प्राप्तोऽत एवापराग ऐनोमलरहित इति सुस्थम् । कीदृशाः पुनः ? विपश्चिता विदुषां प्रथम
___ अन्वय- कृतावतार-आयतिपुण्यनायकैः अहातशत्रुप्रमुखैः नरोत्तमैः राघवारिभिः चालिता इयं नवा कृतिः कोटिशिलेव केन न अर्च्यते ।
अबतार कर्ता, भावी पीढ़ी के लिए आदर्श चरित्र, तथा जिनके सामने आनेका शत्रु साहस नहीं करते थे। ऐसे नारायण रामचन्द्र जी तथा उनके शत्रु (रावण) के जीवनसे प्रचलित इस नयी काव्य ( रामायण ) कथाको कोटिशिलाके समान कौन नहीं पूजेगा ? अर्थात् सभी पूजेंगें।
अन्वय--....."नराघवारिभिः नरोत्तमैः चालिता इयं कृतिः केन वा कोटिशिलेव न अय॑ते ।
मनुष्य पर्यायको प्राप्त, भविष्यके लिए अनुकरणीय चरित्रवान् तथा युधिष्ठिरको (गजा अथवा बड़ा भाई ) माननेवाले पाण्डवों तथा अर्जुन अथवा मनुष्य मानके पापोंके विनाशक शलाकापुरुप श्रीकृष्ण तथा नेमिचन्द्र के जीवनसे प्रारब्ध इस काव्य ( महाभारत) कथाकी कोटिशिलाके समान कौन व्यक्ति पूजा नहीं करेगा ? ॥८
अन्वय-अपरागोऽपि अपशगतां गतः पश्चिमोऽपि विपश्चितां प्रथमः गणाग्रणो गौतमः वीरजिनस्य अनुज्ञया श्रेणिकम् इत्यवोचत ।
__अपवादभाजन होकर भी रजोमलरहित तथा अन्तमें हो कर भी पीछेके नहीं; पहिले गांतम गणधर [विरोधाभास है , परिहार ] मित्र, कलत्रादि इष्ट जनोंकी प्रीति रहित अतएव पापमल हीन महावीरप्रभुके तुरन्त बाद हुए तथा इस युगके आचायोंके अग्रणी
1. कीदृशैः यतिपुण्यनायकैः । यसिषु प्रतिषु मध्ये पुण्याः प्रधानाः नायकाः स्वामिनस्तैः-५०, १०। २. अजासरिपुसम्मुखैः- प०, द.। ३. निराकरोती- पा० । ४. पुरुषोत्तमैः- ५०। ५. पूर्वोक्तानि. ५०.५० १६. चतुर्चिश- ५०, द.। ७. रजोमल-न। ८. विद्वज्जनानाम्-५०, द.।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् आद्योऽपि सन् कथं पश्चिमः पाश्चात्यः ? इति विरोधः । नैवम् , पारोक्ष्यत्वात् (परापेक्षत्वात् ) पदार्थधर्माणाम् । चीरजिनस्यापेक्षया पश्चिमो न विदुपामिति निरूप्यमाणत्वादिति सुस्थम् ।। विरोधालङ्कारोऽत्र || ९ ॥
इहैव जम्बूतरुमालवालवत्परीयुपोच्चैर्भरतेऽन्धिनावृते ।
निवस्तुमिष्टास्तिमितार्यकिन्नरैर्नगर्ययोध्यासमहास्तिनाख्यया ॥१०॥ __इहेति । हे आर्य, गुणैर्गुणवद्भिरयंते सेव्यत इत्यायों गुणगुणितमाश्रयरास्य सम्बोधने हे आर्थ, गुगगुणिसभाभव हे श्रेणिक । इहैव भरतेक्षेत्रे किं नास्त्याख्यया नाम्नायोच्या पुरी' ? अपि त्वत्येव । कथम्भूते भरते ? आकृते चेष्टिते । केन ? अधिना समुद्रेण । केनेव ? आलबालबदालवालेनेच स्थालकेनेव । कथम्भूतेन ? परीग्रुपा वेष्टितवता । कम् ? जम्बूतरुम् । कथम् ? उच्चरतिदावेन । कथम्भूता पुरी ? समहा सोत्सवा । पुनः कीटशी ? भाऽभिरिता | कैः ? नरैः । किं कर्तुम् ? निवस्तुं स्थातुम् 1 पुनः कीदृशी ? स्तिमिता स्थिरेति ।
अधुना भारतीयः-हे असमानुपम हे श्रेणिक ! हास्तिनारख्या गगरी पुरी। अति विद्यते । किनरैः यौः अथवाचकिन्नरैः प्रधानपकैः । पुनः मिता, योजनायामविकमसम्मिता | पुगः अयोच्या पर्योधुमशक्या । भारतवर्णनं पूर्ववज्ञातव्यम् । इलेषालङ्कारः ।।१०||
पुरी पयोधीन कुलपर्वतानपि प्रसाधयन्ती करशुद्धमण्डला | बिभर्ति साकेतकगोत्रसूचिता सरःसु लक्ष्मी प्रतिमा खेरिव ॥१२॥
पुरीति । तथा सरःमु सरोवरेणु । लक्ष्मी शोभाम् । विभरि पुरी नगरी कीदृशी ? सथितकगोत्र सूनिता, साकेतं कायति कथयति साकेतक, तच्च तगोत्रञ्च तसथोत्तमयोध्या-नामेति भावः, सातक गोत्रेण सूचिता | अपि शब्दः समुचयार्थः । आत्मीयपर्यायनाम्ना प्रसिद्धत्यर्थः । किं कुर्वाणा सती ! "आत्मगान् कुलपर्वतान् , श्री गौतम गणधरने महावीरप्रभुके उपदेशसे इस कथाको श्रेणिक राजाको निम्न प्रकारसे सुनाया था । ॥९॥
अन्वयआर्य ! जम्बूतरुमालवालबत् उच्चैः परीयुपा भन्धिना आवृते इहैव भरते स्तिमिता, समहा किन्नरैः निषसितुमिष्टा भारुपया अयोध्या नगरी नास्ति ?
आर्य श्रेणिक ! जम्वू वृक्षको सर्वथा क्यारीके समान धेरे तथा स्वयं लवण समुद्रसे धिरे इस [ जम्बू द्वीपके ] भारत क्षेत्रमें अत्यन्त दृढ़, उत्सवोंसे परिपूर्ण अतएव निवासके लिए किन्नर देवोंको भी प्रिय और नामसे अयोध्या नामकी नगरी क्या नहीं है? अर्थात् सर्वविदित है।
अन्वय-हे भसम ! ""मिता, अयोध्या, आर्यकिन्नरैः निवस्तुमिष्टा हास्तिनाख्यया नगरी अस्ति ।
हे निरुपम श्रेणिकराज ! जम्बू वृक्षके लिए थालेके समान तथा लवण समुद्रसे सब दिशाओं में घिरे इस [जम्बू द्वीपके ] भरत क्षेत्रमें योजनानुसार लम्बी चौड़ी, शत्रुओंके
आक्रमणोंसे परे अतएव आर्य लोगों तथा किन्नर आदि देवांके रहने योग्य हस्तिनापुर नामकी नगरी है ॥ १० ॥
अन्वयकरशुद्धमण्डलापोधीन् कुलपर्वतानपि प्रसाधयन्ती सा-केतकगोत्रस्चिता पुरी सासु रवः प्रतिमा इच लक्ष्मी बिभर्ति ।
व्यवस्थित राजस्व-व्यवस्था के कारण चोराधिहीन फलतः समुद्रो तथा सीमा पर्वतों तकके लिए अलंकारभूत और साकेत नामसे भी विख्यात वह अयोध्यापुरी तालाबमें प्रतिबिम्बित सूर्यकी प्रतिमाके समान सम्पत्तिका भण्डार थी। क्योंकि सूर्यमण्डल भी किरणोंसे
1. या नगरी पु-६० । २. बैः द० । ३, ते कीदृशी इष्टा । किर्तुं निवसितुम् द०, प० । ५. आरमगान् कुर्वती-प० । आत्मसात्कुर्वती-द।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
dowamuk
प्रथमः सर्गः पयोधीन समुद्रान प्रसाधयन्ती । अपिशब्दस्यायमों न केवलं पयोधीन् कुलपर्वतांश्च । कीदृशी पुनः १ करशुद्धमण्डल, कराय ( करण) सिद्धाय ( येन) शुद्धं चरटमत्तजनादिरहितं मण्डलं देशो यस्याः सा तथोक्ता । इवोपमार्थः । यथा रवेरादित्यस्य प्रतिमा विम्बं सरःसु लक्ष्मी विमर्त्ति । कीदृशी ? केतकगोत्रसूचिता, केतकानां गांत्र सन्तान केतकगोत्र, सूचीनां भावः सूचिता, सूचिता प्रादुर्भावः, केतकगोत्रस्य सूचिता यस्याः सकाशाभवति सा तत।
भारतीयः -इत्तिनापुरी करशुद्धमण्डला भूत्वा पयोधीन् कुलपर्वतानपि प्रसाधयन्ती सती रारम्सु लक्ष्मी शित्ति । गाकेतकगोत्रसूचिता सातकानां राजपुत्रविशेषाणां यद्गोत्रं तस्मै सूचिता सुष्टुचिता योग्या सा तथोक्ता । यथा रचेः प्रतिमा सर:मु लक्ष्मी नियर्ति । शेष समम् ॥११॥
विसारिभिः खानकपायभूपितबिभीपितेव प्रियगावमङ्गना।
शुषो समालिङ्गति यत्र सारवे इदे वरन्ती कलहंससंकुले ।।१२।। वितरिभिरिति । यत्र यस्यां नगर्याम् । शुचौ ग्रीष्मे सति । काससंकुले हदे तरन्ती देवमाला सती अङ्गना कामिनी शिवगात्रं समालिङ्गत्याश्लिष्यति । कीदृशे ? सारवे, सरव्या नद्या अयं सारवः तस्मिन् "देखिकायां खरव्याञ्च भवे दाविकसारचौ" इत्यमरः । केयोपक्षिता । विभीषितेव भयं नीतेत्र । कैः ? बिसारिभिसल्यैः । कथम्भूतः ? स्ानकषायभूपितैः । सानार्थ ऋणायाः कुडकुमादयः स्वानक्रपायातभपिता लिसास्तैः । भारतीये सारखे सस्वने। उत्प्रेक्षा ॥१२॥
अरान् घटीयन्त्रगतान् गतश्रमः पयाकणैरग्रपदेन पीडयन् ।
सु यत्र कच्छी सतनुः सुरालयं प्रयुज्य निःश्रेणिमिवारुरुक्षति ॥१३॥ अरामिति । यत्र यस्यां स कच्छी मालाकारः । सत्खनुः सशरीरः । सुरालयं त्वर्गम् | आरुरुक्षतीवारोमिछतीव । किं कृत्वा ? पूर्व प्रयुज्य सम्बद्धय । काम् ? निश्रेणिम् । किं कुर्वाणः सन् ? पीडयन् कदर्थयन् । कान् ? अरान काठकीलकान् । कथम्भूतान् ! घटीयन्त्रगतान् जलपात्राश्रितान् । केन कृत्वा ? अग्रपदेन चरणाग्रेण । कथम्भूतः ? गतश्रमो विगतलमः । कैः ? पयःकणैरुदबिन्दुभिरिति ॥१३॥
उदर्कसंक्लेशभरं स्वयं वहत् परस्य सन्तापहरं फलप्रदम् ।
युतं विजात्यापि विलअथ सजनं विभाति यत्रोपवनं समन्ततः ।।१४।। जगमग होता है, समुद्रों और पर्वतोंको आलोकित करता है तथा कमल-परिवारके लिए
* राज्य भरमें उचित राजस्वके लिए ख्यात अतएव समुद्रों और फुलाचलोकी भी शोभाको बढ़ानेवाली तथा साकेत बंशके राजपुत्रोंके लिए सर्वथा उपयुक्त वह हस्तिनापुरी सूर्य-चिम्बके समान तालाबों और लक्ष्मीले पूर्ण थी।
ग्रीष्म ऋतुमें जहां पर सुन्दर हंसांसे पूर्ण सरयू नदीके घाटोंपर तैरती हुई युवती, स्नान के समय लगाये गये लेप आदिसे रंगी मछलियोंसे डरकर अपने पतिके शरीरसे चिपट जाती है। . हस्तिनापुरमै सुन्दर हंसोंसे व्याप्त अतएच (सारवे ) कोलाहलपूर्ण स्वच्छ तालाबमें तैरती हुई अंगना....... है ॥ १२ ॥
जिन नगरियो में माली अपने पैरसे रेहटके गजाँको दबाता था तथापि पानीकी फुहारसे उसकी थकान दूर हो जाती थी। वह ऐसा लगता था मानो सीढ़ी विना लगाये ही अपने भौतिक शरीरके साथ स्वर्गमें चढ़नेका प्रयत्न कर रहा है। ॥१३॥
जिन नगरोंमें शिरपर चमकते सूर्यके आतपको स्वयं सहकर भी दूसरोंको गर्मीसे
१. किं कुर्वाणा सती प्रसाधयन्ती प्रच्छादयन्ती । कान् पयोधीन कुलपर्वतांश्च । कथम्भूता भूत्वा करशुद्धमण्डला । करैः किरणैः शुद्धं मपचलं यस्याः सा प०, द० । २. -अम् अन्वयः त-प०, ६० । ३. अग्रचरणेन प०, ९०। ४, अत्रीत्प्रेक्षा ५०,०।
हितू होता है।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् उदति । समन्ततः सामस्त्येन । यत्र यस्याम् । सजनं सत्पुरुषम् । विलङ्घयातिक्रम्य । उपवनमुधानम् । विजात्या युतमपि विशिष्टया जात्या युतमपि । विभातीति विरुद्धम् । परिहयते
वीनां पश्चिणां जातिस्तया युक्तम् । कीदृशम् ? उदर्कसङ्केशभरम्, अर्व गतोऽर्क: ऊर्ध्वं स्थितो रविरुदर्कस्तस्माद्यः संक्लेशभरः सन्तापभारस्तम् । बहत धरत । कथम् ! स्वयमात्मना । परस्य जनस्य सन्तापहरे सन्ताएं हरतीति तत्तथाभूतम् । कीदृशं पुनः ? फलप्रदं फलं प्रददातीति तत्तथा । अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामो दरीदृश्यते । सजनोऽप्येवं शोभतेतराम् । कीदृशोऽपि ? युतोऽपि । कन्या ? विजात्या, विशिष्टा मातृपक्षलाञ्छन्रहिता जातिस्तया । उक्तञ्चः- "मातुः पक्षो भवेजातिः पितुः पक्षो भवेत्कुलम्" { म. पु. प. ३९-८५ ] इति । उदकसंक्लेशभरम् , उदकः फलमुत्तर तसिन् संक्लेशभरस्तं वहन् विभ्रत् । परस्य सन्तापहरः फलपदश्च विरोधाभासः ||१४||
दशां दधानाः खलु गन्धधारिणी महाद्रमस्कन्धनिबद्धकन्धराः । स्वरन्धवैरोद्धटयेव सिन्धुराः शिरांसि यस्यां धुनतेऽरुणेक्षणाः ।।१५।।
दशामिति । यस्यां नगर्याम् । अरुणेक्षणाः लोहितलोचनाः । सिन्धुरा गजाः । शिरांसि शीर्षाणि धुनते कम्पयन्ते । कयेवोत्येक्षिताः । स्वबन्धवैरोट्या इव स्वबन्धबैरमुद्घाटयितुमिव । कीदृशाः १ गन्धधारिणीमतन्नाम्नी दशा मदावन्या म्बल निश्चयेन दधाना दधतः । पुनः कथम्भूताः ? महाद्रुमरकन्धनिबद्धकन्धराः, महाद्रुमा उच्चवृक्षाः, स्कन्धाः शाखोत्पत्तिस्थानानि, महाद्रुमाणां स्कन्धाः महाद्रुमरकन्धाराषु नियद्धा नियन्त्रिताः कन्धरा ग्रीवा येषां ते । उक्तञ्च-"सनाततिलका पूर्वा, द्विधीया कपोलिका । तृप्तीमार्द्धनिबद्धा तु चतुर्थी गन्धधारिणी ॥१॥ पन्चमी क्रोधिनी झंथा षष्ठी चैव प्रवर्तिका । सम्भि(म्पभिन्नकपोलाऽथ सप्तमी सार्वकालिका" ॥२॥ उत्प्रेक्षालंकारः ||१५||
कुशासनोदीरितचेतसश्चला मनोजवा मेघपथेतिवर्तिनः ।
प्रसह्य नीता गुरुभिर्महापथं नरोऽतिदाम्यन्त्यपि यत्र वाजिनः ॥१६॥ कुशासनेति । यत्र यस्यां नगर्या नरः नराः, अतिदाम्यन्ति सुशिक्षिता भवन्ति । कीदृशाः, गुरुभिः सूरिभिः, उपाध्यायैः कर्तृभिः महापथं सन्मार्ग प्रसह्य 'बलान्नीताः प्रापिताः । कथम्भूताः ? अतिवर्तिनः । बचानेवाला, फलीका दाता तथा कोने कोने में विशेष प्रकारको वृक्ष-श्रेणियोंसे पूर्ण उपवन सज्जनोंसे भी बढ़कर शोभित होता है।
पूर्वोपार्जित कमौके दुःखद परिणामोको स्वयं सहकर भी दूसरोंको शान्ति मार्गके उपदेष्टा, पुण्यके प्रेरक तथा सर्वथा पधिष मातृकुलसे सम्बद्ध सजन भी पवनोंको पछाड़ कर उन नगरियोंकी शोभा बढ़ाते थे। ॥१४॥
जिस अयोध्या अथवा हस्तिना नगरी में गन्धधारिणी (जिसमें हाथी माथेसे मदजलकी धार लग जाती है) अवस्थाको प्राप्त अतएव बड़े-बड़े वृक्षोंके तनोंसे गलेमें भी बंधे, उन्मादसूचक लाल-लाल नेत्रोंवाले बड़े-बड़े हाथी अपने धन्धनका विरोध करनेके लिए ही माथा धुनते थे ॥१५॥
अन्यय-यत्र कुशासनोदीरितचेतसः चलाः मनोजचामे अघपथेतिवर्तिनः नराः गुरुभिः प्रसह्य महापर्थ नीता अतिदाम्यन्ति ॥१६॥
जिन नगरों में कुशिक्षित दुष्ट लोगोंकी प्रेरणासे श्रान्त चित्त, नीति मार्गसे भ्रष्ट कामदेव मय विपरीत मार्गपर चले जानेके कारण शिष्टताकी सीमाओंके परे गये लोग भी गुरुओंकी सबल प्रेरणासे साधुमार्गमें लाये जानेपर अत्यन्त संयमी हो जाते हैं ।
1. -पं संस्तक्लेशं ह-प०, ६० । २. धरन्- ५०, ६० ॥ ३. हात् प०, द० ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः
अतिवर्तमानाः। छ ? अघपथे पापमार्गे । कथम्भूते ? मनोजबामे कन्दर्पानुकूले । कीदृशाः १ "तमः खलु चलं नीलम्" इति वचनात् । चलाः तमखिनः । कीदृशाः पुनः। कुशासनोदीरितचेतसः प्रशासनं दाशिक्षा विद्यते येषा ते कुशासनाः कुशिक्षादायिनः पुरुषाः तैरुदीरित ( उदीर्णम् ) उलितञ्चेतो हृदयं येषां से तथोक्ताः। तथा वाजिनः तुरङ्गमा अप्येवं गुरुभिरश्ववारैर्महापथं बाह्याली प्रसह्य हठात् नीताः । दाम्यन्ति मुशिक्षिता जायन्ते । कीदृशाः । मेघपथै नभसि अतिवर्तिनः, उत्प्लवनशीलाः । पुनः मनोजवाः मनोयोगिनः पुनः चलाः चशलाः पुनः कुशासनोदीरितचेतसः कुशा वल्गा आसनं स्थानविशेषः । कुशा च आसनञ्च कुशासने ताभ्यां कृत्वा उदीरितं दत्तं चेतो यैस्ते वल्गास्थानकदत्तचित्ता इति पालद्धारः ॥१६॥
प्रभाविरामस्य सपत्नसन्ततेः शरासनाम्यासपदं किरीटिनः ।
बहिर्यतोऽद्यापि निचाय्य दूरगं मदं विमुञ्चन्ति शरंन धन्विनः ॥१७॥ प्रति--यतो यस्ता नगयां अयोध्याया बहिर्बाह्यप्रदेशे अद्यापि साम्प्रतमपि किरीटिनो मुकुटवतो रामस्य शरासनाभ्यासपदं चापगुणनिकास्थानं दूरगं विप्रकृष्टं निचाफ्यालोक्य मदं गर्व विमुचन्ति अपाकुर्वन्ति धन्विनो धनुर्धराः न दारं वाग कथम्भूतम् ? प्रभावि प्रभवनशीलं कत्याः, सपत्नसन्ततः सपनाः शत्रवस्तेषां सन्ततः सन्तानस्वेति सन्बन्धः ।।
भारतीय::--किरीटिनोऽर्जुनस्य शासनाभ्यासपदमित्यन्धयः । कथम्भूतस्य किरीटिनः, सपत्नसन्ततेः प्रभाधिरामस्य प्रभाया विरामो वत्मात् तत्य शेषं पूर्ववत् ।।१७।।
प्रपासभासार्थनटाश्रमवजैर्जनाकुलैर्भान्ति भृशं बहिर्भुवः ।
प्रजाः कुतश्चित् परदेशभङ्गतो विलोलितायां शरणं गता इव ।।१८।। प्रति-बहिर्भुवः बहिर्भूमयो भृशमत्यर्थ भान्ति विभासन्तेतरां कैः ? प्रपासभागार्थनटाश्रमबजैः प्रपा पानीयशालाः सभानि योगिनां ( धर्माधर्म )विचारस्थानानि सार्थाः वणिज्जनानां समूहाः नटाः बहुरूपिणः ।
अन्वय--.""कुशा-आसनोदीरितचेतसः चलाः मनोजवाः मेघपथेऽतिवर्तिनः वाजिनः..।
जहांपर चावुक तथा सवारीके संकेतको समझनेके लिए बाध्य अत्यन्त चंचल, मनके समान तेज और आकाशमें उछलनेवाले घोड़े भी लम्बे-चौड़े रास्तोंपर ले जाकर साईसौके द्वारा सुशिक्षित बनाये जाते हैं ॥१६॥
अन्वय-अद्यापि यतो बहिः किरीटिनः रामस्य शरासनाभ्यासपदं दूरगं निचाय्य धन्धिनः मई विमुञ्चन्ति, सपनसन्ततः प्रभावि शर न ॥१७॥
आज भी जिस अयोध्याके बाहर मुकुटधारी रामके धनुषविद्याके सीखनेके स्थानको दूरसे ही देखकर धनुषधारी लोग अहंकारको छोड़ देते हैं, शत्रुओपर आतंक जमानेवाले चाणको नहीं चलाते हैं।
अन्वय-अयापि यतो हिपत्नसंततेः प्रभाविरामस्य किरीटिनः दूरगं शरासनाभ्यासपदं निचारय धन्धिन मदं विमुञ्चन्ति, शरं न ॥१७॥
आज भी जिस हस्तिनापुरीके बाहरके मैदान में शत्रु-समूहके प्रतापके अन्तक अर्जुनके धनुपविद्या सीखनेके दूर तक विस्तृत स्थानको देखकर धनुषधारी योद्धा मदको छोड़ देते हैं। तीरको नहीं छूते हैं ॥ १७ ॥
जिस अयोध्या अथवा हस्तिनापुरीके बाहरके भाग पौसरा, कर्तव्य-अकर्तव्य विचारक धर्मसभा, व्यापारियोंके झुण्ड, नटों, साधुओंके आश्रमों और पशु-समूहसे परिपूर्ण होने के
१.तीयः--यस्य बहिरथापि अधुनापि किरीटिनोऽर्जुनस्य शरासनाभ्यासपदं दूरगमतिदूरं निचाय्य निरीक्ष्य मदमवलेपं विमुञ्चन्ति परित्यजन्ति धन्विनश्चापधराः न शरं वाणं कथम्भूतस्य प्रभाषिरामस्य प्रभाया विरामो यस्मात्स तस्य कस्याः ? सपत्नसन्ततेररिकुलस्येति सम्बन्धः । श्लेपालंकारः-प०, ८० ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् आश्रमास्तपस्विनां मठाः बजाः गोकुलानि द्वन्द्वसमासापेक्षया तैस्तथोक्तैः । कथम्भूतैः जनाकुलै: (लोकसङ्कीर्णः) का इव उपेक्षिताः । कुतश्विद्धेतोः परदेशभङ्गतः शत्रुमण्डलनाशात् विलोलिताः कदर्थिताः प्रजाः कारुकादयः' यां नगरीं शरणं गता इवेति ॥१८॥
असूययाऽऽगम्य निशाम्य यां पुरो विलजयाम्भःपरिणामिनी दशाम् । ‘शतः इवामान्ति मुलाद्रिपेशलापरण्युलोलाः परिखाम्बुवीचयः ।।१९।।
असूययेति---परिखाम्बुवीचयः खातिकाजलकल्लोला । आभान्ति भासन्ते । कीदृशाः कुलाद्रिपेशलाः कुलाचलसदृशाः । पुनः । चरण्युलोलाः, अनिलचञ्चलाः असूयया परगुणानामराहनमसूरश ईर्ष्या तप्पा आगम्य प्राप्य' निशाम्य यां नगरी विलोक्य पुरोऽन्या नगयों विस्जया खूपया कृत्वाम्भःपरिणामिनीसम्भसोऽम्बुनः परिणामः पर्यायोऽस्यास्तीति सा तां तथोक्ताम् 'जलपरिणमनशीला दशामवस्थाङ्गता इनो प्रेक्षिताः ।।१०.||
इतस्ततोऽभ्रंलिहशृङ्गकोटयो विभान्ति यस्यां पुरि वप्रभूमयः ।
गजेन्द्रदन्ताहतिगारगह्वरैर्गवाक्षजालैरिव हर्म्यपतयः ॥२०॥
इतस्तत' इति—यत्यां पुरि वप्रभूमयः गिरितटारनवः परिखामेदिन्यो वा अमोहिको यो गगन. तल्पशिशिखराबाः विभान्ति । कैः कृत्वा ? गजेन्द्रदन्ताहतिगाढगहरैः दन्तीन्द्रदातदत्तप्रहारगादछिः। इव रथा आकाशतलस्पशिशिखरा" हापक्षयो सहगवः गवाक्षज्जार्वातायनादग्दर; कृत्वेति प्रोपगा ।।२०।।
समुच्छ्रिते यत्परिधौ हिरण्मये प्रहाविवागाधतले तमोरिपुः ।
भवत्यनूचान इवोनचर्यया स दृष्टनष्टोऽहनि मध्यमे चरन् ।।२१।।
साच्छित इति—हिरण्मये काशलमये समुच्छिते उन्नतें यरिधी यस्याः माबारे चर्भया तीनमत्या चरन् प्रवर्तमानः स सभोरिपुर्दिनकरो मध्यमेऽहनि मध्याह्ने छनष्टः पूर्व दृष्टः पयानो विलोकित तिरोहितो भवति अगाधतलेऽतलस्पर्शे प्रहादिव को यथा अनूचानस्तपस्यो चरन् उाचर्यया तीवत्रताचरणेन दृष्नष्टी भवतीत्युपमाना२२॥
सपुष्पशव्याजगतीलतागृहाः सहेमसोपानपथा सनिर्झराः । स्फुटन्तटा यत्र सुरोपसेव्यतां ब्रजन्ति मेरोरिव कृत्रिमाद्रयः ।।२२।।
कारण ऐसे लगते थे मानो किसी घिदेशके विनाशके कारण दुःखी जनता इस नगरकी शरणमें आ गयी है॥१८॥
कुलाचलोंके समान उन्नत तथा वायुके वेगसे अत्यन्त चपल खाईकी लहरें ईर्ष्या पूर्चक नगरकी तरफ आती थीं तथा इसे सारने देखकर लज्जित होकर पानी पानी हो जाती थीं ॥१९॥
जिस नगरमें गगनचुम्बी शिखरोसे युक्त पर्वतोंके ढालोंकी भूमि मदोन्मत्त हाधियों के दन्तमहारके द्वारा किये गये गहरे गड्ढोंके कारण ऐसी लगती थी मानो खिड़कियोंसे व्याप्त मकानोकी श्रेणी ही हो ॥२०॥
सोनेसे बने तथा अत्यन्त उन्नत जिस नगरके प्राकारके ऊपरसे तीवगतिसे जाता हुआ अन्धकारविनाशक सूर्य मध्याह्नके समय भी थोड़ी देरतक दिखकर छिप जाता है। तो अत्यन्त गहरे कुँपके भीतर घोर तपस्यामें लीन कभी एकाध क्षगके लिए बाहर आने घाले साधुके समान शोभित होता है ॥२१॥
१. यः जना यां प०, ६० । २. उत्प्रेक्षा प०, द० । ३. आगत्य ५०, द०। ४, लरूपप-प०,६०। ५, उत्प्रेक्षालंकारः ५०, द० । ६. इतस्ततः प्रदेशेषु द.। ७. चुम्बि--प० । ८. उपमालंकारः प०, द.।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः सेति-यत्र यस्यां नगर्या कृत्रिमाद्रयः क्रीडाचलाः सुरोपसेव्यता भदिरानुशीलित्वं प्रजन्ति यान्ति | कथम्भूताः सन्तः ? सपुष्पशव्याजगतीलतागृहाः पुष्पशय्याः कुसुमशयनानि जगत्यो वेदिकाः लतागृहा वल्लीमन्दिराणि तः सह वर्तमागाः । पुनः सहेमसोपानपथा: हेमसोपानपथैः कनकपादस्थानीयमाणैः सह वर्तमानाः । पुनः सनिराः निरैः जलप्रसौः सह वर्तमानाः स्फुट निश्चयेन इव यथा मेरोः मन्दरस्य तटाः सानधः मुरोपमेयत्तां देवाश्रयणीयतां प्रजन्ति । विशेषणानि प्राग्वत् ॥२२॥
अनेकमन्तर्वणवारितातपं तपेपि यन्त्रोद्धृतवारिपूरितम् । शिखावलान्यत्र महत्प्रणालिकं करोति धारागृहमन्दशङ्किनः ॥२३॥
अनेकेति-यत्र यस्यां नगर्यो बहताणारिक धारागृहका सपेऽपि ग्रीमेऽपि अब्दादिनः जलधरवितर्किणः शिपावलान् मयूरान करोति विदधाति । कीदृशम्-अनेक विविधप्रकार कीया पुनरन्तणयारितात बनमध्यनिराहतोमं (तोप्माणम्) पुनः 'वन्त्रोद्धृतवारिरितं सुगमं भ्रान्तिमानलकारः ॥२३॥
विशालकूटाः सुखवासहेतक: समुन्नता यत्र सुधालयालयः ।
ज्वलन्ति जालोद्तधूमयष्टयः पुरस्य धूमोद्मण्डिका इव ॥२४॥ दिशालेति-यत्र यत्यां समुन्नतः, उचाः सुघाल्याख्यः 'र्णमन्दिरणयः ज्वलन्त भान्ति 1 रथमृताः ? विशालटा: वित्तीणी खराः जालोक्तधूमययः वातायननिर्गलममीः यटिमर्यादि-शब्दानां प्रहांगा नाचिनासमिधागे हटलात् यशिपयोगः । पुनः सुखचासत्तरः सुखस्थितिकारणानि पुरस्य नगरस्य भाद्रमनुष्टि का इदोत्यधिताः । धूमार्थसुद्धमः प्रादुर्भावो यारा ताः मोतमाश्च ताः कुण्डिकाोति कर्मधारयः । ग्यारहेतवः सुखपरिमानिमित्तानि जालोबतधूमयष्टयः गोद लधूमयध्वः ॥२४॥
सुवर्णमय्यः शुचिरलपीठिका हारेगीना फलकैः कृतस्थलाः।
कलापिनां यत्र निवासयष्टयः स्फुरन्ति मायूरपताकिका इव ॥२५॥ मुरणेति-पत्र वा नगयों मुबर्णमध्यो हाटकाकाराः कलापिनां मयूराणां निवासबष्टयो गृहवरण्डिकाः स्फरन्ति भान्तीति । अथवा कं सुलं लपन्ति यदन्त्येवंशीलः कलापिनो मृदुभाषिणः सत्पुरुषाः तेषां निवा
जिन नगरों में पुप्प-शय्यासे ढकी वेदियोंसे युक्त कुओंसे परिपूर्ण, सोनेकी सीढ़ियोंसे बने मार्गसहित तथा झरनोंसे व्याप्त क्रीडापर्वत मदिरापान ( सुरा-उपसेवन )के कार्यमें आकर स्पष्ट रूपसे सुमेरुपर्वतके ढालौकी समता करते थे क्योंकि मेहके तटोपर भी देवता (सुर ) क्रीड़ा करते हैं ॥२२॥
जहांपर मध्यमें खड़े अनेक धनोंके द्वारा गर्मीको दूर किये जानेके कारण, यंत्रसे निकाले गये पानीसे प्लादित तथा बड़ी-बड़ी नालियोंसे युक्त धारागृह ( जलकल ) ग्रीष्म कालमें भी मोरोको मेघोंका सन्देह करा देता था ॥२३॥
जिस अयोध्या अथवा हस्तिनापुरीमें आनन्दसे रहने योग्य, खूब ऊंचे ऊंचे, उन्नत शिखरोसे सुन्दर तथा वातायनोंसे सुगन्धित शुआं निकालते हुए चूनेसे वने विशाल भवन इन नगरीकी धुआं देनेवाली अंगीठीके समान जगमग हो रहे थे। धूमकुण्डी भी ऊंची, बड़े शिखरयुक्त दहनसे हकी, सुखद गंधका उद्गम, सुधा स्वाहादिकी लयसे पूर्ण तथा जालीसे धुआं निकालती रहती है ॥२४॥
जहांपर सोनेसे वने, निषि रत्नाकी पीटिकापर रखे तथा हरित मणियोंसे बनी भूमियुक्त मोरों के बैठने के डंडे मोरध्वजके समान लहलहाते थे।
१. सरबजलप्रवाहिक-द० । २. यधाकृष्टपयःपूर्ण-द० । ३, -शुभम-द०, प० । ४. कथम्भूता विशालकूटा विशालकण्ठाः सु-द०, प० । ५, -क्षरन्धोद्रीण - धू-द, प० । ६. अनोत्प्रेक्षा-द०, प० । ७. कनकविकाराः-६०, प० ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
] इति वचनात् ।
यो पङ्कयः स्फुरन्तीति टीकाकृतः "मृदुभाषिणो हि सन्तः " [ 'शुचिरत्नपीटिकाः स्फटिकमणिपीठिकाः पुनः हरिन्मणीनां फल्दकैः पट्टिकाभिः कृतस्थस्याः विहितास्पदाः का इवोत्प्रेक्षिताः मायूरपताकिका इव मायूरवैजयन्त्य इत्र स्फुरन्तीति सुस्वमत्रोपमा ||२५||
सितासिताम्भोरुहसारितान्तराः प्रवृत्तपाठीनविवर्त्तनक्रियाः । समायता यत्र विभान्ति दीर्घिकाः कटाक्षलीता
नारोषिताम् ||२६|
सितेति यत्र यस्यां नगर्यो समायताः समाः समकोणाः आयताः दीर्घाः दीर्घिकाः क्रीडावायो विभान्ति | कथम्भूताः ? सितेत्यादि श्वेतनीलपद्मपूरितमध्याः । पुनः प्रवृत्तपाठीनविवर्तनक्रियाः प्रवृत्ताः सञ्जाताः पाठीनानां मीनानां त्रिवर्त्तनक्रियाः ' यासु ताः । इव यथा वास्योषितां कटाक्षलीलाः, अपाङ्गपातशोभाः विभान्ति । कथम्भूताः १ सितासिताम्भोरुहसारितान्तराः शुक्तश्यामलाम्बुजैरिव 'संचलितमभ्याः प्रवृत्तपाटी नविन क्रियाः प्रवृत्ताः पाटीनानामिव विवर्त्तनक्रिया यासां तास्तथोक्ताः ॥ २६ ॥ अदृश्ययारापतनाभिहेतुषु स्थिरान्धकारेषु जलावगाहिषु ।
अधोगतिं सम्प्रतिपन्नवत्सु या न कूपदेशेष्वषि सत्सु दूषिताः ||२७||
अदृश्येति-अधोगतिं निन्द्याचरणं सम्प्रतिपन्नत्रत्सु सम्प्राप्तवत्सु पुनः पतनाभिहेतुषु गृहीतव्रतप्रच्यवनाभिकारणेषु पुनः स्थिरान्धकारेषु स्थिरपापेषु पुनः जलावगाहिषु "डब्योरमेदात् जल कडा "मूदास्तानवगाहन्ते व्याप्नुवन्त्येवंशील्त्रः तेषु कूपदेशेषु सत्सु अदृश्यपारापि अनिरीक्ष्यपर्यन्तापि या नगरी न दूषिता न दूषणविषवीकृता३ | नैवम् अन्यस्यार्थस्व" प्रतिपाद्यमानत्वात् । तथाहि अधोगतिमधस्तात् विवरमार्गे सम्प्रतिपन्नवत्सु पुनः अवारा पतनाभिहेतु अस्याः पारापताः कन्दर्पचतुराः पक्षिणो यत्र सा अय्यपारापता सा चास नाभिश्र मध्यं सा तथोका, हिनोति निर्णयवृद्धिं नयति वस्तुतस्त्वभिति हेतुः इति निर्वचनात् । तस्या नाभेर्हेतवो वृद्धापकास्तेषु तथषु पुनः स्थिरान्धकारेषु स्तिमित्तमस्तोमेषु पुनः जल्यवगाहिषु जल्मवगाहिव्यापि येषु तेषु तथोक्तेष्वपि कृपदेशेषु प्रहिप्रदेशेषु अपि सत्सु या न दूषितेति" ॥२७॥
१४
स्फटिक मणियों के आसन, हरित मणियों के फर्शयुक्त सोने से बने अथवा सुन्दर रंगों से चित्रित मधुरभाषियों ( सज्जनों) के गृहों की पंक्ति मोरोंसे बनी पताकाके समान शोभित होती थी ||२५||
जिस नगर में समकोण आयताकार बावडियां श्वेत तथा नील कमलोंसे पूर्ण होनेके कारण तथा मछलियोंकी उछल-कूदकी क्रियाके आधार होनेसे वेश्याओंके समान सुशोभित होती थीं।
एकत्रित श्वेत तथा कृष्ण कमलोंकी कान्तियुक्त तथा चलती मछली के समान चंचल गतियुक्त वेदवाओंके विशाल कटाक्ष जिस नगरीमें वावड़ियोंके समान शोभित होते थे ॥ २६ ॥ नीच गतिकी ओर उन्मुख, पतन के समर्थ कारण, दृढ़ पापी तथा मूखों के लिए प्रभा मिथ्या उपदेशकों के रहते हुए भी वह विशाल नगरी दूषित नहीं हुई थी ।
खूब नीचे चले गये, मध्य भागमें कबूतरोंसे रहित, अथवा गुप्त जलस्रोतोंसे युक्त, सदैव अन्धकारपूर्ण और अथाह जलसे पूर्ण कुँओंसे व्याप्त वह हस्तिना अथवा अयोध्यापुरी निर्दोष नगर थे ||२७|
१. न्यः हर्म्यं परम्पराः स्फु- द०, प० । २ कीदृइयस्ताः ६०, प० । ३ -नां मरकतमणीनां क - द०, प० । ४ न्ति शोभन्तेतराम् क- ६०, प० । ५. कमल - ६०, प० । ६. याः परिवर्तिनि क्रिया या द० । ७. तां पण्याङ्गनानां कप० द० । ८ सञ्चालित - दु० । ९. उपमा प० द० । १०, यमकश्लेषचित्रेषु वबयोलबोर्न भिदिति वचनात् द०, प० । ११. मूर्खा द०, प० । १२ पु कुत्सितोपदेशेषु स - दु० । १३. तेति विरुद्धम् द०, प० । १४ – स्यार्थस्य - द० । १५. विरोधालङ्कारः ५०, प० ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः अशोकसप्तच्छदनागकेशरैः सुताधिकैराततपुष्पवासनैः ।
प्रयान्त्यभिज्ञातपथाः कथश्चन क्षपासु यस्यां प्रियवासमङ्गनाः ॥२८।। अशोकेति-यत्यां नगर्यो क्षपासु रात्रिषु कथञ्चन महता कप्टेन अभिज्ञातपथाः, आत्मप्रतीति नीतमार्गाः जयवागं वाभारतमन्दिरम् अङ्गनाः' प्रयान्ति' । कैः ? अशोकरातच्छदनागकेशरैः अशोकाः पिण्डीद्रमाः सप्तच्छयाः सप्तपर्णाः नागकेशरा वृक्षविशेषाः इन्द्रापेक्षया शैस्तथोक्तैः । कीदृशैस्तैः राभिः मुताधिकः पुष्पाधिः पुत्रवदनिकै वो आततपुष्पवासनैः प्रसृतपुप्पा मोदैरिलुपमालङ्कारः ॥२८॥
विशीर्णहारा हतकीर्णशेखराश्च्युतोरुजाला गलितावतंसकाः ।
रतोत्सवे विस्मृतसीधुशुक्तयो यदीयसङ्केतभुवश्वकासति ।।२९।। विशीति-चदीयसङ्केतभुत्रः यदीयवल्लभा गनोऽभिप्रेतभूययः रतोत्सये चकासति भान्ति । कथम्भूताः? चितीर्णहायचरितमौक्तिकावल्यः हतकीर्णशेखराः पूर्वे हताः पश्चात् कीर्णाः होरबराः शिरोमहलजो यासु 'ताः गन्दितावतंसकाः पतितकर्णाभरणाः विस्मृतसीभुक्तयः विस्मृतमद्यचका इति ॥२९॥
तर्नु नटन्त्याः किल काच कुट्टिये भुवस्तले यत्र विलोक्य विम्विताम् । इयं प्रविष्टा किमसूचिता वधूरिति झुकुंअर्ध कुटिविरच्यते ॥३०॥
तनुमिति पत्र यस्यां काचकुट्टिमे काचबद्धे मुवस्तले ‘भूतले विम्बितां प्रतिफलितां नटन्त्यात्तनुं नर्तक्याः मार्गरं चित्रोक्य निरीक्ष्य "भ्रुकुंसकैः सुकुटिः भ्रुवो वक्रिमा विरच्यते विधीयते । कथम् इति किल लोकोत्तो आश्रय या रंगे बर्तनस्थाने किमियं प्रविष्टा वधूः असूचिता अपरिचिता परिचितपात्रप्रवेश नियमात् भ्रान्तिमागलदारः ॥३०॥
प्रियेषु गोत्रस्खलितेन पादयोन्तेषु यस्यां शममागताः स्त्रियः ।
खबिम्बमालोक्य विपक्षशङ्कया पुनर्विकुप्यन्ति च रनभित्तिषु । ३१।। ग्रियेग्विति-यस्यां नगर्यो प्रियोपु वल्लभेषु गोत्रस्खलितेन द्वितीयायाः सपत्न्या नामग्रणेन" कृत्वा पादयोः स्व-चरणयोन्तेषु परितेषु सत्सु शमं कोपशान्तिम् आगताः सत्यः स्त्रियो रत्नभित्तिषु स्वबिम्बमालोक्य विपक्षदाया सपन्दीभ्रान्त्या पुनर्विकुप्यन्ति चेति । भ्रान्तिमानलङ्कारः ॥३१॥
सन्तानसे भी अधिक प्रिय अशोक, सप्तच्छद, नागकेशर आदि वृक्षोंके फूलोंकी सुगन्धि-द्वारा अभिचार मार्गके अत्यन्त स्पष्ट हो जानेके कारण उस नगरीमें रात्रिके समय भी नायिकापं बड़ी कठिनाईसे अपने प्रेमियों के स्थानपर जा पाती थीं ॥२८॥
रमण वेलामें टूटकर गिरी एकावली, दक्षकर बिखर गयी जूड़ेकी माला, खिमके हुए करधनीके जाल, गिरे हुए कर्णभूषण तथा भूले हुए सीपके प्याले जिस नगरीके प्रेमियोंके मिलने के संकेत-स्थलोको प्रकट करते हैं ॥२९॥
कांच जड़कर बनाये गये लीलागृहाके धरातलपर प्रतिबिम्बित नर्तकीके शरीरकी छायाको देखकर भंहुए (स्त्रीवेषधारी पुरुष ) सोचते हैं कि कोई अपरिचित स्त्री भीतर आ गयी है। अतपब चे ईासे भ्रकुटि चढ़ा लेते हैं ॥३०॥
___जिस नगरीमें सपत्नीका नाम मुखसे निकल जानेके कारण कुपित नायिकाएं पतियों द्वारा पैरोंमें गिरनेपर शान्त होती है, किन्तु रत्न जड़ी भीतोंमें अपने ही प्रतिबिम्बको देखकर सपत्नीकी आशंका कर लेती है और फिर रुष्ट हो जाती हैं ॥३१॥
१.-तीतिमार्गाः-द.। २. नाः कमनीयकामिन्यः प्र-६०, प० । ३. -न्ति गच्छन्तितराम् द०, प० । ४. कुसुमा-द०,५०। ५. -मा वल्लभभ-द। ६. ताः ध्युतोरुजाला पतितमेखलाः ग-द० । ७. च्युतकर्णभूपणा:-द०, ५०। ८. भूमितले-८०, प०। ९. -कैनर्तकः ध्रु-दः। १०. अन्थिः द०, प० । ११. -न अपराधेन कृ-द०, प० । १२. कोपोपशान्तिम्-३०, प० ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् प्रवालमुक्ताफलशङ्खशुक्तिभिर्विनीलकर्केतनवनगारुडैः।
यदापणा भान्ति चतुःपयोधयः कुतोऽपि शुष्का इव रत्नशेषतः ॥३२॥ प्रवालेति--प्रवालमुक्तापालाशङ्खशुक्ति भिः प्रवालानि विद्रुमाणि मुक्ताफलानि' शङ्खाः कन्यत्रः शुक्तयः मुक्तास्फोटाः द्वन्द्वसमाहारापेक्षया ताभिः विनीलकतनवनगारुड विनीमा मेचका कतना लोहितमणयः रद्राः हीरकाः गारुडाः तायोद्वारमणयः एतेपो द्वन्द्वः तैः तथाभूतैः । यत्या आपणाः हट्टाः यदापणा भान्ति क श्वोत्प्रेक्षिताः अनुःपयोधय हव रखशेषतः शुष्काः कुतोऽपि कस्मात्कारणादपि ॥३२।।
पट्यः पटक्षौमदुकूलकम्बलं मधूनि वर्माणि च रनकाञ्चनम् ।
क्रयाय कर्पूरमयांसि चक्रिणो यदापणानन्तरितं समस्त्यपि ॥३३॥ पट्यः इति-पश्यः सीवितवस्त्रद्वयलक्षणाः पटक्षामदुकुलकम्यहं पश्यः परिधानवस्त्राणि क्षौमाणि वस्त्रविशेषाः दूकूलनि पत्रोणानि कम्बला उर्णमयाः समाहारापेक्षकत्वम् । मधूनि क्षौद्राणि वाणि तनुत्राणि रत्नकाञ्चनं रत्नानि पद्मरागादीनि काञ्चनानि हिरण्यानि अत्र समाहारः । कपूरं धनसारं जात्यपेक्षकत्वम् अन्यांसि लौहानि चक्रिणो रथाः, इत्येवं सर्वं यदापणानन्तरितं यस्या हानवच्छिन्नं समरत्यापि कयाय द्रव्यविनिमयायोति ||३||
रसेषु हेमे कुसुमेषु कुछ कुमे धनेषु वने जलजेषु मौक्तिके ।
समस्तपट्ये सुलभे सुदुर्लभं यदीयवेश्याजनपण्यमुज्ज्वलम् ||३४॥ रसेविति-रसेषु धातुबद्ध द्रव्येषु हेमेषु' हेमे सुवर्णे सुलभ कुसुभेषु प्रसूनेषु कुङ्कुमे धुसूणे मुल्भे सति धनयु ( दृढेषु ) वल्ले हीरफेषु सुलभ जलजेषु चारिधिकारेषु मौक्तिक शुक्तिजे मुलभे । एवं समस्तपण्ये सुलभे सति केवलं यदीयवेश्याजन एण्यनुज्ज्वलं रमणीयं सुदुलभामिति । अनवासनाओंऽभिधीयते--अत्यन्तसुलभे हिरण्यहीरकादिषु व्ययीक्रियमाणेष्वपि सत्तु यनगरीनिवाशिनां वै याजनैः सह भोत्तुःकागानां मदनमाद्यन्मनसां यूनां प्रचुरतया कन्दर्पमाद्यन्मनसां लावण्ययौवनमनोहरत्वादिगुणवतां वेश्याजनानामल्पतपैक (को) येण्याजनमे(ए)कैकस्य यूनः सम्भोक्तुन सम्पूर्यते इति कृत्वा दुर्लभं तदन्याशा वेश्यानां सुलभत्वाच अत्र समुच्चयालङ्कारः ॥३४॥
मुंगा, मोती, शंख, सीप, गहरे नीले कर्केतन, लाल, हीरा, गरुडमणि आदिसे भरे बाजार ऐसे सुशोभित होते हैं मानो किसी कारणले चारों समुद्र सूख गये हैं और केवल उनके रत्न ही शेष रह गये हैं ॥३२॥
जिस नगरके बाजारोंमें, धोती आदि परिधान, सिले फपड़े, और (रेशमी वस्त्र) दूकूल, कम्बल, मधु, कवच, विविध रत्न, सोना, चाँदी, कपूर, लोहेकी वस्तुएँ भरी पड़ी थीं ॥३३॥
जिस नगरके बाजारोंमें धातुओं में सोना, फूलोंमें पराग, धन पदार्थों में बन, जलोत्पन्न वस्तुओंमें मोती आदि समस्त क्रय योग्य पदार्थ सुलभ थे। यदि कोई पण्य अति दुर्लभ था तो वह था वेश्यारूपी स्पष्ट पदार्थ ॥३४॥
१. नि मौक्तिकानि शं-६०, ५०। २. काः कर्केतनालो-द०, प० । ३. अत्रोत्प्रेक्षा-द०, प० । ४. धातुद्रव्येषु-१० । ५. मेपु इति नास्ति-द०, ५०। ६. अमावसानार्थो विधीयते-द० । ७. -पि व्ययं प्राप्तेषु स-प० । ८. मनोहरणीयतादि-द०, प० ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः कृतार्थसारान् व्यवहारयोपिणो न सत्पदव्याकरणेन मानितान् ।
गुरून्यदीयान्विपणीन्समाश्रितास्तृपान्यदीयान् जिहतेऽन्यवस्तुनः ॥३५॥ कृतेति-यदीयान् यस्या इमे यदीयाः तान् (गुरून् उपाध्यायान् समाश्रिताः संश्रिताः सन्तः शिष्याः अन्यदीयान् गुरून) अन्यवस्तुनः तृषा अभिलाषेण न जिहते न यान्ति । कथंभूतान् कृतार्थसारान् विहितार्थनिश्चयान् व्यवहारघोषिणः व्यवह्रियते प्रवर्त्यते दस्तुजातम् येनासौ व्यवहारो लौकिकाचारस्तं पुष्यन्ति वदन्तीत्येवंशीलास्ते तथोनास्तान् पुनः मानितान् सत्कृतान् । केन कृत्वा ? सत्पदव्याकरणेन सन्ति पूर्वापरप्रमाणवाधादूरीकृतानि पदानि येषां तानि तर्कसिद्धान्तकाव्यादीनि शास्त्राणि व्यानि यन्ते व्याहियन्ते शब्दा येन तयाकरणं च तथोक्तम् । अत्र समाहारः तेन चकारः समुच्चयार्थः । तेनायमों लभ्यते
न केवलं गुरून् ; विपणींश्च संश्रिताः सन्तः ग्राहका अन्यदीयान् (विपणीन् ) अन्यवस्तुनः तृपा वाग्छया न जिह्ते । कथम्भूतान् ? कृतार्थारान् वृतद्रव्यसारकान् व्यवहारघोषिणः कयविक्रयभारिणः पुनः कथम्भूतान् ? मानितान् अधिष्ठितान् कया सत्पदव्या समीचीनमाशेण करणेन च द्रव्याध्यक्ष-धर्माधर्मविचारस्थानेनेति ॥३५॥
परं वचित्वा पुरि देवदारु तन्न दारु यस्यामुपयाति विक्रयम् ।
गृहाणि तार्णानि भवन्ति पक्षिणां कुरंगजातिर्न [नटेषु समसु ॥३६॥ परमिति-पुरि यस्यां नगीं परं केवलं देवदारु सरलद्रमकाष्ठं वचित्या विहाय तत्प्रसिद्ध दारु खदिरादिचित्र-यं नोपयाति । तानि तृणविकारास्तानि गृहाणि मन्दिराणि पक्षिणां चटकादीनां' भवन्ति न जनानां, कुरङ्गजातिः कुत्सितनृत्यस्थानजातिर्न नटेषु नर्तकेषु विद्यते अपि तु सम्मसु गृहेषु कुरङ्गजातिः क्रीडामृगविशेषः । परिसरयालङ्कारः ॥३६॥
भटा जुहूराणरथद्विपं नृपाः श्रयन्ति घातं चतुरङ्गपद्धतौ ।
परांशुकाक्षेपणमङ्गनारतौ विधौ कलङ्कोऽप्यहिषु द्विजिह्वता ॥३७॥ भटा इति–यस्यां नगर्यो चतुरङ्गपद्धती य तविशेपे केवलं भटा वीराः सुहूराणरथद्विपं जुहराणा वाजिनः रथा: लेहबद्धाः शकटाः द्विपा दन्तिनः 'समाहारापेक्षथैकवचनम् । नृपा नरेन्द्रादच घातं वधं श्रयन्ति भजन्ते । अङ्गनारतौ तरुणीसम्भोगे पराशुकाक्षेपणं परेभ्यः सम्भोगचतुरेभ्यो रमणेभ्योशुकत्य वस्त्रस्याक्षेपणमाकर्पणं न तु
जिस पुरके सारभूत अर्थ के शिक्षक, लोकाचारके स्पष्ट उपदेशक तथा पूर्वापर विरोध रहित व्याकरण काव्य न्याय आदिके ज्ञानके लिए मान्य गुरुओंके सहवासमें आनेके बाद शिष्य लोग किसी शानकी अभिलाषासे दूसरे नगरोंके अध्यापकोंके पास नहीं जाते है।
जिस नगरके सारभूत वस्तुओंके संग्राहक, व्यापारकी भाषामें निपुण, शिष्ट मार्गके अनुगमन तथा आचरणके कारण राजमें प्रतिष्ठित व्यापारियों के पास जाकर प्राहक किसी वस्तुके क्रयकी इच्छासे दूसरे नगरको नहीं जाते है ॥३५॥
जिस नगर में केवल देवदारकी लकड़ीको छोड़कर कोई दूसरी पलाश आदिकी लकड़ी नहीं दिकती थी! घासके घोंसले केवल पक्षियों होते थे (मनुष्यों के झोपड़े नहीं होते थे) नोंमें ही केवल दूषित रुचि होती थी अथवा मकानों में पालतू हिरण होते थे। मनुष्योंमें दूषित रुचिका आविर्भाव नहीं होता था ॥३६॥
जहांपर केवल चतुरंग युद्धके अवसरपर ही राजा लोग पदाति, योद्धा, अश्य, रथी तथा हस्तीका बध करते थे। अथवा शतरंजके खेल में ही घोड़े, हाथी, रथ आदिका सहारा लिया जाता था तथा राजा ही प्राण-घघका दण्ड़ देते थे। स्त्रियोंसे रमणके समय ही
१. अन्यासां नगरीणामिमे अन्यदीयास्तान् द०, प० । २. - शब्दशास्त्रं सत्पदानि च व्याकरणं च-६० ॥ ३. -ति इलेषालंकारः-द०, प० । ४, -यं परावर्त नो-द०, प० । ५. -नां विहङ्गमानां द०, प० । ६. तुरङ्गमा:-द०प० । ७. समाहारपक्षोऽत्र तत्र नृ-द।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् तस्करादिभ्यः, विधौ चन्द्रे कलङ्कोऽपि लाञ्छनमपि अहिषु द्विजिह्वेषु सर्पेषु द्विजिता द्विररानता अस्ति नान्यत्र नान्येषु जनेषु इति ॥३७॥
जडेषु बाह्य ष्वपि जीवलोकतो दृशामपथ्येषु पदानतेष्वपि ।
हताचकुर्वत्सु जनस्य वेदना नखांच्छदां यत्र न यन्ति जन्तवः ॥३८॥ जडेविति-यत्र यस्यां नगर्या जडेषु अचेतनेषु कीदृशेषु जीवनोकतो बाह्येषु जीवावष्टब्धशरीरभागाद्वर्हि भूतेषु दृशां लोचनानामपथ्येषु आन्ध्यकारिषु पुनः पदानलेवपि चरणनतेप्वपि हतावपि ताडनायामपि सत्यां जनस्य लोकस्य वेदनां कदर्थनामकुर्वत्सु अविदधत्म इत्यग्भूतेषु अङ्गुल्यचयवचिशेपेषु सत्सु नखाः कररुहा' एव लिंदा खण्डनां यन्ति यान्ति । न तु जन्तवः । भवाम्भोधौ स्वस्थकर्मणा प्रेरिता जायन्ते प्रादुर्भवन्तीति जन्तवः | प्राणिनः केषु सत्सु जीवलोकतः बाह्येषु ब्राह्मणक्षत्रिय श्यादिभ्यो बहिष्कृतेषु चाण्डालादिषु कथम्भूतो ? जद्वेष्वज्ञेषु दृशामपथ्येषु सम्यग्दर्शनादीनां विरोधिषु हतावपि ताडनायां सत्यापि पदानतेपु पदलग्नेषु जनस्य वेदनां पीडामकुर्वत्सु सस्त्विति' शेषः १३८||
अनन्यसाधारणरूपकान्तिषु स्मरोऽन्धकारातिविघातहेतुषु ।
धनुः समारोप्य गृहीतरोपणः पुरि भ्रमन यत्र करोत्युपप्लवम् ॥३९॥ अनन्येति-पुरि यत्र नगर्या स्मरो मारो भ्रमन् पर्यटन् करोति विदधाति । कम् ? उपालवमुपद्रवं कथम्भूतः १ गृहीतरोपणः अङ्गीकृतरामः । किं कृत्वा ? समारोप्य अधिज्यं कृत्वा किम् ? धनुश्चापम् । केषु सत्सु ? अन्धकारातिविघातहेतुषु सत्सु । अन्धकारः अनुत्साहादिलक्षणः तस्यातिशयेन विधातो विध्वंसः तस्य हेतवः कारणानि चन्द्रादयस्तेषु सत्सु कथम्भूतेषु ? अनन्यसाधारणरूपकान्तिषु न विद्यन्ते अन्योनु साधारणरूपकान्तिगुणा' येषां ते तथोक्तास्तेषु तथाहि "अनन्यसम्भक्कान्तिगुणश्चन्द्रे अनन्यसम्भवोऽसाधारणगुणो मदिरासु तेभ्यः कामोद्दीपनम् । उक्तञ्च
"भास्तां परेषां नरकीटकानां तपःस्थितानामपि ही मुनीनाम् ।
चन्द्रासवाभ्यां रमणीजनेभ्यः प्रोद्दीपनं केशवनन्दनस्य ॥१॥" अथवा-अनन्यसाधारण(णाः) रूपकान्ति(न्तयो) गुणा यासां तासु कामिनीषु विषये कथम्भूतासु अन्धकारातिविघातहेतुषु अन्धकस्य अरातिः, ईश्वरः तस्य विघातस्तपश्चरणाश्च्यवनं तस्य हेतव इति मतं काव्यटीकाकर्तुरिति सम्बन्धः ॥३९|| दूसरेके वस्त्रका अपहरण होता था (चोर आदि वस्त्रामोचन नहीं करते थे)। चन्द्रमामें ही कलंक था ( चरित्र निर्मल था) तथा सापोंके ही दो जीमें थी (लोगों में पैशुन्य या असत्य नहीं था) ॥३७॥
__जहां जीवसे व्याप्त शरीरके बाहर बढ़े अतएव अचेतन, आंखोंको अप्रिय, पैरोंमें पड़े, निन्ध तथा मनुष्यके अपघात तथा वेदनाको करनेवाले केवल नख ही काटे जाते हैं। किन्तु सम्यक् दर्शनसे विमुख, दासवृत्तिको प्राप्त, सब प्रकार दण्डनीय, लोकोंके कष्टदाता ब्राह्मण वैश्य क्षत्रियोंसे पृथक मूर्ख लोगोंका भी वध नहीं किया जाता है ॥३८॥
जिस पुरीमें लोकोत्तर रूप और कान्तिसे युक्त अन्धकारके सर्वथा विनाशके कारण चन्द्रमाका उदय होनेपर वाणहस्त कामदेव धनुषको चढ़ाकर घूमता हुआ उपद्रव करता है।
अन्धय-"भन्धक अराति विघातहेतुपु......" .
संसारमें अन्यत्र दुर्लभ रमणीयता तथा तेजके भण्डार अन्धक दैत्यके शत्रु महादेव जीकी तपस्याके छेदका कारण कामदेव धनुषपर वाण चढ़ाकर घूमता हुमा कामोपद्व करता है ॥३९॥
.. परिसंख्यालंकारः ६०प० । २. यान्ति -द। ३. चरणरुहा -द०, प०। ४. वैश्यमार्गादि -द०। ५. ति परिसंख्यालंकारः-द०,५०। ६. कान्तयो गु-द.। ७. सम्भचि-द.। 6. मद्रे अनन्य सम्भवि रूपं कामिनीषु अ-द।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९
प्रथमः सर्गः
धनुर्गुणग्राहिषु नप्रवृत्तिषु प्रशुद्धवंशेषु परस्य पीडकम् |
ऋजुप्रकारेषु कृतायतिष्वस मिनसि यस्वा हृदयानि वाणः ॥४०॥
धनुरिति यस्यां नगर्यां गुणग्राहिषु गुणो मौवा तं गृह्णन्तीत्येवंशीयः तेषु नम्रवृत्तिषु नम्रा नमनशी वृत्तिर्येषां तेषु प्रशुद्धदोषु प्रशुद्धो गुणै रञ्जितो' वंशो वेणुर्येषां तेषु पदार्थेषु मध्ये धनुरेव पीडकं कस्य १ परस्यान्यस्व हृदयानि भिनत्ति | पक्षे गुणग्राहिषु गुणः शास्त्रचातुरीलक्षणः तस्य ग्राहिपुर नमनस्वभावेषु * (प्र) शुद्धयंशेषु "शुद्धान्वयेषु जनेषु मध्ये इति शेषः । ऋजुप्रकारेषु सरलवृत्तिषु कृतावतिषु विहितदैर्येषु पदार्थ मध्ये भिनति असो मार्गणो वाण एव परं नान्यो जनः प्राञ्जलवृत्तिषु कृतोत्तरकालेषु इत्थंभूतेषु मध्य इति सम्बन्धः ||४०||
बिलोलनेत्रेषु कुशाग्रवृत्तिषु प्रगीतरतेषु मृगेषु चापलम् ।
न यत्र तीक्ष्णाः परदारवृत्तयः परे कृपाणात्कलहप्रवेशिनः ॥४१॥
विलोलेति-यत्र यस्यां नगर्यां विलोलनेत्रेषु चञ्चललोचनेषु कुशात्रवृत्तिषु' दर्भा प्रतिषु प्रगीतरक्तषु प्रगीतं नामोत्कटगानं (तंत्र) सक्तषु मृगेषु हरिणेषु चापलं चञ्चलत्वं नेतरेषु जनेषु कथम्भूतेषु सत्सु चपलनयनेषु कुशामबुद्धि तीक्ष्णधिपणेषु प्रगीतरतेषु ( प्रकृष्ट) गीततत्परेषु तीक्ष्णास्तीवाः परदारवृत्तयः परेषां दारो विदारणं तस्मिन् वृत्तिर्येषां ते । कलहप्रवेशिनः कलहं शोकं प्रविशन्तीत्येवंशील इत्थंभूताः कृपाणासरेऽन्ये जनाः न सन्ति जना अपि कथम्भूताः तीक्ष्णहिंसाः तथा परदारवृत्तयः परदारेषु वृत्तिर्येपां ते अन्यस्त्रीसंगसक्ताः तथा कल्हप्रवेशिनः कलहप्रिया" इति ||४१||
प्रकोपनिर्मीलितरक्तलोचनं तलप्रहाराहतकीर्णशेखरम् ।
रतेषु दष्टाधरमाहृतांशुकं परं न यस्यां कदनं कचाकचि ॥४२॥
प्रकोपेति यत्र यस्यां नगर्यो प्रकोपेन निर्मीलितानि विस्फुरितानि रक्तलोचनानि लोहितनेत्राणि " यत्र तत् | तलप्रहारेण पूर्वमाहताः पश्चात्कीर्णाः शेखराः केशबन्धनानि यत्र तत् । दष्टा "अधरा यत्र तत् । "आहृतानि अंशुकानि" यत्र ( तत् ) "कचैः कचैः प्रवृत्तं युद्धं कचाकचि इत्थम्भूतं कदनं ( युद्धं ) रतेषु परं केवलं वर्त्तते नान्यत्रेति ॥४२॥
प्रत्यचा युक्त, पर्याप्त नमनशील तथा उत्तम बांससे बना धनुष ही दूसरोंको पीड़ा देता था [गुणों को सीखनेमें चतुर, विनम्र प्रकृति तथा शुद्ध उत्तम कुलमें उत्पन्न कोई भी व्यक्ति दूसरे को कष्ट नहीं देता था ] । सरल वृति तथा भविष्यमें होनहार पुरुषोंमें [ अत्यन्त सीधा तथा तीक्ष्ण और खूब लम्बा ] वाण ही दूसरोंके हृदयों को भेदत्ता था |॥४०॥
जहां चञ्चल नेत्र, कुशकी कोंपल खाकर जीवित तथा गानेपर मूच्छित हिरणोंमें ही चपलता थी [ कटाक्षमय नेत्रधारी अत्यन्त तीक्ष्णबुद्धि तथा संगीतादिके प्रेमी मनुष्योंका चरित्र अस्थिर नहीं था ] | दूसरोंको काटना, संघर्ष में पड़नेकी प्रकृति तथा तीखापन तलवारके सिवा [ परस्त्री सेधन, झगड़ा करना तथा उग्रता] किसी भी मनुष्यमें नहीं थी ॥ ४१ ॥
जिस हस्तिनापुरीमें अत्यन्त उद्दीप्त रागसे निमीलित और लाल पञ्जलिसे खींच कर बिखेरी गयी जूटकी माला, ओष्ठ दंशन तथा परस्परका वस्त्र तथा केश खींचना केवल सुरत लीलामें होता था [क्रोध से अन्ध तथा रक्त नेत्र, ताल ठोककर चार करना और मुकुट १. प्रत्यचा दु०, प० । २. रचितः ६०, रन्वितः - प० । ३. स्व ग्राहोऽङ्गीकारोऽस्ति येषां तेषु न -०, प० । ४ पु नम्रा मार्दवा वृत्तिः प्रवर्तनं येषां तेषु न दु०, प० । ५ - पु प्रशुद्धं वंदामन्वयो येषां तेषु ज -- दु०, प० । ६. दृष्टो हृदयानि स्वान्तानि भि-६०, प० । ७. बुद्धिषु द०, प० । ८ बुद्धिषु ०९. मतिपु०, प०1१० कोश - द०, प० । ११ -नः कटकप्रवेशिनः क -० । १२. कलित्रियाः-६०, प० । १३. नयनानि प० । १४ रा दन्तच्छदा - ३०, प० । १५ नि अपाकृतानि अं- द० । १९. निचनानि य - ६०, प० । १७. कचेषु कचेषु गृहीत्वा प्रवृत्तमिति विग्रहो न्याय्यः ।
13
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
द्विसन्धानमहाकाव्यम् जधन्यवृत्ति पुरि यत्र काञ्चयः स्पृशन्ति कर्णेजपतां च कर्णिकाः ।
परस्य वा कण्टकचग्रहोत्सवं व्रजन्ति मुक्तावलयो न योषितः ॥४३॥ जघन्येति यत्र यस्यां नगर्यो जघन्यमृत्ति काञ्चयः कटिसूत्राणि स्पृशन्ति नान्ये जनाः अधमवृत्ति, कर्णिकाः 'कर्णभूपणानि कर्णेजपतां कर्णसामीप्यं (समाश्रयन्सि) नान्ये जनाः पैशुन्यम् । च समुच्चयार्थः । परस्य चान्यख्य कण्टकचग्रहोत्सवं ग्रीवाकेदाग्रहाण " मुत्तावलयो ( मौक्तिकहाराः) व्रजन्ति (यान्ति) न योपितो रमण्य इति । ॥४३||
मदच्युता नीरदनादबृंहिता भवन्ति यस्यामवदानवृत्तयः ।
अनुत्कटा नित्यविहस्तसंश्रया महारथा न द्विरदाः कदाचन ॥४४॥ मदेति-पस्यों नगर्यो महारथा भवन्ति जायन्ते । कीदृशाः मदच्युताः जाल्यादिगदरहिताःन तु द्विरदा निर्भदाः अहर्निशं मूत्रक्षरणलक्षणमदोज्झिता न रान्ति नीरदनादबंहिताः मेघनादगर्जिताः' महारथाः सन्ति न पुनः द्विरदाः' दन्तनादहितेभ्यो नितान्ताः अवदानं त्यागशौर्वाभ्यां प्रसिद्धिः तस्मिन् वृत्तिर्वर्त्तनं येषां ते महारथाः सन्ति द्विरदास्तु न । द्विरदपक्षे दानवृत्तिः कटोद्भेदानान्तरीया अवगता दानवृत्तिर्येषां ते महारथाः अनुत्कटा अतीव्राः द्विरदास्तु तद्भिन्नाः कटा येषां ते उत्कटा न उत्कटा अनुत्कटा न तथाभूताः महारथास्तु नित्यं विहस्तानां निराश्रयाणां संधया आश्रयणीयाः द्विरदास्तु अनवरतविशिष्टकरसमाश्रयाः ॥४४॥
च्युताधिकारा इव चिन्तयाकुला विनोदविन्दोः श्रममा मृगा इव ।
भुवं लिखन्तः कनकातुरा इव श्रयन्ति यस्यां कवयः परां व्यथाम् ।।४५|| गिरा देना, आधेशमें ओट चबाना, कपड़े फाड़ देना तथा बाल पकड़ कर दे मारना, आदि क्रियाओंसे युक्त लड़ाई नहीं होती थी] ||४२॥
जिस राजधानी में करधनी ही जंघाओके निकट रहती है [किसी स्त्रीका जघन्य (हीन) आचरण नहीं है], केवल कानके भूषण ही कानमें कुछ कहतेसे लगते है [कोई नागरिका चुगली नहीं खाती है], केवल मुक्ताहार ही दूसरेके गले या बालोंमें लटकते हैं [कोई कुलवधू परपुरुषके आलिंगनको नहीं करती है] ॥४३॥
- जिन पुरियोंके महारथी योद्धा ही आठ प्रकारके मदोंसे परे थे, मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनियुक्त थे, त्याग और पराक्रम ही जिनका स्वभाव था, अत्यन्त शान्त थे तथा निराधय लोगोंको शरण देते थे। किन्तु वा हाथी कदापि मद जल हीन दस्तकलि एवं चीत्कार घिमुख, गण्डस्थल भेद रहित अर्थात् विनम्र तथा सदैव सूंडको स्थिर रखनेघाले नहीं थे॥४४॥
१.न्ति समाश्रयन्ति-द०, प० । २. तारङ्गभूपणानि प०, ८० ।३. कमें जपतीति कर्णेजपस्तस्य भावः कर्णेजपता सां-द०, ५०। ५. शिरोरुहादानोत्सवम्-द०, प० । ५. ता मदा जातिकुलैश्वर्यरूपनिधानज्ञानतपशिल्पलक्षणाः तेभ्यश्च्युताः जाद०, प०। ६. पर्धिता:-३०, प० । ७, दाः रदा दन्ता नादा ध्वनयो बंहितानि चीत्कृतानि च तेभ्यो निष्का--प०, ९०। ८. -श्रयाः ।
जले जने नकमहानियोजन धनु तो ज्यानिहतिर्न सम्पदाम् । ___ रणे पतौ चापगुणेन संग्रहो विशालतां यत्र न सा विशालता ॥४५॥ जल इति-जले वारिणि नक्रमहानियोजनं जलचरण्यापारः । जनेन वृद्धपरिपाटीहानिसंयोगः । वर्णाश्रमधर्मव्यतिक्रमो न खल्वस्तीत्यर्थः। धनुर्धतां धनुर्धराणां ज्यानिहतिः ज्याया निहत्तिः ज्यानितिः प्रत्यञ्चाविस्कारः ज्याहानौ । ज्यान ज्यानिः अत्र औणादिसः प्रत्ययः । ज्यानेहानिहतिर्षिघातो ज्यानिहतिः हानेहतिरित्यर्थः। न सम्पदाम् विभूतीनाम् । रणे संग्रामे चापगुणेन संग्रहः शरासनजीवास्वीकारः । अपगुणे निगुणे यती मुनी च नास्त्यङ्गीकारः यत्र यस्यां नगा सा विशालता विस्तीर्णता नास्ति विशालता मिगतप्राकारता, प्राकारान्विततथा दीर्घत्वमस्तीति भावः ॥४५॥
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः
२१
च्युतेति यस्यां नगर्यो पराम् अनिर्वचनीयां व्यथां मानसिकं दुःखं कवयः कवयितारः श्रयन्ति भजन्ति मान्ये जनाः कथम्भूताः सन्तः च्युताधिकारा इव चिन्तयाकुलाः गतनियोगा इव चिन्तनेन व्यग्राः विनोदविन्दोः श्रमगाः श्रमं 'गच्छन्तीति श्रमगाः किमर्थं विनोदबिन्दोः कुतूहल्ल्वाय अत्र पष्ठी निमित्तार्थे क इव मृगा इव हरिणा यथा श्रममा: विनोदबिन्दोः उदकस्य बिन्दुः उदविन्दुः जलवः तस्मात् उदबिन्दोर्थिना कीटशा पुनः भुवं भूमिं लिखन्तो विदारयन्तः कनकातुरा' इव यत्रोपमा ॥४५॥
रथाङ्गनामा विरही क्षपाकरः स पक्षहीनो मुखरथ कोकिलः ।
कृतो नाशः करभो नखक्षरी क्षतं न यस्यामपरं कुतश्वन ॥४६॥
रथाति---यस्यां नगर्यामित्र चकारग्रहणेन नियमार्थी गम्यते । तेनायमर्थः रथाङ्गनामा चायाक एव विरही वियोगी व कोऽप्यन्यः एवं सर्वत्र नियम्यते स भ्रपाकरा चन्द्रः एव पक्षहीनः पशून्यः नान्यः पक्षहीनः सन्ततिवर्जितः । कोकिलः ( परपुष्ट ) एव मुखरो वाचाटो नान्यः । करमः उष्ट्र एव कृतो नाशः विहितोचमाण नाशः नान्यः । नखक्षतम् एवं क्षतं कररुहविदारण नान्यत्र कुतश्चनेति परिसंख्यालङ्कारः ॥४६॥
कुकाव्यबन्धे यतिवृत्तभङ्गयोः स्थितिः समासादिषु लोपविग्रहम् सरस्सु रोधः पुरि यत्र पत्रिषु प्रयुज्यते पक्षतिरक्षरे लयः ||४७ ||
पदस्वष्ट व्यक्तिके समान चिन्ता ( कल्पना ) में लीन, हिरणके सदृश पानीकी बूंदहीन मृगमरीचिका ( आंशिक चमत्कार के लिए) के पीछे समस्त कष्ट उठानेवाले, सोनेको खोजने वालोंके लग्न पृथ्वीको सोदते ( पृथ्वीपर यों ही कुछ लिखते ) केवल कवि लोग ही जिस नगरी में अनिर्वचनीय/लोकोचर ) पीड़ा ( मानसिक अनुभूति ) को प्राप्त होते हैं ॥४५॥
जिस नगर चक्रवाक पक्षी ही बिरही था, कोई नायिका विरहिणी न थी । निशाकर चन्द्रमा ही एक पक्षमें घटता था कोई दूसरा मित्रपक्ष रहित न था । केवल कोयल ही खूब बोलता था कोई नागरिक वाचाल न था, केवल ऊंटकी ही नाक ऊपरको थी । किसीकी उन्नतिका विनाश न था तथा सुरतमें नवक्षत ही प्रहार थे और किसी प्रकारका शारीरिक
दण्ड न था || ४६॥
अनिष्टयोगः प्रियविप्रयोगता प्रजाचिलोपः पुररोधनं परैः ।
विलापितान्याचरकः पराभवः कथागमेष्वेव न यत्र जातुचित् ॥ ४६ ॥
अनिष्टेति । यत्र पुर्या न जातुचित् कदाचिदेवैते प्रकाराः न सन्ति कथागमेष्वेव श्रूयमाणत्वात्तेषाम् । तथाहि अनिष्टयोगः अनिष्टं दुःखम् दुःखकारणं च । तस्य योगः सम्बन्धः । तद्योगः । प्रियविप्रयोगता प्रियं सुखं सुखकरणं च । तस्य विप्रयोगता विप्रलभ्मः स तथोकः । प्रजाविलोपः प्रजानाम् चिलोपः अष्टादश प्रकृतीनां उच्छेदः सः थोकः प्रज्ञादिलोपः । परैः शत्रुभिः पुररोधनं नगरवेष्टनम् विलापिताः गुणग्रहणमश्ररोदनम् | अन्यायस्वः अनीतिशब्दः पराभवः अभिभव इति कोपः ॥ ४६ ॥ युता प० द० 1
जिस नगर में विशाल जलचर प्राणियों की स्थिति पानीमें ही थी लोगोंके द्वारा [पूर्व परिपाटीका उल्लंघन नहीं होता था ], धनुषधारी योद्धा ही प्रत्यश्चाको फटकारते थे, वृद्धावस्था में लोगों की सम्पत्ति नहीं घटती थी, धनुष और प्रत्यञ्चाको युद्धमें ही लोग उठाते थे अवगुणी लाधुको नहीं मानते थे और अत्यन्त विस्तृत होकर भी वह नगरी परकोटा रहित न थी ॥४५॥
जहांपर अप्रिय वस्तुओंका समागम, तथा प्रिय वस्तुओंका वियोग, जनता अथवा सन्तानका अपहरण, शत्रुओंके द्वारा नगरका घेरा, इष्ट वियोगमें रुदन, अन्यायका समर्थन तथा तिरस्कार पुराणों के प्रवचन में ही सुन पड़ते थे । साक्षात् कभी नहीं होते थे ||४६||
१. कवितारः प० । २. च्छन्ति यान्ति प०, ६० । ३. राः सुवर्णाकुला इव द० । ४. घ्राणः नान्यः द० । ५. य नापरम् ना-दु० ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कुकाव्येति-यत्र पुरि नगर्या कुकाव्यबन्धे कुत्सितकाव्ये यतिर्विच्छेदसंशिका वृत्तं नाम एकाक्षरमारभ्य एकपञ्चविंशति यावदभिधीयते यतिश्च वृत्तं च ते तथोक्ते तयोः ( भङ्गौ'. तयोः यतिवृत्तभङ्गयोः) स्थितिस्वस्थानं नान्ययोः, यतिर्लिङ्गी तस्य यत् वृत्तं ब्राह्मचयरूपं तस्य भङ्गस्वभावयाँ': स्थितिः सगासादिषु व्याकरणसम्बन्धित्वेन विद्वजनप्रसिद्धपु लोपविग्रहं विभत्तयादेः उच्छेदस्वभावो लोपः विग्रहः पदसङ्कलनं समाहारापेक्षबैकत्वं नान्यत्र लोपः शासनप्रोग्छनलक्षणो विग्रहो नरेन्द्रयोवैरं नान्यत्र । सरस्सु सरोवरेषु रोधस्तट नान्यः कश्चिदावरणलक्षणो रोधः पत्रिषु विहङ्गभेषु पक्षतिः' पक्षमूले नान्यत्र | अपक्षतिः अवाप्योरलोपः' | अक्षरे वर्णे लयः ( दोषः) नान्यत्र जने ||४७||
असत्यसन्धाः परलोकवञ्चकाः कृतोपचाराः कृतकेन कर्मणा ।
मुहूर्तरक्तास्तरला बहुच्छलाः परे न यस्यां पुरि पण्यदारतः ॥४८॥ असत्येति-यस्यां पुरि ( नगाँ ) पण्यदारतो बेश्याजनेभ्यः परेऽन्ये जनाः नेत्थंभूताः । असत्ये (अनृते) सन्धाः प्रतिज्ञा येष रो परोकोऽन्यो रागी जनः पारत्रिको वातस्य धञ्चकाः प्रतारकाः कृतोपचाराः विहितपरिचर्चाः (केन) कृतकेन कृत्रिमेण कर्मणा (कुटिलदृत्तिगर्भपरया प्रियया मुहूर्तरताः क्षणमासक्ताः तरलाश्चञ्चनः बहुच्छनः प्रचुरमिषा इति शेषः । परिसङ्ख्याऽलङ्कारः) ||४८||
गतारिपुत्रा सगुणा यशोऽधिका समानवापीवरनिम्ननाभिका ।
कथं कुलस्त्रीव सती सदानवा पुरी किल स्यादिति यत्र विस्मयः॥४९|| मतेति-इति वक्ष्यमाणापेक्षया वत्र यस्यां नगर्या विस्मन्नो वर्तते किल लोकोक्तावरचौ वा गता नष्टो कुलस्त्री कुल्वधूरिव कई स्याद्भवेत् पुरी नगरी अपितु न, कथम्भूता सती कुलवधूः अरिपुत्रासगुणा अरिपुभ्या बन्धुभ्यः त्रासो भयमेव गुणो यस्याः सा सदा सर्वदा अयशोऽधिका निन्दाबहुला 'असमानवा न जातिकुलाभ्यां समानस्तुल्यो वो वल्लभो यस्याः सा पीचरनिम्ननाभिका पीयरा धना निम्ना गम्भीरा जाभिस्तुन्दिर्यस्याः सा तथोक्ता सदा सर्वदा नवा प्राप्तयौवनभरेति बाथवा सदा सर्वदा कुलस्त्रीव कथन्न स्यादपि तु भवेदेव कथम्भूता
जिस नगरमें कुकवियोंको रचनाओं में ही घिराम तथा छन्दके भंग होते थे साधुओं (यति) तथा सदाचार (वृत्त)के पतित होनेका अवसर नहीं आता था । व्याकरणके समासों में ही विभक्ति आदिका लोप तथा अर्थ सूचक पदापर व्याख्यान होता था जनतामें अपहरण (लोप) तथा झगड़ा (विग्रह) न थे, तालाबोंके ही बांध होते थे नागरिकोंको कारावास (लोप) नहीं होता था, पक्षियों में ही पंखोंका प्रयोग था जनताकी अकारण हानि-(पक्षतिः) नहीं होती थी और गतिके वर्गों में ही लय थी, जनताका विनाश नहीं था ॥४॥
वेश्याओंके अतिरिक्त इस पुरीमें कोई दूसरा ऐसा न था जिसकी प्रतिज्ञा झंठी हुई हो, दूसरोंको ठगा हो, बनावटी कापटिक रूपसे सेवा-सत्कार किया हो, केवल क्षण भर ही प्रीति निभाती हो, चपलताका प्रदर्शन किया हो अथवा खूब वञ्चना की हो ॥४८॥
अन्वय-ता रिपुत्रासगुणा, अयशोऽधिका, असमा, नवा, पावरनिम्ननाभिका सदानवा इयं नगरो सती कुलस्त्रीव रुथ स्यादिति विस्मयः ।
हासोन्मुख, शत्रुओंके भयसे व्याप्त, अधिकतम कुख्यात, विसंस्थुल, कल ही बसी, किनारोंपर ऊंची तथा विशाल उरोर मध्यमैं नीची दानवासे व्याप्त यह नगरी, शत्रुवत् पुत्रीको त्रिकालमें भी न जननेवाली, शीलादि गुणोंसे विभूषित, विशाल कीर्तिकी स्वामिनी, समान
और शुद्ध मातृपित कुलवती, सर्वात शोभा विभूषित गहरी नाभिवती पतिव्रता अतएव सदा दर्शनीय कुलवधूके समान कैसे होगी यही आश्चर्य है ? परिहार--
1. तयोर्भङ्गः यतिभङ्गो वृत्तभङ्गश्च तस्य स्थितिरिति युक्तः । २. नान्यत्रेति युक्त प्रतिभाति । ३. भङ्गस्य स्थितिरित्येव वक्तव्यम् । तत्र यतिवृत्तभङ्गो नास्तीत्यर्थः। ५. अपगता क्षतिः -द०, प० । ५. अनापिशब्दाभावादकारलोपश्चिन्त्यः । ६. न समानो मानवो वल्लभो यस्याः सा-द. ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमः सर्गः
.
.
सती पतियता पुनः गतारिपुत्रा गता विनष्टा अरिवत्पुत्रा यस्याः सा यस्या अरिवत् पुत्रा नोत्पन्ना पुनः सगुणा राशीलौदार्यादिका पुनः यशोधिका कीर्तिबहुला पुनः समाऽव्यभिचारिणी पितृमातृकुलेन तुल्या अथवा मया लक्ष्म्या राह वर्तमाना समा पीवरनिम्ननाभिका अपि समन्तात् ईः लक्ष्मी, शोभा तया वरा मनोज्ञा निम्ना नाभियंत्याः सा अपि शब्दस्याकारस्यापादरादिना तोपोऽत्रेति सम्बन्धः । (पुरी) नगरी कथम्भूता गतारिपुत्रासगुणा गता नष्टा था समन्तात् रिपवः त्रासगुणेन यस्याः सा यशोऽधिका सर्वदिवप्रसिद्धा पुनः समानवापी वरनिम्ननाभिकाः स्वच्छगम्भीरगन्यजला यस्यां सा पन:-वरं निर्मलं निम्नम् अतरपशि नाभौ मध्ये के जलं यासां तास्तथोक्ताः समानाः समचतुरना पाप्यो दीर्घिका वरनिम्ननामिका की स्थानमा यः दैत्यैः सह वर्तमाना दानवैः कृतोपद्रदत्वात् तत्रत्यानां जनानां सती समीचीना सुखहेतुः कथं स्यादिति विरुद्धं नैवं सदा सर्वकालं नवा नूतना फायतामनवरतमपूर्ववन्दातीति भावः । अत्र श्लेघोपमा विरोधश्च ॥४९॥
को वा कविः पुरमिमा परमार्थवृत्त्या शक्रोति वर्णयितुमत्र विनिर्णयेन । नित्यं विधिः सततसनिहितो विभूतिमन्यादृशं सृजति यत्र धनंजयाय ॥५०॥
क इति-यत्र नगर्या नित्यं सर्वकालं सततसन्निहितः अत्यन्तनिकटवती विधिश्चतुर्मुखो विभूति सम्पदमन्यादृशमपूर्व धनं विनिर्णयेन विहितप्रतिशाततया सृजति विदधाति कस्मै जवाय रामाय ! अत एवात्र जगत्यां कः कविः कवयिता' वेति प्रकारान्तरे दैत्यगुरुर्वा पुरी नगरीमिमां वर्णयितुमुपलोकयितु शमोति समर्थो भवति अपि तु न भवति कया परमार्थवृत्या तत्त्वत इति ।
भारतीयपक्षे-धनलयाय अर्जुनाय आक्षेपालङ्कारः ॥५०॥ इति निरयद्यविद्यामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलीमण्डितस्य घट्तकंचक्रवर्तिनः श्रीमविनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण विरचितायां द्विसन्धानकर्धनञ्जयस्य राघवपाण्डवीयापरनाम्नः काव्यस्य कौमुदीनामदधानायां टीकायामयोध्याहास्तिनपुरल्याणनो नाम
प्रथमः सर्गः ॥१॥ अन्वय-तारिघुनासगुणा, यशोऽधिका, समानवापीघरनिम्ननाभिका सदा नधा इर्य सती नगरी कथं कुलस्त्री इव न स्यात् ।
शत्रुओंके भयसे परे, अयोध्यतादि गुणवत्ती, विशाल कीर्ति के कारण सर्वविदित, चौकोर सुन्दर गम्भीर जलपूर्ण धावड़ियोंसे पूर्ण, दर्शकोंके लिए सर्वदा नूतन यह प्रशस्त नगरी कुलवधूके समान क्यों न होगी अपितु होगी ही ॥४९॥
कौन ऐसा कवि है जो प्रतिक्षा पूर्वक इस नगरका वास्तविक वर्णन कर सके, जहांपर सर्वदा उपस्थित भाग्य ही रामचन्द्रजी (जयाय)के लिए प्रतिदिन अन्यत्र अनुपलब्ध सम्पत्ति और धनकी सृष्टि करता है अथवा अर्जुनके (धनंजयके) लिए लोकोत्तर वैभवकी सृष्टि करता है ॥५०॥ निरवविद्याभूषणभूषित पण्डितसमाजसे शोभित, पदर्शनचक्रवर्ती, श्रीविनयचन्द्र गुरुके शिष्य, समस्त कलाओंमें निपुणता रूपी चन्द्रिकाके चकोर, देवनन्दि
द्वारा विरचित, राघवपाण्डवीय नामसे ख्यात धनञ्जयकविकेद्विसंधान महाकाव्यकी कौमुदी टीकामें अयोध्या
हास्तिनपुर वर्णन नामक प्रथम सर्ग समाप्त ।
१. रतं मराणां सपूर्वाऽप्यपूर्वध-द०, ५०। २. कविता-२०, ५०। ३. लीडितस्य प० । ५. रेण नेमिचन्द्रेण वि-प..५। ५.गः समाप्तिमगमत् -द।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयः सर्गः अथाभवत्स दशरथोग्रविक्रमः स्मरत् दिवानिशमृपिधर्मसंयमान् ।
पुरः श्रियः शशिरुचिपाण्डुराननं विकाशयन्नधिपतिरिद्धशासनः ॥१॥ अयेति-अथशब्द' आनन्तर्ये स लोकप्रसिद्धो दशरथोऽधिपतिः स्वाशी अभवत् । कीदृश अग्रविक्रमः इद्भशासगः इद्धं दीप्तमुत्कर्ष प्राप्त शासनमाज्ञा यस्य स दिवानिशम् ऋषिधर्मसंयमान पिभिः प्रणीतो यो धो नीतिशास्त्रं तस्मिन्निरूपिता ये संयमा निरवद्याचरणानि तान् सरन् चिन्तयन् । पुनः किं कुर्वन् पुरो नगर्याः सम्बन्धित्वेन श्रियोऽधिष्ठानदेवतायाः शशिरुचिपाण्डुराननं चन्द्रचन्द्रिकावदातबदनं बिकाशयन् ।
भारतीयपक्षे-पाण्डुरधिपतिरभवत् कीदृशः सदशरथोग्रविक्रमः दशया तारुण्यपूर्णयाऽवस्थया सह वर्त्तते सदशः रथेनोग्रः सोढुभशक्यो विक्रमः प्रतापो यस्य सः साध्यासौ रथोग्रविक्रमश्च स तथोक्तः। अन्यत् स्पष्टम् ॥१॥
उराश्रियः स्थलकमलं भुजद्वयं समस्तरक्षणकरणार्गलायुगम् ।
जयश्रियः कृतकविहारपर्वतौ समुन्नते भुजशिरसी उभार यः ।।२।।
उर इति-उरो वक्षः श्रियो लक्ष्म्याः स्थलकमलं क्षितिपा समस्तरक्षणकरणार्गलायुगं सकलरक्षाविधानपरिधाद्वितयं भुजद्वयं (बाहुद्वन्द्र) जयश्रियः वीरलक्ष्म्याः कृतकाविहारपर्वती कृत्रिमकीडाचौ समुन्नते ऊध्वं भुजशिरसो स्कन्धी बभारेति रूपकालङ्कारः ॥२||
परित्रया बहुभरणेन च प्रजामवीवृधद्विधिविहितां यतोऽखिलाम् ।
ततः प्रजापतिरिति यो मतः स तां ध्रुवं प्रजापतिरपि यूथिताङ्गतः ॥३॥ परीति-यतः कारणात् विधिविहिता विश्वयोगिनिर्मितामखिल निरवशेषां प्रजामष्टादशप्रकृतिमवीवृधत्
अन्वय-अथ ऋषिधर्मसंयमान दिधानिशं स्मरन्, पुर:श्रियः शशिरुचिपाण्डुराननं विकाशयन्, इदशासनः उग्रविक्रमः स दशरथः अभवत् ।
ऋषियों-द्वारा प्रणीत धार्मिक संयमके विषयमें दिनरात जागरूक, चन्द्रमाको कान्तिके समान धवल नगर लक्ष्मीके मुखकी शोभाका विकासक, वृद्धिंगत राज्यका स्वामी, भीषण पराक्रमी वह विश्व विख्यात दशरथ नामका राजा हुआ था।
अन्वय–“पुरःश्रियः पाशिरुचिराननं विकाशयन्,...सदशरथोग्रविक्रम पाण्डः अभवत् ।
गुरुओं, सत्यधर्म तथा संयमकी आराधनामें दिन-रात लीन, चन्द्रिकाके समान निर्मल राज्य तथा नगर-लक्ष्मीके मुखोंको प्रफुल्लित कर्चा, प्रचण्ड शासन, एक दो क्या; दशा रथी योद्धाओं के लिए असह्य पराक्रमी वह सर्वदिदि पाण्डु नामका राजा हुआ था ॥१॥
जो दशरथ या पाण्डु लक्ष्मीके निवास-भूत कमलके सदृश वक्षःस्थल, समस्त संसारकी रक्षा करने में समर्थ अर्गला (बेंडा) युगलभूत विशाल भुजाओं तथा विजय-लक्ष्मीकी क्रीड़ाके कृत्रिम पर्वतों सदृश उन्नत स्कन्धोंको धारण करते थे ॥२॥ ___ सब प्रकारसे रक्षा तथा बहुप्रकारसे भरण-पोषण-द्वारा वह प्रकृति नटीसे निर्मित
१. शब्दो नगरव्यावर्णनान्तर्यार्थो मङ्गलार्थो वा गृह्यते-द०, प० । २. -यः प्रधानपराक्रमः इ-१०, प० । ३. अस्तीत्रः सो-द०, प०। ५. -कः किं कुर्वन् मुनिप्रणीतानि नीतिशास्त्रोक्ताचारणानि दिवानिशं स्मरन विकाशयश्व किम् ? आननं कथम्भूतं (शशिरुचि) शशिरुचिरिव रुचिः कान्तिर्यस्य तत्तथोक्तम् कस्याः पुरश्रियः कथम्भूतः सन् इदशासन इछानामात्म मन्यानां शासयतीति यु' इति त्यः स तथोक्त इति शेषः। श्लेषाऽलङ्कार:-द०, प०। ५. जलरुह-द। ६. केचिच्च समुचयालङ्कार वदन्ति-द., प०।
-------------------
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयः सर्गः
२५ वृद्धिमनपीत् । परित्रया रक्षया, न केवलं तया बहुभरणेन च प्रचुरपोषणेन च ततः कारणात् यो राजा सतां सत्पुरुषाणां प्रजापतिरिति सष्ट ति मतः इष्टः ध्रुवम् अहमेवं मन्ये आयो यः कश्चित् प्रजापतिः सोऽपि यूथिताङ्गतः प्रजापतिसमूहमध्यं पतितः नामधारको बभूवेति भावः । उत्प्रेक्षा ॥३॥
न संममे दिशि दिशि निर्मलं यशो न पौरुषं रिपुष वदान्यतार्थिषु । जगत्तु धी वि न चमूर्जनाशिपि श्रिया सह स्थितिरपि यस्थ नायुपः ॥४॥
नेति-यस्व राशो दिशि दिशि प्रत्याशं निर्मला यशो न सम्ममे न सम्मितम् तथा रिपुषु विपक्षेषु न पोरूपं विक्रमः । अर्थिषु यानकेषु न वदान्यता त्यागः सम्भमे जंगत्सु धीः बुद्धिः भुवि भूमौ न चमूः सेना । जनाशिपि लोकाशीदि श्रिया सह लक्ष्या सार्द्धमायुषः प्राणधारणावतः कर्मणः न स्थितिरपि अवत्थानमपि ॥४॥
गुणोऽसिल वसु च परेण तवयं गृहीतमप्यभजत यत्र न व्ययम् ।
असत्यसंव्यवहृतिलोसविस्मयं परात्तमन्त्रगमदशेषतः क्षयम् ॥५॥ ___ गुण इति-न्यत्र राशि गुण्यते व्युत्पाद्यते चातुरी क्रियते प्राणी येनासौ गुणः स्वपरहिताहितविचारणति भावः । वसन्ति प्राणिनां प्राणा अत्र इति वसु हिरण्यादि द्रव्यम् । अखिलं समस्तं तवयं कत्तं तदद्वयं गुणद्रव्यद्वितयं परेणान्येन गृहीतमपि आत्मसात्कृतमपि व्ययं नाशं नामजत नासेविष्ट । असत्यसंव्यवहृतिः अलीकलीकिकाचारः लोभः ममेदं भावः, विस्मयः आश्चर्यम् । अत्र समाहारापेक्षया तत्तथोक्तम् , अशेषतः निमूलतः क्षयं विनाशमन्यगमत् परासं सत् परेरितरैर्जनैः पूर्वमात्तं गृहीत पश्चात् क्षयं गतमिति भावः । वक्रोक्तिः ॥५॥
अमृद्गुरुबहुरुपदेशभूमतः स यस्य योऽजनि जगदेकसद्गुरुः।
हिते जडे परमहिते च पण्डिते रहस्यमन्त्रयत न पश्चकं नयम् ॥६॥ अदिति-यो राजा जगदेकसद्गुरुः जगतां लोकानामेकोऽसाधारणश्चासौ सद्गुरुश्च स तथोक्तोड (जनि अ) भवत् । कस्मात्कारणात् यत्य नरपशेरपदेशभूमतः उपदेशवाहुल्यात् स लोकप्रसिद्धो गुरुर्बहुरभूत् । इदमत्र तात्पर्धम्नहि नाम शास्त्रोपदेशानां कश्चिदेकोऽनेक शास्त्रं जानन्समास्ते अतएव बहुलशब्दप्रयोगाद्वीप्सा ज्ञातव्या । तेनावनथों लभ्यते-यो यो बहुभ्योऽनेकशास्त्राप्यर्थतो ग्रन्थतश्चाज्ञासीत् स गुरुय॑स्य बभूव । अतएव स राजा जगद्गुरुरिति भावः ।।
हिते जडे हेयोपादेय विवेकविकले यो नासन्मयत यतो मनोवृत्तेरकुटिलत्वभावत्वात् । हृदयग्रन्थिविनिमुतत्वात् मूर्खत्वाद्वा मन्त्र भिनत्ति । तथा च पर केवल अहिते विरुद्ध पण्डिते यथोक्तमन्त्रवियेक विदुषि नामन्त्रसमस्त जनताकी वृद्धि करता था । अतएव साधु पुरुष इसे जगत्कर्ता ब्रह्मा मानते थे। वास्तव में यह (जन-नायक) युगके मध्य में हुआ प्रजापति ही था ॥३॥
जिस दशरथ अथवा पाण्डकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओं और विदिशाओं में नहीं समायी थी, पराकम शत्रुओंसे नहीं सहा भया था, दानशीलताको याचक न सम्हाल सके थे, प्रतिभा लोकों में न समायी थी, सेना खारी पृथ्वीपर न समाती थी तथा विभव व्याप्त दीर्घायुको कामना जनताके आशीर्वादों में न आयी थी ॥४॥
जिस राजाकी समस्त सम्पत्ति तथा साधुजनोचित गुण दूसरों (याचको तथा अनुकरण करनेवालों) के द्वारा ग्रहण किये जानेपर कम नहीं हुए थे। किन्तु मिथ्या व्यवहार, लोभ तथा आश्चर्य सर्वथा दूसरों में ही चले गये थे और इसमें उनका लेशमात्र भी शेष न था ॥५॥
१. कुन्दावदात य-द., प.। २. त्यागशौर्याभ्यां प्रतिष्ठिता-द०, प०। ३. सु सुवनेषु धी:-द०, प० । ४. धीः धारणावती वु-द०, प० ५. -पि समुच्चयालङ्कारः-३०, ५०। ६. चातुरी गोचरीक्रियते-द०प० । .. -वः यद्विलोकं विलोकं न--प० । ८. मतः यहोर्भावो भूमा। बहोबस्भावत्वमिति सभावः । उपदेशानां भूमा तस्मात् (जै० सू. ४१४८) अन्येभ्योऽपि तस् उप-५०, . द. । ९. ना बाहुल्यात् क-द०, प.।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
यत यतोऽपकृतत्वादपकारं स्मरन् ' मन्त्रं भिनत्तीति कवेरभिप्रायः । अथवा परेररातिभिर्महते भणिहिरण्यादिना सन्तोष्य भेदिते पण्डिते रहस्येकान्ते नामन्त्रयत यतः पण्डितत्वादुम्बरकृमिन्यायेन चेतोऽन्तः प्रविश्य परोपरीधादव भिनत्ति पञ्चकं नयमिति टीकाकर्तुर्मतम् ।
एतेन नरपतेराकारादिनः जनानामन्तर्मनः परि (ज्ञान) लक्षण कौशल्यनुपदर्शितम् । उक्तञ्च"आकारैरिङ्गितैर्मया चेष्टया भाषणेन च ।
नेत्रवयविकारेण गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥१॥ [म. स्मृ. ८२५]
पञ्चकनयस्य लक्षणम् – कर्मणामारम्भोपायः पुरुषद्रव्यसंपन्, देशकालविभागो, विनिपातप्रतीकारः कार्यसिद्धिश्चेति पञ्चाङ्गमन्त्रः । उक्तञ्च
"सहायाः साधनोपायो देशकालयलाबलम् ।
fayde प्रतीकारः पची मन्त्र इष्यते ॥ ३॥ [ का. सी. १६/५६ ] स्वर्पयन् गुरुमधिदेवतामिच स्ववान्धवं गुरुमिव बहमन्यत । सदापि यः स्वमिन सहायमास्तिकः कुलोचितं तुहृदमिवानुजीविनम् ॥७॥
स्वमिति - स्वमात्मानमर्पयन ददानो गुरुमाचायें पितरं वा अधिदेवतामिव कुलदेवीमिव स्वबान्धवम् आत्मभ्रातरं गुरु मन पितरमित्र सदापि सर्वकालं सहायं सहकारिणं स्वमिवात्मानमिव कुलोचितं कुलेनाम्नायेनोचितम् योग्यसनुजीविनमनुचरं सुहृदमच भित्रभित्र आस्तिको धार्मिको धो राजा वह्नमन्यत अधिकमासी. दित्युपमा ॥|७||
यथायथं विधिषु चतुर्विधानया व्ययुज्यत क्षणमपि राजविद्या |
नियुक्तया न च यदुपायचिन्तया व्यमुच्यत क्वचिदपि यो न सेनया ||८|| यथायथमिति यथायथं यो यत्य स्वभावो यथायथं विधिषु वनकार्येषु नियुक्तया व्यवहृतया चतुविधानया चतुःप्रकारया राजविद्यया आन्वीक्षिकी यी बाली- दण्डनीतिलक्षणया उपायचिन्तया च सामभेद: प्रदानदण्डस्वभावया च यत् यस्मात् कारणात् क्षणमपि अन्तर्मुहूर्त्तयपि न व्ययुज्यत न परित्यक्तः । अतः कारणात् कचिदपि कस्मिश्चित्स्थानेऽपि सेनया गजलन्दनयपतिरूपया न व्यमुच्यत न निर्मुक्तः राजविद्याया निरूपणम्
"आन्वीक्षिक्वात्मविज्ञानं धर्माधर्मौ प्रयीस्थितौ ॥
अर्थानध तु कर्तायां दण्डनीत्यां नयानयाँ ॥2॥ [ का. नी. २७ ] ----समुच्चत्रालङ्कृतिः ||८||
विविध शास्त्रोंकी शिक्षा देनेके कारण जिसके बहुतसे गुरु (बहुगुरु ) हुए थे तथापि वह (नीतिमार्ग पर चलाने के कारण) संसारका एकमात्र (एकगुरु) सहा गुरु था। वह प्रिय तथा अनुकूल, अविवेकी तथा अत्यन्त विरुद्ध अथवा शत्रुओं के द्वारा पूजित पण्डित के सामने नहीं अपितु एकान्त में सहाय आदि पञ्चांग नीतिपर मन्त्रणा करता था ॥ ६ ॥
यह श्रद्धालु दशरथ अथवा पाण्डु गुरुको कुलदेवताके समान मानकर अपनी सम्पत्ति देता था । अपने भाई-बन्धुओंको गुरुके समान बहुत मानता था । अपने अनुगामियोंको सदा ही अपने समान समझता था तथा अपने वंशके अनुरूप सेवकोंको भी मित्रके समान सम्मान देता था ॥७॥
उपस्थित यथायोग्य समस्त कार्योंको करते समय वह आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता-दण्डनीति इन चार प्रकारकी राजविद्या व्यवहार तथा सामादि उपायोंके विचारको एक क्षणके भी लिए नहीं छोड़ता था अतएव वह कहीं भी गज, रथ, अश्व, पदातिमय चतुरंग सेनासे भी अलग न होता था ॥ ८॥
१. स्मारं स्मार प० । २ दन्तदयं दध २. समुवालङ्कारः-०, प० । ४. अधिष्ठितया ५० ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
द्वितीयः सर्गः
उपाददे परसुखदुःख चिन्तया विभूतिषु क्वचिदुदसिच्यत स्वयम् ।
प्रमाद्यति स्म न विषसाद योगिवद्दिवानिशं विधिषु विभज्य यः स्थितः || ९ | उपादद इति--परमुखदुःखचिन्तया परेषामात्मविल्क्षणानामाश्रितानामनाथानां च सुखदुःखे हिताहिते तत्र चिन्ता जनोऽयं केनोपायेन दुःस्यादपाक्रियते सुखं च भविताऽस्येति परामर्शतिया स्वयं परोपदेशभनपेक्ष्य कर्तृभूतया चिन्तया उपाददे | कर्मतानो यो राजा तथा विभूतिषु सम्पत्सु कचित्कञ्चित् स्थाने नोदसिच्यत । स्वयं गर्वेण नान्नुभूयते स्म । क इव योगीय औदास्यावलम्वि मुनीन्द्रवत् न प्रमाद्यति स्म न प्रमत्तो वभूव । न faxसाद न विषादेन विषण्णो वभूव । विधिषु धर्मार्थकामलक्षणेषु कार्येषु दिवानिशमहोरात्रं स्वयं विभज्य आत्मानं विभागीकृत्य यो राजा स्थित इति समुचवालङ्कारः ||८||
द्विषो जनद्विलय भयान्न्यपातयत् न्यपेक्त समरमपि सन्ततीच्छया । गृहीतवान् करमपमित्ययाचितुं स्वजन्म यः समगमयत्परार्थताम् ॥ १० ॥
द्विप इति -- जगद्विख्यभवात् सोकविनाशभीला द्विषो रिपून् न्यपातयत् व्यापादयामास । स्मरमपि काममपि सन्ततीच्छया सन्तानामिवेग व्यपेक्षा अनुभव | अमित्ययाचितुं याचित्वा दातुं करें सिद्धायं गृहीतवान् स्वीकृतवान् । अनवा युक्तया यो राजा परार्थतां साफल्यं त्वजन्म आत्मोत्पत्तिं रामगमयत् अनैपीत् । समुच्चयः ||१०||
जिगाय षड्विधमरिमन्तराश्रयं यतः स्मयं त्यजति न पडूविधं बलम् ।
न यस्य यद्रूगसनमदीपि सम्रकं स्थिराऽभवत् प्रकृतिषु सप्तसु स्थितिः ॥ ११ ॥ जिगायेति यतो वरमात् कारणात् अन्तरा यमन्तरङ्गोद्भवं पत्रिमं पप्रकारमरिं रिपुं जिगाय जितवान् अनुचितः प्रणीताः का सहोपलोम (मान) मदः क्षितीशानामन्तरङ्गी हि षड्वर्गः । उक्तञ्च"कामः क्रोधश्च मानश्च लोभो हर्षस्तथा मदः ।
अन्तरङ्गोऽरिषड्वर्गः क्षितीशानां भवत्ययम् ॥ १॥ [ का. नी. १५७]
अत एव यं नृपतिं बलं सैन्यं न त्यजति स्म न मुमोच हिरण्यदानसम्भाषणाभ्यामरा विनिवारणेन व स्वामिनं सतीष्ववस्थासु चलते संवृणोति दुस्तरं तारयति इति वलं तच्च मौलभृतक श्रेण्यारण्यदुर्ग मित्रभेदम् | मीलं पट्टसाधनम्, भृत ं पदातिवलम् श्रेणयोऽष्टादश; सेनापतिः, गणकः, राजभेष्टी, दण्डाधिपतिः मन्त्री, महत्तरः, तलवरः, चत्वारो वर्णाः चतुरङ्गबलं, पुरोहितः, अमात्यो, महामात्यः । आरण्यमाटविकम्, दुर्गे धूलिकोट पर्वतादि, मित्र सौहृदम् । उक्तञ्च
3
जो दूसरोंकी सुखकी प्राप्ति तथा दुखहानिकी चिन्ताले प्रेरित होकर स्वयं ही लोकोपकारक कार्यों में लगा रहता था, अपने वैभव और सम्पत्तिके कारण कभी उसके मनमें अहंकार नहीं आया था। वह न कभी प्रमाद में पड़ता था और न खेदखिन्न ही होता था तथा अपने दिन-रातको धर्म-अर्थ तथा कामके कार्योंका विभाग करके जीवन व्यतीत करता था ॥९॥
यह राजा संसारके विनाशके भयसे शत्रुओंका संहार करता था । सन्तानकी इच्छा से काम सेवन करता था, राजस्वको भी लेकर दूसरोंको देनेके लिए प्रजासे लेता था इस प्रकार उसने अपने जन्मको ही परार्थ कर रखा था ॥ १०॥ .
·
यतः इसने काम, क्रोधादि छहों प्रकार के अन्तरंग शत्रुओं को जीत लिया था अतः मौल, भूत, आदि छह प्रकारकी सेना इसे नहीं छोड़ती थी । मथ, स्त्री, द्यूत, आदि सातो सन इसके मनमें नहीं आये थे अतपत्र स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोश आदि सातों प्रकृतियों की दृष्टिले उसकी स्थिति दृढ़ थी ॥११॥
१. 'गोऽरिषड्व-द०, प० । २. वलवर - प० । ३. कोटि- प०, कोट-द० ।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् श्रेणं दौर्ग व सौहार्द मौलं भारी कमाटवम् ।
पविधं च बलं माहुर्बुधा नीतिविपक्षणा ॥१॥ यन् यस्मात् कारणात् यस्य नरपते दीपि न दीप्तं बभूव किं दण्डपारुष्यकामवाक् पारुष्यार्थदूषणमद्यस्त्रीद्यूतपापर्द्धिकोपस्वभावं व्यसनसप्तकम्-उक्तच
"दण्डपारष्यकन्दर्पवाक्पारुष्यार्थदूपणम् ।
प्राकृतं सप्तकं प्रोक्तं नीतिशास्त्रविशारदैः ॥१॥ अतएव सप्तसु प्रकृतिषु स्वाम्यभात्यसुदकोशराष्ट्रदुर्गमित्रलक्षणासु स्थिरा निश्चला स्थितिरवस्थानमभवदभूत् | उत्तञ्च
___ "स्वाम्यमात्यः सुहृत्कोशो राष्ट्र दुर्ग तथा बलम् ।
प्राकृत सहक प्रोक्त नीतिशास्त्रविशारदः ॥१॥ [ का. नी. १] एतेन नरपतेजितेन्द्रियत्वं प्रदर्शितम्। विवयं यः प्रियमहिषीं युवाधिपं स्वमप्यतः परमुपनीय लक्ष्यताम् ।
सदोपधाविधिभिरमात्यमेकशो यथोचितं पदमनयद्विशोधितम् ॥१२॥
विवज्येति-यो नृपतिः सदा सर्वकालं यथोचितं (यथा) योग्य विशोषितं निर्वाध पदं पदघीममात्य सचिवं महत्तरं पुरोहितं दण्डनायकञ्च अनयत् नीलवान् कथमेकशः एकमेकं किं कृत्वा पूर्व विवयं वर्जयित्वा किं किं प्रियमहिषी पराशी सुवाधिपं मुख्यकुमार स्वापि च नि कत्ला जला शिमोगभानीय नीत्वा कथम्भूतं परं केभ्यः अत एभ्यः नियमहिण्यादिभ्यः कैः कृत्वा उपधाविधिभिः । धमार्थकामभयपु बाजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा तस्या विधयो विधानानि तैस्तथोक्तैः । उक्तञ्च
"छलेन परचित्तानां धर्मार्थकामभीतिषु ।
परीक्षण विधीयेत सोपधा कथ्यते बुधैः ॥१॥ समुच्चयः ॥१२॥ वणिकपथे खनिपु वनेषु सेतुपु बजेषु योऽहनि निशि दुर्गराष्ट्रयोः ।
गुणाधिकं धनमववर्द्धदुद्धतं यशोधनं ध्रुवमुपचेतुमुज्ज्वलम् ।।१३॥
वणिगिति-ध्रुवमहमेवं मन्ये उज्ज्वलं शुभ्रभुद्धत नुस्वणं यशोधनभुपचेतुमुपचयं नेतुं गुणाधिक गुणैरौदार्यादिलक्षणैरधिकं प्रचुरं धनं कनकादिकमहनि दिवसे निशि रात्रौ अववर्द्धत् वृद्धि प्रापयामास । क क वणिक्यथेषु वणिजां मार्गेषु खनिषु रत्नोत्पत्तिस्थानेषु वनेषु कान्तारेषु सेतुपु समुद्रतटेषु बोपु गोकुलेषु दुर्गराष्ट्रयोश्च "यस्थानि (भि) पोगात परे दुःखं गच्छन्ति दुजनोद्योगविषया वा स्वस्य (विजिगोपोः) आपदो गमयसीति दुर्गम्" नी. वा. २०१३] स्वाभाविकमाहार्य द्विविधम् । “पशुधान्यहिरण्यसम्पदा राजते शोभते इति राष्ट्रम्" [नी. वा. १९. १] इति उत्प्रेक्षा--१३॥
अनारतं तिसृषु सतीषु शक्तिषु त्रिवर्ण्यपि व्यभिचरति म न स्वयम् । पदातयः किमु किमरातयः सुता सहायता किन किल यस्य बन्धुता ॥१४॥
अपने आप, पहरानी तथा युवराजके अतिरिक्त अमात्य आदि प्रत्येक महान् अधिकारीको किसी व्याजसे प्रत्येक विषयकी कसौटीपर कसके ही उसके योग्य निर्दोष तथा स्थिर पदपर उसकी नियुक्ति करता था ॥१२॥
निश्चित ही वह राजा निर्मल तथा पर्याप्त यशरूपी घनको संचित करनेके लिए ही व्यवसायियोंसे भरे बाजारों, खनिक क्षेत्रों, अरण्यो, समुद्र तीरोंपर स्थित पत्तनी, पशुपालकोंकी बस्तियों, दुर्गों तथा राष्ट्रोंमें गुणांकी अपेक्षा प्रचुर मात्रामें सम्पतिको बढ़ा रहा था ॥१३॥
१. तम् । विरद्धवानलङ्कारः-द, प० ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयः सर्गः
अनारतमिति-अनारतमनवरतं स्वयमात्मना त्रिवर्ग्यपि त्रयाणां धर्मार्थकामरूपाणां वर्गाणां समाहारविवी धर्मममिभूय न हि तादृशमर्थोपार्जनम् तन्मूलत्वादर्थस्य यथैव नानुभवनाय कुठारच्छिन्नभूरुहप्रफुल्लपुलसम्भारः यथोक्तमर्थोपार्जनमन्तरेण न यथोक्तकामानुभवनम् सजलजलधरयुक्तजलमन्तरेण स्वच्छातुच्छपाठवजालानुभवनक्त् । कामानुभवनमन्तरेण न सन्तानोत्पत्तिः वारिणा दिना बीजाङ्करक्त् सन्तानाहते नार्थोंपयोगः रमणेन विना यथा विधवातरुणीतारुण्योपयोगः। अर्थोपयोगेन विना नो धर्मः यथा तपस्यया विना न स्वर्गफल्म विभूतयः ।
इत्यनया विरोधयुक्त्या साऽपि विवर्म्यपि यत् यस्य नरपतेनं व्यभिचरति स्म न' तत्याज कासु सतीषु वर्तमानासु तिसृषु शत्तिषु प्रभुमन्त्रोत्साहलक्षणासु स्वपरज्ञानविधायिन्यः प्रभुमन्त्रोत्साहशक्तिरूपास्तिसः शक्तयो | मार्गदी भूभतां विभूतिहेतवः। उसञ्च
"तिम्रो हि शक्तयः स्वामिमन्त्रोत्साहोपलक्षणाः ।
स्वपरज्ञा विधायिन्यो राज्ञां राज्यस्य हेतवः ॥१॥ तासु इति अपरायच्याहार्यमन्त्र । अतएव उ सम्बोधने क्रिल आश्चय किमाक्षेपे कि पदातयो भृत्या । व्यभिचरिष्यन्ति अपि तु न । एवं किमरातयः शत्रवः किं तुताः पुत्राः किं सहायता भित्रसमूहः । अत्राशेपालङ्कारः ||१४||
भुवस्तलं प्रतपति संभ्रमन् रविः शशी चरन् स्वयमभिनन्दयत्ययम् । चरैः स्थितः पुरि सचराचरं जगत्परीक्ष्य यः स्म तपति सन्धिनोति च ॥१५||
भुव इति-सुधस्तलं भूमितलं सम्भ्रमन् सञ्चरन् रबिरयं सूर्योऽयं प्रतपति सन्तापयति तथा चरन् शशी चन्द्रोऽयं स्वयमात्मनाभिनन्दयति प्रीणयति | यो भूमिपाल पुरि नगर्या स्थितः सन् चरैः स्वपरभण्डले कार्याकार्यावलोकने चक्षुगीय चरन्ति प्रवर्तते इति चराः तैः कृत्वा सचराचरं जगत् सजङ्गगाजङ्गमं भुवनं परीश्व आत्मप्रतीतियानीय तपति स्म सन्तापयाभास सन्धिनोति स्म च प्राणयाञ्चकार च । अन्न प्रतापनाहादनाभ्यो सूर्याचन्द्रमसादतिशेते स्मेति ! अतिशयोक्तिः ।।१५।।
कृषीवलं कृषिमुवि वल्लवं वहिर्वनेचरं चरमटवीध्वभुत यः । वणिग्जनं पुरि पुरसीम्नि योगिनं नियोगिनं नृपसुतवन्धुमन्त्रिषु ॥१६॥ कृषीवलमिति-यो राजा कृषिभुवि क्षेत्रभूमौ कृषीवल कुटुम्विकरूपं चरं गढपुरुषमन्वयुत प्रेरयाशकार ।
प्रभु-मन्त्र-उत्साह रूप तीनों समीचीन शक्तियोंका सर्वदा उपयोग करनेपर भी जिसने धर्म-अर्थ-काम रूपी त्रिवर्गका भी परस्परविरोधेन पालन किया था। अनुगामियों, पुत्रों तथा सहायकोंकी तो कहना ही क्या है इसके शत्रु भी मित्र के समान आवरण करते थे ॥१४॥
सूर्य स्वयं सारे संसारका परिभ्रमण करके उसे आतप देता है। चन्द्रमा भी संचार करता हुआ ही सृधिको अपनी चन्द्रिकासे आह्लादित करता है किन्तु यह दशरथ अथवा पाण्डराजा राजधानी में ही रहता हुआ स्थावर तथा जंगम संसारकी गुप्तचरोके द्वारा पूरी जानकारी रखता था और उनपर प्रसाद तथा निग्रह करता था ॥१५॥
कृषिके क्षेत्रमें उसने किसानको ही चर बनाया था, बाह्य प्रदेशों में ग्वालोंको तथा जंगलोंमें भील आदिको ही गुप्तचरने पदपर नियुक्त किया था, शहरोंमें व्यवसायियोंको, देशको सीमाओंपर फौलादि साधुओंको तथा अन्य राजाओं, राजपुत्रों, कुटुम्बियों तथा मंत्रियों में उनके कर्मचारियोंको चर बनाये था ॥१६॥ ___अन्तःपुरोंमें यहिरों, अपाङ्गो तथा कुछड़ापर चरत्वका भार था । इस प्रकार यह राजा
१. यत्र-६०, प० २. न परस्परं स्यजति स्म-२० । ३. विद्यमानासु-प०, द.। १. पल
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
एवं प्रतिसम्बन्धिनी क्रिया तथा बहिर्वाह्य प्रदेशे बल्लवं गोपालम् । अटवीषु अरण्यानीषु वनेचरं भिलं पुरि नगयों वणिग्जने किराटकोप्रचन्तम् । पुरसीम्नि नगरसीमायां योगिनं भट्टारकं कौस्कादियपधारिणं गूढपुरुषं नृपसुतबन्धुमन्त्रिषु नरपतितनयबान्धवसचिवेषु नियोगिनं व्यापारिणम् इल्पगेन नरफ्तेनीतिकौशल्यमुक्तम् । समुञ्चयः ।।१६||
वधूगृहे बधिरकिरातवामनं स्वरक्षया परबलसंग्रहेण च । ग्रयुक्तवान् प्रणिधिमनाकुलं पाखोधि यानि बुझेन .परैः ॥१७॥
वधूगृह इति-वधूगृहे रामामन्दिरे बधिरकिरातवामनं वधिरः प्रसिद्धः किरातो विकलाङ्गः वामनः कुल्जकः समाहारापेक्षकत्वं स्वरक्षया आत्माक्न तथा परबलहिण रिपुसैन्यपरिकलनेन सह प्रणिधि चरञ्च प्रयुक्तवान् प्रेरितवान् कथं यथा भवति अनाकुलम् विनासन्यासस्यशोगतया स्वीकृतमनोवैयावलम्बन यथा अतएव यो राजा परान इतरान शान अयोधि ज्ञातवान् नामताफ्नो राजा अपरैश्च शत्रुभिरपि न प्रतिबुबुधे न प्रतिज्ञात इति [ समुचयः ।।१७|| 1.-- अचाहयत्तुरगमवाहितं गजं न चाविशद्वनमविगाहित हितैः ।
ददर्श यः सपदि न सिद्धतापत समाययौ न तभवरोधमेककः ।।१८।।
अवायदिति-हितैः परीक्षितः नरैः अवाहितमनधिरुदं तुरगगरम गनं दन्तिनं च यो राजा नावायत् नाचाल्यत् । अविगाहितमनालोतिर वन कान्तारं नाविशत् न प्रविष्टवान् सपदि सहसा सिद्धतापसं वेषधारि तपस्विनं न ददर्श नालोकितवान् तथा से लोकप्रसिद्धवरोधमन्तःपुरमेशकः एकाकी सन् न समाययो न गतवान् । अत्र तात्पर्यम्-अन्तःपुररक्षिकाभिमहत्तरीभिः लभन्तःपुर माविशत् इत्यर्थः । अनेन नीतिकौशल्यभुपपादितम् ॥१८॥
इदं मया नयमपदिश्य वर्णितं शरं तु यः क्षिपति न यावदाहवे ।
शरासनं शरमिषधिं परोक्षिपत परं विर्यमनप्रवर्तकं महः ॥१९॥
इदमिति–मया काविना धनञ्जयेन नयमपदिश्य नीतिमाश्रित्य इदं पूर्वोक्तं वर्णितमधुना राज्ञो विक्रमो व्यावपर्यंते । अत्र तु प्रयोगादेवेदमुपलक्ष्यते । आहवे-संग्रामे प्रथमगेकं शरं यो राजा याचन क्षिपति न क्षेप्स्यति तावत् शरासनं धनुः शरं वाणभियुधि भरनां परः शत्रुः अक्षिपत् मुक्तवान् । अतएव परं केवलं यं राजानमनपवर्तकं नित्यं महत्तेजो विदुः विदन्तीति नीतिमन्त इति शेषः । विरोधालङ्कारः ||१९||
..........--
-----
-
-
-
-
-
-
-
-
--
--
-
-----
मात्मविश्वासपूर्वक अपनी रक्षा तथा शत्रुसेनाके वशीकरण साथ-साथ सर्वत्र गुप्तचरोंकाप्रयोग करता था। वह दूसरों को भलीभांति जानता था किन्तु शाके द्वारा इसका एक भी रहस्य न जाना गया था ।१७।।
उस घोड़े या हाथीपर नहीं चढ़ता था जिरूपर अनुगत आत्मीय जन न चैट चुके हों। उस वन में नहीं जाता था जिसमें पहिले उस आदमी न छूम आये हों। सिद्ध आदि येषधारी साधुओंसे सहसा भेट नहीं करता था और सन्तासुरमें कसी भी अकेला प्रवेश नहीं करता था ॥१८॥
यह वर्णन राजाकी नीतिनिपुणताको प्रधानता देनेके लिए किया है किन्तु उसका प्रताप ऐसा था कि कहीं पर भी उसका उल्लंशन नहीं होता था-शुद्ध जबतक वह बाण छोड़े तबतक ही शत्रु वाण, धनुप और तूणीरको भी फेंककर आत्मसमर्पण या पलायन कर देते थे ॥१९॥
1. नष्टकर्णः-प. द. । २. परीक्षितान्तःकरणैः--प., द, । ३. समुदयालदार:--प., -६० । ५. उप
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयः सर्गः न विक्रमः शरभनिपातसन्निभः शृगालवद्भयवहुलो न यो नयः ।
न निन्द्यते स्वयमनुकम्प्यते परैर्नयेन वा चरितमधत्त तादृशम् ॥२०॥
नति-न्यस्य नृपतेः विक्रमः पौरुषं शरभनिपातसन्निभः 'शरभस्याप्टापदस्य सन्निपातेन सन्निभः तुल्यो नाभूत् । अत्रायम्भावः -विवेकविकलो हि अष्टापदः किल लीलया विचित्रोदनवनाविधानोपपन्नो नखरा.
रैमत्तगातङ्गगण्डस्यलं विदार्य पृष्ठोद्भवचरणचतुटबमध्ये निक्षिप्य तं च मृतकुथितगजेन्द्रप्रूयसम्भवैर्जन्नुजातैविदार्यमाणो नियत इत्यनया युक्त्या चोऽपर्यालोचिततया विहितो विक्रमः स्वस्य मरणाय जायते स न बभूवेति भावः । शृगालयलयबहुलो नयः भयं बहुलं प्रचुर यस्मिन् यस्येति वा रस तथाभूतो नयः तस्य नृपते बभूव । कस्येव शृगालस्येव । अन तात्पर्यम्
शृगालल्य बथा समाश्रीजन्तुजातमागेकमालोकं चकितचकितत्वेन प्रपलायनमिति ताशो नृपतन: बभूवति भावः । त्वयमात्मना ताशं चरितं यो नृपतिरधत्व कुदवान् येन चरितेन परैः शत्रुभिज निन्द्यो । न निन्द्राधिपतीक्रियते । नानुकम्प्यते नानुकम्पाविषयी कियत इति ।।२०।।
यदा व्यरित्सदरिमदित्सदेष या धनं तदारुषदतुषच यः परम् ।
प्रकोपसम्माविषयो गुणः फलं विनोद्मावट इव यस्य सन्ददे ॥२१॥
यदेति --यो नृपतिर्यदा यसिन् काले अरि रिपुं व्यरित्सत् हन्तुमैच्छत् वा अथवा धनं हिरण्यादिद्रव्यमदित्सत् दानुसैच्छत् पर केवलं तदा तन्मिन् काले अरुषत् सृष्टवान् अनुपञ्च तुष्टवान् च । अत्र कारणापेक्षया रोपतोषव्यवस्थितन्धेता बभूति भावः । उद्भाद्विना कुसुममन्तरेण बट इव न्यग्रोध इव यस्यावनीश्वरस्य प्रकोपसम्पादधिपयो रोषतोपगोचरो गुणः फलं रुन्ददे समयच्छत् । अत्र यदैव हपहिर्षलक्षणो गुणो ह्युत्पन्नस्तदैव फलप्रदानकाल्यापनामकापीत् । समुच्चयालकारः ॥२१॥
प्ररोपयनयभुवि मूलसन्तति प्रसारयन् दिशि बहुशाखमन्वयम् ।
फलं दिशन विपुलमपुष्पयापनं जनस्य यः समजनि कल्पभूरुहः ॥२२।।
प्ररोपयन्निति—यो नृपः जनस्य भूरुहः सुरपादपः समजनि अभूत् किं कुर्वन् नयमुवि नीतिभूमौमूलसन्ततिं दुर्गाध्यक्षधनाध्यक्षकमध्यक्षसेनापतिपुरोहितामात्यज्योतिःशास्त्रज्ञा हि मूलं क्षितिपतीनां मूलस्य सन्तति सन्तान प्ररोपयत् स्थापयत् । उक्तञ्च
__ "भाण्डागारी चमूभर्ता दुर्गाध्यक्षः पुरोहितः।
कर्माध्यक्षोऽथ दैवज्ञो मन्त्री मूलं हि भूभृताम् ॥१॥ दिशि आशायां न्य हुशारखं वलयः शाखाः पुत्रपौत्रादयो बत्र तथा मृतमन्वयमाम्नायं प्रसारयन् विस्तारयन् अपुष्पयापजमनायासलभ्यं विपुलं प्रधुरं फलं दिदान् संयच्छन् कत्यवृक्षोऽयेवंभूतः नयभुवि न्यायभूमौ मूलसन्ततिं नेत्रसमूह प्ररोफ्यन् अधोऽधो नयन् अन्वयं बुध्नम् बहुशाखं प्रचुरविटपस्थानं प्रसास्यन् प्रतानीकुर्वन् विपुलमपुष्पयापनं न पुष्पवद्यापनाकालगमनिका यत्र तदिन्थंभूतं फलं दिशान्निति । रूपकालङ्कारः ॥२२॥
उसका पराक्रम सिंहके अविचारितामण और आत्मविनाश सदृश न था और न उसका कुटनीतिका प्रयोग मालके समान अत्यधिक भीत होकर चलनेका था। अपितु इस राजाका कुछ ऐसा आचरण था जिसके कारण न तो शत्रु उसकी निन्दा कर पाते थे और न उन्हें इसपर अनुग्रह करनेका ही अवसर मिलता था ॥२०॥
यह राजा जब शत्रुका संहार करना चाहता था तभी रुप होता था अथवा जय धनादि देनेकी इच्छा करता था तभी प्रसन्न होता था। उसकी रोपणता तथा प्रसन्नतारूपी गुण वट वृक्षके समान बिना फूल दिये ही फल दे देते थे ॥२१॥
राजनीति रूपी भूमिके ऊपर भण्डारी, सेनापति, दुर्गपाल आदि राजतन्त्रके सातों मूलोंको स्थिर करता हुआ, समस्त दिशाओं में अपने कुलके ही शाखा राजीको प्रसार करता
१. शार्दूलस्थ-प., द. । २. समुखयालंकारः-५., द. । ३. भूभर्ता-द.। भूतभर्ता---प. ।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
जलाशयं दिशि दिशि पङ्कजीविनं नवोत्थितं नियतिपु देशकालयोः । पिष्ठमिव विद्विषं भुवि प्ररोपयन्नतुलमवाप' यः फलम् ||२३||
जलाशयमिति यो नृपति: अनुलमसाधारणं फल्लब्ध प्राप किं कुर्वन् ? दिशि दिशि विद्विषं शत्रुं तथा प्ररोपयन् किं कृत्वा पूर्वे विम स्वस्वस्थानात् प्रचाल्य कासु सतीषु देशकालयोर्नियतिषु कथम्भूतं सन्तं जडाशयं खडचेतस्कं पङ्कजीविनं पङ्केन पापेन जीवतीयेशील पुनः नवोत्थितं नूतनसमुत्पन्नभलब्धमूलत्वादसहायगित्यर्थः । अधुनोपमानस्यार्थः प्रददते । इन यथा पृष्ठिकं व्रीहिं विशेषं दिशि दिशि प्ररोपयन् काश्चित्यामरा दिर्विपुलं फलं प्राप्नोति किं कृत्वा पूर्व देशकाल्योर्नियतिषु विग मल्त्यिा कीदृशं रान्तं जलाशय जलमेवाशयः स्थानं यस्य तं तथोचं पङ्कजीविनं पङ्गात् कर्दमात् जीव आत्मा अस्यास्तीति तं तथोक्तं नवोत्थितमिति शेषः ॥२३॥ सुहृज्जनं क्रशयति यः स्म कर्कशं पदानतं द्विषमपि तं व्यगाहत । निजं मलं क्षिपति हि वार्द्धिरुद्धतं नदीनदं समुपनतं विगाहते || २४||
सुहृदिति - यो नृपतिः कर्कशं निर्दयं तुहजन (मित्रलोक) क्रशयति स्म सचकार । ( लोकप्रसिद्ध) पदानतं चरणपतितं द्विपमपि (शत्रुमपि ) व्यगाहत स्वीचकार । अर्थान्तरं न्यस्यति —
३२
वार्द्धिः समुद्रो (हि स्फुटं ) निजम् ( आत्मीयम् ) उद्धतम् (उत्कट) म बहिः क्षिपति वहिः कुरुते । समुपनतं (सम्यक् ) प्रीभूतं नदोनदं पूर्ववाहिन्यो निम्नगा नद्यः पश्चिमवाहिन्यो नयो नदाः नद्यश्च नदाच नदीनदं विगाहते गृह्णाति' 'गुणग्राहकोऽयमिति दर्शितम् ||२४||
विवर्द्धितानतिकठिनानखानिव प्रियानित्र स्खलितगतीन्समुच्छिनत् ।
पोष यस्तमिह नयेन विक्रिया भवत्यपि स्वपठितमन्त्रतो भयम् ||२५|| विवर्द्धितानिति - यो नृपतिः विवर्द्धितान् वृद्धिं प्रापितान् अतिकटिनान् अतिनिग्रहृदयान् स्वलिरागतीन् स्त्वलिते पापे गतिर्वेषां तान् प्रियानपि नखानिव समच्छिनत् सम्यक् चिच्छेद । अत्र वासनेयम् - यथा सम्पन्नर्वितान् निर्दयान् पापीयसः प्रियानपि सतः आत्मीयोच्चपदादुत्थाय स्तोकपदे स्थापयामास । यथा दिवा कीर्तिः वृद्धिंगतान् कररुहान् भ्रष्टगतीन् प्रियान् पाणिपादशोभाविधायिनो नखान् छिनतीर्थः ।
हुआ तथा अनायास ही सुख-शान्तिरूपी फलोंको देता हुआ वह राजा जनताके लिए कल्पवृक्षके समान था क्योंकि कल्पवृक्ष भी मर्यादापालक भोगभूमि में होते हैं तथा पुष्टतने शाखायुक्त होते हैं और इच्छा मात्रले वे दश प्रकारकी भोग-सामग्री देते हैं ||२५||
शुभ ग्रहों तथा अनुकूल देशकाल में तुरन्त हुए मूढमति तथा पापाचारी शत्रुको सय दिशाओं में पराजित करके वह विनम्र हो जानेपर फिर धानके समान स्थापित करता था और इससे अतुल सम्पत्तिको प्राप्त करता था । धान के लिए भी कीबड़ले पूर्ण वालावादिको उचित समय तथा देशमें खूब जोत कर जब विधि वर्ष ले तक उगने के बाद ही रोप देनेसे वह खूब फलता है ||२३||
वह राजा कठोर अथवा निर्दय मित्रको भी दण्ड देता था तथा चरणों में नत शत्रुको भी अपनाकर उठाता था । समुद्र भी अपने कूड़े-कचरे को बाहर फेंक देता है और नीचेकी ओर बहनेवाली नदियों तथा नदोंको अपने में मिला लेता है ||२४||
स्वयं उन्नत पद पर नियुक्त किन्तु अत्यन्त निर्दयं तथा पापमार्ग में प्रवृत्त अपने प्रियलोको भी नखोंकी तरह काटकर फेंक देता था [ नख भी मनुष्य स्वयं चढ़ने देता है, कठोर होते हैं और बहुत बढ़ जानेपर चलना-फिरना कठिन कर देते हैं] यह उन्हीं लोगों
१. अलब्ध- द. । २. अत्र नीतिमत्व कौशल्य मुपदर्शितम् । - इलेपालंकारः - प., द. ३. चरणन्यस्तमस्तकम्प, द. 1 ४. उक्तार्थदृष्टान्तेन द्रव्यत्याचार्य: प द । ५. स्वीकरोति प., -. । ६. गुणग्राहकत्वेन विवेचकत्वं समुपदर्शितम् । अर्थान्तरन्यासालङ्कारः-प, द । ७. प्रचाल्य
- प., दु. १
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयः सर्गः किंबहुना यो राजा तं पुपोष येन पोषितेनापि विक्रिया न भवति । युक्तमेतत् स्वपठितगन्त्रतो भयं यथा गुरुपरम्परोपदेशमन्तरेणात्माधीतात् मन्त्रात् भयं स्यात् तथात्मवर्द्धितेभ्योऽतिरेभ्यः पापरतेभ्य इत्यभिप्रायः । अर्थान्तरन्यासः ॥२५॥
अनुद्धतान् युवजरतः श्रुतागमान् जितश्रमान्नयविनयान्वितान् सुतान् ।
अयोजयन् सममविरोधयन्परैश्चकार यः प्रकटमकर्कटस्थितीन् ॥२६॥
अनुद्धतानिति-अनुद्धतान् अगर्वान् श्रुतागमान् श्रुत आगमो व्याकरणादिर्यैस्तान् जितश्रमान् कृतरास्त्रशास्त्राभ्यासान् नयविनयान्वितान् नीतिप्रश्रययुक्तान युधजरतः सुमद्धान् गुतान् पुत्रान् परितरैः समं रूपद्धमयोजयन् अघटयन् अदिरोधयश्च यो राजा प्रकटं यथा भवति तथा अकर्कटस्थितीन् न विद्यते कर्कटस्येव कल्टीरस्येव स्थितिरवस्थान येते तथोक्तास्तान चकाराकापीत ।
अत्र वारानेयम्---इह हि समुत्पनाः किल कर्कटसमाः पुत्राः पितरं भक्षयन्ति इति ज्ञात्वा प्रियभाषणादिभिरामाशाविधायिनः कृतवान् इति ॥२६॥
ऋतं वचो-विसशुदितं क्रियाफलं कृतज्ञतां स्त्र विभवसम्मिा मताम् । जिगीषुतां दिगयधृतां कुटुम्बितामशेषभूभरणभरां बभार यः ॥२७॥ ऋतमिति-यो राजा ऋतं वचः सत्यं वचनं क्रियाफलम् अविसमुदितमविसंवादि स्वविभवसम्मितामात्मविभूतिसमुदितां कृतज्ञतां मतामिष्टां दिगरधृतां दिक्षु अवधृतां विजिगीषुतां विजेतृतामशेषभूभरणभरां समस्तभूमिपोषणाधारां कुटुम्बितां प्रतिसम्बन्धं योजनीया क्रिया यभार धृतवान् ॥२७॥
प्रसेदुषि स्थितिमति यत्र राजनि ध्वजांशुकान्यपि न जहार मारुतः। . स चातका सततरषातुरो-श्रुवाः पतिवरावलयपरिग्रहे परम् ॥२८॥
प्रसेदुप्रीति यत्र यस्मिन प्रसेदुपि प्रसन्ने सति स्थैर्यवति राजनि मारतोऽपि बायुरपि ध्वजांशुकानि पताकावस्त्राणि न जहार कृतवान् । स लोकप्रसिद्धः चातकः सततवृषातुरः अविरतनृपाव्यमः परं केवलं पतिवरावलयपरिग्रहे कन्याऋतणाङ्गीकारे सत्प्रसिद्धमश्रु वाः वापजलम् अत्रास्तिक्रियायाः अध्याचारः । परिसंख्याऽलंकृतिः ॥२८॥
बलेन यः स्वयमनिलोऽपि नानिलः सनीतिरप्यमवदनीतिगोचरः ।
अशीतकः शशिशिशिरः समेखलः समेखलस्त्विति न जनेन दूषितः ॥२९॥ का भरण-पोषण करता था जो अनाचारको न फैलाए। क्योंकि गुरुके विना स्वयं सिद्ध किये गये मन्त्रसे भी अनिष्ट हो जाता है ॥२५॥
नीति शास्त्रादिके पंडितों, परिश्रम करने में प्रवीण, शिष्टाचार और आस्थासे पूर्ण तथा अनुद्धत वृद्ध, युवक तथा पुत्रोंको अन्य लोगोंके साथ कार्यमें ही नहीं लगाया था अपितु उनका परस्परका विरोध भी नष्ट कर दिया था। उसने स्पष्ट ही उन भोगौकी स्थितिको कैकटोंकी परम्पराले विपरीत कर दिया था.अर्थात् युवक वृद्धाको नष्ट नहीं करते थे ॥२६॥
__उस दशरथ अथवा पान वचन सत्य थे, अनुष्ठानोंका परिणाम उपयुक्त और अनुफूल ही होता था, इतक्षताको अपनी विशाल सम्पत्तिसे नापता था, अभिलषित विजयकी इच्छा समस्त दिशाओं में व्याप्त थी तथा कुटुम्बित्ताकी भावना समस्त संसारके भरण-पोषणमें समर्थ थी ॥२७॥
___ उस स्थिरमति राजाके राज्यकालमें वायु भी ध्वजाओंके कपड़ोंको नहीं चुराता ( उड़ाता ) था [चोरोंकी तो बात ही क्या है ] । केवल चातक पक्षी ही प्याससे व्याकुल रहता था तथा पतिको घरण करके पाणिग्रहण करनेवाली कन्याकी विदाके समय ही आँसू आते थे ॥२८॥
१. श्रुत आकर्णित आगमो व्याकरणतर्कषड्दर्शनाभिप्रायसिद्धान्तस्वभावो यैः। २. समु. चयालङ्कारः--प., द.।
--------
--......
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
नेति - बटेन सामर्थ्येन कृत्वा स्वयमात्मना यो राजा अनिलोऽपि वायुरपि स कथं नानिल इति विरोधः । नैवं न विद्यते इला भूमिर्यस्यासी अनिलः न अभवत् भूमिपरित्यक्तो नाभूदित्यर्थः । सनीतिरपि सह नीत्या वर्त्तमानोऽऽपि अनीतिगोचरोऽभवदिति विरोधः । नैवं न ईतयो गोचरा लोचनविषया यस्यासौ अनी तिगोचरः । ईसयः सप्त । तदुक्तम्
३४
"अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः । स्वच परवकं च सप्तैता इतयः स्मृताः ॥ १ ॥
शशिशिशिरः शशीव चन्द्र इव शिशिरः शीतलः स कथमशीतक इति विरोधः । न शीतको मन्दः कार्ये ध्वनल्स इत्यर्थः । समे खलस्त्विति । यः समे औदासीन्यावलम्बिनि पुरुषे खलो दुर्जनः । इत्थमपि दूषितो न जनेन विरोधोऽयम् । परिहियते । मेलल्या कटिसूत्रेण सह वर्त्तमानः यद्वा समे साधी अखलः प्रतिपालकः शिष्टानां प्रतिपालनं दुष्टानां निग्रहः राज्ञां धर्म इति वचनात् । उक्त
"दुष्टानां निग्रहो नीत्या शिष्टानां प्रतिपालनम् ।
राज्ञां धर्मोऽयमेवासी नान्यः कचिच विद्यते ॥ १॥ इति' ||२९||
न्याय्यं सुखावहम भुवि धर्मराज्य मित्यात्मनः प्रथयतः प्रजयानुभावम् ।
तस्याभवत् प्रियतमा गुणपक्षपातालक्ष्म्याः स्वयंवरकृता प्रथमा सपत्नी ॥ ३० ॥ न्याय्यमिति — अहो आश्चर्य भुवि पृथिव्यां सुखावहं सुखमावहतीति तथोक्तं धर्मराज्यं धर्मात् प्राप्तं धर्मेोपलक्षितं वा राज्यं न्याय्यं न्यायादनपेतं यथोक्तप्रजापालन लक्षणमात्मनः स्वस्थ प्रजायाः अष्टादश प्रकृत्या कृत्वा अनुभाव माहात्म्यं प्रथयतः प्रख्यापयतः समस्तस्य दशरथस्य प्रियतमा भार्या लक्ष्म्याः प्रथमा सपत्नी अभवत् बभूव । किंविशिष्टा सती स्वयंवरकुता स्वयं परोपदेशमन्तरेण नियते परिणीयते राजपुत्र्या राजपुत्रो यत्रासौ स्वयंवरः । स्वयंवरो कृतो यया सा करमात् गुणपक्षपातात् गुणा औदार्यादयः तेषां पक्षपातोऽङ्गीकारः तस्मात् समान गुणशीलत्वमुपदर्शितम् ।
इदानीं भारतीय : – अहो भुवि न्याय्यं सुखावहं धर्मराज्यं धर्मस्य पाण्डोर्नराधिपत्य राज्यं तथोक्तमिति आत्मनः अनुभावं प्रजया कृत्वा प्रथयत्तः तस्य पाण्डो राज्ञः प्रियतमायाः लक्ष्म्याः प्रथमा सपत्नी अभवत् गुणपक्षपातात् स्वयंचरकृता सती । श्लेषः ॥३०॥
कलागमानामधिदेवतेव वेलेव लावण्यरसाम्बुराशेः !
अन्तर्निधिर्भूरिव वीरभूमिर्या वन्द्यतेऽद्यापि सती सतीभिः ॥३१ ॥
कलेति - अद्यापि साम्प्रतमपि या सती पतिमता सतीभिः पतिव्रताभिः भामिनीभिर्वन्वते नमस्क्रियते
वह बलमें साक्षात् अनिल (वायु) था। तो भी अनिल (भूमि-राज्य-हीन ) न था, नीतिका प्रतिपालक था अनीति (अतिवृष्टि आदि छः इतियोंसे रहित ) के लिए ख्यात था । चन्द्रमाके समान शीतल था तो भी अ-शीतल ( ढीला अकर्मण्य नहीं ) था तथा करधनीको धारण करता था तो भी लोगोंके द्वारा उसपर समे-खल (साधु पुरुषोंके साथ दुष्टता करनेवाला) लाञ्छन नहीं लगाया गया था ||२९||
न्यायमार्गपर लीन, सबको सुखकर धार्मिक राज्य द्वारा अपना तथा प्रजाका माहात्म्य प्रकट करते हुए भी उस दशरथकी राज्यलक्ष्मीकी प्रथम सौत वह प्रियतमा रानी हुई थी जिसने गुणोंपर रीझकर स्वयंवर में उसका वरण किया था ।
धर्म ( पाण्डु ) का राज्य न्यायप्रधान, सुखकर तथा राजा प्रजाके पुण्यका फल था तथापि आश्चर्य था कि स्वयंवर में गुणोंपर मोहित उसकी प्रियतमा रानी राज्यलक्ष्मीकी प्रमुख सपत्नी थी ॥ ३०॥
सती स्त्रियां शिक्षा संगीतादि कलाओं तथा आगमोंकी मुख्य देवीके समान, लावण्य१. विरोधालंकारः प०, दु० । २. कामिनीभिः प०, ६० ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
द्वितीयः सर्गः स्तूयते वा कथम्भूता सती कलागमानां कला लिखितपठितगणितघेणुचीणादयः चतुष्षष्टिः आगमाः व्याकरणतर्कसिद्धान्तादयः । कलाश्च आगमाश्च तेषामधिदेवतेव इष्टदेवीच लावण्यरसाम्मुराशेः शरीरसमुदायशोभावारिवारिनिधेलेव अन्तनिधिरिव अन्तर्निखातनिधानावनीव वीरभूमिः वीराणामुत्पत्त्यर्थभूमिः शूरोत्पत्तिस्थानमित्यर्थः ||३१|
या कौशल्या रूपशीलेन चावी दीनां काकुंत्यागसान्निध्ययोगात् । दीनेष्वर्थिवाददे लोभवादानासौ राज्ञः स्वान्तमन्त हार ॥३२॥
वेति-असौ कौशल्या कोशलो नाम नरेन्द्रः तस्यापल्लं स्त्री कोशलाया जाता भवा वा कौशल्या राशी । राज्ञो दारथस्य स्वान्तं मनः अन्तः आन्तरं जहार हृतवतीति भावः । कथंभृता सती रूपशीलेन कृत्वा चावी मनोज्ञा या दीनेबु अकिञ्चित्करपुदीनां म्लानां का काति नादद्दे न गृहीतवसी । कस्मात्यागसानिध्ययोगात् । दाननैकट्यसंबन्धात् । कथम्भूतात् अलोभनादात् । न विद्यते लोभस्य बाद उक्तिमंत्र तस्मात् ।
भारतीय:-असौ कुन्ती कुन्तेरपत्यं स्त्री कुन्ती' कुन्तिनृपात्मजा पाण्डोनराधिपत्य खान्तमन्तर्जहार | या दीनेषु अर्थिषु विषये लोभवादान कापण्यवचनानि न आददे न गृहीतवत्ती। कस्मात निध्ययोगात् निधेः समूहस्य अयोगः असम्बन्धः तस्मात् कैषामागसामपराधानाम् । कथम्भूता सती न दीनाका दीनो म्लानोऽङ्को लक्षणं वस्याः सा तथोक्ता अस्मिन् विशेषग्ये पूर्वोक्तः न शब्दः सम्बन्ध्यते तेनायमर्थः न दीनांकेति लभ्यते । पुनः कथम्भूता चार्वी मनोहरा केन कृत्या रूपशीलेन रूपं चक्षुर्विपयः शीलं गृहीतत्रतप्रतिपालनं रूपं च शीलच रूपशीलं तेन कृत्वा कौशली कुशलभावः राया कौशल्या कृत्वा अत्र येणुवीणादीनां चतुःपष्टिकलानां परिज्ञानलक्षणं दक्षत्वं प्रदर्शितमिति कोरभिप्रायः । अथवा कौशल्या को कृथिव्यां झाल्यमिव शल्या आरसीयरूपशीलेनाव्यासां क्रमनीयकामिनीनां शल्योत्पादकत्वादिति काव्यटीकाकर्तुतमिति शेषः ॥३२॥
सौन्दर्यत्रच्यऽध्यवरोपवई सिते विशेषण सतामियेप । विहाय चूतस्य समस्तयङ्ग पुष्पोद्मं चुम्बति हि द्विरेफः ॥३३॥
सौन्दर्येति-स राजा तां राशीमियेोष अभिललाष केन कृत्वा अन्यासा राजीनां रूपशीलादिव्यवच्छेदिना गुणेन कृत्वा के सति अवरोधबर्गे स्थितेऽपि सति कथम्भूते सौन्दर्यवर्षे लावण्यप्रधाने युक्तमेतत् चूतस्याम्रस्य समस्तं सर्वमङ्गं झाखोपशाखाजुभादिशरीरं विहाय त्यक्त्वा द्विरेफः द्वौ मुखकण्टकप्रख्यो रेफो यस्य स द्विरेफः भ्रमरः हि स्फुट पुष्पोद्गमं मजरीमकरन्दं चुम्बति आस्वादयतीति सम्बन्धः । अर्थान्तरन्यासः ॥३३|| रसके समुद्र के तीरके समान और वसुन्धरा भूमिको समान राघव पाण्डव वीरोंकी जननी उस पतिव्रता पट्टरानीकी आज भी बन्दना करती है ॥३॥
___ अन्वय-या रूपशीलेन चाऊ त्यागसान्निध्ययोगात् दीनेषु अर्थिषु लोभवादान् दीना काकुं नाददे असौ कौशल्या राज्ञः स्थान्तमन्तहार ।
जो सौन्दर्य और सदाचार के कारण ही सुन्दरी थी, त्याग वृत्तिका सतत अभ्यास होनेके कारण दीन याचकोसे लोभमय मनोवृत्तिसे प्रेरित तुच्छ व्यंग्य वचन न बोलती उस कौशल्या ने राजा दशरथके मनको सर्वथा चुरा लिया था ।
अन्वय दीनाना आगसानिध्ययोगात्" लोभवादानाददै असी कुन्ती...
जो लावण्य और पतिव्रतके कारण ही रमणीक थी, विनम्रता जिसका लक्षण था तथा पापोंके समुद्र में डूवे दीन दुःखी याचकोंको भी जो कृपपाता द्योतक वचन नहीं कहती थी उस कुन्तीने पाण्डु राजाके हृदयको लुभा लिया था ॥३२॥
सौन्दर्यकी दृष्टिले सर्वोत्तम अन्य अनेक रानियों के होने पर भी छह राजा विशेषरूपसे
३. द्विस्कुरुनायजादकोशलाभ्यः [जै. ३।१११५३] । २. ती रञ्जितपतीति भा--प., द. । । याचपु दो-प., द. । ५. कु मनोऽभिवार्य व- ५०, द०। ५, कुन्त्यवन्तिकुरुभ्यः खियाम् [ जै० ३११११.७] इति हृदुपु-प., द. । ६. श्लेपालङ्कारः प., द.। ७. पक्षी-द।
-
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
इति रतिमनयानुरुध्यमानो हृदि शरणोत्तममङ्गलं नमस्यन् । व्यसनरहितराजराज्य भारः समुपचिकाय यशोधनं जयेन ॥ ३४ ॥
इतीति-जयेन अरितिरस्कारेण कृत्वा तत् स्वगात्मीयं यशोधनं यश एव धनं द्रव्यं तत् स राजा उपचिकाय वृद्धिं नीतवान् कथम्भूतः व्यसनैरर्थदूपणादिभिः रक्षितः विमुक्तो राजा यत्र तादृशो राज्यभारो यम्य स एन्तरर्ति-मुनहादेव्या सह इति वक्ष्यमाणापेक्षया अनुरुभ्यमानः कामयमानः पुनः सरणोत्तममङ्गलं शरणयोग्यत्वात् शरणः उत्तमैः सर्वत्रीः प्राणतत्त्वात् उत्तमः । भङ्ग सुखं लाति ( ददाति ) मन्छे पाएं गालयति इति वा मङ्गलो धर्मः । स च स च रान्त तं हृदि हृदये नमस्यन् नमत्कुर्वन् ||३४|| इति निरवद्यविद्यामण्डनमण्डितमण्डलीडितस्य पतर्कचक्रवर्तिनः श्रीमद्विजयचन्द्र पण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भच्चा रुचातुरीचन्द्रिकायक
रेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां हिसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य राघवपाण्ड परनाम्नः काव्यस्य पदकौमुदी नाम दधानायां टीकायां दशरथ पाण्डुराजवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः ।
उस कौशल्या या कुम्लीके ही पास जाता था । जैले भ्रमर आपके स्कन्धशाखा पत्रादि समस्त अंगों को छोड़कर केवल चौरको ही चूमता है ||३३||
सब पिसियोंसे रहित राज्यका शासक यह राजा अपनी पहुरानी के साथ ही लोगों की अभिलाषा करता था तथा उत्तम शरण मंगलभूत धर्मकी मनमें बिनती करते हुए इसने विजयके द्वारा अपने यशरूपी धनकी परिपूर्ण उन्नति की थी ||३४||
निर्दोष विद्याभूषणभूषितपतिमण्डलीके पूज्य, पदूतर्कचक्रवर्ती, श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्रगुरुके शिष्य देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाकी चातुर्य चन्द्रिका के चकोर नेमिचन्द्रद्वारा विरचित कवि धनञ्जयके राघवपाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसंधान काव्यको पदकौमुदी नामक टीकामें दशरथपाण्डु राजवर्णन नामक द्वितीय सर्ग समास ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयः सर्गः अथास्य राज्ञः प्रियधर्मपत्नी धर्मोऽस्ति बन्ध्यः किमितीव मत्वा । रजःकणं तत्र फलाय काले बान्ध चूताग्रिमपञ्जरीच ॥१॥
अथेति--अथान्दो राज्यव्यावर्णनानन्तर्यार्थः । अस्य पूर्वोक्तस्य राज्ञः नराधिपस्य नियधर्मपत्नी प्रियो धों यस्याः सा जियधर्मा अथवा भियधर्मस्य हेतु पार यिर्मा सा चासौ पनी च सा तत्र काले तारुण्यभरप्राप्तिसमये रजःकणमात्तवरून पल्टाय बबन्ध धृतवती । किं कृत्वा ? पूर्वं मत्वा ज्ञात्वा कथमिति । किमिव धोऽस्ति बन्ध्यः निकल इति ! केश घृतानिमराजरीव यथाऽनभूलप्रथमोद्भवमुष्पगुच्छः तत्र काले वसन्तसमये फलाय रजःकणं मकरन्दबिन्दु बनातीति' ॥१॥
इन्द्रो विभूत्या स वृहस्पतिवां बुद्ध्या सुतः स्यादिति वंशवृद्धा । सिद्धाय मन्त्रेण निरुतवन्तश्चरं स दिष्ट्या ववृधे च पौरः ॥२॥
इन्द्र इति-विभूत्या सम्पदा कृत्वा इन्द्रः पुरन्दरः वृहस्पतिर्वा अथवा बुद्धया मत्या वृत्वा बृहस्पतिः सुरगुरुः मुतः पुनः स्यादयेत् इति हेतोः वंशवृद्धवाः कुलोइयशतायुषः पुरुषाः सिद्धायमन्त्रेण परमेष्ठिने बीजाक्षरलक्षणेन मन्त्रेण कृत्वा सिद्धः निष्पाः अयः भाग्यं यभादसौ सिद्धायः स चासौ मन्त्रश्च तेन तथोक्तेन कृत्वा चरुम् इष्ट देवतायलिविशेएं निरुतवतः दत्तवन्तः । स लोकपरितः पौरः नागरो जनः दिया महोसवेन ववृधे नृद्धि प्रापत् ॥२॥
वोधातिरेकाय सरस्वतीव लक्ष्मोरिखानेकविधार्थहेतोः ।
गर्भ महिष्याधित भूमिमतुः पुण्यस्य पुष्पोद्म एष सः ॥३॥
बोधेति-महिषी पराशी गर्भमाधित धृतवती । केवोत्प्रेक्षिता ? भूमिभर्तुर्भूपत्य बोधातिरेकाय ज्ञानाधिक्याय सरस्वतीय वाणीव अनेकविधार्थहेतोः नानाप्रकारद्रव्यनिमित्तं लक्ष्मीरिव श्रीरिच युक्तं चैतत् पुण्यत्व एपोऽसौ सर्वः समस्तः गुप्पोद्गमः पालमिति सम्बन्धः । अर्थान्तरन्यासः ।।३।।
दीप्तान्तरङ्गा शिखिनारणीव निधानगर्भण भुवः स्थलीव ।
सत्वेन तेन स्तिमितप्रकाशा जज्ञेऽलसोद्योगवतीव देवी ॥४॥ दीति-तेन गर्भस्थितेन सत्त्वेन प्राणिना अलसा मन्दा सती देवी पट्टराशी उद्योगवतीव जज्ञे जाता | केव अरणी वहिगन्थनकाष्ठमिव । कथम्भूता ? शिखिना कृशानुना दीक्षान्तरङ्गा दीसः प्रकाशमानः अन्तरको
राजाफी परमप्रिय धर्मपत्नी 'क्या धर्म निसन्तति है? यही सोचकर उपयुक्त वयमें आनके द्वारा बोरके समान धर्मसन्ततिके लिए रजोदर्शनको प्राप्त हुई थी ॥ १॥
वैभवकी दृष्टिसे इन्द्र, बुद्धिकी अपेक्षा बृहस्पति हो वह राजपुत्र होगा। इस विश्वासके कारण ही वंशके वृद्ध पुरुषोंने बीजाक्षर मन्त्रोंके उच्चारण सहित सिद्ध परमेष्ठीको नैवेद्य समर्पित किया था और अयोध्या तथा हस्तिनापुरके नागरिक भी आनन्दमंगल ग्नान्नमें दिनों दिन उन्नति कर रहे थे॥२॥
कौशल्या अथवा कुन्ती पटरानीने धर्मपतिके विवेककी लोकोत्तर वृद्धिके लिए सरस्वतीके समान, विविध प्रकारके धनों के लिए लक्ष्मीके समान गर्भको धारण किया था । थवा यह सब पुण्यरूपी वृक्ष पुष्पके उद्गमके समान था ॥ ३ ॥
भीतर ही भीतर प्रज्वलित अग्निसे काष्टके समान तथा नीचे छिपी हीरादि सम्पत्तिके १. राजव्यावर्ण-प०, द० । २. उपमालंकारः-५०, दः । ३. समुच्चयालंकारः-१०, दः ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
..
मध्यभागो यस्याः । पुनः निधान गर्भेण निधियुक्तमध्येन भुवः स्थली इन यथा कथम्भूता स्तिमितप्रकाशा स्तिमितो निश्चलः प्रकाशः शरीरकान्तिर्यस्याः सा तथोक्ता । स्थली च स्थिरप्रकाशा जायते इति सम्बन्धः । उपमा ||४||
आपाण्डुरं रागनिबद्ध मङ्गमुत्साहबाहुल्यमुदात्तमोजः। विश्वं जगद्वीप्सुरिवोदुवाह धौरभ्रलिसाम्युदितार्यमेव ।।५।।
आपाण्डुभिति--आपाण्टुरभीषत्पाण्डुरम् अङ्गरागनिबद्धभनुरागयुक्तमुत्साहस्य बाहुल्यं (प्राचुर्य) यत्र तत्तथोक्तम् । उदात्तमुत्कटमोजश्च महतां तेजः एतद्वितयं राशी उदुबाह बभार । कथम्भूतेव विश्वं समस्तं जगद्भुवनं वासुरिव व्याप्नुमिच्छरिव । केव यथा दौः नभस्तलमम्युदितार्थमाऽभ्युदितः उद्गतः अर्यमा सूर्यो यत्यां सा इत्यम्भूता सती अङ्गमात्मीयस्वरूपमुद्वहति । कश्चम्भूता पुनः ? अझैः भेप्रैः ईघल्लिप्ता "क्तादल्पे" जै० सू० [३१११४५] इति डीः । अङ्गमापाण्डुरमीपच्छ्वेतं रागनिबई लौहित्वयुक्तम् उत्कृष्ट सा लक्ष्मीः शोभा यत्राहनि तत् उत्सं उत्सं च तदहश्च तदुत्साहं सश्रीकं दिनं तत्य बाहुल्यं यत्राने तत्तथोक्तम् । ओजश्च तेजः उदात्तमुल्वणमुद्रहरि कथ भूतेन्द्र विश्वं जगद्वीप्सुस्वेित्युपमा ॥५॥
कुमारभृत्याकुशलः स तस्मिल्लोकस्थितिं प्रत्यवधातुमैच्छत् ।
अस्पृश्यमग्न्यादिमिरप्रधृष्यमन्येन तद्वंश्चमविष्यमाहुः ॥६॥
कुमारेति तस्मिन्नापाण्डुरत्यादिधारणकाले स राजा कुभारभृत्या बालवैद्यक तत्पोपकशास्त्रं वा कुमारभृत्या तस्यां कुदालः प्रवीणः लोकस्थिति लोकन्यवहारं प्रत्यवधातुमबधानीकर्तुमैच्छत् अभिलपितवान् यत्मात् , तस्मात् कारणात् तद्वं दयं वंशे भवः वदयः तस्य राज्ञो बस्यः स तथोक्तस्तमाहुः त्रुवन्ति लोकवृद्धाः कथम्भूतमग्न्यादिभिरटाभिर्दैवव्यसनैः अस्पृश्यमत्पर्शविषयमगम्यमित्यर्थः । अन्येन अरिजातेन अप्रवृष्यमजेयमनभिभवनीय गित्यर्थः । अविष्यं विप्रेणावध्यञ्चेति ॥६॥
जाने हि मृत्स्नाऽभ्यवहारमात्रं मातुः प्रकाश्यच्छलमन्तरात्मा। समुद्रवेलाजलसिक्तसीमां गर्भस्थितः स असते स्म भूमिम् ||७॥
जाने इति–जानेऽमेवं मन्ये हि स्फुटं ससत्त्वोऽन्तरात्मा अव्यक्तमूर्तिः सन् गर्भस्थितोऽपि भूमि पृथ्वी असते स्म गिलितवान् । कीदृशी समुद्रवेलाजलसिक्तसीमा वारिधिपयःप्लाविसमर्यादां किं कृत्वा पूर्व मानुर्जनन्याः मृस्नाभ्यवहारमात्रं छलं प्रशस्तमृत्तिकाभक्षणव्याज प्रकाश्य प्रव्यक्तीकृत्येति ||७|| द्वारा प्रकाशमान खानके समान गर्भमें आये उस पुण्यात्मा जीवके द्वारा गर्भिणी रानीकी कान्ति स्थिर हो गयी थी और गर्भभारले अलसायी रानी उद्योगरत सदृश प्रतीत होती थी ॥४॥
समस्त संसारको व्याप्त करनेकी अभिलाषासे ही उस रानीने कुछ श्वेत-लाल कान्ति युक्त शरीर, कार्य करनेकी क्षमताकी विशालता तथा अत्यन्त प्रभावक तेजको धनाच्छन्न तमा -दित सूर्ययुक्त आकाशके समान धारण किया था | क्योंकि उक्त प्रकारके आकाशका रूप भी आंशिक धवलिमा व्याप्त लालिमा, दिवस सौन्दर्य तथा प्रखर आतपमय होता है ॥५॥
इस प्रकारकी गर्भस्थितिके समय कुमारभृत्यमें निपुण राजा दशरथ अथवा पापहने लोक-व्यवहारको भी जानका प्रयत किया था । तद इसके कुल-वृद्धोने अग्नि आदि आठ दैवी उपसर्गों के निवारणकी विधि, शत्रु आदिके द्वारा गर्भपात निरोधके उपाय तथा चिषप्रयोगके परिवार बताये थे ॥६॥
ऐसा मानना चाहिये कि माताकी मिट्टी खानेकी चेष्टाको प्रकट करके दशरथ अथवा पाण्डु राजाकी पत्नियोंके गर्भ में स्थित अतएव गुप्त जीवने समुद्रकी लहरोंके पानीसे आई सीमायुक्त पृथ्वीको ही ग्रास कर लिया था ॥ ७ ॥
३. धातूनां--प०, द० । २. श्लेपोपमालङ्कारः-५०, द० ।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयः सर्गः अव्यक्तभावोऽयमलब्धदेहस्तथाधितिष्ठन्नपि गर्भभूमिम् । कोप्य कुरो बीजमिवानुभावात्स्वजन्महेतुं कुलमुद्वभार ॥८॥
अव्यक्तेति-अयं सत्यः तथापि अनुभावात् माहात्म्यात् त्वजन्महेतुमात्मोत्पत्तिहेर्नु कुलम् अन्त्यमुदभार उद्धृतवान् । किं कुर्वाणोऽपि अधितिष्ठन्नपि गर्भभूमि यद्यपि अव्यक्तभावः अप्रकटपरिणामः अलधदेहः अप्राप्तशरीरः प्रवर्तते उपमार्थः प्रदर्थते इव यथा कोऽपि अनिर्वचनीयोऽपि अङ्करः प्रथमन्दिन्नसूचिकः अनुभावात् स्वजन्महेतुं बीजं उद्विभर्ति यापि गर्भभूमि मध्यावनि अधितिष्ठन्नपि कीनाः अव्यक्तभावः । अव्यक्तो गुप्तो भावः सत्तालक्षणो यस्य सः तथोक्तः अलब्धदेहः । उपमा ।।८।
सवंज्ञमभ्यर्य महामहेन व्यधत्त तस्याः क्रियया महत्या । यथोचितं पोस्नवनादिकर्म धर्मोपधाशुद्धविधिः पुरोधाः ॥९॥
सर्वज्ञमिति-तत्या देव्याः यथोचितं पोग्नवनादि पुंसो भाषः पौरन बनशि सम्भजरो यत् कर्म तत्तथोक्तम् । औषधरसायनविधानै मातिराति मन्या गर्भसंक्रान्तिवासरमारभ्य मारास्यामत्य पर्यन्तदिवसं यावरपुत्रोत्पत्त्यर्थ मंत्राराधनं देवपूजा विविधपात्रेषु च यथाक्रमं यथायोग्यं दानविधियद्विधीयते तत् पौंस्नबनम् ।
उक्तञ्च
"आरभ्य सक्रान्तिदिनं हि यावन्मासाष्टमस्यावधिमुत्सदेन । पुनेप्सया धर्म (कर्म) विधीयते यत्तत् सूरयः पौंस्नवन वदन्ति ।। "केचिद् हि मासे किल पञ्चमेऽपि पूर्णेऽथ गर्भ कथमष्टमावधिः ।
तथेति धर्माद्विविधा हि सम्पत्सम्पूर्गामायुन रुजी भवेयुः ॥१॥" तदादौ यस्य तत्तथोक्तं कर्मक्रियया महत्या गरिष्टया नियया कृत्वा पुरोधाः पुरोहितः व्यवत्त कृतवान् किं कृत्वा अभ्ययं प्रपूज्य के सर्वशं याइयरूपतया सर्वे त्रैलोक्योदरविवरवर्तितत्वात्तत्त्वं करतलामलवजानातीति सर्वज्ञः। तं तथोक्तम् । केन कृत्वा महामहेन महोत्सवेन ऋयम्भूतः सन् धर्मापत्रा शुद्धविधिः धर्मोपया धर्मस्य परीक्षया शुद्धो यथोक्तो विधिः क्रिया यस्य सः ||९||
स्वमेन सोमं निशि वीक्ष्य बालमादाय सारोप्य किल खमङ्कम् । लब्धोऽतिसौम्यस्तनयः प्रजानां मयेति दिष्ट्याभ्यववर्द्धदालीः ॥१०॥
स्वप्नेति-सा देवी दिष्ट्या परमोत्सवेन आलीः सखीः अभ्यदवद्धत् आनन्दयति स्म । कमिति लन्धोऽसिसौम्यस्तनयः प्रजानामष्टादशप्रकृतीनामतिसौम्यः अतिशयेन प्रसन्नः तनयः पुत्रः लब्धः प्राप्तो
पूर्वोक्त प्रकारले गर्भ में वास करते हुए जीवने अपने परिणामीका प्रकाश बिना किये ही तथा शरीरको धारण किये बिना ही अपने जन्मके निमित्त पितृकुलका अपने विशिष्ट प्रभावसे वैसा ही उद्धार कर दिया था जैसे भूमि में बोया गया, सबके लिए अदृश्य तथा शरीरहीन कोई कोई अंकुर बीजको ऊपर उठा लाता है ॥ ८॥
धर्मके निमित्त शुद्ध विधि-विधानों में लीन पुरोहितने केवली भगवानकी महामह-द्वारा पूजा करके पटरानीका 'पोस्न' महोत्सव बड़े आयोजनके साथ राजाओंके अनुरूप साजसज्जा द्वारा किया था--
[ गर्भाधानकी तिथिसे लेकर आट मास बाद पुत्रकी अभिलाषासे जो धर्म कार्यमय उत्सव किया जाता है उसे 'पोस्नवन' कहते हैं। कुछ आघायौँका मत है कि आठवें बाद क्यों ? गर्भाधानकी तिथिसे ५ मास पूर्ण होनेपर जो आराधना-पूजा-दानमय धर्मकार्य किया जाता है उसे 'पास्नवत' कहते हैं। इसके कारण समृद्धि तथा आयु पूर्ण होती है और रोगादि नहीं होते हैं ] ॥ ९ ॥
रात्रिमें सोते समय वह रानी स्वप्नमें बालचन्द्रमाको देखकर उठा लेती थी तथा
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
हिसन्धानमहाकाव्यम्
मत । किं कृल्या पूर्व किल अनायासेन स्वमात्मीयमङ्कमुत्सङ्गं सोमं चन्द्रं आरोग्य निवेश्य । कथम्भूतं बाल शिशुम् । किं कृत्वा पुनः आदाय गृहीत्वा । निशि रात्रौ स्वप्नेन सुप्त्या कृत्वा वीक्ष्य आलोक्य । अत्र कर्तृकर्मक्रियाणां तिसृणां सोमभित्येकं कर्मसम्बन्धनीयम् इति ॥ १०॥
|
"तेषु ग्रहेषुचगतेषु तस्मिन् नक्षत्रयोगे सुषुवे कुमारम् अवग्रहो भवन भूमे येनापि नक्षत्रमुदीर्णमन्यत् ॥ ११ ॥
तेष्विति तेषु लोकप्रसिद्धेषु ग्रहेषु सूर्यादिषु उच्चगतेषु स्वस्वोच्चः स्थानस्थितेषु सत्सु तस्मिन् लोकप्रसिद्ध नक्षत्राणि अश्वित्यादीनि सप्तविंशतिर्योगाः विष्कुम्भादयः सप्तविंशतिः नक्षत्राणि योगाश्च समाहारः । ऋधोके नक्षत्रयोगे या देवी कुमारं सुबुत्रे जनयति स्म । यैः ग्रहः भूमेः पृथिव्याः अवग्रहः प्रतिबन्धः न अभवत् नाजनिछ | येनापि नक्षत्रयोगेन क्षत्रं क्षात्रो धर्मः अन्यत् शात्रवं न उदीर्णे न समुत्पन्नम् । समुच्चयाखङ्कारः । अत्र पूर्वास्य यथोचितविहितस्य परिननादिकर्मणः फलमुपदर्शितमिति भावः ||११|| तस्मिन् सुते तत्क्षणजातमात्रे रत्नप्रदीपाः प्रभया विमुक्ताः । नित्यं नैरालम्बितभोगमाया नागा इवोच्चैः सविषादमस्थुः ||१२||
तस्मिन्निति । रत्नप्रदीपाः प्रभया दिग्या विमुक्ताः परित्यक्ताः सन्तः उच्चैरतिशयेन अस्युः तिष्ठन्ति स्म । कस्मिन् सति ? तस्मिन् लोकप्रसिद्ध सुते पुत्रे तत्त्रणजातमात्रे तत्समयोत्पन्नमात्रे उत्प्रेक्षार्थं प्रदर्श्यन्ते । के इन्रोलशिता: 1 नागा इव यथा नागाः सर्पास्तिष्ठन्ति । कथम्भूताः नित्यं नरालम्वित भोगभागाः नित्यं नरे आलम्बितो भोगभागः फणाप्रदेशो यैस्ते तथा कथं सविषादं क्रियाविशेषणमिति उत्प्रेक्षा ॥ १२॥
नान्यत्सिद् भुवि यत्र नाभ्यं पदे पदे वत्र निधि निवाय्य ।
रोमाञ्चितः कञ्चुकमन्यदेकं सकञ्च कीपर्य्यधितेव हृष्टः ॥ १३॥
नालमिति--स (लोकप्रसिद्धः) कञ्चुकी सहवासिकः हृष्टः हक प्राप्तः सन् अन्यत् अपरं कञ्चुकं कुपसं पर्यधितेव परिदधाति रमेव कथम्भूतः १ रोमाञ्चितः उद्धर्षितारोमा किं कृत्वा पदे पदे प्रतिपदं तत्र तस्यां भुवि निधि निधानं निघाय्य आलोक्य कस्यां भुवि यत्र यस्यां नाभ्वं नाले न्यवित् निधातुमैच्छत् । उत्प्रेक्षा ॥ १३॥
दिशः प्रसेदुर्विमलं नभोऽभूत् सौवं न्यपतत्कुसुमं नभस्तः | विद्धिमिद्ध' दिवि दुन्दुभीनां किं भागधेये सति दुर्लभं वा || १४ ||
अपनी गोद में बैठाकर कहती थी 'मैंने मदारहों श्रेणियों के कल्याणकर्त्ता शान्त पुत्रको प्राप्त किया है।' इससे सेवायें लीन सखियों के आनन्दका ठिकाना नहीं रहता था ॥ १० ॥
जिन ग्रहोंसे पृथ्वीपर उपसर्ग नहीं आता है उन सबके अपने-अपने उच्च स्थानपर रहनेपर तथा जिसके कारण विपरीत उद्धत क्षात्र ( शत्रु ) का उदय नहीं होता है ऐसे नक्षत्र तथा योगमें महारानीने राजपुत्रको जन्म दिया था ||११||
उस क्षण में ही उत्पन्न उस राजपुत्र के सामने प्रसूतिगृह में रखे रत्नोंके दीपक तेजहीन हो गये थे और मन्त्रवेत्ता मनुष्योंके द्वारा फणसे पकड़े गये सांपोंके समान सदाके लिए अत्यन्त उदास हो गये थे ||१२||
जिस स्थान पर कचुकी सद्याजात पुत्रकी नाभिके नालको गाढ़ना चाहता था वहां पर पद-पदपर निधिको देखकर इतना हर्षित हुआ कि उसका रोम-रोम पुलकित हो गया था। मालूम होता था कि उसने एक और कञ्चुक (जामा) पहिन लिया है ॥ १३॥
१. महेषु तेपूच- ० २ निरालम्बित भोगभागाः - प० १. निरालम्बितभोगभागाः नित्यं निरतिशयेनालम्बितोऽतिसंकोचितो भोगभागो यैः- प० । ३. वधं प्रतिभाति ।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयः सर्गः दिश इति-दिशः ( आशाः) प्रसेदुः प्रसन्नाः बभूवुः । नभो गगनं ( विमलं ) निरभ्रमभूत् अजनि । सौवं दिविज कुसुमं नभस्तो गगनात् न्यपतत् पपात । दिवि नभसि दुन्दुभीनां तूर्याणां विरिन्धं ध्वनितमिद्धं तारमत्र बभूवेति क्रियाध्याहार्यां । वा अथवा-भागधेये भाग्ये सति किं दुर्लभं प्राणिनां स्यात् । अर्थान्तरन्यासः ॥१४॥
आशीतिका वर्षवराः पुरन्ध्यः पश्चाशदुत्तीर्णदशानिशान्ते ।
कुब्जाश्च पुत्रोत्सवमोहमन्त्रैरानतिषुः स्तोभमिवाभिनीताः ॥१५॥ ___ आशीतिका इति-आशीतिकाः अशीतिं वर्षाणामतिक्रान्ताः वर्षवराः वरा अधिका इति निरुक्तः अन्तःपुररक्षणे नियुक्ताः नपुंसकरूपा महत्तराः । पञ्चाशदुत्तीर्णदशाः पञ्चाशतं वाणि उत्तीर्णा दशावस्था वयो यासां ताः पुरन्ध्यः कामिन्यः कुन्जाश्च अत्युन्नतपृष्ठवंशाः पुत्रोत्सवमोहमन्त्रैः कर्तृभिः स्तोभमावेशमभिनीता इव अभि समन्तात् प्रापिता स्य निशान्तेऽन्तःपुरे आनतिषुः नृत्यं चकुरित्युत्प्रेक्षा ॥१५॥
निवेदयद्भ्यः सुतजन्म राजा स राज्यचिह्न सुतगज्यभाव्यम् ।
हित्त्वैतदेकं धृतवान्न किञ्चिद्देयं हि तुष्टैरपि नान्यदीयम् ।।१६।। निवेदयभ्य इति-रा राजा दशरथः पाण्डुर्वा सुतजन्म पुत्रोत्पत्ति निवेदयद्भ्यः कथयद्भ्यः न धृतवान् किश्चित् वल्लु किं कृत्वा हित्वा परित्यज्य किं एतदेकं राज्यचिह्न कथम्भूतं सुतराज्यभाव्यं सुतराज्योपलक्षणीयम् । हि स्फुटं अन्यदीयं वस्तु तुष्टैरपि आनन्दमन्दिरं प्रविष्टैरपि न देयं न दातव्यम् । उत्प्रेक्षार्थान्तरन्यासौ ॥१६॥
अन्त:पुरे राजनि राजधान्यां देशेऽप्यसम्पाय दिशामधीशान । व्याप्यासनक्षोभकृदुत्सवोऽयबद्यापि विधाम्यति न प्रजासु ॥१७॥
अन्तःपुर इति-अयमुत्सबोऽद्यापि साम्प्रारपि प्रजासु अष्टादशप्रकृतिषु विपवे न विश्राम्यति न विश्राम करोति । कथम्भूतः आसनक्षोभकृत् आसनस्य उपवेशनस्य क्षोभं सकलानं करोति सः। किं वृत्वा दिशामधीशान् व्याप्य | पुनः किं कृत्वा अन्तःपुरेऽवरोधे राजनि भूपे राजधान्यां मुख्यनगव्यों देशे मण्डले असम्माय अवकाशमलव्ध्या ! समुच्चयः ॥१७॥
समं द्विषन्तः शुकसारिकाभिर्विपाशिता वल्गु शिशु शशंसुः । निर्मोक्षपाणं सह धेनुकेन गृहे गृहे वात्सकमभ्यमुञ्चत् ॥१८॥
पुत्र-जन्म के समय सब दिशाएँ स्वच्छ हो गयी थी । आकाश मेघरहित अतएव निर्मल हो गया था । आकाशले स्वर्गलोकके फूलों की घर्षा हो रही थी। वातावरणमें दुन्दुभियोंकी जोरकी ध्वनि ध्या हो गयी थी । शुभ भाग्य होनेपर संसार में क्या दुर्लभ होता है ? १८॥
___ अस्सी वर्षसे भी अधिक वयके अन्तःपुरके नपुंसक प्रहरी, पचास वर्षसे भी अधिक घयकी रानीकी परिचारिकाएँ तथा कुबड़े, पुत्रजन्मक उत्सयरूपी वशीकरण मन्त्रके आवेशमें अन्तःपुरमें नाच रहे थे ॥१॥
राजा दशरथ अथवा पाण्डुने पुत्र के जन्मकी सूचना देनेवालोंको इस प्रकार पुरस्कार दिया था कि उनके शरीरपर भाषी राजा राजपुत्रके राज्यचिह्नको छोड़कर और कोई आभूषणादि न रह गये थे। क्योंकि महापुरुष परम प्रसन्न होनेपर भी दूसरोंकी वस्तु पुरस्कार में नहीं देते हैं ॥१६॥
__ आसनको हिला देनेवाला पुत्रके जन्मका उत्सव रनवास, राजा, राजधानी तथा पूरे राज्यमें भी न समा सका था। अतएव समस्त दिकपालो तक को व्याप्त करके यह आज भी समस्त जनतामें चाल ही है, रुका नहीं है ॥१७॥
1. काः अशीतिभूताः "तमधीष्टो भूतो भूतो वा" [जै० ३।४।७६] इति ठज् । वर्ष-प०, द० ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् सममिति-द्विषन्तः शत्रवः शुकसारिकाभिः सम सार्द्ध विपाशिताः विमोचिताः सन्तः वल्गु मधुरं यथा शिशु बालं शशंसुः प्रशंसयामासुः । गृहे गृहे निर्मोक्षमाणमात्मानं मोक्तुमिच्छन्तं वात्सकं सर्णकसमूहं नागरो जनः धेनुकेन गोसमूहेन सह सार्द्धमभ्यमुञ्चत् समन्तात् मुक्तवान् ॥१८॥
पुरोहितावर्तितजातकमो नीरञ्जित रत्नमिवाकरस्थम् । पुत्र प्रकाशोऽय मञ्चन क्रिया दि नियुति संस्करोति ॥१९॥
पुरोहितेति-पुरोहितेन पुरोधसा आवर्तितं जातकर्म यस्य स तथोक्तः सन् अयं पुत्रः तनयः प्रकाशहेतुत्वात् प्रकाशः तेजस्वी अभूत् अजनि | किमिव आकरस्थं खनिसमुत्पन्न रत्नमिव भणिरिव कथम्भूतं नीरजितमुत्तेजितम् । हि स्फुटं निसृष्टद्युति अविनष्टकान्ति द्रव्यं क्रिया की संस्करोति विनयति । अर्थान्तरन्यासः ॥१९॥
पूर्व परं ज्योतिरुपाय॑ देवं स्थेयान् प्रकृत्या विशदो गरीयान् । मनोऽभिरामोऽयमजातशत्रुरित्यर्थयुक्तं जुहुवे नृपेण ॥२०॥
पूर्वमिति-नृपेण दशरथेन राज्ञा अर्थयुक्तं सार्थकमयं पुत्रः राम इति जुहुचे आहूतः । कथम्भूतः प्रकृत्या स्वभावेन स्थेयान स्थिरः । किं कृत्वा परं ज्योतिदेवं उपाय॑ अर्चयित्वा । कथम्भूतः रागः विशदः स्वच्छः स्वच्छाशयः कथं 'मनोभिः मनसा पुनः कथम्भूतः गरीयान् गरिष्ठः पुनः अजातशत्रुः न जाताः शत्रवो यस्य सः अथवा यमात् मृत्योर्जातं मरणलक्षणं कर्म यत् तत् यमजं यमजं अतन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति ये ते यमजाताः नन्द्यादिनेति सूत्रेणा प्रत्ययः इत्थम्भूताः शत्रयो यस्मात् सः । अथवा-यमाय यावजीवव्रताय जाताः शत्रवी यस्मिन्नुत्पाने सति स्वीयं स्वीयराज्यमपहाय पराभवभवात् वैरिणो प्रतिनो बभूवुरित्यर्थः ।
भारतीयः-नृपेण पाण्डुना राशा अर्थयुक्तमयं पुत्रः अजातशत्रुयुधिष्टिर इति जुहुवे आहूतः । कथम्भूतः मनोभिरामः कमनीयः अथवा आमः सा कैः मनोभिः चित्तैः मनसः कौटिल्यरहितत्वात् बहुवचनमत्र । शेषं पूर्ववत् । श्लेषः ॥२०॥
शत्रुओंके साथ-साथ बन्धनसे मुक्त किये गये, तोता और मैना आदि अपनी मधुर ध्वनियोंसे नवजात राजपुत्रकी प्रशंसा करते थे। मुक्त करनेकी लोगोंको ऐसी धुन बँध गयी थी कि घर-घरसे गायोंके साथ बछड़े भी छोड़ दिये थे ॥१८॥
पुरोहितके द्वारा जन्मके संस्कार कर दिये जानेपर खानसे निकले किन्तु खरादपर चढ़ाकर चमकाये गये रत्नके समान यह राजपुत्र भी तेजस्वी दिखने लगा था। स्वभायसे कान्तिमान पदार्थको भी संस्कार अधिक कान्तिमान बना देते हैं ॥१९॥
अन्वय-नृपेण पूर्व परं ज्योतिदेवं उपाय॑ स्थेयान् , प्रकृल्या विशदो गरीयान् मनोभिः अजातशत्रुः भयम् अर्थयुक्त रामः इति जहुवे।
राजाने सबसे पहिले परम ज्ञानी भगवान्की सविधि पूजा करके पुत्रको सार्थक नाम रामसे पुकारा था क्योंकि यह वह राजपुत्र स्थिर, स्वभावसे निर्मल और गम्भीर था तथा मनसे भी कोई इसमः शत्रु नहीं था। अथवा स्वभावले स्थिर, मनसे स्वच्छ तथा गम्भीर और इसके शत्रु आजीवन व्रत ( यम) लेकर चले गये थे अथवा यमलोक (मृत्यु) चले गये थे।
अन्वय-..... 'मनोभिराम इति अर्थयुक्तं अजातशत्रुः जुहुवे.... ।
सर्वप्रथम केवलशानी भगवान की पूजा करके राजा पाण्डुने राजपुत्रको सार्थक नाम अजातशत्रु (युधिष्टिर) से पुकारा था क्योंकि वह अत्यन्त दृढ़ भावसे निष्कपट, परम गम्भीर तथा सबके मनको मोह लेता था ॥२०॥
१. समुखयालङ्कारः-५०, द० । २. देव देवानामिदं दैवम्-प०, २० । ३. उपाय अर्जयित्वा-१०, द०। ४. अन्न राघवीयपक्ष टीकोक्तदिशा मनोभिः रामाः इति छेदः । अन्न दलोपदीर्वाप्रवृत्तिरूपः संधिदोपश्चिन्त्यः। भारतीयपक्षे तु मनोभिरामः मनोभिः मामः आई इतिच्छेदो युक्त एव ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयः सर्गः दिनानि लब्ध्वा ववृधे शशीव कुब्जानवष्टभ्य विचक्रमे च ।
किश्चिद्वभाषे सवयोभिरल्पं यात्रा जनस्योपदिशनिवासीत् ॥२१॥ । दिनानीति-दिनानि दिवसानि लब्ध्वा प्राप्य स पुत्रः ववृधे वृद्धि गतवान् । क इव शशीव चन्द्र इव । विचक्रमे चरणाम्यां चचाल । किं कृत्वा कुब्जान अवष्टम्य अवलम्ब्य । चकारोऽत्र समुच्चये । तेनायमर्थः । न केवलं विचक्रमे बभाषे च उक्तवान् । किं किञ्चित् अल्पम् । कथं सक्योभिर्मित्रैः सह सार्द्ध जनस्य लोकस्य यात्रां लोकस्थितिम् उपदिशन्निवासीत् बभूवेति । समुच्चयः ॥२१॥
कपोलयोमूनि पादयोस्तं निमीलिताक्षं नृपतिश्चुचुम्ब । _स्वस्य प्रियायाश्च सुतेऽवतीर्णमास्वादयन् स्नेहमिवैकरूपम् ॥२२॥
कपोलयोरिति-निमीलिताक्षं संकुचितलोचनमिति क्रियाविशेषणम् । कपोलयोः गल्योः । मूर्द्धनि मस्तके । पादयोश्चरणयोः । एतेषु स्थानेषु तं पुत्रं नृपतिः राजा चुचुम्ब चुम्बितवान् । किं कुर्वन्निव सुतेऽवतीर्ण स्वत्यात्मनः प्रियायाश्च एकरूपं स्नेहमास्वादयन्निव ! उत्प्रेक्षा ॥२२॥
स प्राज्ञमाहाकुलशूरसङ्ग चकार पोतुः प्रथमं नरेन्द्रः । पृक्तं नवं भाजनमत्र' येन तद्न्ध रूपं हि भवत्यवश्यम् ।।२३।।
स इति-स नरेन्द्रः नृपः प्रथम पातुः पुत्रस्त नाशमाहाकुलशूरसङ्गं प्राज्ञाः कुशाग्रबुद्धयः महाकुले जाता माहाकुलाः महान्यये जाताः सूर्यसोमादिवंशसमुद्भवाः शूरा वीरास्तेषां राङ्गं संसर्ग चकार कृतवान् हि यस्मात्कारणात् येन वस्तुना पृक्त वासितं नवं भाजनममत्रमत्र लोकेऽवश्यं नियमेन तद्गन्धरूपं तद्गन्ध एव रूपं यत्य तादृशं भवति जायते । उक्तं च- "नवान्यमत्राणि शुभोऽशुभो वा धासोऽपि लग्नोऽनयदात्मभावम् । थान्येव तानीतरथा विधातुं शक्नोति नूनं न चतुर्मुखोऽपि ॥" अर्थान्तरन्यासः ॥२३॥
लिपि स संख्यामपि वृत्तचौलः समाप्य वृत्तोपनयः क्रमेण ।
ब्रह्माचरन् षोडशवर्षवद्धमादत्त विद्याः कृतवृद्धसेवः ।।२४|| लिपिमिति-स पुत्रः कृतवृद्धसेवः कृता वृद्धानां गुणवता सेवा येन सः । विद्या आन्वीक्षिक्याद्याः आदत्त गृहीतवान् । किं कुर्वन् षोडशवर्षबद्ध (ब्रह्म) ब्रह्मचर्यमाचरन् । षोडशवर्षाणि यावदित्यर्थः । कथम्भूतः वृत्तोपनयः शिष्यत्वमुपनीयते येनासौ उपनयः मौसीव्रतबन्ध इत्यर्थः । वृत्तो निष्पन्न उपनयो यस्य सः । क्रमेण इत्यस्यायमर्थः पूर्व प्रथमं दृत्तचौल: वृत्तं चौलं चूसकर्म यस्य सः पश्चाद्वृत्तोपनयः । किं कृत्वा समाप्य अभ्यस्य समाप्तिं नील्वा । काम् ? लिपि पङ्क्तया वर्णविन्यासं संख्या गणितमपि चेति । समुच्चयः ॥२४॥
___ ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों राजपुत्र चन्द्रमाके समान बढ़ते जाते थे। कुबड़ोंको पकड़कर चलते भी थे तथा कुछ कुछ बोलते थे। अपनी समान वयके लोगोंके साथ जब थोड़ा भी चलते थे तो ऐसा लगता था कि जनताको जीवनयात्राकी शिक्षा दे रहे हैं ॥२१॥
राजा दशरथ अथवा पाण्डु आँखें मूंदकर राम अथवा युधिष्ठिरके गालों, मस्तक अथवा पैरोंको चूमते थे । प्रतीत होता था कि अपने और पट्टरानीके मिले हुए और पुत्रमें उतरे स्नेहका स्वाद ही ले रहे हैं ॥२२॥
उन नरपतिने प्रारम्भसे ही अपने पुत्रको अत्यन्त बुद्धिमान् , उत्तम कुलमें उत्पन्न पीर पुरुषों के साथ कर दिया था। क्योंकि नूतन पाश्रमें जिस वस्तुका संसर्ग हो जाता है उसकी गन्ध निश्चयसे बनी रहती है ॥२३॥
- पहिले चूडाकरण उसके बाद यज्ञोपवीत संस्कारको प्राप्त उस राजपुत्रने क्रमशः वर्णमाला तथा अंकगणितकी शिक्षाको प्राप्त करके सोलह वर्षकी चयतक ब्रह्मचर्यका पालन किया था और वृद्धजनोंकी सेवा करते हुए समस्त विद्याओंको सीखा था ॥२४॥
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् आन्वीक्षिकी शिष्टजनाधतिम्यस्त्रयी च वार्तामधिकारकद्भ्यः । वक्तः प्रयोक्तश्च स दण्डनीति विदां मतः साधु विदाञ्चकार ।।२५॥
आन्वीक्षिकीमिति-शिष्टजनादान्वीक्षिकी यतिभ्यः मुनिभ्यस्त्रयीम् अधिकारकृदभ्यः नियोगिभ्यः वार्ता वक्तः प्रयोक्तुश्च दण्डनीति स पुनः विदाञ्चकार । कथं साधु यथा समीचीनम् । कथम्भूतः विदां विदुषां मतः इष्टः। "आन्वीक्षिक्यात्मविज्ञानं धर्माधौं यीस्थितौ । अर्थानौं तु वार्तायां दण्डनीयां नयानयौ ॥" समुच्चयः ॥२५॥
कृत्वा सपर्या कुलदेवताभ्यो विधाय गोदानविधि सुतस्य । सवृत्तविद्याभिजनानुरूपं स दारकर्मावनिपश्चकार ॥२६।।
कृत्येति-सः अवनिपः राजा सुतस्य दारकर्म विवाहं चकार कृतवान् कथम्भूतं (सवृत्तविद्याभिजनानुरूपं) सवृत्ते समानाचारे ये विद्याभिजने विद्याकुले तयोः अनुरूप योग्यं विद्याऽत्र व्याकरणतर्क सिद्धान्तलक्षणा ज्ञेया । किं कृत्वा कुलदेवताभ्यः सपर्या कृत्वा विधाय पुनः किं सुतस्य गोदानविधि मौजीव्रतमोक्षणं विधाय । समुच्चयः ॥२६॥
सजानकीलागारपेता नना जलिदाय यनः । विलासिका चित्तमसो जहार कि कोऽपि ताप विषयेऽस्त्यसक्तः ।।२७||
सदिति-यूनः तारुण्यभराप्रान्तस्य रामस्य चित्तं हृदयमसौ क्यूः जामकी सीता जहार दृतवती । कथम्भूता विलासिका विलास: नेत्रजो विकारः सोऽस्या अस्तीति विलासिका । कथम्भूता नवा तारुण्यवती । पुनः नाशमतेरपेता निर्गता। न वियोगविषयेत्यर्थः । कि कृत्वा ? निदर्थ प्रकाश्य । किम् ? प्रेम स्नेहम् । कथम्भूतम् ? सत् समीचीनम् । कृतकोपचाररहितमित्यर्थः । उत्ताच
"यावकाशलेशोऽस्ति नोपचारविचारयोः ।
तद्धथानं प्रेम पाऽशेषदुःखभिद्योगिभोगिनोरिति ॥" अर्थान्तरन्यासमाह-किं कोऽपि ताकामसदृशोऽप्यस्ति यो नाम विषये इष्टहागवनिताचन्दनादौ असक्तः । अत्र तात्पर्यम्-यथा रामो विषयासक्तस्तथा नान्यः कश्चिदस्तीति भावः ।
भारतीयपक्षः-यूनः युधिष्ठिरस्य चित्तमसौ वधून बहार न हृतवती ? कथम्भूता विलासिका विलासिनी पुनः नवा तरुणी उद्भिन्नपीनघनस्तनमण्डला । पुनः कीनाशमतेः कीनाशस्य कृपणस्य मतिरिव मतिः क्रूरबुद्धिरित्यर्थः । अथवा कीनाशा दीना चासो मतिश्च । उक्तञ्च-"कीनाशः कृपणो लुब्धो दीनो गृध्नुश्च मर्दनः ।
अपने-अपने विषयके प्रतिष्ठित विद्वानोंको प्रिय राजपुत्रने सिद्धपुरुषोंसे आत्मविद्याकी शिक्षा ग्रहण की थी, ऋषियोंसे धर्म-अधर्मका ज्ञान प्राप्त किया था, अधिकारियोंसे लाभहानि शास्त्रको पढ़ा था तथा न्यायाधीश और शासकोंसे न्याय-अन्यायकी विवेचक दण्डनीतिको समझा था ॥२५॥
महाराज दशरथ अथवा पाण्टने अपने कुल के आराध्य देवताओंकी सविधि पूजा करके राजपुत्रके ब्रह्मचर्य-आश्रम समाप्तिका संस्कार किया था। ततः अपने समान आचार-विचार, शिक्षा दीक्षा तथा कुलीनतासे युक्त स्थानपर उसका विवाह कर दिया था ॥२६॥
अन्वय-नाशमतेरपेता, विलासिका, असौ नधा वधू सजानकी प्रेम निदर्थ यूनः चित्तं जहार । किं कोऽपि तारविषये असक्तः अस्ति ?
_ वियोगकी कल्पनासे भी दूर, कटाक्षोसे प्रीति यरसानेवाली इस नववधू गुणवती जानकीने अपने प्रगाढ प्रेमके आचरणसे युवक रामके चित्तको वशमें कर लिया था। संसारमें कौन सा है जो ऐसे विषयमें अनासक्त रह सके ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयः सर्गः
४५
तस्या अपेक्षा | पुनः कथम्भूता सब्जा प्रगुणा वा सतः सत्पुरुषाज्जाता राजा कुलीना । किं कृत्वा १ निद कि प्रेम | अर्थान्तरमुपन्यस्यते किं कोऽपि तादृग् यथा युधिष्ठिरोऽस्ति यो नाम विषयेऽसक्तः । अत्र तात्पर्यम् - यथाविषयेऽसक्तो युधिष्ठिरस्तथा नान्यः कश्चिदस्तीति ॥ २
भीमः क्रमात् वर्महरः किरीटी प्रांशुर्विशालः ककुदुन्नतसः । अभूवृषस्कन्धधरो महेच्छ: स वर्तितो वर्तिकयेव धात्रा ||२८||
भीम इति-- स रामः क्रमात् परिपाट्या भीमः भयानकोऽभूत् अजनि । कथम्भूतः १ वर्महरः कवचोह नसमर्थः 1 किरोटी मुकुटवान् । प्रांशुः उच्चैस्तरः । विद्यालः विस्तीर्णः । पुनः ( ककुदुन्नतांसः ) ककुदिव वृषकोथरि उन्नती असो स्कन्धौ यस्य सः तथोक्तः । दृषस्कन्वधरः वृषस्येव नृपभस्येव स्कन्धधरा ग्रीवा यस्य सः । अत्र ग्रीवायाः स्थूलत्वं प्रतिपादितम् । महेच्छः महत्सु सत्पुरुषेषु इच्छा वाच्छा यस्य सः । एतैर्विशेषणैर्युक्तः सन् उत्प्रेक्ष्यते । यात्रा चतुर्मुखेण कर्चा वार्तिकया चित्रलेखन्या कृत्वा वर्त्तित इवेति ।
भारतीयः क्रमात् आनन्तर्येण युधिष्ठिरानन्तरमित्यर्थः भीमः वृकोदरः अभूत् । कथम्भूतः वर्महरः । ततश्च किरीटी अर्जुनः । कथम्भूतः महेन्छः महतो इच्छा यत्यासी महेच्छः वा महे उत्सवे सति अच्छ: अत्रिकलहृदय' इति । शेषः प्राम्वत् । उत्प्रेक्षा ॥२८॥
ततः सुमित्रोदयहेतुभूतामद्रयुन्नति प्राप्तमभूत सूनुम् । योऽपप्रथत् सम्नकुलादिवासि श्रीलक्ष्मणाच्या सददेव
||२९||
तत इति ततः रामोत्पत्त्यनन्तरं सुमित्रा राशी तं सूनुं पुत्रमसूत जनितवती । कथम्भूतं अद्रचुन्नति प्राप्तं पर्वतस्योच्चतां गतम् । कथम्भूतामुदयहेतुभूतां विभवकारणन्ताम् यः श्रीलक्ष्मणा ख्यामपप्रथत् प्रकटितवान् । कथम्भूतः सन्नकुलोदितारिः सन्ना हताः कुदिताः अन्वये प्रसिद्धाः भरयो येन सः पुनः सहदेवचर्यः सह सार्द्धं देवानामिव चर्यया गत्या वर्त्तमानः । अर्द्धचरत्वादेः परिवारित इत्यर्थः ।
अन्वय-कीनः शमतेरपेतः, सज्जा, विलासिका, नत्रा असो वधू प्रेम निदश्ये यूनः चित्तं न हार ? किंगविषये असक्तः अस्ति ?
दीन वृत्तिसे अछूती, गुणसे भूषित, विद्यासों में चतुर, यौवन के प्रारम्भमें वर्तमान, इस वधूने अपने प्रकृष्ट प्रेम प्रदर्शन द्वारा युधिष्ठिरके चितका हरण नहीं किया था ? [ अर्थात् किया ही था ] उसके समान वयका कौन ऐसा है जो विषय भोग में उदासीन हो ||२७||
रामचन्द्रकी पीउपर उन्नत, पुष्ट, ककुदके समान कन्धोयुक्त तथा धर्मकी धुराको धारण करनेवाला कवचधारी, मुकुटविभूषित, प्रसार तेजस्वी और महत्त्वाकांक्षी उस भरतका जन्म हुआ था जो विधाताकी कूँचीले विषित समान लगता था ।
!
युधिष्ठिर के बाद
को भी तोड़ देनेवाले भीम और लम्बे चौड़े अर्जुन हुए इनके उठे विशाल कन्धे थे तथा बैठके समान वलिष्ट श्रीचा थी । सज्जन-समागम के प्रेमी ये जगनियन्ता की टॉकीसे गढ़े गये से प्रतीत होते थे ||२८||
अन्वय- ततः सुमित्रा भवन्नसिं माझं सूनुम् असुत । सन्नकुलोदिवारिः सहदेववर्यः यः उदयहेतुभूताम् श्रीलक्ष्मणाख्या अपप्रथत् ।
भरतके जन्म के बाद दशरथकी सुमित्रा महारानीने पर्वत के समान उत्षेध युक्त पुत्र
१. स भरतः । यतो हि रामानन्तरं भरतस्यैव जन्म अभूत् । नृपस्वधरां इत्यनेन तस्यैव संकेत: अप्रजस्य न्यासत्वेन राज्यस्य प्रतिपालनात् भरत एवं धर्मपुराधारक इति । २. अनाचिलहृदयः१० द० । ३. भरतोत्पत्यनन्तरं प्रतिभाति ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
माग
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
भारतीयः- ततः युधिष्टिर भीमार्जुनोत्पत्तित्र्यावर्णनान्तरं सुमित्रोदयहेतुभूता सुमित्राणां सुहृदामुदयहेतुभूता माद्री ( मद्री) राशी तं सूनुमसूत । कथम्भूतमुन्नतिं प्राप्तम् । यः नकुल इत्याख्यामपप्रथत् प्रकटीचकार । केन कृत्वा श्रीलक्ष्मणा श्री लक्ष्माणि लक्षणानि अत्र समाहारापेक्षयैकत्वं श्रीलक्ष्म तेन श्रीलक्ष्मणा । पुनः सहदेवचर्यः सहदेवेन चर्या गमनं यस्य सः तथोक्तः सन् । पुनः अदितारिः अदिता भक्षिता अरयो येन सः कालकरालवदनार्पितशत्रुः । "अद भक्षणे" इत्यस्य धातोः प्रयोगः । यद्वा दिताः खण्डिताः अस्यः शत्रवः येन स तथोक्तः । “दो अवलण्डने" इत्यस्य प्रयोगः | श्लेषः ||२९||
राज्ञस्तथा सुप्रजसः कुलस्य सर्वस्य सोऽतीय जनस्य जातः । शत्रु नामाऽभ्युदयैकहेतुः पुत्रं पुनानं हि कुलं निराहुः ||३०||
४६
राज्ञ इति-यथा रामलक्ष्मण द्वौ पुत्रौ जातौ तथा राज्ञो दशरथस्य सुप्रजसः कामिन्याः स लोकप्रसिद्धः शत्रुघ्ननामा पुत्रो जातः । यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् यथेत्यध्याहार्यमत्र | काकाक्षिगोलकन्यायेन जात इति क्रिया पूर्वपरसम्बन्धपदपरामर्शिनी । तेनायमर्थः - यः अतीव अतिशयेन अभ्युदयैकहेतुः जातः । कस्य कुलस्य वंशस्य सर्वंस्य जनस्त्र च । इदानीमर्थान्तरन्यासः । हि कुटं कुलं पुनानं पुत्रं निराहुर्वदन्त्याचार्याः ।
भारतीय:--स नकुलः शत्रुघ्ननामा शत्रून् हतवत् शत्रुघ्नं नाम यस्यासौ शत्रुघ्ननामा भूत्या सुप्रजसः शोभना प्रजा यस्यास सुप्रजाः तस्य " प्रजामेवादस्" [जै० सू० ४ २ १२४ ] पाण्डो राज्ञः सम्बन्धित्वेन कुलस्व तथा तेन प्रकारेण सर्वस्य समस्तस्य जनस्य अतीव अभ्युदयैकहेतुर्जातः । अर्थान्तरं न्यस्यति कुलं पुनानं हि स्फुटं पुत्रं निराहुः । उक्तञ्च
"पुष्णाति धर्म हि फुलक्रमेण समागतं यः कृपया प्रभूतम् । कुलं पुनीसे जनकस्य की पुत्रं पवित्रं प्रवदन्ति शिष्टाः " ॥ १॥
अर्थान्तरन्यासः ||३०|
को जन्म दिया था। पीढ़ियोंसे ख्यात अपने वंशके शत्रुओंका संहारक तथा देवताओंसे अनुगत उस राजपुत्रने अभ्युदयकी प्रेरक श्रीलक्ष्मण संशाको धारण किया था।
अन्वय- ततः सुमित्रोदयहेतुभूता सही उसतिं प्राप्तं सूनुम् असूत । अदितारिः सन् यः सहदेवचर्यः नकुलः श्रीलक्ष्मणाख्यां अपप्रधत् ।
भीम-अर्जुन के जन्म के बाद शिष्ट बन्धु बान्धवोंके उत्कर्षकी सहायक महारानी महीने परम विकासको प्राप्त पुत्रको जन्म दिया था । शत्रुओंके मान-मर्दक होकर भी 'सहदेव' से अनुगत इस नकुल पाण्डुपुत्रने अपने नामको लक्ष्मी और सल्लक्षणोंके लिए प्रसिद्ध किया था ||२९||
अन्धय-तथा राज्ञः सुप्रजलः कुलस्य सर्वस्य जनस्य अतीव अभ्युदयैकहेतुः सः शत्रुघ्ननामा जातः । हि कुलं पुनानं पुत्रं निराहुः ।
जैसे दशरथ राजाके भरतादि हुए थे वैसे ही सुमित्रा महारानीसे अपने वंश तथा समस्त जनता के अत्यन्त उत्कर्षका साधक वह शत्रुघ्न नामका पुत्र हुआ था। ठीक हैं, कुलको पवित्र करनेवालेको ही वास्तविक पुच कहते हैं I
अन्त्रय-राज्ञः सुप्रअक्षः तथा जातः शत्रुघ्ननामा सः कुलस्य सर्वस्य जनस्य अभ्युदयैकद्देतुः ।
महाराज पाण्डुकी भट्टी महारानी से पूर्वोक्त प्रकार से उत्पन्न शत्रुओंके विनाशके कारक ख्यात वह सहदेव अपने वंश तथा समस्त जनताकी उच्चतिका प्रधान कारण था । निश्चयसे पुत्र वही है जो वंशको पवित्र करे ||३०||
१. रामभरतलक्ष्मणाः त्रयः पुत्राः जाता इति चिन्त्यम् । २. स सहदेवः नकुलसहचर इति ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
तृतीयः सर्गः
सर्वः कुमारः सुकुमारमूर्तिः सोष्णीषमूर्दोन्नतिरौणिकीभ्रूः । आलिङ्गितश्रीकरकङ्कणाङ्कमार्गादिवावर्तितकण्ठरेखः ||३१||
लङ्के इत्यनया क्रियया वृत्तत्रयेण सम्बन्धं दर्शयति - सर्वं इति । सर्वः समस्तः कुमारः सुकुमारमूत्तिः सुकुमारा मूर्तिर्यस्य सः सोष्णीप्रसूधन्नतिः उष्णीषः ब्रह्मद्वारस्योन्यप्रदेशग्रन्थिलक्षणविशेषः सहोणीषेण मूर्द्धानतिर्यस्य सः पुनः और्णिकी भ्रूः ऊर्णायां नियुक्तः "तत्र नियुकः " [जै० सू० ३।३११।६ ] इति उम् औणिकी । औणिक्य सूक्ष्म बहु यस्य सः और्षिकी भ्रूः "न वुहकोड: " [जै० सू० ४।३।१४९ ] इति पुंवद्भावनिषेधः । आवर्तितकण्टरेखः आवर्तिताः कण्ठरेखा यस्य सः । कस्मादिव आलिङ्गितश्रीकरकङ्कणाङ्गमार्गात् आलिङ्गिता चासौ श्री लक्ष्मीः शोभा वा तस्याः करकङ्कणस्य अङ्कं चिह्नं यत्र स चासौ मार्गः | तस्मादिव उत्प्रेक्षा ||३१||
ऊर्जखलः पर्वतभित्तिवक्षा निगूढजानुद्वयलम्बबाहुः |
गम्भीरनाभिः सवृहनितम्बः श्रीगोपुरस्तम्भनिभायतोरुः ||३२||
ऊर्जस्वल इति-स सर्वः कुमारः ऊर्जस्वलः बलवान् । पर्वतभित्तिवक्षाः विस्तीर्णाच्च भूधरसदृशोरस्क इत्यर्थः । निगूढं जानुद्वयं यस्य सः लम्बौ बाहू यस्य सः निगूढ जानुद्रयश्चासौ लम्बबाहुरच निगूढजानुद्वयलम्बबाहुः अव्यक्तसुबद्धजानुद्वित्तयदीर्घतरभुज इत्यर्थः । गम्भीरा नाभिस्तुन्दिर्यस्य सः । सवृहन्नितम्बः सह बृहन्नितम्पेन वर्त्तत इति । तथा श्रीगोपुरस्तम्भेन निभे तुल्ये आयते दीर्घे ऊरू जङ्घे यस्य सः तथोक्तः ।
उपमा ||३२||
चतुर्दशद्वन्द्वसमान देहः सर्वेषु शास्त्रेषु कृतावतारः ।
गुणाधिकः प्रश्रयमङ्गभीरुः पितुः कथञ्चिद्गुरुतां ललङ्घ े ||३३||
चतुर्दशेति पुनः कीदृशः चतुर्दशद्वन्द्वसमान देहः चतुर्दशन्देन समानो न्यूनाधिक्यरहितो देहः शरीरं यस्य सः । भ्रूलोचननासाक पोल्कर्णोष्ठस्कन्धबाहुपाणिस्तनपार्श्वोरुजङ्घापादाः एतेषां चतुर्दशानां द्वन्द्व तेन । पुनः कृतावतारः कृतोऽवतारो येन सः विहिताभ्यासः । केषु सर्वेषु शास्त्रेषु । गुणाधिकः गुणपरिपूर्णः । प्रश्रयभङ्गभीरुः विनयनाशभीलुकः । इत्थम्भूतः सन् पितुः जनकस्य कथञ्चित् केनापि प्रकारेण गुरुतां गौरव ल लङ्घितवान् इति । अन्त्यदीपकम् ॥३३॥
तत्याज पुत्रो विनयं कथञ्चिजहाँ पिता नानुनयं कदाचित् ।
यतः पिता पुत्रमनन्यदाशं कस्यापि नाभूदपरुद्धवृत्तम् ||३४||
तत्याजेति — यतः यस्मात् कारणात् कश्चित् रामादिकः युधिष्ठिरादिको वा पुत्रः स्वपितरि विनवं न तत्याज नात्याक्षीत् तथा पिता च स्वपुत्रेषु अनुनयं प्रसादं कदाचित् काले न जहाँ न त्यक्तवान् । तस्मात्
सभी राजपुत्रोंकी काया सुकुमार थी, मुकुट बाँधनेले शिर उन्नत थे, भ्रुकुटियों में ज थी, गलेमें सब ओर गोल रेखाएँ थीं जो गलेमें आलिंगन करती हुई लक्ष्मीके हाथके कंकणके निशानकी रेखाओंके समान लगती थीं ॥ ३१ ॥
वे सबके सब बलवान् थे, पर्वतके पार्श्व के समान विशाल और उभरी छाती थी, खूब पुष्ट अतपव आवृत जानुओं- पर्यन्त लम्बी भुजाएँ थीं । नाभि गहरी थी, पौद बड़े और पुष्ट थे तथा प्रवेश-द्वारके स्तम्भोंके समान विशाल जंघाएँ थीं ॥३२॥
उनके शरीरके, नेत्र, नासिका आदि चौदहों अंग एक सदृश थे, समस्त शास्त्रोंका इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था, अधिकतम गुणोंसे भूषित थे तथा शिष्टता के अतिक्रमणले सदैव डरते थे । अतएव अपने गुणोंके कारण इन्होंने पिताकी गुरुताको भी मात कर दिया था ॥३३॥
पुत्रने रंचमात्र भी चिनयको नहीं छोड़ा था तथा पिताने कभी भी इनपर स्नेहकी
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् कारणात् पितापुत्रं पिसा च पुत्रश्च समाारापेक्षयैकत्वम् । अनन्यदाशं सत् न विद्यतेऽन्यस्मिन् आशा वाच्छा यस्य तत्तथोक्तं सत् अपरुद्धवृत्तं लौकिकव्यवहारनिन्द्याचरणं नाभूत न जातम् ! कस्य ? कस्यापि । कस्याप्यत्र सामान्योक्तौ सत्यामव्ययानामनेकार्थत्वात् । अपिशब्देन परम्पराथों गम्यते । तेनायमर्थः । पितुः पुत्रादपद्धवृत्त नाभूत् पुत्रस्य पितुः सकाशादिति । निश्चयालकारः ॥३४!!
ते द्रोणसंशब्दनमादधानं गुरुं प्रणम्यादित चापविद्याम् ।
राजन्यकं तां विजही विरुद्धां ग्राह्यश्च हेयश्च भवेद् गुरुभ्यः ||३५||
तमिति-तं लोकगसिद्ध गुरुं दारथं प्रणम्य नमस्कृत्य राजन्यक राज्ञः अपत्यानि राजन्याः राजपुत्राः रामादयस्तेषां समूहः राजन्य कत्तं चापविनां धनुर्विद्यामादित गृहीतवान् । कथम्भूतं सत् द्रोणसंशब्दनं मेघभवनिगादधागम् । विरुद्धाञ्च सम्यक् । विद्याविपरीता ता २ अरविन्ध विजही त्यजति स्म । अर्थान्तरन्यासमाह-गुरुभ्यः सकाशात् सम्यग्भूतं वस्तु ग्राह्यमादेयं भवेत् , असम्यग्भूतं हेयवेति ।
भारतीयः-राजन्यकं पाण्डुपुत्रसमूहः चापविद्यामादित स्वीकृतवान् । किं कृत्वा तं लोकप्रसिद्ध गुरुमाचार्य प्रणम्ब | कथम्भूतं द्रोणसंशब्दनं द्रोणसंज्ञामा दधानं द्रोणाचार्यमित्यर्थः । अन्यत्प्राग्वत् ||३५।।
पदप्रयोगे निपुणं विनाये सन्धी विसर्गे च कृतावधानम् ।
सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रमं सच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ॥३६॥
पदेति तत् राजन्यक चापेऽपि चापल्यायचापः धनुरन्यास इत्यर्थः तस्मिन्नपि, व्याकरण शन्दशास्त्रं न मुमोच न मुञ्चति स्म । कीदमां सत् पदप्रयोगे चरणचिन्याले (सुप्तिान्तरूपपदरचनावां) निपुर्ण दक्षम् । पुनः विनामे पत्वणत्वयोः संज्ञायां कृतावधानम् । सन्धी प्रसूतानां वानामेकत्रीकरणे विसर्ग विसृज्यते प्रकटीक्रियते कारकसंश्लिष्टोऽशे येन स विसर्गस्तस्मिंश्च कृतावधानम् | पुनः सर्वेषु शास्त्रेषु सभासकृत्तद्धितादिषु जितश्रम विहिताभ्यासमित्यर्थः । मलेवपक्षे कथम्भूतं राजन्यर्थ पत्नयोग व झारखालीद प्राली दलक्षणोपलक्षितानि पदानि तेषां प्रयोगः स्थापनभेदः तत्र निपुणम् । दिनान नमीकरणे सन्धौ शरसन्धाने विसर्गे शरमोक्षणे कृतावधानम् । सर्वेषु शास्त्रेषु राजीव्यधापत्रच्छेदादिचित्रेषु जितसमिति । अन्न राजन्यकस्य व्याकरणपरिज्ञानपूर्वकत्वेन धनुर्विद्यापरिज्ञानमुपदर्शितम् । श्लेपाल कारः ॥३६॥
उत्प्रेक्षणे लक्ष्यविधौ च दक्ष धर्मे नदीप्य पदु शब्दभेदे ।
निष्णातमुच्चै रचनासु चैतच्चापेऽपि तत्याज न काव्यकर्म ॥३७॥ कमी नहीं की थी । अतएव पिता या पुत्रने कभी भी अपने आचरणकी मर्यादाका लोप नहीं किया था क्योंकि पुत्र तथा पिता दोनों परस्परमें एक दूसरेसे निरपेक्ष थे ।३४॥
मेघ गर्जना के समान गम्भीर ध्वनिसे बोलनेवाले राम आदि राजपुत्रोंने अपने गुरु तथा पिताको प्रणाम करके धनुष विद्याको सीखा था। तथा लोकविरुद्ध कुविद्याओंफो छोड़ दिया था। गुरुजनोंकी साक्षी पूर्वक ही सीखना और छोड़ना उचित होता है।
समीचीन द्रोण नामके धारक गुरुदेव ( द्रोणाचार्य) को प्रणाम करके युधिष्ठिरादि पाँचौ पाण्डवोंने शस्त्र विद्याकी सीखा था | तथा अविद्याओंका त्याग किया था-गुरुसे प्रशस्त प्राय और अप्रशस्त त्याज्य होते हैं ॥३५
पैर जमाने में कुशल, धनुष खींचने, लक्ष्य बाँधने तथा क्षण मोचनेमें अत्यन्त सावधान तथा समस्त शस्त्रोंका अभ्यास करके भी न थकनेवाले बे राजपुत्र धनुष-विद्याके अभ्यासके समय भीव्याकरणका परित्याग नहीं करते थे।
शब्द और धातुरूपोंके प्रयोग, निपुण, पत्थ-णत्वकरण, सन्धि तथा विसर्ग करनेमें न चूकनेवाले तथा समस्त शास्त्रों के परिश्रमपूर्वक अध्येता वैयाकरण भी व्याकरणके अध्ययनके समान चापविद्याको बना देते हैं ॥३६॥
१. कत्वम् । “ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धात्" [जे० ४।३।१३६] अन-प०, द. ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
म
तृतीयः सर्गः
४९
उत्प्रेक्षण इति - एतद्राजन्यकं चापेऽपि धनुरभ्यासेऽपि काव्यकर्म न तत्याज न मुञ्चति स्म । कथम्भूतं राजन्यकम् ? उत्प्रेक्षणे उत्प्रेक्षाऽलङ्कारे लक्ष्यविधौ अर्थनिरूपणायाञ्च दक्षम् । पुनः नदीष्णं प्रवीणम् । क नर्मे अष्टादशस्यलव्यावर्णनलक्षणे अथवा धर्मस्योपलक्षणत्वादर्थं कामयोर्ग्रहणम् । तेनायमर्थः- धर्मे धर्मार्थकामलक्षणे वर्गे । पुनः पटु । क ? शब्दभेदे मातरिश्वेत्येवमादौ । पुनः उच्चै रचनासु सङ्गचक्राङ्गमुरजा दिबन्धेषु निष्णातम् । श्लेषार्थोऽधुना प्रदर्श्यते कीदृशं राजन्यकमुत्प्रेक्षणे दृढमुष्टयोरवलोकने लक्ष्यविधौ च येथे व्यधायाश्च दक्षम् | धर्मे धनुर्गुणे (नदोष्ण) शब्द भेदे शब्द मेत्र लक्ष्यं कृत्वा शरमोक्षणं यत्र विधीयते स खलु शब्दभेदः तस्मिन् पटु । उच्चै रचनासु दण्डस्वस्तिका हितुरगचक्रव्यूहादिषु सैन्यरचनासु निष्णातमिति । अत्र राजन्यकस्य काव्यविद्या पुरस्सरत्वेन धनुर्विद्यापरिज्ञान कौशल्यमुपदर्शितम् ॥३७॥
ज्याघातवित्रासितदिग्गजस्य ।
मण्डीदारास
त्रैलोक्यमालीढपदस्य मध्यमापत्य लीनं तदमंस्त रुष्टम् ||३८||
आमण्डलीति–तत् राजन्यकं कत्तु रुष्टं कुपितं सत् त्रैलोक्यं भुवनत्रयस्त मन्यते सा । कथम्भूतं भि अभावेन परिणतं (इव ) । किं कृत्वा आपत्य आगत्य किं मध्यं अन्तः कस्य संबन्धित्वेन ? आलीदपदस्य आलीढस्थानविशेषस्य । कथम्भूतस्य आमण्डलीभूतशरासनस्य आ समन्तात् मण्डलीभूतं शरासनं धनुर्यस्य ( यस्मिन्) तस्य । पुनः कथम्भूतस्य ज्याघातचित्रा सित दिग्गजत्य ज्याघातेन प्रत्यञ्चाविस्फारणेन वित्रासिता भयं नीता दिग्गजाः भाशाकरिणो येन ( यस्मिन् ) तस्य । उत्प्रेक्षा ||३८||
एवं चूड़ाताड़ितपादं परभूपा भक्त्यै कैकेयेयमुपेयुः शरणं यम् ।
सोऽभीतोऽयं तत्र समन्ताद् भरतोऽभूत्पुत्रः सर्वोपायविधानैर्जितशत्रुः ||३९|| एवमिति एवं 'रामलक्ष्मणशत्रुघ्नोत्पत्तिप्रकारेण सः अयमभीतः निर्भयो भरतो नाम पुत्रः अभूत् 'अजनि । क तत्र दशरथे नृपे । कथम्भूतः ? जितशत्रुः जिताः शत्रवो येन सः । कैः कृत्वा ? सर्वोपायविधानैः सामभेददण्डादिप्रयोगैः 1 कथं समन्तात् सामत्येन । यं कैकेथेयं कैकेयस्य नरपतेरपत्यं स्त्री कैकेयी कैकेय्या अपत्यं पुमान् कैकेयेयः कुमारः तं कैकेयेयं परभूपाः रिपवः शरणमुपेयुरागताः । कस्यै भक्त्यै सेवानिमित्तम् । कथं यथा भवति चूड़ाताड़ितपादं मुकुटाग्रमणिचुम्बितचरणम् ।
धनुष चलाने तथा लक्ष्यके भेदनमें प्रवीण, युद्धके धर्म ( कर्त्तव्य अकर्त्तव्य ) में पारंगत, शब्दभेदी बाण-संचालनमें दक्ष, अहि-तुरग-चक्र आदि व्यूहॉकी रचनायें कुशल राजपुत्रोंने चापविद्या में भी कवित्व ला दिया था ।
उत्प्रेक्षादि अलंकार तथा अर्थप्ररूपण में प्रवीण, धर्म पुरुषार्थ में सफल, शब्दालंकारोंके पण्डित तथा उत्तमसे उत्तम प्रवन्धकी रचना में समर्थ कवि लोग भी काव्य-कर्तृत्वको धनुविद्या समान कर देते हैं ||३७||
वे राजपुत्र धनुषको खींचकर गोल कर देते थे, उनके धनुषकी डोरीकी फटकार से दिग्गज डर जाते थे और बलपूर्वक पैर जमा देनेपर तीनों लोक सिकुड़कर एक जगह समा जाते थे तथा इन्हें रुष्ट समझते थे || ३८ ॥
अन्वय-- पूर्वं तत्र सर्वोपायविधानैर्जितशत्रुः समन्ताद् भरतः अयं पुत्रः अभीतोऽभूत् । चूड़ातादितपादं यं कैकेयेयं परभूपा भक्तयै शरणं उपेयुः ।
इस प्रकार से उन सब भाइयोंमें सामानादि उपायों द्वारा शत्रुओंका विजेता, लघ प्रकारसे कान्तिमान यह भरत नामका पुत्र अभय हुआ था । राजमुकुटोंके ऊपर लात मारने वाले इस कैकेयी के पुत्र की शरण में शत्रु राजा भी भक्तिपूर्वक आते थे ।
१. लेपाऽलङ्कारः - प०, ६० २ रामादिसमस्तसुतानां शिक्षादिक्रमेणेति चिन्त्यम् । ३. मातुलादिपक्षस्य प्रबलता सर्वेषु सुतेष्वधिकसमर्थ इति ।
७
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमद्दाकाव्यम्
भारतीयः - एवं दिवसक्रमेण तत्र पाण्डुनृपे राज्यं कुर्वाणे सति स सर्वः पुत्रः पाण्डवः भरतः तत्परतया कृत्वा जितशत्रुरभूत् । कैः कृत्वा ? अपायविधानैः नीतिशास्त्रीय मार्गविपरीतक्रियाभिः । कथम्भूतः सन् १ अभीतः अभि रामन्तात् इतः प्राप्तः सन् । कमयं भाग्यम् एकैके असहायाः भूत्वा परभूषणः भतया अंगुल्टिखण्डनया कृत्वा यं पाण्डुपुत्रं शरणमुपेयुः आयाताः । कथं यथा चूड़ाताडितपादं किरीटको टिस्थमणिप्रदृष्टचलनं यथा । कथम्भूतं पाण्डुपुत्रमयेयं न यातुं शक्यमजेयमित्यर्थः । कथं समन्तात् सर्वप्रकारेणेति । इलेयः ||३९|| श्रिया विलोलो भरतो न जातः सुतो विनीतः सकलो बभूव । भज्येत राज्यं विनीतपुत्रं घुणाइतं काष्टमित्र क्षणेन ||४०||
५०
श्रियेति-भरतो नाम सुतः पुत्रः लिया मिल का ? कला गणितादिकसहितः । पुनः दिनतः विनयदान् चभूव । हि पुटम् इव यथा दुणाहतं धुणभक्षितं काष्ठं क्षणेन मुहूर्तेन भज्येत भङ्ग मजेत् तथा अविनीतपुत्रं न विनीताः पुत्रा यत्र तत् राज्यं भङ्गं गच्छेत् ।
,
'भारतीय:- संकल: समस्तः सुतः पाण्डुपुत्रः श्रिया लक्ष्या आविल: युतः सन् लोभरतः कृपणो न जातः । तथा " द्रव्यं क्रिया विनयति" इति वचनात् दिनीतः सुशिक्षितः बभूव । अर्थान्तरमुपन्यस्यति । सोपस्वराणि हि वाक्यानि भवन्त्यतः कावयेदं व्याख्यायते । इव यथा दुणाहतं काळं क्षमेन भज्येत तथा ranपुत्रम् अ इव नारायण इव विनीताः सुशिक्षिताः पुत्राः यत्र तदित्थं भूतं राज्यं कथं भङ्ग लमेत अपि तु नैव | यहा "अवयः शैलमेपार्काः" इति वचनात् अदिना मेण नीयत इत्यविनीतोऽग्निस्तद्वत्तेजस्विनः पुत्रा यत्र तत् ॥४०॥
तस्मिन्काले लीलया धार्त्तराष्ट्रास्ते कौरच्या भासमानस्वरूपाः । आलोकान्तकान्तकीर्त्तिप्रताप न्यान्यस्थित्यापारपारा इवास्थुः || ४१ ॥
अन्वय एवं तत्र अपायविधानैः समन्ताद् जितशत्रुः अयं अभिइतः सः सर्वः भरतः अभूत् । धूतादितपादं अयेवं यम् एकैके परभूषाः भक्तया शरणं उपेयुः ।
नीतिशास्त्र के अनुसार प्रयतों द्वारा सब तरफके शत्रुओंसे विजेता, सब प्रकार से सौभाग्यको प्राप्त वे सब पाण्डुपुत्र भरतवंशी ( तथा कान्तिमान ) हुए | उनके पैरों पर राजमुकुट झुकते थे तथा उनपर कोई आक्रमण नहीं कर सकता था। अतएव असहाय शत्रु राजा भक्तिपूर्वक इनकी शरण लेते थे ॥ ३९ ॥
अन्य - विनीतः सकलः श्रियाधिलः सुतः बभूव लोभरतो न जातः । भविनीतपुत्रं राज्यं हि घुणाहतं काष्टमिव क्षणेन भज्येत ।
लमस्त राजपुत्रविगन, विद्यावान तथा लक्ष्मीसे सुशोभित थे। किसी में भी लुब्ध वृत्ति न थी । जिस राजा के पुत्रोंकी उपयुक्त शिक्षा-दीक्षा नहीं होती है वह राज्य घुन से खाये काकी तरह क्षणभर में छूट जाता है ।
अन्वय- भरतः सुतः श्रिया विलोलो न जातः सकला दिनीतः बभूव । अदितिपुत्रं राज्यं हि घुणाहतं काष्टमिव क्षणेन भज्येत ?
भरतवंशी पाण्डुपुत्र लक्ष्मी के अहंकारसे चंबल न हुए थे । वे सब गणित आदि कला से युक्त तथा विनम्र थे। अवि (मेघ) के द्वारा ले जायी जानेवाली ( नीत ) अग्निके समान तेजस्वी पुत्र जिस राज्य में हों क्या वह घुनसे खायी लकड़ी के समान साधारण धक्केसे टूट सकता है ? अर्थात् नहीं ||४०||
१. भारतीय पक्षार्थोऽयम् । जातः वेकवचनम् । भरतवंशोद्भव इति । २. राघवीयपक्षे इति । ३. रघुपुत्रः । १. अर्थान्तरन्यासालङ्कारः - प०, ६० ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयः सर्गः तस्मिन्निति-तस्मिन्काले तारुण्यभरोदयसमये ते लोकप्रसिद्धाः रामादयः कौ पृथिव्यां न्याय्यस्थित्या मृत्वा अपारपारा इव समुद्रा यथा तथा अस्थुः तस्थिवांसः । कीदृशाः लीलया गतिविशेषेण कृत्वा धार्तराष्ट्राः "पशुधान्य हिरण्यसम्पदा राजत इति राष्ट्रम्" [नी० धा० १९१] । घृतं राष्ट्र यैस्ते धृतराष्ट्राः धृतराष्ट्रा एव धार्तराष्ट्राः "स्वार्थेऽण" । पुनः कीदृशाः ? रव्याभासमानस्वरूपाः रविरिव सूर्य इव आभासमानं दीप्यमानं स्वरूपं मूर्तियेषां ते तथोक्ताः । पुनः आलमेकान्तक्रान्तकीर्तिप्रतापाः आलेकान्तं त्रिभुवनमध्यं प्रान्तं व्याप्त याभ्यां तो आलोकान्तान्तौ कोसिएतापी येषां ते ।
अथ भारतीयः-बहिलकाले प्रासोत्तरलतारुण्यभरा पाण्डवाः सुखं सुखेन राज्य कुर्वाणा अस्थुः, तस्मिन्काले ते लोकविल्याताः धाराष्ट्राः धृतराष्ट्रव्यापत्यानि पुमांसः धार्तराष्ट्राः कौरव्याः अपारपारा इव जरूराशय इव न्याययित्या वा अशुः स्थिताः । कीराः भासमानस्वरूपाः दीप्यमानमूर्त्तनः । कया फीलया शोभया । पुनः आलोकान्तान्तकीर्तिपतापाः त्रिभुवनमध्यबान्तयशोविकाराः ॥४॥
सर्वस्तादुर्योधनेनार्जयित्वा दत्वा पित्रे येन सम्पत् फलानाम् ।
पृक्तास्तेन ज्यायसा भ्रातरस्ते जगदुर्लोकालम्बनस्तम्भनतिम् ।।४२॥
सर्वेति-तेन रामेण ज्यावसा गरिष्टन पृक्ताः युक्ताः सन्तः ते पूर्वोक्ता लक्ष्मणादयो प्रातरो बान्धवाः लोकालम्बनस्तम्भमूर्ति मुन्नाक्षादानस्तम्भत्यभाचे जग्मुः गताः। येन रामेण कर्तृभूतेन पित्रे दशरथाय फलानां सम्पत् दत्ता समर्पिता । किं कृत्वा ? पूर्व योधनेन धनुर्युद्धेन करणभूतेन अर्जयित्वा उपाय । कथं भूता सरएत् ? सर्पवादः सर्वेषां स्वपरवंशोनवानां साधुवृत्तीनां स्वादुः सर्वस्वानुः विश्वरसिधोत्यर्थः ।
भारतीय सेन पूर्वोहेन ज्यायसा गरीयसा युधिष्टिरेण पित्रे पाण्डुनरेन्द्राय फलानां सम्पद्दत्ता । किं कृत्वा ? पूर्व दुर्योधनेन गान्धारीपुत्रेण कृत्वा अर्जयित्वा । कथम्मृता सम्पत् ? सर्वस्वा सर्व स्व द्रव्यं यस्यां सा सर्वस्वा अथवा सर्वेष बन्नुजनानां स्या आतीया या सा सर्वस्वति । श्लेषालङ्कारः ||४२||
अन्वय-तस्मिन् काले लीलया धार्तराष्ट्राः, रव्या भासमानस्वरूलाः आलोकान्तमान्तकीर्तिप्रतापाः ते न्याय्यस्थित्या को अपारपारा इथ आस्थुः ।
उसकसी अवस्थामें भी अनायास राष्ट्रके भारको सहनेवाले, सूर्यके समान देदीप्यमान कान्तिधारी तथा सोको अन्त तक व्याप्त यश और प्रतापके स्वामी वे राघच राजपुत्र अपनी नीति-निपुणताकै कारण पृथ्वीपर समुद्र के समान शोभित थे।
अन्वय-तस्मिन्काले भासमानस्वरूपाः आलोकान्तकान्तकीर्तिश्तापा धार्तराष्ट्राः ते कौरच्याः लीलया न्याय्यस्थिरया अपारपाराः इव भास्धुः ।
तेजस्वी पाण्डपुत्रों के समयमै ही कान्तिमान् शरीरधारी, संसार भर में व्याप्त कीर्ति और यशके स्थानी, धृतराष्ट्र के पुत्र वे कौरव भी देवसंयोगसे न्यायोचित मार्गपर चलनेके कारण समुद्र के समान विराजमान थे ॥४१॥
अन्वय--येन योधनेन अर्जविस्वा सर्वस्वादुः फलानाम् सम्पत् पिन्ने दत्ता तेन ज्यायसा पृक्ताः ते भ्रातरः लोकालम्बनमूर्ति ।
__ जिस रामचन्द्र शुद्धके द्वारा अर्जित, सब प्रफारसे प्रिय, लौयिक भोगीकी साधक सम्पत्ति पिताको दी थी। उस बड़े भाई से युक्त उन भरत आदि भाइयोंकी स्थिति संसारके लिए शरणभूत थी।
अन्वय-येन दुर्योधनेन सर्वस्या फलानाम् सम्पत् अजयित्वा पित्रे दत्ता तेन ज्याचसा संपृक्ताः ते भ्रातरः लोकालम्बनस्तम्भमूर्ति जग्मुः ?
जिस दुर्योधन ने समस्त ( पाण्डव तथा कौरवों) फुटुम्बके लिए सुखों को देनेवाली सम्पत्ति अपने अधीन करके पिता धृतराष्ट्रको समर्पित कर दी थी। ऐसे बड़े भाईसे प्रभावित शेष कौरव भाई संसारको सम्हालनेमें सार्थक मर्यादापुरुषपनेको क्या प्राप्त हुए थे ? ॥४२॥
१. पाण्डवानामिति यावत् ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसाधानमहाकाव्यम् इति विनमयन्नुच्चैस्तब्धानतानतिवर्धय
न्स परिणमयन्पृथ्वीं पुत्रैर्वसन्युपहारयन् । सुखमगमयत्कालं हर्ये स्मरन्परमेष्ठिनं
न हि सुतवतां नापासाध्यं धनञ्जयमिच्छताम् ।।४३॥ इति श्री द्विसन्धानकाध्ये कवेर्धनञ्जयत्य कृतौ राघवपाण्डधीये महाकाव्ये
राघव-कौरवोत्पत्तिर्नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ इतीति । स दशरथः पाण्डुश्च सुखं यथा सुखेन कालं समयगगमयत् नीतवान् । किं कुर्वाणः सन्नित्युक्तप्रकारेण पुत्रैः कृत्वा उच्चस्तब्धान् रिपून विनमयन् विशेषेण नमान् विद्धन् तथा तेनैव प्रकारेण नतान् शत्रून् अतिवईयन् वृद्धि प्रापयन् पृथ्वी मेदिनीं परिणमयन् हस्ते कारयन् वसूनि द्रव्याण्युपहारयन्पुष्टिं प्रापयन् । पुनः किं कुर्वन् ? परमेष्टिन' परभपुरुषं स्मरन् स्मरणविषये नयन् , क हर्षे मन्दिरे, अर्थान्तरमाहहि स्फुटं धनञ्जयश्च इच्छतामभिलषतां सुतवतां पुत्रवतां नाम अहो नासाध्यं किमपीति' ।।४३।। इति निस्वविधामण्डनमण्डितमण्डलीडितस्य पट्त चक्रवर्तिनः श्रीमविनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारचातुरीचन्द्रिका. चकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां पदकौमुदीनामदधानायां टीकायां द्विसंधानकवेर्धनञ्जयस्य कृतौ राघवपाण्डवीये महाकाव्ये
राधवकौरवोत्पत्तिवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ पुत्रों के द्वारा अहंकारसे मदोन्मत्त शत्रुओंको झुकाते हुए, शरणागतीको सब प्रकारसे बढ़ाते हुए तथा पृथ्वीको अपने घशमें करते हुए तथा पुत्रों द्वारा सम्पत्ति अर्जित कराते हुए महाराज दशरथ तथा पाषष्टु अपने राजभवनों में अरिहन्तादि पंच परमेष्ठीका ध्यान करके आनन्दसे जीवन बिता रहे थे। धन और जयके इच्छुक पुत्रोंके पिताओंको संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ ४३ ।। निर्दोषविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, षट्तकं चक्रवर्ती, श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाकी चातुर्यचन्द्रिकाके चकोर नेमिचन्द्र-द्वारा विरचित कवि धनञ्जयके राघवपाण्डघीय नामसे ख्यात द्विसंधानकान्यकी पदकौमुवी टीकामें राघव-पाण्डव उत्पत्ति वर्णन
नामका तृतीय सर्ग समास ।
१. परमे सुरनरोरगेन्द्र पूजितपदे तिष्ठत्तीति परमेष्ठी तं परमेष्ठिन-T०, द.। २. अर्थान्तरज्यासालङ्कारः.५०,द।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः
अथ जातु में यौवनोदये सहयाताय मगाम
इति जातरूपेव भूपतेर्जरसाऽगृहात केशवल्लरी ॥ १ ॥
अर्थात- अथ राववादिजन्मानन्तरं भूपतेः नरेन्द्रस्य केशवल्लरी कर्मतापन्ना जरसा वार्द्धक्येन कर्त्तृभूतेनागृह्यत गृहीता । कथम्भूतयेव ? जातमेव जातकोपयेव । कथमिति ? जातु कदाचित् बौवनोदये तारुण्योदयेऽयं दशरथः पाण्डुच सहवासाव एकत्र स्थितये नास्ारत् न त्मरति स्म । कस्य ? गति । उक्षालङ्कारः ॥ १ ॥
प्रथमस्तनयोऽभिषिच्यतामिति सापन्यभयादिवाजपत् ।
पलितं तमुपेत्य कर्णयोर्निजगुप्तिप्रशमो हि वर्द्धिमा ॥ २ ॥
प्रथम इति - पतिं शितशः कर्त्तृतं दशरथं पाण्डुञ्चीत्व समीपमागत्य कर्णयोरपदाचीत् | कथमिति प्रथमस्तनयः रामः सुधिष्टिर कर्मतापनः अभिषिच्यताम् राज्ये स्थास्यतामिति । कस्मादिच ( सापल्यभयादिव ) सपल्या अपत्य सापलः तस्य भावः सापल्यं तस्माद्यद् भवं तत्मात्तथोक्तात् । हि स्फुटं ( निजगुप्तिप्रदामः ) निजावात्मीयों गुमिप्रशगी यस्य स निजगुप्तिप्रशमः तस्य वर्द्धिमा वृद्धभावः जायत इति ॥ २ ॥ विनिरूप्य स दर्पणे जरां निभृतं मौलिमुपोषवीजयन् ।
इति निर्विविजे विशपतिर्विरतिं याति हि संसृतेर्बुधः ॥ ३ ॥
विनिरूपयति — इति श्रक्ष्यमाणापेक्षयास पूर्वधिः विद्यापतिः प्रजापतिः निर्विदिजे निर्वेदं गतवान् | किं कुर्वन् ? मौलिं भस्तकं निभृतं सङ्कचितं यथा 'उपोपवीजयन् विधुन्वन् । किं कृत्वा ? पूर्व दर्पणे आदर्शे जगं पलितं विनिरूष्यावलोक्य | अर्थान्तरमाह – हि स्फुटं संसृतेः संखारादुद्बुधः आत्मदश पुमान् विरतिं चैन्य वातीति ॥ ३ ॥
किमयुक्तमनुष्टितं जनैर्यदपूर्व प्रतिपालयन्त्यमी ।
ननु शुक्तसमैव वेदना सुखनामा विषयेषु भाचिषु ॥ ४ ॥
किमिति – अमी जनाः यदपूर्वमदृष्टं प्रतिपालयन्ति प्रतीक्षन्ते ननु किं तदमुक्तमननुभूतं कर्मतापन्नं जनैः कर्त्तृभिरनुष्ठितमङ्गीकृतम् ? अपि तु भुक्तमेव । नतु च भाविनं वैषयिक भोगं प्रति प्रतीक्षन्ते सङ्कल्पजन्मान्धचञ्चलमनोमा जन्तव इत्याकृतम् । नैष दोषः तु पुनः भाविषु विषयेषु सुखमेव नाम यस्याः सा
इस राजा दशरथ अथवा पाण्डुने अपने यौवनमें कभी भी सहवासके लिए मेरा स्मरण तक नहीं किया था इस प्रकार से कुपित वृद्धावस्थाने राजा के केशोंकी पकड़ लिया था ॥१॥ मानो सौतेले भाइयोंके डर से ही धवलिमाने ( कानकें सफेद बालोंने ) राजा दशरथ अथवा पाण्डुके कान के पास जाकर कहा था कि ज्येष्ठ पुत्रका राज्याभिषेक कर दीजिये । उचित ही है क्योंकि बुढ़ापेके सगे सम्बन्धी गुप्ति और प्रशम ही हैं ॥ २ ॥
दर्पण में बुढ़ापे चिह्नोंको देखकर राजाक मस्तकपर चलियाँ पड़ गयीं थी । ऐसे मस्तक को हिलाते हुए ही भूपतिको परम वैराग्य हो गया था । उचित ही है क्योंकि आत्मदश ज्ञानियोंकों संसारसे वैराग्य होता ही है ॥ ३ ॥
लोकांने संसार में किसका भोग नहीं किया है जो नूतन कमी प्रतीक्षा करते हैं । १. उपोप वाजयन् - प०, ० ।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् सुखनामा, वेदना । विद्यते परिज्ञायते यतः मनोव्यापारणेन्द्रियव्यापाराद्भवं सुखमनया सा वेदनाऽनुभवनमित्यर्थः । भुक्तसमा भुक्तं रमणीस्रक्चन्दनादिविषयलक्षणम् | भुक्तेन समा भुक्तसमा अनुभवनकालीनेत्यर्थः । अत्र तात्पर्थमिदम् । शीतबहुले शिशिरे तृणामिसंयोगसुखानुकारित्वाद्विषयाणामापातरम्यत्वमवसाने वैरस्यमुपदर्शितम् ॥ ४ ॥
त्यजतो न जहाति योऽखिलान्विषयांस्तद्विपयैकमानसः ।
स जहातु दुरन्तभावनामजहबृत्तिमिमां कथं बनः ॥ ५ ॥ त्यजत इति-अखिलान् समस्तान् विपयान् इष्टसाग्वनिता चन्दनादीस्त्यजतः सतः यो जनः न जाति म परित्यजति । कथम्भूतः रान् ? तद्विषवमानसः तेषाम् इन्द्रियाणां विश्यवेकमयाधारणं मानसं यस्य रा: तादृशः सन् दमां दुरन्तभावनाम् दुःलेनान्तः पन्धो क्षेप ते दुरस्ता रागादयत्तेषु या भावना भनःपरिणतिः सा तथोका सामजहबृत्तिमजहती अपरित्यजन्ती वृत्तिः वसनं यस्त्रास्ता स जनः कथं जहातु अपि तु नेति ॥ ५॥
क्षणभङ्गुरमझमशिनां न मता यौवनिका निवर्तते ।
विभयारणमारिचञ्चला निचया मर्मरपत्रसन्निभाः ॥ ६ ॥ क्षणेति-अङ्गिना (प्राणिना) गडं दारीरं क्षणभङ्गुरं क्षणदृाटनम् | गता नष्टा सती यौवनिका तरुणं ययः न निवर्तते न व्यावसते ! विभवाः विभूतयः तृणधारिचयाः तृणजलतरलाः । निचया मायन्मिनकलत्रपुत्रादयः ममरपत्रसन्निभाः शुष्कपत्रसदृशाः सन्ति । अत्र तात्पर्थम् । यथा तीव्रतरवाताहतानि शुष्कपत्राणि यदृच्छया कापि कापि यान्ति तथा भित्रकलत्रादयो पीति ॥ ६ ॥
द्विपि मित्रमति हितप्रिये रिपुबुद्धि जनयन्ति जन्तवः ।
विपरीततया तनूभृतायिह तत्रापि दवीयसी पतिः ॥ ७ ॥ द्विषीति-द्विषि अनन्तसंसारभ्रमणहेतुत्थात् कलत्रादौ शत्रौ मिनमतिं सहायबुद्धिः हितप्रिये भवभवोद्भवानवरतानन्तदुःखपरम्परा विनाशहेतुत्वादनन्तानन्तनित्यसुखविधातृत्वादात्मकार्ये धर्मलक्षणे रिपुबुद्धि प्रतिकूलमति जन्तवः प्राणिनः जनयन्ति कुर्वन्ति । कया कृत्वा ? विपरीततया कमनीयकामिन्यादिबाह्यवस्तुनि परकीये आत्मीया बुद्धिः, आत्मस्वभावोपलब्धिनिमित्ते श्रेयसि आत्मीये परकीया बुद्धिश्चेति परिमाणविपर्ययेण कृत्वा । अर्थान्तरन्यासमाह-तनूभृतां शरीरवतामिह लोके अपि शब्दप्रयोगात् परलोके च तत्र मित्रशत्रुपरिशाने दवीयसी दूरसरा मतिर्बुद्धिरित्यर्थः ।। ७ ।। भविष्यत्के विषय भोगोंमें भी सुख नामले ख्यात वैसा ही अनुभव होगा जैसा कि मुक्त भोगों में था ॥४॥
___ संसारके विषयों में लुब्धचित्त जो व्यक्ति बिछुड़नेवाले समस्त भोगोपभोगोंको नहीं छोड़ता है वह व्यक्ति स्थिर स्वभाव रूपको प्राप्त भोगोंकी अभिलाषाको कैसे छोड़ेगा? क्योंकि भावना तो बड़े परिश्रमसे छूटती है॥५॥
देहधारियोंकी देह ही देखते-देखते क्षणभरमें नष्ट हो जाती है। यौवन बीत जानेपर फिर वापस नहीं आता है । घासकी नोकपर जमी ओसकी बूंदके समान सम्पत्ति चंचल
और रमणीय है और पुत्र, कलत्र, शादि सगे सम्बन्धी सूखे पत्तोंके ढेरके समान एक झोयोमें बिछुड़ जानेवाले हैं। ६॥
संसारी प्राणी संसारके कारण अतएव शत्रुभूत भोगादिमें मित्रकी कल्पना करता है और कल्याणकारी अतपय प्रिय संयमादिको दुःख (शत्रु) मानता है। इस प्रकार विपरीत बुद्धि होनेके कारण देहधारीसे इस लोक अथवा परलोकमें भी सन्मति दूर ही रहती है ॥ ७॥
१. उपमालकार:-प०, द.। २. अर्थान्तरन्यासालङ्कार:-५०.द.।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः क नृपो भरतोऽमरार्चितो भुवनं येन बभूव भारतम् ।
क्षणिकाः सकलाः समागमाः कृतमेकं हि विवर्तते परम् ।। ८॥ कोति—येन भरतेन आदिनाथपुत्रेण भुवनं भारतं बभूव जातम् । स भरतः नृपः नरेन्द्रः अमरार्चितः देवपूजितः सन् छ ? अत्रास्थिरत्वं भवभाजां सूचितम् । यथा सकलाः समस्ताः समागमाः बन्धुमित्रादयः अणिकाः जलबुद्बुदसदृशाः । एवञ्च सति हि स्फुट कृतं विहितं परं केवलमेकं धो(में) विवर्त्तते परिणमति प्राणिनामिति ।। ८॥
हिममुष्णाहतस्य यत्सुखं शिशिराभ्यर्दितचेतसोऽनलः ।
क्षणदुःखनिषेधकारण न सुखं नित्यमुशन्ति योगिनः ॥ ९ ॥ हिममिति – यत् यस्मात्कारणाहुणहतस्य धर्मततस्य हिमं सुखं जायते तथा शिक्षा दिनमः तुहिनकदर्थितचित्तस्यानलः ज्वलनः सुखं भवितुमर्हति । तस्मात्कारणात् अणदुःखनिषेधकारणं मुहूर्त्तदुःखनिरासनिमित्तमिन्द्रियव्यापारोत्पन्नं सुखं न नित्यमुशन्ति मन्यन्ते योगिन इति ।। ९ ।।
यद पायि पयः सुतेन यद्विसुताभिः ससृजेऽश्रु मातृभिः ।
मधुरं लवणश्च किं द्वयं न पयः क्षारपयोधितोऽधिकम् ॥१०॥ यदिति--सामान्योत्तया व्याख्यायते यत् पयः क्षीरं कर्मतापन्नं सुतेन पुगापायि पीतं यदश्रु वायजलं मातृभिः ससृजे विसृष्टम् । रुथम्भूताभिः १ विसुताभिः पुत्ररहिताभिः। तन्मधुरं लवणं च किं द्वयं किं नाधिकमपि तु अधिकनेत्र, काभ्यां पयःक्षारपयोधितः क्षीरक्षारसमुद्राभ्याम् । अत्र मोहमाहात्म्यं प्रदर्शितम् ॥१०॥
रिगणय्य तदेवमंहसो विरिरंसन्नभिषेक्त मग्रिपम् ।
इति तं व्यनयत्सुतं सतामृणनिश्चित्ततया स्वनिवृतिः ॥११॥ विगणय्येति-इति वक्ष्यमाणापेक्षया तं पूर्वोक्तं सुतमग्रिमं रामं युधिष्ठिरञ्च दशरथः पाण्डुश्च व्यनयत् शासितवान् । किं कत्तुम् ? अभिषेक्तं राज्यपट्टाभिषेक कर्तुंम् । किं कुर्वन् ? विरिरतन् विरामं विधातुमिच्छन् । कस्मात् ? अंहसः । किं कृत्वा ! पूर्वमेवमुक्तप्रकारेण तसंसारवृत्तं विगणय्य हेयरूपतया विचार्य । अर्थान्तरमाइ । सतां सत्पुरुषाणां स्वनित्तिः सुखं स्यात् । कया ? ऋणनिश्चिततया ऋणात् निष्क्रान्तं चित्तं यत्य स ऋणनिश्चित्तः तस्य भावस्तया ||११||
युगबद्धमिमं भरं भुवस्त्वमिहैको नृपपुङ्गवः परम् । धवलो वहसे ततोऽधुना न ममाज्ञायवमन्तुमर्हसि ॥१२॥
जिसके नामपर इस देशका नाम भारत एका वह देघौले पूज्य, आदिनाथका पुत्र राजा भरत कहाँ है ? संसारके सलस्त सम्बन्ध तथा पदार्थ क्षणिक है। केवल अपना कर्म ही शेष रहता है॥ ८॥
गर्मीसे सतायेके लिए शीत सुखकर है। शीतसे पथराये व्यक्ति के लिए अग्नि ही सुखद है अतएव एक क्षणभरके दुखके निषेधके कारण सुखको योगी लोग नित्य नहीं मानते हैं ।।९॥
पुत्रके द्वारा माताके रतनसे जो दूध पिया जाता है तथा निपूती माताओंके द्वारा जो आँसू बहाये जाते हैं क्या ये दोनों ही क्रमशः मीठे और क्षार हैं ? वे क्षीरसागर तथा लघणसागरसे बड़े तो नहीं ही हैं! (तथापि संसारी प्राणी इन्हें ही सबसे बड़ा सुख और दुःख मानता है) ॥१०॥
इस प्रकार भाधना करके राजा दशरथ अथवा पाण्डने पापसे वैराग्य लेने के लिए ज्येष्ठ पुत्र राम अथवा युधिष्ठिरको निम्न प्रकारसे उपदेश दिया था। सजनोंको दायित्वोंसे उऋण होनेपर ही आत्मशान्ति सुद्दाती है ॥११॥
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धान महाकाव्यम्
युगेति — यस्मात्कारणात् इह लोके परं केवलं भुवः पृथिव्या इमं प्रत्यक्षीभूतं भरं भारं युगबद्धमेको सहायः नृपपुङ्गवो नरेन्द्राग्रणी ः भारवहनक्षमः धवलः सन् बहसे । ततस्तस्मात् | अधुनेदानीं ममाशामादेशमवमन्तुमवज्ञातुं नार्हसि न योग्यो भवसीति ॥१२॥
५६
विजयाय जय स्वमादितो निजकर्म प्रकृति ततो रिपुम् । गमिनः परलोकसाधनं तथ मेऽपि स्थितिरीदृशी मता ॥ १३ ॥
विजयायेति - आदितः प्रथमतो विजयाय जयनिमित्तं स्वभात्मानं जय प्रशमय । ततः पश्चानिजकर्म दिवसरा त्रिविभागक्रियाम् । ततः प्रकृतिममात्यससकम् । तो रिपुं कामादिषट्कम् इत्येतसर्वे जयेति क्रियाया कर्म बोद्धव्यम् । ईदृशी स्थितिर्मता परलोकसाधनं शत्रुलोकसाधनं स्यात् । कस्य ? तव । कथम्भूतस्य तब ? गमिनो गन्तुमिच्छतः । तथाऽऽदितः विजयाय स्वभात्मानं जयामि । ततो निजकर्मप्रकृतिमात्मीय कर्मस्वभावम् । ततो रिपुं मोहनीय कर्मेत्येवमीदृशी स्थितिर्मता परलोकसाधनम् । कस्य ! मे ममापि । कथम्भूतस्य मम ? गमिनः गन्तुमुद्यतस्येति ॥१३॥
विहिताखिलसच्चरक्षणं धृतसत्यस्थिति वीतमत्सरम् ।
त्वमितोऽमिवाभमैक नागसिधाराव्रतधर्ममाचर ॥ १४ ॥
विहितेति -- इतोऽद्य प्रभृति दे पुत्र अभयैकवागभयैकवचनः सन् त्वमसिधाराव्रतधर्ममाचर । असिधारैव व्रतं यस्मिन्सोऽसिधाराव्रतः, स चासौ धर्मश्व तमसिधारातधर्मे वीरवतमित्यर्थः । कीदृशं विहिताऽखित्टसच्चरक्षणं कृतसंकल्पाणिपालनम् । कथं यथा भवति धृतसत्यस्थिति धृता सत्येन स्थितिर्यत्र आचरणकर्मणि तद्यथा भवति धृतसत्यस्थिति घृतसत्यगुणावस्थमित्यर्थः । पुनरपि कथम्भूतम् ? वीतमत्सरं विशेषेण इतः प्राप्तः मत्सरोऽहङ्कारो येन स तं विशेषणमासा- हमहमिकम् । न हि मत्सरमन्तरेण वीरमतं सभ्भवतीति वचनात् । उपमार्थः प्रदर्श्यते । अहमिव यथाऽहमभयैकवाक् आचरिष्यामि । किमसिधाराव्रतधर्मम् । व्रतं सर्वदर्शनसंमतं ब्रह्मचर्यम् । धर्मो जीवदया । व्रतञ्च धर्मदच व्रतधर्मम् । अत्र समाहारापेक्षयैकवचनम् । असिधारेव व्रतधर्ममसि धारावतधर्मम् अत्र धर्त्तुं कर्त्तुं मल्पसौरशक्यत्वात् व्रतधर्मयोरतएव तौ खङ्गधारयोपमीयेते । कथम्भूतं तत् विहिताखिलसत्यरक्षणम् । सत्वा एकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्ता: जन्तवः अखित्यश्च ते सच्चाश्च अखिल सवाः विहितमखिलसत्त्वेषु, रक्षणं यस्मिन् तत्तथोक्तम् । पुनः धृतसत्यस्थिति । धृता सत्येऽनलीकवचने स्थितिर्यस्मिन् तत् । कथम्भूतं पुनः वीतमत्सरं विशेषेण इतः गतः मत्सरः आत्ममन्यता यत्र तथोक्तम् । विनष्टात्ममन्यत - मित्यर्थः । श्लेषोपमा || १४ ||
युगोंसे चले आये पृथ्वीके राज्यके इस दायित्वको अब तुम अकेले ही इस संसार में प्रशान्त रूपसे धारण करोगे और अष्ठ राजा बनोगे अतएव इस समय तुम्हें मेरी आज्ञाकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये ॥ १२॥
शत्रुओं को वश में करनेके लिए जाने वाले तुम और परलोककी सिद्धिके लिए गृहत्यागी मेरे लिए भी ऐसी परिस्थिति है कि विजयके लिए सबसे पहिले अपनेको संयमित करो, तब अपनी दिनचर्याको व्यवस्थित करो, इसके बाद मंत्री आदि जनताका विश्वास प्राप्त करो। तब शत्रुओंको जीतो [ मुनिको भी आत्मविजय, कर्मोंकी प्रकृतियोंको जीतने के बाद ही रिपु मोहनीयपर विजय प्राप्त होती है ] ॥ १३॥
मेरे समान तुम भी समस्त प्राणियोंकी सुरक्षाकी व्यवस्था करके आदर्श मर्यादाओं का पालन करते हुए, विशिष्ट मात्मगौरवको भावनाके साथ अभयका एकमात्र नारा देते हुए आज से ही खड्ग धारण व्रतके कर्त्तव्योंका पालन करो। मैं भी तुम्हारे समान षट्कायके जीवोंकी रक्षा करता हुआ सत्य महाव्रतको पालूँगा । ईर्ष्या द्वेषको छोड़कर सबको अभयदान दूँगा और असिधारात ( ब्रह्मचर्य ) का तथा क्षमादि धर्मोका पालन करूँगा ||१४||
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः विविधानि वसूनि वाहनं बहुदेशो दिशतीति वर्णितः ।
स यथोक्तिपिपामुपप्लवैर्न विहास्यत्यभिरक्ष्यतां तथा ॥१५॥ विविधानीति-विविधानि नानाप्रकाराणि वसूनि द्रव्याणि वाहनश्च मत्तमातङ्गतुरङ्गमं कर्मतया परिणतं सर्वे बहु दिशति ददातीति निरुत्त्या देशो वर्णितः कथितः । यथा इमामुक्ति निर्वचनं स देशः न अधिहास्यति न त्यक्ष्यति । कैः कृत्वा ? उपप्लवैरुपद्रवैः कृत्वा । तथा हे पुत्र ! त्वया रक्ष्यतामिति । स्वरूपात्यानम् ॥ १५ ॥
उपसान्त्वय कृत्यमात्मनस्तमस्थ मयवृद्धिमृद्धिभिः।
उभयं परकीयमात्मसात् कुरु नीतेः प्रथमोऽयमुद्यमः ॥१६॥ उपेति-उपसान्त्वय प्रशमय त्वम् । कम् ? कृत्यम् । परैः कर्तुं मात्मनः शक्यः अथवा परैः कत्ति चुं शक्यः कृत्यः तं कृत्यं भेद्यम् | कस्य ? आत्मनः । तथा ऋद्धिभिः कृत्वा वृद्धि नय प्रापय ल्यम् । कम् ? लोकविख्यातम् अकृत्यमभेद्यम् । कस्यात्मनः । तथा उभयं कृत्याकृत्यं परकीय शात्रचीयं कुरु विधेहि काथमात्मसादात्मायत्तम् । इति नीते: अयं प्रथमः आद्य उद्यमः इति । स्वभावाख्यानम् ॥ १६ ।।
विधिना खलु दीयतेऽखिलं न नृपो दत्त इति स मा भवत् ।
विधिरे सतां यमोऽसतामिति भूयाजनतासु ते कथा ॥१७॥ ॐ विधिनेति-स्म मा भवत् । मा स्म भक्त् भवान् । कथमिति ? विधिना दैवेन खलु निश्चयेन दीयते अखिल वस्तुजातम् । न दत्ते न ददाति नृपो राजा इति । तथा हे पुत्र ते तव इति इत्थम्भूता कथा स्वभावा
सागं जनतासु लोकसमूहेषु विषये भूयात्स्यात् । कथमिति एष सतां महतां पुंसां विधि दैवं तथा एष असताममें वृत्तिकारणं यमः यमस्येव कार्यक्रत्तृत्वात् यमो मृत्युरिति । स्वभावाख्यानम् ॥ १७ ॥
वसुनोपचितेन सम्भवेदिह धर्मेण परत्र तु त्रयम् ।
उभयत्र न तन्मनोभुवा भुवि येन त्रयमत्र तरिक्रयाः ॥१८॥ वसुनेति--इह लोके वसुना अर्थेन उपचितेन पुष्टिं नीतेन अयं धर्मार्थकामलक्षणं सम्भवेत् समुत्पद्यते ! तु पुनः परत्र परलोके धर्मेणोपचितेन त्रयं सम्भवेत् । उभयत्र इह लोके परलोके च मनोभुवा कामेनोपचितेन तस्वयं च सम्भवेत् । भुवि पृथिव्यां हे पुत्र येन तेषां मध्ये येनाचरितेन अत्र इह लोके परलोके च त्रयं स्यात्तनियाः कुरु त्वम् ।। १८ ॥
नाना प्रकारको सम्पत्ति तथा अनेक अश्वादि वाहनोंको प्रचुर मात्रामें जो दे उसे वेश कहते है। उपद्रवों और संकटोंके कारण यह देश जिस प्रकार इस व्याख्याको न छोड़े उस प्रकारसे ही इसका राज्य करना ॥१५॥
. अपने छिद्रों अथवा शत्रुके आघातोंको शान्त कर दो तथा विभवके द्वारा अपने पक्ष, दुर्ग, आदि अथवा शत्रुपर किये प्रबल पहारोंको सुपुष्ट करो! तथा शत्रुकी दुर्बलताओं और समर्थकोंको अपने वशमें करो, नीतिशास्त्रका यही प्रथम पाठ है ॥१६॥
अपने-अपने भाग्यसे सबको सब कुल मिलता है अतएव हे पुत्र ! 'राजा नहीं देता है। है ऐसा तुम्हारा अपवाद न हो । 'यह राजा सजनौंका विधाता है और दुर्जनौका काल है' यही
जनतामें तुम्हारे विषयमें कहा जाय ॥१७॥
. इस लोकमें पर्याप्त सम्पत्ति संकलित करनेसे धर्म-अर्थ-काम संभव हो सकेंगे। यहाँ धर्म संचय करनेसे परलोक में तीनों वर्ग निभ जायेंगे। काम पुरुषार्थके द्वारा दोनों लोकों में सबका विद्यात होगा अतएव वहीं करना जिससे दोनों लोकोंमें तीनो पुरुषााँका साधन हो सके ॥१८॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अभिवृद्धिमिलि विविध भैरव जनः शिणैः ।
समुदेति हि सस्यमातपेन तरुच्छायहतं विवर्धते ||१९|| अभीति—यत्मात्कारणात् विप्रियः दण्डादिभिः कृत्वा धरमभिवृद्धिामियति गच्छति । ततः कारणात् प्रियः सामादिभिः कृत्वा वैरं नव प्रापय त्वं प्रशमम् | हि स्फुटम् आत्तपे उणे सस्यं धान्यं समुदेति वृद्धिमावाति । तरच्छायहतं तरुश्च छाया च तच्छायं तेन हतं तरुच्छायहतं सत् न विद्यते गश्यतीत्यर्थः । अत्र साभप्रयोगमाहात्म्यं प्रदर्शितम् 1 उक्तञ्च
-- . "सामग्रेमपरं वाक्यं दान वित्तस्य चाणम् ।
भेदो रिपुजनाकृष्टिः दण्डः श्रीमाणसंहतिः ॥ १९॥" न निलो न परोऽस्ति कस्यचिद्गुणतः स्वः परयांश्च जायते !
तदिदं सफल सुवस्सलं प्रणयेनानुवर्श त्वमानय ॥२०॥ नेति-सोपस्कराणि वाक्यानि भवन्ति । अतः कस्यचित्राणिनो निजी नास्ति न परः । यस्मात्स्वः आत्मीयः सन् परवान् परकीयो जायते । करमात् गुणतः । षड् गुणात् सन्धिविग्रहयानासनद्वैधीभावसंश्रयरूपात् तत् तस्मात्कारणात् इदं सकतं समरतं भुवस्तकं पृथ्वीतलं प्रणयेन प्रेमपरवाक्येन कृत्या अनुवशमात्मवशमानय लम् । अत्र सागमाहात्म्यमुपदर्शितम् । स्वभावाख्यानम् ।। २० ॥
इदमित्यनुशिष्य मेदिनीमुपलभ्यां प्रथमेन मनुना।
विदधे विरिरंसुरेनसो गृहमेधी हि सुतावधिर्मतः ॥२१॥ इदमिति इत्युक्तप्रकारेण इदं पूर्वोक्तमनुशिष्य' शिक्षयित्वा स दशरथः पाण्डुश्च प्रथमेन सूनुना ज्येष्ठेन पुत्रेण रामेण युधिष्ठिरेण च उपलभ्यां प्राप्या मेदिनी पृथिवीं विदधे कृतवान् । कीदृशः ! विरिरंसुः निवर्तितुमनाः । कस्मात् ? एनसः पापात् । हि स्फुटं गृहे मेघाऽस्यास्तीति गृोधी गृहस्थः सुतावधिः सुतोऽवधिः यस्य स सुतावधिर्मत इष्टः । अत्र तात्पर्य पुत्रमुखमवलोक्य आत्मश्रेयसे यतते गृहमेधी । अर्थान्तरन्यासः ॥ २१ ॥
पणवाः प्रणिनेदुराहता ननृतुरिविलासिनीजनाः ।
नटगाथकस्तरनवः पटकः पेठुरुपेत्य मङ्गलम् ।।२२॥ पणवा इति-पणवाः पठहा आहताः ताडिताः सन्तः प्रणिनेदुः भवनितवन्तः। बारविलासिनीजनाः वेश्याः ननृतुः नटन्ति स्म । किं कृत्वा ? उपेत्यागत्य । तथा पटवः पटिष्टाः सन्तः नटगाथकसूतसूनवः
विरुद्ध कार्य दण्डादिके द्वारा बैर बढ़ता है अतएव उसे प्रिय कमौके द्वारा शान्त कर देना चाहिये । धान्य सूर्यके आतपमें खूव बढ़ता है किन्तु वृक्षकी छायाके द्वारा दव जानेपर उसमें अंकुर ही नहीं फूटते हैं ॥१९॥
यहाँ न तो कोई अपना है और न कोई पराया है। गुणों (संधि-विग्रह-यानादि) के द्वारा ही राजाओंके अपने और विराने बनते हैं। इसलिए तुम इस समस्त पृथ्वीको प्रेमके द्वारा अपने वशमें कर लो ॥२०॥
इस प्रकार शिक्षा देकर भारम्भ परिग्रहसे विरक्त राजाने राज्य-भारको ज्येष्ठ पुत्रके भोग्य कर दिया था। क्योंकि आदर्श व्यक्ति तब तक ही गृहस्थ रहते हैं जबतक पुत्र समर्थ न हो जाय ॥२१॥ __मंगलके लिए वजाये गये पटह आदि बाजे जोरसे बजने लगे थे। बेश्याओंके झुंडके
१. -रच्छायम् । अत्र “या तरमृगादि" [जै० सू० ॥४॥८८ ] सूत्रेणैकवद्भावः-५०, द० । २. अर्थान्तरन्यासालङ्कारः-५०, द.। ३. अनुशिष्य द०।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
नटा नर्तनाचार्याः गाथकाः गायकाचार्याः रताः भागधारतेषां मूनवः पुनारी गङ्गा पेटुः पठितवन्तः । समुज्वधः ॥२२॥
स पताकमुदात्तनायकं कृतनानारसभावविभ्रमम् ।
प्रतिरनिविष्टपात्रकं नगरं नाट्यमिवाद्यतत्तराम् ।।२३॥ मपतायोति-नगर पत्तनमयुतत्तरराम् (अतिशयेन) शुशुभे । कीदृशं सत् ? सपताच सध्वजम् । उदात्तनायक माच्छाधिपम् । पुनः कामानारसमावदिसमम् रमाः शृङ्गारादयः मासाश्चेतोविकाराः निभ्रमाः सुटिलभ्रभङ्गतयाऽद्धांवलोकनानि कृता नाना बहुविधा रसभावविभ्रमा यत्र तत्तथोचम् । प्रतिरकनिविष्टपात्रक प्रतिप्राङ्गणन्यापितमङ्गलसद्रव्यपरिपूर्णस्थालकम् । किमित्र ? नाथ्य मिय । कथंभूतं नाट्यम् ? सपताकं राहोरिक्षसांगुलिपिन्यारोग वर्तमानहन्ता । उदात्तनायक सत्यागवनायकम् । प्रतिरकनिचिटपात्रक प्रतिन्द्रत्यत्थानप्रविष्टनर्त्तस्यादि ॥ २३ ॥
श्रवणपु मृदङ्गानिस्वनाजनतोवाच पास्परं वचः ।
ललनाश्च कपालघट्टनानिरविक्षन्विनिमीलितेक्षणम् ॥ २४ ।। अवविति--श्रवण कणेषु जानता अनसम्हः परस्परगन्योन्यं वचः वचनमुवाच उपवती । कस्मात् मृदन गिलनात् मृदाशव गात् । रानाः काशिन्यः निरविक्षन निर्गतवत्यः चयरिंगा समुच्चयोग्रगम्यते । तेनायमर्थः प्रविशन्ति रम चैत्यर्थः । कथं यथा भवति विनिमीहितक्षणं संकुचितलोचनं कस्मात्कपोलघट्टनादिति सम्बन्धः । समुच्चयालंकृतिः ।। २४ ||
भुवि पुष्पमपूरि गुल्फकं पटवासोऽपि वितस्तरे दिशः ।
वियतोऽपि तलं वितेनिरे पुरि कालागुरुषमयष्टयः ।। २५ ।। अदीति-मुवि दिव्यां पुरुषं कुसुर क अपरि परयति स्म । किम् ? गुःफलं पादयुटिका । दिशः आशाः 'कर्म' पटवासोऽपि 'का' वितस्तरे प्रच्छादयति स्म ? | छपुरि नगांम् । वियत्ता-पि तलं 'कर्म' वालागुरुधूमयष्टयः कालेयकगश्रेणयः वितेनिरे विस्तारयन्ति स्म ॥ २५ ॥
अधिरुह्य जनेन पश्यता गृहचैत्यद्रुमशालगोपुरम् ।
परितोऽनवकाश कारणानगरीयोपरि तस्थुपी पुरः ॥ २६ ।। झुंड गजमहलपर आकर नाच रहे थे। नृत्योंके आचार्य नट, गायनाचार्य तथा अभिनयाचायकि कुशल वंशधर आकर मंगलपाट कर रहे थे ॥२२॥ ___अय:ध्या अथवा हस्तिनापुर नगर नाटक के सरान अत्यन्त सुशोभित हो उठा था क्योंकि पताकाएँ फहरा रहीं थी, राजा महान् था, विविध रसों, भावनाओं और वेश. भूपाऑकी बाढ़ आ गयी थी तथा प्रत्येक आँगनमें मंगलपात्र रखे हुए थे। [ नाटक भी पताका (गलाचरणा) से प्रारम्भ होता है, नायक धीरोदात्त होता है, शृङ्गारादि ग्स, स्थावी, व्यभिचारी शादि भायोंकी भरमार रहती है, तथा अभिनेता सजागृह में इकट्टे होते हैं ] ॥२३॥
नगाड़ीके नादके कारण नागरिक एक दूसरके कान में बातें करते थे । भीड़ तथा कानमें बात कही कारण नागरिक सुवतियो भी परस्परमें गाला रगड़ जाते थे। फलतः वे आँखें झपाये हुप ही भीतर-बाहर आ-जा रही थीं ॥२४॥
___ नगरीमै विटप-कुजाने पृथ्वीपर फूलोंको विछा दिया था। पटवानों के कारण समस्त दिशाएँ व्याप्त हो गयी थीं। तथा घर-घरमें ज्वलित कालागुरु धूमके धूके द्वारा आकाशतलमें भी चँदोवा-सा बँधा लगता था ||२५||
१. भट्टाचार्याः प०, ८० । २. इलेपालङ्कारः ५०, द० । ३. समुच्चयाजकारः ५०, द०।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् __ अधिरोति-अनवकाशकारणात् पुरः नगर्या उपरि नगरी तस्थुषीव स्थितक्तीव । अत्र बभूवेति क्रियाऽध्याहार्या । केन ? पश्यताऽवलोकमानेन जनेन । किं कृत्वा ? पूर्व परितः सामस्त्येन अधिरुख । किम् ? गृहचैत्यद्रुमशालगोपुरं मन्दिरदेवकुलवृक्षप्राकारतोरणद्वारम् । अत्र समाहारापेक्षयैकत्वम् ॥ २६ ॥
अभिषेकजलप्लवेन सा वसुधा दीर्घमुदश्वसीत्तदा ।
नवसङ्गमधर्मवारिणा स्नपिताङ्गाभिनवा वधरिव ॥ २७ ॥ अभिषेकेति तदा तस्मिन् काले अभिषेकजलाप्लवेन राज्यपदाभिषेकवारिणा कृत्वा सा बसुधा पृथ्वी दी बहुतरकालम् उदश्वसीदुच्छ्वसितक्ती । केव अभिनवा संभवयौवनभरा वधूरिव । कथम्भूता सती ? नवसङ्गमधर्मवारिणा नूतनसंयोगस्वेदजलेन स्नापिताङ्गाऽभिषिक्तशरीरा' ।। २७ ।।
कमला च दलान्तरस्वजलविन्दज्ज्वललम्बमौक्तिकम् ।
कमलातपवारणं तदा शशिशुभ्रं बिभरांबभूव तत ॥ २८ ।। कमलेति-तदा तस्मिन् काले कमला लक्ष्मीः कमलातपवारणं कमलच्छनं बिभराम्बभूव धृतवती । कीदृशं दलान्तरस्रवजलबिन्दूज्ज्वलटलम्बमौक्तिकम् । दलान्तरेभ्यः पत्रान्तरालेभ्यः सवन्तश्च ते जलबिन्दवश्चेति दलान्तरखवज्जलबिन्दवः तद्वदुज्ज्वलानि लम्बानि मौक्तिकानि यस्य तत् । पुनः शशिशुभ्रमिन्दुधवलम् ||२८||
हरिविष्टरमध्यमास्थितः प्रचलचामरचारुसंहतिः ।
स जिगाय समुद्रवीचिभिः खलु वेलाचलयाहतं युवा ।। २९ ॥ हरीति–स युवा रामः युधिष्ठिरश्च खलु निश्चयेन समुद्रवीचिभिः जलधिकल्लोलैराहतं ताडित वेलाचलं जिगाय जितवान् । कथम्भूतः सन् ? हरिविष्टरमध्यं सिंहासनमध्यमास्थितः उपविष्टः । पुनः प्रचलनासरनारसंहतिः प्रचलन्ती चामराणाश्चा: मनोज्ञा संहतिः श्रेणी यस्यासौ ॥ २९ ।।
उपकर्ण्य तथा नरेश्वरं पितरि प्रागपि कोपधूमिते ।
हृदये द्विषतां समुत्थितः प्रलयज्वाल इवानलोऽधिकः ।। ३० ।। उपकायेति-द्विषतां शत्रूणां सम्बन्धित्वेन तथा तेनैव प्रकारेण हृदयेऽधिकः प्रचुरोऽनलोऽग्निः समु. स्थितः उत्पन्नः । क इव ? प्रलयज्वाल इव प्रल्यानल इव | किं कृत्वा ? पूर्व नरेश्वरं रामं युधिष्ठिरञ्चोपकर्ण्य
भवन, देवालय, वृक्ष, प्राकार तथा तोरण-द्वारके ऊपर चढ़कर जब लोग चारों ओर दृष्टि डालते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि स्थानकी कमीके कारण नगरीके ऊपर दूसरी नगरी-सी बस गयी है ॥२६॥
राज्याभिषेकके जलके प्रवाहके द्वारा वह कोशल अथवा कुरुक्षेत्रकी भूमि उस समय हर्षके रोमाञ्च और पसीनेसे अभिभूत होकर नूतन वधूके सामान लगती थी । क्योंकि प्रथम संयोनाये पसीनेसे वह भी लथपथ रहती है ॥२७॥
लक्ष्मी स्वयमेव चन्द्रमाके समान श्वेत कमलके छत्रको लेकर खड़ी हुई थी। जिसकी पंखुड़ियोंके बीचसे टपकती हुई पानीकी बूंदें ही लटकते हुए मोतियोंकी छटाको प्राप्त हो रही थीं ॥२८॥
सिंहासनके मध्य में विराजमान और दुरते हुए चमरोंकी पंक्तिसे शोभायमान उस युवक राम अथवा युधिष्ठिर राजाने समुद्र की लहरोंसे ताडित तीरस्थ पर्वतोंको ही जीत लिया था ॥२१॥
पूर्वोक्त प्रकारसे राम अथवा युधिष्ठिरके राज्याभिषेकको सुनकर इनके पिता दशरथ १. उत्प्रेक्षालङ्कारः ६०, द.। २. उपमालङ्कारः १०, द० । ३. स्वभावाख्यानम्-५०, दुः।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः
| कथम्भूते हृदये प्रागपि पूर्वमपि कोपधूमिते । क्व पितरि दशरथे पाण्डुनृपे च । अत्र तास रामस्य युधिष्ठिरस्य च राज्यपट्टाभिषेकं श्रुत्वा द्विषतां हृदयानि "क यामः किं कुर्मः" इति चिन्ता भरनिर्भराणि बभूवुः । उपमालङ्कारः || ३० ॥
स नवाजिषु लब्धविक्रमः कृतरूडिर्न गजेषु दन्तिषु ।
निजघान तथापि विद्विषं सहसा पत्तिचयेन वर्जितः ||३१||
स इति - वाजिन्वश्वेषु न लब्धविक्रमः गजेषु दन्तिषु । दन्तिष्विति विशेषणेन माणिक्यदण्डसमुद्रवानां हस्तिनां ग्रहणं न तु मरवद्वीपसमुद्भवानां दन्तरहितानामिति विशेषणं सार्थकम् । तेषु तथाभूतेषु गजेषु न कृतरूढिः । पत्तित्रयेन पदातिसमूहेन वर्जितः परित्यक्त इति विशेषणेन विशिष्टः सन् सहसा शीघ्रं तथापि स कुमारः विद्विषं निजघान हतवानिति विरुद्धं परिहियते । नवाश्च ता आजयश्च नवाजयः तासु नवाजिषु नूतनसङ्ग्रामेषु व्यविक्रमः नगजेषु गिरिसमुद्भवेषु दन्तिषु हस्तिषु कृतरूदिः अभ्यस्तावरोहणः आपत्तिचयेन वर्जितः इति विशेषणत्रयेण युक्तस्तथापि सहसा स रामः युधिष्ठिरश्च विद्विषं निजघानेति । विरोधाभासः ||३१|| अजरोऽवनिवृतचेष्टितस्ततपोद्भवविष्टरागतः ।
सपितामहतां च सङ्गतो विधिरप्येकमुखत्वमागमत् ||३२||
अजर इति - सः अजरः न विद्यते जरा वार्द्धक्यं यस्य स अजरः तरुणः कुमारः राङ्गतः प्राप्तः कां पितामहतां प्रजापतित्वम् । कथम्भूतः सन् १ अवनिवृत्तचेष्टितः अवनौ धरायां वृत्तम्प्रवृत्तचेष्टितमाज्ञा यस्य सः । पुनः ततपङ्कोद्भवविष्टरागतः तते विस्तीर्णे पोद्भवे दुर्यशसि विष्टानां प्रविष्टानां रागमिष्टवस्तुपु प्रीतिं तस्यति क्षयं नयतीति किप् स तथोक्तः वित्तीर्णदुर्यशः प्रविष्टरागविनाशकः तथा स पिता दशरथः पाण्डुश्व महतां महस्य भावो महता तां महतामुत्यवतां च सङ्गतः । कथम्भूतः अजरोऽजे ब्रह्मणि रः शब्दो यस्य सोऽजरोः व्रह्मैकनिष्ठ बन्वनः । पुनः अबनिवृत्तचेष्टितोऽय समन्तान्निवृत्तं चेष्टितं यस्य सः सकल्यावस्तुनिवृत्तव्यापारः । पुनः ततपङ्कोद्भवविष्टरागतः पङ्कात्यापादुद्भवो येषां ते पोद्भवाः विशश्च ते रागाथ विष्टरागाः तताश्च ते पङ्को वष्टिरागाश्च ते ततपोद्भवविष्टरागास्तान् तत्वति क्षत्रं नयतीति किप स तथोक्तः । विस्तीर्ण पापसमुद्भवरागोच्छेदक इत्यर्थः । सोपस्करत्येन व्याख्यायते - अजरो नित्यत्वात् जगज्ज्येष्टत्वात् प्राप्ततपोऽतिशयत्वाच न जीर्यत्यजरः ।
अथवा पाण्डुके समय से ही धुँधाती शत्रुताकी अग्नि शत्रु राजाओं के हृदय में प्रलयकालकी अग्नि के समान जोर से प्रज्वलित हो उठी थी ॥ ३० ॥
उस राजाने न तो अश्वारोही युद्धमें पराक्रम दिखाया था, न बड़े-बड़े दाँतोंवाले हाथियोंके ऊपर चढ़कर हरितयुद्ध किया था और न जिसके साथ पैदल सेना ही थी तथापि उसने अकस्मात् शत्रुओंका विध्वंस कर दिया था । पर्वतों में उत्पन्न नूतन युद्धों में ( नव-आजिषु ) किये गये पराक्रम के लिए ख्यात, ( नगजेपु), उत्तम हाथियोंपर चढ़ने में दक्ष तथा अनायास ही आपत्ति ( सहसा आपत्ति ) को दूर हटानेवाले इस राजाने शत्रुओंका विनाश कर दिया था ॥ ३१ ॥
अन्वय-अवनिवृत्तचेष्टितः ततपकोद्भवविष्टरागतः अजरोऽपि स पितामहतां सङ्गतः च विधिरपि एकमुख आगमत् ।
I
समस्त पृथ्वीपर शासन चलाते तथा मद्दान् अपकार्यों में रत लोगोंके विनाश करनेके कारण वह राम अथवा युधिष्ठिर युवक होते हुए भी भले बाबा (पितामह ब्रह्मा) बन गये थे । [यह हुआ एक विरोध । और जब वह ब्रह्मा हुए तो चतुर्मुख होना चाहिये था वह हुआ नहीं अपव] ब्रह्मा भी एक मुख हो गये थे। [ यह हुआ दूसरा विरोध ] क्योंकि ब्रह्मा भी कूटस्थ होनेके कारण वृद्ध नहीं होते हैं, पृथ्वीको सृष्टिके लिए प्रयत्न करते हैं, विकसित पंकजरूपी आसनपर बैठते हैं, संसारके पिता (गुरु) हैं और विष्णु आदि महापुरुषोंकी संगति में रहते हैं । परिहार
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् पुनरपरिणमनशील इत्यर्थः । अवनिवृत्तचेष्टितः त्रैलोक्यनिर्माणपर्यासकृत्यत्यादवगतं निवृत्तं चेष्टितं कार्यान्तरं चेनात्मनोऽसौ तथोक्तः । पुनः ततपको नवविष्टरागतः विस्तीर्णपङ्कजविष्टरमाप्तः । लोकविधातृत्वात् पिता जगकर्त्तत्यर्थः । विशेष गोचरः सन :: विमा च महत सत्पुरुपाणां सङ्गतः संसर्गाद्विधिरपि चतुमुखत्वात् कथमेकमुखत्वमगमदिति विरोधः परिहियते-एकनुस्खत्वं नाम सस्यबादमिति । विरोधाभासः ॥३२॥
तमुदीक्ष्य नवोदयस्थितं परितापोऽर्कमिवाभवत्तदा ।
बहुलो भरतस्य भूभुजो निजमातुधृतराष्ट्र जन्मनः ॥३३॥ तमिति-- तदा तस्मिन्काले तं जगद्विख्यातं रामं नवोदयस्थितमर्कमित्र रसूर्यमिवोदीक्ष्यावलोक्य बहुल: प्रचुरः परितापः सन्तापोऽभवत्सतः । कस्य ? भूभुगः नरपतेः भरतस्य कैकेयस्य सम्बन्धित्वेन निजमातुः स्वकीयजनन्याः । कथम्भूतायाः १ धृतराष्ट्र जन्मनः राष्ट्राजन्म यस्य तदा जन्म धनधान्य हिरण्यादि धृतं राष्ट्रजन्म यया तत्वाः हस्त्यश्वादिविभूतिर्मम पुत्रस्य कथं भवेदिति चेतोवृत्तिमत्याः।
भारतीयः-तं युधिष्ठिरं नवोदयस्थितमर्कमिवोदीध्य तदा राज्यपट्टाभिषेककाले भूभुजः नरेन्द्रस्य धृतराष्ट्र जन्मनः दुर्योधनस्य परितापो अभवत् बभूव । कथम्भूतस्य बहुलोभरतस्य प्रचुराभिलपसक्तस्य निजमातुः निजस्य स्वकीयस्य माता निश्शायक्रोऽथवा निजस्यात्मनो माता निश्चायकोऽसौ निजमाता तस्य आत्मानं स्वकीयञ्च निश्चेतुकामस्येत्यर्थः । दलेपालङ्कारः ॥३३॥
न विषादितया यदागमफलसिद्धिं सुलभाषसौ तदा ।
प्रतिपद्य भुवः पर्तिवरं कृतकाक्षं रमणं त्वयाचत ॥३४।। नेति—यदा यस्मिन्कालेऽसौ कैकेयी सुलभा सुमापां फलसिद्धिं नागमत् न गृहीतवती । कया कृत्वा ? विरादितथा बिषादिनो मावेन ! तस्मिन्काले फलसिद्धि प्रतिपदाङ्गीकृत्य पुनः सुवः पतिं पृथिवीनार्थ रमणं वल्लभमसौ कैकेयी अयाचत प्रार्थयामास । कम् ? वरं वरप्रदानम् । कथम् ? यथा भवति कृतकाक्षं कृतं कं जलं ययोले कृतके कृतकेऽक्षिणी यस्मिन्कणि तस्कृतकाक्षं कृताश्रुजललोचनमित्यर्थः ।
अन्वर-अज-रः अद-निवृत्तचेष्टितः ततपसोड वषिष्टराग-तः पिता-महतां संगतः च विधिः एकमुखत्वं भागमत् ।
परमात्माकी स्तुतिमें लीन, सब ओरसे इन्द्रियों के व्यापारोंका संकोचकर्ता, अनादि पापौकी परम्परासे उत्पन्न विशाल मोहका विनाशक, पिताके आनन्दका प्रशस्त निमित्त और निर्माणका कर्ता वह राम अथवा युधिष्ठिर सत्य वचन बोलनेके लिए कटिबद्ध था ॥३२॥
अन्वय-तदा अमिव नवोदयस्थितं तं उदीक्ष्य भूभुजः भरवस्य धृतराष्ट्रजन्मनः निजमातुः बहुलो परितापोऽभवत् ।
राज्यभिधेकरके समय सूर्य के समान नूतन तेजयुक्त रामको देखकर राज्यकी सम्पत्तिपर मुग्धचित्त राजा. भरतकी अपनी माता कैकेयीको अत्यधिक मनस्ताप हुआ था ।
अन्वय-.... बहु-लोम-रतस्य, निजमातुः पृतराष्ट्रजन्मनः भूभुजः परितापोऽभवत् ।
राज्याभिषेक सस्य नवीन उदित सूर्यके समान प्रतापी युधिष्ठिरको देखकर अत्यन्त लोभी तथा विषयासक्त, अपनेको युधिष्ठिर सदृश माननेवाले, धृतराष्ट्रसे उत्पन्न कौरव राजाओको भीषण मत्सर हुआ था ॥३३॥
अन्वय-यदा विषावितया सुलभां फलसिद्धिम् असौ न अगमत् तदा भुवः पतिं प्रतिपद्य कृतकाक्षं तु रमणं वरं भयाचत ।
__ जय महारानी कैकेयी शोक, विलाप आदिक द्वारा अपने परमप्रिय कार्यको न करा सकी तब उन्होंने पृथ्वीपति राजा दशरथके पास जाकर आँखों में बनावटी आँसू भरके अनुरक्त पतिसे वर माँगा था।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः भारतीयः-गदा यस्मिन्कालेऽसौ दुर्योधनः सुलभी फलसिद्धि नागमत् न गृहीतवान् । कया ? विपादितथा विद्यमादियां ते विषादयः पदार्थाः तेषां भावः विषादिता तया विषतृणदारुलाक्षाजलानलअपनेत्यर्थः । तदा तस्मिन्काले फल सिद्धि प्रतिपद्य स्वीकृत्य तु पुनः भुवः पतिं युधिष्ठिर दुर्योधनोड्याचत । कम् ! बरं रमणं मारित । कथम्मृतम् ? कृतकानं कृतको कृत्रिमा अक्षौ पाशको यत्र तत्यूतकाक्षं वृत्रिमपाशन मियर्थः । इलमा हारः ।। ३४ ||
सकलत्रगुपेक्ष्य सत्कुलं किल कैकेयपकार्यकारणा !
ननु चेत्यनिरूप्य कैतवं मतिमतैकजयेऽकरोत्प्रभुः ॥३५।। सकल मिति–कलत्रं मायाँ तथा सत्कुलं. निलाञ्छनान्वयं कैकेयं पुत्रश्च भरताह यमुपक्ष्यावधीय । कति? कानी परमाता का। नन्नही अचारंपारणा अकार्यकारिका कति मत्वा तवं कुटिवभावनिरन्या विचार्य भ प्रमुः दशरमाकजय इन्द्रिनायरामा मतिं बुद्धिमकरीत कृतवानिति सम्बन्धः । अत्र ताप राम सम्बाध्य बनाया बचनान् स्वप्रतिज्ञामभषात भरताय राज्यं दत्वा संमारसागरोत्तरणकतरी चतरागी दक्षिामझी चकार ।
भारतीयः पश्चः-स प्रभुः युधिधिरः अकजथे पाशकजये मतिमकरोत् । किं कृत्वा ? पूनमुपेक्ष्य किं कुलं कथम्भूतं सत् समीचीनम् । पुनः कथम्भूतम् ? सकलनं सकलान् स्वपरवगीयान् त्रायते पाय्यतीति सकलत्रम् । कि कृत्या ! पूर्वं पुनः अनिरूप्य अपरिशाय च । कम् ? कितवानामय व्यवहारः कैतवा त कैत द्यूतकारव्यवहारम् । कथमिति ? किल । ननु अहो का एका साधारणेयमकार्यकारणेति । दलेपः ॥३५॥
स परेण तदा जितां महीं लघु मुक्त्या सहसादरोदरैः ।
स्वगुरुस्थितिभङ्गभीरुका प्रययौ भ्रातरलेन काननम् ॥३६।। स इति--स रामः भ्रातुबलेन बान्धवसामध्यन काननं कान्तारं प्रत्ययो गन्तुं प्रारब्धवान् । कथम्भूतः ? स्वगुरुस्थितिभङ्गशीरुकः आत्मीयजनक स्थितिभजनभीरछुकः । पुनः सादरः सोद्यमः । कथम् ? तदा
अन्यय-.."विपादितया कृतक-अक्षं वरं रमणं अयाधत ।
जव दुर्योधन विषप्रयोग, लाक्षागृह प्रवेश आदि उपायोंके द्वारा अपने परम आदर्शको सफल न कर सका तब उसने युधिष्ठिर महाराज पास जाकर जाली पाशीसे उत्तम घुत (जुआ ) मीडाके लिए प्रस्ताव किया था ॥ ३४ ॥
- अन्वय-साकुलं उपेक्ष्य कैकेयं कलत्रं किल भकार्यकारणा च केतयं अनिरूप्प स प्रभुः ननु अकजये मतिम् अकरोत् ।
अपने दोनों श्रेष्ठ कुलोफी उपेक्षा करके कैकयकी पुत्री कैकेयी रानी निश्चित ही अकार्य कर रही है अतः स्त्री-सुलभ कुटिलताका विचार न करके राजा दशरथ ने केवल इन्द्रियोंके जीतने (पस्या) का संकल्प किया था यही आश्चर्य है।
अन्वय-प्रभुः सकलनं सत्कुल उपेक्ष्य, ननु कैतर्व अनिरूप्य अकजये मतिरकरोत् इयं का एका अकार्यकारणा किल ।
खेद है कि धर्मराजने अपने समीचीन महान् कुल तथा पटरानीकी भी उपेक्षा करके और दुर्योधनके धूर्ततापूर्ण व्यवहारको दृष्टिमें न रखकर पाशा के द्वारा कौरवोंको जीतनेका विचार किया था । यह अकेला ही कितना बड़ा पापकर्म था ॥ ३ ॥
अन्वय-तदा परेण अजितां महीं अदरैः सह लघु मुत्तवा स्वगुरस्थितिभङ्गभीरुकः सादरः सः प्रानृयलेन काननं प्रययो।
__ दशरथके विरक्त होनेपर अत्यन्त विनम्र तथा अपने पिता-द्वारा दत्त वचनके भंगसे भयभीत वह रामचन्द्रजी अबतक शत्रुओंके लिए अजेय कोशल के राज्य तथा निर्भय भरपूर्ण सेनाका तुरन्त छोड़कर भाईकं साथ वनको चले गये थे।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
R
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
a
inmentaininindia
। तस्मिन्काले । किं कृत्वा ? पूर्व मुक्त्वा परित्यज्य । कां महीं पृथिवीम् । कथम् ? सह सार्द्धम् । कैः ? अदरैः
नदरः भयं विद्यते येषां तेऽदरा अभयास्तैः अदरैनिभयमैटैः । कथम् १ लघु शीघ्रम् । कथम्भूतां महीम् ? । अजितामनभिभूताम् । केन ? परेण शत्रुणेति ।
भारतीय:-तदा तस्मिन्काले स युधिष्ठिरः भातृबलेन काननं प्रययौ लघु शीघ्रम् | कथम्भूतम् ? स्वगुरु स्थितिभङ्गभीरकः स्वस्यात्मनः गुर्वी या स्थितिस्तस्याः मने भीरुकः । किं कृत्वा ? पूर्व मुक्त्वा । काम् ? महीम् । कथम् ? सहसा शीघ्रम् । कथम्भूताम् ? परेण दुर्योधनेन दरोदरैः पाशकैर्जिताम् ।। ३६ ॥
स निवर्त्य समन्वितान्नृपांस्तलवर्गान्सचिवान्पुरोधसः ।
स्थितवान्पथि सीतयाच्युतो गहने द्रौपदिकानुजान्वितः ॥३७।।
स इति—स रामः गहने बनेऽद्री पर्वते च स्थितवान् । कथम्भूतः अच्युतो परित्यक्तः युक्त इत्यर्थः । , कया ? सीतया जानक्या । पुनः १ पदिकानुजान्वितः पदाभ्यां चरतीति पदिकः स चासावनुजश्च तेनान्विता
युक्तोऽनुचरलक्ष्मणान्वित इत्यर्थः । किं कृत्वा ? पूर्व निवर्त्य पश्चात् प्रस्थाप्य । कान् ? नृपान् । नरेन्द्रान् तलबर्गान् तरपनि योगीतुगतापन्नि (नाम पनिमादीन् , तथा सचिवानमाथान् पुरोधसः पुरोहितान् | एतान्कथम्भूतान् ? समन्वितान् अनुवजितुमागतान् ।
भारतीयः-स युधिष्ठिरः स्थितवान् । छ ? गहने । कीदृशः सन् ? सीतया भूम्या च्युतः परित्यक्तः । पुनः ! द्रौपदिकानुजान्वितः द्रौपदिका द्रौपदी द्रुपदतनया अनुजा भीमादयस्तैर्युतः। किं कृत्वा ? पथि मार्गे समन्वितान्नृपादीनिवर्त्य । श्लेषालङ्कारः ॥ ३७ ॥
अपि यस्य जगाम मुद्रया सकलो वारिनिधिः समुद्रताम् ।
हृदि पश्यत संसृतेः स्थिति स नरेन्द्रोऽपि पदातिताङ्गतः ॥३८॥ अपोति—यस्य रामस्य युधिष्ठिरत्य च सुट्ट्या सकलोऽपि बारिनिधिः समुद्रतां मुद्रया सह वर्त्तत इति समुद्रः तस्य भावः तत्ता तां मुद्रायुक्तिमत्त्वं जगाम ययौ । संसृतेः संसारस्य स्थितिं इदि हृदये पश्यत । स पूर्वोक्तः नरेन्द्रोऽपि पदासितां पदाभ्यामतति पदातिस्तस्य भावं पदिकत्वं गत इति ।। ३८ ॥
अन्वय-तदा दरोदरैः परेण सहसा जितां महीं लधु मुक्त्वा स्वगुरुस्थितिभनभीरुकः स ातृवलेन काननं प्रययौ ।
द्यूतके पाशोंसे शत्रुके द्वारा अकस्मात् जीते गये हस्तिनापुरके विशाल राज्यको तुरन्त छोड़कर वह धर्मराज युधिष्ठिर केवल भाइयोंके भरोसे ही वनवासमें चले गये थे क्योंकि उन्हें इस बातका भय था कि कहीं इनकी महान् सत्यनिष्ठाका उल्लंघन न हो जाय ॥ ३६॥
अन्वय-समन्वितान् नृपान् , तलवन् , सचिवान् पुरोधसः पथि निवर्त्य सीतयाच्युतः पदिकअनुजान्वितः स गहने-अद्रौ स्थितवान् ।
साथ चलनेके लिए आये राजाओं, अश्वारोहियों-गजारूढ़ी, मंत्रियों तथा पुरोहितोंको थोड़े रास्तेसे ही यापस करके मीनाको साथ लिये पैदल चलते छोटे भाई लक्ष्मणको ही अनुगामी रूपले लिये वह राम गहनचन अथवा पर्वतोपर रहने लगे थे।
अन्धय-पथि समन्वितान् निवर्त्य सीतयाच्युतः द्रौपदिकानुजाम्धितः स गहने स्थितवान् ।
वनवासके मार्गमे आकर मिलनेवाले मित्रराजाओ, सेनापतियों, मंत्रियों तथा पुरोहित आदिको घर लौट जाने के लिए कहकर राज्यके द्वारा परित्यक्त वह धर्मराज द्रौपदी तथा भीम आदि छोटे भाइयों के साथ वनमें वास करने लगे थे ॥३७॥
जिसकी राजमुद्राके द्वारा शत्रुओंके समस्त वैभयपर मुद्रा लगायी गयी थी अथवा समस्त सागर भी जिसके राज-चिह्नसे अंकित थे वह राजराजेश्वर भी पदाति-(पैदल चलनेवाला) हो गया था। संसारकी वास्तविकतापर मनमें विचार तो कीजिये ॥३८॥
१. श्लेषोपमाञ्लकारः ५०, द० ।
-
-
-.
-.
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः
अपि पीरिकया द्विषोऽभवन्ननु चामीकरदाश्च्युतौजसः |
कुसुमैरपि यस्य पीडना शयने शार्करमध्यशेत सः ॥३९।। अपीति-मन्वहो यस्य सम्बन्धित्वेन चीरिकया लेखेनापि द्विषः शत्रवदच्युतौजसो नएबला भूत्वा चामीकरदा हिरण्यप्रदा अभवन् सञ्जाताः । अथवा चकारः समुच्चये । अमी द्विपदच्युतौजसः करदाश्चाभवन् । यस्य च कुसुमैः पुष्पैरपि शयने पीइना पीडाऽभवत् स रामो युधिष्ठिरश्च शार्कर दारायन्स प्रदेशमायशेत आश्रित्य सुप्तवान् ।। ३९ ।।।
घनसारसुगन्ध्ययाचितं हृदयज्ञैश्चषकेऽम्यु पायितः।
स विमृग्य वनेष्वनापिवानटनीखातसमुत्थितं पपौ ।।४०।। घनसारेति—यः पूर्व हृदयशैः पुरुतिः चपके रन्नमयकचोलक धनसारसुगन्धि कपूरवाशितमयाचित प्रार्थितमम्बु पानीयं पाश्रितः । स वनेषु विमृग्यावलोक्यानापिवानलब्धवान्सन् अनीखातरामस्थित धनुरग्रप्र देशोल्लिखितनिर्गतं जलं पपी आस्यादितवान् ।। ४० ||
कुलजं शमिनं बहुश्रुतं स्थिरसत्त्वं ध्रुवयुद्धमूर्जितम् ।
यदि तादृशमप्यपैति तन्न खलु श्रीः श्रिय एव तादृशी ॥४१॥ कुलजमिति-कुलजमन्वयोत्पन्नं शामिगमुपशमवन्तं बहुश्रुतं प्रचुरशास्त्रचन्तं स्थिरमत्वं ध्रुवबलं भुवयुद्धं स्थिरसंग्राममूर्जितं बलिष्ठं तादृशमपि श्रीलक्ष्मीयदि चेत् यस्मात्कारणात् अति खलु परित्यजति तत्तस्मात्कारणात् श्रीरेच तादृशी न श्रियः । भाग्यवन्तं शयति सेवत इति श्रीः तस्याः श्रियः । अन तात्ययं यदि भाग्यवन्तं पुमपं त्यजति श्रीस्तदा यातनिरूक्तिमत्याः श्रियः रामा न भवतीति || ४ |
क्रमशोऽतिजगाम नर्मदां स दुरन्तां जलधीरितोचपाम् ।
अवधीरणयाऽतिलचिनी स्खलितप्रायगति प्रियामिव ।।१२।। प्रमश इति-दुरन्तामरब्धमन्या जलधीरितोद्यमां जलधी नमुद्र इरितः प्रेरित; उदासो यया सा तां समुद्रप्रेरितोद्यमाम् अवधीरणयाऽवहेलयाति शिनीमतिदूरगमगशीला स्खलितप्रायगति स्वस्तिमाया त्खलितसदृशी गतिर्यस्यास्तामिति विशेषण-चतुष्टयगोचरां नर्मदा लोकप्रशिद्धा नदी स रामो युधिरिश्च मशः ऋण कृत्या अतिजगाम अतिकान्तवान् । उपमार्थः प्रदाते-कामिव प्रियाभिव यथा कश्चितरो गारोमन धीरणया अवज्ञयातिनामति । कथम्भृताम् ? नर्मदा नर्म वर ददातीति ताम् । पुनः जल्योरितोय मां जलें. जहें मूर्यविषये
जिस राम अथवा युधिष्ठिरके लेख मात्रसे शत्रुओंका तेज गल जाता था तथा ये शत्रुलोग सोनेकी भेंट अथवा कर देने लगते थे। शय्यापर फूल भी जिसको चुभते थे वही भब बालपर सोते थे ॥३९॥
जिन्हें पहिले बिना माँगे ही मनकी बात समझनेवाले परिचारक चन्दन आदिसे सुगन्धित जलको रत्नोंके पात्रोंसे पिलाते थे उन्हें ही भाज वनमें खोजने पर भी पानी नहीं मिलता था, धनुषके कोनेसे घालूमें गड्ढा करके घे पानी पीते थे ॥४०॥
धैसे कुलीन, मन्दकपायी, प्रतिष्ठित,घलशाली, अनेक शास्त्रों पण्डित, युद्धके निश्चित विजेता तथा मनस्वी व्यक्तिको भी यदि लक्ष्मी छोड़ देती है तो वह श्री ( कान्ति) नहीं है अपितु ऐसी सम्पत्तिको श्रिय (भाग्यवानका सहारा लेनेवाली) ही कहना ठीक होगा ॥४१॥
कष्टसे अवगाहन योग्य, समुद्रकी दिशामें बहती हुई, असावधान होते ही बहा ले जानेवाली तथा पत्थरों के कारण टकराती या नीची-ऊँची वदती हुई अतएव प्रिया के समान नर्मदा नदीको क्रमशः यह राम अथवा युधिष्ठिर पार कर गये थे [ परिहासशील, कुकर्मरत,
१. श्लेपोपमाऽलङ्कारः-१०, द० ।
---
---
-
-
घस
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
द्विसम्धानमहाकाव्यम् धिया बुद्ध्या कृत्वा ईरितः प्रेरित उद्यमो यया सा ताम्,अथ जलेन जडेन धिया कृत्वा ईरितः उद्यमो यस्यास्तां जडबुद्धिप्रेरितोद्यमाम् । पुनः अतिलचिनीमतिक्रमणशीलां पुनः स्खलितप्रायगति मन्दमन्दगमनाम् ॥ ४२ ॥
अनुकूलफलासु भूभुजा पथि शोकापनुदासु विश्रमम् |
ज्यपदिश्य दरीष्वस्थितं तनयानां वसतिष्विव क्षणम् ॥४३॥ ___ अनुकूलेति-पथि भागें भूभुजा रामेण युधिधिरेण च दरीषु कन्दरासु अवस्थितम् । किं कृत्वा ? पूर्व विधर्म ध्यपदिश्य विश्रभितुमुद्दिश्य । कथम् ? क्षण मुहूर्तमेकम् | किं विशिष्टासु दरीषु ? अनुकूलफलासु कूलमनु अनुकूलं तटं तटं प्रति फलान्याम्रादीनि यासु ताः अनुकूलफलात्तासु । पुनः ? शोकापनुदासु चेतोग्लानिस्फेटिकासु । कास्विद ? तनवानां पुत्राणां पुत्रीणां वा अनुकूलफलस्वनायारालभ्यफलसु तथा शोकापनुदासु घरतिष्विव । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥ ४३ ।।
नृपतिं तमवेक्ष्य तापसाः कृपया हृदयेऽश्र तत्यजुः ।
भुवि का किल कशाशयो महतामुत्सहते विपत्तिप ॥४४॥ नृपतिमिति-तं रामं युधिष्ठिरञ्च नृपति नरेश्वरमवेक्ष्य अवलोक्व तापसाः तपस्विनः अश्रु वाष्पजलं तत्यजुः परित्यक्तवन्तः । व ? हृदये चेतसि | कथम्भूते ? आदें द्रवीभूते । कया ? कृपया करुणया । किललोकोक्तौ भुवि पृथिव्यां कः पुमान् कर्कशाशयः निष्ठुरचेताः भूत्वा महतां सत्पुरुषाणां सम्बन्धित्येन विपत्तिषु आपनिमित्तमुत्सहते सोद्यमो जायते । अर्थान्तरन्यासः ॥ ४४ ॥
सरितः सरितो नगानगानवतीर्णः स बहूपकारकः ।
विषयान्विषयानपेक्षितां वशवर्तीच गतो न्यशामयत् ॥ ४५ ॥ सरित इति-स रामः युधितिरश्च विश्वान् विषयान् देशान् देशान् न्यशामयत् ददर्श । कथम्भूतः ? सरितः सरितो नदीः नदीस्तथा नगानगान् पर्वतान् पर्वतान् अवतीर्णः उल्लचितवान् । कथम्भूतः? स बहूपकारकः बहूनां समत्तानां राज्ञानुपकारो यस्मात् सः, अस्यायमर्थः स्थाने स्थाने समस्तानामवनीश्वराणामुपकारित्वेन आनुषङ्गिकी कथानुसभ्यन्वनीति | कथम्भूतान् ? विषयानपेक्षितान'भिलषितान् । क इव ? वशवर्तीव यतिरिव । कथम्भूतः ? विषयानपेक्षितां गतः विषयान् स्रग्बनिताचन्दनादीन् न पेक्षत इत्येवं शील विषयानपेक्षी तस्य मावस्तता तां जितेन्द्रियत्वं गतः प्राप्तः ॥ ४५ ॥
निगमान्निनदैः शिखण्डिनां सुमगान्धैनुकढुङ कृतैरपि ।
स ददशे वनस्य गोचरान कुकवाकूत्पतनक्षमान्नृपः ॥४६॥ मूर्खतापूर्ण कार्य करनेवाली, अवज्ञा करनेमें रत तथा करीब-करीय भ्रष्टाचारको प्राप्त मियाको भी लोग सहज ही छोड़ देते हैं ] ॥४२॥ ___अभीष्ट फलादिसे व्याप्त तथा मार्गकी थकानको दूर करनेमें समर्थ अतएव अपने पुत्रौके मकानोंके सदृश सुखद गुफाओंमें राम या युधिष्ठिरके द्वारा विश्राम किया गया था ॥४३॥
राजा राम अथवा युधिष्ठिरको देखकर तपस्वियोंके भी हदय द्र त हो जाते थे और के आँसू बहा देते थे । संसारमै कौन ऐसा कठोर हृदय है जो पुण्यात्मा पुरुषोंकी विपत्ति देखकर प्रफुल्लित होता हो ॥४४॥
राज्य (इन्द्रियोंके भोग ) के विषयमै उदासीन भावके धारक तथा अनेक लोगोंके उपकारक अतएव इन्द्रियजेता यतिके समान वे राम अथवा युधिष्ठिर एक नदीसे दूसरी नदी तक अथवा एक पर्वतसे दूसरे पर्वततक भूमि पार करते हुए देशोंको देखते चले जाते थे ॥५॥
1. अन्न पादान्तत्वान्नकारस्थानुस्वारश्चिन्त्यः । ५०, द. पुस्तयोस्तु विषयानपेक्षितां गतः इत्येव नृप यतिपक्षयोर्योजितः । २. उपमालङ्कारः-५०, ६० ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः
६७
निगमानिति - स रामः युधिष्ठिरश्च निगमान् भक्तग्रामान् ददर्श दृष्टवान् । कथम्भूतान् ? शिखण्डिनां मयूराणां निनदैः शब्दैः तथा धेनुकहुङ्कृतैरपि धेनुकदम्बहम्भारयैः सुभगान् मनोहरान् । पुनः कथम्भूतान् ? वनस्य गोचरान् विषयान् । पुनः कृकवाकृत्पतनश्चमान् 'कुक्कुटोत्पात योग्यान् । समुच्चयः ॥ ४६ ॥ स विषाणविधूतरोधसं सहसा पस्किर माणक्षत |
शिरसि स्थितपङ्कमिच्छया धनस्येव भटं गवां पतिम् ॥४७॥
स इति स रामः युधिष्ठिरश्च गवां पतिं वृषभमैक्षत ददर्श । कथम्भूतं विपाणविधूतरोधसं शृङ्गीक्षिप्ततटम् । पुनः शिरसि स्थितपङ्कम् मूर्ध्निस्थितकर्दमम् । पुनः । प्रधनस्य रणस्य इच्छया वाञ्छ्या सहसा - परिकरमाणमग्रन्चरणेन भूमिमुल्लिखन्तम् | कमिव ? भटभिव वीरभिव' ॥ ४७ ||
तृणकौतुककङ्कणोचितां विलुलोके स विनृत्य गोपिकाम् ।
स्तनभारनतां प्रजापतेः श्रममस्थानगतं विचिन्तयन् ॥४८॥
तृणेति - स नृपः रामो युधिष्ठिरश्च गोपिकां गोपभार्या विलोकेऽपश्यत् । किं कृत्वा ? विवृत्य पूर्व परानृत्य | किं कुर्वन् ? प्रजापतेर्विधातुरस्थानगतमयोग्यपदवीमायान्तं श्रमं विचिन्तयन् चिन्ताविषयं नयन् । कीदृशीम् ? तृणकौतुक कङ्कगो चिताम् पुनः स्तनभारनतां कुचभारनम्रामिति ॥ ४८ ॥
2
अमुनाभिशपन्धनं रुदअभिधावन्पृथुकोऽभिसादयन् ।
बुबुधे पथि सस्यमापतन्नववर्णीव दुरीहितं तपः ॥४९॥
अमुनेति - अमुना रामेण युधिष्ठिरेण च कर्त्रा पृथुकः बालः कर्मतापन्नः पथि मार्गे बुबुधे ज्ञातः । किं कुर्वन् ? अभिशपत्राक्रोशन् । किम् ? धनं गोमहिप्यादिकम् पुनः, रुदन्नश्रु विमोचयन् । पुनः १ इतस्ततोऽभिवान् पलायमानः । पुनः अभिसादयन् अभ्याजयन् । पुनः आपतन्नागच्छन् । किम् ? सस्यं धान्यम् । उपमार्थः प्रदर्श्यते । क इव १ नववर्णीव नूतनमुनिरिव, यथा नूतनमुनिः लोकैर्बुध्यते । किं कुर्वन् ? धनम् अभिशपन् स्दन् अभिधावन्न भिसादयन्नापतन् । किम् ? तपः । कथम्भूतम् ! दुरीहितं दुश्चेष्टितम् ॥ ४९ ॥
मयूरोकी के कासे तथा गायके बछड़ों के रंभानेके द्वारा अत्यन्त सुन्दर नागरिकोंके ग्रामों तथा मुगके उड़ने और रहने योग्य वन्य प्रदेशोंको राजा राम अथवा युधिष्ठिरने देखा था ॥४६॥
सीके द्वारा नदी-नालेके किनारेको खोदते हुए तथा शिरपर कीचड़ अथवा मिट्टीको लगाये हुए तथा लड़ने की इच्छासे आगे के खुरोंसे भूमिको कुरेदते हुए अतएव योद्धा समान सांड़को राजा राम या युधिष्ठिरने देखा था [ योद्धा भी हस्तिदन्त शस्त्र के प्रहारसे शत्रुओंको भगा देता है, अनेक हत्याओंका पाप उसके शिरपर रहता है, युद्धकी कल्पनासे वह भूमिपर व्यूह आदि लिखता रहता है ] ॥४७॥
दूर्वा तथा विवाह सूत्र से ग्रहण करके कंकड़ आदि आभूषण पहिराने योग्य और उन्नत स्तनोंके भारसे झुकी ग्वालिनको राम अथवा युधिष्ठिरने मुड़कर देखा था । तथा उनके मनमें विचार आया था कि सृष्टिकर्त्ताने अस्थानमें इतनी कुशलता क्यों दिखायी ॥४८॥ मार्ग चलते हुए राजा राम अथवा युधिष्ठिर द्वारा खूब विलपता-चिल्लाता, रोता हुआ इधर-उधर दौड़ता, अनको खाता हुआ तथा गिरता पड़ता फलतः नये ब्रह्मचारीके समान कष्टकर तपस्या में प्रवृत्त बालक देखा गया था [ नया ब्रह्मचारी भी बात-बात में अभिशाप देता है, खेद या पश्चात्तापमें रोता है, अशान्तिके कारण इधर-उधर आता जाता है, भोजनपर गिरता है तथा तपस्या में स्खलित होता है ] ॥४९॥
१. 'कृकवाकुस्तानचूढः कुक्कुटश्चरणायुधः' ( अमरकोष २।१७ )
२. उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः - प०, ६० । ३. उपमालङ्कारः- प०, दृ० 1
अतएव कुक्कुट इति ।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् इदमेवमनादिगोचरं चिरमुच्चरितरेतराश्रयम् ।
विषयं वनमप्यनेकशः स सुखं दुःखमिवात्यगान्नृपः ॥५०॥ इदमिति–स नृपः रामः युधिष्टिरश्च इदमेवं विषयं देशं वनमपि अरण्यञ्च अत्यगादतिचक्राम । कथम् ? अनेकशः बहून्यारान् । कथम्भूतं विषयं कनञ्च ? अनादिगोचरं न आदेर्गोचरो विषयो यस्य सः तं तच्च । कथम् ? चिरं बहुतरकालं यथा भवति अल्यगात् । इतरेतरमाश्रयो यस्मिन् गमनकर्मणि तदितरेतराश्रवम् । एनबिषयं पुनर्चन मिति कृत्वा अन्योन्याश्रयमिति क्रियाविशेषणं यथा कथमुच्चैतिशयेन | अधुना उपमार्थः पदर्शते । सुग्नु दुःखीव राधाऽनिकामनि पाणी तथा सुखं यथा सुखं तथा दुःखमत्र पूर्वोक्तानि विशेषणानि योज्यानि | उपमालङ्कारः ।। ५० ॥
पथि सोज्वरजोऽग्रज वचः स्फुटमित्यादित वीक्ष्य तादृशम् ।
विदिशं विशता विशां दिशं त्यजता सत्यमलङ्कृतं त्वया ॥५१॥ पथीति-पथि मार्गे स पूर्वोक्तोऽवरजः लक्ष्मणः अग्रज राम तादृशं देशवनान्युल्लङ्घयन्तं वीक्ष्यावलोक्य इति वक्ष्यमाणापेक्षया स्फुट प्रत्यक्तं यथा भवति वचः वचनमादित उक्तवान् । त्वया भवता सत्यमलकृतं भूषितम् । किं कुर्वता सता ? विश देशानां विदिशं विशता प्रविशता दिशं त्यजता ।
भारतीयः-पथि तादृशमग्रज युधिष्टिरं वीक्ष्य स लोकप्रसिद्धः अवरजो भीमो वाऽर्जुनः इति वक्ष्यमाणं बचः स्फुटमादित गृहीतवान् । विशां देशानां सम्बन्धित्वेन निदिशं दिशं विशता त्यजता च त्वया सत्यमलकृतमिति ।। ५१ ॥
स्वकुलं समलंकृतं गुणैरुपनीताश्च महापदं जनाः । ... अनुजा विनयेन भूषिता न पराभूतिरितोऽस्ति काचन ॥५२॥
स्वेति-त्वया गुणैरौदायर्यादिभिः स्वकुलं समलंकृतं सम्यकप्रकारेण विभूषितम् । जनाः महापदं महापदवीमुपनीताः प्रापिताः । अनुजाः भ्रातरः विनयेन भूषिताः इत एभ्यः प्रकारेभ्यः नास्ति काचन परा अन्या भूतिर्विभूतिरिति । ____भारतीयः-स्वकुलं समलं सलाञ्छनं त्वया गुणैः कृतम् । जनाश्च महापदं महतीम् आपदं
अनादि कालसे चले आये तथा अनन्त कालतक चलते रहने योग्य यद्द संसारके सुख और दुःखके इस इतरेतर आश्रय (सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख) के समान ही राजा राम अथवा युधिष्ठिर अनेक बार देशसे घनमें और वनसे देशमें होते चले जाते थे ॥५०॥
उक्त प्रकारसे चले जाते ज्येष्ठ भ्राताको देखकर मार्ग में छोटे भाई लक्ष्मण अथवा भीम अर्जुनने स्पष्ट कहा था कि हे अग्रज, इस प्रकार देशोंकी सीमाओंमें प्रवेश करके तथा उनको छोड़कर आपने इन्हें सचमुच विभूषित ही किया है ॥५१॥
__ अन्वय-गुणैः स्वकुलं समलंकृतं, घ जनाः महापद नाताः अनुजा विनयेन भूषिताः इतः परा काचन भूसि: नास्ति।
पितृभक्ति आदि गुणोंके द्वारा अपने कुल की शोभा बढ़ायी है। जनताका पद ऊँचा किया है। छोटे भाइयों को अनुशासनसे दीक्षित किया है। फलतः संसारमें इससे बड़ी कोई विभूति नहीं है।
___ अन्वय-गुणैः स्वकुल समलं कृतं, च जनाः महा-आपदं नीताः, विनयेन अनुजाः भूषि[शि ] ताः इतः परा काचन अभूतिः नास्ति । ___ द्यूतके पाशोंके द्वारा हे धर्मराज, आपने अपने कुलको दूषित किया है। जनताको
१. श्लेपाऽलङ्कारः-प०, द० । २. एतेषां पद्यानामनुकूलप्रतिकूलार्थत्वात् पक्षद्वयम्, न तु राघवभारतीयापेक्षयेति ।
-
----
---
----
-------
--
----
---
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थः सर्गः
६९
विपत्तिमुपनीताः । अनुजाः बान्धवाः विनयेन विगतो नयः विनयः दुर्नयस्तेन भूषिताः भुवि उषिताः तेन कृत्वा इत एभ्यः प्रकारेभ्यः नास्ति काचन परागृतिरभिभवः अन्येति पदमध्याहार्यम् ॥ ५२ ॥
यदि राजतयाविना नृपाः कृतराज्या इव सानुभावनाः । यशसा च युतास्तदेतया बहुचिन्ताहतया किमु श्रिया ॥ ५३ ॥
यदीति यदि राजतया राजभावेन विना कृतराज्या इव नृपाः नरेश्वराः सानुभावना समाहात्म्याः यशसा च युक्ताः भवेयुन्तत् तस्मात् उ अहो किभेतया श्रिया लक्ष्म्या कथम्भूतया बहुचिन्ताहतया वही या चिन्ता तया हतया नष्टया !
भारतीय:-वत् यस्मात्कारणात् सानुभावना सानुषु पर्वत नितस्त्रेषु भावना स्थितिर्येषां ते पर्वतनितम्बस्थितिकाः सन्तः नृपाः कृतराज्या इव भवेयुः । कथम्भूताः १ अविना न विद्यते विना येषां ते अविना युक्ता इत्यर्थः । कया इराजतया इरायाः अजः क्षेपः यस्वाऽसाविराजः पृथिवीपरित्यागयुक्तः पुरुष इत्यर्थः । इराजभ्य भावः इरायता तथा पृथिवीपरित्यागत्येनेत्यर्थः । यशसा युताश्च स्युः तत् तस्मात् किमु अहो एवयाऽनया श्रिया । कथम्भूतया ? बहुचिन्ताहतया बहूनां स्वपरवर्गीयाणां चिन्ता बहुचिन्ता तया तया हुचिन्ताहराया । पालङ्कारः ॥ ५३ ॥
चमरा व्यजनेन वीजयन्ति द्विरदास्ते दधते च नित्यसेवाम् ।
शवराः शिविरेषु वद्धगेयाः किमु राज्येन गतेन वा स्थितेन ॥ ५४ ॥
नमरेति-शिविशेषु निवेशेषु चमराः चमः व्यजनेन कृत्वा वीजयन्ति । ते प्रसिद्धाः 'कान्तारसमुद्भवाः द्विरदा हस्तिनः नित्यसेवां अनवरतवानं न दमते घरन्ति तथा शवराः पुलिन्दाः बद्धगेयाः विरचितगीताः भूत्वा दधते धरन्ति नित्यसेवाम् । पुप्रकारेंषु सत्सु उ अहो कि गलेन वा अथवा स्थितेज राज्येनेति सम्बन्धः | भारतीय: वा उपमार्थे स्थितेन राज्येनेव गतेन राज्येन उ अहो युधिष्ठिर ते तब सम्बन्धित्वेन शिविरेषु वसतिस्थानेषु लक्षितलक्षणानिरूपणात् चमराः पुरुषाः व्यजनेन चागंरेण कृत्वा किं वीजयन्ति १ स्वकारेण समुच्चयार्थी गग्यते । तथा द्विरदाः किं नित्यसेवां दधते ? तथा शराः गीतेन कृत्वा शं सुखं वृण्वते
• कौरवोंपर छोड़कर मद्दा विपत्तिमें डाल दिया है और नीतिसे काम न करके हम छोटे भाइयोंको भूमिपर सोनेके लिए बाध्य किया है ॥५२॥
यदि राजाके कार्यादिके बिना ही राजाका प्रभाव, माहात्म्य आदि राज्य करनेवालोंके समान हो जाय और कीर्तिको प्राप्त करले तो अनेक चिन्ताओंसे साबाध इस राज्य लक्ष्मीले क्या प्रयोजन है ?
अन्वय-यत इराजतया विना सानुभावना नृपाः कृतराज्या इव यशसा च युताः तत् बहुचिन्ताहांवा श्रिया किमु ।
यतः पृथ्वी के राज्य के त्यागले भूषित अतएव पर्वतोंपर निवास करने में प्रसन्न मन त्यागी राजा राज्य करनेवालोंके समान यशके भागी होते हैं अतः अपनों तथा परायों; सभीको चिन्तामें डालनेवाली इस लौकिक सम्पत्तिसे हे धर्मराज ! क्या लाभ है ॥५३॥
मरी मृग अपनी पूँछाँसे चमर ढोरते हैं । जंगली हाथी प्रतिदिन सवारीकी सेवामें रहते हैं । जहाँ पड़ाव डालते हैं वहीं भील आदि ग्राम्यगीत गाते हैं । तब राज्यके रहने या चले जाने से क्या अन्तर हुआ ?
राज्यपदपर रहने के समान (वा) राज्य खो देनेपर आपको चमरधारी क्या १. लेपाऽलङ्कारः - प० द० । २. रेवातीरसमुद्भवा-प० द० ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् वृण्वन्तीति शवराः गायनाः अथवा शेन सुखेन ब्रियन्ते इति शवराः सुखिनः बद्धगेयाः सन्तः नित्यसेवां कि दधते ! अपि तु नेति सर्वत्र सम्बन्धः । अत्रैतत्तात्यर्थम-यथा स्थितेन राज्येन चामरधरादयः सम्भवन्ति तथा न गतेन राज्येनेति । आक्षेपालङ्कारः ॥ ५४॥ त्वामभ्युपैतु पुनरभ्युदयाय दीप्ति
रौत्सुक्यमागतवतीव रवि दिनादौ । ध्वान्तं विसर्पति तवानुदयानयत्वं
कालेऽभिवृद्धिमभिमानधनञ्जयञ्च ॥५५॥ इति श्री द्विसन्धानकवेधनञ्जयस्य कृतौ राघवपाण्डवीये महाकाव्येऽरण्य
वासवर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥ स्वामिति-हे राम हे युधिष्टिर च वो भवन्तं च पुनः दीप्तिः प्रतापक्षापारभ्युपैतु व्याकृत्यागच्छतु । कस्मै १ अभ्युदयाय विभवाय । कथम्भूता राती ? औत्सुक्यं रामस्य आगतवती । उपमार्थः-श्व यथा रविमादित्यं दिनादौ दिवसस्य प्रथमारम्भे दीप्तिः पुनरभ्युपैति । कथम्भूता ? औत्सुक्यमागतवती । उत्तरार्द्ध सोपस्करतया व्याख्यानं विधीयते-तथा तव भवतः सम्बन्धित्वेन अनुदयादभिभवात् वान्तमनीतिलक्षणतमः विसर्पति सामरत्वेन प्रवर्तते । यथा रखेरनुयात् ध्वान्तमन्धकारः विसर्पति । अतएव काले समये तथा अभिमानधनम् अभिमान एव धनम् अथवा अभिमानश्च धनञ्च अभिमानधनं समाहारापेक्षवैकत्वमत्र । जयञ्चेति कर्म, अभिवृद्धिं नय स्वं भवान् । यथा रविः अभिमानधनमामि सामस्त्येन मानं प्रमाणं यस्य तत् अभिमानञ्च तद्धनञ्चाभिमानधनं सप्रमाणकिरणसन्दोहमित्यर्थः । जय तमस्तोमनिराकरणलक्षणश्च कर्मद्वयम् अभिवृद्धि नयति क काल इति ॥ उपमालङ्कारः || ५५ ।। इति निश्वविद्यामण्डनमण्डितमण्डलीडितस्य पट्तर्क चक्रवर्तिनः श्रीमविनयचन्द्रपण्डितस्प गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारधातुरीचन्द्रिकाघकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां पदकौमुदीनामदधानायां टीकायां द्विसंधानकवेर्धनञ्जयस्य कृतौ राघवपाण्डवीये महाकाव्ये राघवपाण्डवारण्यगमनवर्णनो नाम
चतुर्थः सर्गः ॥४॥
हवा करते हैं ? हाथी आदिको प्रतिदिन सवारी प्राप्त होती है क्या। राजमहलके समान शिविर में भी क्या गायक गीत सुनाते हैं ? अर्थात् नहीं ॥५४॥
द्वे राम अथवा युधिष्ठिर लौकिक अभ्युदयके लिए मिलनकी उत्कण्ठाले प्रेरितके समान प्रभुता फिर आपको उसी तरह प्राप्त हो जैसे प्रातःकाल कान्ति सूर्यसे मिलती है, आपके वनमें रहने के कारण कोशल अथवा कुरु देशमें अनीतिरूपी अन्धकार सब ओर छाया है अतएव आप उचित समयपर सर्वथा विकास, आत्मगौरव रूपी धन और अनीतिकी जयको करें। [ सूर्य भी रात्रि में फैले हुए अन्धकारको पूर्ण विस्तृत किरणोंरूपी सम्पत्तिसे जीतता है और समस्त पदार्थों की वृद्धिका कारण होता है ] ॥५५॥ निर्दोषविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, पट्तचक्रवती, श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाको चातुर्यचन्द्रिकाके चकोर नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनञ्जयके राघवपाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसंधानकाध्यकी पदकौमुदी टीकामें राधव-पाण्डवारण्यगमन
नामक चतुर्थ सर्ग समाप्त । १. काले इति सम्बन्धः-प०, द० ।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः ततो वनं देशमनेकमेव पुण्याश्रमं तीर्थमतीत्य राजा ।
गूढः प्रदीप्त्यारविराटभूमि स्फीतांसको दण्डकलक्षितां सः ॥१॥ तत इति-ततो रामलक्ष्मणसीता सम्बन्धिल्वेन स्वदेशपरित्यागक्रान्तारप्रदेशवर्णनानन्तरं स राजा रामः दाइकलक्षितां भूमिमाट गतवान् । कथंभूतः ? सतीतासकः पीनोन्नतस्कन्धः। पुनः ? रमिरिच रविः अथवा स्वयमेव प्रदीप्त्या क्षात्रतेजसा रविः । पुनः मूढः प्रच्छन्नत्तिकः । लिः कृत्वा ? पूर्व गतवान् रामः अतीत्यातिकम्य । किम् ? बनमरण्यं तथा देश विषयं तथा पुण्याथगं तारसवराति तथा तीर्थम् । येन दृप्टेनाश्रितेन वा अपारसंसारपारावारतीयते तत्तीथ ऊर्जयन्तादि सर्वम् । कथंभूतम् ? विशेष्यभनेकमेव नानाप्रकारमेव ।
भारतीयः-ततः पाण्डवानां सम्बन्धित्वेन स्वदेशपरित्यागकान्तारप्रवेशवर्णनानन्तरमनेकमेय वनं देशं पुण्याश्रमं तीर्थमतीत्य स जगद्विख्यातो राजा युधिष्ठिरः स्फीतो लोकविख्यातां विराटभूमि मत्स्यदेशमार गतवान् । कथंभूतः १ कोदण्दकलक्षितांसः कोदण्डकेन धनुषा लक्षितः अंसः स्कन्धो यस्य सः । पुनः गूढः संवृतः कया प्रदीप्त्या प्रलापेनेति लोपालङ्कारः ॥५॥
विहाय चापव्यवहारमुग्रं यथा नियोगं प्रयतो जितास्मा ।
निरूप्य तस्यां स कुलायभूमि योगीव कश्चित समयं निनाय ॥२।। विहायेति-तस्यां दण्डकारण्यभूमौ स रामः कञ्चित्समयं काले निनाय नीतवान् । किं कृत्वा ? पूर्व निरूप्य समयं, का भूमिम् कस्मै ? कुलाय अन्वयाय भरताय । किं कृत्वा ? पुनश्च (च पुनः) विहाय परित्यज्य । कम् ? अपव्यवहारं दुनीतिम् । कथम्भूतम् ? उम्र सोढुमशक्यम् । कथम्भूतो रामः ? जितात्मा जितेन्द्रियः । पुनः प्रयतः प्रयत्नवान् । कथम् ? यथा नियोगं यथा स्वाभिप्रायण नियोगो व्यापारो यत्र कर्मणि तत् यथा नियोगम् । उपमार्थः प्रदर्यते । योगीव यथा योगीन्द्रः तस्यां लौकिकप्रसिद्धायां भूमौ सकुलाय
अन्यय-ततो अनेकमेव वन, देश, तीर्थ, पुण्याश्रमं अतीत्य, स्फीतासको प्रदीसभा रविः सः गूढः राजा दण्डकलक्षितां भूमि आट।
उक्त प्रकारसे भ्रमण करते हुए अनेक वनों, देशों, ऋषियोंके पवित्र आश्रमों तथा प्रयाग आदि तीर्थों को पार करके पुष्ट उन्नत स्कन्धधारी, तेजमें सूर्य समान वह गुप्त धेशधारी राजा राम दण्डक नामसे ख्यात प्रदेशमें पहुंचे थे।
अन्वय-......कोदण्डलक्षितांसः प्रदीप्त्या गूढः स राजा स्मीतां विराटभूमि आर ।
गुप्तवासके प्रसंगले अनेक देशों, वनों, तपोभूमियों और ऊर्जयन्त आदि तीर्थोसे निकलता हुआ पुष्ट कन्धेपर धनुष लटकाये तथापि प्रताप शौर्यको दृष्टिसे अज्ञात वह राजा युधिष्ठिर विस्तृत तथा ख्यात मत्स्य देशमें पहुंचा था ॥१॥
अन्वय-उग्रं चापव्यवहारं विहाय यथा नियोग प्रयतः जितात्मा स तस्यां कुलायभूमि निरूप्य योगीच कञ्चित् कालं निनाय।।
दारुण धनुषके प्रयोगको छोड़कर अपने स्वभावानुसार जीवन व्यतीत करने में लीन तथा आत्मजेता राजा रामने दण्डकारण्यमें झोपड़ीके लायक भूमिको चुनकर योगीके समान कुछ समय व्यतीत किया था [आत्मापर विजय न पानेके कारण योगी भी बुरे आचरण तथा उग्रताको छोड़कर किसी घनमें कुटिया बनाता है और योगशास्त्रके अनुसार क्रिया करता है और अभ्यासमें कुछ समय बिताता है ] ।
१. किञ्चित्--द।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
समानं कुलं यस्याऽसौ सकुलः तस्मै सकुलाय भूमिं निरूप्य कश्चित् समयं नयति । कथम्भूतः जितात्मा ! पुनः प्रयतः प्रयत्नपरः । कथम् ? यथा नियोगं स्वाभिप्राय व्यापारम् । किं कृत्वा ? पूर्व विहाय च । कम् ? अपव्यवहारम् । कथम्भूतम् ? उग्रमिति सम्बन्धः ।
भारतीयः - स युधिष्ठिरः तस्यां विराटभूमौ कञ्चित्समयं निनाय । क इव १ योगीव । किं कृत्वा ! पूर्व निरूप्यावलोक्य | काम् ? कुलायभूमिं कुलायाय नीडाय भूमिः कुलायभूमिः तां निवासभूमिम् । कथम्भूतः १ अजितात्मा अजितेन्द्रियः द्यूतव्यसनोपहतः । पुनः कथंभूतः ? प्रयतः । कथम् ? यथा नियोगम् । किं कृत्वा ? पूर्व विहाय विनु । काम् ? चापव्यवहारम् । कीदृशम् ? उम्र तीनम् । उपमार्थः प्राग्वत् । श्लेषालङ्कारः॥२॥ विरामभूमिः कमनीयतायाः कृष्णोदयानां विनिवासहेतुः ।
समाय कामनिवेशमूर्तिस्तत्राभिमुख्यं किल कीचकस्य ॥३॥
विरामेति तत्र दण्डकारण्ये किल लोकोक्तौ शास्त्रोक्तौ वा कीचकस्य थेणोः सम्बन्धित्वेन आभिमुख्यं कृष्णो लक्ष्मणः समाश्रयी गतवान् । कथंभूतः ? कमनीयतायाः रमणीयतायाः विरामभूमिः विश्रामावनिः । पुनः दयानां करुणानां विनिवासहेतुः स्थितिकारणम् । पुनः कामनिवेशमूर्तिः कन्दर्पस्थितिहारीरक इति सम्बन्धः ।
भारतीयः- तत्र विराटभूमौ किल कृष्णा द्रौपदी कीचकस्य कीचकनामधेयस्य नराधिपस्याभिमुख्यं समाययौ गतवती । कथंभूता १ कमनीयताया विरामभूमिः । पुनरुदयानां निवासंहेतुः । पुनः कामनिवेश मूर्तिः कामानामभिलाषाणां निवेशाय रचनायें मूर्तिर्यस्याः सा ||३||
विलासभावेन विलम्बमानं निस्त्रिंशपत्रात सूर्यहासम् ।
असौ निजग्राह महोद्धतिस्तं पुण्यैकरूपेण वशं हि सर्वम् ||४||
बिलासेति - अत्रास्मिन् प्रस्तावे असौ लक्ष्मणस्तं लोकप्रसिद्ध सूर्यहास सूर्यहासनामधेयं निस्त्रिां खड्गमाहत गृहीतवान् | कथम्भूतं निस्त्रिंशम् १ विलम्बमानं निरालम्यतया लम्बमानम् | कैन ? विलासभावेन वीनां पक्षिणां लासः विलासः क्रीडा यत्र तद्विलासं तस्य भावेन गगनं समुपेत्येत्यर्थः । कथंभूतो लक्ष्मणः ? अन्वय- जितात्मा यथा नियोगं प्रयतः सकुलाय भूमिं निरूप तस्या उनं चापव्यवहारं विहाय कचित् समयं निनाय ।
सत्य, आदि
के पूर्ण पालनके कारण आत्मजयी तथापि कर्म -संयोगके अनुसार जुआ, आदि आचरण कर्ता युधिष्ठिर अपने सगोत्रोंके लिए राज्य हार कर विराट भूमिमें पहुंचने पर प्रखर शस्त्र विद्याको त्यागकर कुछ समय बिता रहे थे ॥ २ ॥
अन्वय-तत्र कमनीयतायाः विरामभूमिः दयानां विनिवास हेतुः कामनिवेशभूर्तिः कृष्णः किल कीचकस्याभिमुख्यं समाययौ ।
दण्डकारण्य में रहते समय सुन्दरताकी चरमसीमा, दया दाक्षिण्यकी निवासभूमि तथा सशरीर कामके समान मनोहर वासुदेव लक्ष्मण कीचक ( वेणुवन ) के सामने जा पहुंचा था।
अन्वय- उदयानां विनिधासहेतुः... कृष्णा...।
*****
विराट भूमिमें निवास के समय परमलावण्यकी चरम कृति, अनेक अभ्युदयोंकी निमित्त, तथा कामरूपी मन्दिरमें विराजमान करने योग्य मूर्तिके समान द्रौपदी संयोगले कीचक राजाके सामनेसे निकल गयी ॥ ३ ॥
अन्वय-विलासभावेन विलम्बमानं तं सूर्यहासं निखिशं मंत्र निजग्राहमहोद्धतिः असौ भहृत हि पुण्बैकरूपेण सर्व वशं ।
पक्षियोंकी उडानके समान आकाशमै लटकते उस लोकप्रसिद्ध चन्द्रहास खड्गको दण्डकारण्य में, स्वयमेव वरण करनेके कारण परम प्रतापी लक्ष्मणने पकड़ लिया था । उचित ही है क्योंकि, केवल पुण्यके प्रतापसे सब कुछ वशमें हो जाता है ।
१. इलेपालङ्कार - प. द.
7
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः
निजग्राहमहोद्धृतिः निजश्वासौ ग्राहश्च निजग्राहः तेन महोद्धृतिर्यस्य सः स्वकीयाङ्गीकारमहोदधृत इत्यर्थः । अर्थान्तरमुपन्यस्यते-हि स्फुट सर्वे वस्तुजातं पुण्यैकरूपेण कृत्वा वशमात्माधीनं जायत इति सम्बन्धः ।
___ भारतीयः---अत्रावसरे असौ कृष्णा द्रौपदी तं लोकप्रसिद्धं कीचकं निजग्राह निगृहीतवती । कैन कृत्ला ? विलासभावेन कटाक्षपातेन ! कथम्भूतम् ? विमानमा नीडां इन कारयनाम ? पुनः निस्त्रि निर्दयम् । कथम्भूतम् ? आहृतसूर्यहासमाहृतः लुमः ( लोपितः) सूर्यस्य हासो दीप्तिर्येनासौ चाहतसूर्यहासः तम् आइतसूर्यहासम् तिरस्कृतरविप्रतापमित्यर्थः । कथम्भूता महोद्धृतिः ? महेनोत्सवेन उद्धृतिर्यस्याः सा महोद्धृतिः उत्सवोद्धृतेत्यर्थः । युक्तमेतत् , हि स्फुटं पुण्यकरूपेण मनोहररूपेण सर्व घश स्यात् । अर्थान्तरन्यासालङ्कारः ॥४॥
इच्छाविमङ्गन न रन्तुकामं तं तेन निघ्ननियमेन सक्तम् ।
स्वस्थं परं ज्योतिरसौ चकार नश्यन्ति वाऽस्थानकृतप्रयासाः ॥५॥ इच्छेति-असौ लक्ष्मणस्तं नरं रामायणीयकथाप्रसिद्ध विमुक्तजटाजूटधारिणं शम्बुकुमाराख्यं परं केवल स्वस्थ स्वर्गस्थं चकार । कथम्भूतो लक्ष्मणः? तु पुनः ज्योतिः द्विरुक्तं क्षात्रं तेजः स्वयमेवेत्यर्थः । कय भूतम् ? सक्त सम्बद्धम् । केन ? नियमेन व्रतेन । कथम् ? कामम(त्यर्थम् । किं कुर्वाणो लक्ष्मणः १ तं शम्बुकुमारं स्वस्थं स्वर्गस्थं चकार ? तेन सूर्यहासाभिधानेन ख ग तं वंशजालं निघ्नन् संभिन्दन् । केन कृत्वा ? पुनः इच्छातिभङ्गेन, मूलावशेषमिदं वंशजालमेतेन खड्न छिन्झीति वाञ्छातिभञ्जनेनेति भावः। अर्थान्तरमभिधीयते-वा एवार्थसचकः । अस्थानक्रतप्रयासा नश्यन्त्येव ।
भारतीयः---असौ कृष्णा द्रौपदी तेन विलासभावेन कृत्वा तं कीचक नृपति स्वस्थं सुखिनं न चकार न कृतवती । कथम्भूता सती ? परं केवलं ज्योतिः स्वयमेव परमार्थतः पतिहतलक्षणं तेजः । कथम्भूतं कीचकम् ? न सक्तमनियन्त्रितपरिणामम् ! क ? नियमे व्रते । पुनः निघ्नं परदाररतम् । पुनः रन्तुकामं भोक्तुकामम् 1 केन कृत्वा ? इच्छाविभञ्जेन इन्द्रियाणां यथेट तृतिर्भवतात् तान्नदिमां भोक्ष्यामि पश्चाद्विरस्यामीति वाञ्छाभानभयेनेत्यर्थः । अर्थान्तरं प्राग्वत् ॥५॥
सुरासुरातिक्रमविक्रमस्य दशास्यनामोद्वहतः स्वसारम् ।
सुतापयोगादभवत्सुदुःखा कामेषु भग्नेषु कृतः सुखं वा ॥६॥ अन्वय-विलासभाधेन विलम्बमानं भाहृतसूर्यहासं निनिशं तं महोद्धतिः असौ निजमाह हि पुण्यैकरूपेण सर्व वर्श ।
इस अवसरपर भोगविलासकी इच्छासे पीछे-पीछे दौड़नेवाले, सूर्यकी हँसीसे भी तीक्ष्ण और उद्वेजक हँसी हँसते उस निर्दय कीचकको अत्यन्त उद्धत इस द्रौपदीने झिड़क दिया था । पुण्यमय आचरणके द्वारा सब कुछ सम्भच है ॥४॥
अन्धय-परं ज्योतिरसौ इच्छातिभङ्गेन तेन कामं तं निन्नन् नियमन सक्तं नरं स्वस्थं चकार । हि अस्थानकृतप्रयासा: नश्यन्ति ।
अत्यन्त तेलम्ची लक्ष्मणने इच्छामात्रसे बिपुल संहारकर्ता उस चन्द्रहास खड्ग-द्वारा यो ही वंशवन को काटते हुए वहीं परम तपस्यामें लीन शम्बुकुमारको भी स्वर्गीय कर दिया था। अस्थानपर किये गये प्रयन विनाशका ही कारण होते हैं।
अन्वय-."नियमेन सक्तं स्न्तुकाम, निनं तं तेन इच्छाप्तिभंगेन स्वस्थं न चकार ।
पतिव्रतके तेजसे भासमान द्रौपदी व्रत नियमादिक मंगकर्ता, रमण करनेके लिए व्याकुल, परस्त्रीगामी और अधम कीचकको उक्त प्रकारसे तर्जनापूर्वक मनोरथ भंग करके सदाचारी या शान्त नहीं किया था । ठीक ही है अपात्रके साथ किये गये सत्कर्म निष्फल ही होते हैं ॥५॥
- अन्वय-सुरासुरातिक्रमविक्रमस्य वशास्यनामोद्वहतः स्पसा सुतापयोगात् अरम् सुदुःखा अभवत् । चा कामेषु भन्नेषु सुखं कुतः?
१. श्लेपालकारः-प०, ०।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिसन्धानमहाकाव्यम्
सुरासुरति—सुतापयोगात् सुतस्यापयोगः सुतापयोगः तस्मात् पुत्रवियोगान् स्वसा भगिनी शूर्पणखानामधेया अरमत्यर्थ मुदुःखाऽभवत् सञ्जाता | कस्य ( स्वसा?) पुरुपत्येत्यध्याहार्यम् । किं कुर्वतः ? दशास्यनाम दशमुखाभिधानं रावणसंज्ञामुद्रइतः दधानस्य । कथम्भृतस्य ? मुरासुरासिक्रमविक्रमस्य सुरानासुराश्च गुरासुरास्तागतिक्रामति विक्रमो यस्य स तस्य तथोक्तस्य देवदानवोचिरापराक्रमस्य । अर्थान्तरमाहकामेष्वभिलाषु भग्नेषु नप्टेमु कुती वा सुखं स्यादिति सम्बन्धः ।
__ भारतीयः-सुताफ्योगात् सुतापसम्बन्धात् अस्य विराट भूपत्तिस्यालकस्य दशावस्था मुदुःखाऽतिदुःखाभवत् । किं कुर्वतः ? उहतः । किम् ? नाम । कथम्भूतम् ? स्वसारं मु अतिशयेनासारं कीचकमित्यर्थः । कथम्भूतस्य ? सुरामुरातिकमविक्रमस्य सुराः “रै शब्दे" इति धातोधिचि रूपं सुराणं मुराः सुराश्च मुरा च सुरासुरे सुरासुराभ्यां सकाशादतिक्रमो यस्यासो सुरासुरातिकमः ताहा विक्रमी यस्य स तस्य प्रलापमदिरानिरस्तविक्रमस्येति भावः । अथवा मुराः सु अतिशयेन राः प्रलापो यस्याः सकाशात्सा मुराः अतिप्रलापेति भावः । मुरा मदिरा । अतिक्रमः भायायामिव पुत्रीसावित्रीभगिनी मुरताभियाघरूपः । विक्रमः विगतनमः यदृच्छाप्रवृत्तिरित्यर्थः । मुराचारीी सुरा च सुरासुरा सुरामुरायाः सकाशादतिक्रमो वस्य सः तत्य सुरासुरातिकमस्येव विक्रमो यस्य स मुरासुरातिक्रमविक्रमस्तस्य अतिप्रमत्तस्य मद्यपत्येव यहच्छाप्रवृत्तिनिष्ठस्येति भावः । अर्थान्तरं न्यत्यति, कामेऽभन्नेषु कामस्य ये इषयो वाणास्तैर्भग्नेषु कन्दर्पशरजर्जरीभूतेषु विषये कुतो वा सुखं स्यादिति सम्बन्धः ॥ ६ ॥
वैरं तु कामं समुपेत्य रूपं तदीयमालोक्य च विश्रमन्तम् ।
इयाय संमोहनमन्तरेऽस्मिन्विव्याध वाणैर्मकरध्वजोऽपि ॥ ७ ॥ वैरमिति--सा स्वसा घूर्णपखा संमोहन वैचित्यमियाय गतवती । किं कृत्या ? पूर्व समुपेत्य संप्राप्य | किम् ? वैर शत्रुत्वम् । कथम् ? काममत्यर्थम् । किं कृत्वा ? पुनरालोक्य निरीक्ष्य। किम् ? रूपम् । कथम्भूतम् ! तदीयं तस्येदं तदीयम् | चकारः समुन्वयार्थः आलोक्व च, करा लक्ष्मणमित्य याहामिदं पदम् । कथम्भूतम् ! विभ्रमन्तमितस्ततः पर्यटन्तम् | तु पुनः अन्तरेऽस्मिन्प्रस्ताव ता रावणभगिनी मकरध्वजोऽपि कन्दर्पोऽपि विव्याध हतवान् । कैः कृत्वा वाणैः शरैरिति सम्बन्धः ।
देवों तथा दैत्योंके सम्मिलित पराक्रमले भी अधिक पराक्रमी दशानन नाम धारक लंकेश्वरकी बहिन शूर्पणखा अपने पुत्र शम्बुकुमारकी अपमृत्युके समाचारले अत्यन्त दुःखी हो गयी थी । मनोरथोंका भंग हो जानेपर सुख कहाँसे हो सकता है ?
अन्वय-सुतापयोगात् सुरा-सुरातिकमविक्रमस्य स्वसारं नामोद्वहसः अस्य दशा सुदुःखा अभवत् । वा कामेषुभग्नेपु कुत्तः सुखम् ?
अपमान और कामजन्य भीषण तापको कारण मदिरा पीकर प्रलाप और यदृच्छा आचरण-द्वारा ही अपने पराक्रम के प्रदर्शनमें लीन अत्यन्त भावहीन नाम कीचकले ख्यात इस विराट् नृपतिके सालेकी अवस्था अत्यन्त निन्दनीय हो गयी थी। कामदेवके बाणाका लक्ष्य बन जानेपर सुख कैसे मिल सकता है॥६॥
अन्वय-कामं वैरं समुपेत्य च विभ्रमन्तं तदीयं रूपं विलोक्य तु संमोहनम् इयाय अस्मिन् भन्तरे मकरध्वजोऽपि वाणः विथ्याध ।
वह सूर्पणखा उत्कृष्ट धैरसे प्रेरित हो लक्ष्मणके पास गयी और इधर-उधर भ्रमण फरते उसके लोकोत्तर सौन्दर्यको देखकर आश्चर्य है कि उस (सूर्पणखा ) पर संमोहन हो गया। इसी अवसरमें कामदेवने भी उस राक्षसीको अपने बालोंसे घायल कर दिया।
अन्यय-तदीयं रूपमालोक्य रन्तुकाम विभ्रमं तं समुपेत्य अस्मिन् अन्तरे मकरध्वजोऽपि पाणविव्याध च संमोहन इयाय ।
१. अर्थान्तरन्यासालङ्कारः-५०, ८० |
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः
७५
भारतीयः-तं विराटभूपतिदयालक कीचक संमोहनं कत्त न्याय जगाम । कथम्भूतम् ? तं रन्तुकामं संभोक्तुकामम् । कथम् ? वै स्फुटम् । किं कृत्वा ? पूर्व समुपेत्य प्राप्य । किम् ? तदीयं रूपम् । पुनः किं कृत्वा ? आलोक्य च । कं विभ्रमं भूविकारम् । अन्तरेऽस्मिन् वाणैः कृत्वा मकरध्वजोऽपि विव्याध । उक्तञ्च
"हावो मुखदिकारः स्याद्भाचः स्याञ्चित्तसम्भवः ।
बिलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भ्रूयुगान्तयोः ॥ ७॥ [ निश्वासमुष्णं वचनं निरुद्धं म्लान मुखाज हदयं हकपम्।
श्रमादिवाङ्ग पुलकप्रसङ्ग पदे पदेऽसौ बिभरांबभूव ॥ ८ ॥ निश्वासमिति--उष्णं निवासं नासावातं तथा निरुद्धं गद्गदं वचनं वाचं तथा म्लानं संकुचितं मुखाज वदनकमलं तथा सकम्पं हृदयं हृत् तथा पुलकप्रसङ्गं रोमाञ्चसम्बन्धि अझं शरीरं पदे पदे श्रमादिव असौ रावणभगिनी कीचको धा त्रिभरबिभूव वभार । पूर्वोक्तानिश्वासादिकं कर्मेति सम्बन्धः । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥८॥
श्वासानुबन्धात्परितापहेतोर्वाप्पानुपातान्मदनस्य पौष्पाः ।
शरा नु वातामिजलात्मकाः स्युरिति क्षणं चिन्तयति स्म किञ्चित् ॥ ९॥ श्वासेति-असौ रावणभगिनी कीचको वा चणं मुहूर्त तावत् किञ्चित् चिन्तयति स्म चिन्तितवती चिन्तितवांश्च । कथमिति श्वासानुबन्धात् नासा वातानुषङ्गात् परितापहेतोः सन्तापहेतोः बाप्पानुपातादश्रुजल प्रपतनात् एतेभ्यस्त्रियः कारणेभ्यः नु अहो मदनस्य कन्दर्परय पोल्पाः कुसुममयाः शराः वाणाः वाताग्निजलात्मकाः अनिलानलजलस्वभावाः स्युः भवेयुरिति सम्बन्धः । स्वभावाख्यानम् ॥ ९ ॥
विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्य स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम् ।
प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थ शब्दागमे प्राथमिकोऽभवद्वा ॥१०॥ विश्लेषणमिति-विश्लेषणं वियोजनं वेत्ति जानाति, सन्धिकार्य परस्परसंयोगविधानं न वेत्ति विग्रह कलहं वेत्ति समस्तसंस्थां सकलव्यवस्थां नैव वेत्ति प्रागेव प्रथमत एव हितार्थ स्वाथै तल्लोकप्रसिद्धं न वेत्ति ( वेवेक्ति) [ न जानाति ] न विचारयति इत्यनया युक्त्या स मदनः शब्दागमे शब्दश्चागमश्च शब्दागम समाहारापेक्षयैकत्वमत्र ध्वनौ साभस्त्यगतौ च । उपमार्थे प्रयुज्यते-प्राथमिक इवाभवत् संजातः शब्दागमे
द्रौपदीके लोकोत्तर सौन्दर्यको देखकर रमण करने के लिए व्याकुल अतएव विवेक पराङ्मुख उस कीचकको लक्ष्य बनाकर कामदेवने अपने बाणोसे छेद दिया था तथा उसे संमोहन (मूर्छा) में डाल दिया था ॥७॥
पद-पदपर इस सूर्पणखा अथवा कीचककी उष्ण श्वासे निकलती थीं, पचन गद्गद अथवा असम्बद्धसे निकलते थे, मुखकमल मुरझा गया था, हृदय धड़क रहा था, सारे शरीर में पैसा ही रोमाञ्च तथा पसीना हो रहा था जैसा कि परिश्रमसे होता है ॥ ८॥
वह एक क्षण पर्यन्त कुछ ऐसा सोचते थे-अहो कामदेयके पुष्पमय धाण भी वायु, अग्नि और जलमय होने चाहिये क्योंकि इनके लगते ही दीर्घ श्वासें चलती है, सारे शरीर में भीषण दाह होता है तथा आँखोंसे अश्र टपकने लगते हैं ॥९॥
वह कामदेव वियोग कराना जानता है संयोग नहीं कराता है। विपरीत आचरण करता है अनुकूल रूपसे नहीं रहता है, प्रारम्भसे ही भला करनेका प्रयत्न नहीं करता है अतएव वह व्याकरण अथवा आगमके अल्पक्षके समान है-[व्याकरण शास्त्रका प्रारम्भिक छात्र भी अलग-अलग (विसन्धि) पदीका प्रयोग करता है क्योंकि संधि करना नहीं जानता है । केवल विग्रह (पदोंका अर्थ) करता है कृदन्तादि अन्य कार्य नहीं जानता और न तद्धित'
1. अत्र श्लेषालङ्कारः-प०, द० ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
द्विसन्धानमहाकाव्यम् व्याकरणे कश्चित् पुमान् प्राथमिको जायते अनया वक्ष्यमाणापेक्षया विश्लेषणं विसन्धि येत्ति सन्धिकार्य मन्योन्यवर्णाश्लेषलक्षणं विधानं न वेत्ति, विग्रहं समास (वृत्त्यर्थबोधक वाक्यं ) वेत्ति सकलसंस्था समस्तनाम क्रियादिस्थितिं प्रागेव पूर्वत एव तद्धितार्थं च न येतीति सम्बन्धः ॥१०॥
स रोपणान्पश्च मयि प्रयुज्य शेषं जनं हन्ति तु चापयष्टया ।
संतापको नो घटको मनोभृरयस्कृतो पाल' इवेति दध्यौ ॥११॥ स इति–अहो स मदनः रोपणान् मदनोन्मादनमोहनसन्तापनवशीकरणलक्षणोपलक्षितान् वाणान् पञ्च मयि प्रयुज्य संस्थाप्य तु पुनः शेषं जनं चापयष्ट्या धनुर्लतया हन्ति हिनस्ति । अतएव मनोभूः मकरध्वजः सन्तापको नो घटकः । क इव यथाऽयस्कृतो लोहकारस्य बालः शिशुः इव यथा । इति ध्यौ चिन्तितवती चिन्तितवांश्च रावणस्वसा कीचकश्चेति ॥११॥
तस्या विशेषेण कृताभिलाषात्तापेन गण्डूषविमुक्तमम्भः ।
शुचौ करेणोरिव दारणेन मृषागतं ताम्रमिवोष्णमासीत् ॥१२॥ तस्या इति–तस्याः शूर्पणखायाः विशेषेण अतिशयेन कृताभिलाषात् लक्ष्मणविषयकातिरागात् दारुणेन उप्रेण तापेन सन्तापेन शुचौ ग्रीष्मे काले करेणोईस्तिन्या इव गण्डूषविमुक्तं कुललिकाच्युतमम्भः सलिलमुष्णमासीत् सञ्जातम् । तत् किमिव ? ताम्रमिव । कथम्भूतम् ? मूषागतं सदिति सम्बन्धः । भारतीयः-तस्य फीचकस्य अविशेषेण सामान्येन शेष 'प्राग्वत् ।।१२।।
तस्यावतंसोत्पलपत्रमैत्री गतैः कटाक्षर्विवशान्तरात्मा।
नाजीगणन्मानमसौ कुलञ्च कामातुराणां हि कुतो विवेकः ॥१३॥ तस्या इति-असौ रावणस्वस्वा शूर्पणखा मानं कुलञ्च नाजीगणत् न गणयाञ्चकार । कथंभूता सती ? अवतंसोत्पलपनमैत्री कर्णभूषणीभूतकुवलयदलसखित्वं गतः तत्य लक्ष्मणस्य कटाक्षः विवशान्तरात्मा विह्वलचेतस्का | अर्थान्तरमाह-कामातुराणां हि स्फुट विवेकः कुतः ? ही जानता है । आगोका अभ्यासी भी कार्य विशेषका विचार कर्ता व्यापक सामान्यको भूलता है, विवाद करता है, समन्वय नहीं सोचता और अभ्युदय निश्रेयसके लिए प्रयत्न नहीं करता है ] ॥१०॥
अपने पाँचो ही वाणोंका मेरे ऊपर प्रहार करके समस्त लोकोंको यह कामदेव धनुषकी लकड़ीसे ही मारता है। फलतः लुहारके बालकके समान यह जलन पैदा करता है मिलाता नहीं है [लुहारका बच्चा धौंकनीको चलाकर आग ही प्रज्वलित करता है वस्तुओंको गढ़ता नहीं है ] ॥ ११ ॥
लक्ष्मणके ऊपर विशेष रूपले अत्यालक्ति होने के कारण सूर्पणखाको गर्मी में हथिनीके समान दारुण विरह ताप हो रहा था अतएव कुल्ला करके जो पानी बह मुखसे फेकती थी वह गलानेके साँचे में पड़ी तान धातुके समान होता था।
द्रौपदीपर अत्यन्त मोह होनेके कारण कीचककी भी वही अवस्था हो गयी थी जो गर्मीमें हथिनीकी होती है। मुखसे वैसा ही उष्ण पानी निकलता था जैसा कि घरियामें तपाया गया लाल धातु होता है ॥ १२॥
कर्णके भूषण नीलकमलोंकी पंखुड़ियोंके मिश्र उस लक्ष्मणके दीर्घ कटाक्षोंसे आत्मविस्मृत रावणकी बहिनको न तो अपने मानका विचार था और न अपने पुलस्त्य फुलका ही ध्यान था । उचित ही है क्योंकि कामातुर लोर्गोको विवेक नहीं होता है।
१. श्लेपोपमालङ्कारः-प.६. । २. धातद० । ३. श्लेषोपमालङ्कारः-प. द. । ४. दारुणेनेति पाठः प्रतिभाति । ५. इलेपोपमाऽलङ्कारः-५०, द० ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः भारतीयः तस्याः द्रौपद्याः वर्तसोत्पलपत्रमैत्री गतैः कटाक्षैः, शेषं प्राग्वत् , असौ कीचकः । अर्थान्तरन्यासालङ्कारः ॥१३॥
तत्रैव चेतोनयनेन्द्रियेषु स्थितेषु दूतेष्विव लोभितेषु ।
जातेषु चान्त प्रकृतिक्षतेपु देहावशेषेण कथश्चिदस्थात् ॥१४॥ तौति-असौ रावणरचसा कश्चिमहता काप्टेन देहावशेषेण शरीरमात्रेणास्थात् स्थितवती । कैषु सत्तु ? नेतोनयनेन्द्रियेषु मनःस्पर्शनरसनानासानेत्रश्रवणेषु घटमु तत्र लक्ष्मणे स्थितेषु सत्सु । कथम्भूतेषु ? लोमितेषु । केबिन ? दृतेग्विव । चकारः समुच्चयाः । अन्तःप्रकृतिक्षतेषु अन्तरङ्गस्वभावनाशेषु च जातेषु सत्स्विति सम्बन्धः ।
भारतीयः-तत्रैव द्रौपद्यामेव लोमितेषु दूतग्विध चेतःप्रभृतिषु स्थितेषु अन्तःप्रकृतिक्षतेषु स्वाम्यादिप्रकृतिनाशेषु जातेषु सत्सु देहायदोपण कञ्चिदग्यात् तस्थौ चीचक इति राम्बन्धः ॥१४॥ . ततश्चकाङ्क्ष स्मरमोहहेतुं बलाद्ग्रसीतुं सविणेदेवाः ।........ .
तान्तापयुक्तस्थितिरेत्य सान्तं नाशे हि जन्तुं मतिरप्यपैति ॥१५॥ तत इति-ततः चिन्तयाऽस्थिचविशेषदारीरावस्थानन्तरं सा राक्षणस्वसा बलाइटेंग स्मरमोहहेर्नु कन्दपवैचित्यकारणं लक्ष्मणं चकांश्च वाञ्छति स्म 1 किं कर्तुम् ? गृहीतुमङ्गीकम । किं कृत्वा ? पूर्वमेत्यागत्य प्राप्येत्यर्थः । कम् ? सान्तं साया लक्ष्या अन्तः विनाशः सातः मङ्गलावण्यवानिग । कथम्भूता सती ? सविशीणचेताः विशीणच तच्देशन चिशीण क्षेतः विशीर्णचेतमा सह वर्षमाना सदिशीणचेताः कामोद्रेकनष्टचितेत्यर्थः । पुनः तान्ता क्षीणा । पुनः अपयुक्तहितिरपयुक्ता स्थितिभन्या अन्यायमार्गप्रवृत्तिः। 'अर्थान्तरमाहहि स्फुट जन्तु मामिल ना मरण काले मातरपति सजति का वा न्वामिति सम्बन्धः ।
भारतीयः-स कीचकः वात् स्गरमोइहेतुं तां द्रौपी गृहीतुं चकांक्ष । कथम्भूतः ? तापेन युक्ता स्थितिर्थस्य सः सापयुक्तस्थितिः कामज्वरजनितावत्यः । झोषं पूर्ववत् ||१५||
कर्णके भूषण नीलकमलों के दलों तक फैली द्रौपदीकी चंचल आँखोंकी चितवनने कीचकके मनको अभिभूत कर लिया था भतपय उस कामीको अपने स्वाभिमान या कुलका ख्याल न था ॥ १३ ॥
सूर्पणखा अयथा कीचकके मन, नयन आदि इन्द्रियाँ लोभी दूतोंके समान लक्ष्मण अथया द्रौपदी में ही लीन हो जानेसे उसका अन्तरंग स्वभाव (चेतना) खण्डित हो गयी थी अतएव वह किसी प्रकार शरीरसे ही जी रहे थे।
कामिनी काञ्चन-पदादिके लोभके कारण दूत रूपी इन्द्रियाँ शत्रुके वशमें हो जानेपर तथा अपनी प्रकृतिके विरुद्ध हो जानेपर राजाका राज्य भी उसके शरीरमें ही सीमित हो जाता है ॥ १४ ॥
__ अन्धय-ततः सचिशी.., तान्ता, भपयुक्तस्थितिः सा अन्तं एत्य स्मरमोहहेतुं इलाग्रहीतु चकांक्ष । नाशे मतिरपि जन्तुं अपैति ।
इसके बाद दुर्घल शरीरधारिणी तथा अमार्गमें प्रवृत्त उस सूर्पणखाने मनके अत्यन्त विक्षिप्त हो जानेसे अन्त में अपने काम-धरके कारण लक्ष्मणको बलपूर्वक पकड़नेकी इच्छा की। विनाशके समय प्राणीकी बुद्धि भी थिगड़ जाती है।
अन्वय-सान्तं एत्य विशीर्णचेताः तापयुक्तस्थितिः स ।
इसके अनन्तर अनहोनीके आ जाने के कारण दुर्यल मन तथा विरह तापमें धंधकते उल कीचकने द्रौपदीको जबरदस्ती पकड़ बुलानेको ठानी थी क्योंकि 'विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥ १५ ॥
१. श्लेषालङ्कारः-५०, द० । २. अर्थान्तरन्यासालङ्कारः-प०, द. ।
--------... -----
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिसन्धानमहाकाव्यम्
आकारमादाय विनीतवेषं शृङ्गारमारोप्य यथाभिजातम् । कथश्चिदभ्येत्य कृतावगूढं प्रचक्रमे वक्तुमिति प्रसन्नम् ||१६||
आकारमिति - इति वक्ष्यमाणापेक्षया शूर्पणखा कीचकश्च वक्तु भाषितुं प्रचक्रमे प्रारे । कथं यथा प्रसन्नम् । किं कृत्वा ? पूर्वमभ्येत्यागत्य | कथम् ? कथञ्चिन्महता कष्टेन । कथम् ? यथा कृतावगृढ़ किञ्चिलोचने चरणौ च बहिः कृत्वा कृतशरीरावरणं यथा भवति । किं कृत्वा ? पूर्वमारोग्य गृहीत्वा । कम् ? शृङ्गारम् | कथम्भूतम् ? विनीतवेषं विनीतो वेषो यत्र तम् । कथम् ? यथाऽभिजात्तभवसरोचितम् । किं कृत्वा ! पूर्वमाकारकोपप्रसादजनितशरीर प्रकृतिमादाय गृहीत्वा ॥ १६ ॥
७८
जानामि किञ्चिन्त्रपया न वक्तुं विवक्षितं सूचयति व्यवस्था |
सत्यां कियत्यामपि संवृतौ हि दुःखं सुखं वा निगदन्ति चेष्टाः ||१७|| जानामीति - त्रपया लज्जया किञ्चिद्वत्तुं न जानामि न वेद्मिविवक्षितं वक्तुमिष्ट' व्यवस्था दशा कर्त्री सूचयति कथयति । हि स्फुटं कियत्यामपि संवृतौ कल्पनायां सत्यां सुखं दुःखं वा कर्म चेष्टाः प्रवर्त्तनाः निगदन्ति कथयन्ति ॥ १७॥
श्रव्याणि वाचालतयैव तन्व्या त्वया मयोक्तानि मनीषितानि ।
गवाक्षजालीकृतचेतसो मे स्मरस्य वाणैः शरणं भव त्वम् ॥१८॥
श्रव्याणीति-तन्व्या कृशाङ्ग्या मया शूर्पणखया वाचालतयैव मुखरतयैव उक्तान्यभिहितानि मनीषितानि अभिलषितानि स्वया लक्ष्मणेन श्रव्याणि अतएव स्मरस्य मदनत्त्व वाणैः गवाक्षजालीकृतचेतसः छिद्रीकृतमनसः मे त्वं शरणं भव ॥१८॥
शाङ्ग पिनाकं धनुरिन्द्रचापं दिव्यं वहन्तोऽपि न जेतुमीशाः । शरासनं पौष्पमयं दधानस्त्रैलोक्यमालीढगतं करोति ॥ १९ ॥
शार्ङ्गमिति - शार्ङ्ग शृङ्खविकारं धनुः नारायणः पिनाकम् अपि समन्तात् नाके स्वर्गे भवं पिनाक पृष्ठोदरादित्वादाद्यस्य अकारस्य लोपः । लोकप्रसिद्ध पिनाक धनुरीश्वरः, इन्द्रचापं दिव्यं दिवि भवं गगनसमुद्भवं धनुः इन्द्रः, एवमेते हरिहरसुरेन्द्राः स्वकीयं स्वकीयं धनुः कर्मभूतं वहन्तोऽपि त्रैलोक्यं त्रिभुवनं कर्म
शिष्ट वेष बनाकर, कुलीनोंके उपयुक्त शृङ्गार करके तथा प्रसन्न मुखादिकी मुद्रा करके अपने वास्तविक रूपको सर्वथा छिपाकर किसी प्रकारसे लक्ष्मण अथवा द्रौपदीके पास पहुँचकर उस सूर्पणखा अथवा कीचकने निम्न प्रकारसे बातें कहनी प्रारम्भ की श्रीं ॥ १६ ॥
मैं लज्जाके कारण कुछ भी कहना नहीं जानती (ता) हूँ। मेरी शारीरिक दशा ही मेरे भावको स्पष्ट कर रही है। कितना भी छिपानेका भगीरथ प्रयत्न करनेपर प्राणीकी चेष्टाएँ उसके सुख अथवा दुःखको प्रकट कर देती हैं ॥ १७ ॥
कामवेदना कृश शरीर मुझ सूर्पणखाद्वारा वाचालता पूर्वक प्रकट किये गये मनके भाव तुम्हें सुनना ही चाहिये । कामदेवके याणौने मेरे मनको छलनी बना दिया है अतएव आप मुझे शरण देवें ।
पुरुष सुलभ वावदूकता पूर्वक मुझ कीचक द्वारा कही गयी मनकी बातको कृशांगी तुम्हें ध्यान से सुनना चाहिये ॥ १८ ॥
लोकोत्तर (शाङ्ग) सींगसे बने धनुषका धारी तथा स्वर्गीय इन्द्र धनुषधारी देवेन्द्र भी त्रिलोकको जीतनेमें समर्थ नहीं होते हैं किन्तु यह कामदेव केवल फूलोंसे बने धनुषको ही उठाकर तीनों लोकोंको अपने एकतन्त्रमें मिला लेता है ॥ १९ ॥
१. अर्थान्तरन्यासाऽलंकारः - प०, ६० ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९
पश्चमः सर्गः भूत जेनुमभिभवितुं न ईशा: न समर्थाः । अयं स्मर: "कर्ता' पौष पापाणामिदं पौष्पं कुसुममयं शरासनं धनुः "कर्म" दधानः धरन् त्रैलोक्यमाली ढगतम् आलीढः स्थानविशेषः तद्गतं करोति आलीढमध्यवर्ति विदधाति ॥१९॥
त्वं जीविकाकृत्य निदेशमिच्छु प्रतीच्छ मां भक्तियुजं दयात्मा ।
तवास्मि दासी वशवर्तिनी मे त्वयि स्थितं जीवितमित्यवेहि ।।२०।। स्वमिति-हे लक्ष्मण त्वं भवान् प्रतीच्छ स्वीकुरु । काम् ? भाम् । कथम्भूतस्त्वम् ? दयात्मा कारुण्यमूर्तिः । कथम्भूतां माम् ? भक्तियुजं सेवापरिणताम | पुनः इच्छुमिच्छन्तीम् | कम् ? निदेशमादेदाम् । किं काचा ? पूर्व जीविकाकृत्य जीविकामिव कृत्वा । कम् ? त्वां भवन्तम् | उत्तराई सोपस्कारतया व्याख्यायतेयस्मात्कारणात् तव भवतः दासी चेटी अस्मि भवामि । कथम्भूता ? वशतिनी आशाविधाचिनी । तस्मान्मे मम सम्बन्धिल्येन जीचितं प्राणनं त्वयि भवति स्थितमित्यवेहि जानीहि त्वमिति सम्बन्धः।
भारतीयः-हे द्रौपदि त्वं भवती मां कीचकनामधेयं नृपं प्रतीच्छ। कथम्भूता सती ? दवात्मा । कथम्भूत माम् ? भक्तियुजम् । पुनः इच्छुमिच्छुक निदेशमन्यत्पूर्ववत् ॥२०॥
सम्भाषणेनापि न मे विषादं विषादभावेन जिहीर्षसि त्वम् ।
नाभाषणं कल्पतरोस्तवापि फलान्तरायाय हि कल्पयन्ति ॥२१।। संभाषणेनेति-हे लक्ष्मण स्वं भवान् मे मम बिघादं भनोग्लानि सम्भाषणेन कृत्वा जिहीर्षसि हत्तुमिच्छसि । नापि विषादभावेन क्रूरपरिणामेन । युक्तमेतत् । हि स्फुट कल्पतरोः कल्पवृक्षस्य तव भवतः अभाषणमपि न कल्पयन्ति न आमगन्ति विद्वजनाः कस्मै फलान्तरायाय फलविघ्नायेति सम्बन्धः ।
भारतीयः-पूर्वाधे हे द्रौपदि, त्वं भवती मे मम कोचकास्येति ज्ञेयम् । अस्योत्तरावें भवत्या इति बोद्धव्यम् । अर्थवशाद्विभत्तिविपरिणामत्वादिति सम्बन्धः ॥२१॥
कथां तदीयां स निशम्य भीमः प्रभाव्य सौमित्र्यभिधानरूहः ।
राजाग्रजादर्शितकार्यसिद्धिरन्तर्मदोन्त कुपितः करीव ॥२२॥ कथामिति-स लोकप्रसिद्धः राजा नृपः तथा कुपितवान् । कथम् ? अन्तः (अन्तः) करणे । कथम्भूतः ? सौमित्यभिधानरूदः सौमित्रिनामप्रसिद्धः लक्ष्मण इत्यर्थः । पुनः कथम्भूतः १ अन्तर्मदः त्रैलोक्यमध्ये न कश्चिन्ममोपरि तिष्ठतितरा मिति गर्विष्ठः । पुनः' अग्रजादर्शितकार्यसिद्धिः अग्रजस्य रामस्य आदर्शिता
हे दयालु लक्ष्मण ! भक्तिपूर्वक सेवामें उपस्थित तथा आजीविका करनेवाली दासीके समान और तुम्हारी आज्ञाकी प्रतीक्षामें खड़ी मुझको स्वीकार करो । मैं तुम्हारी अत्यन्त अनुगत दासी हूँ। यही समझो कि मेरा जीवन तुमपर आश्रित है।
अन्वय-वशघर्तिनी दासी दयात्मा त्वं भक्तियुजं निदेशमिच्छु मां प्रतीक्ष तव जीविका कृत्यास्मि ।
विराट के यहाँ आक्षाकारिणी दासी तुम कृपामूर्ति द्रौपदी प्रेमसे प्रेरित और तुम्हारे संकेतकी प्रतीक्षामें खड़े मुझे कृतार्थ करो मैं तुम्हारी दासताका अन्त कर दूंगा क्योंकि मेरा जीवन इस समय तुम्हारे हाथमे है ॥ २०॥
कुपित अधवा दुःखी होकर तुम (लक्ष्मण अथया द्रौपदी) चार बातें कहकर भी मेरे मनके शोकको दूर नहीं करते (करती) हो [कोई बात नहीं] कल्प वृक्षके समान आपका भी मौन मेरी इच्छित वर-प्राप्तिमें बाधक न होगा [अभाषण (गाली) देनेपर भी कल्पवृक्ष इच्छित फल देते है] ॥ २१॥
अन्यय-सौमित्यभिधानरूदः सः तदीयो कथां निशम्य भीमः राजाग्रज-आदर्शित कार्यसिद्धिः अन्तर्मदः करीव अन्तः कुपितः । __सौमित्र्य (सुमित्राका पुत्र) नामसे ख्यात वह लक्ष्मण सूर्पणखाकी वीभत्स प्रेम-चर्चाको
१. श्लेषालङ्कारः-१०, द० । २. अर्थान्तरन्यासालङ्कारः-५०, द० ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् ...... ........... .. .. . कार्यसिद्धिर्येन स तथोक्तः । पुनः भीमः भयोत्पादकः । किं कृत्वा ? पूर्व प्रभाव्य पर्यालोच्य | पुनः कथां वार्ता निशम्य श्रुत्वा । कयम्भूतां कथाम् ? तदीयां शूर्पणखीयाम् । उपमार्थः प्रदर्श्यते करीव । इव यथार्थे । यथा करी इस्ती कुन्यति । कथम् ? अन्तः । कथम्भूतः १ अन्तर्मदः बहुमूत्रसवणादिमान | पुनः राजायजादर्शितकार्यसिद्धिः राशोऽग्रजः राजाग्रजः राजपयोग्यः आदर्शिता कार्यासद्धियेन स आददितकार्यसिद्धिः प्रकटितात्रुजयमासिः राजाराजश्वासी आदर्शितकार्यसिद्धिश्च राजानजादर्शितकार्यासद्धिः । पुनः भीमः रौद्रः सन् । पुनः सौमित्यभिधानम्टः शोभनं मित्रं यस्य सः मुमित्रः तस्य भावः सौमित्री सोगियामिधानं सौमित्यभिधानं तस्मिन् रूढः अव्यभिचारितया वीरसन्तर्जनसहाय इत्यर्थः । किं कृत्वा ? पूर्व प्रभाव्य संगथों भूत्वा । पुनस्तदीयां हस्तिसंबन्धित्वेन लोकप्रसिद्धः सः महामात्रकः तस्येगा तदीयां यन्नुसम्बग्विनी शिक्षालापादिलक्षणां कथां सङ्केतं निशम्याकगर्छ ।
भारतीयः-भ लोकविख्यातः राजा भीमः द्वितीयपाण्डवो भीगरोनः पितः । किं कृत्या ! पूर्व तदीयां कीचकसम्बन्धिी कथां निशम्य । कथम्तो भीमः ? प्रभावी माहात्म्यवान् प्रतापी च | पुनः मित्यभिधानरूदः मित्रमस्यास्तीति मिति भित्रि च तदभिधानश्च मित्र्यभिधानं रूढं यस्य स भिव्यभिधानरूढः मैत्री प्राप्त इत्यर्थः । छा असो कृपाणे । पुनः कथम्भूतः ? अग्रजस्य युधिष्ठिरस्य आदर्शितकार्यसिद्धिरित्यभिप्रायो धनञ्जयस्य कवेः । अथवा राज्ञो युधिष्ठिरस्य परेषां राज्ञो वाऽग्रजा भाविनी आदर्शिता कार्यसिद्धियन स तधोक्त इति विशेषो नेमिचन्द्रमुनेः । पुनरन्तर्मदोऽहकारी । अत्र करीयोपमार्थः पूर्वोपन्यासोपक्षिसः पूर्वबरोद्धव्य इति सम्बन्धः । श्लेषोपमा ॥ २२ ॥
अभ्येत्य निर्भय जगाद वाचं स्त्रीत्वं परागच्छ न वध्यत्तिः ।
प्रेलोलिताङ्ग रसनाकरेण मृत्योदिजान्दोलनमिच्छसीव ||२३|| अभ्येत्येति-स लक्ष्मणः पाचं वचनं जगाद उक्तवान् । किं कृत्वा ? पूर्व निर्मस्य सन्तय॑ । किं कृत्वा ? पूर्वमन्येत्य सम्मुखीभूय । सोपस्करतया व्याक्रियते कस्मात्कारणात् परा परकीया भार्या । अतः कारणात् गच्छ याहि । तथा सति म जायसे त्वम् । कथं भूता ! वध्यवृत्तिः मारणयोग्येत्यर्थः । यत इच्छसीव वाञ्छसीच त्वम् । किम् ? द्विजान्दोलनं दन्तोत्पाटनम् । कस्य मृत्योरमस्य । कथम्भूतम् ? प्रेहोलिताङ्ग प्रेडोलितं दोलितमङ्ग यत्र तत् दोलायितशरीरम् । केन कृत्वा ? रसनाकरण जिल्लाहस्तेनेति सम्बन्धः । सुनकर रुद्र हो गया था तथा राजा बड़े भाई (राम) की सेवा तथा सफलता ही एकमात्र आदर्श होने के कारण स्वाभाधिक मनस्वी वह हाथीके समान धास्तवमें कुपित हो उठा था।
अन्वय-अन्तर्मदः, राजाग्रजादर्शितकार्यसिद्धिः, भीमः करी तदीयां संकथा निशम्य प्रभाव्य सौमिश्यभिधानरूतः इव अन्तः कुपितः ।
मदावस्थाको प्राप्त अतएव भयंकर तथापि राजाकी सेनाओं आगे-आगे चलनेवाला तथा विजय और सफलताका प्रतीक हाथी हस्तिपकके (व्यर्थ) उपदेशको सुनकर तथा उस. पर विचार करके लक्ष्मणके समान मन ही मन रुष्ट हो गया था।
___ अन्वय-अन्तर्मदः, प्रभावी, असी मियभिधानरूढः, राजाप्रजादर्शितकार्य-सिद्धिः स मामः तदीयां कां निशम्य करीब अन्तःकृषितः ।।
स्वभावसे ही अहंकारी, अत्यन्त प्रभावशाली, खगसे प्रीतिके लिए आख्यात अर्थात् गदा चालक ज्येष्ठ नाता राजा युधिष्ठिर अथवा भविष्यमें होनेवाले न्यायी राजाओंकी सफलताको ही आदर्श माननेवाला यह भीम फीचकके नीच प्रस्तावको सुनकर उन्मत्त हाथीके समान क्रोधसे जल उठा था ॥ २२ ॥
___ अन्वय-अभ्येत्य, निर्भत्स्य वार्च जगाद, त्यं परा-स्त्री, गच्छ, न वध्य वृत्तिः रसनाकरेण प्रेखोलि. ताज मृत्योः द्विजान्दोलनम् इच्छसि।
सूर्पणखाकी ओर मुड़ते हुए लक्ष्मणने भर्त्सनाके साथ कहा था-परायी स्त्री हो इस. लिए चली जाओ । तुम स्त्री हो इसीलिए तुम्हें मारता नहीं हूँ, यद्यपि तुमने जिह्वारूपी हाथके द्वारा मौत के शरीरको हिलाकर उसके दांत तोड़ते ऐसी मूर्खता की है।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसम्धानमहाकाव्यम्
काष्ठां गिलन्तीव भुवं वियच्च भित्वा व्रजन्तीव मनो जनानाम् । विदारयन्तीव वचस्यवोचत् सामान्यवृत्तिः स महानियोगात् ॥ २७ ॥ काशमिति - सा रावणस्वसा वचांस्यवोचत् । कथम्भूता ! अमान्यद्वृत्तिः न मान्या वृत्तिर्यस्या असौ निन्द्याचारेति । कस्मात् ? समहा नियोगात् शम्बुकुमारविरहो लक्ष्मणसम्भोगवैयर्थ्यमिति युगपद्धानिसम्बन्धात् । किं कुर्वाणेन ? काठां दिशं गिलन्तीव वजन्तीव । गच्छन्तीव । किं कृत्वा ? पूर्व भिला विदार्य | काम् ? भुवं पृथ्वीं वियच्च गगनञ्च । पुनः जनानां मनः विदारयन्तीव ।
ર
भारतीयः - स कीचकः वचांस्यवोचत् । कथम्भूतः १ सामान्यवृत्तिः साम्नोऽन्यो दण्डः तस्मिन् वृत्तिः वर्त्तनं यस्य सः । कस्मात् ? महानियोगात् गुरुतर निबन्धात् । किं कुर्वन्तीव वचांसि ? काष्ठां गिलन्तीवेत्यादि द्वितीयाचहुवचनान्तानि वचांसीत्यस्य विशेषणानि समानार्थानि प्राग्वत् ॥ २७ ॥
नात्यातं प्रतियुज्य चाचा बहुप्रलापिन्नपयाति जीवन् ।
भवानभिज्ञः खरदूषणस्य नाद्यापि युद्धेषु पराक्रमस्य ॥ २८ ॥
नेति - हे बहुप्रलापिन् लक्ष्मण जीवनापयाति नापसरति । कया ? वाचा वचनेन । किं कृत्वा ? पूर्व प्रतियुज्य प्रविधाय | कम् ? अपत्यधातं पुत्रवधम् । यतोऽद्यापि साम्प्रतमपि अभिशो न कुशलो न भवति भवान् । केषु खरदूषणस्य युद्धेषु रणेघु । खरदूषणं समाहारापेचयैकत्वम् । कथम्भूतस्य ? पराक्रमस्य परान् शत्रून् आक्रमतीति पराक्रमः तस्य ।
भारतीयः - हे बहुप्रलापिन् हे भीम वाचा कृत्वा जीवन्नापयाति । किं कृत्वा ? पूर्व प्रतियुज्य सम्बध्य | कम् ? घातं वधम् । किं कृत्वा ? पूर्वमापत्यासत्य | पत्माकारणात् जयापि नाभिज्ञः न प्रारंभः ।
अन्वय - अमान्यवृत्तिः काष्ठां गिलन्तीय, भुवं वियच्च भित्वा ब्रजन्तीव जनानां मनो विदारयन्ती सा समहानियोगात् धर्चासि अवोचत् ।
निन्दनीय आचरणमें लीन वह सूर्पणखा दिशाओंको निगलती हुई के समान, पृथ्वी और आकाशको नष्ट करके भागती हुई के तुल्य तथा लोकोंके मनोंको फाड़ती हुई सी एक ही साथ दो-दो (पुत्र-मरण, प्रिय-द्वारा तिरस्कार) हानि होनेके कारण लक्ष्मणसे बोली थी ।
अन्वय - सामान्यवृत्तिः स महानियोगात्... 1
राजाके द्वारा भी दण्डनीय आचरणशील वह कीचक अत्यन्त आसक्त होनेके कारण दिशाओं में व्याप्त, पृथ्वी और आकाशको एकमेक करनेवाले तथा लोकोंके हृदयों को दद्दलाते वचन बोला था || २७ ॥
अन्य - बहुप्रलापिन अपव्यघातं प्रतियुज्य वाचा जीवन् नापयाति । युद्धेषु अद्यापि पराक्रमस्य खरदूषणस्य भवान् अभिज्ञः न ।
भरे बहुत बोलनेवाले लक्ष्मण ! मेरे पुत्र शम्बुकुमारको मारकर केवल बातें बनाकर ही जीवित वापस न जा सकोगे। युद्धोंमें आज भी शत्रुओंपर टूटनेवाले खरदूषणको आप जानते नहीं हैं !
अन्वय-- बहुप्रलापिन् ! आपत्य वाचा वातं प्रतियुज्य जीवन् न अपयाति भवान् अद्यापि युद्धेषु पराक्रमस्य खरदूषणस्य अभिज्ञः न ।
भरे व्यर्थ ही बड़बड़ानेवाले ! अकस्मात् आकर कोलाहल द्वारा मेरे इष्ट कार्य में बाधा डालकर जीवित वापस नहीं जा सकते हो आज भी आप नहीं जानते हैं कि
१. श्लेषाऽलङ्कारः - प० द० ॥
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः
TIMES सतGिIFDPER
म युद्धघु । कस्य ? पराक्रमस्य पौरुषस्य । कथम्भूतस्य ? खरदूषणस्य खरं दूषणं यस्मात् यस्मिन्वा स्प तथोक्तस्प तीवापराधस्येल्यर्थः । श्लेषालङ्कारः ।। २८ ॥
वैरायते मे मतिरस्ति शक्तिरागच्छ सम्पादय सम्परायम् ।
वेत्सि प्रतापं रिपुवंशदावं कथं न मत्तो दशकन्धरोत्थम् ॥ २९ ॥ वैरायत इति- हे लक्षा। काम मतिशः रयते मैं करोति ! यदि शक्ति लमस्ति सदागच्छ एहि सम्परार्य युद्धं सम्पादय देहि । मत्तः सन् दशकन्धरोल्थ दश कन्धरा ग्रीवा यस्य तस्माद रावणादुत्थं प्रताप पौरुषं कथन वेत्सि न जानासि । कथम्भूतं रावणीयप्रतापम् ? रिपुवंशदावं विपक्षान्वयदावानलम् ।
भारतीयः--हे भीम मे गम मतिरायते । शक्तिरस्ति चेत् आगच्छ । मत्तः मत्सकाशात् सम्परायं सम्पादय । प्रतापं कथं न वेसि । कथम्भूतं प्रतापम् ? रिपुवंशदावं रिपु वंशं घन्ति छिन्दन्ति रिपुवंशदाः शत्रुकु.लोच्छेदकाः पुरुषास्तान् अ
विस्तम् । पुनः दशक दश अवयवा यस्य तं दशकम् । पुनः धराया उत्था उत्थानं यस्मादसौ घरोत्थरतं धरोत्थं धरोद्धरणसमर्थमित्यर्थः । दशकलक्षणम्
"सत्यं शौचं तथा शौर्य स्थैर्य धैर्य सुदी(धी)रता । क्षमा गम्भीरता चैव नैष्ठ्यं चापि मन्त्रिता । एतैरवयवैर्युक्तो विजिगीषु महीपतिः ।
प्रतापेन' विपक्षाणां दुर्निवार्यो भवेद्धवम् ॥" इलेषालङ्कारः ॥ २९॥
इतीरयित्वाऽहितकम्पवेगं दष्टाधरं स्फारितरक्तनेत्रम् ।
भ्रभङ्गजिह्म कृतसिंहनादं जग्राह कायं भरतान्वयस्य ।। ३० ॥ इतीति-असौ शूर्पणखा कायं शरीरं जग्राह गृहीतवती । कस्य ? भरतान्वयस्य लक्ष्मणस्येत्यर्थः । किं कृत्वा ? पूर्वमित्युक्तप्रकारेण ईरयित्वा अभिधाय । कथम्भूतं कायम् ? आहितकम्पवेगमारोपितकम्पवेगम् । पुनः दयाधरं चर्वितोष्ठम् । पुनः स्फारितरक्तनेत्रं प्रसारितारणलोचनम् । पुनः भ्रमणजिम भ्र मङ्गमन्दम् । पुनः कृतसिंहनादं वित्तीर्णपञ्चाननध्वनिम् । युद्धोंमें किस प्रकार दूसरेपर आक्रमण किया जाता है और किस प्रकार उसकी सब सामग्रीको दूषित किया जाता है ॥२८॥
अन्वय-मे मतिः ते वैराय, शक्तिरस्ति मागच्छ सम्परार्य सम्पादय रिपुवंशदावं दशकन्धरोत्थं प्रतापं मत्तः कथं न देसि ।
तुम्हारी शत्रुता करनेका ही मेरा संकल्प है। यदि बल है तो आगे बढ़ो और युद्ध करो। शत्रुओंके कुलोको जलानेवाले दशाननके प्रतापको अहंकारी तुम क्या नहीं जानते हो?
अन्वय-मे मतिः वैरायते, शक्तिस्ति सम्परार्य सम्पादय । रिपुवंशदमा दशकं धरोस्थं प्रताप मत्तः कथं न वेस्सि।
हे भीम ! मेरे प्रति तुम्हारे मनमें वैर हो गया है। यदि बल हो तो मेरे अभीष्टमें बाधा डालो। शत्रुओंके कुलोंके भजकोंके संरक्षक, सत्य,शौच, आदि दश अङ्गों युक्त तथा पृथ्वीको पालनेमें समर्थ पुरुषार्थको क्या मुझसे नहीं सीखोगे ? ॥२९॥
उक्त प्रकारके कटु शब्द कहकर क्रोधसे कांपती (ता), ओठोंको चबाती (ता), लाल. लाल आखाँको नटेरती (ता), भ्रकुटि टेढ़ी करनेके कारण अत्यन्त डरावनी (ना) तथा सिंहके
1. जिगोषोः पृथ्वीपतेः-द० । २. प्रतापो हि-६० ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
भारतीयः - असौ कीचकः कार्यं जग्राह । कस्य ? भरतान्वयस्य भरतस्य चक्रवर्त्तिनोऽन्वयो यस्य तस्य सोमवंशस्य भीमस्येत्यर्थः । किं कृत्वा १ पूर्वमित्युक्तप्रकारेण ईरयित्वा । आहित कम्पवेगमित्यादीनि क्रियापद - विशेषणानि बोद्धव्यानि ॥ ३० ॥
चकम्पिरे किंपुरुषा भयेन दिशां विनेशुर्नगजा गजाश्र । मर्मप्रहारैः परुषैर्वचोभिस्तयोरभूत्तत्र महान्विमर्दः || ३१ ॥
चकम्पिर इति किंपुरुषाः देवविशेषाः चकम्पिरे कम्पिताः । (क्रेन) भयेन । नगजाः पर्वतजाताः गजाः इस्तिनः विनेशुः विनष्टाः । नकारेण समुच्चयो गृह्यते, तेनायमर्थः दिशां सम्बन्धित्वेन गजाश्च विनष्टाः । तयोः लक्ष्मणशूर्पणखयोः- परपैः कठिनैः वचोभिर्महान् विमर्दों युद्धमभूत् । क्क ! तत्र दण्डकारण्ये । कथंभूतैः ? मर्मप्रहारैः मर्मघातैः ।
भारतीयः -- भयेन किम् पुरुषाः युधिष्ठिरादयः चकम्पिरे अपि तु न । मर्मप्रहारः कृत्वा, दिशां गजा नगजा गजाश्च किं बिनेलुः १ अपि तु न । कः तयोः कीचक भीमयोर्वचोभिः । तत्र विराटभूमौ । महान् विमर्दोऽभूदिति सम्बन्धः ||३१||
असंस्तुतं प्राप्य ततो निकारं भीमेन तेनोपहतात्मवृत्तिः । देशादयासीन्नियमेन कर्त्तुं पादौ विग्रहपीडियानि ॥३२॥
असंस्तुतमिति । असौ रावणभगिनी अयासीत् गतवती । कस्मात् ? देशात् दण्डकारण्य प्रदेशात् ! किं कर्तुम् ? कर्तुं विधातुम् । कानि ? विग्रहपीडितानि युद्धमर्दनानि । कथम् ? क्षणात् अन्तर्मुहूतात् । न कृत्या ? नियमेन निश्चयेन । कथंभूता सती ? उपहतात्मवृत्तिः उपहतस्वप्रवर्तना । केन कृत्वा ? तेन लक्ष्मणेन । कथम्भूतेन ! भीमेन भयङ्करेण । किं कृत्वा ? पूर्वं प्राप्य । कम् ? निकारं पराभवम् । कथम्भूतम् ? असंस्तुतम् अपरिचितम् । कस्याः १ ततः तस्याः शूर्पणखायाः सकाशादिति सम्बन्धः ।
समान गर्जती (ता) उस सूर्पणखा अथवा कीचकने भरतके वंश में उत्पन्न लक्ष्मण अथवा भीम शरीरको बलपूर्वक पकड़ लिया था ||३०|
किंपुरुष आदि व्यन्तर देव उरसे काँप उठे थे, दशों दिशाओंके पार्वतीय विशाल हाथी भी भाग चले थे तथा उस सूर्पणखा और लक्ष्मणका हृदयको छेदनेवाले कठोर शब्दोंद्वारा महान् वाक्युद्ध हुआ था ।
लोकोत्तर पुरुष युधिष्ठिर आदि उक्त बातको सुनकर आश्चर्यले क्या काँप उठे थे ? अर्थात् नहीं काँपे थे। क्योंकि कितने ही मर्मभेदी आघात किये जानेपर दिग्गजों के समान उत्तम पार्वतीय हाथी पलायन नहीं करते हैं। इस प्रकार विराट् भूमिमें कीचक और भीमका कठोर और लम्बा संघर्ष हुआ था ॥ ३१ ॥
अन्वय- भीमेन तेनोपहतात्मवृत्तिः ततः असंस्तुतं निकारं प्राप्य असौ क्षणात् नियमेन विग्रहपीडितानि करूं, देशात् अयासीत् ।
अत्यन्त उग्र लक्ष्मणके द्वारा मनोरथ विफल कर दिये जानेके बाद अत्यन्त निन्दनीय रूपसे अपमानित की गयी वह सूर्पणखा तुरन्त ही; युद्ध के द्वारा इसे निश्चित रूपसे सर्वथा कट देने के संकल्पपूर्वक दण्डक वनसे चली गयी थी ।
अन्वय- ततः असंस्तुतं निकारं प्राप्य तेन भीमेन उपहतात्मवृत्तिः असौ क्षणात नियमेन विग्रहपीडितानि कर्त्ती देशास अयासीत् ।
१. श्लेषाऽलङ्कारः-प, द० | २. श्लेषाऽलङ्कारः- प०, ६० ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः
अधुना भारतीयः पक्ष:-असौ कीचकः देशात् विराट विषयात् अयासीत् गतवान् । किं कर्तुम् ? कत्तम् । कानि? विग्रपीडितानि शरीरकदर्थनानि । केन कृत्वा ? नियमेन तपसा । कथम् ? क्षणात् । कथम्भूतोऽयासीत् कीचकः ? उपहतात्मवृत्तिः । केन ? क; भीमेन वृकोदरेण । किं कृत्वा ? पूर्व प्राप्य । कम् ? निकारं परिभवम् । कथम्भूतम् ? असंस्तुतम् । कस्मत् ? ततः कीचकादिति सम्बन्धः । इलेषालङ्कारः ।
तथावधूतोऽपकृतिं गतोऽपि जित्वा रुषं संयममेत्य राजा ।
स वैरसन्देहमयं विहाय न्यायानुवृत्तिं पदवी प्रपेदे ॥३३॥ तथेति तथा तेनैव प्रकारेण सोऽयं राजा लक्ष्मणः न्यायानुवृत्ति नीत्यनुयायिनी पदवी मार्ग प्रपेदे प्राप्तवान् । किं कृत्वा ? वैरसन्देई धैरसंशयं विहाय परित्यज्य । किं कृत्वा ? पूर्व संयममेत्य प्राप्य | पुनः किं कृत्वा ? रुपं क्रोधं जित्वा उपशम्य । कथम्भूतः सन् ? बधूतः पूर्पणख्याः (ग्लाबा) सकाशात् , पुनः अपकृतिमपकारं गतोऽपि ।
भारतीयः-तथाऽवधूतः जटाजूटधारी लिङ्गी भूत्वा । किं कृत्वा ? पूर्वमेत्य प्राय । कम् ? संयम तपश्चरणम् । किं कृत्वा १ रुप जित्वा । स कीचकः राजा न्यायानुवृत्ति पदवी प्रपेदे प्राप्तवान् । किं कृत्वा ! देहमयं शरीरहेतु रसं दुग्धदधिघृतादि विहाय विमुच्य । कथम् ? बैंक्टम् । कथम्भूतः काँचकः १ अपकृति गतोऽपि ||३३॥
स्वजानि कार्याणि निरूप्य हत्या वलीयसस्तस्य च कौरवेण ।
जिहीर्षता मानधनं बलेन सम्प्रेरितेनाभ्युदितं खरेण ॥ ३४ ॥ स्वजानीति-बलेन सैन्येनाम्युदितं प्रसृतम् । कथम्भूतेन खरेण दूपणज्येष्भ्राता सम्प्रेरितेन । किं विशिष्टेन ? कौ पृथिव्यां रवेण नादेन मानधनमभिमानधनं जिहीप्ता हसुमिच्छता । किं कृत्वा ? पूर्वे स्वजानिकार्याध्यात्मीयभायांकृत्यानि निरूप्य निषेध | कस्यां सत्याम् ? तस्य प्रसिद्धत्य शम्बुकुमारस्य इस्यां वधे सति । कथम्भूतस्य तस्य १ बलीयसः बलिष्ठस्य । ।
उक्त प्रकारले कीचकके द्वारा अवमानित किये जानेपर उस भयंकर भीमने कीचकके प्राण ही संकट में डाल दिये थे। फलतः उसने एक क्षणभरमें ही तपस्या-द्वारा अपने शरीरको कष्ट देनेकी प्रतिक्षा करके विराट देशको ही त्याग दिया था ॥३२॥
अन्वय-तथा वधूतोऽप्रकृति गतोऽपि सोऽयं राजा रुषं जित्वा संयम एस्य वैरसंदेहं विहाय न्यायानुवृत्ति पदवी प्रपेदे।।
उक्त प्रकारकी पुंश्चली वधूसे विराधना किये जानेपर भी इस राजा लक्ष्मणने क्रोधको वशमें किया था, संयमसे काम किया था और शत्रुता तथा सन्देहको त्यागकर नीतिमार्गके अनुसार आवरण किया था।
अन्वय-तथा अपकृतिं गतोऽपि स अवधृतः राजा रुष जित्वा संयम एत्य, देहमयं रस वै विहाय......1
उक्त प्रकारले भीमके द्वारा अपकार किये जाने पर भी उस संन्यासी राजा कीचकने क्रोधको जीतकर संयम धारण किया था तथा देहकी पुष्टि और स्थितिके निमित्त दुग्ध, घी, आदि रसोंको भी त्यागकर धर्मशास्त्रानुकूल रसपरित्यागादि तपोंके आचरणमें लग गया था ॥३३॥
अन्वय-स्व-जानि-कार्याणि बलीयसः तस्य हत्यां च निरूप्य रवेण को मानधनं जिहीर्थता खरेण सम्प्रेरितेन बलेन अभ्युदितम् ।
अपनी पत्नी पर बीती घटनाओं तथा अत्यन्त बलवान् उस शम्बुकुमारकी हत्याको जानकर आक्रमण के लिए आप्त सेनाके द्वारा समस्त पृथ्वीपर घोषणापूर्वक सबके स्वाभिमान रूपी धनके अपहरणके लिए उद्यत वद्द खर तमतमा उठा था।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसम्धानमहाकाव्यम्
भारतीयः-कौरवेण दुर्योधनेन सम्प्रेरितेन सम्प्रेषितेन चलेन अभ्युदितं प्रसृतम् | कथम्भूतेन कौरवेण ? खरेण तीत्रेण । किं कुर्वता ? अमानधनं प्रचुरगोधनं जिहीर्षता हत्तुमिच्छता । किं कृत्वा ! पूर्व स्वजानि कार्याण्यात्मीयानि कार्याणि निरूप्य निवेद्य । कस्यां सत्याम् ? बलीयसः तस्य कीचकस्य हत्यां वधे सति । श्लेषालकारः ॥ ३४ ॥
आवारितो मध्यगतैः प्रबन्धराहन्यमानोऽपि कृतावलेपः ।
शब्दायमानः कलहायमानस्तूर्योत्करो दुर्जनमन्त्रियाय ॥ ३५ ॥ आवारित इति-तूर्योत्करः तूर्यसमूहः दुर्जनमराजनम् अन्वियायानुचकार । कथम्भूतः ? मध्यगतैरुदरस्थितैः प्रबन्धैर्वधीभिः आवारितो नियन्त्रितः । पुनः आहन्यमानोऽपि सन् कृतावलेपः । यः किल आहन्यमानः स कथं कृतावलेपो विहितगी जायत इति विरुद्धम् । परिहियते कृततटसम्पर्कः । कथम्भूतः ? शब्दायमानः ध्वनि कुर्वाणः । पुनः कलहायमानः कलहं कुर्वाणः । एवंविधो दुर्जनोऽपि भवति । कथम्भूतः १ आवारितः निषिद्धः कैः कत्तृभिः मध्वगतैः मध्यस्थैः पुरुपैः । कैः कृत्वा ? प्रबन्धैनिर्बन्धैः । पुनः कृतावलेपः विहिताहङ्कारः । शेषं प्राग्वत् ॥ ३५ ।।
उन्मग्नशङ्खं अमफेनयुक्तमावर्तशुद्धं शफराजिलोलम् ।
अश्वीयमुल्लङ्घनशीलमुद्यचक्राम कल्लोल इवाम्बुराशेः ॥३६॥ उन्मग्नेति-अश्वीयमददानां बलं चक्राम चचाल | कथम्भूतम् ? उन्मग्नसङ्खमक्ष्णोः प्रान्तप्रदेशाः शाः उन्मग्नाः शङ्खा यस्य तत् प्रत्यक्तचक्षुःसमीपप्रदेशम् । गुनः श्रमफेनयुक्तं श्रमोत्पन्नफेन पिण्डयुक्तम् । आवर्त्तशुद्धमावतैः ध्रुवशुभनामधेयः शुद्ध समीचीनम् । पुनः शफराजिलोलं खुरपक्तिचञ्चलम् । पुनरुलाघनशीलमुत्लवनधान्यम् । किं कुर्वत् ? उद्यत् ऊर्ध्व गच्छत् । उपमार्थः प्रददर्यते । क इव चाम कल्लोल हव । यथा कल्लोला तरङ्गः प्रामति । कत्य ? अम्बुराशेः सनुद्रस्य । कथंभूतः ? उन्मग्नशलः उच्छलित
अन्वय-बलीयसः तस्य हत्यां च स्वजानि कर्माणि निरूप्य अमानधनं जिट्टीपता खरेण कौरवेण सम्प्रेरितेन बलेन अभ्युदितम् ।
बलवान् कीचक राजाकी मृत्यु हो जानेपर अपने स्थाओं की सिद्धिको देखकर विपुल गोधनको चुरा लेनेके लिए तत्पर उस निर्दय कौरय दुर्योधन के द्वारा भेजी गयी सेना चारों ओर फैल गयी थी ॥३४॥
बीच में डाली गयी सांतकी डोरियोंसे स्वध कसा गया युद्ध क्षेत्रमें मनमाने रूपसे बजाया गया तेल स्याही अथवा आटे मादिके लेप युक्त, एक दूसरेकी स्पर्धासे ही जोरोंसे बजते हुए वाजोका समूह खलगोष्ठीके समान प्रतीत होता था। क्योंकि दुर्जन भी हितैषी मध्यस्थ पुरुषों के द्वारा अकार्यसे रोका जाता है, शासक मनचाही ताड़ना करते है। यह सब होनेपर भी वह अहकार नहीं छोड़ता, बड़-बड़के बोलता है तथा झगड़ा करता फिरता है] ॥३५॥
अन्वय-उन्मनशंख, श्रमफेनयुक्तं, भावर्तशुद्ध, शफराजिलोलं, उल्लङ्घनशीलं, उग्रत् अश्वीयं अम्बुराशेः कल्लोल इव चकाम |
आँखोंके पासका स्थान उठा तथा सुन्दर था, परिश्रमके झाग मुखसे टपक रहे थे, आवर्त आदि शुभ लक्षणोंसे युक्त थे, टा अत्यन्त चंचल थीं, फलांग मारनेमें पटु थे तथा उचकते हुए घोड़ोकी सेना समुद्र की लहरोंके समान आगे बढ़ती जा रही थी [ समुद्रकी लहरोंपर भी शंख बहते जाते हैं, थकानसे आनेवाले झागोंके समान झाग उठते हैं, उत्तम भौरें
१. श्लेषोपमाऽलङ्कारः प०, द. ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
पशमः सर्गः कम्बुः । पुनः श्रमफेनयुक्तः श्रमवस्फेनः श्रमफेनस्तेन युक्तः । पुनरावर्त्तशुद्धः आवर्ताः पयगं भ्रमास्तैः शुद्धः । पुनः शफराजिलोल: मीनगणनञ्चलः । पुनरुल्लङ्घनशीलः उत्प्लवनधर्मः । किं कुर्वाणः ? उद्या गच्छन् । दलेपः ॥३६॥
स्नेहाद्वहन्ती क्षणमुत्कटाक्षा वेश्येव शल्यं हृदये दधाना ।
उच्चाल्यमानातुरगैः परैश्च स्थानाद्विरोधेन चचाल रथ्या ॥३७॥ स्नेहादिति-रच्या संगों वाल मलिकती । पदम : माझा देशात् । केन कृत्वा ? विरोधेन । कथम्भूता ! परैः जातिश्रेष्ठः तुरगैः हयैः उच्चाल्यभाना प्रेयंभाणा ! पुनः क्षणं मुहूर्तमेक स्नेहात्तैलादितः धन्ती प्रवर्त्तमाना । पुनरुत्कटाक्षा उत्कटोऽक्षो यस्याः सा निष्ठुरन्चभ्रमणकाष्ठा ! पुनः शाल्वं शक्तितोमरादिशात्रं दधाना । अथवा तुन्दवल्यम । छ: ? हृदये मध्ये । उपमार्थः कव ? दयेव पण्याङ्गना यधा स्थानाचलति । केन कृल्या? विरोधेन बालहव्याजेन । कथाभूता? रनेहादनुरागात् बहन्ती प्रवर्तमाना । कथम् ? क्षणम् । पुनः परेः घूत्तरुचाल्यमाना । कथम्भूतः ? आतुरगैरानुरं गच्छन्ति सैः चपल्लगतिभिरित्यर्थः । पुनः शल्यं वोटिल्यं करायरूपं हृदये गनसि दधाना । पुनस्रकटाक्षा उत्क्षिप्तलोचनाचला । श्लेयोपमालङ्कारः ॥३७॥
उदात्तवंशं बहुधातुरङ्ग र समुत्कङ कटकप्रधानम् ।
युयुत्सु गच्छत् प्रकटोत्थदानं तद्धास्तिकं कावचिकञ्च रेजे ॥ ३८ ॥ उदात्तवंशमिति-तल्लोकविख्यातं हास्तिकं हस्तिनों समूहः गजसमुदायः रेजे शुशुभे । किं कुर्वाणम् ? गच्छत् व्रजत् । कथम्भूतम् ? युयुत्सु योद्धगिच्छु । पुनः प्रकटोत्थदान प्रकर्षण कटाभ्यां कपोलाभ्यामुत्था उत्पत्तिर्यस्य तत् प्रकटोत्थं दानं गदी यस्व उत् । पुनदातवंशमुच्चपृष्ठवंशम् । धातनामनेकार्थत्वात् रुदै विभक्त.म् । कैः कृत्वा ? बहुधातुरङ्गैः धातवः हरिताल गैरिकादिलक्षणा: यहवश्च ते धातवश्न बहुधातवः बहुधातूनां रङ्गाः बहुधातुरङ्गास्तैः । पुनः कटकप्रधानं करके स्कन्धावार प्रधानं कटकप्रधानम् । चकारः समुच्चयार्थः । तच्च कायचिकं कवचिनां समृहः गच्छत् सन् रेजे दिदीपे। कथम्भूतम् ? उदात्तवंशमुदारापड़ती है, चंचल मछलियाँ कूदती रहती हैं, उछलना तो उनका स्वभाव ही है और एकके बाद दूसरी उटती ही चली आती हैं ] ॥३६॥
घोड़ोंके द्वारा खींची गयी, क्षण भरके लिए कठोर धुरा युक्त, आंगन या तेल लगे रहने के कारण जोरोसे चलती, शक्ति, तोमर आदि अघोंसे सुसज्जित तथा शत्रुओं के साथ लड़ने के लिए उद्यत फलतः वेश्याके समान रथसनाने अपने स्थानसे प्रयाण किया था।
अन्वय-क्षणं उत्कटाक्षा, स्नेहाद्वहन्ती, हृदये शल्यं दधाना परैः विरोधेन माहुरगैः स्थानात् उचाल्यमाना रथ्या इव वेश्या चचाल ।
क्षणभर के लिए कटाक्ष करती तथा प्रेममय आचरणों में लीन किन्तु मन ही मन शंका या कपट करती, दूसरोंसे झगड़फर चंचल कामातुरोंके द्वारा भगायी गयी रथसेनाके समान वेश्या भी चली जाती है ॥३७॥
अन्वय-उदात्तवंश, प्रकटोरथदान, बहुधानुरङ्ग रूढं, समुत्कं कटक-प्रधानं युयुत्सु तत् गच्छत् हास्तिकं कावचिकं च रेजे।
उन्नत रीढ़की हड्डी युक्त, पुष्ट कपोलोपरसे मदजलको यहाते हुए, हरिताल गेरु आदि धातुओंसे चिषित, उद्धत अतएव सेनाके प्रधान अंग, लड़नेके लिए उद्यत कवचधारियोको ले जाते हुए हाथियोंकी सेना बड़ी सुन्दर लगती थी।
उत्तम वंशमें उत्पन्न विख्यात महादानी, नाना जातियोंके घोड़ों और हाथियोंपर सवार
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिन्धानमहाकाव्यम्
न्बयम् | पुनः तुरङ्गैरश्वैरूढं धृतम् । कथम् ? बहुधा बहुप्रकारैः पुनः समुत् सानन्दम् । पुनः कङ्कटकप्रधानं सन्नाहसन्नद्धम् | पुनः युयुत्सु योद्धुमिच्छत् पुनः प्रकटोत्थदानप्रनित्यमिति ॥ ३८ ॥
८८
शार्माणि चापानि समुत्क्षिपन्तस्ते कञ्चुकं कार्दमिकं प्रविष्टाः । धनुर्भृतोऽभ्युद्धतनीलशृङ्गाः कृष्णाः पशूनां समजा इवाभुः ।। ३९ ।।
शाङ्कणीति - ते प्रसिद्धा धनुर्भूतः धन्विनोऽभुः भान्ति न्म । कथम्भूताः ? कञ्चुकं सन्नाहं प्रविष्टाः । कथम्भूतम् ! कामिकं कर्दमेन रक्तम् । किं कुर्वन्तः ? चापानि तृषि सगुत्क्षिपन्तः विस्फारयन्तः । कथम्भूतानि चापानि ? शाङ्खणि शृङ्गविकाराणि । अथोपमार्थः क ( इ ) व १ समजा व पां पशूनां गोमहिस्वादीनाम् । कथम्भूताः १ कृष्णाः श्यायाः । पुनरभ्युद्धतनीलभृक्षाः साभस्त्येनोत्कटनीलविषाणाः । उपमालङ्कारः ।। ३९ ॥
नृणामसीनां वसुनन्दकानां पार्श्वोपरोधं स्फुरतां प्रवाहाः ।
स्विन्दारुणानां विराजिरेडमी द्रुता इव त्रापुपजातुपौधाः ॥४०॥
नृणामिति-अभी प्रत्यक्षीभृताः असीनां खड्गानां बगुनन्दकानां हस्तकुराणाञ्च प्रवाहाः विराजिरे । किं कुर्वताम् ? पार्श्वोपरोधमुभयं पार्श्वमुपरुध्य स्फुरतां शोभमानानाम् | कैषाम् ? नृणां पुंसाम् । कथंभूतानाम् ? उभयेषाम् असीनां वमुनन्दकानाश्च १ स्विन्दारुणानां श्वेतशोणानाम् | असयस्तावल्वेताः वसुनन्दकाश्च लोहिताः । अतएव साहचर्यादेवोभयेषां युगपद्विशेषणमिति मुस्थम् । इदानीमुत्प्रेक्षार्थः । क इवोत्प्रेक्ष्यन्ते पुषजातुषीघा इव सीसकयादकरा इव । कथंभूताः १ द्रुताः द्रवीभूताः ||४०||
भूर्जमस्येव विहायसचेवचश्च्युताः स्युर्विधुता मरुद्भिः ।
तथा भवेयुः पथि वैजयन्त्यः कालस्य जिह्वा इव वा ललन्त्यः ॥ ४१ ॥
भूर्जेति पथि मार्गे चेद्यदि त्वत्वः स्युर्भवेयुः । कथम्भूताः १ च्युताः । कथम्भूताः सत्यः ? विधुताः कम्पिताः । कः मरुद्भिर्वातैः । कस्य ? विहायसः गगनस्य । कस्येव ! भूर्जंद्र अस्येव यथा वैजयन्त्यः चीरपताकाः भवेयुः वाऽथवा वैजयन्त्यः ललन्त्यश्चदन्यः सत्यः भवेयुः का इव जिल्हा ( इन ) रसना यथा | कस्य कालस्य यमस्येति || ४१ ||
प्रभा विमानं समुपेत्य यातां कौक्षेय कैस्तिग्मकरैः स्फुरद्भिः ।
पाश्चिददरमुत्पतन्त्या लीलोन्नतालम्भि तडिल्लतायाः ।। ४२ ।।
युद्ध के लिए उत्सुक अतएव उत्तम, ओर से बजते पटहादि बाजोंसे युक्त लड़ने के लिए निकले कवचधारियोंकी सेना मनमोहनी लगती थी ||३८||
सींगसे बने धनुषको फटकारते हुए तथा धूल कीच से लथपथ कञ्चुकधारी वे धनुषधारी योद्धा, ऊपर तक उठे हुए नील सींगधारी काले हिरण पशुओंके सजातीयके समान प्रतीत होते थे || ३२९ ॥
सैनिकोंकी चमचमाती श्वेत तलवारों तथा उन्हें घुमाते हुए लाल हाथोंकी श्वेत तथा लाल कान्ति के प्रवाह दोनों बगलोंको व्याप्त करते हुए ऐसे लगते थे मानो शीशा और लोह पिघल करके बहे जा रहे हैं ॥ ४० ॥
भोजपत्रके पेड़ोंका पतला वकला आकाशमार्ग में गिर जाय और यदि वायुके द्वारा खूब उड़ाया जाय इसी प्रकारसे वीनांशुककी ध्वजाएँ हो रही थीं अथवा लपलपाती यमकी जिल्लाओंके समान प्रतीत होती थीं ॥४१॥
१. श्लेपाऽलङ्कारः- प० द० । २. उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः- प०, ६० । ३. उपमालङ्कारः- प०, द० ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः
प्रभेति-अलम्भि प्राता । का कर्मतापन्ना ! लीला शोभा। कथम्भूता? उन्नता उच्चा । कस्याः ! वडिल्लतायाः विद्युल्लतायाः । किं कुर्वाणायाः ? उत्पतन्त्याः। किम् ? अभ्रोदरं जलघरमध्यम् ? कैः कर्तमिरलम्भि ? कौक्षेयकैः खडैः । कथम्भूतैः ? तिग्मकरैः तिग्माः कराः येषां तैः तीरदीप्तिभिरित्यर्थः । स्फुरद्भिः गुलकायमानः । केषाञ्चित् कियतां भटानाम् । किं कुर्वताम् ? प्रभाः दीप्तीः यातां प्राप्तानां (प्राप्नुवताम् )। किं कृत्वा ? पूर्व समुपेत्य प्राप्य । कम् ? विमानं विशिष्ट मानं समीचीनं सत्यारम् । अत्र ख स्व स्वाभिभ्य ___ इति सम्बन्धेन भवितव्यमिति' ॥ ४२ ॥
सिन्दूररेणुः करिकर्णतालैरुद्धृषमानो दिशि विग्रकीर्णः ।
रुद्धार्यमाभ्याधित तापसानां सन्ध्यासमाधी नियमकवुद्धिम् ॥ ४३ ॥ सन्यूँति-सिन्दूररेणुः सिन्दूरधूली अन्यायित आरितवान् । का? नियमकबुद्धिमनुष्ठानकमतिम् । कस्मिन् ? सन्ध्यासमाधी सन्ध्याकर्मणि । येषाम् ? तापसानां प्रतिनाम् । कथम्भूतः ? विप्रकीर्णः प्रसृतः । यस्याम् ? दिशि आशायाम् । कथम्मृतः सन् ? अधूयमान उल्लिप्माणः । कैः ? करिणतालैः प्रशस्ताः काः कर्णतालाः करिणां गजानां कर्णतालाः करिकर्णतालास्तैः । अथवा करिकर्णव्यजनैः । पुनः कथम्भूतः सिन्दूररेणुः १ रुद्धार्यमा प्रच्छादितरविः । भ्रान्तिरलङ्कारः ।। ४३ ॥
अभूत्प्रकाशं विपिनं प्रचारैः कूलपाणां न्यपतस्तटानि ।
निपीतनीरप्रतिदित्सयेव द्विपा मदाम्भो ववृषुः सरासु ॥ ४४ ।। अभूदिति-विपिनमरण्यं प्रचारैश्चरणघहनाभिः प्रकाशमभूत् सञ्जातम् । विरलं विरलमासी दित्यर्थः। तथा कुलकपाणां नदीनां तटानि कुलानि न्यपतन् । तथा द्विपाः हस्तिनः सरस्सु अधिकरणभूतेषु सरोवरेषु मदाम्भः मदजलं वपुः 1 उपेक्षते-कयेव कृत्वा निपीतनीरप्रतिदित्सयेच निपीतम् कर्दमावशेष पयः पीतं निपीतमुच्यते। निपीतञ्च तभीरञ्च निपीतनीरं निपीतनीरस्य प्रतिदातुमिच्छा त्या इव ॥ ४४ ॥
सौदामिनीदामचितेव शस्त्रैरमाकुलेव द्विरदैदिंगासीत् ।
समुद्रवेलेव चलस्तुरङ्ग त्रैलोक्ययात्रेव जनैश्वलद्भिः ।। ४५ ।। सौदामिनीति-दिगाशा शस्त्रैः तोमरादिभिः सौदामिनीदागचितेव विद्युन्मालावगुण्ठितेव आसीत् । तथा द्विरदैः गजै; अभ्राकुलेव मेघमालासङ कुलेव आसीत् । तथा चलैश्चञ्चलैतुरझैः वाजिभिः समुद्रवेलेव
विमानों में आसूढ़ होकर युद्धके लिए जाते हुए कतिपय योद्धाओंकी तीक्ष्ण किरणों के द्वारा जगमगाती तलवारोंने आकाशके मध्यको चीरकर फैलती हुई विद्युल्लताकी उत्कष्ट तथा अत्यन्त चमत्कारी कान्तिको प्राप्त किया था ॥४२॥
हाधियों के विशाल कानोंके द्वारा उड़ायी गयी फलतः सब दिशाओं में व्याप्त अतएव पूर्य के प्रकाशको भी रोककर लाल करनेवाली सिन्दूरकी धूलिने तपस्वियोंको संध्यासमयके नियमोंके अनुष्ठान तथा समाधि लगानेके लिए निश्चित रूपसे प्रेरित कर दिया या ॥४३॥
सेनाके निरन्तर आने जानेके कारण गहन धन विरल हो गया था, विशाल नदियों के कनारे टूट गये थे तथा तालाथों में पिये गये पानीको वापस देने की भावनाले ही हाथियोने अपने मदजलको तालाथों में बरसा दिया था ॥४॥
उभयपक्ष द्वारा चलाये गये शस्त्रोंके कारण युद्धकी दिशा विजलीकी माला पहिने सी गती थी, उन्मत्त हाथियोंकी भीड़से मेघाच्छन्नके समान दिखती थी, चंचल घोड़ोंकी
१. उपमाऽलङ्कारः-प०, द० । २. समुच्चयाऽलङ्कारः-५०, ३० ।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
पयोनिधिपालिन्दीव आसीत् । तथा चलद्भिः गच्छद्भिः जनैः मनुष्यैः त्रैलोक्ययात्रेव आसीत् । समुच्चया
लङ्कारः ॥ ४५ ॥
९०
वंशावतारं जगतीपतीनां चवन्दिरे वन्दिजना गुणांश्च ।
श्वेतातपत्राणि समुल्लसन्ति क्षीरार्णव स्योत्कलिकाः प्रजिग्युः ॥ ४६ ॥
वंशेति - वन्दिजनाः जागरिकाः जगतीपतीनां राज्ञां गुणान् शौर्यादीन् वंशावतारं वंशस्यान्वयत्याबतारो यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा, तथा ववन्दिरेस्तुवन्ति स्म । च समुच्चयार्थे तथा समुल्लसन्ति श्वेतातपत्राणि शुभ्रच्छत्राणि क्षीरार्णवस्य क्षीरपयोनिधेस्त्कलिकास्तरङ्गान् प्रजिग्युः जयन्ति स्म ॥ ४६ ॥ सङक्रीडितं स्यन्दनचक्रजातं वने मयूरा विनिशम्य रम्यम् । नारकाः पतिता इवोयैः पिच्छातपत्रप्रकरा विरेजुः ॥ ४७ ॥
I
सङक्रीडितमिति - पिच्छातपत्रप्रकराः विरेजुः शोभन्ते स्म । क हब ? उत्प्रेक्ष्यन्ते - मयूरा इव शिखडिनो यथा । कथम्भूताः सन्तः ? पतिताः । कैः ? ओवैः प्रवाहैः । पुनः कथम्भूताः सन्तः ? घनारवोत्काः मेघध्वनिसमुत्कण्ठिताः सन्तः । किं कृत्वा ? पूर्व स्यन्दन चक्रजातं रथरथाङ्गसमुत्पन्नं संक्रीडितं चीत्कृतं विनि शम्य श्रुत्वा । कथंभूतं सङ क्रीडितम् ? रम्यं मनोहरम् । क ? अतिरम्ये वनेऽरण्ये | उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥४७॥ शङ्खानका रावमयी पतीनां दिशां श्रुतिः सैन्यमयी च दृष्टिः ।
रजोमयी कामविमानभूमिः शङ्कात्मसंहारमयी बभूव ॥ ४८ ॥
शङ्खति - बभूव सञ्जाता । का ? श्रुतिराकर्णनम् । कथंभूता ! शङ्खानकाराचमयी कम्बुपटहशब्दनिर्वृत्ता । केषां श्रुतिः ? दिशाम्पतीनां लोकपालानाम् । चकारः समुच्चयार्थस्तथा तेषां दृष्टिः बभूव संजाता । कथम् । सैन्यमयी चमू निर्वृत्ता च तथा कामविमान भूमिः गगनं रजोमयी धूलिनिर्वृता तथा शङ्का भयमात्मसंहारमयी स्वमरण निर्वृत्ता बभूव ॥४८॥
इत्यद्रिकुञ्जान्सरितः सरांसि स्वपच्छत्यूच्छ्वासचलं वनश्व |
विप्लावयन्ती तमियाय देशमक्षौहिणी वारिधिमापगेव ॥ ४९ ॥
इतीति- इति पूर्वोक्तप्रकारेण तं दण्डकारण्याख्यं देशमियाय गतवती । का ? अक्षौहिणी सेना ! किं कुर्वती सती ? अद्विकुञ्जरान् शैलकटकसमूहान् तथा सरितः नदीः सरांसि सरोवराणि तथा स्वपच्छत्यूच्छ्रवाबढ़ती हुई पंक्तियोंके कारण समुद्र के तीर सहश थी तथा चलते-फिरते मनुष्योंको देखकर ऐसा लगता था मानो तीनों लोक यात्रापर चल पड़े हैं ॥४५ ॥
चारण लोग पृथ्वीपतियोंकी वंशावली तथा उनके उदाप्त कार्यों का व्याख्यान करके स्तुति पढ़ते थे। समस्त युद्ध भूमिपर शोभायमान श्वेत राजछत्रोंने अपनी कान्तिके द्वारा क्षीरसमुद्रकी उठती हुई लहरोंको जीत लिया था ||४६ ॥
चनमें जाते हुए रथोंके पहियोंसे उत्पन्न गम्भीर तथा मधुर नादको सुनकर मयूर वैसे ही उत्कण्ठित हो गये थे जैसे मेघोंकी गर्जनों को सुनकर होते हैं, झुण्ड के झुण्ड बाहर निकल आते हैं और पंख फैलाकर नाचते हैं। ये सब मयूरकी पूँछके बने छत्रांक समूहके समान शोभित हो रहे थे ||४७ ॥
समस्त दिकपालोंके कान शंख, पटह आदि बाजोंके तार स्वरले व्याप्त थे, आँखें सेना ही सेना देखती थीं, इच्छा मात्रसे चलने वाले विमानोंका मार्ग धूलिसे आच्छन्न था तथा कल्पना अपना ही विनाश आता था ॥४८॥
इस प्रकार से पर्वतों, तरुलता के गुल्मों, नदियों, तालाबों तथा सोते हुए अजगर की
१. समुच्चयाऽलङ्कारः-५० द० । २. समुच्चयाऽलङ्कारः - प०, ६० ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः सचलं निद्रापरिणताजगरधोणानिर्गतवातचञ्चलं वनं कान्तारं च विप्लावयन्ती क्षोभ नयन्ती । कैव ? आपगेव नदीव | कम् ? यारिधि समुद्रम् । .
भारतपक्षे- देशं विराट शेपं पूर्ववत्समानम् ।।४९|| [इदानी चतुर्भिङ्घत्तैः कुलशन सम्बन्धी बोद्धव्यः-]
ततो गभीरश्चरितैरगाधैज्वलन्निवान्तःकरणेन कुप्यन् ।
स्पृष्टानुमेयस्फुरितोदराग्निरुच्चैरुदन्वानिव दीप्यमानः ॥५०॥ तत इतिः-ततः अक्षौहिणीगमनान्तरं दाशरथिभामश्च गुप्यन् कोपं गच्छन् अन्तःकरणेन हृदयेन ज्वलन्मित्र कथंभूतश्चरितैः चेष्टाभिः गभीरः । कथंभूतः चरितैः ! अगाधैर्गम्भी रैरनरित्यर्थः । कथंभूतः ? दीप्यमानः प्रज्वलन् । कथम् ? उचैतिशयेन । कथंभूतः रान् ! स्पृष्टानुमेयस्फुरितोदरामिः स्पृष्टं स्पर्शनं तेनानुमेयोऽनुमानप्रमाणगोचरः स्फूरितः चिम्भितः उदराग्निर्जटरानलो यस्य सः । क श्व ? उदयानिध समुद्र इव । कथम्भूत उदन्वान् ? स्पृष्टानुमेयस्फुरितववाग्निरिति ।।५०||
पति गाणां गज हितेन कल्पान्तमेघेन च सुप्रतीकः ।
यथा सुधांश्वभ्युदयेन वार्षिः क्षोभं रिपूर्णा निनदेन गच्छन् ॥५१॥ पतिरिति-पुनः किं कुर्वन् ? रिपृणां निनदेन ध्वनिना क्षोमं गच्छन् वजन् । यथा प्राब्देनोपमार्थों गम्यते । क इव क्षोभं गच्छन् ? सुमतीकः यथा इव ईशानाशागज इव । वैन ? कल्पान्तमेवेन प्रलयकालजलदेन । पुनः क इव ? सुधांश्चभ्युदयेन पीयूपांशूद्गमेन वार्द्धिरिव । पुनः क इव ! गजबंहितेन गजचीकृतेन मृगाणां पतिः सिंह इव ॥५१॥
स सञ्जिहीपनिव जीवलोकं यमेन कुर्वन्निव दृष्टियुद्धम् ।
वमन्निव क्रोधहुताशराशिं गिलनिवाशाः स्थगयनिवार्कम् ॥५२।। स इति-सः किं कुर्वन्निव ! सजिहीर्षन्निव संहत्तु मिच्छन्निव । कम् ? जीवलोक प्राणिवर्गम् । पुनः किं कुर्वन्निव ? विदधदिव । किम् ? दृष्टियुद्धं विलोचनरणम् | कथम् ? सह । कैन ? यमेन । कृतान्तेन सह कृतान्तमाहूयमान इत्र | वमन्निव उद्गिरन्निय | कम् ! क्रोधहुताशराशि क्रोधागलावलीम् । पुनः किं कुर्वन्निव ? गिलन्निव उदरमध्ये कुर्वन्निव, का ? आशा दिशः । पुनः किं कुर्वन्निव ! स्थगयन्निव प्रच्छादयन्निव, कम् ? अर्क सूर्यमिति ||२||
श्वाससे चंचल वनको, समुद्र की ओर जाती बाढ़पूर्ण नदीके समान अक्षौहिणी प्रमाण वह सेना भी उस दण्डकारण्य अथवा विराटदेश तक जा पहुँची थी ॥४२॥
__ अक्षौहिणी सेनाके आगमनका समाचार सुनने के बाद गूढ तथा निर्दोष चेष्टाओंके कारण अशेय, मन ही मन अत्यन्त कुपित, संघर्ष होनेपर ही अपनी आन्तरिक गैद्रताका प्रकाशक अतएय समुद्र के समान प्रतापी, [समुद्र भी तलमें चलनेवाले जन्तुओंके होनेपर भी शान्त रहता है, भीतर ही भीतर बवानल जलती रहती है, तथा उसके मुखमें जलादि जानेपर भीषण विस्फोट होता है ] ॥५०॥
हाथियोंकी चिंघाड़से चिढ़े मृगराज, प्रलयकालके जलदासे उद्दीपित ईशान दिशाके दिग्गज; सुप्रतीक तथा पूर्णिमाके चन्द्रोदयले ज्वार-भाटापूर्ण समुद्र के समान शत्रुओं की सेनाके कोलाहलसे अत्यन्त क्षुभित |॥५१॥
मनुष्य लोकके विनाश करनेके संकल्पसे अथवा यमराजके ही साथ नेत्रयुद्ध करता हुआ, समस्त दिशाऑको निगलता सा, सूर्य के प्रताप और प्रकाशको तिरोहित करता हुआ-सा ॥५२॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् आदित्सया मानधनस्य सैन्यमभ्यर्णमाकर्ण्य विकीर्णनादम् । द्विषः सदो दाशरथी रयेण व्यापत्सहेनावरजेन भीमः ॥५३॥
आदित्सयेति-स दाशरथिः दशरथस्यापत्यं पुमान्दाशरथिः रामः व्यापत् व्याप्तवान् । किम् ? सदः । सभाम् । कस्म ? द्विषः खरदूषणस्य । केन कृत्वा ? रयेण वेगेन । कथम्भूतः सन् ! भीमः रौद्रः । केन ?
अवरजेन लघुभ्रात्रा लक्ष्मणेन । कथम्भूतेन ? सहेन समर्थन । किं कृत्वा पूर्व व्यापत ? आकर्ण्य श्रुत्वा । किम् ? सैन्यं बलम् | कथम्भूतम् ? अभ्यर्ण निकटम् । पुनः विकीर्णनादम् विकीर्णः विक्षिप्तो नादो ध्वनिर्येन तत् । क्या आदित्सया ग्रहीतुमिच्छया । करय मानधनस्य मान एव धनं मानधनं तस्य गर्वद्रव्यस्येत्यर्थः ।
भारतीयः-स प्रसिद्धः भीमः वृकोदरः उदाश जग्राह भक्षितवानित्यर्थः । कान् ? द्विपः शत्रून् । केन कृत्वा ? अवरजेन लघुभ्रात्रार्जुनेन । कथम्भूतेन ? त्यापत्सहेन विपत्सहिष्णुना । केन कृत्वा ? रयेण वेगेन । कथम् ? यथा भवति विकीर्णनादं विकीणों नादो यस्मिन् तत् क्रियाविशेषणमेतत् । किं कृत्वा ? पूर्वमाकी श्रुत्वा । किम ! सैन्य बलभू । कथामृतन ? अन्य सभीपम् । कया ? आदित्या 1 कस्य ? अमानधनस्य प्रचुरगोधनस्य । अथवा हे अगान हे अगाध श्रोणिक ! इति सम्बन्धः । अन्तकुलकम् ।। अन्तदीपका
शङ्खा निनेदुः पटहाश्चुकूजुर्गजा जग स्तुरगा जिहेषुः ।
वीरा ववल्गुः शकटा विरेसुरासीदकूपाररवः समन्तात् ॥ ५४ ॥ शङ्खा इति- शङ्का बिनेदुः ध्वनन्ति रम, पटहा आनकामकाजुः कृजितबन्तरतथा गजा जगजुस्तिथा तुरगा जिद्देषुहेषितवन्तः वीराः भटाः चबल्गुः वल्गितवन्तः शकटा दिरेतुः रसितवन्तः इत्यनया युक्त्या अकूपाररवः समुद्रघोषः सामरत्न आगीसजातः । समुच्चयालङ्कारः ।। ५४ ॥
वभुः पुराणा: स्फुटिता भटानां व्रणा रणानन्दथुनिभे रेण ।
स्वामिप्रसादानसहा निरोधु देहाः स्वयं भेदमिवाभ्युपेयुः ॥ ५५ ॥ बभुरिति-भटानां पुराणाः पुरातताः प्रणाः रगानन्दश्रुनिर्भ रेणा सङ ग्रामहर्षोत्कर्षेण स्फुटिता विदीर्णाः सन्तो बभुः रेजुः । तथा देहाः काया आत्मना स्वयमेव भेदं पटनमभ्युपेयुरिव । कथम्भूता ? असहा असमर्थाः । किं कर्तुम् ? निरोद्धमाचरितम् । कान ? स्यामिप्रसादान् प्रभुसत्कारानिति । उत्प्रेक्षालङ्कारः ।।५५।।
अन्वय-भीमः दाशरथी सहेन अबरजेन आदिःस्था मानधनस्य विकीर्णनादं अभ्यर्ण सैन्यं आकर्ण्य द्विषः सदा रयेण व्यापत् ।
दशरथके ज्येष्ठ पुत्र अत्यन्त भयंकर उस गमने परम सहिष्णु छोटे भाईके द्वारा बन्दी बनानेकी इच्छाले निकट आ पहुँची अत्यन्त अहंकारी शत्रुओंकी सेनाके विस्तीर्ण कोलाहल को सुनकर बड़ी तेजीसे खरदूषणके स्कन्धावारपर आक्रमण कर दिया था।
अन्वय-अमानधनस्थ आदित्सवा विकीर्णनाद अभ्यर्णम् भाकपर्य रथी भीमः सदा व्याप्तसहेन अवरजेन द्विषः सैन्य रयेण उदाश ।
प्रचुर गोधनको लूटकर ले भागनेकी इच्छासे निकट हीमें होनेवाले कोलाहलको जानकर रथी योद्धाओं के श्रेष्ठ भीमने सदैव विपत्ति सहनेमें दृढ़ अनुज अर्जुनके द्वारा उस समस्त शत्रु सेनाका क्षणोंमें ही संहार करा दिया था ॥५३॥
शंखोकी तार ध्वनि हो रही थी, पटह आदि वाजे पोटे जा रहे थे, हाथी चिंघाड़ रहे थे, घोड़े हिनहिना रहे थे, रथ तथा गाड़ियों के पहियोंसे चेंचाहट हो रही थी तथा योद्धा भी बड़बड़ा रहे थे। इस प्रकार चारों ओरसे समुद्र का आराव हो रहा था ॥२४॥
पुनः युद्धका अवसर मिलनेसे उत्पन्न योद्धाओंके अतिशय हर्ष के कारण उनके प्राचीन घाव अपने आप फट पड़े थे, मानो स्वामीके अनुग्रहोंको अपनेमें न समा सकनेके कारण ही उन योद्धाओंके शरीर अपने आप फट पड़े थे ॥५५॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः सूता नृपाणां युधि नामधेयं वृत्तं निपेटः कृतवृत्तबन्धम् ।
दग्धानि कपूररजांसि भूयाः स्ववर्मणोऽन्तश्चकरुः श्रमार्ताः ॥५६॥ सूता इति-सूता बन्दिजनाः युधि रणे नृपाणां राजा वृत्तं चरितं निपेटुः पटितवन्तः । कथम्भूतम् ! नामधेय नाम्ना धेयं नामगर्भितम् । पुनः कृतवृत्तबन्धम् “एकाक्षरमारभ्य पहिवंशत्यक्षरं यात्रवृत्तमुच्यते" कृतो वृत्तवन्धो रचना यस्य तत्तथोक्तम् । पुनः अगााः सङ ग्रामायासरसामृर्तयो भूपाः स्ववर्मणोऽन्तः आत्मीयसंहननस्याने दग्धानि चूर्णीकृतानि धनसाररजांसि कररेनन् चकारः विचिक्षिपुः । समुच्चया
विशुद्धवंशानि गुणानतानि प्रपीड्यमानान्यपि कार्मुकाणि ।
पर्यङ्कमारोप्य बिलालितानि मित्राणि मत्येव कृतं चिनेमुः ॥ ५७ ॥ विशुद्धेति-कार्नका णि धषि विनेगः नम्रीन भूषुः । किं कृत्या ? पूर्व मत्वा ज्ञाला। किम् ? कृतं करणीयमस्य कुले न नमनेव दलाव्यं नो चद्विशुद्धवावगुजानतत्वयायर्यमापनीपत इति मत्वा नमनं कार्यमिति भावोऽयोपन्यस्तः। कथम्भूतानि ? विशुद्धशानि निर्गुणयेणू नि पुनः गुणानतानि गुणेन मौा आनतानि गुणानतानि 1 पुनः प्रपीङयमानान्यपि पुनः विलालितानि । कानीव ? मित्राणीव । किं कृत्वा ? पूर्व पर्वमारोप्येति ॥५७ ||
वश्यानि मुष्टेरगतानि भेदं धपि नम्राणि विपक्षमाणि ।
स्वदेहलीनां स्थितिमत्यजन्ति नृणां कलत्राणि हितान्यतीः ।। ५८ ।। वश्यानीति-धनि मृणा धुरां वनवाणि कुलकामिनीः अतीयुः अतिधान्तयन्ति । कथम्भूतानि ? हितानि । सुखप्रदानि पुनः स्वदेहलीनां स्थिति मर्यादागत्यजन्ति, अजह ति स्वकीयमन्दिरकुतुपेन्यो वहिरनिगच्छन्तीत्यर्थः । पुनः कथम्भूतानि ? वश्यानि । कस्याः ? मुष्टेः मुटेरिति लक्षणयाऽऽज्ञा गृह्यते । मुस्टेशज्ञाया इत्यर्थः । पुनः भेदं पृथक्त्वमगतान्यप्रातानि । पुनः वश्यानि । कत्याः ? मुष्टेः पाणिबन्धस्य करतलाङ गुलीबन्धस्य । गर्भेदं भङ्गमगता नि । पुनः नम्राणि 1 पुनर्विपक्षमाणि आपत्समर्थानि । पुनः स्वदेहलीनामात्मशरीरश्लिष्टां स्थितिमत्यजन्ति । कोपालङ्कारः ॥ ५८ ॥ ___बन्दी लोग राजाओं-द्वारा युद्धस्थलोंपर किये वीरतापूर्ण कार्यों तथा नाम गोत्रादिको छन्दोबद्ध करके गाते थे तथा परिश्रमसे क्लान्त राजा लोग भी जलाये गये कपूरकी धूलको अपने शरीरपर लेप करते थे ॥५६॥
उत्तम बांससे चनाये गये, मौ/के द्वारा ताने गयो, गोदमें रखकर विधिपूर्वक टीक किये गये तथा पूरी शक्तिको साथ खींचे गये धनुष मानो उस समयको कर्तव्यको समझकर ही मित्रके समान खिंचकर वाण वर्षा कर रहे थे प्रारत कुल में उत्पन्न, सुसंस्कारोंसे दीक्षित, पालनेमें झुलाया गया मित्र सताने जानेपर भी पूर्वके उपकारोंको याद करके विनम्रताका ही व्यवहार करता है ॥१७॥
प्रवल मुट्ठीसे पकड़े गये, पर्याप्त खींचे गये तथापि न टूटे शत्रुओंको कष्ट देनेमें कुशल अपने आकार की स्वाभाविकताको न छोड़नेवाले तथा भलेमें साधक धनुषोंने मनुष्योंकी पतिव्रता पत्नियोंको भी मात कर दिया था [कुलवधुएं भी आज्ञाकारी होती हैं, कभी कलह नहीं करती हैं, नम्र होती हैं, विपत्तिको भी सहन करती है तथा अपने भवनके द्वारसे बाहर नहीं जाती है] १५८॥
१. बिलोलितानि-प०, द. । २. श्रेषोपमाऽलक्षारः-५०, द ।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसम्धानमहाकाव्यम्
स्वयं सपानम्ब शरासनानि स्तम्भश्च हित्वा मधुरं ध्वनन्ति ।
प्रारमिरेऽन्यान्विनतान्विधातुं परान्विनम्राः खलु नामयन्ति ॥५९।। स्वयमिति-प्रारेभिरे प्रारब्धवन्ति । कानि ! शरा असान्ते क्षिप्यन्त एभिरिति शरासनानि धनूंषि । किं कत्तुम् १ विनतान् नम्रान् विधातुम् । कथंभूतानि ? मधुरं यथा तथा चनन्ति नदन्ति । किं कृत्वा ? समानम्य विनम्रीभूय । कथम् ? स्वयमात्मना । वि. स. रतत्व हिया स्यिय । अर्थातरमाह —खलु निश्चयेन त्वयं विनम्राः परान्नामयन्ति ।।५९।।
ऋजुप्रकारेषु गुणेषु वाणाः शल्यं वहन्तो दधतो विपक्षान् ।
क्षणं न तस्थुश्चपलाः स्थिरेषु वाताः खलानामिव सजनेषु ॥६०॥ ऋविति-न तस्थुः न स्थिताः । के ? बाणाः शराः, कथम् ? क्षणं मुहूर्तम् , कथम्भूताः ? चपलाश्चञ्चलाः, केषु मध्ये न तरथुः ? गुणेषु मौवींषु ; कथम्भूतेषु ? ऋजुप्रकारेषु प्राञ्जलवृत्तिषु । पुनः स्थिरेषु निश्चलेषु, किं कुर्वन्तः ? शल्यं पलक वन्तो धरन्तः । युनविपक्षान् वीनां पक्षिणां पश्चान् गरुतः दधतः धरन्तः । उपमार्थः, इव यथा खानां दुर्जनानां वाताः समूहाः सजनेषु क्षणं न तिष्ठन्ति । केषु ? स्थिरेषु । पुनः ऋजुप्रकारेणु । कथम्भूताः वाताः ? चपलाः । श्लेषोपमालङ्कारः ॥६०॥
समुद्गिरन्तो नु शफान्मुखेभ्यश्छायां त्यजन्तः किमु पश्चिमार्धम् ।
देहान्क्षिपन्तो नु दृशां पुरस्ताद्विश्वेऽपि तेऽश्वल्लिपुरश्ववर्या ॥६१।। समुगिरन्त इति-ते लोकप्रसिद्धा अश्ववर्या अश्वल्लिघुः आशुगतवन्तः । कथम्भूताः १ विश्वेऽपि सर्वे:पि । अत्र नु शब्दः उत्प्रेक्षाविषयी(यः) धनञ्जयेनाङ्गीकृतोऽस्ति । तेनायमर्थः-अश्ववर्याः किमु कुर्वन्तो गतवन्तः किन्न्त्रहो समुद्विरन्तो नु समुद्लिन्त इव समुगिरीतुमनस इत्यर्थः । कान् ? पान् खुरान् । केभ्यः ? मुखेभ्यः वदनेभ्यः त्यजन्तो नु त्यत्तुमनस इव । काम् ! छायां मारकरा दितेजसात्मीयद्वारीरोद्भवमाभासम् । कथम् ? पश्चिमार्ट पाश्चात्यभागं क्षिपन्तो नु क्षेप्तुमनस इव | कान् देहान् वपूंपि । कथम् ? पुरस्तात् पुरतः । कासां दृशां लोचनानामिति । वेगातिशयवचनविन्यासोऽत्राभिहित इति ॥६१||
रुद्धं शिलोत्कीर्णमिवावतस्थे मुक्त चलं चित्तमिवाभ्यधावत् ।
अश्वीयमावर्तितमावृतत्तत्कुलालचक्रभ्रमलाघवेन ॥६२॥ रुद्धमिति-अवत्तस्थे स्थितम् । क्रिम् ? तत् अश्वीयं तुरङ्गसमूहः । किमिव १ शिलोत्कीर्णमिव दृषद्घटितमिव । कथम्भूतं सत् ? रुद्धं नियन्त्रितं सत् । तथाऽभ्यधावत् सामस्स्येन त्वरते स्म । किम् ? अश्वीयम् ।
कठोरताको छोड़कर स्वयं नमनेवाले धनुषोंने मधुर ध्वनिके साथ शत्रुओको विनम्र बनानेका कार्य प्रारम्भ कर दिया था। ठीक ही है क्योंकि स्वयं विनयशील व्यक्ति [जो कि अहंकारको छोड़ता है, मधुर बोलता है] अपने आप दूसरोंको शिष्ट थनाता है ॥१९॥
अत्यन्त सीधी तथा कसकर बंधी दृढ़ प्रत्यञ्चापर पक्षयुक्त अग्रिम भागमें धाराल और तीव्र गति युक्त वाण सज्जनों के बीच में दुर्जन-समूहके समान क्षणभर भी नहीं रुकते थे [सजन अत्यन्त सरल, स्थिर और गुणी होते हैं । दुर्जन शंकाशील अथवा स्वयं भी चंचल तथा विरोध करनेमें दक्ष होते हैं] ॥६॥
अपनी टापोंको मुखसे लीलतेके समान [लम्बी फलांगमे मुँह और पैर बराबर फैल जाते हैं, अपने ही शरीरको अपनी नजरसे भी आगे दौड़ाते हुए सबके सब वे श्रेष्ठ घोड़े घेगसे आगे बढ़े चले जा रहे थे ॥६॥
लगाम खींचनेपर यह अश्वसेना पत्थरके घोड़ेके समान रुक जाती थी, छोड़ते ही 1. उत्प्रेक्षालारस-प०, द.।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमः सर्गः कथम्भूतं सत् ? मुक्त विसृष्टम् । पुनश्चलं चपलम् । किमिव ? चित्तमिव भन इव । तथाऽऽवृतत् बभ्राम ! कथम्भूतं सत् ? आवर्तितं भ्रमितम् । कथम् ? कुलालचक्रभ्रमलाघवेन कुम्भकारचक्रभ्रमणलाधवेनेति ॥६२॥
स्या पदाथों समानतालि एशान्तानि जीवानिव जन्तवोऽपि ।
देहानि वात्या चकृषस्तुरङ्गाः स्कन्धान्तरन्यस्तयुगा रथौघान् ॥६३॥ रभ्या इति-अत्याचप्राकृष्टयन्तः | के ? तुरङ्गा अश्याः । कान् ? रथौघान् शकटसमूहान् । कथम्भूतास्तुरक्षाः ? स्कन्धान्तरन्यस्तयुगा अंसमध्यारोपितयूपाः । क इदात्याचकृ.धुः ? पदार्था इव यथा पदार्थाः बहिरङ्ग वस्तुविषयाः मानसानि चेतांसि अत्याकर्षयन्ति । कथम्भूताः ? रम्या मनोहराः इव तथा स्वान्तानि जीवान् प्राणान् अत्याकृपन्ति तथा अन्तवोऽपि इव यथा जन्तवः प्राणिनः देहान् शरीराणि अत्यापन्ति । उपमालाकृतिः ॥६३||
नामाददानः परुषं परेषां निषादिभिः संख्यशिरस्यसंख्याः ।
प्रासाः पतन्तोऽत्यशुभविमुक्ता विन्ध्यस्य वंशा इव वातधूताः ॥६४॥ नामेति-प्रासाः सेल्लाः (शलाः) यष्टय इत्यर्थः । अत्यशुभन् विरेजुः । कथम्भूताः ? असंख्याः गणनातीताः । पुनः संख्यशिरसि रणमध्ये पतन्तः । कथम्भूताः ? निषादिभिरश्ववारैः मुक्ताः । कथम्भूतैः १ परुष कर्कशं यथा तथा परेपां शत्रूणां नामाददानैः गृहद्भिः । क इव ? वातधूताः वायुकम्पिताः बिन्ध्यस्य वंशाः वेणव इव । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥६४॥
उत्कीर्णा इव कुलपर्वता गजानामाकारैर्मदजलनिर्भरं वहन्तः । धावन्ति प्रतिदिशमुन्नताः स्म नागाः क्रोधाग्निज्वलित दृशः सहैमकक्ष्याः ॥६५॥
उत्कीर्णा इव (हति)-नागाः हस्तिनः प्रतिदिशं धावन्ति स्म शीतया प्रसर्पन्ति स्म । किं कुर्वतः ? मदजलनिर्झर वहन्तः । पुनरुन्नताः । पुनः क्रोधाग्निज्वलितदृशः कोपवलमध्वलितलोचनाः । पुनः सहैम
कक्ष्याः ससुवर्णगण्डाः । पुनः फिविशिष्टा इव ? गजानामाकारैः प्रसादकोपाभ्यां जनिताभिः प्रकृतिभि___ रुत्कीर्णा उल्लिखिताः कुलपर्वता इव ॥६५॥
सामजा मदवशान्मतिहीना वक्रमङ कुशमृनुं युधि चक्रः ।
प्रायशः परिजहाति जनोऽयं तीवमेव समुपेत्य शठत्वम् ॥६६॥ सामजा इति-सामजा गजाः युधि रणे वनमजुम् अङ्कुश साणमृजें प्राञ्जलं चक्रुः कृतवन्तः । कथवे चंचल मनके समान दौड़ते थे, तथा कुम्हारके चक्र के समान तेजी तथा स्वाभाविकताके साथ घे दाय-बायें मुड़ते तथा चक्कर काटते थे ॥२॥
__ कंधोंके मध्यमें जुपंको बंधवाकर घे घोड़े रथसमूहको उसी प्रकार वेगसे खींचते थे जैसे संसारके मनोहर पदार्थ मनको लुभाते हैं, अथवा अन्तरंग चेतना जीवोंको बहन करती है अथवा जैसे जीय शरीरोंको लिये फिरते हैं ॥३॥
संघर्षका उत्कट अवस्थामें, कर्कश स्वरसे शत्रुओंको नाम लेकर चुनौती देते हुए अश्वारोहियों के द्वारा छोड़े गये असंख्य गिरते हुए फरसे ऐसी भीषण ध्वनि करते थे, जिसे सुनकर आँधीसे कैंपाये गये विन्ध्य पर्वतके थाँसोंकी ध्वनिकी याद आती थी ॥६॥
मदजलके झरनोंको गण्डस्थलसे बहाते, क्रोधकी अग्निसे अरुण नेत्र तथा सोनेकी खलासे यद्ध विशाल हाथी सब दिशाओं में दौड़ते हुए ऐसें लगते थे मानो हाथियों के आकारके कुलाचल ही विधिने खोदे हैं [कुलपर्वतोंसे भी परागयुक्त पानीके झरने बहते हैं, ऐसे साँप रहते हैं जिनकी आँखें क्रोधसे भी जलती है तथा सोनेके पार्श्व या खाने __ होती हैं] ॥६५॥ ____ मदोन्मत होनेके कारण विवेकहीन हाथियोंके द्वारा युद्ध में टेढ़े अंकुश सीधे कर
1. उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः-प०, ८० ।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
९६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
म्भूताः मतिहीनाः बुद्धिचिकटाः । कस्मात्मदवशात् भदाधीनत्वात् । युक्तमेतत् । अयं प्रत्यक्षो जनः प्रायशः बाहुल्येन शठत्वं खगति पूर्वमेत्य परिजहाति परित्यजति । कथम्भूतं शटत्वम् ? तीनं सोढुमशक्यपरिण तमेव । अत्रोभयवलातिशयोक्तिरुक्ता ॥ ६६॥
♦
'मुखकृतकपटाः प्रमत्तचिताः परुषरुपश्चरणेषु सत्स्वखिन्नाः । गुरुकुलमतिचक्रमुः कुशिष्या हितमिव संयति संयतं गजेन्द्राः ॥ ६७ ॥
भुखेल - गजेन्द्राः गुरुकुल महामात्रसमहमतिचक्रमुः अतिक्रामन्ति । क ? संयति संख्या । कथग्भूतम् ? हितम् अव्यभिचारि । पुः संयतं प्रयत्नायत्तं वचनचरणसङ्केता कुशप्रहारव्यापारीणमित्यर्थः । कसूता मुरुकृषकका पटतं । एकः प्राचवित्ताः प्रणमत्तं प्रमादितं चित्तं येषां ते । उन्मादिचेतका इत्यर्थः । पुनः परुषः कटीरपाः । पुनरखिन्ना अश्रान्ताः । केस ? रणे विद्यमानेषु । उपाधी । कुशिष्याः ( इव यथा ) दुभिप्रायाः वियाः गुरुकु रिसन्दोहमथवा गुरुवंशमतिक्रामन्ति । क ? संयति तपसि । कथम्भूतम् ? हितं मुलदम् । पुनः संयतमायानिष्ठम् । कथम्भूताः कुशिष्याः । मुखतकपटाः सुखे कृतं कपटं कौशित्वं दे । पुनः प्रमत्तचित्ताः स प्रमादहृदयाः । पुनः परूपरूपः । येषु ! चरणेषु चरित्रेषु । कथम्भूतेषु ? चरणेषु सत्सु शास्त्रोक्तषु । कथम्भूताः ? अखिन्ना अप्रवीणाः । अत्र यथायोग्यमुपमानोपमेययोगो योग्यः । पालङ्कारः ॥ ६७ ॥
"उभयपार्श्वगतान्निशिताञ्शराञ्शयुसमेन करेण विपाटयन् ।
जगणः शुशुभे व्रणगह्वरैः सपदि सौध इवामलजालकैः ॥ ६८ ॥
उभयेति- गजगणः श्रणः शुशुभे । किं कुर्वन ? शरान् वाणान् विपाटयन्तुस्पाटयन् । कथम्भूतान् ? निशितान् । कथम्भूतान् ? उभयपागतान् वामदक्षिणकुक्षिभोतान् । केन कृत्वा ! करेण शुण्डादण्डेन | कथम्भूतेन ? शक्समेनाजगरसदृशेन । कथम् ? सपदि शीघ्रम् ।
उपमार्थः यथा सौधो गेद्दोव ( हम ) गल्जालकै निर्मलगवाक्षजालकैर्भाति । उपमालङ्कारः ॥ ६८ ॥
दिये गये थे। लौकिक प्राणी भी तीव्र दुख पाकर बहुधा अपनी शत्रुताको स्वयमेव छोड़ देता है ॥ ६६ ॥
अन्यय-- मुख- कृत-क-पटाः प्रमत्तचित्ताः परूपरूपः च समु रणेषु अखिन्ना: गजेन्द्राः संयतं दि गुरुकुलं कुशिष्याः इव संयति अतिचक्रमुः ।
हथिनी के सूत्र से आई सुख होनेके कारण अत्यन्त मद-विशाल फलतः भीषण कुपित तथा चलते हुए युद्ध में कुछ-कुछ उदासीन हाथियोंने अत्यन्त अनुशासन प्रेमी तथा हित् अपने महान वंशकी अथवा महावत समूहकी भी कुशिष्य के समान युद्धस्थल में ही अवज्ञा की थी [ कुशिष्य भी कपटको सर्व प्रधान मानते हैं, इनका मन सदैव प्रमादी रहता है, ये कठोर और क्रोधी होते हैं तथा समीचीन आचरणके पालने में उदासीन होते हैं फलतः परम संयमी निश्रेयसदाता अपने गुरुसमूहकी संयमाचरणमें उपेक्षा करते हैं ] ॥ ६७॥
दोनों पावों में चुभे तीक्ष्ण, हाथी अपने शरीरपर लगे विशाल द्वारा उन्नत भवन लगते हैं || ६८ ॥
अजगरके समान बाणोंको विशाल सूंड से निकालते हुए घावोंके द्वारा वैसे ही दिखते थे जैसे स्वच्छ वातायनोंके
9. अर्थान्तरन्यासाऽलङ्कारः-प० ० २. अत्र औपच्छन्दसिकं नाम मात्रावृत्तम् । तथा वृत्तरत्नाकरे- पर्यंते यँ तथैव शेषं त्वोपकछन्दसिकं सुधीभिरनम्" (२-१३ ) । ३. मेतविलम्बितवृत्तम् । यथा हि वृत्तरत्नाकरे - " न विलम्बितमाह नभी भरी ।" ( ३-५० ) ।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
पञ्चमः सर्गः 'इति स पृतनां दृष्ट्वा विद्यामिव प्रतिबन्धिनी जलनिधिरिव क्षुभ्यलक्ष्मीधरोऽनुगतोऽग्रजम् । धनुरपि दधत्त्रेपे जिष्णुः सहायविशङ्कया
न च भुजबलाद्वीरोऽन्यस्माद्धनं जयमिच्छति ॥ ६९ ॥ इति धनञ्जयविरचिते राघवपाण्डचीये महाकाव्ये तुमुलयुद्धं नाम पञ्चमः सर्गः ॥५॥
इतीति-स लक्ष्मीधरः लक्ष्मणः पे लज्जितः । कया सहायविशङ्कया सहकारिभीत्या । कथम्भूतः ! जिष्णुर्जयनशीलः । किं कुर्वाणः ? दधत् । किमपि ? धनुरपि शरासनमपि । कथम्भूतः १ अग्रज राममनुगतः! पश्चाद्गतः । पुनः जलनिधिरिव समुद्र इव क्षुभ्यन् क्षोभं गच्छन् । किं कृत्वा ? प्रतिबन्धिनी प्रतिकलां पृतना सेनां दृष्ट्या सका। र ? अनि इन्जालमिव | कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण । अधुनाऽथान्तर प्रदश्यते । युक्त मेतम् । इच्छति । कोसी ? वीरः । किम् ? धनं द्रव्यं जयञ्च । कस्मात् ? भुजबलात् चाह-' सामर्थ्यात् । यत्माद्वीरो नेच्छति धनं जयञ्च | कस्मात् ? अन्यस्मात्सहायादेः ।
भारतीयः-स जिष्णुरर्जुनः पे सहायविशङ्कया । किं कुर्वन् ! धनुरपि दधत् । कथम्भूतः ? अग्रज गुधिष्ठिरमनुगतः भीमं वा । पुनः कथम्भूतः ? लक्ष्मी विभूति शरीरशोभा वा धरतीति लक्ष्मीधरः । शेष समानम् । अथान्तरन्यासः ॥६९।। इति निरवविद्यामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलीमण्डितस्य पटूतर्क चक्रवर्तिनः श्रीमद्दिनथचन्द्रपण्डितस्य गुरांरन्तेवासिनो देघनन्दिनाम्नः शिष्येण नेमिचन्द्रेण विरश्चितायां द्विसंधानकवेर्धनञ्जयस्य राघवपाण्डवीयापरनाम्नः काव्यस्य पदकौमुदो नाम दधानायां टीकायां
तुमुलयुद्धन्यावर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः ॥५॥
अन्वय-अविद्यामिष प्रतिबन्धिनी पृतनां दृष्ट्वा लक्ष्मीधरः जलनिधिरिव क्षुभ्यत्, अग्रज अनुगतः स जिष्णु: धनुरपि दधत् सहायविशङ्कया वेपे । हि वीरः भुजबलात् धनं अयं इच्छति च न अन्यस्मात् ।
अविद्याके समान कैवल्य-प्राप्तिमें बाधक पिरोधियोंकी सेनाको देखकर लक्ष्मीके निवास क्षीर समुद्र के समान बड़े भाई (राम अथवा भीम )का परम भक्त विजयका इच्छुक वह लक्ष्मण अथवा अर्जुन धनुपको उठाते हुए भी इसलिए लजा गया था कि लोग कहेंगे कि उसने धनुषकी सहायता तो ली थी। क्योंकि वीर पुरुष केवल अपने भुजबलके द्वारा ही
धन तथा विजयकी कामना करते हैं। किसी दूसरेके द्वारा नहीं ॥६९॥ = निदोषविद्याभूपणभूषित, पण्डितमण्डलाक पूज्य, पट्तचनबा, श्रीमान पन्धित विनयजन्द्र गुहले
शिप्य देवनन्दीके शिष्य, सकलकलाकी चातुर्यचन्द्रिकाके चकोर नेमिचन्द्र-द्वारा विरचित कधि धनञ्जयके राघवपाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसंधानकाव्यकी पदकौमुदी टीकामें तुमुलयुद्ध व्यावर्णन
नामक पञ्चम सर्ग समास ।
१. अन्न हरिणी वृत्तम् । तल्लक्षणं हि-"रसयुगहयैन्सौं नौ स्लो गो यदा हरिणी तदा।" [. र. ३-२३ ] ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
Maha
..
.
पष्ठः सर्गः 'ततः प्रयुक्त भ्रुकुटि स दुर्धरो निजोद्धतं विक्रमकालसाधनः ।
अरातिघाताय तमग्रजं व्रजन्नमर्षमुद्योग इवान्वगद्युतत् ॥१॥ तत इति-ततः पृतनादर्शनानन्तरं स लक्ष्मणः तं लोकविख्यातमग्रजं राममन्चम् पश्चाद्गामी अरातिघाताय शत्रुवधाय व्रजन् गच्छन् अद्युतच्छोभते स्म । कथम्भूतम् ? प्रयुक्तभ्रुकुटिं प्रयुक्ता प्रयोजिता भ्रुकुटिभ्रू अन्थियेन ते पुनः निजोद्धतमात्मना गर्विष्ठम् । कथम्भूतः ? दुर्द्धरः दुःखेन धतुं शक्यः पुनः विक्रमकालसाधनः विक्रमकाल एव साधनं यस्य सः पौरुपसमयसैन्य इत्यर्थः। अर्थान्तरं प्रदश्यते-क इव, अमर्ष क्रोधमनुगामी उद्योग उद्यम इव । भारतीयः-स अगुंगः तं युधिष्ठिर भीमं वा अन्वक् अशुतत् , अन्यत्रागानम् । उपभालङ्कारः ॥१॥
कृतातिपातावधिको समुद्धती हतावधी चापनयावलम्बिनी।
उभौ न्यरुद्धां निवहं विरोधिनां तमर्थकामाविव धर्मसंग्रहम् ॥ २ ॥ कृतातिपाताविति-उभौ द्वौ रामलक्ष्मणौ तं लोकप्रसिद्धं विरोधिनां वैरिणां निवहं समूह न्यरुद्धा निरुद्धवन्तौ । कथंभूतौ ? कृतातिपातौ विहितोपप्लवौ पुनः अधिकौ क्षात्रधर्मेण जगतामुपरि स्थितौ पुनः समुद्धतौ आत्मतेजसाऽत्ममन्यौ पुनः हतावधी अतिक्रान्तमयादी रामलक्ष्मणयोः शौण्डीर्यादिगुणानामियत्ता न केनापि कर्तुं शक्यत इति भावोऽत्र लक्ष्यते । पुनः चापनयावलम्यिनौ धनुर्विद्या वष्टम्भिनौ । को कमिव निरुद्धः यथाऽर्थकामौ धर्मसंग्रहं पुण्यसञ्चयमिव । कथंभूतौ १ अपनयावलम्बिनौ नीतिमार्ग विहायानीतिमार्ग प्रविष्टौ । भारतीय पक्षे-उभौ तौ भीमार्जुनौ, शेष रामम् । उपमा' |॥२॥
जयश्रियं दक्षिणमंसमंसलौ तनुं महावेगमहंयुतां मनः।
शरासनं ज्यां नृपती भयं रिपुं समं समारोपयतः स्म संयति ॥ ३॥ जयेति-नृपती नरेश्वरौ जयश्रियं दक्षिणमंसं स्कन्धं तथा तनुं शरीरं महावेगं तथा अहंयुतामहङ्कारं मनः तथा ज्यां मौवीं शरासनं तथा भयं रिपुं संयति संग्रामे समारोपयतः स्म | कथम् ? सममेकहे (वे) ल्या । कथम्भूतौ ? अंसलौ पीनभुजशिरसौ कूमोन्नतस्कन्धा वित्यर्थः । अत्रांसमहावेगमनः शरासनरिपुप्रयोगाणां
शत्रुसेनाको देखनेके बाद असह्य पराक्रमी, निजी पुरुषार्थ तथा अदृष्ट रूपी सेनासे युक्त वह लक्ष्मण अथवा अर्जुन स्वभावसे उग्न फलतः टेढ़ी भ्रुकुटियुक्त विख्यात यड़े भाई राम अथवा भीमके पीछे-पीछे शत्रुओका संहार करनेके लिए जाता हुआ ऐसा शोभित हुआ था जैसा रोषके पीछे जाता पुरुषार्थ लगता है ॥१॥
उपद्रय अथवा संहारके कर्ता, समस्त क्षत्रियों में श्रेष्ठ, अन्यायके कारण अत्यन्त उग्र, निस्सीम गुणोंके भण्डार, युद्धक्षेत्रमें केवव धनुष ( शस्त्र) नीतिके अनुयायी थे राम तथा लक्ष्मण अथवा भीम तथा अर्जुन शत्रुओंकी सेनाको उसी तरह समाप्त कर रहे थे जिस प्रकार अर्थ तथा काम पुरुषार्थका सेवन पूर्व संचित धर्म (पुण्य) को समाप्त करता है [पूर्वोपार्जित पुण्यके फलोन्मुख होनेपर ही अर्थ-कामोपयोगी साधन मिलते हैं । अर्थात् अर्थ कामके सेवनले पुण्य समाप्त हो जाता है ] ॥२॥
पुष्ट तथा उन्नत स्कन्धधारी राम-लक्ष्मण अथवा भीमार्जुन युद्धक्षेत्रमें एक साथ ही आत्मगौरवपूर्ण मन, अत्यन्त वेगवान शरीर, दाँया कन्धा, धनुष तथा मौर्वी और शत्रुओंके
१. सस्मिन् वंशस्थगृत्तम् । लक्षणं हि-"जतौ नु ग्रंशस्थमुदीरिसं जरी।" [वृ० र० ३-४७] ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः
पञ्चानाममुल्य ( ख्य) कर्मत्वम् । जयश्री तन्वहं मनोयुनज्याभयप्रयोगाणां पचानाञ्च पुनर्द्वित्तीयकर्भकल् बोद्धव्यम् । हेतुमद्भूतायाः समारोपण क्रियायाः द्विकर्मकत्वादिति । समुच्चत्रालङ्कारः ॥३॥
तपःसमाधिष्विव तौ तपस्यतां प्रसज्य कर्णेष्विव दिक्षु दन्तिनाम् ।
दिगीश्वराणां हृदयेष्ववायतं विकृष्य मौवीं विनिजघ्नतुस्वराम् || ४ || तत इति तदनन्तरं तौ रामायणमहाभारतयोर्मुख्यौ नरेश्वरो मौवीं जीवां विनिजघ्नतुस्तरामतिशयेनास्फालितवन्तौ । किं कृत्वा १ पूर्वमायतमाकर्णान्तं विकृष्य । किं कृत्वा ? पूर्व प्रसज्य समालीय । haa ! तपस्समाधिष्विव तपोऽनुष्ठानेष्विव । केषाम् ? तपस्यतां तपः कुर्वतां पुंसाम् । केष्विव १ कर्णेष्विव श्रवणेष्विव । केषाम् १ दन्तिनाम् । कासु ? दिक्षु दिशामित्यर्थः । तेनायमर्थः - दिग्गजानामिति सम्बन्धार्थविष (येयं) सप्तमी बोद्धव्येति । सम्बन्धस्याष्टोत्तरशतार्थाभिधायकत्वात् । विव? हृदयेष्विव स्वान्तेष्विव । केपाम् ? दिगीश्वराणां दिक्पालानाम् । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥४॥
ज्योर्विरिब्धं विनिशम्य धन्विनां निपेतुरस्राणि करान्मनांसि च ।
'लानि पूर्वाणि पराणि योषितां घनानि गूढान्यभवन्नभःसदाम् ॥ ५ ॥ व्ययोरिति-अस्त्राणि तोमरचनादीनि धन्विनां धनुर्धराणां कराद्धस्तात् निपेतुर्निपतितानि । अत्र चकारः समुच्चयार्थस्तेनायमर्थं निवेदितो भवति । धन्विनां मनांसि च निपेतुः । यांनि पूर्वाणि प्राक्तनानि आलिङ्गनानि प्रेमज्धनि धनानि दृढानि सन्ति तानि स्थानि अभवन् जातानि । यानि च पराणि भयजानि धानि सन्ति तानि च घनान्यालिङ्गनानि बभ्रुवुरिति कवेरभिप्रायः । मतान्तरमिदं यानि पूर्वा ( व्याद्यानि ) घनानि प्रेमरसरसायन र सिकानि तानि मनांसि गृदानि प्रच्छन्नवृत्तीनि अभवन् खञ्जतानि । यानि पराणि प्रेमकलहकालजनितानि मनांसि स्थानि शिथिलानि तानि धनानि प्रेमरसरमायनर सिकानि अभवेध | कासामू ? योषितां कामिनीनाम् । केषाम् ? नमःसदां नभसि सीदन्तीति नभःसदः तेषां देवानाम् । किं कृत्वा १ पूर्व विनिशम्य श्रुत्वा । कम् ? ज्ययोर्निरिव्यम् ध्वनिम् । भयभीतानां देवयोषितां मनांसि प्रिवालिङ्गने सञ्जातानीति । समुच्चयः ||५||
९९
गुणेन लोकं निनदेन दिङ मुखं रुषाऽन्तवह्नि वपुषापि पूषणम् । न चालीढपदेन मेदिनीं गणं रिपूणामविवेष्टतां शरैः || ६ ||
गुणेनेति-गुणेन सौ(शौ)ण्डीर्यवीय्यदार्यादिलक्षणेन कृला लोक जनं तथा निनदेन सिंहध्वनिना कृत्वा दिङ्मुखमाशावदनं तथा रुषा रोपेण कृत्वा अन्तवह्नि प्रलयानलं तथा वपुषा शरीरेणापि कृत्वा पूषणमादित्यं तथा दृढेनाभङ्गेन आलीढपदेन आलीदे पश्चादायतेऽधो वक्रोर्ध्ववत्र पदे यत्र तदालीढपदं स्थानकं भय इन सबको एक साथ चढ़ा देते थे [ मनमें विचार आते ही शरीर क्रियाशील होता था और शत्रु गिरते नजर आते थे ] ॥३॥
एकाग्रता तथा सातत्य की दृष्टिले तपस्वियोंकी समाधिके समान, खींचनेकी शैलीकी अपेक्षाले दिग्गजों के कानोंपर तथा विशालता की अपेक्षा दिक्पालोंके हृदयोंमें ही फँसायी गयी के समान धनुषकी लम्बी डोरीको खींचकर वे दोनों ( राघव - पाण्डब ) भाई तेजीले प्रहार कर रहे थे ||४||
राम लक्ष्मण अथवा भीमार्जुनकी उक्त ज्याका प्रचण्ड टंकार सुनकर शत्रु-योद्धाओंके मन ठंडे पड़ गये थे तथा हाथोंसे शस्त्र गिर गये थे। इस प्रकार इन स्वर्गवासियोंके पूर्व बद्ध अज्ञात कर्म छूट गये थे तथा भविष्यके दृढ़ हो गये थे [ अथवा ज्याकी टंकारसे भीत देवियोंने पहिले विहल होकर प्रेमालिंगन ढीला कर दिया था तथा सुरक्षा के लिए बादमें जोर से चिपक गयीं थी ] ॥५॥
इस प्रकार इन राघव पाण्डव बन्धुयुगलोंने अपने पराक्रमादि गुणोंसे विश्वको, हुंकार से समस्त दिशाओंको, क्रोधके द्वारा प्रलयानलको शरीरकी आमाले सूर्यको, स्थिर
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
तेनालीढपदेन कृत्वा मेदिनीं महीं तथा शरैर्वाणैः कृत्वा रिपूणां द्विषां गणमविवेष्टतां वेष्टितवन्तौ सौ कर्तृभूता नृपती । समुच्चयः || ६ ||
यशोवकाशस्य विधित्सया शरैर्दिशः परासारयतोरिवायतम् ।
विकृष्यमाणं युगमेव गच्ययोः ससार पश्चान्न पदं रणे तयोः ॥ ७ ॥
यश इति - गन्ययोमच्यः युगमेव द्वितयमेव आयतमाकर्णान्तं यथा भवति तथा आकृष्यमाणं ससार अपसृतं तथा तयोर्नरेन्द्रयोः रणे पदं चरणं पश्चात्पश्चाद्भागे न ससार । कथम्भूतयो रिवोत्प्रेक्षितयोः ! यशोऽवकाशस्य विधित्सया कत्तुमिच्छया शरैः वाणैः दिशः आशा परासास्वतोरित्र उत्सारयतोरिव । उत्प्रेक्षा ॥ ७ ॥
नृपौ रुषाऽपातयतां शिलीमुखान्समं सपत्ना हृदयान्यपातयन् ।
विदूरमुच्चैः पदमध्यरुक्षतां भियाध्यरुक्षन्युधि वामलूरकम् ॥ ८ ॥
नृपाविति नृपौ शिलीमुखान् वाणान् रुपाऽमर्षेण अपातयतां पातितवन्तौ । सपत्नाः शत्रुमः हृदयानि अपातयन् । कथम् ? समं युगपत् । अत्रायमर्थः तथा नरेन्द्राभ्यां भुक्तया वाणावया सार्द्धमेव हृदयानि शत्रवः पातयन्ति स्म । तौ नृपौ नरेन्द्रौ उच्चैः पदमुच्चपदवीमध्यस्थतामारूढवन्तौ । कथम् ? विदूरमलङ्घयम् । सपत्नाः 1 विपक्षः वामलूरक aeमीकं भिया भयेनान्यन्नारुरुक्षुः । कथम् ! रामं युगपत् । सहोतरलङ्कारः ॥ ८ ॥ इषून्विमर्देऽमुचतां शरासनं शरानसून प्यमुचन्नरातयः |
अजस्रम (मस्र') व्यमुचत्प्रियाजनस्तथास्थिताः स्पर्द्धममी न तत्यजुः ॥९॥
इषूनिति तौ नृपती विमर्दे सङ्ग्रामे इथून् वाणान् अमुचतां मुक्तवन्तौ तथा तयोर्मुक्तवाणावल्य नान्तरीयकत्वेन अरातयः शरासनं धनुस्तथा शरान् असून्प्राणानपि अमुचन् तथा प्रियाजनः भार्यासमूहः अस्रम अजत्रम्, अनवरतं व्यमुचत् । तथापि अभी इमे प्रत्यक्षरूपनिरूपिता अरातयः स्पर्द्धमीयां न तत्यजुः त्यक्तवन्तः । कथम्भूताः । तथास्थिताः तादृश प्राणान्तिकीमवस्थां प्राप्ता इति ॥ ९ ॥
विशेष सूत्रैरिव पत्रिभिस्तयोः पदातिरुत्सर्ग वाहतोऽखिलः ।
पलायितोऽन्योन्यमवेक्ष्य निस्त्रपः सहाभिभूतस्त्रपते हि कस्य कः ॥१०॥ विशेषसूत्रैरिति तयोः नृपयोः पत्रिभिः शरैराहतस्ताडितः पदातिः भृत्यः पलायितो विद्रुतः । तथा शुद्ध पैंतराके द्वारा पृथ्वीको और वाणवर्षाके द्वारा शत्रुओंके समूहको घेर लिया था ॥ ६ ॥
अपनी कीर्ति प्रसार के लिए पर्याप्त स्थान करनेकी इच्छासे ही युद्ध में वाणवर्षाके द्वारा दिशाओंको ढकेलते हुएसे उन राबव-पाण्डव बन्धुओंके धनुषकी विशाल ज्याकी जोड़ी ही खींच जानेपर आगे पीछे होती थी किन्तु इनके पैर युद्धमें कदापि पीछे नहीं पड़ते थे ॥ ७ ॥ जब युद्ध में कुपित होकर राधव पाण्डव राजा शत्रुओंके ऊपर वाण गिराते थे तभी शत्रु लोग अपने हृदयों को गिरा देते ( निराश हो जाते ) थे ये दोनों विजयी राजा दुष्प्राप्य उन्नत महाराज पदपर आरूढ़ होते थे तथा भयत्रस्त शत्रु दूर या पर्वतों पर जाकर विलों में छिप जाते थे ॥ ८॥
राघव पाण्डव वीर घोर संग्राममें यदि केवल वाण छोड़ते थे तो अभागे शत्रु राजा धाण, धनुष और अपने प्राण भी त्याग देते थे। इनकी प्यारी पत्नियाँ निरन्तर अश्रु बहाती थी किन्तु ये शत्रु राजा उस दुर्दशाको प्राप्त होकर भी ईर्ष्याको नहीं छोड़ते थे ॥९॥
उनके वाणोंके द्वारा सब तरफसे बेधी गयी पदाति सेना वैसे ही भाग खड़ी हुई थी १, सहजा वकोक्तिः प० द० १ २. कक्कोक्तिः- प०, ६० ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः
१०१ कीहक् ? अखिलः पुनः निस्पी निर्लजः । किं कृत्वा ? अन्योन्यं परस्परमवेक्ष्यावलोक्य । उपमार्थः क इव ! विशेषसूत्रैरपवादलक्षणैः विशेषोक्तविधिभिराहतः उत्सर्गः सामान्योक्तो विधिरिव ! अर्थान्तरमुपन्यस्यते-हि स्फुटं सहाभिभूतः सार्द्ध पराजितः प्राणी कः कस्य त्रपते लजते ? अपि तु न कोपि कस्यापि ॥ १० ॥
स तिर्यगन्वक्पुरतश्च विद्विषां दरीषु गुल्मेषु ददर्श तौ गणः ।
असूनिवान्वेष्टुममुष्य चक्षुषोर्मनस्विनौ बभ्रमतुर्मनास्वपि ॥११॥ स इति-तौ लोकप्रसिद्धौ नृपती कर्गभूतौ सः विद्विषां वैरिणां गणः तिर्यग्वामदक्षिणा दिशागे तथा अन्चय पाश्चात्यभागे पुरतश्चानतोऽपि दरीपु कन्दरासु तथा गुल्मेषु क्षुद्रक्षुपादिषु ददशं । तथा तौ मनस्विनी सचेतस्को अमुच विद्विषां गणस्य अधिकरणभूतयोः चक्षुपोः लोचनयोः मनःस्वपि अमुष्य विद्विपां गणस्य असन्प्राणान् अन्धेष्टुमित्र बभ्रगतुः पर्यटितवन्तौ । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥११॥
ययुर्विदेशं विदिशं जगाहिरे धुनीरगाधा विललविरे गिरीन् ।
धृताः समुद्रस्य विलोलवीचिभिर्भयेऽपि भृत्या न पराक्रमं जहुः ॥१२॥ ययुरित्ति-भृत्याः पदातयः विदेशं ययुः गतवन्तस्तथा विदिशं ययुः पुनः धुनीः नदी: जगाहिरे व्यालोडितवन्तः । कथंभूताः धुनी ? अगाधा अतलस्पर्शिनी | पुनः गिरीन पर्वतान् विललचिरे विशेषगोल्लचित्तवन्तः तथा समुद्रस्य विलोलवीचिभिः चञ्चलतरङ्गैः कत्राभिः धृताः । एवञ्च सति पराक्रमं न जहः न त्यावन्तः । क सत्यपि ? भयेऽपि । अत्र भावो व्यज्यते । तौ नृपती व्यालोक्य विपक्षपदातीनां प्रचुरतरभयनशा द्विदेशविदिगादिपदार्थाः पलायगाव स्तोकतरा जाताः पलायनं तावत्प्रचुरतरमासीद् भयवशादिति ॥१२॥
विवांसि भान्योरिच बिभ्रतोस्तयोविंशङ्कया केचन कन्दरोदरम् ।
तमिस्रसवा इव तेऽधिशिश्यिरे क्व नष्टमार्गा न विशन्ति जन्तवः ॥१३॥ विधासीति-ते केचन शत्रवः विशङ्कया कन्दरोदरं गुहामध्यमधिशिदियरे अधिष्ठितवन्तः । कयोवि. शङ्कया ? विवासि तेजांसि विभ्रतोर्धरतोस्तयोनरेन्द्रयोः । कथंभूतयोरिव तयोः १ भान्वोरिख । कथम्भूताः केचन ? तमिस्रसङ्घा हव अन्धकारसमूहा इव यथा कन्दरोदरमधिशेरते । अर्थान्तरमुपन्यस्यते-नष्टमार्गाः प्रभ्रसञ्चाराः के जन्तवः प्राणिनः क न विशन्ति अपि तु सर्वस्मिन् स्थाने विशन्त्येव ||१३|| जैसे शास्त्रके अपवाद (विशेष) सूत्रोंके द्वारा समस्त उत्सर्ग ( सामान्य विधि ) किया जाता है। एक दूसरेको देखकर उन पदातियोंका संकोच या लज्जा खुल गयी थी और उचित ही है क्योंकि एक साथं पराजित, अतएव भागते हुऑमें कौन किससे शर्माये ॥१०॥
वह शत्रुओका समूह उन दोनों राजाओंको दाँये-चाँये, आगे पीछे, गुफाओं और झाड़ियों में भी देखता था। मानो ये दोनों मनस्वी राजा शत्रुसमूहके प्राणीको खोजनेके लिए ही उनकी आँखों तथा मनोंमें भी घूम रहे थे ॥११॥
शत्रुओंके पैदल सैनिकोंने भयमें भाकर भी पराक्रम ( दूसरे पर आक्रमण) को नहीं छोड़ा था क्योंकि ये विदेशको चले गये थे, विदिशाओं में भाग गये थे, गहरी विशाल नदियोंको पार कर गये थे, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ोंको लाँघ गये थे, और समुद्रकी चंचल तरंगों पर भी तैर गये थे ॥१२॥
सूर्यके तेजके समान प्रखर प्रतापके स्वामी उन राघव-पापडव राजाओंके भयले कितने ही शत्रुलोग अन्धकारपुजके समान गम्भीर गुफाओं में समा गये थे। ठीक ही है, क्योंकि पथभ्रष्ट अथवा घेरे गये लोग किस कुमार्ग अथवा दिशामें नहीं भागते हैं ॥१३॥
१. अर्थान्तरन्यासाऽलङ्कारः-५०, द०। २. चक्रोक्तिः-५०, द.। ३. अर्थान्तरन्यासाऽलङ्कारःप०, द.।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
निमहाकाव्यम्
इति प्रतापादवगाढयोस्तयो रणस्य मध्यं रिफ्योऽनुकूलताम् ।
हृदस्य जग्मुः करिणोरिवोर्मयश्चलाः सहन्ते किमिवातिवर्तिनः ॥१४॥ इतीति तयोर्न रेन्द्रयोः इति एवोक्तात् प्रतापादनुवालतामनुलोमत्वं जग्मुययुः । के ! रिपवः । कथंभूतयोस्तयोः ? रणस्य मध्यमन्तः अवगाढयोरधिष्ठितवतोः । के कयोरिव ? हृदय मध्यमवगाढयोः करिणीः ऊर्मय इव । अर्थान्तरमुपन्यस्यते-चलाः चञ्चलाः किगिव सहन्ते सोलु प्रभवन्ति । कान् ! अतिवर्तिनोऽतिनमणशीलानिति ।।४।।
गतायशिष्टेषु चलेषु केष्वपि स्थितेपु पुजैः सरसस्तपेऽम्बुपु ।
अकालमेघा इव तत्र नायकाः समन्ततः संनिहिता धनुभृताम् ॥१५॥ गवेसि-मनिहिताः निकटे स्थिताः । पं.? नायकाः स्वामिनः। कंपाम् ? धनुर्भूतां धनुर्धराणाम् | कथम् ? समन्ततः सामपा | ai ? ना संग्रागे | पु सत्सु ? बलेपु सैन्येपु गतावशिष्टेनु गतेभ्योऽवशिष्टानि गलाबशिष्टानि पु पलायितवृतेषु स्थितेषु सत्सु । कः ? पुसः समुदायः । कथंभूतेषु सल्मु ? केष्वपि कतिपयेस्वपि । उपमार्थः कः दन? अकालमेया इव यथासमयपयोदाः सन्निहिता जायन्ते । कस्य ? सरसः सरोवरस्य । छ ? तपे गी । पु सत्सु ? अम्बुपु जानु गतायशिष्टेषु पु. केम्वपि स्थितेषु सत्सु । उपमालङ्कारः ॥१५॥
पतत्रिनादेन भुजङ्गयोपितां पपात गर्भः किल तायशङ्कया । . . . नवरः विचितच जाताधना बो भयेनास्यपगारमुद्यताः ॥१६॥
पतत्रीति-शुजङ्गयोषितां नागबधूनां तायशाया गमलमील्या पतत्रिनादेन वाणथ्वनिना गर्भः पपात पतितः । कया ? किन होलोतो मानोको वा । वोरण्ये मधेन भीत्या अस्पपगारमसीनपगूर्यासिभिरपगृर्य बा खड्गानुस्खाय नमधरा उद्यता जानूध रियताः । कथम्भूताः नभश्वराः ! निश्चितमन्त्रसाधनाः निश्चित्तमात्मनतीतिगानीतं मन्यगायन सो । मन्चयः ।।१६।।
समन्ततोऽप्युद्गत धूमकेतवः स्थितोलवाला इव तत्रसुर्दिशः ।
निपेतुरुल्काः कलमाग्रपिङ्गला यमस्य लम्बाः कुटिला जटा इव ॥ १७ ।। समन्तत इति-दिशः आशाः तनुः प्रस्ताः । कथम्भूताः ? उद्गतधूमकेतवः । किंविशिष्टा हव ! स्थितोशला छ । तथा कलमानपिङ्गलाः शालिकेशरपिनाः उस्का विद्युतो निपेतुः । किंविशिष्टा इव १ यमस्वान्त कत्ल लम्बाः प्रलम्याः कुटिला वा जटा इव ॥ १७ ॥
इस प्रकारकं पराक्रमी उन राघव-पाण्डव राजाओंके युद्ध के बीचमें जाते जाते ही शत्रु वैसे ही अनुकूल हो जाते थे जैसे सरोवरके बीच में तैरते हाधियोंके पीछे लहरें चलती है। उचित ही है क्योंकि रवयं चंचल अतिक्रमणशीलके सामने कैसे टिक सकता है ॥१४॥
भागते-भागते भी कुछ शत्रु-सेनाएं थोड़ी-बहुत बच गयीं थी। इन्हें धनुपधारी सेनापतियाने चारों ओरसे वैसा ही घेर लिया था जैसे ग्रीष्म ऋतु में तालाबमें बचे थोडेसे पानीको असमयमै उमड़े बादल घेर लेते हैं ॥१५॥
चाणकी टंकारको सुनकर गरुड़की ध्वनिका भय हो जानेसे नागपत्नियांके गर्भपात हो गये थे। खेचरोंको भी ऐसा दारुण भय हुआ था कि तलवारको मियानसे निकालनेका प्रयत्न करते-करते ही उन्हें यह विश्वास हो गया था कि चे मंत्रवलसे ही सफल हो सकते है ॥१६॥
युद्धकी भीषणतासे दशा दिशाएँ ऐसी भीत हो गयी थी जैसी कि चारों ओरसे धूमकेतु छा जानेपर होता है और उनके थाल खड़े हो जाते हैं। शस्त्र-संघर्षले उत्पन्न पके धान्यकी बालोंके समान धूसर रंगकी विजलियाँ गिर रही थीं जो यमकी लम्बी और टेढ़ी जटाके समान प्रतीत होती थीं ॥१७॥
१. उत्प्रेक्षालङ्कारः-५०, द० ।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
षष्ठः सर्गः
प्रभिन्नकक्षीवति लोलवाजिनि स्थिते पुरः स्यन्दनभाजि राजके । मनश्चकम्पे वनसन्निवासिनां तयोः क्षणं जीवितसंशयं गतम् ॥ १८ ॥ प्रभिन्नेति-वनसन्निवासिनां वनेचराणां मनरचेतः चकमे प्रकम्पितम् । कथम्भूतं सत् ? जीवितसंशयं गर्त सत् । कयोस्तयोर्न रेन्द्रयोः । कथम् ? क्षणं मुहूर्त्तमेकम् । च सति ? राजके नृपसमूहे प्रभिन्नकक्षीवति प्रभिन्नाः कक्षीवन्तो हस्तिनो यस्य तस्मिन् । पुनः लोलवाजिनि लोलाश्वञ्चलाः वाजिनस्तुरङ्गाः यस्य तस्मिन् । पुनः पुरोऽग्रतः स्थिते । पुनः स्यन्दनभाजि सरथे ॥ १८ ॥
इतस्ततः संविवषतां द्विषां सितातपत्राणि शितार्धचन्द्रकैः । तयोर्विनानि यशांसि संहति समागतानीव रणाङ्गणेऽपतन् ॥ १९ ॥
इतस्तत इति रणाङ्गणे द्विषां शत्रूणां खितानपत्राणि इतस्ततः अस्मिन् तस्मिन्प्रदेशे अपतन् पतितानि । कथम्भूतानि ? तयोः नरेन्द्रयोः शितार्द्धचन्द्रकैः निशिववाणविशेषैः खानि हिन्नानि । कानी ? संहति समुदायं समागतानि यशांसीव । किं कुर्वतां द्विपाम् संविवरीपतां संवरीतुमिच्छताम् । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥ १९ ॥ रथेषु तेषां जगतीभुजां ध्वजान्महीभुजौ चिच्छिदतुर्भुजानिव ।
तथा क्षुरप्रेरनयैः क्रियाफलं मदातिलोभाविव वाजिनां युगम् ॥ २० ॥
रथेविति महीभुजौ नरेन्द्रौ जगतीभुजां राशां रथेषु रथानामित्यर्थः । अत्र सप्तमी सम्बन्धविषया ज्ञेया । ध्वजान् चिच्छिदतुः छेदितवन्तौ । कानिक ? भुजानिय बाहूनिव । तथा बाजिनामश्वानां 'युगं क्षुरत्रैर्वाणविशेषैः चिच्छिदतुः । काविव ? मदातिलोभौ इव यथा । मदो वैचित्यमतिलोभः आत्मन्यनात्मीयस्य वस्तुनोयाकाङ्क्षया समर्पणमित्यतित्येभः । मदश्चातिलोभ्य तौ तथोक्तौ चिच्छिदतुः । किम् ? क्रियाफले विग्रहयानासनादिलक्षणं षाड्गुण्यम् । कः कृत्वा ? अनयेः । गुणानां यथास्वमवस्थानानि नयास्तद्विपरीतैरनयैः कृत्यानामकरणैर-कृत्यानां करणैश्वाक्षयलाभवियोग कारणैरित्यर्थः । अनीतिभिरिति शेषः ॥ २० ॥ शरेण चूडामणयः किरीटतो विपाटिता नायकतां विहाय ते ।
कुतोऽपि याता विदिता न भूभृतां पदच्युतानामियनीदृशी गतिः ||२१||
शरेणेति- विपाटिता उच्चारिताः । के ? चूड़ामणयः शेखररत्नानि । केन ? शरेण वाणेन कस्माद्विपाटिताः ? किरीटतः मुकुटात् । केषाम् ? भूभृतां नृपाणाम् । तथा न विदिता न लोचनगोचरा जाताः ।
हरित सेनाको चूर चूर करते हुए चंचल और तेज घोड़ोंकी सेनाको दौड़ाते हुए तथा रथांकी तोड़ मरोड़ करनेमें लोन उन योद्धा राजाओंको देखकर वनवासियोंका वित्त काँप गया था और क्षणभरके लिए उनका अपना जीवन भी संशय में पड़ गया था ॥ १८ ॥
राघव पाण्डवौके अर्द्ध चन्द्राकार बाणोंके द्वारा काटे गये संवरण करनेकी इच्छा से ही एकत्रित शत्रुओंके श्वेत छत्र रणभूमि में इधर-उधर बिखरे हुए ऐसे लगते थे मानो शका समूह वहाँ इकट्ठा हो गया हो ॥ १९ ॥
इन दोनों राजाओं ने शत्रु राजाओंके रथोंपर लहराती बाहुओंके समान ध्वजाओंको अपने क्षुरप्र बाणोंके द्वारा काट डाला था। जिस प्रकार भीषण अहंकार और प्रगाढ़ लोभ अनीति मार्गका आचरण कराके ध्यान आसन आदि तपस्याके फलको नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार इनने उनके रथके घोड़ोंके जोड़ीके कंधे पर रखे जुआको काटकर फेंक दिया था ॥ २० ॥
शत्रु राजाओं के मुकुटोंके ऊपर वाण चलाकर राघव पाण्डव वीरोंने चूडामणि उड़ा
१. "थुमो रथे हलाल” इति मेदिनी । अतोऽत्र बोढबन्धनस्थानं ग्राह्यम् । २. विनाश-दु० । ३. संकराऽलङ्कारः- प० द० । ४. उचिता प०, ६०
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् के ते ! चूडामणयः । कथम्भूताः सन्तः ! याता गताः। कथम् ? कुतोऽपि कस्मिन्नपि स्थाने । किं कृत्वा ? पूर्व विहाय परित्यज्य | काम् ! नायकतां प्रधानत्वम् । अत्रैतदुक्तं भवति-भूभृतामेव नायकत्वमवशिष्टं न खलु चूडामणीनामिति भावः । अर्थान्तरमुपन्धस्यते-पदच्युताना स्थानभ्रष्टा नामियं प्रत्यक्षीभूता ईदृशी गतिरवस्था' ॥ २१ ॥
प्रसह्य ताभ्यां परलोकसाधनः शरैनृपाणां गुणवान्पराहतः।
मदाभिमानाधिकवीर्यसंग्रहाद् वसुस्मराम्यामिव धर्मसञ्चयः ॥२२॥ प्रसहोति-पराहतः निराकृतः। कोऽसौ कर्मतापन्नः ? धर्मसञ्चयः चापसमूहः । काभ्याम् १ ताभ्यां नरेन्द्राभ्याम् । कथम् ? प्रसह्य बलात्कारेण । कस्मात् ? मदाभिमानाधिकवीर्यसंग्रहात् ( मदः स्मयः) तस्येदं लक्षणम् । “ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो धपुः । अष्टावाश्रित्य मानिरवं मदमाहुर्गतसयाः ॥" [२. क, २५] अभिमानस्त्रिजगतामुपरि मां विहाय नान्यः कश्चिदौदार्यादिगुणवानस्तीति युद्धिः । वीर्य पराक्रमः । मदश्चाभिमानश्च मदाभिमानी मदाभिमानाभ्यामधिकच्च तवीर्यञ्च मदाभिमानाधिकवीर्य तस्य संग्रहोऽङ्गीकारस्तस्मात् । कैः कृत्वा ? शरैः वाणैः। केनां चापसञ्चयः १ नृपाणां भूपतीनाम् । कथंभूतः ? परलोकसाधनः परलोकं शत्रुवर्ग साधयतीति सः । पुनः गुणवान् जीवाचान् । उपमार्थः काभ्यामिव ? वसुस्मराम्यामिव । यथाऽर्थकामाभ्यां पराहतः कः धर्मसञ्चयः पुण्यसहयः । कथम् ? प्रराय हटात् कस्मात् मदामिमानाधिकवीर्यसंग्रहात् मदाभिमानप्रचुरसङ्गमात् । कथंभूतः ? धर्मसञ्चयः गुणवान व्रतादिमान् | पुनः परलोकसाधनः स्वर्गादिसाधकः । उपमालङ्कारः ॥२२॥
स सागरावर्तधनुर्धरो नरो नभासदां कामविमानसंहतिम् ।
अयत्नसंक्लसगवाक्षपद्धतिं चकार शातर्विशिखर्विहायसि ॥२३॥ स इति-स नरः ना कामबिमानसंहति कामाय सम्भोगाय विमानसंहतिः कामविमानसंहतिस्तां शातैनिशितैर्विशिखैर्वाणैः अयत्नसंक्लप्तगवाक्षपद्धतिमप्रयासविहितवातायनमार्ग चकार । क ? विहायस्याकाशे । कैषां विहायसि ? नभःसदां देवानां विद्याधराणां वा । कथम्भूतो नरः १ सागरावर्तधनुर्धरः सागरावर्तनामधेयं धनुर्धरतीति सः। दिये थे । फलतः वैरी राजा अपने नेतृत्वको त्यागकर न जाने कहाँ चले गये थे। उचित ही है क्योकि अपने पदसे ध्युत लोगोंकी ऐसी ही गति होती है ॥२९॥
कुल जाति आदिके भेदसे आठ प्रकारके मदी अहंकार तथा अधिक बल के संचयके कारण बसु और कामदेवके समान उन राघव-पाण्डय राजाओंने शत्रुलोगोंके विनाशमें सहायक तथा ज्या युक्त, शत्रु राजाओंके धनुष समूहको अपने बाणोंके द्वारा जबरदस्ती नष्ट कर दिया था [ अर्थ तथा काम पुरुषार्थ भी अष्टविध मद, अहंकार तथा अति शक्तिका संग्रह कराके दूसरे जन्ममें सहायक, वतादि पालन स्वरूप धर्म पुरुषार्थको बलवद् अभिभूत करा देते हैं ] ॥२२॥
सगर राजाकी वंश परम्परामें उत्पन्न उस धनुषधारी लक्ष्मणने आकाशचारी खर-दूषण आदि विद्याधरोंके इच्छा मात्रसे चलनेवाले विमानोंको आकाशमें ही रहने पर भी अपने तीक्ष्ण बाणों के द्वारा ऐसा छेद दिया था कि वे स्वाभाविक खिड़कियोंसे पूर्ण समान लगते थे।
___ अन्वय-सागरावत धनुर्धरः स विहायसि शातैः विशिखैः अनभःसदी कामविमानसंहति अयत्नसंक्लप्तगवाक्षपद्धतिं चकार ।
१. अर्थान्तरन्यासालक्षारः-५०, द.।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः
अधुना भारतीयः-स नरोऽर्जुनः कामविमानसंहति काममत्यर्थ विगतो मानो यस्याः सा कामविभाना सा चासी संहतिश्च ताम् । अयत्नसंक्लप्तगवाक्षपद्धतिमयत्नेन अतत्परतया संक्लप्ता विहिता गवां पशूनामक्षपद्धतिरिन्द्रियवर्गो यस्यां सा ताञ्चकार । अत्र शस्त्रविद्धानां किल भीरूणा नराणां शस्त्रक्षतशतजप्रवाहात् पूर्वं मूच्छी मनोवैकल्यं तदनन्तरमिन्द्रियाणां तेषु तेषु विषयेषु यदृच्छया प्रवृत्तिः संहतेनं भवतीति भावो निरूपितः । कैः कृत्वा तां तथोक्तां चकार ? शातैर्निशितैषिशिवणिः । क चकार ताम् ? बिहायसि विहानं विहः कप्रत्ययान्तः । विहानि विशिधप्रवृत्योरलक्षितानि अकसे होशनियन विजयस्तस्मिन् बिहायसि रणे । केर कामन्त्रिमानरुहतिम् ? अनमस्सदा न नभसि सीदन्ति गच्छन्तीत्यनमस्सदो नरास्तेषाम् | म कथं भूतो नरः ! सागरावर्तधनुर्धरः सागरस्य समुद्रस्य आवत्ती हब पयसां भ्रमा इव आवर्ता यस्य तत् सागरावर्त्तम् । अथवा 'सगरो नाम चक्रवती सगरस्येदं सागरं धनुः सागरस्येवावत्ती यस्य तत् सागरावर्तम् | अथवा सागरं समुद्रमावर्त्तयतीति सागरावर्त तच्च धनुर्धरतीति तथोक्तः । ३लेपः ॥२३॥
कणैर्गजास्तेन विलूनपुष्करा बभुः सवन्तः क्षतजानि धारया ।
वृहन्नितम्बा दवदाहनीलिता नगाः क्षरग रिकनिझरा इव ॥२४॥ कणेरिति-तेग द्वितयेन नरेन्द्रेण की वाणैः विलन पुष्करा दिछन्नशुण्डानाः गजाः हस्तिनो यभुः शोभन्ते म । कथम्भूताः गजाः ? धारया शतजानि रुधिराणि सवन्तः । पुनः वृहन्निलम्बाः स्थूलकटिप्रदेशाः । क इब ? नगा इन पर्वता इव । कथम्भूताः नगाः १ बृहन्नितम्बाः स्थूलसानवः । पुनर्दवदाहनीलिताः वनध्वलनमानेपानीलमायाः । पुनः क्षर रिकनिझराः स्वधातुजलालवाः ||२४||
स्थप्रयुक्तस्य हयस्य पश्चिमे शरैविलूने पदयोर्युगेऽमुना ।
पुर-पदोत्क्रान्तधुरस्य चामरैमृगाधिपस्येव सटैः क्रमोऽभवत् ।२५|| रथेति-अभवत्सञ्जातः 1 कः क्रमः स्फालनम् । कस्य ? हयस्यानस्य ! कैः ? चामरैः प्रकीर्णकः । इ. सति ? पदयोश्चरणयोः युगे युग्मे शरैः वाणेचिलूने सति । कथंभूतत्य ? रथप्रयुक्तस्य । पुनः कथम्भूतस्य ? पुरःपदोकान्तधुरस्य पुरःपदाभ्यामग्रचरणाभ्यामुत्रान्ता धुरा येन स तस्य अग्रचरणोर्ध्व विषाकृतयूपस्येत्यर्थः । उपमार्थः प्रदर्श्यते । कस्येव क्रमोऽभवत् मृगाधिपत्येव । यथा सटैः स्कन्धकेसरैः सिंहत्त्व अमो जायते तथा यस्य प्रमो मुग्यत इति । उत्प्रेक्षालङ्कारः ॥ २५ ।।
हतैकपादं युधि तस्य रोपणैः क्षणं निषण्णं सुहृदीव कार्मुके । परत्र राजन्यकमेकपादकं तपस्यतीव स्म जिगीषया रिपोः ॥ २६ ॥
. समुद्र की भोरके समान विशाल तथा दारुण धनुषके धारक उस अर्जुनने विशिष्ट लौदसे धने शलोंकी प्रयोगस्थली युद्धभूमिमें अपने प्रखर थाणोंकी वर्षासे थलचर कीचकादि के निमिप्ससे घेरी गयी सर्वथा ये प्रमाण गायोंके समूहको बिना किसी प्रयत्नके निकल भागने योग्य मार्ग बना दिया था ॥२३॥
राधव-पाण्डव राजाके द्वारा 'कण' प्रकारके वाणोंसे रॉड काट दिये जाने पर घावोंसे रक्तकी धार बहाते हुए सुपुष्ट हाथी दावाग्निसे जलनेके कारण नीली नीली, मोटी चोटियों युक्त तथा गेरूके झरनोंको बहाते हुए पहाड़ों के समान प्रतीत होते थे ॥२४॥
रथमें जुते घोड़ोंके पीछेके पैरोंकी जोड़ीको राघव अथवा पाण्डव राजाके वाणोंसे काट दिये जाने पर भी केवल आगेके पैरोके सहारे रथकी धुराको सम्हाले तथा चमर लटकाते घे घोड़े गर्दनके वालोंसे सुशोभित हमला करनेके लिए तैयार सिंहके समान प्रतीत होते थे ॥२५॥
१. राधवीयपक्षे समुचित इति । २. उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः-१०, २० ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिसन्चाध्यम्
हति- राजन्यकं राजपुत्रसमूहः कार्मुके धनुषि निषण्णमवष्टव्धम् । कस्मिन्निव सुहृदीव | कथम् ? क्षणम् । कथम्भूतम् ? हतैकपादं छिन्नैकचरणम् । कः ? तस्य नरेन्द्रद्वितयस्य रोपणैः शरैः । क १ युधि रणे । उत्प्रेक्षते - एकपादकमेकः पादो यस्मिन् क्रियाविशेषणे । परत्र परलोके रिपोः शत्रोः विजिगीषया जेतुमि च्छया तपस्यति रमेव तपस्याञ्चकारेव || २६ ||
१०६
सूर्यासं किमसिं किमर्गलां गदां नु पाशं नु परश्वधं धनुः । दधत्किमित्याकलितो न भीरुभिर्मतिः कुतो वा चलितेषु धातुषु ||२७||
स इति-स लक्ष्मणः भीरुभिः कातरैः किम् इति न आकलितः न निश्चयमानीतः । किं कुर्वन् ? किं सूर्यहासाख्यमसिं खङ्गां दधत् दधानः । किमर्गलां परिश्रम् नु अहो किं गदां नु किं पाशं तु किं परश्वधं किं परशुं किं धनुश्चापं दधदिति सम्बन्धः । अर्थान्तरमुपन्यस्यते धातुषु रसासम्मांसादिषु चहितेषु सत्सु कृती वा भतिः स्यात् ।
भारतीय:: - सः अर्जुनः भीरुभिरसिं दधत् न आकलितः । कथम्भूतम् ? असं सूर्यहास सूर्यस्येवदास - तेजी यस्य तं सूर्यसदृशदीप्तिमित्यर्थः । अन्यत्समम् || २७ ||
स शात्रवाणां हृदि शल्य मुद्धरन्स्वशस्त्र शल्येन जगाम बन्धुताम् ।
समुन्नता यत्कुपिताश्च कुर्वते न तत्प्रतीता ह्यपि दुर्जनाः श्रियम् ॥ २८ ॥
स इति स नरेन्द्रः स्वशस्त्रदात्येन शात्रवाणां हृदि हृदये शयमुद्धरन्नुत्पाटयन् बन्धुतां बान्धवत्वं जगाम गतवान् | अर्थान्तरमुपन्यस्यते--- समुन्नताः सत्पुरुषाः कुपिताः क्रुद्धाः च अपि सन्तः यत् प्रियं कुर्वते तत् प्रियं प्रतीताः तुष्टा अपि दुर्जना न कुर्वते । हिं स्फुटम् ॥ २८ ॥
नृपा नृपत्वं न शराः शरात्मतां न कार्मुकं कार्मुकतां तुरङ्गमाः । तुरङ्गतां तिष्टिधिरे न संयुगे विमुञ्चति ज्यायसि वाणसंहतम् ॥ २९ ॥
नृपा इति-न तिष्टिधिरे नास्कन्दन्ति स्म न प्राप्ता इत्यर्थः । के ? नृपाः भूपतयः । किम् ? नृपत्यं क्षात्रधर्मम् । तथा शराः न शरात्मताम् । प्राणान् शृणन्ति हिंसन्तीति सरास्तेषामात्मा शरात्मा तस्य भावस्तत्ता तां प्राणिप्राणमारणलक्षणं धर्ममित्यर्थः । तथा कार्मुकं धनुः न कार्मुकताम् । कर्मणि शक्तं कार्मुकं तस्य भावस्तता तां नमनाकर्षणसमर्थस्त्रम् । तथा तुरङ्गमा अश्वाः न तुरङ्गतां तुराङ्गच्छन्तीति तुरङ्गास्तद्भावं
लक्ष्मण अथवा अर्जुनके वाणोंके द्वारा युद्धमें एक पैर कट जाने पर भी मित्र के समान धनुषका सहारा लेकर एक पैरके बल ही खड़े शत्रु राजा लोग ऐसे लगते थे मानो परलोक में शत्रुको जीतने की कामनाले 'एकपाद' मुद्रामें तपस्या ही कर रहे हैं ॥२६॥
सूर्यहास नामकी अलौकिक तलवारके धारक उस लक्ष्मणको कायर शत्रु लोग ठीक तरहसे नहीं समझ सके थे। वे सोचते थे क्या तलवार है, या अर्गला है, या गदा, पाश, फरसा अथवा धनुष है। टीक ही है वीर्य के गलित हो जानेपर सन्मति कहांसे आयगी ? अथवा तीक्ष्णता और प्रतापमें सूर्य को भी हँसनेवाले गाण्डीव धनुषके धारक उस अर्जुनको ॥२७॥
अपने वाणादि शस्त्रोंकी नोकसे शत्रुओंके हृदयकी जय-पराजयादिकी शल्य ( चिन्ता ) को दूर करते हुए उस लक्ष्मण अथवा अर्जुनने मित्रका काम किया था । यह उनके अनुरूप ही था क्योंकि क्रुद्ध होकर भी सज्जन जितना उपकार करते हैं दुर्जन अत्यन्त प्रसन्न होकर भी उतना नहीं करते हैं ||२८||
१. अर्थान्तरन्यासाऽलङ्कारः - प०, द० । २ अर्थान्तरन्यासालङ्कारः--प०, ६० !
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः
१०७
शोधगामित्यमित्यर्थः । क सति ? ज्यायसि ज्येष्ठे भ्रातरि संयुगे रणे वाणसंहति शरपरम्परां मुञ्चति विसृजति सति । तिष्ठिपिरे इति क्रियापतिसम्बन्धं सम्बन्धनीयेति । समुच्चयालङ्कारः ॥२९॥
गजेषु नष्टेष्वगजेष्वनायक रथेषु भग्नेषु मनोरथेषु च ।
न शून्यचित्तं युधि राजपुत्रकं पुरातनं चित्रमिवाशुभद् भृशम् ॥३०॥ गर्नेविति-युधि संग्रामे राजपुत्रकं नरेन्द्रसमूहः न अशुभत् , अपि तु शोभते स्म | ऋथम् ? भृशमत्यथम् । किमिवाशुभत् ? पुरातनं जीर्ण चित्रमिव । कथम्भूतम् ? शून्यचित्तं शून्यं चित्तं यस्य तत् । पुनरनायकमस्वामिकम् । के केंपु सत्सु ! अगजेषु गिरिसम्भूतेषु गजेषु नष्टेषु लोचनागोचरेषु सत्सु | पुनः रथेषु भग्नेषु शम्सधातेन चूर्णितेषु । तथा मनोरथेषु भग्नेषु भयवशेन विलयङ्गतेषु चेति । आक्षेपालङ्कारः ॥३०॥
प्रभावतो वाणचयस्य मोक्तरि प्रभावतोषे समरे स्थिते नृपाः ।
प्रभावतो हीनतया विवर्जिता प्रभावतो ही न तया रराजिरे ॥३१॥ ग्रभावत इति-ही कष्ट नृपा राजानः तया लोकप्रसिद्धया लक्षया चा हीनतया शिष्टजननिन्दितया कातरत्या या प्रभावतः प्रभावेण प्रतापेनेति विवर्जिताः प्रयुक्ताः सन्तः न राजिरे न शोभन्ते स्म । कथंभूतेन ? प्रकृष्टो भायो यस्मात् स प्रभावस्तेन प्रभावतः प्रभावन माहात्म्यं दातुं समर्थेनेत्यर्थः । अत्र "दृश्यतेऽन्यतोऽपि" [जै० ४।१।७२ ] इत्यनेन सूत्रेण तसो विधानम् । छ सति ? प्रभौ स्वामिनि रामे भीमे वा। कथंभूते ? स्थिते निविाटे | पुनः अतोऽसन्तुष्टे । पुनः वाणचयस्य शरसन्दोहस्य मोक्तरि चिसृष्टरि । कथम्भूतस्य ? प्रभावतः ग्रभाऽस्यास्तीति प्रभावान् तस्य दीतिमतः । आदिपदयमकम् ।।३१||
गजा नियन्तन्करशीकरोत्करैर्विमुक्तसूत्कारमिषूपदारितान् ।
'निशारशीतैरुदमीमिलनहो महीयसां प्रीतिररुन्तुदेष्वपि ॥३२॥ गजा इति--गजा हस्तिनः नियन्तन् महामात्रकान् विमुक्तसूत्कारं यथा उदीमिलन् उज्जीवन्ति स्म | कथम्भूतान् निवन्वन् ? इधूपदारितान् शरपचरजर्जरितान् । कैः कृत्वा १ करसीकरोत्करः गुण्डादण्डानविमुक्त जलविन्दुवृन्दैः । कथम्भूतैः ? निशारशीतैः हिमकण ( हिमांशु ) शीतलैः । अर्थान्तरम् । अहो आश्चर्य महीयसां गम्भीरचेतसां प्रीतिः अरुन्तुदेष्वपि मर्मछित्स्वपि स्यात् ॥३२॥
बड़े भाई राम अथवा युधिष्ठिरके याण चलाने पर युद्धमें नृप लोग नृपत्व (क्षात्रधर्म) को नहीं निभा सके थे शर शरता (दूसरोंका प्राणहरण) को, कामुर्क कामुर्फता (नमन, स्फालन, आदि कार्योंकी कुशलता) को तथा तुरंगम तुरंगता ( वेगले दौड़ना ) को नहीं निभा सके थे ॥२९॥
पर्वतोंमें उत्पन्न हाथियोके मारे जाने पर, रथोंके टूट जानेपर तथा विजयके मनोरथ समाप्त हो जानेपर क्षण भरके लिए स्तब्धचित्त तथा नेता विहीन वंशक्रमसे राजपुत्र क्या पुराने चित्रके समान अत्यन्त मनोहर नहीं लगते थे [प्राचीन चित्रसे भी कोई आय नहीं होती है तथा निर्जीव होता है ॥३०॥
असंतुष्ट राजा राम अथवा भीमकी लमरस्थलीमें उपस्थिति, प्रतापवान् वाण वर्षाते योद्धाओंके कारण लक्ष्मीसे परित्यक्त अतएव प्रभावसे वंचित शत्रुराजा लोग प्रभुताकी दृष्टिसे तनिक भी नहीं जंचते थे ॥३॥
वाणोंकी मारसे घायल महायतोको हाथी हिमकणों के समान ठंडे सूंडसे निकले जलबिन्दुओंके द्वारा तथा 'सूस' शब्द करते हुए पुनः चैतन्य करते थे। ठीक ही है महात्मा कष्ट देनेवालों पर भी प्रीति दिखाते हैं ॥३२॥
१. यद्यपि निशार इति आवरणेऽर्थे " वायुवर्णनिवृत्तेपु" इति घना साधितस्तथापि निशांराति गच्छति निशारश्चन्द्रस्तद्वच्छीतल इति टीकार्थः कथञ्चिसमाधेयः । हिमाय स्वप्रसिद्धः । २. अर्थान्तरन्यासः-प०,दछ।
-
-
-
--
-
-
-
-
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
ज्वलत्यमुष्मिन्कुपिते महीपतावनेकबन्धानि विभावसाविव । प्रिये प्रजानां ननृतु रणे तथा वने कबन्धानि विभावसाविव ॥ ३३ ॥
ज्वलतीति- कबन्धानि अशिरांसि तथा ननृतुः नृत्यन्ति स्म । क्क १ रणे सङ्ग्रामे । कथम्भूतानि ? अनेकबन्धानि नानाविधकरणानि । कस्मिन् सति १ अमुष्मिन्नस्मिन् महीपतौ रामे अर्जुने च असाविव प्राण इच प्रजानां प्रिये वल्लभे कुपिते सति । कथम्भूते महीपतौ ? बिभौ स्वामिनि " असावित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनम्" । पुनः कस्मिन्निव ? विभावसौ बह्नाचिव यथा वनेऽरण्ये ज्वलति दीसे भवति सति कबन्धानि जलनीव' ||३३||
तयोः पतन्त्यः शरपञ्जरान्तरं विरेजुरुष्णातपयष्टयः स्फुटम् ।
मेन शुद्धामपसञ्जिघत्सया तनूभृतां पर्श्व दवाव तानिताः ||३४||
तयोरिति तयोः नरेन्द्रयोः शरपञ्जरान्तरं वाणवेणीमध्ये पतन्त्यः उष्णा ( उत्ला ) तपयष्टयः प्रतिविम्बिता दण्डाकाराः किरणावल्य इत्यर्थः । विरेजुः शोभन्ते स्म । का उत्प्रेक्षिताः ? पद इव पर्शशब्दः कुक्षिप्रदेयात्रियाचया । वद्धापिसक्तिधित्सया केवलमांसभक्षणाच्या स्फुटभवतानिताः प्रसारिता इव । केपाम् तनुभृतां प्राणिनाम् ||३४||
शरैः हैः समस्तः खरदूषणो रिपुः समं ततोऽभी तमहानराजितः । विशीर्णचेताः कृतयुद्धविक्रमः समन्ततोऽभीतमहानराजितः ||३५||
शरैरिति-स्वरदूषणः खरदूषणनामा रिपुः शत्रुः न राजितः न शोभितः । कथम्भूतः १ : वाणेः समं युगपत् समस्तः सन्तर्जितः । कस्मात् ? ततः तस्माल्लोकप्रसिद्धात् अभीतमद्दानराजितः अभीतौ निर्भय बी महानरो मनुष्योत्तमौ रामलक्षणौ तयोराजितः रणात् । कथम्भूतः । विशीर्यचेताः क्लिन्नचितः । पुनः कृतयुद्धविक्रम: विहितसङ्क्रामविक्रमः । पुनः अभीत महाः अभि समन्तादितं गतगभीतं महीं यस्य सः सामस्त्येन नष्टतेजाः । कथम् १ समन्ततः सामस्येन ।
भारतीयः - न राजितः । कः १ रिपुः । कथम् भूतः १ समत्तोऽखिलः । पुनः खरदूषणः तीव्रापराधः । पुनः समन्ततः प्रभिन्नः । कः ? शरैः वाणैः । कथम् ? समं युगपत् । पुनः विशीर्णताः भीतचित्तः ।
जनता के लिए प्राणों के समान प्यारे समस्त पृथ्वीके इस राजा राम अथवा भीमके कुपित होनेपर समरभूमिमें नाना प्रकारके कबन्ध वैसे ही ( नाचते फिरते ) बरसते थे जैसे कि सूर्य के खूब तपनेपर बनमें जलकी वृष्टि होती है ॥३३॥
लक्ष्मण और अर्जुनके लगातार चलते वाणोंके पंजर के बीच में स्पष्ट रूपसे चमचमाती सूर्यकी उष्ण रश्मियां ऐसी दिखती थीं मानो शरीरधारियोंके शुद्ध मांसको खाने की इच्छासे यमराजने उनकी पसलियां अलग से फेंक दी हाँ ॥ ३४ ॥
उन निर्भय महापुरुषों राम तथा लक्ष्मणके द्वारा सब प्रकार से परास्त, एकाएक घाणों की मार से विल तथा भग्नमनोरथ तथापि सब प्रकारले युद्ध में पराक्रम दिखानेके लिए प्रयत्नशील वे खर-दूषण नामक शत्रु सब प्रकारसे प्रभाव नष्ट हो जानेके कारण निस्तेज हो गये थे ।
अन्वय-खरदूषणः रिपुः समं शरैः समन्ततः समस्तः ततो अभिन्इत महानरभाजितः विशीर्णचेताः कृतयुद्धविक्रमः अभीतमहा न राजितः
अत्यन्त अपराधी वे सब कीचकादि शत्रु एकाएक वाणोंके द्वारा छेद दिये जाने पर उन सामने बढ़ते हुए महापुरुषों, भीम तथा अर्जुनके साथ युद्ध करनेसे मन ही मन थंडे पड़ १. भन्तयमकम् - प०, ६० । २. उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः-८० ।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः
१०९
कस्मात ? अभीतमहानराजतः अभीतो भीमः महानरोऽर्जुनस्तयोराजिः सङ्ग्रामस्तस्मात् । अथवा सम्मुखागतार्जुनरणात् । पुनः कृतयुद्धविक्रमः कृतञ्च तत्युद्धञ्च कृतयुद्धं तत्र विगतः क्रमो यस्य सः विहितरणचिंगतशक्तिरित्यर्थः । पुनरभीतमाः प्रनटतेजा इति । इलेषः ।। ३५ ।।
चिरस्य युद्ध्वा स पपात निष्क्रियः सहैव शुद्धान्तवधूजनाश्रुभिः ।
सुरासुराणां कुसुमाञ्जलिर्दिवस्तयोरपप्तन्मधुपायिभिः समम् ॥३६॥ चिरस्यति-स खरदूषणो रिपुः चिरत्य चिरकालं युवा संप्रदृत्य निष्क्रियः निश्चेष्टः सन् शुद्धान्तवधूजानाश्रुभि रन्तःपुरकामिनीजनापजलैः सह पपात । तयोः नरेन्द्रयोः सुरासुराणा देवदानवानां कुसुमाञ्जलिः प्रसूना अलिः दिवः आकाशात् अपप्सत् पपात । कथम् ? समम् । कैः ? मधुपायिभिः भ्रमरैः ॥ ३६ ।।
निपीय रक्तं गुरगुष्पवामितं मितं कपालं परिपूर्ण मनृताम् ।
नृतां प्रशंसन्त्यनयोर्ननवाननर्तवाचोयु धि रक्षसां ततिः ॥३७॥ निपीयेति-रक्षरां ततिः श्रेणिः न नवा नन अपि तु ननत्व | छ ? युधि संग्रामे । "द्वौ नमो प्रकृतमर्थ गमगतः।" किं कुर्वती सती ? अनयोः नरेन्द्रयोः सूनृतां सत्यां नृतां धर्म प्रशंसन्ती । कथम्भूतयोरनयोः ? अतवाचोः सत्यवचसोः । किं कृत्वा नन ? सुरपुष्पवासितममरकुसुभसंस्कृतं रक्तं रुधिरं निपीय पीत्या 1 पुनः किं कृत्वा ? सितं शुक्ल कपालं परिपूयं मृत्त्वा ॥३७||.
प्रसार्य पादावधिरोप्य वालकं विधाय चक्रेऽङ्गुलिपङ्गमङ्गना ।
प्रवेशयापास वसा महीक्षितां प्रकल्प्य पीथं पिशिताशिनां शनैः ॥३८॥ प्रमाति-पिशिताशिनां रायमानामङ्गना कामिनी महीक्षितां नसतीनां वसा मांसादिगतस्नेहं बालक प्रवंशयामास पायवति रम । धादलामनेकार्थत्वात् । किं कृत्वा ? पूर्व पीर्थ प्रकल्प्य सङ्गन्य । किं कृत्वा ? यो बदने मन्द गुलिपनं विधाय कृत्वा । किं कृत्वा ! अधिरोग्य | कम ? बारकम् । किं कृत्वा ? पादी प्रसार्य ॥३८॥
समुत्पतन्तो दिवि रेणवोऽणवो विलूनमृलाः क्षतजेन तेनते ।
अधाप्रदीप्तज्वलनाः सितासिता रणस्य धूमा इव रेजिरेऽजिरे ॥३९॥ गमतातन्त इति-अणवः सूक्ष्माः रणोद्भया रेणवः धूल्यः रेजिरे भान्ति स्म । किं कुर्वतो रेजिरे ? दिग्नि गगने समुत्पतन्तः उत्प्लवमानाः । कथम्भूताः ? अधःप्रदीप्तज्वलनाः अधस्तात्प्रज्वलिताग्नयः । कथम्भूताः ?
गये थे । क्योंकि उनका सुद्धका पराक्रम समाप्त हो गया था और सब प्रकारसे प्रभाव समाप्त हो जाने से चे निस्तेज हो गये थे ॥ ३५॥
उक्त प्रकारसे चिरकाल तक युद्ध करके वह खरदूषण अथवा कीचक निष्क्रिय हो अन्तःपुरकी रानियोंके आँसुओंके साथ साथ गिर गया था। तथा दोनों पक्षके इन योद्धाओंके लिए देवता और दानवोंकी पुष्पांजलियाँ गिरी थी जिनपर भोरे गूंज रहे थे ॥३६॥
सत्यवादी राघव-पाण्डव राजाओंकी अक्षरशः सत्य महा मानवताकी प्रशंसा करती हुई राक्षसोंकी पंक्तियां युद्ध भूमिमें स्वर्गीय पुष्पोंसे सुगन्धित मृतोंके रक्तको श्वेत कपालोंमें भरकर यथेच्छ पीकर नाच उटी थीं ॥३७॥
मांसाहारी राक्षसोंकी लियोने पैरोंको फैलापर उनपर बच्चेको वैश लिया था फिर मत राजाओंकी चर्चीका घोल बनाकर बच्चोंके मुख में अंगुलि डालकर धीरे-धीरे उसे उनके गलेके नीचे उतार दिया था ॥३८॥
संग्राम-भूमिमें ऊपर उड़ी हुई धूलके कण घावासे यहे रक्त के कारण नीचे शान्त हो
१. सहोक्तिः-प०, द । २. पा थक् ( शतु दीति । उण , २७ ) पिबति रसादीनित्ति पा-कर्तरिया सूर्याग्निकालाः।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् विलूनमूलाः विलून मूलमधिष्ठानं येषां ते तथोक्ताः। केन कृत्वा ? तेन प्रसिद्धन क्षतजेन भटवणजातरुधिरेण | छ ? अजिरे | कस्य ? रणस्य । कथम्भूताः ? सितासिताः सिताश्चासिताश्च सितासिताः धवलश्यामलाः । क इच ? धूमा इव यथा धूमा आकाशे उत्पत्तन्तः सितासिता राजन्ते तथा रेणवोऽपीति । उत्प्रेक्षा ||३९||
शवाः शिवानां मुखतीयवाहिना रथेषु देहस्थितयाणदारुणा।
विदह्यमाना विधिमाययुर्भटाः स्त्रियश्च ता बाष्पजलाञ्जलिं ददुः ॥४०॥ शवा इति-आययुः गापुः । ये ? भटाः दीराः । कम् ? विधि संस्कारम् । कथम्भूता भटाः १ शयाः मृrः ! कोट ? रोए । पुनः कामाः ? निद्रामानाः संस्क्रियमाणाः । केन ? मुखतीयवहिना मुखो. द्भवाग्निना । कासाम् ? शिवानां शृगालीनाम् । केन कृत्वा ? देहस्थिरावाणदारुणा शरीरगतशरेन्धनेन । ददुश्च दत्तवत्यः | कास्ताः ? स्त्रियः कामिन्यः । कम् ? वाप्पजलाञ्जलिमश्रुजला जलिम् । समुच्चयः ।।४०||
मतङ्गाजानामधिरोहका हता मतं गजानां विवशा विसस्मरुः ।।
तदीयपङ क्या चपलायमानया परे विभिन्नाश्च पलायमानया ॥४१॥ मतङ्गजानामिति-विसरमर; विस्मृतवन्तः । के ? विवशाः विकला मतगजानामधिरोहका निषादिनः । किम् ? गजानां मतं शिक्षाम् | कथम्भूताः ? हता मृताः । अत्र भावो व्यज्यते । शरपमरजर्जरीभूतशरीराः यावत्कण्ठगतप्राणाः तावद्रजानां मतं न दिसत्मरुरिति । च पुनः पलायमानया विद्रुतया चपलायमानया चञ्चलया तदीयपक्क्या गजपंक्तया परे शनचो विभिन्नाः विदीर्णाः । समुच्चयः ||४||
बभौ महल्लोहितसम्भृतं सरः प्रपीयमानं तटवर्तिभिः खगैः ।
यमेन रक्तं विनिगीर्य देहिनामजीर्णमुद्गीर्णमिवातिपानतः ॥४२॥ बभाविति-लोहितसम्मृतं रुधिरमपूर्ण महद्विस्तीर्ण तटवर्तिभिः तीरस्थितैः खगैः पक्षिभिः प्रपीयमानः मतिपीयमानं सरः बभौ चकासे । यभेन कृतान्रोन पूर्व गिगीर्य निपीय उद्गीर्ण मुद्दान्तं देहिना प्राणिनां रक्त रुधिरमिव । कथम्भूतम् ? अतिपानतो तिपानात् 'अजीर्णमपरिणतम् ||४२।1।
गता हयेभ्योऽप्यसवोऽतिवेगतो गजा मुमूर्छः शरवर्षतोऽगजाः ।
स्था विभिन्नाः पतिता मनोरथा नरा गतास्ते न समानरागताः ॥४३॥ गता इति-हयेभ्योऽपि अश्वेभ्योऽपि अतिगतोऽतिजयात् असवः प्राणाः गतास्तथा अगजागिरिजाताः गजा हस्तिनः शरवर्षतो वाणवर्षणात् मुमूर्छः मूछिलास्तथा रथाः विभिन्नाः भग्नास्तथा गये थे फलतः ऐसे लगते थे जैसा कि नीचे आग जलते रहनेपर ऊपर उश्ता श्वेत-श्याम धुआं लगता है ॥३९॥
रथोंमें पड़े हुए योद्धाओंके शव गालियोंके मुखकी आगले शरीरमें चुभे वाणों रूपी ईन्धनके द्वारा जल रहे थे और इस प्रकार अन्तिम संस्कारको प्राप्त हुए थे। तथा उनकी स्त्रियोंके आंसुओंके पानीसे उन्हें जलांजलि दी गयी थी ॥४०॥
___ मदोन्मत्त हाथियों पर सवार योद्धाओंने प्राण निकल जानेपर ही विवश होकर हाथियोंका संचालन छोड़ा था। फलतः (बना महावतके होनेके कारण) भागनेवाली और अत्यन्त चंचल हस्ति पंक्तिके द्वारा रास्ते में आये शत्रु कुचल दिये गये थे ॥४१॥
किनारोंपर बैठे पक्षियों के द्वारा पिया गया मृतक योद्धाओंके रक्तसे परिपूर्ण रक्तका विशाल सरोवर ऐसा लगता था मानो यमराजने मनुष्योंका बहुत अधिक रक्त पी लिया है जो कि अत्यधिक होने के कारण पचा नहीं है फलतः वमन कर दिया है ॥४२॥
वाण वर्षा के कारण घोड़ोंसे भी अधिक तेजीसे उनके प्राण निकल गये थे, पर्वतोमें उत्पन्न विशाल हाथी भी मूर्छित होकर लुढ़क गये थे, रथ टूट फूट गये थे, और विपक्षियों के
१. उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः-प०, द.
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः
१११
मनोरथाः मनोऽभिलापाः पतिताः गताः तथा ते लोकप्रसिद्धाः नराः शत्रवः समानरागताः सह मानेन वर्त्तमानः समानः समानो रागो येषां ते समानरागाः तेषां भावाः समानरागतास्ताः ससत्कारानुरागभावान् न यता इत्यर्थः । समुच्चयः ||४३||
1
तथा द्विपेन्द्रास्तुरगाः पदातयो महान्वया भूपतयः क्षणेन तत् गतं समस्तं समवर्त्तिनो मुखं च्युतं न वोद्यं स्थितमेव विस्मितम् ||४४ ॥
तथेति - द्विपेन्द्रा भतङ्गतान्तथा तुरङ्गा अश्वास्तथा पदातयः भृत्यास्तथा महान्वया गजसाधनाः अश्वसाधनास्तथा भूपतयश्चावनीश्वराः तत् समस्तं रावल द्विपेन्द्रादि कर्तृ समवर्तिनः यमस्य मुखं वदनं क्षणेन मुहूर्त्तेन गतम् । अधुना सोपस्करतया व्याक्रियते तन्न च्युतं द्विपेन्द्रादि कस्मात्समवर्त्तिनो मुखात् । तत्र न बोधे नाश्वर्यम् । अत्र काकाक्षिगोलकन्यायेनोभयपदपरामर्शित्वं न ज्ञातव्यम् यत् स्थितं द्विपेन्द्रादि तद्रिस्मितमेवेति ||४४||
तथाहि भोगाः स्तनयित्नुसन्निभाः गजाननाधूननचञ्चलाः श्रियः । निनादिनाडिन्धमकण्ठनाडिवच्चलाचलं न स्थिरमायुरङ्गिनाम् ॥४५॥
तथाहीति - अत्र सन्तीति क्रियाऽध्यादार्या । तथा भोगाः कमनीयकामिन्यादयः स्तनयित्नुसन्निभाः मेघसदृशाः सन्ति । अत्र भोगानां क्षणदृष्टत्वं प्रदर्शितम् तथा थियो विभूतयः गजाननाधूननचञ्चलाः हस्तिवदनप्रकम्पचञ्चयः । कथम् ? हि स्फुटम् । तथा नास्ति किम् ? चलाचलं वस्तु । कथम्भूतं नास्ति १ स्थिरं निश्चलम् | किंवत् ? निनादिनाडिन्धमकण्टनाडिवत् ध्वनिमद्विहङ्गमगलधमनीवत् । तथा नास्ति । किम् ? आयुः प्राणधारणलक्षणं धर्मम् । कथम्भूतं नारित ! स्थिरम् । केषाम् ? अजिनां प्राणिनामिति ॥ ४५ ॥ अशेषमाकीर्णमुपैति शून्यतां क्षणाद्वियुङ्क्त समवेतमुच्चकैः ।
यदेव रक्त' भजते विरक्ततामहोऽनुभावाः क्षणिकाः स्वभावतः ||४६ || अशेषमिति-अशेषं सर्वमाकीर्णे प्रसृतं वस्तु शून्यतां लोचनगोचरातीततामुपैति प्राप्नोति । कथम् ? क्षणात् क्षणेन । तथा समवेत सम्बद्ध वस्तु वियुक्ते विघटते । उच्चकैरतिशयेन यदेव रक्तं सानुरागं तदेव चिरतां भजते व्रजति । अतएव सर्वे अनुभावाः अनुज्ञाताः पदार्थाः स्वभावतः परमार्थवृत्त्या अहो क्षणिकाः स्युः ॥ ४६ ॥
ततः स्फुटं पञ्चकमीक्षमाणौ तौ सिंहपोताविव विक्रमेण । निर्जग्मतुर्युद्धमुखान्नरेन्द्रौ क्रोधाभिमानाविव मूर्तिमन्तौ ॥४७॥
मनोरथ भी नष्ट हो गये थे किन्तु विचारे शत्रु लोग सम्मान और प्रीति के साथ वापस न जा सके थे ॥ ४३ ॥
मदोन्मत्त श्रेष्ठ हाथी, वायुके समान वेगशाली घोड़े, पैदल सैनिक तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न राजपुत्र थे सब क्षणभर में ही सबके समान रूपसे विनाशक यमराजके मुखमें समा गये थे। कोई नहीं बचा इसमें क्या कहना है आश्चर्य तो यही है कि कुछ बच गये थे ||४४ ॥ प्राणियों के प्रिय भोग गर्जते बादलोंके समान चंचल हैं, लक्ष्मी हाथी के हिलते हुए शिरके समान है तथा आयु भी मधुर गायकोंके गलेकी नलियों के समान चल तथा अचल हैं। कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है ||४५||
जो पूर्णरूप से फैल जाता है वही शून्य हो जाता है, जो अत्यन्त अनुरक्त होता है उसीका क्षणभर में वियोग होता है तथा जो अत्यन्त मित्र होता है वही शत्रुताको धारण करता है । खेद की बात है कि समस्त पदार्थोंकी प्रकृति ही क्षणभंगुर है ॥ ४६ ॥
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
विसम्धानमहाकाव्यम् तत इति-ततः संसारस्थितिविचारणानन्तरं तौ नरेन्द्रौ रामायणीयभारतीयकथासम्बन्धिनौ युद्धभुखात् रणाङ्गणात् विक्रमेण पौरुषेण निर्जग्मतुः निर्गतवन्तौ । किं कुर्वाणौ ? पञ्चकं रां स्फुटं व्यक्तमीक्षमाणावलोकमानौ । काविव ? सिंहपोताचिव पञ्चाननपिल्लकाविव |. काविव ? मूर्तिमन्तौ सशरीरौ मोधाभिमानाविध ! उत्प्रेक्षा ||४||
भयाद्यदेवोद्वतमङ्गनानां देवासुराणां प्रधनोत्सुकानाम् ।
तदेव हर्षस्थ तयोर्जयेन रोमाश्चमस्याप्युपकारि जातम् ॥४८॥ भयादिति-प्रधनोत्सुकानां रणदर्शनोत्कण्ठितानां देवासुरामाम् अङ्गनानाम् कामिनीनां भयाद्रीतेः यद्रोमाञ्चमुद्गतं जातं तदेव रोमाञ्चं देवासुराणा हर्षस्यापि आनन्दस्य चोपकारि उपकृत् जातम् । केन कृत्वा । तयोर्न रेन्द्रयोजयेनेति ॥४८॥
'आशा मुक्ता बन्धनेनेव सर्वा दीर्घ तत्रोदवसीदेव भूमिः ।
युद्धे वृत्ते विश्रमं विश्वमागानो विश्रान्तः कन्दरे सिंहनादः ॥४९॥ आशा इति-आशा दिशः बन्धनेनेव मुक्ताः उत्कलिताः । कथम्भूता दिशः ? सर्वाः समस्ता तथा भूमिः पृथ्वी दीर्घमुदश्वसीदेवोच्छचसितवत्येव । विश्वं जगत् विश्रममागात् आगतम् । असति ? तत्र युद्धे. रणे वृत्ते पर्याप्ते सति । तथा तयोर्नरेन्द्रयोः सिंहनादः कन्दरे गुहायां नो व विश्रान्तः ॥ ४९ ।।
'वियति सिद्धगणोऽप्युपवीणयजलधरान्तरदर्शितविग्रहः ।
त्रिभुवनं भ्रमति स्म यस्तयोः किम मुहुमुहुर्ने च वैरिणः ॥५०॥ थियतीति-सिद्गणः अपि वियति गगने तयोर्यशः कीर्तिमुपवीणयन् बीगयोपगायन् सन् त्रिभुवनं त्रैलोक्यं भ्रमति स्म बभ्राम | कथम् ? मुहुवारंवारम् । कथम्भूतः ? अलपरान्तरदर्शितचित्रहः पयोदमध्यप्रकटित शरीरः। उ अहो, वैरिणः किं न मुमुहुः न विचेतस्का बभूवुः, अपि तु मुमुहुरेव । चकारेण नियमार्थों गम्यते । तेनायमर्थ:-वैरिण एव नान्ये जनाः मुमुहुरित्यर्थः ।। ५० ||
प्रतिनिनदमयासीद्देवतू दिगन्तश्चलदलिकुलनीला पुष्पवृष्टिः पपात !
स्तुतिमकृत सरस्वत्यम्बरेऽदृश्यरूपा कुसुमसुरभिरुच्चैरुद्ववौ मातरिश्वा ॥५१॥ इसके बाद वे दोनों राम तथा भीम राजा सब ओर शत्रु शुन्य युद्धस्थलीको देखते हुए यहाँसे लौटे थे। अपने सर्वोपरि पराक्रमके कारण वे सिंह के बच्चोंके समान लगते थे । अथवा शरीरधारी क्रोध और अभिमान सदृश दिखते थे ॥७॥
युद्ध देखनेके लिए सदैव उत्कण्ठित देवों और दैत्योंकी नियोको भयके कारण जो रोमांच हुआ था, वही इनकी विजयसे उत्पन्न हर्षके रोमांचको करने में साधक हो गया था ॥४८॥
इस युजुकी समाप्ति हो जानेपर समस्त दिशाएं बन्धनमुक्तके समान हो गयी थी, पृथ्वीने मुक्तिकी लम्बी सांस-सी खींची थी तथा समस्त जगत्ने मानो विनामको ही प्राप्त किया था। किन्तु इनका सिंहनाद गुफाओंमें अब भी गूंज रहा था ॥४९॥ ।
जलधरोंके बीच-बीच में अपने शरीरको चमकाते हुए सिद्ध जातिके देव आकाशमें भी यीणापर इन राजाओंकी कीर्ति गाते हुए तीनों लोकोंमें घूम रहे थे । क्या अब भी शत्रु लोग इसे सुनकर निर्जीव नहीं हुए थे ॥५०॥
1. शालिनी वृत्तम् । तल्लक्षणं "शालिन्युक्ता म्तौ तगौ गोऽधिलोकैः" [ ऋ. र. ३३५] २. द्रुतविलम्बितच्छन्दः । लक्षणमुक्तं प्राक । ३. मालिनी वृत्तम् । सल्लक्षणञ्च "मनमयययुतेयं मालिनी भोगिलौकै व. स. ३१८५]
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठः सर्गः प्रतीति-दिगन्तः कता आशामध्यं प्रतिनिनदं प्रतिवानं कर्म अयासीत् जगाम । कैः १ देवर्षेः सुरवाद्यैः । तथा चलदलिकुलनीला भ्रमभ्रमरासारश्यामला सुरपुष्पवृष्टिः पपात पतति स्म । तथाऽदृश्यरूपाऽप्रकटमूर्सिः सरस्वती अम्बरे नभसि स्तुति रतवनमकृत कृतवती । कुसुमसुरभिः पुष्पपरिमलवाही उच्चैरतिशयेन मातरिश्वा वात उद्भवाद्ये प्रवर्तते स्म ।। ५१ ॥
'लोकातिरिक्तमनयोलशौर्यवीर्यमालोक्य रूपमभिमानधनञ्जयञ्च ।
मोक्तुं न चैकमुभयोरशकजयश्रीन्तिा स्वयंवरविवाहपतिवरेव ॥५२॥ इति श्री द्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य कृतौ राघव-पाण्डवीयमहाकाव्ये 'गोप्रहनिवर्तन
___ खरदूषणक्यो' नाम षष्टः सर्गः ॥६॥ लोकेति-नाशकत् न समर्था बभूव । का जयश्रीः वीरलक्ष्मीः । किं कत्तुम् ? अनयोः प्रत्यक्षीभूरायोरमयोईयोर्मध्ये एकगपि मोक्षुः परित्यक्तुम् । किं कृत्वा ? बलशौर्यवीर्यम् । समाहारापेक्षयैकत्वं नपुंसकत्वं चात्रावबोद्धव्यम् | तथा रूपमभिमानधनं तथा च जयमालोक्य दृष्ट्वा । कथम्भूतं बलादि ? लोकातिरिक्तं भुवनातिशायि । कथम्भूता सती ? भ्रान्ता खेच्छत्या प्रवृत्ता । केव स्वयंवर विवाहपतिवरेव ।। ५२ ॥
इति निरवद्यविधामण्डनमण्डितपषिक्षतमण्डलीमण्डितस्य पट्तचक्रधर्तिनः श्रीमविनयचन्द्र पण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां पदकौमुदीनाम दधानायां
टीकायां वरदूषणवधगोमहनिवर्तनो नाम षष्टः सर्गः ॥६॥
देवताओंके द्वारा बनायी गयी तुरड्योंकी प्रतिध्वनि समस्त दिशाओं में व्याप्त हो गयी थी। गूंजते हुए भारों के झुण्डके कारण ही श्यामल पुष्पवृष्टि भाकाशसे हो रही थी। साक्षात् प्रकट न होकर भी सरस्वती ही आकाशमें स्तुतिगान कर रही थी। पुष्पोंकी गन्धसे सुरभि पवन बह रहा था ॥५१॥
राघव-पाण्डव राजाओंके लोकोत्तर थल-प्रताप तथा वीरताको एवं सौन्दर्य, गौरव, सम्पत्ति तथा विजयको देखकर, स्वयंवर द्वारा पति धरण करनेके लिए उद्यत युवतीके समान; विजयलक्ष्मी भ्रान्त हो गयी थी क्योंकि दोनों में से एकको भी नहीं छोड़ सकती थी ॥५२।।
निदोपविद्याभूषण भूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, पदतर्कचक्रवर्ती श्रीमान् पंडित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाचातुर्य-चन्दिकाके चकोर, नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनन्जयके राघव-पाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसन्धान
काव्यकी पदकौमुदी टीकामें 'सरदूषणवध-गोमह
निवर्तन' नाम षष्ठ सर्ग समाप्त ।
३. वसन्ततिलकावृत्तम् । तल्लक्षणञ्च "उक्तं वसन्ततिलका तभनाः जगौ" [. र. ३१७१] ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः 'अत्रान्तरे शरच्छन्नदिग्दशास्यः सपुष्पकः ।
चन्द्रहासकरः कालो बाणासनपरिग्रहः ॥१॥ अत्रेति-अत्रान्तरे खरदूषणवधप्रस्ताव कुलकबन्धित्वात् श्लोकत्रयेण समागमदिति क्रियया सम्बन्धः । दशास्यः रावणः समागतम् आययौ । कथम्भूतः शरच्छन्नदिक् मार्गणाच्छादिताशः। पुनः सपुष्पकः पुष्पकाख्येन विमानेन सह वर्तमानः । पुनश्चन्द्रहासकरश्चन्द्रहासाभिधानोऽसिः करे यस्य सः । पुनः कालः श्यामः । पुनः वाणासनपरिग्रहदचापपरिग्रहः ।
भारतीयः-अत्रान्तरे गोग्रहनिवर्त्तनसमये शरत् शरत्संज्ञः का; समागमत् । कथम्भूतः ? छन्नदिग्दशास्यः संवृताशादशमुखः । पुनः पुष्पैः कुसुमैः सहितः उपुरामः । गुनद्रण दासं करोतीति सः चन्द्रहासकरः ( इन्दुद्युतिकर इत्यर्थः) पुनः वाणाः वृक्षविशेषाः असनाः बीजवृक्षाः परिग्रहो यस्य सः वाणासनपरिग्रहः ॥१॥
दीप्त्यारविन्दिनं लोकं विश्वं कुर्वनिवाकुलम् ।
दुःखलब्धात्मसम्भूतिं स्वसारं मानयन्मुहुः ॥२॥ दीप्त्येति-किं कुर्वन् समागमत् ? स्वसारं सूर्पणखाख्यां भगिनी मुहुः वारंवारं मानयन् सत्कारविषयां कुर्वन् । कथम्भूताम् १ दुःखलब्धात्मसम्भूति दुःखेन लब्धः प्राप्तः 'आत्मसम्भूतिः सम्युकुमाराख्य आत्मजः पुत्रो यया सा ताम् । पुनः किं कुर्वन् इव ? दीप्स्या तेजसा रविं सूर्य दिनं दिवसं विश्व समस्तं लोकं जगत् भाकुलं व्यग्नं विदधदिव । रवी सति दिनं दिने सति लोकस्तया युक्तया लोकस्यैवाकुलत्वमिति विशेषणं ज्ञेयम् ।
भारतीयः-शरत्कालः किं कुर्वन् समागमत् । दुःखलब्धात्मसम्भूति कष्टप्रासात्मोत्पत्ति मानयन् जानन् । कथम् ? मुहुर्यथा भवति तथा स्वसारं स्व आत्मा सारो यत्र आत्मसम्भूति माननकर्मणि तत् स्वसार
खरदूषणके संदार होते ही सावधानीसे धनुष सम्हाले और घाणोंसे दिशाओंको हँकता हुआ-सा, पुष्पक विमानपर सवार हाथमें चन्द्रहास एक प्रकारका खड्ग लिये काला अथवा यम समान दशमुख [ आ पहुँचा था]
गोधनपर घेरेके समाप्त होते ही नीली ( बाणव) घासके आसनको थिछाता, फूलोसे सुसज्जित, चन्द्रमाके हास्यसे कान्तिमान दशो दिशाओं में व्याप्त शरत्काल प्रारम्भ हो गया था ॥ १॥
___ अपने तेजके द्वारा सूर्य, दिन, देश तथा विश्वको व्याकुल करता हुआ तथा बड़ी कठिनाईसे पुत्र-पतिके वियोगसे आयी मू/से चैतन्य हुई बहिन सूपर्णखाको वारवार समझाता हुआ [रावण]।
बड़े कष्टोके बाद हुए अपने प्रारम्भ तथा विस्तारको बारम्बार जानता तथा जनाता
१. सर्गेऽस्मिमष्टाक्षरात्मकोऽनुष्टुब् जातिभेदः। तत्रादौ पथ्यावक्त्रम् । तल्लक्षणच "युजोर्जेन सरितुः पथ्यावक्त्रं प्रकीर्तितम् [घ. र. २।२२]। २, दुःखं मरणं लब्धा प्राप्तः आत्मनः सम्भूति सन्ततिः अथवा स्वस्य संज्ञेति । शरपक्षे सम्भूतिः विभूतिः शोभेति ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
११५
सप्तमः सर्गः मिति क्रियाविशेषणम्। किं कुर्वन्निव ? दीप्त्या धर्मेण लोकं जनमाकुलं व्याकुलं कुर्वनिव। कथम्भूतम् लोकम् । अरचिन्दिनमरविन्दानि सरोजानि सन्त्यस्मिन् तं पुनः विश्व सर्वम् ।।२।।
पस्योदर्कसन्तापं भेदं कुवलयस्य च ।
सानाथ्यं बन्धुजीवानां कर्तुं कामः समागमत् ॥३॥ पद्मास्येति--पुनः दशास्यः किं कुर्वन् समागमत् ! पद्मस्य रामस्य उदर्कसन्तापमुत्तरकालीनं दुःखं कत्त कामः विधातुमनाः । चुनः कुचल्यस्य भूमण्डलस्य भेदं विनाशं बन्धुजीवानां खरदूषणत्रिशिरसा सोदरप्राणिनां सानाथ्यं सप्रभुत्वं कर्तुं कामः ।
भारतीयः-शरत्कालः किं कुर्वन् समागमत् १ पद्मस्य सरोजस्य अत्र जात्यपेक्ष्यैकवचनम् उदर्कसन्तापमुद्तसूर्यसन्तापं कुवलयस्य कुमुदस्य भेदं विकाशम् । अत्र जात्यपेक्षवैकवचनम् । बन्धुजीवानां माध्याह्निकपुष्पाणां सानायं सस्वामित्वं च कत्तु कामः ||३||
तथा तं वीक्ष्य वियति व्यभ्रे चेलुः सुरासुराः ।
स्थित्यतिक्रमभीतेन शस्त्रमिन्द्रेण संहृतम् ॥४॥ तथेति-सुरासुराः ( देवदानवाः ) व्यभ्रे निर्मधे वियति नभसि तं दशास्यं वीक्ष्य ( अवलोक्य ) चेलुः प्रकम्पिताः तथा स्थित्यतिक्रमभीतेन स्थान (प्रभुता) परित्यागभीतेन इन्द्रेण (शक्रेण) शस्त्रं संहृतम् परिहृतम् |
भारतीयः-सुरासुराः व्यने निरभ्रे वियति सति तं शरत्कालं वीक्ष्य चेलु: विकृतवन्तः । इन्द्रेण मेघेन शस्त्रं धनुः संहृतम् । 'गिरौ वर्पति वासव' इति वचनात् । कथम्भूतेन १ स्थित्यतिकमभीतेन अवस्थानोल्लङ्घनभीरणा । अत्र रामायणीयकथापेक्षया सुरासुरशक्रादीनां रावणप्रतापजनितभयं भारतकथापेक्षया सोत्सवत्वं प्रदर्शितमिति भावः । श्लेषालेकारः ||४||
उत्पलायत लोलाक्षः कामुकीभिरुपारतः ।
किन्नराणां गणः क्रीडन् प्रसन्नपवने वने ॥५॥ उत्पलेति-प्रसन्नपवने प्रसन्नों गुणत्रयसमन्वितः पवनो वायुर्यत्र तस्मिन्वने कान्तारे क्रीडन् क्रीडां कुर्वन् किन्नराणामश्वमुखानां गणः समुदायः कामुकीभिः कामिनीभिः सहोत्पलायत ऊर्ध्वमुड्डीनः । कथम्भूतः ! लोटाक्षः चकितलोचनः । पुनरुपारत उपद्रुतः । हुआ तथा अपनी धूपके द्वारा प्रफुल्लित कमलोंसे पूर्ण संसार तथा प्राणियोंको कष्ट देता हुमा [शरत्काल ॥२॥
पद्म श्रीरामको भविष्यमें कष्ट देनेकी इच्छासे, समस्त पृथ्वीको सन्तप्त करनेके लिए तथा खरदूषणादि सगे सम्बन्धिोंको समृद्ध दनाने के लिए ही रावण आ पहुँचा था।
कमलों के लिए सूर्यकी तेज धूप देनेकी दृष्टिसे, कुवलयोंको विकसित करनेके लिए तथा दुपहरीके पुष्पोंको सनाथ करता हुआ शरत्काल आ गया था ॥ ३ ॥
मेघशून्य निर्मल आकाशमें उक्त प्रफारसे आते रावणको देखकर सुर तथा अमुर घबरा गये थे । तथा लोक-मर्यादाओंके टूटनेके डरसे इन्द्रते भी अपने शस्त्र बन्द कर लिये थे।
पूर्वोक्त रूपसे समागत शरदको देखकर देवों तथा दैत्योंके समूह निर्मल आकाश में क्रीसाके लिए निकल पड़े थे । विहारकी मस्ती कहाँ चे सीमाका उल्लंघन न कर जाय इसी दृष्टिसे इन्द्रने अपना धनुप संकोच लिया था ॥ ४॥
निर्मल वायुयुक्त वनमें क्रीड़ा करता हुआ किन्नर देवीका समूह कामिनी नायिकाओं के द्वारा बताये जानेपर भयसे चंचल नेत्र हो गया था और यह ऊपर उड़ गया था।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
भारतीयः नराणां गणः समुदायः किमुपारतः निवृत्तः अपितु नोपारतः । कथम्भूतो गणःउत्पलायतलोलाक्षः कमलदीर्धचपलनेत्रः । अन्यत् सुगमम् । श्लेषालंकारः ॥५॥
साधुन्यायऽयमत्युच्चंगतीद्धतगतिः स्थितः।
इच्छु: प्रसादमेतस्य लोका प्रणतिमीयिवान् ॥६॥ साध्विति-अयं लोकः एतस्य रावणस्य प्रणति प्रणामम् ईयिवान् गतवान् | कथम्भूतः ! प्रसाद प्रसन्नतामिच्छुः वाञ्छन् । पुनः साधुन्याये साधूनां सत्पुरुषाणां न्यायः सुविहितो मार्गः अथवा साधुदचासौ न्यायः तस्मिन् स्थितः । पुनरत्युच्दैर्गतोद्धतगतिरत्युच्चैः अतिशयेन गता उद्धता उत्कटा गतिः प्रवर्त्तनं यस्य सः ।
भारतीयः-या उद्धता गतिः पूर्वमासीत् सा इयं धुन्याः नद्याः ( अत्युच्चैरतिशयेन ) गता तथा स्थिते मर्यादायुतो लोकः प्रणतिमीयिवान् । कथम्भूतः ? प्रसादं पुष्पफलादि सम्पत्तिमिच्छुः । कस्य ? एतस्य शरत्कालस्य । अत्र रामायणपक्षे भूमिक्षोभकथनं भारतीय पक्षे शरत्कालस्वभावकथनं प्रदर्शितम् ॥६॥
वीचिबाहुभिरालिङ्गश्चिरदृष्टामिवावनिम् ।
पारावारश्चचालोच्चैरपारः पूरयन्दिशः ॥७॥ वीचीति-अपार: पाराधारः समुद्रः उच्चैरतिदायेन आशाः दिशः पूरयन् सन् वीचिबाहुभिस्तरङ्गहस्तैश्विरदृष्टा मित्र बहुतरकालावलोकितामिव अवनि भुवम् आलिङ्गन् ( परिरम्भमाणः) सन् चचाल चकम्पे । अत्रेदं तात्पर्थ रामायणीयपश्चे रावणप्रतापाविर्भूतो भूक्षोभः, भारतीयपक्षे शरत्कालस्वभाव उक्तः ॥७॥
सहसा वल्लकी हस्ता विचेलुः सिद्धकोटयः ।
दिवि ज्योतिर्गणज्योतिस्तीन जज्ञेऽतिविधु ति ॥८॥ सहसेति सिद्धकोटयः सिद्धाः अञ्जनपादुकादिसिद्धाः पुरुषविशेषा देवयोनयः तेषां कोटयः सहसा शीघ्र विचेलुः पलायिताः । कथम्भूताः १ बलकीहस्ताः वीणापाणयः तथा जज्ञे जातम् । किम् ? ज्योतिर्गणज्योतिः नक्षत्रसमूहतेजः । कथम्भूतं जज्ञे ? अतिविद्युति विशिष्टां शुतिमतिकान्तमतिवियुति तेजोहीनमित्यर्थः । कथम्भूतं सत् ? दिवि गगने तीव्र सत् । अत्र रावणप्रतापात् क्षोभोक्तिः ।
अथ भारतीयः-सहसाः सहासाः ( हास्यसंयुक्ता इत्यर्थः) पुनः वल्लकीहस्ताः सिद्धकोटयः विचेलुः
शरत्की स्वच्छ वायुसे पूर्ण वनमै कमलके समान विशाल आँखांघाला तथा कीड़ामें मस्त किंनरसमूह क्या काम-विवल स्त्रियोंके साथ खूब नहीं रमा था? ॥ ५ ॥
उद्धत आचरणको छोड़कर सब प्रकारले शिष्टाचार पालनमें लीन होकर यह लोक इस रायणकी कृपा पानेके लिए उसको प्रणाम करने लगा था।
जो नदियाँ वर्षाऋतु अत्यन्त उद्धतरूपसे बहती थी वे ही अपरूपसे स्वाभाविक रूपमें आ गयी थी । लोक भी शरद्का अनुग्रह प्राप्त करनेकी इच्छासे उसकी आराधना करता था ॥६॥
चिरकालसे इच्छित पृथ्वीको अनन्त समुद्र के समान बाहुरूपी लहरोसे जकड़ता हुआ • तथा समस्त दिशाओंको भयाक्रान्त करता हुआ वह बढ़ा जा रहा था।
यद्दुत समयसे बिछुड़ीके समान पृथ्वीको विस्तृत सागरको लहरोरूपी हाथोंसे आलिं. गन करता हुआ तथा दशोदिशाओको व्याप्त करता हुआ शरत्काल फैलता जा रहा था ॥ ७ ॥
सिद्धोंके समूह हाथों में घीणा दवाये एकाएक भाग खड़े हुए थे। सूर्य चन्द्रादिका आकाशमें प्रखरतासे चमकता प्रकाश सर्वधा तेजहीन हो गया था।
सिद्ध मादि देव हाथमे लता या घीणा लिये क्रीड़ा विहार कर रहे थे। रिज़ली-बादल
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
११७ विहरन्ति स्म । तीव्र सोढुमशक्यं ज्योतिर्गणज्योतिः दिवि जशे । कथम्भूतायां दिवि ? अतिविद्युति विद्युतमतिक्रान्ता अतिविद्युत् तस्यामतिक्रान्ततडिल्लतायामित्यर्थः । अत्र शरदव्यावर्णनम् ।। ८ ॥ - विमुक्तं दूरमभ्रान्तैर्विमानैः ककुबन्तरम् ।
नभश्वरसमारूडैः कृतकानकसिञ्जितैः ॥९॥ विमुक्तमिति-विमानैः देवयानैः ककुवन्तरं दिगन्तरालं चिमुक्तं परित्यक्तम् । कथम् ? दूरं विप्रकृष्टम् । कथम्भूतैः ? अभ्रान्तैः निःसन्देहः अथवा भ्रमणरहितैः । पुनः नभश्वरसमारूढः नभश्चराः समारूढा येषु तैः । पुनः कृतकानकसिक्षितैः कृतानि विहितानि कानकानि सिञ्जितानि हेमधिकारक्षुद्रघण्टकशन्द्रा येषु तैः । अत्र रावणप्रतापक्षोभः ।
भारतीयः--अभ्रान्तैरभ्राणामन्तैः अभ्रान्तः मेघसमूहैः नभः गगनं ककुरन्तरं च दूरं विमुक्तम् । कथम्भूतैः १ विमानैः गतमानः संख्यातीतैः । पुनः रसं पानीयम् आरूढैः सजलैः । पुनः कृतकानकसिञ्जितैः कृतकमानकानामिव सिञ्जितं ( ध्वनितं ) वैः ॥ ९॥
छोत्कारच्छातजठरैस्तृणकौतुककङ्कणैः । बन्धूकतिलकन्यासैनीलोत्पलवतंसकैः ॥१०॥ महाकुचभराकृष्टसंक्षिप्तान्तर्भुजान्तरैः । क्षिपद्भिः केकरान् स्वस्मिन् नियन्तुमसहैरिव ॥११॥ सिञ्चद्भिरिव लावण्यरसवृष्ट्या दिगन्तरम् ।
कैदारिकगतैर्दारै चकितं विनिचाषितम् ॥१२॥ [ त्रिभिविशेषकम् ] __ छोकारैति-श्लोकत्रयेण रावणशरत्काल्योः प्रतापक्षोभौ निरूप्येते । भावे तान्तनियाद्वितयं बोद्धव्यम् । दारैः कलत्रैः विनिचायितमवलोकितं चकितञ्च विलोक्य भीतमित्यर्थः। कथम्भूतैः १ छोत्कारछातजटरैः (छोत्कारेण) शकुनिसन्तर्जनध्वनिना छातं तनूकृतं जठरमुदरं येषां तैः छोत्कारच्छातजठरैः । पुनः तृणकौतुककणैः तृणस्य कौतुकेन कंकणानि येषां तैः । पुनः बन्धूकतिलकन्यासैः बन्धूकानां तिलके न्यासो येषां पुनः नीलोयल्पतंसकैः नीलोत्पल्स्य वतंसः कर्णपूरी येषां तैत्रः । पुन: महाकुचभराकरसंक्षिप्तान्तर्भुजान्तरैः एकस्मात् भुजात् अपरो भुजो भुजान्तरं तस्य अन्तः अन्तर्भुजान्तरम् । महान्तौ च तो कुचौ च महाकुचौ तयोर्भरण पूर्वमाकृष्ट पश्चात् संक्षिप्तमन्त(जान्तरं येषां तैः । पुनः स्वस्मिन्नात्मनि केकरान् कटाक्षान् नियन्तुं नियन्त्रयितुमसईरसमथैरिव क्षिपद्भिः विसृजन्द्रिः । पुनलवण्यरसवृष्ट्या शरीरकान्तिविशेषनिर्यासवर्षेण दिगन्तरमाशान्तरालं सिञ्चद्भिरिव । पुनः केदारिकगतैः कैदारिक केदारसमूहे गताः प्राप्तास्तैः वप्रवजस्थितैः । अत्र रावणशरस्कालयोः स्वभावोक्तिः ॥१०-१२॥ रहित स्वच्छ आकाशमें तारा आदि ज्योतिषी देवोंकी चमक बढ़ी मालूम होती थी ॥ ८ ॥
सोनेकी घंटियोका झुनझुनसे युक्त, खेचरोंकी सवारीमें निकले तथा वस्तुस्थितिसे परिचित विमानोंने दिशाओंके मार्ग छोड़ दिये थे और दूर चले गये थे।
पटहोंके समान गर्जनेवाले जलसे परिपूर्ण तथा अनगिनत मेघवण्डॉने आकाशको विल्कुल छोड़ दिया था ॥९॥
शुरू करनेके कारण कृशोदरियों, घासके मंगलसूत्र तथा कंकणधारिणी, वन्धूक पुप्पके तिलफसे विभूषित, नीलकमलके कर्ण-भूषणसे सुशोभित, उन्नत स्तनोंके भारसे झुकों, संक्षिप्त मुजान्तर्वर्ती केकर भूषण अथवा कटाक्षीको-अपने आपमें न सम्हाल सकनेके ही कारण डालती हुई, सौन्दर्य के रसकी वृष्टिके द्वारा समस्त दिशाओंको सींचती-सी खलि. यानों में बैठी स्त्रियोंने क्रमशः भय तथा उत्कण्ठाले चकित होते हुए रावण तथा शरद्को देखा था ॥१०-१२॥
-
-
---
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् विशक्षीरचितां चञ्चुं व्याददद्भिः कथश्चन ।
सरःसु पक्षतिक्षेपैरटितं वाटराटकैः ॥१३॥ विशेति-वाटराटकैः हंससमूहै: पक्षतिक्षेपैः पक्षमूलविधूननैः अटितं गतम् | कथम्भूतैः ? चञ्चुं वोटिं कथश्चन महता कष्टेन व्याददद्भिः प्रसारयद्भिः । क ? सरःसु सरोवरेषु । कथाभूतां चञ्चम् १ विशक्षीरचितां पद्मिनीकन्ददुग्धोपचयप्राताम् ।
भारतपशे-रटितं शब्दितम् । क वाटरारकैः । शेष प्राग्वत् । एकत्र प्रतापकथनगन्यत्र शरत्स्वभावकथनम् ||१३||
कञ्जकिझल्कगन्धान्धैः केकारवविषादिभिः ।
नष्टं प्रापनिकैः क्वापि दुष्कलत्रकुलैरिव ॥१४॥ कोति-प्रापनिकैः मयूरैः क्वापि कस्मिन्नपि प्रदेशे नष्टं चक्षुर्विषयमतीत्य गतम् । कथम्भूतैः ? कचकिल्कगन्धान्पैः अरविन्दमकरन्दपरिमलगन्धैः । पुनः केकारवविषादिभिः केकारवे विषादो येषां तैः । करिव नष्टम् ? दुष्कलत्रकुलैरिव कुलटाजनैरिव अथवा दुष्ट कलनकुल येषां तैः पुरुः । उभयोः प्रतापस्वभावाख्यानम् ॥१४॥
दन्तान्तरसमासक्तपुष्करा दिक्षु दन्तिनः ।
धनवन्धननिर्मुक्ता जगर्जुदुर्जना इव ॥१५॥ दन्तान्तरेति-दिक्षु दन्तिनः जगर्जुः गर्जितवन्तः । कथम्भूताः १ दन्तान्तरसमासक्तपुष्कराः रदमध्यसम्बद्धशुण्डाग्राः । पुनः धनवन्धननिर्मुक्ताः निविडबन्धननिर्मुक्ताः। क इव ? दुर्जना इव । अत्रेदं तात्पर्यम्-रावणप्रतापज्वलनज्वालावलीभिरालीदा दिग्गजाः स्वकीयामाशां विहायान्यत्र गर्जनाञ्चः ।
भारतीये-दन्तिनो हस्तिनः दिक्षु आशासु जगर्जुः । कथम्भूताः दन्तान्तरसमासक्तपुष्कराः दन्तमध्यालम्बितारचिन्दाः। घनबन्धननिर्मुक्ता मेघबन्धनवर्जिताः। क इव ? दुर्जना इव । अत्र शरत्कालस्वभावनिर्देशकथनं प्रदर्शितमिति भावः ॥ १५ ॥
निशम्याक्रान्तजगतः पाटवं तस्य दुःसहम् ।
आसीदास्वनितस्यापि शोभोऽरण्ये तपस्यताम् ॥१६॥ / निशम्येति-तपस्यतां तपः कुर्वतामपि मुनीनामास्वनितस्य मानसस्य क्षोभ आसीत् सञ्जातः । क्छ ? अरण्ये बने । किं कृत्वा ? पूर्व निशम्य आकर्ण्य । किम् ? पाटवं पटुत्वम् । कस्य ! तस्य रावणस्य । कथम्भूतस्य तस्य ? आनान्तजगतः आशिप्तलोकस्य । कथम्भूतम् ? पाटवं दुःसहं सोदुमशक्यम् ।
भारतपक्षे तस्य शरत्कालत्येति । शेषः प्राग्वत् ।। १६ ॥
नीर क्षीरका भेद करनेमें समर्थ चोंचको सिकोड़कर [उठाकर ] पंखोंको फड़फड़ाकर हंससमूह जल्दीखे तालाबों से उड़ गये थे [शब्द कर रहे थे] ॥१३॥
कमलोके परागकी सुगन्धिसे अन्धे अपनी ही ध्वनिको सुनकर दुखी मोर कहीं ऐसे छिप गये थे जैसे कुलटा स्त्रियोंके नीच कुलोत्पन्न पति नष्ट हो जाते हैं [ रावणके भय तथा शरद्-ऋतुके कारण मोर दनसे भाग गये थे] ॥१४॥
दिग्गज भयके कारण दांतोंके बीच में सूंड दवाकर प्रयल और घने वन्धनोंको तोड़कर दुर्जनोंके समान चिंघाड़ रहे थे।
दाँतोंमें फूल फँसाये, बादलोंके प्रतिबन्धसे परे हाथी सब ओर आनन्दसे चिंघाड़ रहे थे ॥ १५॥
विश्चके उत्पीड़क उस रावणके असह्य प्रतापकी चर्चा सुनकर वनमें तपस्वियोंके भी चित्त क्षुब्ध हो गये थे [ संसारमें व्याप्त शरद्की मोहकताको जानकर तपस्वियोंके चित्त भी चंचल हो जाते हैं ] ॥१६॥
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
विश्वेन बारिणा तस्मिन् द्योतमाने महीयसि ।
कलुषत्वं परित्यक्त स्वच्छत्वमुपपादितम् ॥१७॥ विश्वेनेति-विश्वेन समस्तेन अरिणा' आधा कप मरिन सिताम् । कर इति ? तस्मिन् रावणे द्योतमाने प्रतपति सति । कथम्भूते ? महीयसि गरिष्ठे। तथा अरिणा स्वच्छत्वं प्रसन्नत्वभुपपादित वा जनितञ्च | भारतीये-यारिणा जलेन तस्मिन् शरत्काले । शेष तुल्यम् ॥१७॥
वप्राणां रम्यतालक्ष्मीः सोत्पलाशालिसम्पदाम् ।
तेन पक्व फलापाण्डुरानिन्ये लङ्घनक्रियाम् ॥१८॥ वप्राणामिति-आनिन्ये सामस्त्येन नीता ! का ? रम्बतालक्ष्मीः। कामानिन्ये ! सावनक्रियामाकन्दनक्रियाम् | केन का? तेन रावणेन | केपी रम्यतालक्ष्मी: ? वप्राणां भूधरनितम्बानाम् । कथम्भूतानाम् ? सोत्पलाशालिसम्पदा सोचबहावृक्षभ्रमरविभूतीनाम् , अथवा उच्चपल्लाशानामालिरपलाशालिः सैव सम्पत् येषां ते तथोक्तास्तेषाम् । कथम्भूता रम्यतालक्ष्मीः ? पक्वफलापाण्डुः आ ईपत्पाण्हुः आपाण्डः पक्वफलैरापाण्डुः पक्वफलापाण्डुः इति सम्बन्धः ।
अथ भारतीयः-आनिन्ये । का? रम्यतालक्ष्मीः। काम् १ लञ्चन क्रियाम् । केन ? तेन शरत्कालेन । केषाम् ! रम्बतालक्ष्मीः। वप्राणान् । कथम्भूतानाम् ? शालिसम्पदा झाल्य एव सम्पयेषां तेषाम् । कथम्भूता ? सोत्यला सकमला । पुनः पक्वफल | पुनः पाण्डुरिति । अत्र दलोके आनिन्ये इति क्रियायाः मुख्यामुख्यभेदेन कर्मद्वितयं बोद्धव्यम् ॥१८॥
किंशुकाकुलभूमीनां नगानां फलसम्पदः ।
नामिताः परिपक्वाणां कृता रभसयामुना ॥१९॥ ____किंशुकेति-कृताः विहिताः। काः कर्मतापन्नाः १ फलसम्पदः । कथम्भूताः कृताः १ नामिता नभ्राः । केन ? अमुना रावणेन । कया । रभसया औत्सुक्येन विमानवेगेनेत्यर्थः । केषां फलसम्पदः ? नगानो तरूणाम् ? कथम्भूतानाम् १ किंशुकाकुलभूमीनाम् किंशुकैः पलाशकुसुमैः आकुल भूमियेषाम् । पुनः परिपक्वायां पाकपर्यायं प्राप्तानाम् ।
भारतीयः-किं न कृता अपि तु कृता एव 1 काः १ फलसम्पदः । कथम्भूताः ? अमिताः प्रचुराः ! केन ? अमुना शरत्कालेन का । केषां सम्पदः ? नगानां शालीनाम् । कथम्भूतानाम् ? शुकाकुलभूमीनां कौरव्याप्तमेदिनीनाम् ? पुनः परिपक्वानाम् ॥१९॥
अत्यन्त प्रतापी रावणका प्रभाव फैलनेपर नूतन शत्रुसमूह ने (नव-अरिणा) अखिल विश्व में सदाचारको छोड़ दिया था तथा कपट कूटका आश्रय लिया था । [ अत्यन्त कान्तिमान् शरद् ऋतुके आनेपर समस्त जलराशिने मलिनता छोड़कर निर्मलता धारण की थी] ॥१७॥
विकसित उच्च पलाशीपर गूंजते भौरोंसे सुशोभित पर्वतोंके प्रान्तोंकी सौन्दर्य पूर्ण कान्तिको रावणने पके फलोंके समान श्वेत (आभाहीन) करके लंघन करती हुई-सी कर दी थी। [धान्यरूपी सम्पत्तिसे पूर्ण स्खलियानोंकी शोभा तथा श्रीको पके फलों और विकसित कमलोंके द्वारा सर्वथा श्घेत-रक्त करके शरत्कालने उछलकूद ही मचा दी थी] ॥१८॥
किंशुक वृक्षोंसे व्याप्त, फलो तथा खनिज आदि सम्पत्तिसे परिपूर्ण पर्वतोंकी सार्थक सम्पप्तिको इस रावणने क्या वेगके साथ परिगणन नहीं किया था। [ पके फलोंसे लदे तोतासे घिरे वृक्षोंकी फलरूपी सम्पत्तिको क्या इस ऋतुने तुरन्त ही निस्सीम नहीं बना दिया था ? ] ॥१९॥
१. श्लेपः-१० ना
--
--
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
दिसन्धानमहाकाव्यम्
तस्मिन्कालेऽनुजोपायात् प्रस्थितं प्रतिकेशवम् । विश्वविश्वम्भरानाथमित्थमूचेऽग्रजं वचः ॥ २० ॥
तस्मिन्निति-तस्मिन्कालेऽवसरे अनुजा शूर्पणखाख्या भगिनी अग्र ज्येष्ठभ्रातरं रावणं वचः वचनमूचे उक्तवती । कथम् ? इत्थं वक्ष्यमाणप्रकारेण ! कथम्भूतम् ? विश्वविश्वम्भरानाथं समस्तमेदिनीपतिम् ? पुनः कथम्भूतम् ? केशवं लक्ष्मणं प्रति प्रत्थितं प्रचरितम् । कस्मात् १ उपायात् साभादिप्रयोगात् ।
भारतीयः - अनुजः भीमः अप्रजं युधिष्ठिरं प्रति वचो वचनम् ऊंचे । कथम् ? इत्यम् वक्ष्यमाणापेशवा | कस्मिन् काले १. तस्मिन् काले पर !? अग्रजम् ? अपायात् यूतक्रीडावशात् पृथिव्यादेरणात् विश्वविश्वम्भरानाथम्, सममवसुन्धराधिपतिं केशवं नारायणं प्रति प्रस्थितं प्रचलितम् ॥२०॥ प्रतिकर्त्ती परीभावं जरासन्धाभियोगजम् । उद्यमोजातशत्रोस्ते समावहति मे रुचिम् ॥ २१ ॥
प्रतीति- समावहति समाधत्ते । कः १ उद्यमः । काम् ? रुचिम् । कस्याः १ मे मम | कस्योद्यमः ? ते तव | कथम्भूतस्य ? जातशत्रोः समुत्सन्नरियोः किं कर्तुमुद्यमः ? परीभात्रमवशां प्रतिकर्त्ती प्रतीकारं नेतुम् । कथम्भूतम् ? जरासन्धाभियोगचं 'रसासग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुकाणि सप्तधातवः' काल्परिणत्या एते रसादयो जीर्यन्ते तनूभवन्ति यस्यां सा जरा निर्बलत्वम्, जरायाः सन्धा यस्य स जरासन्धः जरासन्धश्चासावभियोगश्च जरासन्धाभियोगः तस्माज्जातं तं तथोक्त वार्द्धकपरिणति सम्बन्धोत्पल मसामर्थ्य सम्भूतमित्यर्थः ।
भारतीय:- समावहति । कः उद्यमः । काम् ? रुचिम् । कस्य ? मे मम । कस्योमः १ ते तव । किमाख्यत्य ते १ अजातशत्रोः युधिष्ठिरस्य । किं कर्तुमुद्यमः ? परीभाचं प्रतिकर्त्तुम् ! कथम्भूत परीभावम् ? जरासन्धाभियोगजन् । जरासन्धाभियोगो जरासन्धगृह्यो दुर्योश्वनः तस्माज्जातम् ॥२१॥
दुःखमोचनमिष्टस्य क्रियते हेतिधारिणा ।
वीरेण भीरुणा शूर शाखोद्धारेण बाहुना ||२२||
दुःखेति - हे शूर क्रियते विधीयते । किम् ? दुःखमोचनम् । केन कर्ता ! वीरेण । कस्य ? इष्टस्य मित्रस्य । कथम्भूतेन १ हेतिधारिणा शस्त्रधारिणा । केन कृत्वा ? बाहुना भुजेन । कथम्भूतेन बाहुना ? शाखोद्धारेण शाखानामुद्धारो यस्य तेन । अथवा भीरुणा हेतिधारिणा हा इति शब्द धरतीति तेन कष्टमिति शब्दधारिणेत्यर्थः । शास्त्रोद्वारेण वाहुना इष्टस्य दुःखमोचनं किं क्रियते अपि तु नेत्यर्थः ॥ २२ ॥
ऐसे ही समय छोटी वद्दिन सूर्पणखाने समस्त विश्व और पृथ्वीके स्वामी, तथा सामादि उपायोंसे लक्ष्मणके विरुद्ध बढ़ते हुए बड़े भाई रावणसे निम्न बात कही थी [ शरदऋतु मानेपर अनुज भीमने घृतकीड़ाके कारण लोक तथा भूमिके स्वामित्वसे गिरे अत श्रीकृष्णजीकी और मंत्रणा के लिए उन्मुख बड़े भाई धर्मराजसे कहा था ] ॥२०॥
मेरे वाक्यकी मर्यादापर आक्रमण करनेसे हुए मेरे अपमानके प्रतीकारके लिए तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए ऐसी मेरी इच्छा है क्योंकि तुम्हारे भी शत्रु खड़े होने लगे हैं। [ जरासन्ध राजाले मिलकर किये गये हम पाण्डवोंके अपमानका प्रतिशोध करनेके लिए अजातशत्रु युधिष्ठिर ! आपको प्रयत्न करना चाहिये ऐसी मेरी सम्मति है ] ॥२१॥
हे शूर रावण ! अपने वंशकी प्रतिष्ठाका विस्तारक वीर पुरुष बाहुसे शस्त्र ग्रहण करके अपने प्रिय लोगों के दुःखका विनाश करता है। हाँ, 'हा हा' शब्दले निन्दित, वंश परम्परा के उन्मूलक व्यर्थबाहु भीरुके द्वारा कुछ भी नहीं होता है ॥२२॥
१. इलेपः- ० ना० ॥
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः शरधाराभिवर्षेण वैरिविप्लवकारिणा ।
विधुरं हियते बन्धो बाष्पाम्भोदुर्दिनेन वा ॥२३॥ शरेति-हे अन्धो ! हियते । किं कर्मतापन्नम् ? विधुरं भयम् । केन का ? त्वया । केषाम् ? नृणामित्यथाहायपदं बोद्धव्यम् । केन कृत्वा दियते विधुरम् ? शरधाराभिवर्षण वाणावलिवृष्ट्या । कथम्भूतेन ? वैरिविप्लबकारिणा शत्रुध्वंसविधायिना । बाऽथवा ह्रियते विधुरम् । केन कृत्वा ? बापाम्भोदुर्दिनेन अश्रुजलप्रच्छादितदिवसेन । 'मेघच्छन्नेऽह्नि दुर्दिनम्' इति ॥२३॥
राजसन्दर्शने व्याधौ चिन्तायां रिपुपीडने ।
प्रतिक्रियासु सर्वासु निबन्धाद्वान्धवं विदः ॥२४|| राजेति-निर्बन्धादङ्गीकारात् वान्धवं विदुः जानन्ति । के विद्वांसः इत्यध्याहार्थम् । छ. का ? राजसन्दर्श तथा व्याधी तथा चिन्तायां तथा रिपुगीडने शत्रुकदर्शने तथा प्रतिनियासु प्रतिकारे कयम्भूतामु सर्वासु समस्तासु ॥२४॥
स्थाने मातुलपुत्रस्य परिपात्यै तबोधमः ।
आपदीपल्लभाः कत्तमुपकारा हि मानिनाम् ॥२५॥ स्थानेति-दे बन्धो ! स्थाने युक्तमेतद्यत् जायते । कः ? उद्यमः । कस्य ! तव 1 कस्यै ? परिपात्यै रक्षायै । कस्य ? मातुलपुत्रस्य खरदूषणस्य । अर्थान्तरमुपन्यस्यते-हि स्फुटं जायते । के ? उपकाराः । कथम्भूताः १ ईघल्लभाः दुर्लभाः। किम् ? कतै विधातुम् । कस्याम् ? तत्याम् आपदि विपत्तौ । केषाम् ? मानिनाम् ।
भारतीयः-स्थाने युक्तं जायते । कः ? उद्यमः | कस्य ? तव । कस्यै ! परिपात्यै रक्षानिमित्तम् | कस्य ! मानुलपुत्रस्य वासुदेवत्य । अर्थान्तरन्यासः पूर्वोक्त एच ॥२५॥
अस्ति नानाप्रकारोऽसौ कामं दुर्योधनो रिपुः ।
तत्तवैष बलं पक्षो ज्योत्स्नाभोगो विधोरिव ॥२६॥ अस्तीति-अस्ति विद्यते । कः ? असौ रिपुः । कथम् ? काममत्यर्थम् । कथम्भूतः १ दुर्योधनः दुःखेन योधुं शक्यः स दुयोधनः दुःस्त्रसाध्य इत्यर्थः । पुनः नानाप्रकारः बहुविधः । तत्तस्मात् कारणात् एषः खरदूषणः बलं स्यात् तव । अत्र उपमार्थः प्रददर्यते । क एव ? पक्ष इव यया पक्षः बलं स्यात् । कस्य ? विधोश्चन्द्रस्य । कथम्भूतः ? ज्योलनाभोगः ज्योत्स्नाया आभोगो विस्तारो यस्य, शुक्ल इत्यर्थः ।
शत्रुओंमें आतंक फैलाने में समर्थ वाणोंकी बहुमुखी मारके द्वारा वीर पुरुष अपने सगोंके भयको दूर कर देता है अथवा विपत्ति कालमें वह आँसुओंको पोंछ देता है। [ वैरीके समान विनाशकर्ता, धाण वृष्टिक समान मूसलाधार घटाओंसे घिरे दुर्दिनके द्वारा भी ओस तथा चन्द्रक्रान्तिका लोप किया जाता है ] ॥२३॥
राजसभामें बुलाये जानेपर, भीषण रोगके समय, चिन्ताग्रस्त होनेपर, शत्रुओंके द्वारा सताये जानेपर तथा सब प्रकार की सुरक्षा अथवा प्रतिशोधके समय साथ देनेके कारण ही 'बान्धव' कहलाता है ॥२॥
अपने मामाके पुत्र (खरदूषण अथवा श्री वासुदेव) की सुरक्षाके लिए तुम्हारा (रावण अथवा युधिष्ठिरका) प्रयत्न करना सर्वथा उचित है। क्योंकि महापुरुषोंकी विपत्तिके समय सहायता करने के अवसर बहुत कम आते हैं ॥२५॥
यह सत्य है कि यह राघव शत्रु ऐसा है जिसके पास विविध उपाय हैं तथा इसके साथ युद्ध करना अत्यन्त कठिन है अतएव यह खरदूषण आपका उसी प्रकार बल बढ़ावेगा जैसे शुक्लपक्ष चन्द्रमाको बढ़ाता है। [ पाण्डव शत्रु राजा दुर्योधन विविध सहाय आदि
१६
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
भारतीय:- अशी दुर्भाधिनः रिपुरस्ति । तत्तस्मादेव विष्णुः तव बलं स्यात् । अन्यच्छेषं पूर्ववत्' ||२६|| प्रभाविशारद वीर्यं तवोद्योगाय दीप्यते ।
निर्वाणाय परं तत्त्वमाध्यात्मिकमिवाखिलम् ॥ २७॥
प्रोति- प्रभाविशारदं प्राणा विशारदं पवीत वीर्यम उद्योगाय दीप्यते स्फुरति । कस्मै १ किमिव ? आध्यात्मिकमध्यात्मभवमखिलं समरतं परं तत् निर्वाणाय मोक्षाय इव ।
१२२
भारतीयः - शारदं शरदि भवं प्रभावोऽस्यासीति प्रभावि प्रौढिमत् यद्वा प्रभवत्येवं शीलं प्रभावि दीप्तिरक्षकम् । शेषाः योजनाः प्राग्वत् ॥२॥
देवावदातवितता दिशः सह विहायसा ।
चयन्ति विना विघ्नात्सिद्धि हस्तगतामिव ॥२८॥
देवरि हे देव दिशः जायाः विहायया सह नमसा साश्रमवदातवित्ताः नैर्मल्यं प्राप्ताः सन्त्यः विघ्नादिना अन्तरायाहते सिद्धि चिन्तितवस्तुभाति हस्तगताभिक सूचयन्ति वदन्ति ||२८||
मृदुराश्वासजननः खरदण्डविघट्टनः ।
कृतकृत्योऽधिकारी तवार्यान्वीपिकोऽनिलः ॥ २९ ॥
मुद्विति-हे आर्य स्वामिन्, अनिलो वायुरधिकारीव नियोगीव आन्वीपिकोऽनुकूलते। कथम्भूतः ? मृदुः सन्दः पुनः आश्वासजननः शीतलः पुनः खरदण्डविघटनः कमल्स्पर्शित्वात्सुरभिरित्यर्थः । अधिकापि मृदुमापित्वात् मृदुरास्थासजननः प्राणिनामाप्यायनोत्पादकः पुनः खरदण्डनः खोदण्डो येषां ते खरदण्डाः शत्रुन्नृपास्तेषां विघट्टनो विध्वंसकः पुनः कृतकृत्यः कृतकार्यः । अत्र रामायणपक्षे रावणप्रयाणे पवनानुकूलत्वं प्रोक्तम् ।
भारतपक्षे - शारदवायु गुणाः प्रोकाः ||२९||
भूरिस्तम्बेरमेकान्ते फलशालिवने घने ।
राजन् कपिशताकीर्णे पश्य त्वं कामनीयकम् ||३०|
भूरीति- हे राजन् ! त्वं फल्याविने फलैः शाल्त इत्येवं फलशालि तत्र तद्वनं तस्मिन् कामनीय कं निरीक्षस्व | कथम्भूते ? भूरिस्तम्बेरमे भूनः स्तम्बेरमा यस्मिन् तस्मिन् कपिशतैराकीर्णे वानरशतसङ्कुले |
साधनों से अत्यन्त सुसजित है तथापि वासुदेवकी उपस्थिति हमारे पक्षको पुष्ट करेगी जैसे शुक्लपक्ष चन्द्रमाको करता है ] ||२६||
परमोत्कृष्ट समस्त, आध्यात्मिक तत्व जिस प्रकार निर्वाणकी प्राप्तिके लिए होते हैं। उसी प्रकार हे रावण ! प्रतापसे उद्दीत आपके पराक्रमकी शोभा भी पुरुषार्थ में है । [ हे धर्मराज ! अत्यन्त प्रभावपूर्ण शरदऋतुके समागम से आपके पराक्रमकी भी सार्थकता शत्रुविनाश करने में है ] ॥२७॥
हे देव आकाशके लाथ-साथ अत्यन्त निर्मल और विस्तीर्ण दिशाएँ भी सूचित करती हैं कि किसी विघ्न वाधा के बिना ही कार्य होगा अर्थात् सिद्धि मुट्ठी में आ गयी है ॥२८॥
नम्र लोगों में विश्वास उत्पन्नकर्ता, तथा उग्र लोगोंको दण्डके द्वारा ध्वस्त करनेमें समर्थ सफल अधिकारीके समान अनुकूल बहती हवा [ मन्द, श्रान्तिहारक, कमलके फूलोमेंसे यहता मनोहर शरद् ऋतुका पवन ] भी आपके अनुकूल चल रही है ॥२९॥
हे रावण ! फलोंसे शोभायमान, शान्त तथा सघन, सैकड़ों बन्दरोंसे व्याप्त एवं अनेक १. इलेपः- ० ना० । २, श्लेषोपमा व० ना० । ३. उत्प्रेक्षा ब०, ना० । ४. श्लेपः ब०, ना० ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
१२३
भारतीयः - ३ राजन् ! फलशालिने फलैरुपलक्षितं यच्छालिबनं तस्मिन् कामनीयकं पश्य । कथम् ? भरमत्यर्थम् । कथम्भूते ? भूरिस्तम्बे बहुकाटकसमूहे । पुनः एकान्ते विजने पुनः कपिशताकीर्णे कपिशतया पिङ्गतया व्याप्ते ||३० ॥
शत्रूणां दण्डक क्षेत्रमप्रवि (चे) श्यमिदं घनम् । अभीष्टस्तम्बकरिभिरवगाडं विलोकय ||३१||
शत्रूणामिति इदं प्रत्यक्षं दण्डकक्षेत्रं दण्डकारण्यं विलोक्य निरीक्षस्त्र । कथम्भूतम् ? शत्रूणामप्रवि( ये ) इयं प्रवि (वे ) मशक्यं पुनरभीष्टस्तम्बकरिभिः न विद्यते भीषां तेऽमियः वे च तेश्च ते स्तम्बकरिणश्च तैः निर्भयाभितमत्तगजैरवगाढं व्याप्तम् 1
भारतीयः- हे शत्रूणां दण्डक । इद क्षेत्रं विलोकय । अभीष्टतम्यकरिगिरभिलषितप्रीहिभिरप्रकृष्टपच्यशालिभिरित्यर्थः । अवगाढं व्याप्तम् । शेषं तुल्यम् ॥३१॥
अस्मिन्नद्रावितस्थाने गहने पुण्डरीकणि | प्रफुल्ला नोकच्छन्ने नातिराजति वासरः ||३२||
अस्मिन्नितिः - अस्मिन्नद्री इतः स्थाने गहने बने वासरः दिवसः नासिराजति न शोभतेतराम्, कथमूतेऽद्री ? पुण्डरीकणि व्याभवति पुनः प्रफुल्लानोकच्छन्ने विकसितक्षाच्छादिते ।
भारतीय:- वा इवार्थेऽस्मिन् गहने सरः सरोवरं किमिव नातिराजति अपि तु अतिरात्येव । कथम्भूते ? अद्रावितस्थानेऽनुपद्रुतप्रदेशे पुनः पुण्डरीकणि सकमहे, शेर्पा सम्म् ||३२|| नातिक्रामन्ति सरितो गतिस्खलिवदूषिताः । अस्मिन्नेकानुकूलत्वं यान्ति गेहेऽङ्गना इव ॥ ३३॥
नेति - सरितः नद्यः नातिक्रामन्ति नातिद्धन्ते । कथम्भूताः १ गतिस्वति दूषिताः गतेः स्खलितभेव दूषितं यासां ताः गतिस्खलनदोषवत्य इत्यर्थः । तथा यान्ति गच्छन्ति । किम् ? एकानुकूलत्वम् । क ? अस्मिन् प्रस्तावे । का इव ? अङ्गना इव कामिन्यो यथा । क ? गेहे बेसनीति सम्बन्धः ॥ ३३ ॥
हाथियों युक्त बनके सौन्दर्यको देखो । [ हे युधिष्ठिर ! आप अनेक तनोंसे घन, एकान्त फले हुए अतएव भूरे भूरे शालिवन के सौन्दर्य को देखें ] ॥ ३० ॥
निर्भय असंख्य मप्त हाथियोंसे भरे हुए और अत्यन्त घने फलतः शत्रुओंके प्रवेशके लिए कठिन इस दण्डक भूमिको देखिये । [ हे शत्रुओं को दण्ड देने में समर्थ धर्मराज ! बिना चोये ही उगी प्रिय धानसे व्याप्त अतएव घने तथा बीच मेंसे जाने लिए अयोग्य इस खेतको देखिए ] ॥ ३१ ॥
फूले वृक्षोंसे ढके, ध्यानों (पुण्डरीक ) से व्याप्त इस पर्वत अथवा इस गहन वनमें दिन भी अच्छा नहीं लगता है । [ विकसित कमलयुक्त पूर्णरूप से खिले फूलोंसे ढके वृक्षयुक्त इस उपद्रवरहित गहन स्थानपर क्या तालाब अत्यन्त मनमोहक नहीं लगता है ? || ३२ ॥
प्रवाह पलटने के कारण हानि करने में समर्थ नदियाँ भी इस क्षेत्रमें ताँका लंघन नहीं करती हैं । घरमें कुलीन अंगना के समान वे पूर्ण रूपले अपने किनारोंके ही भीतर बहती हैं । [ आचरण में शिथिलताओं के दोष के कारण इस देशमें लियाँ मर्यादाओंका उल्लंघन नहीं करती हैं । शरत्कालीन नदियोंके समान एकपतिले व्रतका निर्वाह करती हैं ] ॥ ३३ ॥
१. श्लेषः - ब० ना० । २, श्लेषः ब०, ना० । ३. श्लेषः- ० ना० । ४. उपमा-२०, ना० ।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् पयोधरभराक्रान्तनितम्बालसविक्रमाः ।
तन्वीः स्पर्शसुखोत्सङ्गा नानाकुसुमवासिताः ॥३४॥ पयोधरेति-अधुना कुलकेन व्याख्यास्यामः। अयं देशः 'दरीगुहा बिभर्ति धारयति । कथम्भूताः । पयोघरभराकान्तनितम्यालसविक्रमाः पयोधराणां मेघानां यो भरस्तेन आक्रान्ता ये नितम्बाः सानवस्तैरलसाः धीनां पक्षिणी क्रमाः पादविक्षेपाः यासु ताः पुनः तन्वीः शक्ररारहितत्वाञ्च लम्वी: मृद्वीरित्यर्थः । पुनः स्पर्शसुखोसङ्गा स्पर्शसुख उस सत्य यास ताः . सानाकुसुमवासिताः विविधपुष्पसुरभीकृताः ।
भारतीयः-अयं देशः तन्धीः कामिनीः बिभर्ति । कथम्भूताः तन्वीः । पयोधरभराकान्तनितम्बालसविक्रमा पयोधरमरेण स्तनभारेणाक्रान्ती यो नितम्बः कटि प्रदेशस्तेन । अलसौ मन्दी विक्रमौ चरणौ यासां ताः । शेपं समम् ||३४||
सानुवृत्तोरुसम्भोगा गम्भीरावर्तनाभिकाः ।
रम्याधरोदरीभृताः प्रारोहचिकुरश्रियः ॥३५॥ सान्विति-पुनः कथम्भूताः । सानुवृत्तोसम्भोगाः सानौ प्रस्थे वृत्तो वतु सः उर: वरिष्ठः सम्भोगो विस्तारो यास ताः पुनः गम्भीरावर्तनाभिकाः गम्भीरः अतलस्पर्शी आवत्तों जलनमो यस्याः सा नाभिः मध्यप्रदेशो यास ताः पुनः रम्याः पुनः घरोदरीभूताः घरायाः भुवोऽनुदरमुदरं भूताः धरोदरीभूताः पुनः प्रारोहचिकुरश्रियः प्रारोहाः वृक्षनेत्रा एव चिकुराः वे.शास्तैः श्रीः शोभा यासां ताः ।
भारतीयः-अयं देशः तन्वीः त्रिभर्ति । कथम्भूताः ? सानुवृत्तोरसम्भोगा: बमवृत्तजधन विस्तारसहिताः। पुनः रम्याधरोदरीभूता रम्याण्वधरोदराणि यासां ताः रम्याधरोदयस्तादशीभूताः रम्याधरोदरीमृताः पुनः प्रारोहचिकुरश्रियः प्रारोहाणामिव चिकुरश्रीः केशशोभा यासां ताः ॥३५।।
युक्ताः कुशलताभोगैरुत्कटाक्षाः शुभाननाः ।
कान्ता विभर्ति देशोऽयमस्मिन्नुच्चैस्तलोदरीः ॥३६॥ युक्ता इति-अयं देशः दरीः बिभर्ति । कथम्भूत दरीः १ कुदालताभोगैः दर्भवाहीसमूहैर्युक्ताः समन्विताः पुनरुत्कटाक्षा उत्कटा उग्रा अक्षा विभीतकवृक्षाः यासु ताः । पुनः शुभानना रम्यद्वारप्रवेशाः पुनः कान्ताः के जलमन्ते समीपे यासां ताः । कथम्भूतो देशः ? उच्चैताल उच्चभूमिकः अस्मिन् दण्डके।
इस देशके पर्चतोंमें पेसी गुफाएं हैं जिनमें पक्षिलोग धीरे-धीरे निशंक भावसे चलते हैं क्योंकि गुफाओं वाले छोटे-छोटे शिखर मेघौकी घटासे घिरे रहते हैं। वे गुफाएँ पतली हैं, सुगन्धसे भरी है, (३४) शिखरके भीतर उनकी परिधि विस्तृत हो गयी है, उनका वृत्ताकार अन्त अत्यन्त दूर है, वे सुन्दर हैं तथा पृथ्वीके उदरके समान हैं, चारों तरफ उगी दूब, वृक्षोंके अंकुर आदि उनके केशसे प्रतीत होते हैं । (३५) कांस-टताओंके विस्तारसे व्याप्त, साँचर नमकसे भरी, सुन्दर प्रवेश द्वार सहित तथा जलाशयके पास स्थित हैं और अत्यन्त गहरी हैं (३६) [ इस देशमें स्तनोंके भारसे झुकी; नितम्यभारसे मन्धरगामिनी, कृश देहधारिणी, स्पर्शन इन्द्रियके सुख ( संभोग)की निमित्त, विविध प्रकारके पुष्पोसे सजी (३४), आनुपतिक वृद्धि युक्त अंधाधारिणी, गहरी गोल नाभिवर्ती, सुन्दर ओष्ठ उदर धारिणी, अंकुरोंके समान सुन्दर केश शोभित (३५) भोगोंके सेवनमें दक्ष, कटाक्ष विक्षेपमें पारंगत, मनोहर मुखवती तथा अत्यन्त कृश उदरधारिणी कान्ताएँ है ] ॥ ३६ ॥
इस देशकी अनुकूल बहती नदियोंका प्रवाह जब मेघोंकी घटासे आक्रान्त होता है तब इनको पार करनेमें पराक्रम ठंडा पड़ जाता है किन्तु इस ऋतु (शरत् )में ये पतली
१. प्रकरणप्राप्तस्वात् कान्ता नद्यर्थेऽपि संभवति । २. पयोधराणां भास्तेनाकान्तनितम्यास्तरका साथ ते वयश्च तेषां क्रमः पादविक्षेपो यासु ताः-प०, द० । ३. अतलस्पर्शः-प०,द० ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
१२५
भारतीयः-अयं देशस्तन्वीः बिभर्ति । क ? अस्मिन् स्थाने । कथम्भूताः १ कुशलताभागैश्चातुर्यप्राचुर्यः युक्ताः पुनः उत्कटाक्षा उद्गतापानाः पुनः शुभाननाः रम्यवदनाः कान्ताः कमनीयाः पुनरुच्चैस्तलोदरीचैरतीव तलं क्षाममुदरं यासां ताः सदसन्मध्यप्रदेशा इत्यर्थः ॥३६॥
विक्षिप्तपुष्पशयनाः सुरतापातसम्भ्रमात् ।
कुसुमेषुचिताः कामसङ्ग्रामरचना इव ॥३७॥ विक्षितेति-कुलकसम्बन्धेन व्याकरिष्यामः । भो देव भान्तीति क्रियाऽध्याहार्या । उपवने उद्यानवने एताः दिव्यस्त्रीणां सुराङ्गनानां क्रीडाः । कथम्भूताः ? सुरतापातसम्भ्रमात् सुरतस्य आपातेन यः सम्भ्रमस्तस्मात् सम्भोगप्रथमारम्भव्याकुलत्वात् विक्षितपुष्पायनाः विकीर्णकुसुमतल्पाः पुनः कुमुगेषुचिताः पुष्पवाणपुष्टाः । का इव ? कामसङ्ग्रामरचना इव स्मरसमरसन्निवेशा इन !! ३९०१५
अलीककलहाकृष्टसूत्रशेषीकृतस्रजः।
अन्योन्यबन्धनानीतविशसूत्रयुता इव ॥३८॥ अलीकेति--धुनः कथम्भूताः ? अलीक कलहाटसूत्रशेषीकृतसजः अलीककलदेनाकृष्टाः पश्चात् सूत्रशेपीकृताः सजो यासु ताः प्रेमकलहाशिततन्तुशेषीकृतकुसुममालाः । क्रिविशिष्टा इवोत्प्रेक्षिताः ? अन्योन्यबन्धनानीतविशसूत्रयुता इव परस्परयन्त्रणानायितपद्मिनीकन्दतन्तुबद्धा इवेत्यर्थः ॥३८॥
सलाक्षिकपदन्यासाः कुङ कुमै रञ्जिता इव ।
एताश्चोपवने दिव्यस्त्रीणां क्रीडाः सुरान्विताः ॥३९॥ सलाक्षिकोति-साक्षिकपदन्यासाः लाक्षारत्तचरणान्यासेन सह वर्तमानाः | का इवोमेक्षिताः ? कुङ्कुमैः घुसूणैः रञ्जिता इव विलिसा इव पुनः सुरान्विताः देययुताः ।
भारतीयः-ढे दिव्य ! मनोहर उपवने स्त्रीण कामिनीनामेताः क्रीडाः भान्ति । कथम्भूताः ! कुसु__ मेचिताः कुमुमेषु सुमनस्मु पुष्टाः कुसुमबहुला इत्यर्थः । अथवा कुमुमेधुः कामस्तेन चिताः पुष्टाः कन्दर्प पुष्टाः ।
पुनः सुरान्यिताः चारणीयुताः । शेष समानम् ॥३९|| पड़ गयी हैं, इनमें अवगाहनादिका आनन्द लिया जा रहा है, आस-पास खिले फूलोकी सुगन्धसे व्याप्त है। (३४) अत्यन्त गोल एवं विशाल मोड़ों युक्त हैं, गहरी भँवरोंके कारण इनमें कूप (पाताल) पड़ गये हैं, घे सुन्दर है और पृथ्वीके पेटके समान है। किनारेपर उगी वनस्पतियों के अंकुरोंकी शोभा अद्भुत है । (३५) दूर दूर तक कुश तथा लताकुओंसे व्याप्त हैं, किनारोंपर ऊँचे बहेडेके पेड खड़े हैं, उनका तल गहरा और विस्तृत है तथा ये सर्वदा सुन्दर और जलपूर्ण है। ३६। . इस देशकी गुफाएं देव वर्गके अवतरणके प्रसंगसे फैले फूलोंकी शय्या ही प्रतीत होती है, विविध पुष्पोंसे व्याप्त होनेके कारण कामदेवकी व्यूहरचना सी प्रतीत होती हैं (३७) परस्परके गुंजनसे आकृष्ट भौरोंकी मालामें केवल सूत्रकी ही कमी है, अथवा परस्पर में सन्निकट आ जानेसे मृणाल-तन्तुमें पिरोयेसे लगते हैं (३८)। निकटस्थ छोटे पर्वतोपर लाक्षा फैली हुई है । फलतः कुंकुमसे रंगेसे लगते हैं। इनके उपवनोंमै देवताओं के साथ स्वर्गकी अप्सराओंकी क्रीडाएं चलती है । (३१) [ प्रथम प्रारब्ध संभोगके भयसे पुष्पशव्या इधर-उधर हो गयी है। फलतः पुष्प रूपी वाणों से व्यात सुरत संग्रामको स्थलीके समान हैं। (३७) दिखावटी कलहमें खींची गयी मालाओंके सिर्फ सूध ही शेष रह गये हैं, वे पेसे लगते है मानो एक दूसरीको बाँधने के लिए मृणाल सूत्र हो। ( ३८) पालता युक्त पैरोंके चिह्नोंसे व्याप्त है और कुकुमसे रंगी-सी हो रही हैं ऐसी कामिनियोंकी अलौकिक क्रीडाएँ इन उपधनोंमें होती है । ३९।]
१. इलेपः-५०, ना० । २. श्लेष:-ब, ना ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
स्मरात वारुणीभूतपरिप्लवविलोचनाः । सिश्चन्त इव सुधया गायन्तः काकलीकलम् ॥ ४० ॥ चलत्परिमलासक्तलीलालोलालिसंवृताः । तमालबहुलारण्यमभिविष्टा इव स्फुटम् ॥४१॥ इह किंपुरुषाः पश्य पुष्पाणामुचिकीषया । उद्यानेन परिश्रान्ताः सङ्क्रीडन्ते प्रियासखाः ॥४२॥
स्मरार्त्ता इति - कुलकेन व्याख्यास्यामः । हे रावण ! पश्य निरीक्षस्व । इह दण्डकवने किम्पुरुषाः किन्नराः पुष्पाणामुच्चिकीषया उच्चेतुमिच्छया सङ्क्रीडन्ते विहरन्ति । कथम्भूताः ? उद्यानेनोदुर्ध्वगमनेन परिश्रान्ताः खिन्नाः । पुनः प्रियासखाः प्रियाः सखायो येषां ते वनितासहायाः पुनः स्मरातीः कन्दर्पकदर्थिताः पुनः वारुणी भूतपरिजन विलोचना वारणीभूतः परिप्लवो ययोस्ताहशे दिलोचने येषां ते मंदिरासमुत्पन्नाभिभवदृष्टय इत्यर्थः । किं कुर्वन्तः ? काकलीकलं मधुरस्वरमनोहरं यथा तथा गायन्तः । पुनः सुधयाऽमृतेन सिञ्चन्व इव प्लावयन्त इव पुनदचपरिमल्लासक्त लीला लेल दिसंवृताः परिमलेप्बासक्ताः परिमलासक्ताः चलन्तश्च ते परिमलासक्ताश्च चलत्परिमलासक्ताः लीलायां लोला लपटा येऽल्या मधुपास्ते लीलोयटयरचलत्परि मासताच ते लीलालोालयश्च तैः संवृताः भ्रमदामोदरतक्रीडाचञ्चलभ्रमरपरिवेष्ठिताः । किं विशिष्टा वक्षाः १ तमालबहुलारण्यं स्फुटं निश्चयेन अभिविष्टाः प्रविष्टा इव |
भारतीय:- हे युधिष्ठिर ! पश्य । उद्याने उपवने पुरुषाः किं न सङ्क्रीडन्तेः अपि तु सङ्क्रीडन्त एव । कथम्भूताः ! अरुणीभूतपरिप्लवविलोचनाः स्मरार्त्ता वा मकरध्वजपीडिता इव । शेषं समम् ||४०-४२॥ देवाङ्गनापदन्यास गुजदलय शिक्षनाः ।
एते लतागृहा भान्ति कामकाराल्या इव ॥ ४३ ॥
देवेति- एते लतागृहाः वल्लीमन्दिराणि भान्ति शोभन्ते । कथम्भूताः १ देवाङ्गना पदन्यासगुञ्जद्वलयशिजनाः देवाङ्गनानां पदन्यासेन गुञ्जन्ति रणन्ति वल्ल्यशिञ्जनानि कङ्कणनूपुराणि येषु ते । उत्प्रेक्षन्तेकामकाराला इव कन्दर्पबन्दीगृहा इव ।
भारतीयः - हे देव भान्ति, के ? एते लतागृहाः । कथम्भूताः १ अङ्गनापदन्यासगुञ्जद्वल्यशिञ्जनाः १ शेषं तुल्यम् ॥ ४३ ॥
I
काम-वासना से व्याकुल, मदिरासे उत्पन्न मादकता के कारण चंचलनेत्र, मधुर सूक्ष्म स्वरमें गाते हुए मानो अमृतकी वृष्टि करतेसे (४०) उड़ती सुगन्धिपर मोहित तथा क्रीडाके कारण चंचल भोरों से घिरे, मानो अधिकतम तमाल वृक्षोंके जंगलमें प्रवेश कर जाने पर भी दृश्य (४१) आकाशमें उड़नेके कारण थके तथा प्रियतमाओंके साथ निकले किन्नर जातिके देव यहाँ फूल चुनने की क्रीड़ा कर रहे हैं । हे रावण ! देखो (४२ ) [ कामदेव के द्वारा दी गयी वेदना लाल-लाल व्याकुल विरहके आसुओं से पूर्ण नेत्रोंसे सींचते हुए समान, प्रेमगीतको सूक्ष्मवर से गुनगुनाते हुए (४०) परिचर्या के लिए दौड़ती हुई, सुगन्ध जलादि लानेमें लीन, विभ्रम और सहज वाञ्चल्यघती सखियों से घिरे हुए, शीतोपचार के लिए लगाये तमाल पत्रोंके अरण्यमें ही छिपे हुए से ( ४१ ) अत्यन्त दुर्बल तथा बान्धवको प्यारे ये मतिमान पुरुष इस उद्यानमें हे युधिष्ठिर ! देखिये क्यों नहीं क्रीड़ा कर रहे हैं ? अर्थात् विरह व्याकुल हो कर पड़े हैं ] ।४२।
सुर-सुन्दरियोंके लीलापूर्वक पैर रखने से पैजनियोंसे निकली झुनझुन ध्वनियुक्त ये लताकुsa कामदेव के कारावासोंके समान प्रतीत होते हैं [ हे देव ! युधिष्टिर ! सुन्दरियों" • ] ४३ ।
१. श्लेषः - ब०, ना० ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२७
सप्तमः सर्गः उद्योतितदिशः पक्का लोकस्याजीवहेतवः ।
दिव्यौषधो विभान्स्येताः परार्थाः सक्रिया इव ॥४४॥ उद्योतितेति–एसा दिव्योषध्यः शतुवादयोग्यानि भेषजानि विभान्ति । कथाभूताः ? उयोतितदिशः प्रकाशिताशाः । पुनः पक्काः प्रातपाकाः पुनः आजीवहेतवः जीवम् आ इति आजीवम् आजीचं हेतब आजीवहेतवः जीवनात कारणानि । कः : लोकस, मादयते-का इव ? सलिया इव सदाचरणानी. येत्यर्थः । कथम्भूताः १ परार्थाः परेभ्योऽर्थः प्रयोजनं याभिस्ताः परार्थाः।
भारतीयः-हे दिव्य युधिष्ठिरः एता ओषध्यः पाचनालादिधान्यानि विभान्ति । कथम्भूताः ? लोकत्याजीवहेतवः जीवनोपायाः ॥ ४४ ॥
भूर्जायते प्रदेशेऽस्मिन्सालतालीसमाकुले ।
अभिख्यातियुता नित्यं शप्पच्छायोदकान्विता ॥४५॥ भूरिति-झाष्पच्छाया शप्पैः बालतृणैरुपल्लक्षिता आया अभिख्याति शोभतेतराम् । छ ? अस्मिन्प्रदेशे । कथम्भूते ? भूर्जायते भूजरायते महति पुनः शालतालीसमाकुले सालैतालीमिश्र समाकुले । कथम्भूता शपच्छाया ? उदकान्विता जलयुता पुनः युता मिश्रा ।
___ भारतीयः- अमिख्यातियुता शोभासंयुक्ता भूर्भूमिः जायते । कथम् ? नित्यमनवरतम् । कथम्भूता सती ? शपच्छाघोदकान्दिता बालकृणच्छायासमवेता । क ? अस्मिन् लोचनगोचरे प्रदेशे। कथम्भूते ? लतालीसमाकुले वल्लीश्रेणिसङ्कीर्णे ! कीदृशी भूः ? सा लोकप्रसिद्धा ॥ ४५ ॥
श्रीमत्तरलतोपेताः सरलाः सङ्गता इतः । प्रियवल्ल'वलीलाल्या व्रजकान्ताश्वकासति ॥ ४६॥ वैशाखोन्मन्थनोत्कम्पाइलन्मूर्धप्रसूनकाः । सुग्लानिजघनाभोगा न्यग्रोधपरिमण्डलाः ॥४७॥ उद्धृतापाण्डुरश्यामविटपायतबाहवः।
संक्षिप्तबन्धुरस्कन्धाः प्रवालबहुलश्रियः ॥४८॥ श्रीमदिति-बुलकेन व्याख्यास्यामः । हे प्रियवन् प्रियमस्यास्तीति प्रियवान् तस्य सम्बोधनम् । हे कल्याणवन् हे रावण ! ब्रज गच्छ । कया लवलीलाल्या लबलीनां चन्दनलतानामिला मही तस्या आलिः श्रेणी तया । क ? इतोऽस्मिन् प्रदेशे। यस्मात् हे श्रीमत्तर चकासति शोमन्ते । के ? सरलाः देवदारवः ।
समस्त दिशाओं में प्रकाश फैलाती हुई परिपक्व तथा संसारके दीर्घजीवन में साधक ये अलोकिक औषधिया वैसी ही चमक रही है जैसी कि परोपकारके लिए की गयी सक्रियाए शोभित होती हैं। [हे दिव्य पाण्डराज ! संसारकी आजीविकाके निमित्त ये धान्यादि वैसे सुन्दर लगते हैं जैसी.......... ] । ४४।
साल तथा ताल वृक्षोंसे व्यात, भोज पत्रोंके समान विस्तृत और समतल इस क्षेत्र में दूधकी छाया और जलसे पूर्ण शीतल भूमि अत्यन्त सुन्दर लगती है। [लताओंकी श्रेणियोंसे व्याप्त इस क्षेत्रको भूमि सदैव दूब, छाया तथा पानीसे युक्त रहने के कारण अत्यन्त मनोरम हो जाती है। ४५।
हे कल्याणभाजन रावण ! चन्दनकी लताओंसे ढकी धीथियों से जाओ। अधिकतर शोभा युक्त लताओंसे घिरे, अत्यन्त घने मानो एक स्थानपर आ मिले सदृश सुन्दर अथवा पानीबहुल देवदारुके वृक्ष यहाँ बड़े मनमोहक लगते हैं। (४६) इनकी शाखाओंके परस्परमें
1. यमकइलेपयन्धेषु सबिन्दुकाबिन्दुकथोरभेदाद् गुणानामभेदकत्वान्न दोषः ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् कथम्भूताः ? सङ्गताः घनाः परस्पर मिलिताः पुनः लत्तोपेता वस्तीयुक्ताः । यद्वा श्रीमत्तरलतापता श्रीः शोभाः मत्ताः क्षीवा रलाः मधुपाः तोपः समूहः मत्ताश्च ते रलाच मत्सरलाः मत्तरलानां तोपः मत्तरलतोपः श्रीश्च मत्तरलतोपश्च श्रीमनातोपौ तायामितानाभीयालोमाः मुनरपि कथम्भूताः ? गलन्मूर्धप्रसूनकाः; गलन्ति पतन्ति मूर्द्धभ्यः शिखरेभ्यः प्रसूनानि कुसुमानि येषां तैः । करमात् ? शाखोन्मन्यनोत्करपात् शाखाविलोडनो कम्पात् । कथम् ? 3 स्फुटं पुन: सुग्लाः म्लानाः पुनः निजघनाभोगाः स्वनिविडविस्ताराः पुनः न्यग्रोधपरिमण्डलाः न्यग्रोधस्येव वटवृक्षस्येव परिमण्डलं बुघ्नं येषां ते तथोक्ताः । पुनरपि कथम्भूताः ? उद्धृतापाण्डुरदयामविटपायतबाहवः उद्धृताः उद्दण्डाः, आपाण्डुर- श्यामाः ईपच्छुक्लश्यामाः उद्धृताश्च ते आपाण्डुरस्यामाश्च उद्धृतापाण्डुरझ्यामाः ते च ते विटपाश्च उद्धृतापाण्डुरश्यामचिटपाः क्षुद्रशास्खास्त एवायता दीर्थाः बाचो हस्ताः येषां ते तथोक्ताः । पुनः संक्षिप्तबन्धुरस्कन्धाः ह्रस्वमनोहरशाखाजन्मस्थानाः । पुनः प्रवालबहुलनियः प्रबालानां कोमलपलवानां बहुला प्रचुरा श्रीः शोभा येषां ते तथोक्ताः । पुनः कान्ता मनोशाः, अथवा के जलमन्ते समीपे येषां ते कान्ताः।
मारतीयः-हे युधिष्ठिर, ब्रजकान्ता गोप्यश्च कासति । कया ? प्रियवल्लवलीलाल्या प्रियगोपकटाक्षमालया । क्व १ इतः प्रदेशे । कथम्भूताः सत्यः ? सङ्गताः मिलिताः । पुनः श्रीमत्तरलतोपेताः श्रीमत्यश्च तास्तरलतोपेताश्च श्रीमत्तरलतोपेताः शोभावच्चञ्चलत्वयुताः । पुनः सरला: ऋजवः पुनः गलन्मूर्द्धप्रसूनकाइच्यवन्मस्तककुसुमाः । कस्मात् ? पैशास्त्रोन्मथनोत्कम्पात् वैशाखो मन्थनदण्डः तस्य यदुन्मन्थन तस्मात् य उत्तम्पस्तस्मात् मन्थनदण्डविलोडनोर्बकम्पनादित्यर्थः । पुनः सुम्ला निधनाभोगो यासां ता अतिक्लेशप्राप्तटिमध्यप्रदेशाः सव्यपत्रिकप्रदेशा इत्यर्थः । पुनः न्यग्रोधपरिमण्डलाः तिर्यग्रोधकटिप्रदेशाः । पुनरुतापाण्डुरदयामविटपायतबाह्यः उद्धृतापायछुरश्यामविटपा वतुलेषत्पाण्डुरश्यामविटपा इवायता बाबो यासां ताः पुनः संक्षिप्तबन्धुरस्कन्धाः व्यापारितमनोज्ञांसाः पुनः प्रवालबहुल श्रियः प्रकृष्टकेशप्रचुरश्रियः४७-४८॥
पद्मरागप्रभाजालं विलोक्य शिखिनो गजाः ।
शङ्कया वनराजीषु विद्रवन्त्यमुतः प्रभो ।।४९।। पझेति-हे प्रभो, हे स्वामिन् ! अमुतोऽस्मात्प्रदेशात् गजाः हस्तिनः विद्रयन्ति । किं कृत्वा । पूर्व पद्मरागप्रभाजालं शोणमणिप्रभासमूह विलोक्य निरीक्ष्य | कया ? शिखिनः दावाग्नेः शङ्कया भ्रान्त्या । कासु ? वनराजीपु कान्तारश्रेणिषु ।
रगड़नेके कारण जो कम्प होता है उसके द्वारा चोटी तक के फूल झर जाते है और मुरझा जाते हैं। इन वृक्षोंकी गोलाई बहुत बड़ी है, वट वृक्षके समान इनका विस्तार है (४७) ऊपर तक चली गयीं श्वेत रक्त अथया श्यामल शाखाएँ ही इनकी लम्बी भुजाएं हैं, इनके तने सुन्दर और कम ऊँचे हैं तथा नूतन सुकुमार पत्रोंने इनकी शोभाको अनेक गुणित कर दिया है । (४८) [ लक्ष्मीनिवास युधिष्ठिर ! यहाँपर नजकी स्त्रियोंकी शोभा व्याप्त है क्योंकि प्रेमी गोपोंके कटाक्ष उनपर बरस रहे हैं, सरल होकर भी थे चंचलतासे पूर्ण हैं, उनका आचरण समीचीन है, मथानीको चलानेके कारण उनके शिरके भूषण फूल विखर गये हैं, जंघाएँ ऐसी पुष्ट और विस्तृत हैं कि वे थक जाती हैं, कटि प्रदेश विस्तृत और घर्तुल है, कोमल शाखाओं के समान सुकुमार तथा लम्बी भुजाओंको वे लीलाले उठाये हैं, सुन्दर कंधे ढले हुए हैं तथा लम्वे लम्बे केशोंने उनकी शोभाको अनन्त गुणित कर दिया है ] ॥ ४६-४८॥
। हे रावण ! पद्मराग मणियोंकी फैली हुई लाल लाल कान्तिको देखकर दावानलकी आशंकासे हाथी इस जंगलसे दूसरे जंगलोंको भाग आते हैं। [ हे धर्मराज ! पर्वती मयूर
१. श्लेपः-१०, ना
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
सनमा साः
१२९ भारतीयः पशः-हे प्रभो, हे विभो युधिष्ठिर ! अगजाः पर्वतनाः शिखिनः मयूराः शङ्कया भीत्या विद्रवन्ति, अपि तु न ; शङ्कां विहाय निःशङ्कीभूत्वा खादन्तीत्यर्थः । कुतः १ अमुतः प्रदेशात् । किं कृत्वा ? पूर्व विलोक्य । किम् ? पद्मरागप्रमाजालं. किचल्ककान्तिश्रेणिम् | कासु ! वनराजीषु पयःपशिष्विति ॥४९॥
शस्यकं हरितग्रासबुद्ध्या वातमजा मृगाः।
दौकन्ते चाफ्यन्त्यस्मिश्चलानामीशी गतिः ॥५०॥ शस्यकमिति बातमजाः वातमजन्तीति वातमजाः मृगाः हरितग्रासबुद्ध्या शस्यकं नीलमणिं ढौकन्ते आनयन्ति अपयन्ति च परित्यजन्ति च । क्व ! अस्मिन् प्रदेशे, युक्तमेतत्, हा कष्टं चलानां प्राणिनामीदृशी गतिः स्यात् ।
भारतीयः-वातमजा मृगाः हरितपासबुध्या अल्पं शस्य शस्यकं क्षुद्रधान्यं ढौकन्ते अपयन्ति च । शेषं प्राग्वत् ॥५०॥
एषा पक्कफलाशालिसम्पदम्भोजशालिनी ।
बहशोभास्थली लाति मोहनीयातिरम्यताम् ॥५१॥ एषेति-एषा स्थली अतिरम्यामतिरमणीयता लाति आदते । कथम्भूता ? पक्वफलाशालिसम्पत् पक्वे फले आशा यस्याः सा, पक्वफलाशाऽलिसम्पद्यस्यां सा पक्वफलेच्छुभ्रमरसमूहा । पुनः । अम्भोजशालिनी पद्म. शोभिनी । पुनः बहुशोभा प्रचुरदीप्तिः पुनः मोहनीया मोहोत्पादिका ।
भारतीयः-याति व्रजन्ति । का ? एषाऽलिसम्पत् । काम् ? रम्यताम् | मनोशताम् । बहुशो वारंवारम् । कथम्भूता ! पश्चफलाशा पुनरम्भोजशालिनी पद्मराजिता पुनः भास्थलीलातिमोहनी भायां तिष्ठ. तीति भास्था, भास्था चासौ लीला च भास्थलीला तयाऽतिमोहनी मोहोत्पादिका पिङ्गदीप्तिस्थितशोभयामोहनीति ॥५१॥
अपि चामीकरिकुलैः सुतरामाकुलैर्युताः । सिंहकेसरसञ्छन्ना बहुधान्यातिदुर्गमाः ॥५२॥ रम्यभावोदयादिक्षु द्राक्षापूगैरलङ कृताः ।
ग्रथिता नागवल्लीभिः स्फुरन्तीभिरितस्ततः ॥ ५३ ।। जल-स्थलोंमें व्याप्त कमलोंके पराग और कान्तिके विस्तारको देख कर क्या उर कर इस घनसे भागते हैं ? अपितु निशंक होकर कमल-परागका पान करते हैं ] ॥४९॥
. हे रावण ! इस वनमें वायुसे भी द्रुतगामी हिरण हरी घास समझ कर नीलमणियोंके पास जाते हैं और निराश होकर लौटते हैं । ठीक ही है, चंचलोको यही गति होती है। [हे युधिष्ठिर ! इस देश में बकरे तथा हिरण नवजात धान्यकी सुगन्धसे आकृष्ट होकर हरी हरी घास खानेकी इच्छासे जाते हैं किन्तु भगा दिये जाते हैं, लोलुपोका यही हाल होता है ] ॥ ५० ॥
सब ओर पके फलोंसे व्याप्त, गूंजते हुए भौरोके समूहसे घिरी कमलिनी युक्त अत्यन्त सुन्दर और मनमोहक यह भूमि रमणीयताकी अति है।[पके फलोपर मुग्ध, कमलोंके द्वारा उद्दीप्त, कलामय क्रीडाके कारण अत्यन्त उन्मत; यह भौरोंकी • शोभा सौन्दर्यका चरम विकास है ] ॥५१॥
__ अन्वय-अस्मिन् सुतराम् आकुलैः करिकुलगुंता, सिंहकेशर-सम्छन्ना, बहुधा-अन्यातिदुर्गमाः, रम्यभावोदया, विक्षु द्राक्षापूगैरलंकृताः, इतस्तप्तः स्फुरन्तीभिः नागवल्लीभिः प्रधिता, सेन्यामा, मानरहिता दुमाकुला भ्रष्टापदोपेतसंचारा अमी सानुभोगाः श्रियं दधति ।
१. अत्र कृतः शरत्कालपरामर्शः । २. भ्रान्त्यर्थान्तरन्यासी-ब०, ना० । ३. इलेषः-०, ना० ।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सेव्याग्रामानरहिताः सानुभोगा द्रुमाकुलाः ।
अस्मिन्नष्टापदोपेतसञ्चारा दधति श्रियम् ॥ ५४ ॥ कुलकम् )
अपीति — अमी दृष्टिपथमायाताः सानुभोगाः पर्वतनितम्बविस्ताराः अस्मिन्दण्डके श्रियं दधति घरन्ति । कथम्भूताः ? करिकुलैः गजवृन्द्रैर्युताः । कथम्भूतैः करिकुलैः १ सुतरामाकुलैः व्यनैः पुनः सिंहकेसरसञ्छन्नाः कण्ठीरवकण्ठकेसरप्रच्छादिताः पुनः बहुधान्यातिदुर्गमाः बहुधा बहुप्रकारैरन्यैः श्वापदैरतिदुर्गमाः नानाप्रकारापरश्वापदातिदुःप्रवेशाः पुनः रम्यभावोदयाः पुनर्दिश्वाशासु द्राक्षापूगैरलङ कृताः पुनः नागबल्लीभिः ताम्बूलीलताभिः सर्पश्रेणिभिर्हस्तिश्रेणिभिरिति केचित् । प्रथिता गुम्फिताः । कथम्भूताभिः ? इतस्ततः स्फुरन्तीभिः विजृम्भमाणाभिः । पुनः सेवायाः आश्रवणीयशिखराः पुनः मानरहिता इयत्ता त्यक्ता, अत्यन्तविस्तीर्णा इत्यर्थः । पुनः अष्टापदोपेतसञ्चाराः शरभाश्रितमार्गाः ।
भारतीयः - हे युधिष्ठिर अपि शब्दस्यायमर्थः, अस्मिन्देशे पत्तनानां तावदास्तां वर्णना ग्रामा अपि श्रियं विभूतिं दधति । कथम्भूताः ? चामीकरिकुलैः सुवर्णाढ्य पुरुष सन्तानैर्युक्ताः । कथम्भूतैः १ सुतरामाकुलैः सुताः पुत्राः रामाः भार्यास्ताभिराकुलैः, यद्वा सुतरामाणां कुलं येषां तानि तैः सुतसमूहरामा समूहयुक्तरित्यर्थः । पुनः सिंहकेसरसञ्छन्नाः सिंहकेसराः वृक्षविशेषास्तैः सञ्छन्ना पुनः बहुधान्यातिदुर्गमाः प्रचुरसस्यातिदुर्गमाः पुनरिक्षुद्राक्षापूगैः इक्षवः प्रसिद्धाः द्राक्षा गोस्तन्यः पूगाः क्रमुकद्रुमाः तैरलङ्कृताः । कस्मात् ? रम्यभावोदात् रमणीयताभ्युदयात् पुनः नागवल्लीभिः ताम्बूलीभिः ग्रथिताः । कथम्भूताभिः ! इतस्ततः स्फुरन्तीमिः पुनः सेव्या आश्रयणीयाः पुनः नरहिताः मनुष्य हिताः पुनः सानुभोगाः विस्तीर्णाः पुनरष्टापदोपेतसञ्चाराः सुवर्णान्वितनिर्गमप्रदेशाः । इति कुलकम् ।। ५२-५४ ॥
बहुधातुगणाकीर्णान्सुमहायागुणादिमान् ।
शब्दागम इवाद्देशान्देवलोकी न मुञ्चति ॥५५॥
बह्निति - देवलोकः सुरसमूहः इमान् उद्देशान् न मुञ्चति न परित्यजति । ऊर्ध्वं गताः देशा उद्देशा उच्च प्रदेशाः पर्वतादयो वा तान् । कथम्भूतान् ? बहुधातुगणाकीर्णान् प्रचुरगैरिकादिसमूहसंकुलान् । कथभूतो देवलोकः १ सुमहाः शोभनतेजाः । वागुणात् ऊ ईश्वरः आ ब्रह्मा अः नारायणः उश्व अश्व अश्च वाः वानां गुणः वागुणस्तस्मात् हरहिरण्यगर्भहरीणां प्रतापगुणात् शरीरका न्तिगुणाच अधिक प्रतापः अधिकशरीर
और भी देखिये, इस दण्डक वनमें ये पर्वतोंके ढाल कितने शोभापूर्ण हैं, स्वयं ही इकट्ठे हुए हाथियों के झुण्डोसे भरे हैं, सिंहोंकी अयालके बालोंसे ढके हैं, बहुधा दूसरे हिंस्र पशु भी यहाँ से निकलते डरते हैं, सब दिशाओं में खड़े अंगूर सुपारी आदिके वृक्षों तथा इधरउधर लहलहाती पानकी वेलोंसे गुथे होनेके कारण; सुन्दर भावोंके प्रेरक रमणीय शिखरोंसे भूषित, विस्तृत होकर भी वृक्षोंसे पूर्ण तथा भाँति भाँतिके शरभ आदि मृग इसमें कूदते फिरते हैं ॥ ५२-५४ ॥
अन्वय-अस्मिन् च चामीकरिकुलैर्युता, सुत- रामाकुलैः, सिंहकेशर सञ्छन्नो, बहुधास्या अति दुर्गमा, रम्यभावोदयात् इक्षुद्राक्षा पूगैरलंकृताः, इतस्ततः स्फुरन्तीभिः नागवल्लीभिर्मथिता, नरहिताः, सानुभोगाः, ब्रुमाकुलाः, अष्टापदोपेतसन्चाराः सेव्याः ग्रामा अपि श्रियं दधति ।
इस देश में पत्नी पुत्र तथा कुटुम्बियों युक्त धनवान् लोगोंके समूहोंसे व्याप्त, सिंहकेशर वृक्षोंसे पटे, धान्यके खेतोंमें दबी पगडण्डियों युक्त, सौन्दर्य लक्ष्मीकी कृपाके कारण ईख, दाख तथा सुपारी आदिसे परिपूर्ण, इधर-उधर घूमते हुए दाथियोंकी पंक्तियोंसे गुँथे, मनुष्यों के कल्याणकारी, अनुकूल भोग समन्धित, दोनों ओर वृक्षोंसे युक्त तथा स्वर्ण निर्मित सदृश मार्गों से पूर्ण ग्रामोंकी भी शोभा अवर्णनीय है ।
१. प्रवेश: - प०, ६० | २. श्लेषः - ब०, ना० ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
१३१
तेजाश्चेत्यर्थः । क इव न मुञ्चति ? शब्दागम इच व्याकरणमिव । यथा शब्दागमः उद्देशान् प्रकरणानि न त्यजति । कथम्भूतान् उद्देशान् ? बहुधातुगणाकीर्णान् बहुभिर्धातुगणैराख्यातसङ्घराकीर्णान् संकुलान् । कथम्भूतः शब्दागमः ? सुमहावाक् शोभना महतां शिष्टानां बागवाणी यस्मात् स सुमहावाक् पुनः उणादिमान् उणादिप्रत्यययुक्त इत्यर्थः।
भारतीयः-हे देव हे युधिष्ठिर न मुञ्चति । कः ? लोकः अष्टादशप्रकृतिजो जनः । कान् ? उद्देशान् उत्कृष्टान्देशान् धनजनकनकसस्यसमृद्धान् ; पुनः बहुधातुगणाकीणान् प्रभूतसुवर्णरूप्यलोहताम्रादिसमन्वितान् । | किंविशिष्टो लोकः ? सुमहावाः शोभनरत्सवैरावाति समन्तात्प्रवर्तते सुमहावाः । पुनः गुणादिमान् वीर्योदायादियुक्तः उपमार्थः प्राग्वत् ॥५५||
मन्दरागः स्वयं साक्षान्मन्त्रकृद्धिरधिष्ठितः ।
पुण्याश्रमो विभात्येष सानुमाननया श्रिया ॥५६|| मन्देति-एष सानुमान् अनया श्रिया विभाति शोभते । कथम्भूतः ? मन्दरागः मन्दरश्चासावगश्च मन्दराग: मेरुः । कथम् ? स्वयं स्वरूपेण । पुनः मन्त्रकृद्भिः विद्याधरैः साक्षात् परमार्थवृत्त्याधिष्ठित आश्रितः । पुनः कथम्भूतः ? पुण्याश्रमः पुणयति पुमांसं शुभ कर्मणि प्रवर्तयतीति पुण्यम् “योचोरासुयुवः” [जै० २।१।८४ ] इति यः प्रत्ययः । पुण्यसंयोजनहेतुत्वात् पुण्यानामुपलभ्यमानत्वादाश्रमः पुण्यानमो जनानामिति ।
भारतीयः-एष पुण्याश्रमः विभाति । पुण्यस्य सम्यक्तपश्चरणादिजनितशुभपरिणामलक्षणस्यानुभवखात् पुण्याः यतयस्तेषामाश्रमः पुण्याश्रमः । कया कृत्वा ? अनया प्रत्यक्षभूतया श्रिया शोभया । कथम्भूतः ! सानुमान् सया लक्ष्म्या सह जनमनुमानयत्यनुबन्धयतीति सानुमान् नीदागसमर्थ यर्थ । पुनः मन्दरागः मन्दो रागो यत्र स पुनः मन्त्रकृद्भिः योगिभिः स्वयमात्मना साक्षात् परमार्थतोऽधिष्ठितः ।। ५६ ।।
___ अन्वय-शब्दागम इच बहुधातुगणाकीर्णान् , घागुणादिमान् जोशान् सुमहा देवलोको न मुम्चति ।
व्याकरण शास्त्र के समान गेरु आदि समस्त धातुओंसे भरपूर (भ्वादि क्रियागोले पूर्ण ) ऊ (शिव)+ आ (ब्रह्मा) + अ (विष्णु) या अर्थात् मद्देश-ब्रह्मा-विष्णुके गुणोंसे युक्त ( उणादि प्रकरणों सहित ) अत्यन्त तेजस्वी (शुद्ध तथा कार्य वाक्योंके जनक) ऊँचे स्थलोंको (प्रकरणोंको) देव लोग नहीं छोड़ते हैं।
अन्धय-हे देव ! गुणादिमान् सुमहावाः लोकः शब्दागम इव बदुधासुगणाकीर्णान् उदेशान् म मुञ्चति ।
हे धर्मराज ! वीर्य शौर्य आदि गुणों के धारक, सुन्दर उत्सवोंमें सम्मिलित होनेके लिए आतुर, अठारह प्रकृतिके लोग सोना आदि धातुओसे पूर्ण इस उत्तम देशको नहीं छोड़ते हैं ॥ ५५॥
अन्वय-स्वयं मन्दरागः, मन्त्रकृतिः साक्षादधिष्ठितः पुण्याश्रमः एष सानुमान् अनया धिया विभाति ।
स्वभावसे ही सुमेरु पर्वत तुल्य, विद्याओंके साधकों (विद्याधरों) की प्रमुख निवास भूमि तथा शुभ आचरणके कारण आश्रम तुल्य यह पर्वत इस छटासे चमक रहा है।
अन्यय-मन्त्रवद्भिरविष्टितः स्वयं मन्दरागः, सानुमान, एपः पुण्याश्रमः भनया श्रिया विभाति ।
मन्त्रोच्चारणमें लीन तपस्थियोंसे ध्यात, स्वयमेव राग-द्वेषकी हीनताको प्राप्त झानादि रूप अन्तरंग लक्ष्मीके कारण आकर्षक यह पुण्यात्माओंका आश्रम साधनाकी सुन्दरतासे सुशोभित है ॥५६॥
१. इलेपः-बाना ।
स
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसम्धानमहाकाव्यम् एष चापगुणोन्मुक्तविकसद्वाणसंहतिः ।
प्रदेशेऽस्मिन्नभीरामः प्रकाममवलोक्यताम् ॥५७॥ ___ एष इति-भो रावण ! एष रामोऽवलोक्यताम् त्वया । क अस्मिन्प्रदेशे । कथम्भूतः १ चापगुणोन्मुक्तविकसद्वाणसंहतिः चापगुणेन धनुर्मीळ कृत्वोन्मुक्ता विसष्टा विकसन्ती स्फुरन्ती वाणसंहतिः शरपर क्तियेन सः अभीः निर्भयः । कथम् ? प्रकाममत्यर्थम् ।
भारतीयः-हे युधिष्ठिर ! एघ पुण्याश्रमः त्वयाऽवलोस्यता । कथम्भूतः १ अपगणोन्मुक्तविकसद्वाणसंहतिः अपगुणेनावग्रहेणोन्मुक्ता विकसन्ती वाणानां वृक्षविशेषाणां संहतिः पङि क्तर्यत्र सः पुनरभीरामः मनोशः। क ? अस्मिन्प्रदेशे । कथम् ! प्रकामम् ।। ५७ ॥
शरप्रवाहदुर्गेऽस्मिञ्छ्रीसम्पलक्ष्मणान्विते ।
देशभग्नेभदन्ताये दृश्यतां दीप्रसागुरुः ॥५८॥ शरेति-रामः दृश्यताम् । कथम्भूतः १ दीप्रतागुरुः दीप्रतया प्रतापेन गुरुः । छ ? अस्मिन्देशे प्रदेशे । कथम्भूते प्रदेशे ? शरप्रवाहदुर्गे मार्गणगणविषमे पुनः श्रीसम्पलक्ष्मणान्विते श्रीसम्परसीता लक्ष्मणः सौमित्रिः ताम्यामन्विते पुनः भग्नेभदन्ताये भग्नर्जर्ज रैरिभदन्तैः गजरदैराट्ये संयुक्त।
भारतीयः-एष च पुण्याश्रमो दृश्यताम् । कथम्भूतः ? दीप्रतागुरुः दीप्रतया तपश्चरणादिना गुरुः । क्व ? अस्मिन् देशे । कथम्भूते देशे ? शरप्रवाहदुर्गे पयःपूरदुःप्रवेशे पुनः श्रीसम्पल्लक्ष्मणा शोभासमृद्धिचिह्ननान्विते पुनः अभग्ने निरुपद्रवे पुनः भदन्ताये भदन्तैः पूज्यैः पुंभिराट्ये युते ॥५८||
अहो परमरौद्रत्वमसिधारावतैश्चिता ।
धत्ते सङ्ग्रामदुर्गान्तर्भूमिर्नरकपालिनी ॥५९।। • अहो इति–अहो आश्चर्ये असावन्तर्भूमिः समीपवर्तिनी भूमिः परमरौद्रत्वमतिशयेन भीष्मत्वं धत्ते धारयति । कथम्भूता सती ? संग्रामदुर्गा खरदूषणविहितसमरदुःप्रवेशा पुनः असिधारावतैरसिधारैव व्रतं येषां तैः क्षत्रियकुमारैश्विता उपचयं प्रासा पुनः नरकपालिनी मनुष्यारोटिवती ।
इस स्थानपर धनुषको डोरीसे छोड़े गये पढ़ते हुए घाणोंकी पंक्तिसे युक्त निर्भय राम हैं। इन्हें जी भरके खोज लो।
अन्वय-अस्मिन्प्रदेशे च भप गुणोन्मुक्तविकमाणसंहतिः अमीरामः एषः प्रकाममवलोक्यताम् ।
इस स्थानपर ही जलराशिकी भरमारके कारण विकसित वाण वृक्षोंकी पंक्तियाँ हैं ये अत्यन्त सुन्दर लगती हैं। इन्हें खूब देखिये और प्रमुदित होइये ॥५७॥
वाण वर्षाके कारण संकटापन, टूटकर गिरे हाथीदाँतोंसे व्याप्त इस देशमें लक्ष्मी स्वरूप सीताजी तथा लक्ष्मणके साथ रहते हुए तेजस्वियोंके गुरु रामको भली. भाँति खोजिए।
अन्धय-शरप्रवाहदुर्गे, श्रीसम्पपलक्ष्मणान्विते, भदन्ताये, अभग्ने भस्मिन् देशे वीप्रतागुरुः दृश्यताम् ।
पानीकी बाढ़ के कारण दुर्गम, लक्ष्मी और कान्ति रूपी चिह्नोंके धारक, श्रमासे परिपूर्ण तथा अखण्ड इस देशमें तपके प्रतापयुक्त इस आश्रमका दर्शन कीजिए ॥५८॥
___ तलवार धारण करनेके व्रती वीरोंसे पटी, कुछ समय पूर्व हुए घोर युद्ध के कारण अगम्य और मनुष्योंके कपालोले घ्याप्त यह युद्धस्थली और दुर्गके बीचकी भूमि अत्यन्त भीषणताको धारण किये है।
1. श्लेषः-० ना०।२,संसारासातापरिज्ञानेन चैरङ्गिकैः पुरुषैराश्रिते-प०,द०।३.श्लेषः-१०,ना०।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतमः सर्गः
Rom
भारतीयः-असौ संग्रामदुर्गान्तभूमिः समीचीनग्रामप्राकार मध्यावनिः अरौद्रत्वं प्रसन्नत्वं पत्ते । करभूतम् ? परमुस्कृष्टम् । कथम्भूता १ असिधारावतैः असिधारेव व्रतं योषां तैः पररामासहोदरैः सत्पुरुषैः यद्रा हड़तपश्चरणादिवतधुरन्धरैः योगिभिश्चिता पुनः नरकपालिनी नरान् केन सुखेन पालयतीति सा तथोक्ता ॥५९||
प्रभञ्जनाकुलाशोकभिन्ना पुन्नागसंहतिः ।
एतस्मिन्नीदृशं कालं प्राप्य राजन राजती ॥६॥ प्रभञ्जनेति-हे राजन् भो रावण ! न राजति न शोभते। काऽसौ ? पुन्नागसंहतिः सत्पुरुषसमूहः । किं कृत्वा ? पूर्व प्राप्य वा । कम् ? कालं लक्ष्मणम् । कथम्भूतम् ? ईदृशम् । क्व ? एतस्मिन्नत्र दण्डकाख्ये बने । कथम्भूता सती ? प्रभञ्जनाकुला प्रध्वंसव्यग्रा । पुनः शोकभिन्ना मनःक्लेशजनितान्त:सन्तापतप्ता ।
भारतीयः-हे राजन् ! पुन्नागसंहतिः पुन्नागा वृक्षविशेषास्तेषां संहतिः न राजति, अपितु राजत्येव । किं कृत्वा ? कालं बरतमायं प्राप्य । कथम्भूता ? प्रभन्न नाकुलाशोकभिन्ना प्रभजनेन वायुना आकुलैरशोकैर्वृक्षविशेर्भिन्ना वाताहतपिण्डीद्रुमभिश्रीभूता ॥६॥
नृपहेतुरगान् पश्य त्वं लक्ष्म्या ज्वलितानिमान् ।
चैरिदावाग्निसन्तापविदग्धान् पतितानितः ॥६॥ नृपेति-हे साप भो रावण ! पश्य निरीक्षस्व | कोऽसी ? ल्यम् । कान् ? इमाञ् तुरगान् । कथम्भूतान् ? पतितान् | छ. ? इतः प्रदेशे । पुनः कथम्भूतान् ? ज्वलितान् शोभितान् । कया ? लक्षम्या शरीर शोभया । पुनः कथम्भूलान् ? रिदावाग्निरान्तापविदग्धान् चैरिणश्च ते दादाग्नयश्च, तेषां सन्तापस्तेन विदग्धान् विपचवनवह्निमत्मीकृतान् ।
भारतीयः-हे प युधिष्ठिर ! पश्य । कोऽसौ ? त्वम् ! कान् ? इमान् अगान् वृक्षान् । किविशिष्टस्त्वम् ? हेतुः कारणम् । कस्याः ? लक्ष्म्याः श्रियः । कथम्भूतान् ? पतितान् । क ! इतः अत्र । कथम्भूतान् ! ज्वलितान् दीप्तान् | पुनः कथम्भूतान् ? थैरिदावाग्निसन्तापविदग्धान् वैरीच वैरी, स चासौ दावाग्निश्च, तस्य सन्तापः । तेन विदग्धान् ॥६॥
वेगिनीमिह पश्यामि नदीनां स्यन्दनक्रियाम् । कुञ्जराजिश्रियं चोच्चैस्तीक्ष्णाङ्कशमुखोद्यताम् ॥६२॥
ब्रह्मचर्यादि असिधारा व्रतोंके पालक लोगोंकी निवासभूमि, मनुष्यमात्रका सुखपूर्वक पालन पोषण करती यह आदर्श ग्रामोंकी चारदीवारीके भीतरको भूमि अत्यन्त करुणामय रूपसे युक्त है ॥५९॥
हे राक्षसराज ! सर्वथा विनाशसे व्याकुल, शोकके कारण भग्न-मनोरथ नागवंशी श्रेष्ठ पुरुषोंकी जाति यहाँपर इस समय ऐसे दुर्दिनको प्राप्त होकर शोभित नहीं हो रही है।
हे धर्मराज ! प्रबल वायुवेगसे पीड़ित अशोक वृक्षोंसे टकरायी पुन्नाग वृक्षोंकी कतारें यहाँपर इस सुन्दर शरत् ऋतुको प्राप्त करके क्या शोभित नहीं होती है ? अपितु विशेष रूपसे शोभित हो रही है ॥६॥
___ हे लंकेश्वर ! शरीरकी शोभासे जगमग, शत्रुओंकी सेनारूपी दावाग्निको लपटों में भस्मीकृत और इधर उधर गिरे इन घोडोंको आप देखें । [समस्त सम्पत्तिके निधान हे धर्मराज ! शत्रुभूत वनाग्निकी लपटोंके द्वारा जलाये गये तथा अब भी धधकते हुए इन वृक्षोको आप देखें] ॥६१॥
१, इलेपः-ब०, ना० । २. श्लेपः-ब०, ना० । ३. श्लेपः-ब०, ना० ।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
वेगिनीमिति-भो रावण ! स्यन्दनक्रियां रथव्यापार न पश्यामि नेक्षे । कथम्भूतां न पश्यामि ? दीनां म्लानाम्, अपि तु पुष्टां पश्यामीति भावः । कथम्भूतां सतीम् ? वेगिनी वेगवतीम् । क १ इह दण्डके । तथा च न पश्यामि । काम् ? कुञ्जराजिश्रियं कुञ्जराणामाजिस्तस्या भीस्ताम् समाजसमरशोभाम् । कथम्भूतां न पश्यामि ? दीनामपि तु पुष्टां पश्यामीति भावः । कथम्भूताम् ? उच्चैस्तीक्ष्णाङ कुशमुखोद्यतामतितीक्ष्णमणिमुखसङ कुचितानाम् | अनेन भद्रत्वं राजवाहनत्वं च गजानां प्रदर्शितमिति ।
___ भारतीयः- इह प्रदेशे नदीनां तरङ्गिणीनां स्यन्दनकियां लवणच्यापारं पश्यामि । कथम्भूताम् ? वेगिनी रयवती तथा कुञ्जराजिश्चियं झाटकवृन्दशोमां पश्यामि । कथम्भूताम् ? उच्चैरुच्चो पुनस्तीक्ष्णा निरीक्षणीयां पुनः कुशमुखोद्यतां दर्भाग्रनिर्भिन्नाम् ।। ६२ ।।
सर्वत्र विषयेऽमुष्मिन्भ्रान्तदृष्टिरितस्ततः ।
न पश्यामि क्वचित्तीवं द्विषतां खरदूषणम् ॥६३॥ सर्वत्रेति-हे रावण ! अहं शूर्पणखा स्वरदूषणं रावणश्यालकं वचित्करिमश्चित्स्थाने न पश्यामि । कथम्भूतम् १ द्विषतां शत्रूणां तीव्र सोढुमशकाम ! थम्भूताहम ? गर्वनामभिः दिपने सपने मण्डके भ्रान्तदृष्टिः प्रचलितलोचना।
__ भारतीयः हे युधिष्ठिर ! अहं द्विषतामरीणां तीव्र निर्दयं खरदूषण निष्ठुरापराधं न पश्यामि । शेषं प्राग्वत् ।। ६३ ।।
देव किंबहुनानेन साधुनाऽसाधुनाथवा ।
निष्पश्चिममिदं पश्य नेत्रमात्राखिलेन्द्रियः ॥६॥ देवेति-हे देव त्वामिन् । किम् ? 'अत्र किमिति शब्दः प्रतिषेधाभिधायी द्रष्टव्यः । अव्ययानामनेकार्थत्वात् । कि पूर्यते अनेन परिजल्पितेन । कथम्भूतेन ? बहुना प्रचुरेण पुनः साधुना मनोजेन अथवा असाधुनाऽ. मनोशेन निष्पश्चिममद्वितीयमिदं वक्ष्यमाणं नेत्रमात्राखिलेन्द्रियः सन् नेत्रमात्राणि नेत्रयोविलीनानि सकलानि स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि यस्य स त्वं पश्य नेत्रेन्दिये सकलानीन्द्रियाणि प्रवेदय दृश्यतां सावधानो भवेत्यर्थः ।।६४||
पटुः सुघटविस्तारसमस्तन्यायनीतिषु । रहितोदारतुष्टात्मा मदिराक्षीवताशया ॥६५॥
हे रावण ! यहाँपर अत्यन्त तीव्र गतिसे चलते रथोको देखती हूँ-उनमें ढिलाई नहीं है; नुकीले अंकुशके संकेतपर चलनेके लिए प्रस्तुत हाथियों की पंक्तिकी शोभा भी सोपरि है। [ हे धर्मराज इस ऋतु में नदियोंके प्रवाहकी गति तेज दिखती है तथा देखने योग्य, अत्यन्त सुन्दर कांसकी धारसे कटी हुई कुञ्ज समूहकी शोभाको देखता हूँ ] ॥६॥
इस पूरे क्षेत्रमें इधर-उधर सब तर५. नजर घुमाकर भी में सूर्पणखा शत्रुओंके लिए दारुण तुम्हारे बहनोई खर-दूषणको कहींपर भी नहीं देख पाती हूँ 1 [ इस क्षेत्र में इधर-उधर सब ओर नजर गड़ाकर देखनेपर भी कहींपर शत्रुओंके तीन अपराधका पता नहीं लगता है ] ॥६३॥
हे रावण ! इस विषयकी भली अथवा बुरी इस विस्तृत चर्चाको जाने दीजिए । तथा आप ही सब इन्द्रियोंकी शक्तिको नेत्रोन्मुख करके पहिले कभी न देखी हुई इसको (सीताको) देखिये। [हे धर्मराज ! यह ऋतु मनोश है अथवा साधनविहीनों के लिए कष्टकर है। इसका लम्बा वर्णन करनेसे क्या लाभ है ? इस अभूतपूर्व रमणीयताको देखिये और देखते-देखते नेत्रेन्द्रिय मात्र हो जाइये ] ॥४॥
१. श्लेषः-ब., ना।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः पद्मपाणिरशोका घ्रिः पक्कविम्बाधरोन्नतिः । गम्भीरनाभिरुत्तुङ्गवक्षाश्चन्द्रानना तिः ।। ६६ ।। कम्बुग्रीवाल घुश्रोणिः स्निग्धकेशान्तसंततिः । सुभ्रर्मण्डूककक्षाश्रीश्चारूरू रम्यतावधिः ॥ ६७ ।। नखैः कुरवकच्छायैः श्लिष्टैरङ्गुलिपर्वभिः । दशनैः शिखराकारैर्व्यज्यमानोदयाकृतिः ।। ६८ ॥ विनीतवेषमाकारं वाणीमभिजनोचिताम् । शीलं रूपानुरूपञ्च व्याददानोदयान्वितम् ॥ ६९ ॥ आश्रमः सर्वशास्त्राणामाकरः सर्वसम्पदाम् । अन्योन्यसमयुग्माङ्गव्यञ्जनानामुपाश्रयः ॥ ७० ॥ आमिरूप्यस्य नियतिः सीमा सौभाग्यसम्पदः। लावण्यस्य पयोराशिः कलानां नित्यचन्द्रिका ।। ७१ ॥ विकाशः कोऽपि कान्तीनां कोऽपि रागस्य सञ्चयः ।
सर्वोपमानदुरात्मा वैदेही दृश्यतामितः ॥ ७२ ।। ( कुलकम् ) पटुरिति-साम्प्रतं श्लोकाष्टकैन कुलकेन व्याख्यास्यामः-भो रावण ! वृदयतामवलोक्यताम् । काऽसौ पापना १ थैदेही जानकी | क्य ! इतः प्रदेशे अस्मिस्थाने | कथम्भूता ! आयनीतिषु गतिव्यापारेषु पटुः
मा पुनः सुघटविस्तारसमस्तनी सुशब्दः प्रशंसाओं गृह्यते; तेनायमर्थः-घटस्येच कलशस्येव शोभनो विस्तारों गोस्तौ सुघटविस्तारौ समौ स्तनौ यस्याः सा सुघटविस्तारसमस्तनी सुघटविस्तारावित्यनेन पदेन घटस्येव मास्तत्वं वर्तुलत्वं स्थूलत्वं कठिनत्वञ्च समावित्यनेन पदेन नीचोचभावरा हित्यं स्तनयोर्यस्याः प्रदर्शितं सा नयोका । पुनरपि रहितोदातुष्टात्मा उदारः सकलकलाप्रवीणः । औदार्यधर्मकलितो वा तुष्टो राज्यसौख्यानुगगनेन इष्टभोगानुभवनया वा संहृष्ट आत्मा आत्मीयभावः स्वरूपमित्यर्थः । रहितः निरस्तः उदारस्तुष्ट आत्मा - सा रहितोदारतुष्टात्मा, 'एतेन कनकमृगबधाय तत्पृष्ठसंलग्नतया धावतो रामस्य विरहाकान्ततया सकलपागासु भोगोपभोगसम्भोगेपु चानादरणीयत्वं सीतायाः प्रदर्शितम् | पुनः कथम्भूता ? मदिराक्षी मदिरे मनोज्ञे अक्षिणी यस्याः सा कर्णान्तविश्रान्तनेत्रा वताशया वतशब्दोऽव्ययः खेदवाची, वत आशयो यस्याः सा पाशया पतिबियोगात्सखेदचित्ता । पुनः पद्मपाणिः पद्मे इव पाणी यस्याः सा पुनः अशोकाट निः अशोकसाव इव अंग्री यस्याः सा । पादयोः सौकुमार्यमारक्तत्वञ्च प्रदर्शितम् । पुनः पक्वबिम्बाधरोन्नतिः पक्रतुण्डी
अतिः पुनः गम्भीरनाभिः पुनरुत्तुङ्गवक्षाः उच्चोरस्तला | पुनश्चन्द्राननयुतिश्चन्द्रस्येवानने युतिर्यस्याः । । वर्तुलत्वं कान्तिमत्त्वञ्च प्रदर्शितम् | पुनरपि कथम्भूता ? कम्बुग्रीवा कम्बोरिव सङ खस्येव ग्रीवा यस्याः
इधर इस सीताको देखिये जिसकी समता कोई भी उपमान नहीं कर सकता है क्योंकि गमनकी लीलामें यह पक्ष है, सुन्दर कलशोकी गोलाई, उतार चढ़ाव सदृश स्तन है, इसका आत्मा अत्यन्त उदार और तृप्त है, नेत्र मादकतासे भरे हैं तथापि इसका मन कालुयसे रहित है। हाथ कमल ही है, चरण अशोकपत्र ही है, पके विम्बफलोंके समान ही अधरोंकी शोभा है, नाभि गहरी है, घक्षास्थल उभरा हुआ है, मुखकी कान्ति चन्द्रमातुल्य है, ग्रीवा शंखके समान है, कटि अत्यन्त सूक्ष्म है, जिसपर चिकने लम्बे केशोंकी लट झूम
१. यः कुरषको वृक्षविशेषः । कुरचकग्रहणात्कुरचककलिकाना ग्रहणम् । यथा आन इत्युच्यमाने भाभ्रफलानां ग्रहणं जायते ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सा, शङ खस्येव प्रोवायां रेखात्रयं दर्शितम्। पुनरलघुश्रोणिरलच्ची श्रोणियस्याः सा विस्तीर्णकाटिरित्यर्थः । पुनः स्निग्धकेशान्तसंततिः स्निग्धा केशान्तस्य सन्ततिः पंक्तिर्यस्याः सा, स्निग्धशब्देनारौक्ष्यं कुटिलत्वं कान्तिमत्त्वं चोकम् । पुनः सुभूः शोभने भ्रुवौ यस्याः सुशन्देन भुवोश्वापाकारत्वं सूक्ष्मरोमता च उक्ता । पुनः मण्ड्रककक्षाश्रीः भेलपादाकृत्तिरित्यर्थः । पुनरुचारू यस्याः सा, चारुशब्दप्राणादूळनिर्लोमत्वं वृत्तानु पूर्वीसौकुमार्यञ्च गदितम् । पुनः रम्यतावधिः मनोहरतायाः सीमेत्यर्थः । पुनः नखैव्य॑ज्यमानोदयाकृतिः व्यज्यमाना प्रकटी क्रियमाणा उदयाकृतिर्यस्याः सा । कथम्भूतैर्नखैः ? कुरवकच्छायः कुरवकवृक्षकलिकासदृशैः । अत्र नखाना लौहित्यं स्निग्धत्वभुश्चत्वं दीर्घत्वञ्च कथितम् । तथा अंगुलिपर्वभिः । कथम्भूतैः ? श्लिष्टैरन्योन्यसंलग्नस्तथा दशनैः दन्तैः शिखराकारैः पक्कदाडिमबीजसदृशैः। अनेन दशनानां स्निग्धत्वं हस्वत्वं दीतिमत्त्वं च प्रकटितम् । पुनः कथम्भूता ? आकारं व्याददाना प्रसादकोपाभ्यां जनितां प्रकृति गृह्णन्ती । कथ म्भूतमाकारम् ? विनीतवेषं विनीतो घेषो यत्र स तथोक्तस्तं विशिष्टजनोचितालङ्कारम् । तथा वाणी व्याददाना कथम्भूतामभिजनोचितां कुलयोग्याम् । तथा च शीलं गृहीतव्रतपरिपालनरूपम् । कथम्भूतम् ? रूपानुरूपं, रूपसदृशम् । पुनः कथम्भूतम् १ उदयान्वितमभ्युदययुक्तम् । अत्र विभूत्यां सत्यां विकारेण प्रतभङ्गो नाभूत् तस्या जानक्या इत्यर्थः । पुनः कथम्भूता । सर्वशास्त्राणां व्याकरणच्छन्दोऽलङ्कारादीनां तथा कामशास्त्राणाञ्च आश्रमः पुनः सर्चसम्पदा समस्तविभूतीनामाकरः सनिः पुनरन्योऽन्यसमयुग्मानव्यन्जनानामुपाश्रयः अन्योऽन्येन परस्परेण समम् तुल्यं युग्मं येषां तान्यन्योऽन्यसमयुग्मानि तानि च तान्यज्ञानि च अन्योऽन्यसमयुग्माङ्गानि च तानि व्यञ्जनानि च अन्योऽन्यसमयुग्माङ्गव्यञ्जनानि तेषां तथोक्तानां नेत्रपाणिपादजवादीनां तिलकालकादीनाञ्चावष्टम्भः । पुमराभिरूप्यत्य रमणीयताया नियतिरवधिः । पुनः सौभाग्यसम्पदः सीमा । पुनः लावण्यस्य पयोराशिः समुद्रः । पुनः कलानां नित्यचन्द्रिका । पुनः कान्तीनां कोऽपि विकाशः। पुनः रागस्य कोऽपि सञ्चयः । पुनः सर्वोपमानदुरात्मा उपमानेभ्यः दूर आत्मा स्वरूपं यस्याः सा तथोक्ता । तत्राबमर्थः जानक्याः स्वरूपमुपमानं चन्द्रादय उपमेया इति ।
भारतीयः-भो युधिष्ठिर ! असौ कर्मतापन्नः वै निदचयेन सर्वः देही समस्तः प्राणी दृश्यताम् । कथम्भूतः १ पटुरित्यादि । सुघटविस्तारसमस्तग्यायनीतिषु सुघटः निश्चयपथमानीतः, विस्तार आभोगः, समस्ता अखिलाः, न्याया अपराधानपराधविचारणादयः विद्वज्जननिर्णीततर्कोक्ताः परमतनिराकरणाः प्रमाणगोचरा वा नीतयः सोमदेवाचार्यप्रणीसनीतिवाक्यानि शास्त्राणि सुघटो विस्तारो यास ता सुघटविस्ताराः, न्यायाश्च नीतरही है ; भृकुटिए सुन्दर और बक्र हैं फलतः मेढककी बगलके आकार है, और जंघाएं अत्यन्त मनोहर हैं, मानो सौन्दर्यकी चरम सीमा ही है। कुरषक पुष्पके समान रक्त तथा लम्बे नखों, सान्द्र तथा चिकने अँगुलियोंके पोरुवों और अनारदाने तुल्य छोटे और घने दाँतोंके द्वारा इसकी उदीयमान सुन्दर आकृति स्पष्ट है। इसके वेष तथा आकार शिष्ट हैं, बोली कुलीन कन्याके ही अनुरूप है। शील और सौन्दर्य परस्परमें अनुरूप है तथा रोषतोषकी मुख-मुद्रादि भी पदके अनुकूल हैं। यह सब शास्त्रोका आश्रम है, समस्त सम्पत्तियों की खान है, एक दूसरेके अत्यन्त समान युगल अंग नेत्र, पाणि, पाद जंघादि तथा तिलादि ध्यञ्जनों का एक मात्र आधार है। कुलीन सौन्दर्यकी तो प्रकृति ही है, सौभाग्य और सम्पत्तिकी सीमा है, लावण्यका पाराधार है और ललित कलाओंकी चिरस्थायी चन्द्रिका है। विविध कान्तियोंका कोई कल्पित चरम विकास है और रागका लोकोत्तर सञ्चय है। [हे धर्मराज ! दूसरी ओर संसारके समस्त शरीरधारियोंको देखें क्योंकि व्यवस्थित रूपसे पल्लवीकृत निखिल न्याय तथा सोमदेवादि कृत नीतियों में कुशल, स्वदारसंतोष व्रतके धारक तथा मदिरा पानसे उत्पन्न मानसिक उन्मत्ततासे परे हैं । कमल सदृश हाथ हैं, अशोक तुल्य पैर हैं, विम्यफल तुल्य ओंठ हैं, नाभि गहरी है, विशाल पुष्ट पक्षास्थल है तथा मुखपर चन्द्रकान्ति है। शंख सदृश ग्रीवा और कमर पतली है, केशपाश चिकना तथा काला है, भृकुटि सुन्दर हैं, मेंढककी पीठके समान उभरी हुई, जंघाएँ सुन्दर हुँ फलतः घे सौन्दर्यकी सीमा हैं | लाल कनैर सदृश नखों, चिकनी धनी अँगुलियों तथा अनारदाने सदृश दाँतोंके
-----------
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
१३७
यश्च न्यायनीतयः, समस्ताश्च ता न्यायनीतयश्च, समस्तन्यायनीतयः, सुघटविस्ताराश्च ताः समस्तन्यायनीतयश्च सुघटविस्तारसमस्तन्यायनीतयस्तामु पटुः प्रवीणः । पुनः कथम्भूतः १ दारतुष्टात्मा दारैस्तुष्ट आत्मा यस्य दाराणां तुष्ट आत्मा यस्माद्वा दारतुष्टारमा कलत्रानन्दितास्मा । पुनः कथम्भूतः १ मदिराक्षीवताशयारहितः मदिरायाः मद्यस्य सकाशाद् या क्षीवता मत्तता तस्यां याऽऽशा घाञ्छा तया रहिताः विमुक्तः सुरामत्तत्ववाछावर्जितः । पुनश्चदाननग्रुतिः । पद्मपाणिरित्यादि समर्थः । पुनः कम्बुग्रीवा लघुश्रोणिः कम्बोरिव ग्रीवा यस्य सः, अलवी श्रोणिर्यस्य सोऽलघुश्रोणिरुभयोः कर्मधारयः । पुनः कः १ स्निग्ध केशान्तसन्ततिः सुगमोऽर्थः । पुनः सुभ्र शोभना भ्रुवोः ऊः शोभा यस्यासौ सुभ्रः, शेषं पूर्ववत् नखैरित्यादि । त्यज्यमानोदयाकृतिः । कैः कर्तृभिः १ नखैः कथम्भूतैः ? कुरवकलच्छायः तथा अङ्गुलिपर्वभिः । कथम्भूतैः ? दिलष्टैः । तथा च दशनैः । कथम्भूतैः १ शिखराकारैः । पुनः किं कुर्वाणः ? विनीतेत्यादि । व्याददानः दयान्वितमिति पदच्छेदः । अपमानमानदुरात्मा अपमानादूर आत्मा यस्य सः वै स्फुटं देही इतोऽस्मिन्प्रदेशे दृश्यतामिति कुलकं शेषं समागम् ॥ ६५-७२ ।।
आदिप्रजापतिः स्याच्चेन्नूनं तेनान्त्यवेधसाम् ।
स्त्रियः स्रष्टुं प्रतिच्छन्दं कृताग्राम्या वधूरियम् ॥ ७३ ॥ आदीति-अहमेवं मन्ये चेद्यदि स्याद्भवेत् कः ? आदिप्रजापतिः प्रथमबहा तेनादिप्रजापतिना इयं वधुः सीता सती अग्राम्या विचारचातुरीचकोरचन्द्रिका प्रतिच्छन्दं प्रतिकृतिरित्यर्थः । केषाम् ? अन्त्यवेधसामन्त्यब्रहाणाम् । किं कर्तुम् ! स्त्रियः स्रष्टुं निर्मातुम् ।
भारतीयः-नूनमादिग्रजापतिः चेत्स्यात् । रोनादिप्रजापतिना इयं प्राम्यावधूः प्रतिन्छन्दं कृता । कि कर्तुम् ? अन्त्यवेधसां स्त्रियः स्रष्टुम् ॥ ७३ ।।
एषा विलासभावेन धोतयन्ती दिगन्तरम् ।
सरस्वतीव संबुद्धा भाति पद्मोदयस्थितिः ॥ ७४ ।। एघेति-एषा सीता भाति । किं कुर्वती १ दिगन्तरमाशान्तरालं विलासभावेन द्योतयन्ती ! विलासो नाम कटाक्षविक्षेपः । भावो नाम चित्तसम्भवः परिणामः । उक्तञ्च "हावो मुखचिकारः स्याद्भाचो मानससम्भवः । बिलासो नेत्रजो शेयो विभ्रमो भ्रयुगान्तरे" !! कथम्भूता ! पद्मोदय स्थितिः रामाभ्युदयावस्थाना पुनः सम्बुद्धा सम्यग्ज्ञानपरिणता । केव ? सरस्वतीव ! पक्षेऽर्थवशाद्विशब्देनात्र हंसो ग्राह्यः । लासो गमनम् । विना इंसन लासः विलासः, विलासेन भावः विलासभावस्तेन हंसगमनस्थित्येत्यर्थः । द्वारा शरीर सौन्दर्य फूटा पड़ता है। वेषभूषा तथा रंगरूप सुसंस्कृत है, कुलीन पुरुषों के योग्य वार्तालाप है, सदाचार सौन्दर्यके समान धारण करते हैं और दयापूर्ण है। छन्दव्याकरणादि समस्त शास्त्रोके आधार है, समस्त सम्पत्तियोंके निधान है, परस्पर में ही सदृश युगल अंगों तथा व्यञ्जनाकी निधासभूमि है। लौन्दर्य के विकासको विधि हैं, सौभाग्य और वैभवकी सीमा हैं, सौन्दर्य सागर हैं और कलाओंकी चिरस्थायी चन्द्रिका है। कान्ति की काल्पनिक उन्नति हैं तथा प्रीतिके लोकोत्तर पुज हैं फलतः अपमानसे परे हैं ] ॥६५-७२॥
हे रावण! यदि कोई आदि प्रजापति था तो निश्चित ही उसने नारियोको बनानेके लिए . उद्यत उत्तरकालीन ब्रह्माओंके निदर्शनके लिए ही इस सुसंस्कृत घडू सीताको बनाया होगा। [हे धर्मराज !...."इस ग्रामीण घधूकी सृष्टि की होगी] ॥७३॥
__कटाक्ष तथा मनोभावोंके द्वारा समस्त दिशाओंको प्रभावित करती हुई यह सीता (तथा ग्रामीण नायिका) सम्यक् ज्ञान पूर्ण अथवा जागृत सरस्वतीके समान है तथा पड़ा (राम) के अभ्युत्थान ( पद्माकी वृद्धि) की द्योतक है [ सरस्वती भी वि (हंस) रूपी
१.शोभने ध्रुवौ यस्यासौ सुभ्रूः-द० । २. श्लेपः-ब०, ना० । ३. इलेपः-व. ना. ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् भारतीयः---एषा धाम्या वधूः भाति । कथम् १ पद्मोदयस्थितिः लक्ष्यभ्युदयस्थानम् ॥ ७४ ।।
रोमराजिलतावृद्धेरालवाली कृतामिव । कपित्थवृन्तसंस्थाननिम्नां नाभिमुपागताम् ।। ७५ ।। वनराजी प्रवालोष्टश्रिया पल्लवितामिव । नीलोत्पलमयीं दृष्टया स्मितैर्मुकुलितामिव ।। ७६ ॥ । कैश्येन कुर्वती मुक्तप्ररोहमिव चालकैः। सृङ्गीमयीं पदन्यासैः स्थलपद्ममयीमिव ।। ७७ ।। चक्रशीला भ्रवोरेच कुचयोरेव कर्कशाम् । चपलां नेत्रयोरेव केशेषु कुटिलस्थितिम् ॥ ७८ ।। अविलिप्तकृतामोदामपीतासवमन्थराम् । अरुष्टां रक्तलोलाक्षीमतुष्टां विकसन्मुखीम् ।। ७९ ॥ किञ्चित्पूर्वप्रियाद्वाल्यं दधती यौवनं भरात् । मडग्रौढान्तरावस्थां साभ्रे पशिनीमिव ।। ८० ।। लूनम्लानमृणालाभकर्णपालीसमुन्नतिम् । तालवृन्तानिलेनेव विघ्नती पक्ष्मणा मुखम् ।। ८१ ॥ गौरक्षिकामिमां सष्टु' नूनमधं हृतं विधोः ।
रम्यं धानान्यथा चन्द्रः कथमर्द्धत्वमीयिवान् ॥ ८२ ॥ (कुलकम् ) श्लोकाष्टकेन कुलकं व्याख्यास्यामः रोमेति-नूनमहमेवं मन्ये धात्रा ब्रहाणा इमां सीता स्रष्टुं विधातु विधोश्चन्द्रस्य रम्यं मनोहरमर्दै खण्डं हृतमपनीतम् । कथम्भूताम् १ गोरक्षिकां रामं विहायान्येषु पुरुषेषु चञ्चलत्वाद्विजम्भमाणे गावी नेत्रे रक्षतोति गोरक्षिका ताम् । यद्राऽन्येभ्यः पुरुषेभ्यो व्यावृत्य रामवृत्तानां गवां स्पर्शादीनामिन्द्रियाणां रक्षिका निरोधिका तस्मिन्नेव सा गोरक्षिका ताम् । एतेन जानक्याः पातिव्रत्यमुपदर्शितम् । व्यतिरेकः अन्यथा- अन्येन प्रकारेण कथं चन्द्रोऽर्धत्वभेयिवान् गतः ? कथम्भूतां सीताम् ? कपित्थवृत्तसंस्थान निम्नां कपित्थवृन्ताधारवद् गम्भीरां नाभिनुपागताम् | कथम्भूताम् ? रोमराजिलतावृद्धः रोमावलीरूपलताया दृद्धिमुद्दिश्य आलवालीकृताभित्र । पुनः कामिव ? प्रवालोऽश्रिया पल्लवितां नूतनपल्लवसदृशाधार
वाहनपर चलती हुई समस्त दिशाओंको ज्ञानसे जागृत करती है तथा श्लमीकी वृद्धि तक ही रहती है ] ॥७॥
कैथके डण्ठल को गहरे स्थान के समान इसकी गम्भीर नाभि पेटपर उगी रोमावलिके लिए क्यारी सदृश प्रतीत होती है, नूतन पत्रोंकी शोभायुक्त सुन्दर मोठोंके द्वारा पल्लवित, नेत्र शोभाके द्वारा नील कमल सय, मधुर स्मितों के द्वारा कलियोंसे युक्त बनमालाके समान है। लम्बे केशजालके द्वारा नीचे लटकते प्ररोह मय, धुंघराले बालों द्वारा भौरोंसे व्याप्त तथा सुकुमार चरण विन्यालके द्वारा गुलाब-मयी सी है । इसकी कुटियोंका ही स्वभाव टेढ़ा है, कुचों में ही कठोरता है, नेत्रों में ही चंचलता है, तथा बालों में ही टेढ़ा (घुघराला) पन है। बिना लेप लगाये ही इसके शरीरसे सुगन्ध निकलती है, बिना मदिरा पानके ही इसमें मादक शिथिलता है, क्रोध यिना ही इसके नेत्र लाल हैं तथा धिना तृप्त किये ही
१, इलेपः-२०, ना।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सगः
१३९
शोभया वनराजीमिव कान्तारश्रेणिमिव पुनः दृष्टया नीलोत्पलमयीं पुनः स्मितैर्मन्दहासैर्मुकुलितामिव । पुनः किं कुर्वतीमिव ? कैश्येन केशपाशेन मुक्तप्ररोहां कुर्वतीमिव । पुनरलकैश्च केशैरेव भृङ्गीमयीम् । अत्र धकारोऽवधारणार्थः अध्ययानामनेकार्थत्वात् । पुनः पदन्यासैः स्थलपद्ममयीमिव । पुनः भ्रुवोरेव वक्क्रशीत्यं पुनः कुचयोरेव कर्कशा पुनः नेत्रयोरेव चपला पुनः केशेषु कुटिलस्थितम । पुनरविलिप्तकृतामोदामचर्चितविहितपरिमल पुनरपीतासचमन्थरा मपीतञ्च तन्मद्यञ्चापीतमचं तेन भन्थराउल्सा ताम् । अपतमद्यालसाम् | अत्र टोके पीतमद्यानां मन्थरा गतिर्जायते । जानक्यास्तु स्वत एवेति बोध्यम् । उत्तराद्धेऽपि शब्दस्याप्रयुक्तस्थापि प्रयोगो ज्ञेयः । पुनररुटामपि रक्तवेलाक्ष लोहित चञ्चललोचनां पुनखुष्टामपि विकसन्मुखी प्रसन्नवदनाम् । पुनः किं कुर्वतीम् ! पूर्वप्रियाप्रथमप्रेम्णः सकाशात् किञ्चिद्वाल्यं भराच यौवनमतएव मूढप्रौढन्तरावस्थां न परां मूढां न परां प्रौढां तयोरन्तरावस्थां प्राप्ताम् । कामिश्र मूढप्रौढान्तरावस्थाम् ? पद्मिनीमिव । च सति ? अर्के सूर्ये साभ्रे अझैः सह वर्त्तमाने सति । पुनः किं कुर्वतीम् ? तालवृन्तरनिलेनेव कृत्वा पक्ष्मणा मुखं विघ्नती वीजयन्तीं पुनः लूनम्लानमृणाला भकर्णपालीसमुन्नतिं पूर्वे लूनं पश्चात् म्लानञ्च तन्मृणालच नुम्नमृणालं तेन तुल्याङमा यस्याः सा लूनग्लानमृणालामा नम्लानमृणालमा कर्णपाली समुद्रतिर्यस्याः सा ताम् । भारतीय पक्षे - गोरक्षिकां गोपीमिति ब्राह्यम् । अन्यत्तुस्वम् ।। ७५-८२ ॥
अहो रूपमहो कान्तिरहो लावण्यपाटवम् ।
अनीशमिदं रूपं न जातं न जनिष्यते ॥ ८३ ॥
अहोरूपमिति - अहो आश्चर्य रूपमनन्यसम्भवि । अहो कान्तिदतिरनन्य सम्भाविनी । अहो लावण्यपाटयमनन्यसम्भवीति कृत्वा न जातं नाभूत् तथा न जनिष्यते न भविष्यति । किम् ?, रूपम् कथम्भूतम् ? अनीदृशमुपमातीतम् । कस्याः १ सीतायाः ।
भारतपक्षे- गोरक्षिकायाश्चेति विशेषः ॥ ८३ ॥
तस्यानूनमिति श्रुत्वा स्वसुः स्थानोचितं वचः ।
तत्तु पश्यन्नृपः कृच्छ्रान्मनोनेत्रं न्यवीवृतत् ॥ ८४ ॥
तस्या इति-असौ नृपः रावणः तद्भगिनी समादिष्टं वस्तु तु पुनः वारम्वारं पश्यन्नवलोकमानः सन् मनोनेत्रं मनश्च नेत्रञ्च कृच्छ्रान्महाकष्टेन न्यवीवृत्तनिवर्त्तयामास । किं कृत्वा ? तस्याः स्वसुर्भगिन्याः सूर्पणखायाः स्थानोचितं वचः श्रुत्वाऽऽकर्ण्य । कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण ।
इसका मुख विकसित हो उठा है । पहिलेके परिचय के कारण इसने बायको थोड़ा धारण कर रखा है और यौधनके भारसे तो आक्रान्त ही है फलतः मेघाच्छन्न सूर्यकी स्थिति में पशिनी के समान यह भी मुग्धा और प्रौदा अवस्था के अन्तराल में हैं । तोड़नेके कारण मुरझाये मृणालोंकी कान्तियुक्त कर्णभूषणकी उत्कृष्ट शोभा के कारण ताड़के पंखे की हवाले आँखों के पलकोंकी हवा करती सी पृथ्वीको रक्षिका अथवा इन्द्रियसंयमकी पालिका इस सीता ( अथवा ग्रामीण ग्वालिन ) को बनाने के लिए निश्चित ही प्रजापतिने चन्द्रमाका आधा भाग चुराया होगा अन्यथा चन्द्रमाके आधे रह जानेका और कारण ही क्या हो सकता है ? ॥७५-८२॥
इसका रूप आश्चर्यकर है, देहकी कान्ति धन्य है, मनोहरताकी चारुता भी लोकोत्तर है, इसके समान कुछ भी नहीं है । न ऐसा रूप कभी हुआ है और न होगा ॥ ८३ ॥
निश्चित है कि हिनके टीक स्थानपर कहे गये पूर्वोक्त यथार्थ चचनोको सुनकर राजा रावण वारम्वार उस दर्शनीय सीताको देखता हुआ बड़ी कठिनाईसे अपने मन और आँखो उधर से मोड़ सका था । [ उस भाई भीम या अर्जुनकी पूर्वोक्त लम्बी ( अनून) तथा
१. इलेपोत्प्रेक्षा-०, ना० ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
द्विसम्धानमहाकाव्यम् भारतीयः-नृपो युधिष्ठिरः तस्य भीमस्यार्जुनस्य वा अनूनं प्रचुरं स्थानोचितमवसरयोग्यं वचः श्रुत्वा । मनोनेत्रं कृच्छ्ान्यवीवृतत् । कथम्भूतो नृपः १ स्वसुः . शोभना असवः प्राणा यस्यासौ स्वसुः निर्याधिः युक्तायुक्तविचारशी वा ||८४||
विद्याधराषिगुरुणा तां विशेषेण पश्यता ।
तेन वक्रोक्तिचतुरं युक्त वचनमाददे ॥८५॥ विद्येति-तेन रावणेन वक्रोक्तिचतुरं युक्तं वचनमाददे गृहीतम् । कथम्भूतेन ? विद्याधराधिगुरुणा खेचरचक्रवर्तिना । कथम्भूतेन ! तां सीतां विशेपेण असाधारण्येन पश्यता ।
भारतीयः-तां गोरक्षिका पश्यता विद्याधराधिगुरुणा विद्या आन्वीक्षिकीयीवा" दण्डनीतिरूपास्ताभिः धराधिगुरुणा धर भुवं दधति धराधयः गिरयस्तेपां गुरुणा मेरुणा तेन युधिष्ठिरेण वचनमाददे । अन्यत्समम् ।।८५॥
यदीदृशमिदं रूपं सादनेऽन्तःपुरेण किम् ।
किमुद्यानलताक्लेशै रम्यावनलताऽस्ति चेत् ॥८६॥ यदीति-यदि बने इदमीदृशं रूपं स्यात्तहि अन्तःपुरेण किं प्रयोजनमस्ति ? रम्या मनोहरा अवनलता न वनलता अपूर्ववल्ली तदा कि प्रयोजनमुद्यानलताक्लेशैरुद्यानलतानामालबालादिकरणैरित्यर्थः ॥८६॥
एनां धनकुचोच्छ्रायव्ययधानात्तनूदरम् ।
अपश्यन्तीमपश्यन्तस्तेऽद्याप्युदरशायिनः ॥८७॥ एनामिति-ते पुरुषा उदरशायिन उदरे शयनशीला: शायिधर्माः ( शयनधर्माणः) शेरत इत्येवंशीलाः । किं कुर्वन्तः ? एनां गोरक्षिकामपश्यन्तः । किं कुर्वन्तीम् ? धनकुचोच्छ्रायव्यवधानात् पीनोलतल्लनोच्छायान्तर्धानात् तनूदरमपश्यन्तीमनवलोकमानाम् ॥८७||
गतेन राजहंसीयमस्मद्दर्शनविह्वला ।
पश्य भाति विशालाक्षी किश्चिश्चकितमानसा ॥८॥ गतेनेति-दे सूर्पणखे ! त्वं पश्य । इयं सीता भाति । कथम्भूता ? गतेन गत्या राजहंसी पुनः अस्मदर्शन विह्वला पुनर्विलोलाक्षी चपललोचना पुनः किञ्चिचकितमानसा । यथास्थान कही गयी उपयुक्त बातोंको सुनकर विवेकी राजा युधिष्ठिर पुनः पुनः शरत्की शोभाको देखता हुआ मन और आँखोंको दूसरी ओर लगानेमें कष्टका अनुभव करता था ] ||८४॥
उस सीताको आँख गढ़ाकर देखते हुए विद्याधरोंके चक्रवर्ती रावणने चक्रोक्तिपूर्ण युक्तिसंगत सदृश वचन कहना प्रारम्भ किया था।[आन्वीक्षिकी आदि विद्याओंके लिए मेरु पर्वत (धराधिगुरु) तुल्य उन्नत एवं अडिग युधिष्टिरने विशेष रूपसे उस ग्वालिनको देखते हुए मुखसे कहने में मधुर किन्तु नीतिपूर्ण वचन कहना प्रारम्भ कर दिया था ] ॥८५॥
यदि वनमें इस प्रकारका लोकोसर रूप हो सकता है तो अन्तःपुरकी क्या आधश्यकता है, यदि वनलता ही लोकोप्टर सुन्दर होती है तो बागमें लता लगाकर सम्हालके कष्टसे क्या प्रयोजन है ? ॥८६॥
कठोर कुचौकी ऊँचाई के बीच में आ जानेके कारण अपने कृश पेटको भी देखने में असमर्थ इस सुन्दरीको जिन्होंने नहीं देखा है घे अब भी गर्भ में ही सोते हैं ॥८॥
अपने गमनसे यह राजहंसी सीतो हमलोगों ( राक्षसों) को देखकर भीत हो गयी है। तो भी देखो ; थोड़े-थोड़े आश्चर्यमें मन फँस जानेपर भी इसकी बड़ी-बड़ी आँखें कैसी
१. इलेपः-य०, ना० १२, श्लेषः-व०, ना।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
सप्तमः सर्गः भारतीयः-हे भीम इयं राजहंसी वरटा गतेन भाति । अन्यत्समम् ॥८८॥
एपा कटाक्षपातेन सारङ्गीलोललोचना ।
वने दिशि दिशि प्रान्ता दीर्घमन्वीक्षते पतिम् ॥ ८९ ।। एपेति-रपा सीता दीर्ध मुहुः पतिं रामं दिशि दिशि को भ्रान्ता सती अन्वीक्षते पश्यति । कथम्भूता ? सारङ्गीलोललोचना सारङ्गाया इव लोले लोचने यस्याः सा हरिणीतरलनयना । केन ? कटाक्षपातेन अपाङ्गविक्षेपेण । भारतीय:-एषा सारङ्गी पतिं मृगमन्धीक्षते । अन्या योजना प्राम्बत् ।। ८९ ।।
इदमन्यच्च कलयन्कौतुकाविष्टमानसः । कामादिपु निरोधेन जितात्मा सनिपातिना ॥ ९० ॥ अवन्यायपथं धीप्सन्नारीणां गोचरं गतम् । मदनाशाधिकोद्योगो मायावेषेण योजितः ।। ९१.॥ गाढ़ाकल्पकनिष्ठत्वं दूरं कुर्वेश्छलेन ताम् ।।
स्वपदव्यवसायाय क्षिप्रं जहे सतीवताम् ।। ९२ ॥ इदमिति, अवेति, गादेति-असौ रावणश्छलेन व्याजेन दूरं क्षिप्रं शीघ्रं यथा भवति तथा तां सतीव्रतां जहे हतवान् । कस्मै ! स्वपदव्यवसायाय स्वपदव्या अवसायः स्वपदव्यवसायः तस्मै चक्रवर्तिपदचोभ्रंशाय । किं कुर्वन् ? कुर्वन् विदधत् । किम् ? गाढाकल्पकनिधत्वं गाढश्चासावाकल्पकरच गाढाकल्पकस्तस्मिनिष्ठा यस्य स तथोक्तस्तस्य भावं तीन कामावस्थानतत्परत्वम् । पुनः किं कुर्वन् ? इदमुक्तपकारमन्यच्चापरञ्च कामाग्धतया युक्तायुक्त विचारमन्तरेण पररमणीसम्भोगभित्यर्थः । पुनः कौतुकाविष्टमानसः कौतूहलारोपितचित्तः । पुनः कामाकन्दात् सन्निपातिना सम्यक् निपतनशीलेन इषुनिरोधेन याणनियन्त्रणेन जितात्मा । पुनः किं कुर्वन् ? अवन्यायपथमवन्यायन पन्था अवन्यायपथस्तमनीतिमार्ग धीप्सन् वाग्छन् । कथम्भूतम् ? नारीणां कामिनीनां गोचरं विषयं गतम् । कथम्भूतो रावणः १ मदनाशाधिकोद्योगः मदने याऽशा तयाऽधिक उद्योगो मन्मयोत्थप्रचुरोद्यमो यस्य सः पुनः मायावेपेण लोकप्रसिद्धन जटाजूटधारिणो प्रतिनो बोत्रेण रूपेणेत्यर्थः, योजितः संयुक्तः ।
भारतीयः–स युधिष्ठिरइछलेन क्षिप्रं स्वपदव्यवसायाय स्वपदनिश्चयाय तो तीव्रतां तीव्रत्वं जहे । कि कुर्वन् ? कुर्वन् । किम् ? गाढाकल्पकनिष्टत्वं दृढालकारतत्परताम् , अथवा गाढश्च तदाकल्पं जन्मयावत्कनिष्ठत्वं गाटाकल्पकनिष्ठत्वं दृढे यथा आजन्मलबुतामित्यर्थः । कथं यथा ? दूरम् । अत्र युधिष्ठिरस्याजन्मलोकव्यवहार
सुन्दर लगती हैं। [ भीम देखो, देखते ही हमें विह्वल करती हुई कुछ-कुछ आश्चर्यचकित यह विशालाक्षी गोपी राजहंसकी गतिसे चलती फैसी सुन्दर प्रतीत होती है ] ॥८८n
भटकी तथा श्रीत हरिणीके समान चंचल नेत्रवती यह वनके कोने-कोने में कटाक्ष डालती हुई दूरतक दृष्टि डालकर पतिको खोज रही है ॥८॥
उक्त प्रकारकी आतुरता मनमें आ जानेसे पूर्वोक्त तथा दूसरे हावभाव करता हुया, कामदेवके धनुपसे घरसते पाणोंके द्वारा भात्मा जीते जानेपर, स्त्रियोंकी मोहिनीका लक्ष्य हुआ अतएव अन्यायमार्गपर चलने के लिए प्रस्तुत, कामवासनाकी तृप्तिके लिए सर्वशा प्रयत्नशील, पुराणप्रसिद्ध छलियका रूप धारण किये तथा अपनी दृढ़ प्रतिज्ञाकी एक निष्ठाको दूर करते हुए रावणने अपने विद्याधर चक्रवर्ती पदके विनाशके लिए ही छलकर सती सीताफा नुरन्त अपहरण कर दिया था।
देखनेकी उत्कण्टासे व्याप्त मन पूर्वोक्त तथा अन्य पदार्थों को देखते हुए, काम आदि अन्तरंग शत्रुओंके निरोधसे प्राप्त उत्कृष्ट संयमके कारण आत्मजेता, अन्याय मार्गकी इच्छाके
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् चातुरीनिरुपितास्ते-अवन्यायेत्यादि । योऽजितः नाभिभूतः । केन १ मायावेषेण कौटिल्याकारेण । कथम्भूतः सन् ? मदनाशाधिकोद्योगः मदनाशे गर्वप्रध्वंसे अधिको भूर्युद्योगो यस्य सः । किं कुर्वन् ! अवन्यायपथमनन्यायमार्ग न धीप्सन नेच्छन् । कथम्भूतम् ? अरीणामरातीनां गोचरं गतम् । इदमित्यादि । पुनः किं कुर्वन् ! इदमुक्ताप्रकारमन्यच्च रम्यारम्यपदार्थजात कलयनिरीक्षमाणः | कथम्भूतः १ कौतुकाविष्टमानसः । पुनः कथम्भूतः ? कामादिग्वरिषड्वर्गेषु सन्निपातिना सन्नद्धेन निरोधेन जितात्मा नियन्त्रितस्वरूपः । उक्तञ्च—“कामः क्रोधश्च मानश्च लोभो हर्षस्तथा मदः । अन्तरङ्गो ऽरिषड्वर्ग: क्षितीशानां भवष्ययम्"। इति त्रिकला ॥ १०॥ ९१ ।। ९२ ॥
विहायसारमुद्वगं गच्छता ज्वलताऽमुना।
साक्षालक्ष्मीः कृतौरसुक्यं नीता सञ्जानकीदृशी ॥१३॥ विहायसेति-अमुना रावणेन सजानकी सती चासौ जानकी च सजानकी विहायसा नभसा कृतौसुस्यं विहितराभस्यं यथा तथा नीता सङ्गमिता। कथम्भूता ? ईदृशी पतिव्रता पुनः साक्षात्परमार्थवृत्या लक्ष्मीः । कथम्भूतेन रावणेन ? ज्वलता मदनाग्निना दह्यमानेन पुनः अरमत्यर्थमुद्वेगं गच्छता ।
भारतीयः-नीता प्रापिता । काऽसौ ? सा लोकप्रसिद्धा पितृपितामहोपार्जिता । लक्ष्मीः। किम् ! औत्सुक्यं पराधीनत्वम् । कीदृशी १ सज्जा अन्ययमार्गेणागत्य स्थिरीभूता तथा न कृता न विहिता का ? लक्ष्मीः । कथम् ? साक्षादात्मसात् स्वाधीनेत्यर्थः । किं कुर्वता सता ? ज्वलता द्यूतव्यसनोद्वेगवहिना दह्यमानेन । किं कुर्वता सता ? औत्सुक्यं व्यसनाभिभूतत्वादराजनसंसर्गवशाच्च चूतप्रवृत्तिं गच्छता । किं कृत्वा ? पूर्वं विहाय परित्यज्य । कम् ? उद्वेगम् । शिष्टजनजनितशिक्षालापस्य तविषयत्वात्सन्मार्गप्रवृत्तिम् । गच्छता कथम् १ अरमत्यर्थम् अथवा न कृता, अपितु कृतव । काऽसौ ? लक्ष्मीः । कथम् ? साक्षात् आत्मसात् । कथम् भूता सती ? नीता । किम् औत्सुक्यं पराधीनत्वम् । कीदृशी कृता ? सज्जा । केन का ? अमुना युधिष्ठिरेण । किं कुर्वता सता ? ज्वलता अमोत्पन्नसन्तापेन सन्तप्यमानेन । पुनः किं कुर्चता ? गच्छता मार्गे विहरमाणेन । किं कृत्वा ? पूर्वमुद्वेगमाकुलत्वं विहाय | कथम्भूतम् ? सारं घनमिति' ।।१३।।
आलिङ्गन्निव वेलाभिः स्वागतं व्याहरन्निव ।
गजैसर्जस्वलस्तेन क्रमेण ददृशेऽम्बुधिः ॥१४॥ आलिङ्गन्निति तेन रावणेन का क्रमेण परिपाट्या ऊर्जस्वलः बलिष्ठः अम्बुधिः कर्मतापन्नः ददृशे दृष्टः । किं कुर्वन्निव ? स्वागतं शोभनमागमनं व्याहरन्निव ब्रुवन्निव मार्गजनितश्रमशान्तो निरुपद्रवो वा अकर्ता, कभी भी शत्रुओंके जालमें न आनेवाले, अहंकार आदिके नाशके लिए सतत प्रयत्नशील, मायाचारियोंके प्रपंचसे परे, कल्पकाल तक स्थायी गाढ़ लघुता (परस्त्री दर्शन ) को दूर करते हुए अपने (धर्मराज) पदको सुस्थिर करनेके लिए उन युधिष्ठिरने भावोंकी उस तीव्रताको अनायास ही शीघ्र दूर कर दिया था ॥९०-९२॥
अत्यन्त निकृष्ट उद्वेगको प्राप्त फलतः कामाग्निसे जलता यह रावण सम्भवतम शीघ्रता करके ऐ.सी पतिव्रता, साक्षात् लक्ष्मी सीताको आकाशमार्गसे ले भागा था।
अन्वय-सारं विहाय उद्वेग गच्छता ज्वलता अमुना लक्ष्मीः साक्षात् न कृता । कीदशी औरसु. क्यं नीता सजा।
चूत में सम्पत्तिको हारकर घोर विपत्तिमें पड़े तथा पराभयके सन्तापमें जलते इस युधिष्ठिरने क्या लक्ष्मीको अपने वशमें नहीं किया था ? अवश्य किया था क्योंकि वह भी इनसे मिलनेको उत्सुक और तैयार थी ॥१३॥
क्रमशः राषण (धर्मराज )ने प्रतापी तथा सम्पत्तिशाली समुद्र को देखा था जो अपने 1. श्लेषः-ब. ना० । १. श्लेपः-ब०, ना
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तमः सर्गः
१४३
भवानागत इति वदन्निव । कैः कृत्वाः ? गर्वैः कल्लोलकोलाहलैः । किं कुर्वन्निव ? वेलाभिः आलिङ्गन्निव परिरम्भमाण इव ।
भारतीयः तेन युधिष्ठिरेण दृष्टोऽम्बुधिरिति । शेषं प्राग्वत् ॥ ९४ ॥ शीतोऽम्भःकरिणां लवङ्गकवलोद्वारस्य गन्धं वहन्, वास्तालवनान्तरेषु परुषं हस्तैर्विवानाहतः । युद्धस्पर्धि परिश्रमेण तिमिभिः सीत्कृत्य पीतोऽम्बुधेराश्लिष्यत्स यशो धनंजयपरं विद्याधृतां नायकम् ॥९५॥
इति श्रीधनञ्जयकृतौ राघवपाण्डवीये महाकाव्ये सीताहरणलङ्काद्वारावतीप्रस्थानकथनो नाम समः सर्गः ॥७॥
शीत इति - आलिप्यत् परिभे । कोऽसौ ? स गुणत्रयेण प्रसिद्धी वातः । कम् ? नायकं स्वामिनं रावणाख्त्रम् | केपाम् १ विद्याघृतां विद्याधराणाम् । कथम्भूतम् १ यशोधनं यश एव धनं यस्य स यशोधनस्तं पुनः जयपरं जयं विपत्ति स्पष्टीकरोति जयपरः "पचादित्वात्पिपर्तेर" तं जयपरम् । कस्य सम्बन्धित्वेन चातः ? अम्बुधैः । कथम्भूतो वातः १ शीतः शीतलः पुनस्तिभिभिः मत्यैः हस्तैः करैः कृत्वा आहतः । किं कुर्वन् ? विवान् प्रवर्त्तमानः । क ९ तालवनान्तरेषु । कथम् ? परुषं निष्ठुरं यथा । कथम्भूतः ? अम्भःकरिणां जलहस्तिनां हस्तैः पीत आस्वादितः । केन हेतुना ? युद्धस्पर्द्धिपरिश्रमेण युद्धं स्पर्धत इत्येवंशीलः युद्धस्पद्ध स चासौ परिश्रमश्च युद्धस्पर्धिपरिश्रमस्तेन । किं कृत्वा पूर्व पीतो वातः १ सीत्कृत्य । किं कुर्वन् ? अम्भः करिणां जलहस्तिनां लवङ्गकवलोद्वारत्य गन्धं वहन् परिमलं दधानः |
भारतीयः - ए वातः विद्यावृतां राजविद्याधराणां राज्ञां नायकं युधिष्ठिरं आलियत् । कथम्भूतम् ? यशोधनञ्जथपर यशसोपलक्षितो धनञ्जयः ददिसिद्धोऽर्जुनः तस्मिन्परः तं तथोक्तम् । उक्तञ्च - "प्रतापो यस्य वापि राज्ञां स्वाद्भयकारिणी । एकदिव्यापिनी कीर्त्तिः सर्वदिध्यापकं यशः ॥" शेषं प्राग्वत् ॥९५॥ इति निरवद्यविद्यामण्डनमण्डित पण्डित मण्डलीमण्डितस्य षट्तर्कचक्रवर्त्तिनः श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां पड़कौमुदी नामदधानायां टीकार्या
सीता हरण लङ्काद्वारावतीप्रस्थानकथनो नाम सप्तमः सर्गः ॥७॥
तसे आलिंगन करता-सा प्रतीत होता था । लहरोंकी गर्जना से स्वागतम्, स्वागतम् कहता सा लगता था ॥९४॥
जलके समान शीतल, युद्ध से भी बढ़कर थकानके कारण हाथियोंकी सूँड़के द्वारा फेंका गया लोग मिश्रित कुल्लेकी सुगन्धियुक्त तालवृक्षोंके वनमें तेजी से बहता तथा मछलियो के द्वारा सी-सी करके पिये गये समुद्रकी वायुने यहांके दरिद्र तथा जयविमुख विद्याधरोके राजा रावणको घेर लिया था । विद्याधारी राजाओं तथा विद्वानोंके अग्रणी, यशरूपी सम्पत्तिले समृद्ध तथा विजयको ही लक्ष्य करके प्रवृस धर्मराजका आलिंगन किया था ] ॥ ९५॥
निर्दोष विद्याभूषणभूषित पण्डित मण्डली के पूज्य, षट्तर्कचक्रवर्ती श्रीमान् पंडित विनयचन्द्र गुरुके प्रशिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकला चातुर्य चन्द्रिका के चकोर, नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनन्जयके राघव पाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसन्धान
काव्यकी पकौमुदी टीकामें 'सीतापहरण-लङ्काद्वारावती
प्रस्थान कथन' नामका सप्तम सर्ग समाप्त |
1.
अस्मिन्लोके शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्। लक्षणं हि - सूर्याश्वैर्मसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् [वृ. ३१९९ ] ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टमः सर्गः अथ कदानुयशा नु परा सुता पुरसुपेत्य स दुर्जनकस्य वा ।
क्रियत इत्ययमाकुलमानसः प्रभुरवोचत वीक्ष्य पयोनिधिम् ॥१॥ अथेति-अथशब्द आनन्तर्याथै नु शब्दो वित। अहो कदा क्रियते कदा करिष्यते । काऽसौ ? जनकस्य जनकनाम्नः पृथ्वीपतेः सुता तनया सीतेत्यर्थः । कैन क; ? मया त्रैलोक्यकम्पनेन रावणेनेति । फयाभुता करिष्यते ? अनुवशाऽऽत्मवशवत्तिनी। किं कृत्वा ? पुरं लकाभिधानमुपेत्य प्राप्य । कथम्भूतम् ? सदुः सीदत्यस्मिन्निति 'सदुः बहुलमिति' सूत्रेण उत्प्रत्ययः, निबासोचितं वा शब्दोऽत्रावधारणार्थो बोद्धव्योड ध्ययानामनेकार्थत्वात् । कथम्भूता सती ? परा वा उत्कृष्टैव 'त्रैलोक्योदरवर्तिनीनां रूपातिशायिनीत्यर्थः । इतीति वाक्यम् आकुलमानसोऽयं प्रभू रावणोऽनोगत मापे । किं जल्ला ? पोनिधि मुसा, वीणावलोक्य ।
भारतीयः पक्षः-जु अहो कदा नित्यते । कासौ ? परासुता मृत्युः । कथम्भूता १ अनुवशात्माधीना । कस्य १ दुर्जनकस्य वा दुर्योधनस्यैवेत्यर्थः । किं कृत्वा ? उपेत्य | किम् ? पुरं हस्तिनाख्यम् । कस्य ? दुर्यो धनत्यैवेति वाक्यमवोचत् । कोऽसौ ? सोऽयं प्रमुयुधिष्ठिरः । कथम्भूतः १ आकुलमानसः सक्षोभचेताः । किं. कृत्वा ! पयोनिधिं वीक्ष्य ॥२॥
अयमगाधगभीरगुरुगुणरुपगतोनियतावधिरार्द्रताम् ।
यतिरिवाखिलसत्त्वहितव्रतो जलनिधिः सकलैरवलोक्यताम् ॥२॥ अयमिति-अयं जलनिधिः त्वया सूर्पणखया द्वितीयपक्षे त्वया भीमेनार्जुनेन वाऽवलोक्यतां निरीक्ष्यताम् । कथम्भूतः १ अगाधगभीरगुरुरगाधोऽतलस्पर्शः गभीरो दुर्लङ घ्यः गुरुगरिमोपेतः । स च, सच, स च, अत्र विशेष्य विशेषणतया समासः । पुनः आर्द्रतां द्रवरूपतासुपगतः प्रासः पुनरनियतावधिरनियतोऽनिश्चितो. ऽवधिर्मर्यादा यस्य सोऽनियतावधिः पुनरखिलसत्त्वहितव्रतोऽखिलसत्येषु हितं व्रतं यस्य सः । कैः कृत्वा ? सकलं; रत्नाकरस्वादिलक्षणैर्गुणैः । क इव ? यतिरिव | कथम्भूतः यतिः? अगाधगभीरगुरुः, अगाधः गभीरः अकलित मूर्तिः, गुरुः 'संसारसागरतरणे पोतायमानं धर्म गृणाति निरूपयतीति गुरुः अत्र विशेष्यविशेषणतया
राजा जनककी सर्वोत्कृष्ट पुत्री विकासमें साधक लंकापुरी में पहुँचकर किस समय सर्वथा अनुरक्त हो जायगी, ये धवन समुद्रको देखकर व्याकुल चित्त गजा रावणने कहे थे। [दुर्योधन से आक्रान्त राजा धृतराष्ट्रकी राजधानी में पहुंचकर किस दिन मृत्यु (पर + असुता) को आत्मानुकूल बनाया जायगा यह उद्गार द्वारकाके समुद्रको देखकर धनयास आदि पराभवोंसे क्षुब्धचित्त धर्मराजने कहे थे] ॥१॥
सूर्पणखादि आप सब इस समुद्रतुल्य यति ( वनवासी राम) को देखें । यतिके मनको जानना असंभव है, गंभीर होता है तथा स्थिर है। दया दाक्षिण्यादि गुणोंके कारण परम दयालुताको प्राप्त है। शास्त्रीय मर्यादाओका प्रयत्नपूर्वक पालन करता है और समस्त सात्त्विक और कल्याणकारी वृत्तौका पालन करता है । [आप भीमार्जुन आदि यतिके समान समुद्रको देखें-इसकी सलीमें उतरना कठिन है, गहरा है और महान है । रत्नाकर आदि
1. श्लेषः-ब. ना. । सर्गेऽस्मिन्बुतविलम्बितं पृत्तम् ।
२. स्वपरमतज्ञानुस्वा प्रसन्नमूर्तित्वान्निःक्षोभत्वाद् विनेयानाममार्गान्मार्गेवारोपकरवाच्च बोध. करवाद् वा संसारिभ्यः संसारसमुद्गतरणे पोतायमानं धर्म गृणाति निरूपयतीति गुरुः-प०, द०।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टमः सर्गः
१४५ समासः । पुनः कथम्भूतः ? तीक्ष्णवतादिलक्षणैः सकलैर्गुणैः नियतावधिः नियतोऽवधिनिश्चितमर्यादः सन् आर्द्रतां दयालुतामुपगतः पुनरखिलसत्त्वहितवतोऽखिलानां सत्त्वानां हितं व्रतं यस्य स तथोक्तम् ॥२॥
असुतरां सुतरां स्थितिमुन्नतामसुमतां सुमतां महतां वहन् ।
उरुचितैरुचितर्मणिराशिभिः स्वरचितैरुचितैरवभात्ययम् ॥३॥ असुतरामिति-अयं पयोनिधिस्तैर्लोकोत्तरैरुरुचितैरुच्नैः सञ्चयीकृतैरुचितै रेन्द्र मुकुटकोटियोग्य सचितदीप्तः स्वरुच्यात्मप्रकाशं यथा तथा मणिराशिभिः रत्नश्रेणिभिरवभाति शोभते । किं कुर्वनवभाति । स्थिति वइन् धरन् । कथम्भूतो स्थितिम् ? सुतरामतिशयेन असुतरां तरीतुमशक्यामुन्नतामुत्तुङ्गाम् असुमतां प्राणिनां सुमतां स्विष्टाम् । कथम्भूतानामनुगतो महताम् ? महतां सत्पुरुषाणामिति ||३||
अनिधनेन रसातलवासिना विगलितो निविडं वडवाग्निना ।
इह मुहुः शफरीपरिलचन्नव्यतिकरात्क्वथतीव सरित्पतिः ॥४॥ अनिधनेनेति-असौ सरित्पतिः समुद्रः शफरीपरिलङ्घनव्यतिकरात् शफरीणां परिलङ्घन तस्य व्यतिकरत्तस्मात् , मीनललनापरिवर्तनसम्बन्धात् मुहुरं वारमिह प्रदेशे क्वथतीवोत्कलतीय । कथम्भूतः सन् ? रसातलवासिना भूम्यात्यितेन अनिधनेन शाश्वतेन वडवाग्निना निविद्धं धनं यथा विगलितो द्रवीभूतः ॥४॥
परिहतैरिह तैः कृतबुद्बुदैः समकरैर्मकरैरुदधेजलैः ।।
उपहला परुषा नयनावलिः समुदिता मुदितानुकृताकुलैः ॥५॥ परिहतैरिति-इहास्मिन्प्रदेशे नयनावलिः नेत्रपतिक्तः उदधेः समुद्रस्य जलैरनुकृता । कथम्भूता सती ? उपरुपा आसन्नकोपेन परुषा निष्ठुरा समुदिता मिलिता अनूना वा पुनः मुदिता हृष्टा । कथम्भूतैः जलैः ? कृतबुख़ुदैः पुनः अतिरौद्रतया तैः लोकप्रसिद्धर्मकरैः परिहतैः । कथम्भूतैर्मकरैः ? समकरैस्तुल्यशुण्डादण्वैः पुनः आजुलै: बुभुक्षाराक्षसी मुखान्तःपतिततया व्यग्रैः ॥५॥
कल्लोलाः सपदि समुद्धृता मरुद्भिर्गण्डपा इव करियादसां विभान्ति |
और्वाग्निज्वलनशिखाकलापशङ्कामेतस्मिन्विदधति पद्मरागभासः ॥६॥ कालोला इति-महद्भिर्या तैः सपदि शीघ्र समुद्धृताः समुचिताः फल्लोलास्तरङ्गाः करियादसां जलहस्तिनां गण्डूषा इव कुललका इव विभान्ति शोभन्तेतराम् । तथा पद्मरागभासः पदरागमणिदीप्तयः और्वाग्निज्वलनगुणों के कारण जलमयताको प्राप्त है, इसकी निश्चित सीमा नहीं है अथवा कभी भी तटका उल्लंघन नहीं करता है और सर प्रकारके जीव-जन्तुओंका आश्रय है] ॥२॥
बड़े प्रयत्नसे प्राप्त होने योग्य बड़े-से-बड़े प्राणियों के लिए अभीष्ट लोकोत्तर मानली स्थितिको यति स्वयमेव प्राप्त है] समुद्र प्रकृति से ही पार करने लायक नहीं होता है। और वड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे शिखरयुक्त पर्वतोंको धारण करता है ] (दोनों ही) विपुल मात्रामें संचित एक-से-एक बढ़कर उपयुक्त अपनी कान्तिसे देदीप्यमान मणि राशिके द्वारा सुशोभित होते हैं ॥३॥
__ समुद्र के नीचे धधकती सनातन बड़वानलके द्वारा निरन्तर जलाया गया यह समुद्र मछलियोंकी उछल-कूदके बहाने बार-बार उथल-सा रहा है ॥४॥
यहाँपर एक सदृश सूंड (नाक) युक्त मकरोके द्वारा सव ओरसे हिलाये गये अतएव लहराते तथा चबूले उठाते समुद्रके पानीने उठते क्रोधके कारण कठोर, मिचती तथा फैलती नेत्र पंक्तिकी समानता की है ॥५॥
वायुके झोकोंके द्वारा एकाएक उठायी गयी लहरें जलके हाथियोंके कुल्लेके समान 1. उत्प्रेक्षा-ब०, मा।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
शिखाकलापशाम् औवाग्निज्वलनस्य यः शिखाकलापः ज्वालाकलापस्तस्य शङ्कां भ्रान्तिमेतस्मिन्प्रदेशे विदधति कुर्वन्ति ॥६॥
भान्त्येतस्मिन्मणिकृतरङ्गाभोगास्तत्सारूप्यान्निहततरङ्गाभोगाः ।
क्रीडास्थानै रुचिरमहीनामुच्चैरुद्वान्तानां सुचिरमहीनामुच्चैः ॥७॥ भान्तीति—एतस्मिन्प्रदेशे अहीनां सर्पाणां भोगाः कायाः भान्ति । कै? क्रीडास्थानैः । कथम् ! उच्चैरत्यर्थम् । कथम्भूतानाम् ? 'उद्वान्तानामुपर्युपरिपर्यरितानाम् । कथम् ? उच्चैरत्यर्थम् | कथम् ? यथा भवति सुचिरं बहुकालम् । पुनः कथम्भूतानाम् ? रुचिरमहीनां दीपावनीनाम् । कथम्भूता भोगाः ! मणिकृतरङ्गाभोगाः मणिभिः कृतः रङ्गो येषां ते, मणिकृतरङ्गा आभोगा येषां ते रलरञ्जितफणाः पुनः तत्सारूप्यासर्पसादृश्यात् निहततरङ्गा विध्वस्तवीचयः ॥ ७ ॥
आपातुं जलमिदमिन्द्रनीलजालव्याजेन व्यवतरतीव मेघजालम् ।
वक्षोभिः करिमकरैर्विभिन्नमम्भो यात्युद्यन्मणिरुचि शक्रचापभावान् ॥८॥ आपातुमिति मेघजालं जलदसङ्घः इन्द्रनीलजालव्याजेन इदं जलमापातुं व्यवतरतीय । तथा अम्भः वारि शमाचापभावान् इन्द्रधनुःस्वभावान् पञ्चवर्णदीप्तिस्वरूपत्वानि याति गच्छति । कथम्भूतं सत् ? करिमकरैः कर्तृभिः वक्षोभिः वक्षःस्थलैः कृत्वा विभिन्नं विन्दुशो विकिरितम् । पुनः कथम्भूतमम्भः १ उद्मन्मणिरुचि उद्यन्यूय गच्छन्ती मणीनामिव चिदीप्तिर्यस्य तत्' ||८||
एतान् प्रवालविटपान्स्वतटीभिरूढान्रूडानिषिञ्चति हतैरुदधिस्तरङ्गः ।
रङ्गैरिहाम्बुकरिणां निकटे वसन्तं सन्तं न सत्त्वसहिता ह्यवधीरयन्ति ॥९॥ एतानिति-असायम्बुधिः एतान्प्रवालविटपान् विद्रुमविटपान् तरङ्गैनिपिञ्चति । कथम्भूतैस्तरङ्गैः ? अम्जुकरिणां जलहस्तिनां रझै गतिभिः इतैः । कथम्भूतान् प्रवालविश्पान् ? रूढान् समुत्पन्नान् पुनः स्वतटी. भिरूढान् धृतान् । युक्तमेतत् हि स्फुटं सत्त्वसहिताः पुरुषाः निकटे वसन्त निवासं कुर्वाणं सन्तं सत्पुरुषं नावधीरयन्ति नावगणयन्ति ॥९॥ लगती हैं। और पद्मराग मणिकी छटाएँ दावानलके जलनेसे उठी लपटोंकी शंकाको उत्पन्न करती हैं ॥६॥
सुन्दर भूमिमें बने क्रीडाके स्थानोंसे बहुत समय तक ऊपर तेजीसे तैरते हुए तथा फणके मणियोंसे निकलती दीप्तियुक्त फणधारी तथा अपने ही समान होनेसे लहरोंको ढकेलते हुए सांपोंके शरीर इस सागरमें सुशोभित हो रहे हैं ॥७॥
इन्द्रनील मणियोंके जालके बहानेसे मेघमाला ही इसके जलको भरपूर पीनेके लिए उतरती-सी लगती है । हाथियों और मकरोके वक्षास्थलॊके थपेड़ोंसे बूंद-बूंदकर उछाला गया तथा उछलते मणियोंके समान चमकता इसका जल इन्द्रधनुषकी शोभाको धारण करता है ॥८॥
अपने किनारोंपर उगे तथा बढ़े मूंगाके पौधोंको जलके हाथियोंकी विशाल कायाके आघातले उत्पन्न विशाल लहरोंके द्वारा सींचता है | उचित ही है सामर्थ्यशाली पुरुष अपने पास रहनेवाले सज्जनोंकी उपेक्षा नहीं करते हैं. ॥९॥
1. अत्र श्लोके प्रहर्षिणीवृत्तम् । तल्लक्षणच "म्रौ ब्री गखिदशयतिः प्रहर्षिणीयम्" (. र. ३७१)। २. उद्घान्तानां-द० । ३, उद्भ्रान्तानां-६०। ४, अत्र जलघरमालावृत्तम् । तल्लक्षणं हि"अब्ध्या : स्याजलधरमाला म्भौ स्मौ" (वृ. र. ३ । ६५)। ५. अन्न प्रहर्षिणी वृत्तम् । ६. भन्न ' वसन्ततिलका वृत्तम् । लक्षणञ्च "उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगी गः" (चू. र. ३।७९)।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टमः सर्गः अध्यासीना निश्चला निस्तरङ्गानेतानेतानीलनीलान्प्रदेशान् ।
नीलाभ्राणां शङ्कया किं बलाका नो शङ्खानां पङ्क्तयस्ता विभान्ति ॥१०॥ अधीति- शङ्खानां ताः पङ्क्तयः नो विभान्ति । किमिति शब्दः संशयाथों बोद्धव्यः । किं तर्हि १ एता बलाकाः बक्यः । किं कुर्वाणाः ? एतान् प्रदेशानध्यासीना, अधितिष्ठन्त्यः । कया ! नीलभ्राणां कृष्णमेघानां शया भ्रान्त्या । कथम्भूता नः १ निर: रिया: इमम्भूना प्रदान ? नीलनीलान् श्यामश्यामान् पुनः निस्तरङ्गान्निश्चलान् ॥१०॥
एषामुष्मिन्विलसति मुक्ताशुक्तिर्मुक्ता शुक्तिः प्रसवनिरोधस्यालम् ।
रोधस्यालम्बितफलवामाश्वासैर्वामाश्वासैः सपदि ययोद्बोधेन ॥११॥ एपेति-एषा मुक्ताशुक्तिः मौक्तिकपुटी विलसति । क ? अमुस्मिन्प्रदेशे । रोधसि तटे मुक्ता परित्यक्ता। काऽसौ ! शुक्तिः शोकः । कया ? यया मुक्ताशुक्त्या । कस्य ? प्रसवनिरोधस्य प्रसूतिनियन्त्रणस्य । केन कृत्वा! उद्बोधेन प्रबोधसमयेन । कथम् ? अलमत्यर्थ सपदि युगपत् । कैः ! सहप्रसवनिरोधस्योद्बोधेन कृत्वा शुक्तिमुक्ता ! वामाश्वासैः निःसरणवायुभिः, कथम्भूतैः ? आलम्बितफलवामाश्वासैरालम्बितोऽङ्गीकृतः, फलानि मौक्तिकानि, वाम उद्दिरणम् , आशु शीघ्रम्, आसः क्षेपः, फलानां वामः, फलवामस्याश्वासः फलवामाश्वासः, आलम्बितः फलवामाश्वासो यैस्तैस्तथोक्तैरिति ॥११॥
गोखुराहत इवायमेकतो वर्तिकाभिरिव वर्तितोऽन्यतः ।
मेघविभ्रम इवाम्बुधिः क्वचित्सकुलः स कुलपर्वतैरिव ॥१२॥ गविति-अयमम्बुधिः एकत एकस्मिन्प्रदेशे गोखुराहत इव भाति । तथाऽन्यतोऽन्यस्मिन्प्रदेशे शिल्पिभिः वर्तिकाभिः चित्रलेखनीभिः कृत्या वर्तितः लिखित इव भाति । तथायं भाति । क इब ! मेघविभ्रम इव जलदोदयसंशय हव । क १ क्वचित् कस्मिंश्चिन् प्रदेशे । तथा कचित् कुलपर्व तैः कुलाचलैः सङ्कुल इव सम्भृत इव भाति ॥१२॥
उद्युक्तानामुदधिमहत्त्वस्तुत्या युक्त्यैतस्मिन्ननु गुणभारत्यागः ।
स्थाने स्थाने भवति कवीनां कुर्वत्युक्त्यै तस्मिन्ननुगुणभारत्यागः ॥१३॥ उद्युक्तानामिति-नन्वहो भवति जायते । कोऽसौ १ गुणभारत्यागः गुणा यथोक्तशास्त्रोपदेशपरिशानादिलक्षणाः, गुणानां भारल्यागः, गुणभारत्यागः । क ? एतस्मिन्प्रत्यक्षीभूते तस्मिन् लोकोत्तरे स्थाने स्थाने
वे शंखोंकी पंक्तियाँ सुशोभित हो रही हैं ? या नीले-नीले मेघोंकी आशंकासे इस नील-नील समुद्रके हिस्सेपर आये निश्चल, बिलकुल ही न हिलते-खुलते और स्थिर होकर बैठे बगुलोंकी पंक्ति है ॥१०॥
इस समुद्र में मोतियोंकी सीप दिख रही है। इसने मोतीप्रसवकी पीड़ाका प्रारम्भ होते ही पूर्ण वेगसे एकदम ही श्वासे छोड़कर शीघ्र ही मुक्ताफलोंको प्रसूतिको करके किनारे पर शोकको छोड़ दिया है ॥११॥
___ यह समुद्र यदि एक ओर गौके खुराँसे खुदा तुल्य है तो दूसरी ओर कारीगरोंकी टांकीले खुदे सदृश है। कहीं इसकी छटा मेघमालाकी है तो अन्यत्र यही कुलाचलोसे भरासा प्रतीत होता है ॥१२॥ __इस स्थानपर समुद्रकी गरिमाका सहेतुक घर्णन करने के लिए तत्पर कवियोंका 'अनु
1. शालिनी वृत्तमिदम् । लक्षणं हि "शालिन्युक्ता म्ती तगौ गोब्धिलोकैः" (. र. ३॥३५) २. चक्रचालयमकम्-ब., प., द.। जलधरमालावृत्तञ्च । न वचित्सर्वधा सर्वविशम्भगमनं नय इति । ३. रथोद्धता वृत्तमत्र, लक्षणं हि "रान्नराविद रथोद्धता लगौ" (वृ. र. ३।३९) ।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
प्रदेशे प्रदेशे । केषां गुणाभारत्यागः ? कवीनाम् | कथम्भूतानां कवीनाम् ? उद्युकानाम् । कया कृत्वा ? युक्या विचारणया । कस्याः ? उदधिमहत्त्वस्तुत्याः समुद्रगरिमव्यावर्णनायाः । किं कुर्वति ? स्थाने कुर्वति विदधति सति । किन्तत् ? अनुगणभारत्यागः, कर्मणश्चैतद्रूपमनुगुणसरस्वतीदोषमित्यर्थः । कस्यै ? उक्त्यै निर्वचनायेति ॥१३॥
कि मर्यादामेप जलात्मा परिवारो लोलो भिन्द्यादित्युपपश्यन्निव कूलम् ।
गत्वा गत्वात्तिमुदन्वान्भजतेऽयं न प्रत्येति स्वाम्यनुवर्ग प्रतिकूलम् ॥१४॥ किमिति-अयमुदन्वान् समुद्रः कुलं तटीं भजते प्राप्नोति । किं कृत्वा ? गत्वा गत्या आवृत्ति निवृ. त्तिम् ? किं कुर्वन्निव १ उपपश्यन्निव विचारयन्निव । कथमिति ? किम् एप जलारमा लोलः परिवारः मर्यादा भिन्द्यादिशि ? किमिति शब्दः पालोचने वेदितव्यः । परिवारः करि मकर मीनादिलक्षणः जन्मात्मा जलमेवात्मा स्वरूपं यस्य सः तदुत्पत्तिमात्यातल्लब्धजीवनत्वाच्च तस्य, लोलचपल: ममायं परिवारः । युक्तमेतत् । किन प्रत्येति किं न निश्चिनोति, अपितु प्रत्येत्येव । कोऽसौ १ स्वामी । कम् ? अनुवर्गमनुचरम् । कथम्भूतम् ? प्रतिकूलं प्रतिलोममिति' ||१४||
वेगोऽत्येति प्रतिदिशमापूर्णानामालोकान्तं हिमकरविध्वस्तानाम् |
वेलौघानां प्रतिनिशमसिन्नेपामालोकान्तं हि मकरविध्वस्तानाम् ॥१५॥ धेगेति-अस्येत्यतिकामति ! कोऽसौ ? वेगो रपः । कम् ? आलोकान्तं दृष्टिविषयम् । केपाम् ? एषां वेलीधानां कल्लोलसमूहानाम् । छ ? अस्मिन्प्रदेशे । कथम् १ प्रतिनिश प्रतिरजनिम् । कथम्भूतानाम् ? प्रतिदिदा सर्च दिक्षु आपूर्णानां सम्भूतानां पुनः हिमकर विश्वस्तानां शिशिरकरोक्षिप्तानाम् । कयम् यथा भवति ? आलोकान्ते दिनकरकरनिकरजनितप्रकाशावसानम् । पुनरपि कथम्भूतानाम् ? मकरविध्वस्तानां जलचरविशेषनिरस्तानाम् । कथम् ? हि स्फुटम् ॥१५॥
स्वम्मलमान्तरङ्गमखिलं सलिलधिरधिकं
तत्तिमिराशियोगदलितं यतिरिव परितः ।
अन्य
गुण भार' नामक दोषका त्याग करनेपर शास्त्रोपदेश आदि गुणोंके भारका त्याग भी इस समुद्र के विषयमें उचित ही होता है ॥१३॥
जलरूप धारी अत्यन्त अस्थिर यह मेरी चारो तरफ फैली जलराशि (अथवा जलसे उत्पन्न तथा जलजीवी और अत्यन्त चंचल ये मछली वगैरह मेरे परिवारके प्राणी) कहीं भी किनारोंका उल्लंघन न कर जाय ऐसा विचारकर ही यह सागर बार-बार चक्कर काटकर किनारेपर नहीं रुकता है क्योंकि स्वामी प्रतिकूल (लक्ष्यकी ओर) अनुयायी समूहका भी विश्वास करता है : .१४॥
अन्वय-अस्मिन् प्रतिदेशमापूर्णानां हिमकर विध्वम्ताना, मकरविध्वम्तानां एषां वेलौधानां वेगः हि प्रतिनिशं आलोकान्तं अस्येति।
इस समुद्रमें सब दिशाओसे उमड़ती, चन्द्रमाकी किरणों से ज्यार रूप तथा मगर मच्छादिको कष्टकर इन लहरॉके समूहका पूर प्रत्येक राधिमें सूर्योदय पर्यन्त उटता ही रहता है ॥१५॥
अन्धय-अयं सलिलधिः स्व, अन्तरंग, अखिलं, तिमिसाशियोगदलितं, आवरणात्मक, अधिकमलं परितः यतिरिय मुहुः बहिः अभिनुदति । हि महतां प्रायशः इंदशी अविमला गतिः ।
१. जलधरमालावृत्तम् , अन्त्यपादयमकच । २. मतमयूरवृत्तम् , लक्षणं हि "वेदैः रन्ध्रम्तों परगा मत्तमयूरम्" (. र. ३।७३) । ३. जलधरमालावृत्तम् । अन्त्यपादयमवाच ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४९
अष्टमः सर्गः आवरणात्मकं मुहुरयं बहिरमिनुदति
प्रायश ईदृशी हि महतां गतिरतिविमला ॥ १६ ॥ स्वमिति अभिनुदत्युक्षिपति ! कोऽसौ ? अयं सलिलधिः समुद्रः । किम् ? तन्मलम् । कथम् ? परितः सामस्त्येन | कथम् ? बहिबाह्ये । कथम् ? मुहुर्वारं वारम् | फयम्भूतं मलम् ! स्वमात्मीयम् | पुनः कथम्भूतम् ! आन्तरङ्ग मध्यगतम् । पुनः कथम्भूतम् ! अखिलं समस्तम् | पुनः कथम्भूतम् ! तिमिराशियोगदलितं मीनसमहसविघटितम् । कथम् ! अधिक प्रचुरे यथा भवति । पुनः कथम्भूतम् ? आवरणारमर्क जनझम्पनरूपम् | क इव ? यतिरिव यथा यतिरभिनुदति । कथम् ? परितः । कथम् ? मुहुः । कथम् ? बहिः । कथम्भूतम् स्वं स्वकीयम् | पुनः कथम्भूतम् ! अन्तरङ्गम् आत्मप्रदेशानुविद्धम् । पुनरपि कथम्भूतम् ? अधिकं प्रचुरम् । पुनरपि कथम्भूतमू ? तिमिराशियोगदलितं किम् ? तन्मनं पापम् योगो मनोवाकायनिरोधः तिमिर पापमस्नातीत्येवं शीलस्तिमिराशी स चासो योगश्च तिमिराशियोगस्तेन दलितं चूर्णितं पुनः आवरणात्मक शनव्यतिप्रच्छादनरूपम् । अर्थान्तरमुपन्यस्ते-महतां सत्पुंसाम् ईदृशी प्रायशः बाहुल्येन हि स्फुटं गतिरतिविमला निर्मला जायते । छन्दोनाम्ना विमलेति ध्वनितम् ॥ १६ ॥
उद्दिन्दूनां मुहुरनुषद्धं वीच्या वात्यासारं प्रशमि तता पारम्यम् ।
फेनालीनां छिमितिकरोत्येतस्मिन्यात्या सारं प्रशमिततापा रम्यम् ।।१७।। उद्दिन्दूनामिति-सा वात्या वातमण्डली पेनालीनां पारम्यं शोभा छिमितिकरोति विनाशं नयति । कथम्भूतानां फेनालीनाम् ! उद् बिन्दूनां बुदबुदयतीनाम् । कथम् १ अरमत्यर्थम् । कथम्भूता पात्या ? प्रशमिततापा प्रशमितः तापो यया सा प्रशमिततापा । पुनः कथम्भूता ! तता विस्तारं प्राप्सा | क एतस्मिन्प्रदेशे । कथम्भूतं पारम्यम् ? रम्ब मनोहरम् । पुनः कथम्भूतम् ? वीच्या तरङ्गेण मुहुः प्रशमि स्पिरं यथा भवति तथा नुबद्धं विरचितम् | किं कुर्वन्त्या वीच्या ? वात्या विजृम्भमाणया | कथं यथा ! असारं दीमिति
-
...
-.
.
--.
-
-
-
.
--.-
--
-
--
अन्वेति रत्नोल्लसितेन्द्र चापः कल्लोलमेघः सकदम्बकेन ।
नभस्वता शङ्खचलबलाकः क्षोभं गतः प्रापमम्बुराशिः ॥१८॥ अन्विति-अम्बुराशिः समुद्रः प्रावृष धनकालमन्वेति अनुकरोति । कथम्भूतः सन् ? नभस्वता वायुना
यह समुद्र अपनी तहमें पड़े अपने अखिल मलको, जो कि मछलियोंके विविध झुण्डोंके निवास अथवा वस्तुओके कूदनेसे बहुत विपुल मात्रामें हो गया है उस सबको योगीके समान सब तरफसे बार-बार बाहर फेंक रहा है। [यति भी अपने समस्त माध्यात्मिक पाप मलको जो कि मन, वचन, कायकी कुचेष्टाओंके निरोधक कार्योंसे नष्ट होता है तथा आवरण (झानाघरण, दर्शनाधरण) स्वरूप होता है इस बढ़े हुए बन्धको पुनः पुनः प्रयत्न करके न करता है ] टीक ही है महापुरुषोंकी बहुधा ऐसी ही निर्मल गति होती है ॥१६||
अन्धय-एतस्मिन् सा तता, प्रशमिततापा धात्या उद्विन्दना फेनालीना रम्यं, वात्यासारं, अनुबई, मुहुः वीच्या प्रशमि पारम्यं अरं छिमितिकरोति ।
__ इस समुद्र में वह खूय विस्तृत अतएव तापविनाशक यायुवेग फुहार सहित फेनराशिकी उस सुन्दर रमणीयताको शीघ्र ही नष्ट कर देता है, जो वायुके साथ ही बढ़ता है, खूब घना होता है तथा यारम्बार किनारे पर आकर स्थिर हो जाता है ॥१७॥ __ कदम्ब आदिके फूलों युक्त वायुवेगसे क्षुब्ध, विखरे रत्नोंरूपी विकसित इन्द्रधनुप
१. अर्थान्तरन्यासाऽलकार:-ब०, ना० । अत्र वंशपत्रपतितं मृत्तम् । लक्षणं हि "दिडा, मुनि वापनपतितं भरनभनलगः" (वृ० र० ३३९२) । २. जलधरमाला वृत्तम्। अन्त्यपादयमकय्च ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
क्षोभं गतः प्राप्तः | कपास गुनः ! सोलपिन्द्रभाषः, रसोय उल्लासतमिन्द्रचापं यत्र सः, पुनः कल्लोलमेघः कल्लोला एव मेघा यत्र सः, पुनः शङ्खचलबलाकः शङ्खा एव चलन्त्यो बलाका यत्र सः । कथम्भूतेन नमस्वता ! सकदम्पकैन कदम्बकुसुमवृन्दवता ॥ १८ ॥
इत्थं तेन व्यापृतनेत्रेण पयोधौं वेलावेगाद्भानुसमीपं हियमाणा ।
क्रन्दन्त्यन्तःस्नेहकृपा, परिवृत्य श्रीमत्सीतापक्रमतता विलुलोके ॥१९॥ इत्थभिति- व्यापृतनेत्रण व्यापारितनेत्रेण तेन रावागेन | छ ! पयोधौ समुद्र, इत्थमुक्तप्रकारेण श्रीमसीता श्रीमती चासौ सीता च श्रीमत्सीता विलुलोकेऽवलोकिता । किं कृत्वा ? परिवृत्य परिवर्तनं कृत्वा । कथम् ? यथा अन्तः स्नेहकृपाश्चेतो मध्ये प्रीतिकरुणाम् । किं कुर्वाणा ? लियमाणा नीयमाना । किं तत् ? भानुसमीपम् सूर्यसमीपम् । कस्मात् ? वेलाबेगादन्तर्मुहूर्तरामयात् । कथम्भूता सती ? क्रन्दन्ती चिलपन्ती रामरामोच्चारणपुरःसरतया रक्ष रक्षेत्यादिविलापपूर्वक रुदतीत्यर्थ । पुनः कथाभूता ? अपक्रमतता अन्यायमार्गजनिवदुःखा।
*भारतीयः तेन युधिष्ठिरेण इत्थं श्रीमत्सी श्रिया शोभया उपलक्षिता चासौ मत्सी च श्रीमत्सी सर्वाङ्गपरिपूर्णतया शोममाना शफरी विलुलोके । कथम्भूतेन ? पयोधौ व्यापृतनत्रेण । किं कुर्वाणा ? हियमाणा गम्यमाना । अत्र तृतीयाथै पञ्चमी । तेनायमों लभ्यते । किम् ? भानुसमीपम् । कस्मात् ? वेलावेगात्कल्लोलवेगेनेत्यर्थः । किं कुर्वाणा सती ? कन्दन्ती । कथम्भूता ? तापक्रमतता सन्तापपरम्परादग्धा, शेप माग्वत् ||१९||
स्थिरसमुद्रसमुद्रसकौतुकाधुगभुजं विनयेन नयेन च ।
तमुदितं मुदितं ह्यनुजोग्रवागिति विभुं निजगी निजगौरवात् ॥२०॥ स्थिरति-न निजगौ अपि तूक्तवती । कासौ अनुजा भगिनी सूर्पणखा । किम् ! उदितं वचनम् , के प्रति ! तं रावणं प्रति । केन कृत्वा ? विनयेन प्रश्रयेण | कस्मात् ! निजगौरवात्स्वकीयमाहात्म्यात् । कथम् ! हि स्फुटम् । कथम् ? इति वक्ष्यमाणप्रकारेण । कथम्भूतम् रावणम् ? मुदितं हृष्टम् । केन ? नयेन च (न) येनैव वचसा 'चकारोऽत्रावधारणार्थी बोद्धव्योऽव्ययानामनेकार्थत्वात् । पुनः विभुं स्वामिनं व्यापकं त्रैलोक्यक्षोभविधायित्वात्तस्य | पुनः कथम्भूतम् १ युगभुजं यां गच्छन्तीति झुगा विद्याधरास्तान् भुनक्ति रक्षतीति युगभुक्तम् । कथम्भूताऽनुजा ? उग्रवाक् तीव्रवचना । पुनः स्थिरसमुद्रसमुद्रसकौतुका मुदा सह वर्त्तते समुत् समुञ्चासौ रसश्च समुद्रसः स्थिरसमुद्रे समुद्रसो यस्मात्तत् स्थिरसमुद्रसमुद्रसं स्थिरसमुद्रसमुद्रसं कौतुक यस्याः सा तथोक्ता । अथवा स्थिरश्वासी समुद्रश्च स्थिरसमुद्रः, मुदोरसः मुद्रसः हर्षरसः, सह मुद्रसेन वर्तत इति समुद्रसम् , स्थिरसमुद्रे समुद्रसकौतुकं यस्याः सा तथोक्ता निश्चलाम्भोधिसहर्षरसकौतुकेत्यर्थः ।। धारी, तरंगमाला रूपी मेघोंसे आवृत तथा शंखोंरूपी उहती सारस या हंसपंक्ति युक्त यह समुद्र वर्षा ऋतुकी नकल कर रहा है ॥१८॥
- अन्वय-पयोधी इत्यं परिवृत्य व्यापृतनेत्रेण तेन बेलावेगात्, भानुसमीपं हियमाणा अपक्रमतता, क्रन्दत्ती श्रीमत्सीता अन्तःस्नेहकृपाई विलुलोके ।
समुद्रकी ऐसी छटाके रहनेपर भी घूमकर आँख उठानेपर उस रावणने बड़े वेगके साथ ऊपर आकाशमें सूर्यके समीपसे ले जायी गयी अपमानके कारण उद्दीप्त आन्तरिक पतिप्रेम और वैराग्य मनसे विलाप करती तथापि कान्तिमती सीताको देखा था। [इस प्रकार घूमकर देखते हुए धर्मराजने स्नेह और दयासे दूत होते हुए देखा था कि लहरोके द्वारा धूपमें फेंकी गयौं सुन्दर मछली उमासे दुखी होकर तड़फड़ा रही है ] ॥१९॥
अन्वय-स्थिरसमुद्रसमुद्रसकौतुका, उग्रवाक् अनुजा युगभुजं नयेन मुदितं उदितं तं विभु निजगीरवात विनयेन इति निजगी।।
गाढ़ हर्ष तथा रसयुक्त अतएच अत्यन्त उत्कर जिज्ञासा मय, उन वक्ता छोटी बहिन सूर्पणखाने खेचरीके पालक, सीताके अपहरणके कारण प्रसन्न तथा देदीप्यमान राजा रावणका अपनी मर्यादाके रक्षणपूर्वक निम्न विनम्न वचन कहे थे।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
अग्रमः सर्गः
१५१
भारतीय:- निनगौ | कोऽसौ ? अनुनो भ्राता भीमोऽर्जुनो वा । कम् ? तं युधिष्ठिरम् । केन कृत्वा ? बिनयेन प्रश्रयेण नयेन दण्डनीत्यादिना । कस्मात् ? निजगौरवात् । कथम्भूतम् ? उदितमभ्युदयं प्राप्तम् | पुनः कथम्भूतम् ? मुदितं हृष्टम् । कस्मात् ? स्थिरसमुद्रसमुद्रस कौतुकात् । कथम्भूतम् युधिष्ठिरम् ? विभुं प्रभुं पुनर्युगभुजं युगे इव भुजे यस्य तम् । दीर्घतरबाहुमित्यर्थः । कथम्भूतोऽनुजः ! अप्रवाक्प्रधानवचनोऽ व्यभिचारिवचन इति ॥२०॥
सोऽयं नगर्याः परिखायमाणो वाताहतैरम्बुकणैः पयोधिः । दूरोन्नमत्पाण्डुकुलाग्र्यमुच्चै रक्षोध्वजं त्याजयति श्रमं त्वाम् ||२१||
स इति है रावण व्याजयति ग्रहापयति । कोऽसौ ? पयोधिः । कम् ? श्रमम् । के त्याजयति ? त्वां भवन्तम् । कः ? अम्बुकणै जलबिन्दुभिः । कथम्भूतैः ? वाताहतैः शीतलैरित्यर्थः । कथम्भूतं त्वाम् ? दूरोन्नमत्पाण्डुकुलम्यं पाण्डुनिर्मलं कुलं येषां ते पाण्डुकुला राजानः दूरोन्नमन्तश्च ते पाण्डुकुलाश्च दूरोन्नमत्पाण्डुकुलास्तेपामध्यः स तथोक्तस्तं बहुकालोन्नतिप्राप्त निर्मलवंशानामाद्यमित्यर्थः । पुनः कथम्भूतम् ? उच्च रक्षोध्वजमुच्चैरतिशयेन रक्षो राक्षसो ध्वजे पताकायां यस्य तम् । कथम्भूतः पयोधिः १ परिखायमाणः स्वातिकायमानः । कस्याः १ नगर्याः लङ्कायाः ।
भारतीय:- हे युधिष्ठिर ! पयोधिरम्बुकणैः कृत्वा त्वां श्रमं त्याजयति । कथम्भूतः ! उच्चैरक्षः उच्चैः स्थूला अक्षाः शङ्खादयो यत्र स उच्चैरक्षः, पुनः नगर्या द्वारावत्याः परिखायमाणः । कथम्भूतं त्वाम् ? दूरोन्नमत्पाण्डुकुलाचं पाहो राज्ञः कुलं पाण्डुकुलं दूरमुन्नमच्च तत्पाण्डुकुलञ्च दूरोन्नमत्पाण्डुकुलं तस्मिन्, दीर्घोन्नतीभवत्पाण्डुवंशेऽयं प्रधानं अथवा पाण्डोः कुलं येषां ते, पाण्डुकुलाः क्षितिभुजः, दूरोन्नमन्तश्च ते पाण्डुकुलाश्च दूरोन्नमत्पाण्डुकुलास्तेषामप्यः पूज्यस्तं तथोक्तम् ॥२१॥
अत्रासन क्रमकरैरयमाविलोलमायातिपातिविसरो जवनस्वरोऽधः ।
tarataमकरै रयमाविलोलमायातिपाति विसरोजवनस्वरोधः ||२२|| अत्रेति-आयात्यागच्छति । कोऽसौ ! अयं पयोधिः । कम् ? रयं वेगम् । क्व १ अत्रास्मिन्प्रदेशे । कथम् ? अलमत्यर्थम् । कथम्भूतः ? आयातिपातिथिसरः आयं नदीमुखम् सरन्ति गच्छन्ति मेदा यस्मि -
J
[ अन्वय-अग्रवाक् अनुजः युगभुजं, उदितं मुदितं तम् विभुं स्थिरसमुद्रसमुत्तरस्सी बुकात् निजगौरवात् विनयेन नयेन व निजगौ ।
वचनके प्रतिपालक छोटे भाई भीम या अर्जुनने विशालबाहु, प्रतापी तथा प्रमुदित राजा युधिष्ठिरसे विनम्रता तथा नीतिशताके साथ धैर्यकी मुद्रासे अंकित, हर्ष तथा वीर रसकी जिज्ञासापूर्ण फलतः अपनी महत्ता के अनुरूप वचन कहे थे ||२०||
अन्वय-नगर्याः परिखायमाणो सोऽयं पयोधिः दूरोनमत् पाण्डुकुलाग्र्यं रक्षोध्वजं त्यां वाताहतेरम्बुकणैः उच्चैः स्याजयति ।
लंकापुरीकी खाईके समान यह समुद्र दूरसे उड़कर उतरते हुए, विशुद्धवंशियोंके प्रमुख तथा राक्षसों की ध्वजा समान आपके श्रमको पवनके द्वारा उछाले गये जल-बिन्दुओंसे बिल्कुल दूर कर रहा है। [ द्वारका पुरीकी परिखाके समान तथा स्थूल शंखादि युक्त यह समुद्र चिरकाल से प्रतिष्ठित पाण्डवंशियोंके प्रधान आपकी मार्गकी थकानको पवनप्रेरित जलबिन्दुओंसे दूर करता है ] ॥ २१ ॥
अन्वय- आयातिपातिविसरः अधःजवनस्वरः भविलः अयं अनअग्रासन क्रमकरैः आविलोलं अलं रयं आयात विसरोजबन स्वरोधः पाति ।
जिसका प्रसार जलकी आयका अतिक्रमण करता है, जिसमें नीचे-नीचे शीघ्रतापूर्वक
१. द्रुतविलम्बित वृत्तमश्र । २. इन्द्रवज्रा वृत्तं लक्षणं हि "स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः " (ऋ. र. ३१३०) |
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् निति सरःसमूहाः, वीनां सरोविसरः पक्षिसमुदायः, आयमतिपततीत्येवंशीलः आयातिपाती आयातिपाती विसरो यत्र स तथोक्तः । पुनः जवनस्वरः शीप्रघोषः । कथम् ? अघोऽवस्तात् । पुनः कथम्भूतः ! आविलः कलुषः । कथाभूतं रयम ? आविलोलं सामस्त्येन चञ्चलम् । कैः १ अत्रासनझमकरैः न विद्यते प्रासो येषां
तेवासाः, नकाश्च मकराश्च नक्रमकराः, अत्रासाश्च ते नक्रमकराश्चात्रासनक्रमकरास्तैः। आ सामस्त्ये.. नासनं क्षेपणं येपो त आसनाः, क्रमाश्चरणाः, करा हस्ताः, क्रमाश्च कराश्च कमकराः, आसनाः क्रमकरा
येषां ते आसनक्रमकरास्तैरासनक्रमकरैः। तथा च पाति रक्षत्ययं पयोधिः । किम् ? विसरोजवनस्वरोषः सरोजानां कमलानां वनं सरोजवनं विभिरूपलक्षितं सरोजवनं यत्र तद्विसरोजवनं विसरोजवनञ्च तस्वरोधश्च विसरोजवनस्वरोधः विहङ्गमयुक्तकमलकान्तारस्वकीयतटमित्यर्थः । ।। २२
यद्वातकी यद्वलिभस्तरङ्गी तत्कि गतो वर्षिमहानियोगम् ।
सत्त्वानुकम्पाभिरतो यदब्धिस्तत्कि गतो वर्पिमहानियोगम् ॥२३॥ यदिति-अत्र यत्तदोः सामान्योक्तिप्रयोगः । यद्वातकी वातोऽस्यास्तीति यातकी, यदलिभः यत्तरङ्गी तरङ्गाः सन्त्यस्येति तरङ्गी, तकिं गतः वर्षिमहानियोगं वृद्धभावापचयनसम्बन्धम् ? अत्र तात्पर्याथों निवेद्यतेययाऽन्यः कश्चिप्राणी किल वातकीबलिभिस्तरङ्गी सन् वृद्धभावं प्रयाति तथा समुद्रो न यातीति गम्यते । या अपवा यदब्धिः यदुदधिः सत्वा भुकम्पाभिरतो पति, तारक गतः किम् ? ऋषिमहानियोगं ऋषीणां मुनीनां महानियोगम् महानुष्ठानम् । यथा किलान्योऽपि सत्त्वकरुणाभिरतो मुनीनां तपश्चरणानुपानं प्राप्नोति तथा न सत्त्वानुकम्पाभिरतोऽपि समुद्रः तपश्चरगानुष्ठान प्राप्नोति, तस्याचेतनत्वाद् जल(ड)स्वभावत्वाच्चेति भावः । सत्त्वाः मीनमकरादयः अनुकम्प कम्पस्य चञ्चलत्वस्य पश्चादनुकम्पम् , अभिरतं सामल्येन कीडितम् , सत्वानामनुकम्पामभिरतं यत्र स सस्वानुकम्पाभिरत इति ॥ २३ ॥
अमुत्र मकरैः करैर्विरचिता चिता विनियतायताप्य च नमः।
नभस्वदयुतायुता दिशमितामिता समहिमा हिमा जलततिः ।। २४ ।। अमुप्रेति-इता गता | काऽसौ ? जस्ततिः पयःपूरः । काम् ? दिशम् । क १ अमुत्रास्मिन्प्रदेशे । कथम्भूता ? विरचिता । कैः कर्तृभिः १ मकरैः । कैः करणैः १ करैः शुण्डाभिः । कथम्भूता ? चिता पुष्ट. मूलेत्यर्थः । पुनः कथम्भूता १ बिनियता विभिः पक्षिभिर्नियता सम्बद्धा विनियता, पुनरायता दीर्घा ! किं कृत्वा ? नभो गगनमाप्य प्राप्य, पुनः कथम्भूता ? नभस्वदयुतायुता नभस्वतां वायूनां देवानामयुतेन दशसहससङ्ख्यया आयुता सामरत्येन संयुक्ता पुनरमिता प्रचुरा पुनः समहिमा महिम्ना सह वर्तमाना पुनः हिमा शीतला ॥ २४ ॥
घोष होता रहता है तथा मलीन है ऐसा यह समुद्र यहाँपर निर्भय मगरमच्छोंकी कीड़ासे अत्यन्त चंचल है तथा परिपूर्ण वेगको प्राप्त है अपने किनारेके पक्षियुक्त कमलवनोंकी रक्षा भी करता है ॥२२॥
जो यह समुद्र घायुपूरित ( वातरोगी), बलिपूर्ण ( झुरींदार) तथा लहरोंसे व्याप्त (झुका हुआ) हुआ है सो क्या वृद्धावस्थाके महाप्रभावको प्राप्त हुआ है ? अथवा समुद्रवासी प्राणियों के पालनमें लीन (प्राणिमात्रपर दयालु) जो यह समुद्र है सो क्या यतिकी साधनाको कर रहा है।॥२३॥
मकरोकी सूड़ोंके द्वारा फैलायी गयी, परिपुष्ट, पक्षियों के द्वारा पीत और आकाशमें ऊपर तक उठी हजारों गुनी पधनके वेगसे युक्त, प्रत्येक दिशामें निःसीम, महत्त्वपूर्ण तथा शीतल जलराशि यहाँपर है ॥२४॥
1. अर्धसमयमकम्-०, ना० । वसन्ततिलकावृत्तम्चात्र । २. इन्द्रधजा वृत्तमत्र । ३, बलो. दतगति वृत्तं, लक्षणच "रसैर्जसजसा जलोइतगतिः" (. ३० ३१५७)।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टमः सर्गः
१५३ समुन्नताम्भोजकुलाभिनन्यां विद्याधराणामधिवासभूमिम् |
स्वं द्वारकान्तां खलु पश्यसीमां राजन्नलङ्कामहितां परेभ्यः ॥ २५ ॥ समुन्नतेति-हे राजन् ! न पश्यसि नावलोकसे त्वम् ? काम ? इमां लङ्काम् | कथम्भूताम् ! परेभ्यः शत्रुभ्योऽहितां दुःखहेतुम् , खल्विति निश्चयार्थः । तेनाबमर्थ:-परेभ्यो नान्येभ्यो जनेभ्यस्त्रस्तेभ्य , इति भावः । पुनः द्वारकान्तां गोपुरमनोहरां पुनः विद्याधराणां चराणामधिवासभूमिमन्वयापरम्परायाता पुनः समुन्नताम्भोजकुलाभिनन्यां समुन्नतानि च तान्यम्भोजकुन्टानि च तेभिनन्द्याम् । समुन्नता मान्यता अम्भोजकुला राक्षसा विभीपणादयस्तैः प्रशस्याम् । अथवौदण्ड जाजराजविराजमानामित्यर्थः ।
भारतीयः-हे राजन् युधिष्टिर ! त्वं ता लोकप्रसिद्धां द्वारका द्वारवती पदय ! कथाभृताम् १ सीमामवधि खलु खलुशब्दोवधारणार्थः । तेनायमर्थः-अन्यासां नगरीणां मर्यादामेव तत्रैवानन्यसामचिन्या विभृतः सम्भवात् । पुनः कामहिता कामाय अत्रैव वास्तव्यमरमाभिरित्यभिलापाय हितासां ताराम । केभ्यः ? परेभ्यो धनिभ्यः सत्पुरधभ्यः । अस्यामेव योगक्षेमघटनायाः सम्भवात् । “अमिति बांगन परश्य इत्यत्र षष्ठ्याः प्रासौ चतुर्थी ।" पुनरपि कथम्भूताम् ? विद्याधराणां शस्त्रशास्त्रपरिशानवतां पुंसामधिवासभूमि पुनः भोजकुलाभिनन्द्यां यादवकुलप्रशस्याम् । दाशार्हकुलं वृष्णिकुलं यादवकुलमिति इरिवंशस्य विदोषाः । पुनः समुन्नतो तुनाम् ॥ २५ ॥
कल्लोलैरिह जलधेः सुधागृहाणि व्यज्यन्ते मुरजरचा न गर्जितन |
नाम्भोदैः सततगतैर्गवाक्षधूपाः प्राप्तापि ब्रजति न लक्ष्यतां पुरीयम् ॥२६॥ कल्लोलैरिति--सुधागृहाणि जलधेः कल्लोलेकालकाभिर्न व्यज्यन्ते, छ ? इह अस्यां नगर्याम् । तथा न व्यध्यन्ते प्रकाश्यन्ते, के १ मुरजरवाः मृदङ्ग वनयः, कैग ? गर्जितेन मम वनिना । तथा न व्यज्यन्ते गवाक्षधूपाः, कैः ? सततगतैरनवरतप्रयातरम्भोदैः, अतश्वासाचियं पुरी लङ्का द्वारवती च लभ्यतां ज्ञेयत्वं न ब्रजति, कथम्भूता सती १ प्राप्तापि शातापि । 'प्राप्नोति' क्रियाया ज्ञानार्थत्वं धातूनामनेकार्थत्वात् ॥ २६ ॥
अन्यथ-राजन् ! त्वं समुन्नताम्भोजकुलाभिनन्द्यां, विद्याधराणामधिवासभूमि द्वारकान्ता परेभ्यः अहिता इमां लङ्का न पश्यसि ?
है रावण ! तुम इस लंकाको नहीं देखते हो? जो प्रतिष्टित राक्षसचंशियोंके द्वारा अभिनन्दनीय है। विद्याओंके धारकोंकी निवासभूमि है, गोपुगेसे सुशोभित है तथा शत्रुओंक लिए अनिष्टकारी है।
राजन् स्वं, परेभ्यः अलं, खलु सीमां, कामहिता, भोजकुलाभिनन्यां, विद्याधराणामधिवासभूमि ना द्वारकां पश्य ।
हे धर्मगज ! आप सामने स्थित द्वारकाको देखें, यह शत्रुओंके लिए चुनौती है, गजपुरियोंकी अन्तिम सीमा है, निवासकी कामनाकं लिए. इष्ट है, यादवकुलको परम प्रिय है और शास्त्र तथा शास्त्रविद्याओं में प्रवीण लोग यहाँ रहते है ॥२५॥
इस लंका अथवा द्वारकामें चुनासे श्वेत भवन समुद्र की लहरों के कारण नहीं दिखते है, समुद्रफी गर्जनामें नगाड़ोंकी आवाज छिप जाती है तथा सदेव वर्तमान मघोंके कारण खिड़कियोंसे निकलता सुगन्धित धुआँ भी अदृश्य हो जाता है। इस प्रकार सामने रहनेपर भी यह नगरी दिखती नहीं है ॥२६॥
१. उपजातिवृत्तम् , लक्षणाच-"अनन्तरोदारितलपमभाजौ पादा यदीयायुपजातयस्ता:" (० २० ३।३२) । २. प्राप्नोति क्रियायाः कथं ज्ञानार्थवम् ? धातूनामनेकार्थत्वाल्लोकतः सिद्धम् । यथा स्वदीयं चितं प्राप्तमिस्यन्न ज्ञातमिति भावः-१०, २० । प्रहर्पिणीवृत्तम् ।
२०
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् धीरन्तुं गां गत्वा स यस्यामरस्य धीरं तुङ्गाङ्गत्वाच्छ्यिो वञ्चति द्याम् ।। रिक्तः स्वर्गणाकारि मानोऽज्ञकेन साम्यं किं सोऽस्या याति मानोज्ञकन ॥२७॥
धीरिति-यस्यामरस्य रन्तुं कीडितुं धीर्बुद्धिः प्रवर्तते । किं कृत्वा ? अस्या नगर्या गां भूमिं गत्वा, । अतएव वञ्चति त्यजति । कोसौ ? सोऽमरो देवः। काम् ? द्यां स्वर्गम् । कयं यथा धीरं निःक्षोभम् ।
कस्मात् ? तुङ्गाङ्गत्वात् स्पीतावयवस्वात् , कस्याः १ श्रियः शोभायाः, कस्याः १ अस्या नगयी इति सम्बन्धः । अतोऽकारि कृतः । कोऽसौ ? मानोऽभिमानः । केन कर्ता ! स्वर्गेण । कथम्भूतः ? रिक्तः शुन्यो वृयेत्यर्थः । कथम्भूतेन स्वर्गेण ? अशकेन मूहेन, अतएव किं यात्यपि तु न याति । कोऽसौ ! सः स्वर्गः, किम् ? साम्यं तुलाम् , केन हेतुना ? मानोशकेन मनोहरत्वेन, कस्याः १ अस्या नगर्याः लङ्काया द्वारवत्याश्चेति ।। २७ ॥
अस्याम्बुधेर्यातनिवृत्तमार्गे पुजैः स्थिता पे मणिशक्तिशङ्खाः ।
तथा त एवाये निवेशनेऽपि स्थिता इवान्तवाहिरप्यमुष्याः ॥२८॥ अस्येति-यातनिवृत्तमार्ग गतागतपृथिव्यां पुजै राशिभिः अस्याम् धेः ये मणिशक्तिशङ्खयः स्थितास्तथा तेनैव प्रकारेण हे आर्य स्वामिन् स्थिता इव भान्ति । के १ त एव मणिशुक्तिदाङ्खाः। छ ? निवेशनेऽपि राशिरचनायामपि । कथम् ? अन्तः मध्यप्रदेशे यहिरपि बाह्यप्रदेशे । कस्याः १ अमुख्या अस्या नगा इति ॥२८॥
यस्याः समीपेऽम्बुनिधिनिषण्णो रत्नैः स्फुटं भोजनभाजनानि |
स्त्रियश्च देवाप्सरसां सहश्यः किं वयतेऽस्या विभवो नगयोः ॥२९॥ यस्या सि-यतो यस्था नगर्याः समा अधुनिधिः समुद्र निषाणः स्थितोऽत एवास्यां भोजनभाजनानि स्थालकादीनि स्फुटं प्रव्यक्तं रत्नैः माणिस्यादिभिः विद्यन्ते | यतश्च स्त्रियः देवाप्सरसाममराङ्गनानां सदृश्यस्तुल्याः विद्यन्ते । अतः कारणादस्या नगर्या विभवः सम्पत् किं वय॑ते स्तूयते ॥२९॥
अत्र समेता मृदुरसमेता भृकुटिलास्याः सरकुटिलास्याः ।
भूप रमन्ते खनुपरमं वे बेगमनेन व्यभिगमनेन ॥३०॥ अत्रेति-हे भूप रावण युधिष्ठिर च अत्र अस्यां नगर्या मृदुरसं माधुर्यरसं यथा हि स्फुटमनुपरममनवरतं वेगं शीघ्रमेताः कामिन्यः रमन्ते क्रीडन्ति | कैन हेतुना ? ते तवानेन व्यभिगमनेन सम्मुखगमनेन । कथ. म्भूताः १ मिलिताः, पुनः भ्रकुटिलास्याः भूभङ्गकुटिलाननाः । पुनः स्मरकुटिलास्याः स्मरन्य कुटिः गृहं लास्यं नृत्यं यासां ताः ||३०||
जिस देवको इस नगरीकी भूमिपर आकर रहनेकी इच्छा होती है वह विपुल लक्ष्मीके भंडार स्वर्गको भी निसंकोच भावसे छोड़ देता है। मूर्ख स्वर्ग भी व्यर्थका अभिमान करता है क्योंकि मनोहरतामें वह इस पुरी (लंका या द्वारका) की समानता करता है क्या? अर्थात् नहीं ॥२७॥
हे आर्य ! इसके बाजारों (आयातनिर्यात मागों) में जिस प्रकार समुद्रके मणि, मोती और सीप ढेरॉके ढेर पड़े हैं उसी प्रकार इसके भवनों में भी ये सथ भरे हैं। अर्थात् इसका थाहर भीतर के समान है ॥२८॥
इस लंका और द्वारकाके पास समुद्र फैला है अतपब इसमें भोजनके बर्तन भी रत्नोंके बने हैं। इसकी स्त्रियाँ भी देवोंकी अप्सराओके समान है। अतएव इसके वैभवका क्या वर्णन किया जाय ॥२९॥
हे राजन् ! टेढ़ी-टेढ़ी भ्रुकुटियुक्त मुखधारिणी, कामदेवके निवास समान नृत्यकारिणी एकत्रित ये स्त्रियाँ आपके इस शुभागमनके कारण लगातार ही मृदु और सरस रमणको शीघ्रतासे कर रही हैं ॥३०॥
१. उपजातिवृत्तम् । २. अत्र मौफिकमालावृत्तम्-तल्लक्षणञ्च "मौक्तिकमाला यदि भतनाद् गौ" (बृ. र. ३५४४) ।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५५
अष्टमः सर्गः
कामपरीता मधुविपरीता भूमिप कान्ता स्फुरदलकान्ता । काप्यनुगेयं लयमनुगेयं गायति मत्ता कृतरतिमत्ता ॥ ३१ ॥
कामीति - हे भूमिप ! इयं कापि कान्ता भामिनी गायति । कथम्भूता सती ? लयं द्रुतमध्यविलम्बितरूपमनुगाऽनुगच्छन्ती । कथम्भूतं लयम् ? अनुगेयं गेयस्यानु पश्चादनुगेयम् । कथम्भूता ! मत्ता पुनः कृतरतिमा विद्दितसम्भोगवत्ता पुनः का विपरीता कामकवेष्टिता पनः मधुविपरीता मधुना मद्येन विपरीता आचारेभ्यः प्रच्या चित्ता, बिली भूतेत्यर्थः । पुनः स्फुरदलकान्ता दीप्यमान केशाना ||३१||
चादयितारं प्रियदयितारं बाङ्मुखरा गाहितमुखरागा ।
तं बहुधा तु क्रमबहुधातु क्ष्माधिप हित्वाभिपतति हि त्वा ||३२||
वादयितारमिति - हे श्माधिप भूपते ! प्रियदयिता प्रिया चासौ दयिता च प्रिपदयिता सस्नेहकामिनी स्वा भवन्तमभिपतति सम्मुखमायाति । कथम् १हिं स्फुटम् । किं कृत्वा तं चादयितारं चतुविधवाद्यस्य प्रकटवितारं हित्वा परित्यज्य | कथम् ? बहुधा बहुप्रकारम् । कथम् १ यथा भवति क्रमबहुधातु क्रमेण परिपाया बहवो धातवो व्यञ्जनधातुप्रभृतयो यस्मिन्वादनकर्मणि तत्तथोक्तम् । एतेन चीणादिवादनं व्याख्यातम् । कथम् ? तु पुनः । पुनः कथम्भूता सती ? वाद मुखरा वचनवाचाला । कथम् ? अरमत्यर्थम् । पुनः कथम्भूता ? गाहितमुखरागा गाहितो व्यालीडितो मुत्रे रागस्ताम्बूलादिजनितधर्मो यया सा तथोक्ता ||३२|| मङ्गलयुक्तथा मृदुगंलयुक्त्या कोऽप्यनृशंसं परमनृशंसम् ।
लोक उदारः सहसुतदारस्त्वामभियातिस्थिरमभियाति ||३३||
मङ्गलेति कोऽपि लोक वां भवन्तमभियाति सम्मुखमागच्छति । कथम्भूतो लोकः ? मृदुगल: कलकण्ठः । कया ! उत्तया निर्वचनेन । कल्याः १ मङ्गलयुक्त्तयाः कल्याणघटनायाः । पुनः कथम्भूतः १ उदारः । पुनः सहसुतदारः । कथम्भूतं त्वाम् ? अतिस्थिरं निःक्षोभप्रकृतिं पुनः अनृशंसं दयालु पुनः परमन्नृशंसं परमा उत्कृष्टा नृभ्यो नरेभ्यः दशंसा स्तुतिर्यस्य तमथवा परमाश्च ते नरश्च परमनरः परमनृषु शंसा यत्य यस्माद्वा स तथोक्तस्तम् ? कया ? अभिया निःशङ्कतया ॥ ३३ ॥
इत्यर्जुनोक्तां मनसा प्रसन्नः स्वसुः स्थिराभिः प्रतिमान्यवाग्भिः ।
राजा पुरं प्रापदरातिचारविद्रावणो धर्मकृतोद्भवस्ताम् ||३४||
इतीति- राजा रावणः तां लोकप्रसिद्धां लङ्कां पुरं पुरीं प्रापत् । कथम्भूताम् ? इति पूर्वोक्तप्रकारेण ?
उक्तां स्तवन रूपेण निरूपिताम् 1 काभिः ? स्थिराभिः विचारसहाभिः प्रमाणक्षोदाक्षुष्णाभिः स्वसुः भगिन्याः
늅 भूपाल ! यह कोई मदोन्मत्त सुन्दरी गीतको गाती है और उसकी लयके अनुसार ही चलती ( नाचती ) है । यह कामियोंसे घिरी है, मदिरा पान के कारण सदाचार-विमुख है, इसके बाल बिखरे हुए हैं और रतिके कारण पागल हो रही है ॥ ३१ ॥
हे पृथ्वीपति ! सुखको ताम्बूलकी लालीसे गंगे, अत्यन्त वाचाल यह प्यारी स्त्री नाना प्रकार के अनेक धातुओंसे निर्मित ( अत्यन्त वीर्यवान् ) चारों प्रकारके वाजोंका बजानेपालोको छोड़कर आपके सामने चली आ रही है ॥ ३२ ॥
कोमल कण्टध्वनिले कल्याण कामना करते हुए ये कोई उदार लोग निडर होकर अपनी स्त्री तथा बच्चों के साथ मनुष्येतरां ( राक्षसों ) के स्तुत्य तथा अत्यन्त रुद्र ( युधिष्ठिरके पक्ष में दयालु तथा श्रेष्ठ मनुष्यों द्वारा प्रशंसित ) तथा अत्यन्त दृढ़ आपकी तरफ आ रहे हैं ॥ ३३ ॥
वहिनकी विचार युक्त तथा माननीय बातांके साथ अत्यन्त सरल मनके कारण प्रसन्न,
१. अनुपश्चाद्गेयं यस्य (तम् ) - ० | २. "भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि" इति रोर्यादेशे 'पोर्लघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य' इति लघुच्चारणयकारादेशे मृदुगलयुक्तयेति ।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
प्रतिमान्यवाग्भिः प्रशस्यवचनैः, फयम्भूतो राजा १ मनसा चेतसा प्रसन्नः स्वच्छः, कयम्भूतेन मनसा ! अर्जुना आ सामस्त्येन ऋजु अर्जु तेन अर्जुना अकुटिलेन समाजसेनेत्यर्थः । कथम्भूतः ? अतिचारविच्छ. त्रुचेष्टोपायज्ञाता, पुनः कथम्भूतः १ धर्मकृतोद्भवः पुण्यविहितविभवः ।
भारतीयः-राजा धर्मकृतोद्भवः धर्मण पाण्डुना कृत उद्भय उत्पत्तिर्यस्य सः युधिष्ठिरः ता पुरं पुरी द्वारकां प्रापत् । कथम्भूतां पुरम् ? इति उक्त प्रकारेण अर्जुनोक्ता धनञ्जयोपदिष्टाम् , काभिः ! प्रतिमान्यवाग्भिः शिप्टेष्टाभि रतीभिः, कथम्भूतो राजा ? स्वमुः शोभना असवः प्राणा यस्य स तथोक्तः, अजव्य इत्यर्थः । पुनमनशा प्रसन्नः पुनररातिचारविद्रावणः रिपुचेष्टानाशकः' ||३४||
मनोभिरामग्रमदां विशन्ती क्षणं निशायोपवने सुदृष्टिम् ।
उत्कण्ठमा गमितोनतात्मा प्रचक्रमेऽभ्यन्तरमेव गन्तुम् ॥३५।। मन इति-सी रावण अग्यन्तरं मध्यप्रदेश गन्तुं प्रचना में प्रारब्धवान् । कथम्भूतः ? अनतात्मा:जि. न्द्रियः पुनमत्कण्ठमावमौत्सुक्यं गम्तिः प्रापितः, किं कृत्वा ? उपबने सुदृष्टिं कर्णान्तविश्रान्तलोचना रामप्रभदां सीता निशाय सन्निवेदय, किं कुर्वतीम् ? मनोभिश्चेतोभिः लक्ष्यीकृत्य क्षण मुहूर्त्त विशन्तीं प्रवेटा कुर्वन्तीम् ।
भारतीयः-असौ युधिष्ठिरोऽभ्यन्तरमेव गन्तुं प्रचक्रमे । कथम्भूतः ? नतारमा जितेन्द्रियः पुनरुत्कण्ठभावमूर्ध्वग्रीवत्वं गमितः, किं कूल्ला ? उपबने क्षणमभिरामप्रमदामभिरामस्थार्जुनस्य प्रमदां पनी द्रौपदी निशायोपवेश्य, किं कुर्वन्तीम् ? भगोरिशन्ती अथवा हे मनोभिगम श्रेणिक प्रचक्रामेऽभ्यन्तरमेव गन्तुं राजा | कि कृत्वा ! निरः, कार ? साहिद, उपदो, कार का । किं कुर्वन्तीम् ? विशन्तीम् , किम् ? उपवनम् अर्थवशालब्धमिति सम्बन्धः । कथम्भूतम् ? प्रमदां प्रकृष्टो मदः इमिदं पश्यामीत्याकांक्षा लक्षणो यस्याः सा तां तधोक्तामन्यत्तल्यम् ॥३५॥
शत्रुओंको प्रगतिका विनाशक तथा धर्मकी अवज्ञाकारक राजा रावण उक्त प्रकारसे वर्णित प्रसिद्ध लंकापुरीमें पहुँच गया था।
अन्वय-स्थिराभिः प्रतिमान्यचाग्भिः अर्जनोक्तां तां पुरं मनसा प्रसन्नः, स्वसुः भरातिचारविद्रावणः धर्मकृतोद्भवः राजा प्रापत् ।
अत्यन्त निर्मल चित्त, पुण्यात्मा, शत्रुओंके गुमच से परे तथा धर्मकी मर्यादाके संस्थापक राजा युधिष्टिरने उक्त प्रकारसे स्पष्ट तथा शिष्ट जनोचित वचनों द्वारा वर्णिन उस विख्यात द्वारकापुरी में प्रवेश किया था ॥३४॥
अन्वय-मनोभिः क्षणं विशन्ती सुदृष्टिम् रामग्रमदां इपवने निशाय उत्कण्ठभावं गमित्तः, भनतारमा, भभ्यन्तरमेघ गन्तुं प्रचक्रमे ।
मनसे ही अपने भले समयको सोचती, सम्यक दर्शनधारिणी, रामकी पानीको उपचनमें बैठाकर अत्यन्त उत्कषित, आत्म-नियन्त्रण हीन रावणने लंकाके भीतर चलना प्रारम्भ किया था।
__ अन्वय-विशन्ती सुरष्टिम् मनोभिरामप्रमदा क्षणं उपवने निशाय, उत्कण्ठभावं गमितः नतारमा...।
साथ साथ पुरमें प्रवेश करती मनमोहिनी सुन्दर नेत्रवती अर्जुनकी पत्नीको क्षणभरके लिए उपवनमें छोड़कर (शिरको ऊपर उठाये) गर्दनको सीधा किये चलते आत्मजेता युधिष्ठिर नगरके भीतर चले जा रहे थे ॥३५॥
1. श्लेपः-य०, ना । उपजातिवृतम् । २. पुण्यविनाशायोत्पन्न:-ब०, ना। एतन्मतेऽधर्मकृतोभवः इतिच्छेदः । ३. पाघवपक्षे सन्धिश्चिन्त्यः । ४. उपेन्द्रघनावृतम् । लक्षणच-"उपेन्द्रवज्रा-जतजाम्ततो गौ।" (वृ. २० ३०१)।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५७
अष्टमः सर्गः विदेहसङ्कल्पजसम्भवायाः प्रीतेस्तदालोकसम्मुत्सुकाभिः ।
द्रागित्यभीये पुरसुन्दरीभिः सरोदसीतापहतो कृतार्थः ।।३६॥ विदेति-अभीय अभिगतः, कोऽसौ कर्मतापन्नः १ रावणः । काभिः कत्रीभिः ? पुरसुन्दरीभिः १ कथम् ! द्राय शीभभ , इतिशब्दो वक्ष्यमाणापेक्ष्यः, कथम्भूतः ! कृतार्थ; कृतकृत्यमात्मानं मन्यमानः, क ? सरोदर्मातापहती रोदेन रोदनेन सद्द वर्तमाना सरोदा सरोदा चासौ सीता सरोदसीता तस्था अपहृतावपहरणे, कथ. म्भूताभिः पुरसुन्दरीभिः ? तदालोकसमुल्सुकाभिः सीतावलोकनसमुस्कण्टिताभिः | कस्याः सकाशात् ? प्रीतेः स्नेहात् , कथम्भूतायाः ? विदेहसङ्कल्पजसम्भवायाः विदेहस्य साहल्याजाता विदेहसङ्कल्पजा तस्याः सकाशासम्भन्ना बस्यास्तस्याः।
भारतीयः-असौ युधिष्ठिरः पुरसुन्दरीभिरभीये अभियातः । कथम्भूतः ? कृतार्थः निष्ठिताः, छ ? रोदसीतापहती रोदस्योः द्यावाभूम्योस्तापरणे, कथम्भूताभिः पुरसुन्दरीभिः ? तदालोकसमुत्सुकामिः युधिष्ठिरावलोकनोत्कण्ठिताभिः, कस्याः ? प्रीतः । कथम्भूतायाः प्रीतेः ? विदेहसङ्कल्पजसम्भवायाः विगतो देहो यस्य स विदेहोऽनङ्गः सङ्कल्पान्मानसिकपरिणामाज्जातः सङ्कल्पजः विदेहश्चासौ सङ्कल्पजश्च विदेहसङ्कल्पजस्तस्मात्सम्भव उत्पत्तिर्यस्यास्तस्याः, प्रीतेः सकाशात् , उक्तव-"जाने सङ्कल्पतो मूलं काम कामस्य जायते । तमाशादपि तमाशः कथ्यते मुनिपुङ्गवैरिति ॥ ३६ ।।
श्लथं द्विरेफाकुलपुष्पभारं रुद्धा व्रजन्ती चिद्रं करेण ।
पुङ्खानुपुर्ड्स मदर एकानुपावलीक करानपराभूत् ।। ३.७॥ समिति-पराऽन्या काचित्कामिनी मदनेन कन्दर्पण मुक्तान् शरान् उत्पाटयन्तीव अभूदजनिष्ट । कथं मुक्तान ! एखानुपुङ्ख पुङ्खस्यानु पश्चात् पुझं यस्मिन्मोचनकर्मणि तत्पुङ्खानुपुङ्ख पिच्छानुपिच्छमित्यर्थः । किं कुर्वन्ती ? इलथं शिथिलं चिहुरं केशपाशं करेण कवा निरुध्य वजन्ती गच्छन्ती । कथम्भूत चिकुरम ? द्विरेफाकुल पुष्पभारं द्विरभ्रमरैराकुलो व्याप्तः पुष्पभारो यत्र तम् || ३७ ।।
अन्यात्मदर्श मुखमीक्षमाणा तथैव हस्तेन तमुद्वहन्ती ।
किं मे मुखं रम्यमुतेन्दुरेवं तं स्पर्धया दर्शयितुं गतेव ॥३८॥ अन्यति--अन्या काचित्कामिनी गता। किं कमिव ! दर्शयितुमिव । किमेवम् ? किं स्यान्मुवं रग्यं निष्कलङ्कतया कान्तिमन् ? कस्याः १ मे मम, उताहो इन्दुः किं रम्यः स्यादिति, कं ददायितुभिव गता ?
राजा विरेहके संकल्पमाप्रसे उत्पन्न सीताकी प्रीतिके कारण उसे देखने के लिए लालायित लंकापुरीकी सुन्दरियोंके द्वारा रोती-तड़पती सीताका अपहरण करने में ही संतुष्ट गवण तुरन्त घेर लिया गया था ।
शरीरहीन तथापि कल्पना मात्रसे उबुद्ध कामकी प्रीतिके कारण राजा युधिष्टिरको देखने के लिए उत्सुक द्वारकाकी कामिनियों के द्वारा इस लोक परलोकके कष्ट दूर करने में ही अपनी सफलताको माननेवाला यह धर्मराज तुरन्त घेर लिया गया था ॥३६॥
ढीले पड़े केश-पाश तथा उसमें गुंथे फूलों और उनपर गूंजते भौरोंको एक हादसे सम्हालते सम्हालते साथ चलती कोई स्त्री ऐसी लगती थी मानो कामदेवके द्वारा पुखानुपुत्र रूपसे छोड़े गये वाणों (फूलों )को उखाड़ती जा रही है ॥३७॥
दूसरी स्त्री दर्पणमें मुख देखते-देखते ही उसे उसीप्रकारसे हाथमें लिये चल दी थी। 1. श्लेषः-०, ना।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् तं राजानम् , कया हेतुभूतया ! स्पर्धया, किं कुर्वन्ती सती ? उद्वहन्ती । कम् ? तमात्मदर्शम् , केन कृत्वा ? इस्तेन | कथम् ? तथैव तेनैव गमनप्रकारेण, किं कुर्वाणोद्वहन्ती ? ईक्षमाणा पश्यन्ती, किम् ? तन्मुखम् , क ? आदर्श मुकुरुन्दे' ।। ३८ ॥
महानिवेश कुभारमेका भूत्वा कराभ्यां त्वरितं जिहाना ।
उपर्यु पयुच्छ्वसिता नताङ्गी शून्यं तरन्तीव घटद्वयेन ॥३९॥ ___ महेति-नताङ्गी काचिदेका कामिनी उच्छवसिता ! कथम् ? उपर्युपरि । किं कुर्वन्तीवोत्प्रेक्षिता ? तरन्तीय, केन कृत्वा ? घटद्वयेन, कथम् ? शून्यम् एवमेव, किं कुर्वाणा सती १ बरितं द्रुतं जिहाना गच्छन्ती सती, किं कृत्वा ? महानिवेशं घनपीनोन्नतस्थितिमन्तं कुचभारं कराभ्यां धृखा ॥३९॥
विधूय लीलाम्बुजमुत्पलाशं निनन्नलिं कर्णगमुत्पलाशम् । _प्रेजेऽङ्गनौंघः सुरयो निजेन हावेन गच्छन्सुरयोनिजेन ॥४०॥ विधूयेति-अङ्गनौधः नितम्बिनीसमूहः मुरयोनिजेन सुराणां योनिः सुरयोनिः सुरयोनेजर्जातः सुरयोनिजस्तेनामरनरसम्भवेन निजेनात्मीयेन हावेन मुखविकारेण हेतुना प्रेजे रेजे । किं कुर्वन् ! गच्छन् , कथम्भूतः ? सुरयो अतिवेगः, किं कुर्वन् ? उत्पलाशमुद्गतपत्रं व्याकोशमित्यर्थः । लीलयम्बुजं क्रीडाकमलं विधूय कम्पयित्वा कर्णगं श्रवणस्थितम् उत्पलाशमुत्पले आशा वाञ्छा यस्य तम् अलि भ्रमर निमन्निवारयनिति ॥४०॥
दष्टाधरं तिष्ठतु सम्प्रहारः कस्याश्चिदास्तां कटकोपवेशः।
सर्वान्वजन्त्यास्त्वरितं भुजस्य विक्षेपमात्रं विवशीचकार ॥४१॥ दष्टेति-सम्प्रहारः परस्परताडनम् , “अत्र सम्भोगो व्यज्यते, तल्लक्षणाऽर्थाभिधायकत्वात् । यथा कुन्ताः प्रविशन्तीति प्रयोगे कुन्त घराः पुरुपा गृह्यन्ते । कथं यथा भवति ? दाधरम् , तथाऽस्ताम् , कोऽसौ ? कटकोपवेशोऽव्यक्तकरणरवः। यतो विवशीचकार विलीचके, किं तत् कत्त? कस्याश्चित्कामिन्याः भुजत्य इस्तस्य विक्षेपमात्रमान्दोलनमात्रम् ? कान्वशोचकार ? सर्वान्समस्ताअनान् , किं कुर्वन्त्याः ? शीघ्रं व्रजन्त्याः गच्छन्त्याः ||४||
अंसान्तविश्रान्तकुचान्तचक्रमाश्लिष्य कान्तेन तमर्धपीतम् ।
बिम्बोष्टमाक्षिप्य निमीलिताक्षं सीत्कारपूर्व कुलटाम्यधावत् ।।४२।। अंसान्तेति-अभ्यधावदभिजगाम | काऽसौ ? कुलटा स्वैरिणी । किं कृत्वा ? आक्षिप्याकृष्य । कम् १ तं बिम्बोष्ठम् , कथं यथा भवति ? सीत्कारपूर्वम् , कथम्भूतं नुष्टम् ( बिम्बोष्ठम् ) १ अर्द्धपीतम् , मानो किसी राजाको यही दिखाने गयी थी कि मेरा मुख सुन्दर है अथवा यह चन्द्रमा सुन्दर है ॥३८॥ .
कुच तथा यौवन भारसे झुकी, उत्तरोत्तर अधिक बेगसे साँस लेती कोई एक स्त्री अपने बड़े-बड़े कुचोंके भारको दोनों हार्थोसे सम्हाले तेजीसे आगे बढ़ती जाती पे.सी लगती थी मानो दो कलशोंके सहारे वह आकाशमें तैर रही है ॥३९॥
खिली पंखुड़ियोंसे सुन्दर लीला-कमलको हिलाकर कान पर लगे कमलके लोभी भोरेको मारती हुई वेगसे बढ़ती कामिनियोंके झुण्डने अप्सराओं में सुलम अपने हावभावके द्वारा अद्भुत छटा दिखायी थी ॥४०॥
परस्पर ओष्ठ काटकर सम्प्रहारकी कथा ही क्या है? किसीके कंकणकी ध्वनि भी बहुत बड़ा उद्दीपक है। इस समय तो किसी जाती हुई कामिनीका वेगसे हाथका हिला देना मात्र सबको विवश कर देता था ॥४१॥
स्तनके चूचुकको कंधेके ऊपर रखते हुए गाढ़ आलिंगन करके प्रेमीके द्वारा आधा १. इन्दवनावृत्तम् । २. टीकेयमन्यवमुख्यप्रतिमवलम्ब्य दत्ता ।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५९
अष्टमः सर्गः
केन ? कान्तेन बल्लभेन, क्रथं यथा भवति ? निमीलिताक्षं सङ्कुचितलोचनम्, किं कृत्वा ? पूर्वमाश्लिष्यालिङ्ग्य, कथं यथा भवति ? अंसान्तविश्रान्तकुचान्तचकं स्कन्धमध्योपविष्टस्तन चूचुकमिति शेषः || ४२ ||
आकृष्य हस्तं विधृतं वरित्रा काचिन्भवोडा सहसाऽभ्ययासीत् । प्रियानुबद्धं पटमालिखन्ती हित्वागमत्प्रोषितभर्च कान्या ||४३||
आकृष्येति काचिन्नोहा नवपरिणीता स्त्री सहसा शीघ्रमभ्ययासीदभिगता । किं कृत्वा ? चरित्रा वरेण विधृतं गृहीतं हस्तं करमाकृष्याक्षिप्य । तथा अन्या काचित्योषितभर्तृका अगमत् । किं कुर्वन्ती सती, पटमालिखन्ती सती, कथम्भूतं पटम् १ मियानुबद्धम् किं कृत्वा ? हित्वा मुक्तचा, कम् १ तं प्रियानुबद्धं पदमिति शेषः ॥४३॥
उन्मील्य रूपं सह सामि ताभिस्तत्तूलिकाभिः सहसा मिताभिः । वर्णोत्करैश्चित्रकरः स्मयातिक्रान्तोऽखिलश्चित्रकरः स्म याति ॥ ४४ ॥
जन्मीत्येति-वर्णोत्करैः हिङ्गुलवरितान्यदिरञ्जनद्रव्यसमूरैश्चित्रकरः आश्चर्यकर्त्ता अखिल : समस्तचित्रकरश्चित्रशिल्पी सहसा द्रुतमभियाति स्माभिजगाम 1 किं कृत्वा ? साम्य रूपमुन्मील्य विरचय्य, कथममियाति स्म ? मिताभिः स्तोकाभिस्ताभिर्लोकप्रसिद्धाभिस्तत्सूलिका मिचित्रलेखनीभिः सह सार्द्धम्, कथम्भूतश्चित्रकरः ? स्मयातिक्रान्तः गर्वपर्वताधिरूढः । अत्र कौतुकरसरसिकतया विमनस्कत्वमभिहितम् ॥ ४४ ॥ वक्रोक्तिमुत्प्रेक्षणमङ्गन्धं श्लेषं स्मरन्कृत्यवलाविमूढः ।
द्विसन्धिचिन्ताकुलितो विषण्णः कविर्वियोगीय जनोऽभ्यर्पत् ||४५ ||
,
वक्रेति कविर्जनः विषण्णः विमनस्कः सन्नम्य सर्पदभिययौ । कथम्भूतः ? द्विसन्धिचिन्ताकुलितो द्वयोः कथयोर्द्वयोः पदयोर्वा सन्धिर्द्विसन्धिस्तत्र या चिन्ता तस्यां तया वा आकुलितः, पुनः कृत्यच यतिमूढः कार्यसामर्थ्यानभिज्ञः, किं कुर्वन् ! स्मरतोविषयी कुर्वन् किं किम् ? वक्रोक्ति मलङ्कारविशेषम्, तथोत्प्रेक्षणमुत्प्रेक्षालङ्कारम्, तथाऽङ्गबन्धं षोडशदलपद्मादिसम्बन्धं तथा श्लेष स्लेपारङ्कारम् । उपमार्थः प्रकल्प्यते । क इव १ वियोगीव यथा विरहीजनोऽभिसर्पति । कथम्भूतः ? विषष्णः पुनः कथम्भूतः ! द्विसन्धिचिन्ताकुलितः द्वयोर्भार्ययोः सन्धिः परस्परमेलनं तत्र चिन्तयाकुलितः, पुनरबलातिमूढोऽबले भार्य अतिमूढे यस्य सः, पुनः कृती कृतमस्यास्तीति कृती प्रतिज्ञावान् पुनः किं कुर्वन् ? वक्रोक्ति कुटिल्लवाचं तथोत्प्रेक्षणं रमणीय कटाक्षं पिये गये ओठको सी-सी करते हुए आँखें विना खोले ही खोंचकर कुलटा राजमार्ग पर चल पड़ी थी ॥४२॥
कोई नव-विवाहिता युक्ती वरके द्वारा पकड़े गये हाथको एकाएक खींचकर राजाको देखने चल पड़ी थी । पतिके विदेश जानेसे विरहिणी दूसरी स्त्री बैठकर पति-सम्बन्धी चित्र बना रही थी वह भी उसे छोड़कर चल पड़ी थी ||४३||
परिपूर्ण तथा रंगों के सम्मेलन-द्वारा अद्भुत चित्रोंका निर्माता अतएव अहंकारके पर्वत पर बैठा चित्रकार भी कुछ गिनी-चुनी कृचियोंसे आधे रूपको खींचकर सहसा ही राजाकी शोभायात्रामें चल पड़ा था ॥४४॥
वक्रोक्ति उत्प्रेक्षादि अर्थालंकार, कमल मुरजादि बन्धों, श्लेषोंको सोचता हुआ, द्व्यर्थक बनानेके लिए चिन्तित, रचनाके लिए आवश्यक बल से अनभिज्ञ अतएव उदासीन कवि भी वियोगी के समान लोगों के पीछे हो लिया था। [ वियोगी भी व्यंगों में बोलता है, कटाक्ष फेंकता हैं, ऋजु चिपरीत आदि शरीर बन्ध करता है तथा आलिंगनको याद करता है
१. उपजातिवृत्तम् ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् तथाऽङ्गबन्ध चतुःषष्टिभेदं शरीरबन्धमृनावपरीतवृत्तदण्डकार्द्धदण्डकप्रभृतिकरणाख्यं तथा श्लेषमालिङ्गनं स्मरन् । ४५||
शालस्य हर्म्यस्य च गोपुरस्य पुरस्य शृङ्गेष्वतिरञ्जनेन |
जनेन दृष्ट्यै निचितेन पूर्वापूर्वाधिरूहासुमतां छलेन ॥४६॥ शालस्थति-भातीति क्रियाया अध्याहारोऽत्र गम्यते । भाति, काऽसौ ? : नगरी, केन ! जनेन लोकेन, कथम्भूतेन ? अतिरसनेनातिशयेनानुरागवता, पुनः, निचितेन सम्भृतेन, कल्यै १ दृष्ट्य राजानं द्रष्टुम् , क ? निचितेन ? शृङ्गेषु शिखरेखु, कस्य कस्य च ? शालस्य प्राकारस्य तथा हर्म्यस्य मन्दिरस्य तथा गोपुरस्य राजद्वारस्य । अत्र जात्यपेक्षय कवचनं यतो हाणि गोपुराणि बहूनि सन्ति । कस्य सम्बन्धित्वेन ? पुरस्येति सम्बन्धः । इदानीमुत्प्रेक्षा-वेत्यक्षरमुत्प्रेक्षाया गम्यते । तेनायमर्थ:-कबोप्रेश्चिता ? अपूर्वा परिव, क्रयम्भूता ? अधिरूढा, केन ? छलेन व्याजेन, केषाम् ? असुमतां प्राणिनामिति ।।४६||
दिदृक्षमाणस्य जनस्य तस्मिन्कालेऽखिलानि क्षणमिन्द्रियाणि ।
तं नेत्रमात्रस्थितिमेव जग्मुः स्वस्थाननिगमिवागतानि ॥४७॥ दिदृक्षमाणस्येति-तस्मिन्काले राशो नगरप्रवेशसमये क्षणं मुहूर्तमेकं तं राजानं दिदृक्षमाणस्स द्रष्टुमिच्छोर्जनस्य अखिलानीन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि नेत्रमात्रस्थितिमेव जग्मुः, कानीयोत्प्रेक्षितानि ? स्वस्थाननिर्वेग मात्मीयवसतेवैराग्यमिवागतानि ॥४७॥
स धृतव्यजनेन जनेन पुरं परमङ्गलमङ्गलघोपकृता ।
नगरीमभिरजयता जयतादिति वाक्यविभागमितो गमितः ॥४८॥ स धृतेति-स राजा पुरी नगरी मितः प्राप्तः । कथम्भूतः सन् ? वाक्यविभागं वचनविषयं गमितो नीतः । कमिति ? जयतादिति नगरनागरिकलोकं रक्षन् सन् सर्वोत्कर्षेण वर्तस्वेति, केन कळ ? जनेन, किं कुर्वता ? अभिरजयता अयं राजा चिरायुर्भूयादित्यनुरागविषयं नयता, काम् ? नगरीम् , कयाभूतेन ! परमङ्गलमङ्गलघोषकता परं केवलं मङ्गलमेव मङ्गलघोघं करोतीति तेन तथोक्तेन पुनः धृतध्यजनेन गृहीतताटवृन्तेन ॥४८॥
खगोचरं जल्पमधिस्त्रि शृण्वन्संमान्यलङ्कारमणीनिरूप्य ।
हर्म्यस्थकन्योज्झितपुष्पलाजं स राजमार्ग नृपतिः प्रपेदे ॥४९॥ प्रतिक्षा करता है, अनेक व्यभिचारी भावोंके मिलनेसे आकुल रहता है, स्त्रीके लिए पागल होता है तथा दुखी होकर दौड़ता फिरता है ] ॥४५॥
राजा रावण अथवा धर्मराजको देखनेके लिप. नगरके कोठों अथवा उन्नत भवनों अथवा गोपुरोको शिखरोंपर चढ़े अत्यन्त विनादा नागरिकांसे भरे वे नगर ऐसे लगते थे मानो छल करके प्रविष्ट विपक्षियाने पहिलेसे ही उनपर आक्रमण कर दिया है ॥४६॥
राजाको देखने में लीन जनसमूहकी समस्त इन्द्रियाँ अपने-अपने स्थानसे विरक्तकं समान होकर एक क्षणके लिए केवल नेत्र इन्द्रिय रूपसे ही रह गयी थीं ॥४७॥
पूरी नगरीको सब प्रकारसे सजानेवाले, सर्वोत्कृष्ट मंगलका मंगल घोष करनेमें लीन तथा हाथसे बीजना हिलाते हुए नागरिकोंके द्वारा जय-जय घोषपूर्वक स्वागत किया गया राजा नगरमें चला जा रहा था ॥४८॥
१.श्लेष:-ब., मा.। २. निर्वेद-5०, ना.। ३, निर्वेद-१०, २०, ना० । ४. तोटकवृत्तम् । लक्षणन्च "इह तोदकमम्बुधि सैः प्रथितम्" (वृ०२० ३१४९)।
------
-------------
--
-
---------------.--..-------
-
-
---
------
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टमः सर्गः स्वगोचरमिति-स नृपती रायणः राजमार्ग प्रपेदे, कथम्भूतम् ? हयस्थकन्योज्झितपुष्पलाजं इयंस्थाः | सौ बस्थिताः याः कन्यास्ताभिरुज्झितानि पुष्पाणि लाजा आईतण्डुला यत्र तं मन्दिरगतकुमार्युपक्षिसकुसुमजलार्द्रतण्डुलमित्यर्थः । किं कृत्वा ? सम्मान्यलङ्कारमी लङ्कावनरक्षकस्य वनमालिकाख्यस्य भार्याम् अथवा (लङ्का ) नगरोसंज्ञा सम्मान्या चासौ लङ्का च सम्मान्यलका सम्मान्यल व रमणी सम्मान्यलङ्कारमणी तां तथोक्ताम् , किं कुर्वन् ? स्वगोवरमात्मविषयम् अधिस्त्रि स्त्रीषु प्रवृत्तं जल्पं शृण्वन्नाकर्णयन् ।
भारतीयः-स नृपतिर्युधिष्ठिरः राजमार्ग प्रपेदे, किं कृत्वा ? पूर्व निरूप्य, कान् ? सम्मान्यलङ्कारमणीन् सम्मानिनः सम्यक् प्रकारेण मां लक्ष्मीमनन्ति प्राणन्ति पुष्टिं नयन्तीति सम्मानिनः अलङ्कारभूता मणयः सम्मानिनश्च तेऽलङ्कारमणया सम्मान्य लङ्कारमणयस्तान् अथवाऽलङ्कारे मणयो येषां ते तान् , सम्मान्यलङ्कारमणीन् लक्ष्मीवतः प्रधानपुरुषामित्यर्थः । शेषोऽर्थः प्राग्वत्' ।।४९|
आद्रा बालाश्चिक्षिपुस्तस्य शेषामुच्चैरूडा येन सा धूवरायाः।
आलोकान्तं कीर्तिलक्ष्मीप्रतापैरुच्चै रूहायेन सा धूर्वरायाः ॥५०॥ आमितिबाला मुग्धाः कामिन्य आर्द्रा शेषां तस्य राज्ञः चिक्षिपुः क्षिप्तवन्त्यः । तस्य कस्य । येन राज्ञा वरायाः शोभनाया उर्वरायाः भूमेरुच्चैवाढम् उच्चैः महती सा लोकप्रसिद्धा, धूधुरा ऊदा धृता। कथं यथा भवति ! आलोकान्तं लोकत्रयं यावत् , पुनः कथं यथा भवति ? साधु लोकप्रशंसाविषयत्वात् मनोहारि, कैः कृत्वोढा धूः ? कीर्तिलक्ष्मीप्रतापैः, कथम्भूतेन येन ? रूढायेन अयः शुभावहो विधिः, रूढः जगद्विख्यातोऽयो यस्य तेन ॥५०॥
विभीषणाभ्युन्नतकुम्भकर्णमुख्यैर्महानागबलैयु तेन |
पराक्रमेणेन्द्रजितोद्धतेन प्रत्यभ्युदीये हरिणेक्षणेन ॥५१॥ विभीषणेति-इन्द्रजिता इन्द्रजिदाख्येन पुत्रेण प्रत्यभ्युदीये प्रत्यभ्युत्थितम् । कथम्भूतन ? हरिणक्षन मृगलोचनेन, पुनरुद्धतेन गर्वपर्वताधिरूढेन, पुनः पराक्रमेण परान शत्रून् आक्रमतीति पराक्रमस्तेन पुनः महानागमिव बलं येषां तैः महानागवल्युतेनान्वितेन, कथम्भूतैः ? विभीषणाभ्युन्नतकुम्भकर्णमुख्यः, विभीषणश्चाभ्युन्नत उदयं प्राप्तश्वासौ कुम्भकर्णश्च मुख्यौ प्रधाने येषां तैः ।
भारतीयः-हरिणा नारायणेन ईक्षणेन कृत्वा प्रत्यभ्युदीये । कथम्भूतेन हरिणा ? विभीषणाभ्युन्नतकुम्भकर्णमुख्यैः, विभीषणानि भीष्माणि अभ्युन्नतातुङ्गा कुम्भाश्च कर्णाश्च मुख्यानि च येषां तैस्तथोक्तैर्महा
अपनी परम प्रिय लंकाकी त्रियोंको देखकर रावण अथवा अत्यन्त सम्पत्तिशाली नागरिकोंके मणियुक्त भूपणाधारियोंके अभिवादन स्वीकार करके धर्मराजने अपनेको लेकर स्त्रियोंमें चलती बातें सुनते हुए उस राज-मार्गपर प्रस्थान किया था जिसपर भवनोंके ऊपर बैठी कन्याओंने फूल तथा लावेकी वर्षा की थी ॥४९॥
जो शुभ कार्योंका पोषक है तथा जिसने शेष तथा उर्वग भूमिका वह महान् दायित्व साहसके साथ यश, सम्पत्ति और प्रभुताके द्वारा तीनों लोकोंमें पूर्ण रूपसे धारण किया है उस पर लड़कियोंने आई पूर्णाहुति छोड़ी थी ॥५०॥
महान् नागोंके समान बलशाली विभीषण तथा अत्यन्त ऊँचा कुम्भकर्ण आदि प्रमुखों सहित हरिण समान चंचलनेत्र, शत्रुओंके आक्रामक इन्द्रजीत नामक पुत्रने रावण की अगवानी की थी।
अत्यन्त भयंकर और ऊँचे सविशेष गण्डस्थल तथा कर्णधारी विशाल हाथियोंकी
1. इलेप:-ब., ना० । उपजातिवृत्तम् । २. शालिनीवृत्तम् । लक्षणं हि-"शालिन्युक्ता मतौ तगा गोऽधिलोकैः" (वृ. र० ३।३५)।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् नागवलैः गजसैन्यैर्युतेन, पुनः कथम्भूतेन ! इन्द्रजिता इन्द्रं जयतीति इन्द्रजित्तेन तथोक्तेन, पराक्रमेण हेतुना उद्धतेन सगर्वेण ॥५१||
अत्र स्नुताधिकमनोजवधूतमालपत्रप्रयुक्तकुसुमाञ्जलिसिक्तमूर्तिः ।
अत्रस्नुताधिकमनोजवधूतमालमाल्येन तेन सहितः स्वगृहं विवेश ॥५२॥ ___ अत्रेति-स राजा रावणः गृहं विवेश, कथम्भूतः ? तेनेन्द्रजिता सहितः, क ? अत्रास्मिन्नवसरे, कथम्भूतः ? स्नुताधिकमनोजवधूतमालपत्रप्रयुक्ताकुसुमाञ्जलिसिक्तमूर्तिः, स्नुतेन स्वेदोद्र मेनोपलक्षितोऽधिको मनोजः कन्दपों यासों ताः स्नुताधिकमनोजाः ताश्च ता बध्वश्व ताभिः प्रयुक्तो यः कुसुमाञ्जलिस्तेन सिक्ता मृत्तिर्यस्य सः, कथम्भूतेनेन्द्रजिता ? अत्रस्नुताधिक्रमनोजवधूतमालमाल्येन सनशीलः अनुः, “सिगृधृधृषिभ्यः क्नुः” न बस्नुरत्रस्नुस्तस्य भावो त्रस्नुता तया, अधिकश्चासौ मनोजको निर्भयत्वादधिक मनोवैगस्तेन धूतानि कम्पितानि मालमाख्यानि मालाकुसुमानि यस्य तेन । अत्र युधिष्ठिररावणयोविशेषणे पूर्वोक्त एव बोद्धये ॥५२॥
सुसहायतया सुसहायतया मधुरं मधुरञ्जितयाजितया ।
शमितः शमितः सहितः सहितः प्रतिवासरयासरतिं प्रययौ ॥५३॥ सुसहायतयेति-प्रययौ गतवान् , को सौ ? स राजा, काम् ? प्रतिवासरवासरति प्रतियासरं प्रतिदिन प्रतियास प्रतिमन्दिरं यथा रतिः प्रीतिस्ताम् , कथा भूतः ! २६ सुरुनाता, पुः शमितः शान्तः, पुनः सुसहायतया नियभिचारिमित्रसमूहेन सहितो युक्तः, कथम्भूतया ? सुसहायतया सहायस्य भावः सहायता शोभना सहायता यस्यास्तया मित्रधर्मवत्येत्यर्थः । पुनः मधुरसितया मधुना वसन्तेनाहादितया, कथं यथा भवति ? मधुरमत्यन्तपेशलं पुनः अजितबा जेतुमशक्यया, कथम्भूतो राजा ? सहितः हितं सुखं हिताः सुखहेतवो मनुष्याः हितेन हितैश्च सह वर्तमानः ॥५३॥
तां श्रीवर्धू चिन्तयतान्यभोग्यां तेन स्वसाकर्तुमपार्यमाणाम् ।
न शीतमुष्णं न मतं सुखाय खावस्थयातप्यत केवलं सः ॥५४॥ तामिति-परमतप्यत संतापं प्रासः, कोऽसौ ? स रावणः, कया का ? स्वावस्थयेति, कथं परमतप्यत ? तदेवाह-न मतं नेयम् , किम् ? शीतं श्रीगन्धकमलकर्पूरादिवस्तु, तथा नमनम् , किम् १ उलणं वीर्य कुङ्कुमादिवस्तु, केन ? तेन रावणेन, कस्मै ? सुखाय, किं कुर्वता ! तां जगद्विख्यातां श्रीवर्धू सीता सेनासे सजित, इन्द्रको जीतनेमें समर्थ पराक्रमधारी तथा आत्मगौरवी विष्णु (कृष्णजी) ने धर्मराजको आँखोंपर लिया था ॥५१॥
वहते पसीनसे व्यक्त अधिकतर कामासक्ति युक्त नागरिक बन्धुओंके द्वारा तमालके पत्त में रखकर छोड़ी गयी पुष्पाञ्जलियोंसे आ रावण अथवा युधिष्टिरने निर्भयताके आधि युक्त मनोभावशाली तथा मालाके फूलोंके बिखेरते इन्द्रजीत अथवा विष्णु के साथ वहाँपर अपने गृहमें प्रवेश किया था ॥५॥
__ अजेय, सर्वथा समर्थ तथा विस्तृत निदीप मित्रमण्डलीसे युक्त वसन्त अथवा मदिरा से रंगीन सुखको प्राप्त तथा शान्त और कल्याणकारी राजाने प्रतिदिन प्रत्येक निधासमें मधुर रतिको दिया था ॥५३॥
दूसरेके द्वारा भोग्य लक्ष्मी स्वरूपिणी सीता अथवा राज्यलक्ष्मी रूपी वधूको सोचते हुए तथा उसे अपने आधीन करने में असमर्थ उस रावण अथवा युधिष्ठिरके लिए शीतल
१. श्लेषा-ब०, ना० । उपजातियतम् । २. वसन्ततिलकावृतम् । ३. प्रतियासरं वासे रतिस्ताम् । ४. तोटकवृत्तम् ।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टमः सर्गः मनमा चिन्तयता, कथम्भूताम् ? अन्यभोग्यां राघवसेत्यां पुनः स्वसादात्मसात् कत्तुमपार्यमाणामशक्याम् अतएव केवलम् अतप्यत ।
भारतीय पक्षा-तेन युधिष्ठिरेण मुखाय शीतं न मतमुष्णं न मतम् , कथम्भूतेन तेन ? वाम् आवालं गोपालादिप्रसिद्धां श्रीवयूं राज्यलक्ष्मी चिन्तयता, कथम्भूताम् ! अन्पभोग्यां दुर्योधनसेच्याम् , किं कन भ् ? स्वसात् स्वाधीनाम् , केवलमतप्यत, फया ? स्वा वस्थया दुदंशयेति ।।४।।
पे नृपाणां समवस्थयोच्चैः सेहे न दुर्योधनकामवाधाम् ।
वालाङ्गनापाङ्गतापहासं रहस्यसोभाग्यमलं निनिन्द ।।५५।। थेष इति-ये लन्निता, कोऽसो १ स रावणः, कया ? समवस्थया, फैपाम् १ नृपाणाम , कथम् ! उच्चैः अतिशयेन । तथा न मेहे न भोई समर्थोऽभूत , काम ? दुर्योधनकामयाधां दुःखेन योद्धुं शक्यो दुर्योचनः स दासी कामताप बाधा पीडाम् । निनिन्द, किम् ! असौभाग्यमले दौर्भाग्बरजः, क ? रहस्येकान्ते, कथम्भूतम् ? बालाशनापाङ्गतापहासम् , बालाननाना मुग्धात्रीणामपाशा कटाक्षास्तैः कृतमपहासं यस्य तत् |
भारतीयः-असौ नृपाणां समवस्मया ऐ | तथा दुर्योधन कामवाघां गान्धारीतगयामिलापपीडां न सेहे। तथा भाग्यं ५५ रहत्यलमत्पर्य निनिन्दः। संचामृतं बालाननापाङ्गतापहासं बालाः शिशवोङ्गनाः कामिन्यस्ता भिरपाङ्गनिन्द्यं यथा भवति तथा कृतमपदासं यस्य तत्तथोक्तम् । कर्मण्येतदेव रूपम् ॥५५||
न गुणैर्वधूभिरमितो रमितो न विलेपनं निजगृहे जगृहे ।
विभवेषु नो वश मितः शमितः स गतो यतित्वमुदितो मुदितः ॥५६॥ न गुणैरिति-स राजा बधूभिर्न रमितः, कथम्भूनः सन् ? गुणैरीदार्यधैर्यादिमिरमितो गाधस्तथा विलेपनं श्रीगन्धादिलक्षण न जगृहे नाङ्गीचकार, वय ? निजगृहे आत्मीयमन्दिरे, तथा विभवेयु परिच्छदा. दिषु लक्षणेपु न बशभितः गतः, तथा स राजा गतः, किम् ? यतित्वं मुनिरूपताम् , कयम्भूतः सन् , अदितोऽभ्युनतः, श्रमितः, शान्तः, पुनः कथम्भूतः सन् ? अमुदितो हष्टः सन्निति ॥५६॥
स चरिणा श्रीमदनेन राजा निगृहमानो हृदयं विदीर्णम् ।
अगाधगम्भीरमुदात्तसत्त्वमाकारमय विभरां बभूव ॥५७।। स इति स राजा रावण आकारं कोपप्रसादजनितां शरीरप्रकृति बिभराम्बभूव बभार । किं कुर्वाणः ? श्रीमदनेन श्रीकन्दर्पण विदीर्ण विदारितं हृदयं निगृहमानः संवृण्वन् दुजनजनहास्यभयान्न प्रकटयन् , कथम्भूतं हृदयम् १ अगाधगम्भीरमगाधमकलितं तथा गम्भीरं नियोगम् , अग्रयं प्रधानम् , उदात्तसत्त्वमुदात्तमुत्कृष्ट सत्त्वं बलं यस्मिन् तत् |
भारतीयः-स राजा युधिष्ठिरः आकारं बिभराम्बभूव, कथम्भूतम् ? अग्र्यमादेयं पुनरदात्तसत्त्वमुल्वण अथवा उष्ण पदार्थ भी सुख नहीं देते थे। वह क्रमशः अपनी कागदशा अथवा दुरवस्थासे ही जल रहे थे ॥५४॥
रावण तथा युधिष्ठिर दोनों ही अन्य राजाओंके रामने आते लजाते थे । करसे सामना करने योग्य कामदेवकी बाधाको गवण नहीं सह पाता था तथा कौरव दुर्योधनकी मनमानी गुधिष्ठिरको असह्य थी। और बालकी, स्त्रियों तथा अंपगोके द्वारा भी हँसे जाने वाले अपने अभागेपनको एकान्तमै धिमारते थे ॥५॥
निःसीम गुणाका भण्डार यह गनियोंके साथ रमण नहीं करता था, अपने भवनमें भी किसीसे लेपादि नहीं कराता था, और भोग-विलासोंमें उसका मन नहीं लगता था। सुखोसे घिरे, प्रतापी तथा प्रसन्न यति के रूपको बह प्राप्त हुआ था ॥५६॥
श्री कामदेव रूपी शत्रुके द्वारा खंड-खंड किये अपने हृदयको छिपाते हुए वह राजा रावण अन्यन्त गुप्त, सहिष्णु, विशाल शक्ति सम्पन्न बाह्य आकारको धारण किये था [इस
१. इलेपः-१०, ना । उपजातिवृत्तम् । २. इलेपः-ब, ना० । ३. प्रमिताक्षरा वृत्तम् । लक्षणं हि-"प्रमिताक्षरा सजससैरुदिता" (३० र० ३।६२)।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सामर्थ्यम्, पुनः कथम्भूतम् ? अगाधगम्भीरम् अनाकलित निःक्षोभम् कथम्भूतो राजा ? हृदयं निगूहमानः, कथम्भूतम् ? अनेन वैरिणा दुर्योधनेन विदीर्ण पुनः श्रीमलक्ष्मीवत् । शेषं तुल्यम् ॥५७॥ स सदसि हृषीकेशेनोच्चैर्बलेन गरीयसा परमतनयेनायं भ्रातृव्रजेन च सङ्गतः । विलुलितकथः शस्त्रे शास्त्रे कलासु कथासु च प्रभुरगमयत्कश्चित्कालं धनञ्जयमूर्जयन् ॥५८॥
इति श्रीधनञ्जयकृती राघवपाण्डवीये महाकाव्ये रावणयुधिष्टिरलङ्काद्वारवती प्रवेशकथनो नामाष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥
स इति सोऽयं रावणः कञ्चित्कालं समय मगमयत् निनाय, किं कुर्वन् ? धनं द्रव्यं तथा जयमूर्सयन्नुपार्जयन् कथम्भूतः प्रभुः विभुः पुनः विलुलितकथः विलुलिता कथा येन सः, विहितविचारण इत्यर्थः । क १ शस्त्रे चापतोमरादिलक्षणे तथा शास्त्रे व्याकरणतर्कादिलक्षणे जात्यपेक्षयैकवचनम् | तथा कलासु वेणुवीणादिषु तथा कथासु कादम्बर्यादिषु । क ? सदसि सभायाम् पुनः कथम्भूतः १ गरीयसा गरिष्ठेनाजय्येन बलेन सैन्येन सङ्गतः संयुक्तस्तथा परमतनयेन परगा श्रीर्यस्य स परमः परमश्चासौ तनयश्च परमतनयस्तेन श्रीमदिन्द्रजिता पुत्रेण सः भूवैद्रित्तिएवनिता चन्दनादीननुभवितुमित्यर्थः, कथम् ? उच्चैरत्यर्थ तथा भ्रातृमजेन विभीषणादिसमूहेन सङ्गतः ।
1
भारतीयः - धनञ्जयमर्जुनम् ऊर्जयम्प्रोटिं नयन्, हृषीकेशेन नारायणेन बलेन बलभद्रेण तथा परमतनयेन परं केवलं मत इष्टः नयो दुष्टशिष्टनिग्रहानुग्रहलक्षणो येन तेन दुधनां निग्रहः शिष्टानां प्रतिपालनं राज्ञां धर्मो न तु जटाधारणं शिरोमुण्डनं चेति वचनात् । यद्वा परेषामरीणां मतो ज्ञातो नयो नीतिर्येन तेन, भ्रातृजेन भीमादिसमूहेन सङ्गतः गरीयसेति कृष्णबलयोविशेषणं लोकपूज्यत्वात् । शेषं पूर्ववत् ॥५८॥
इति निरवद्यविद्यामण्डनमण्डित पण्डितमण्डलमण्डितस्य षट्तर्कचक्रवर्तिनः श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भव चारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां पदकौमुदी नाम दधानायां टीकायां रावणयुधिष्ठिरङ्काङ्कारवती प्रवेशकथनोऽष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥
3
राज्य लक्ष्मीयुक्त शत्रु दुर्योधनके द्वारा खण्डित मनको छिपाते हुए राजा युधिष्ठिर ] ॥५७॥ इन्द्रिय जेता, बलवान, गौरवशाली भाइयों तथा श्रेष्ठ पुत्रके साथ राजसभामें शासन, शास्त्र और ललित कलाओंकी चर्चा करता हुआ तथा अपनी सम्पत्ति और विजय के साधनों को बढ़ाता हुआ राजा रावण कुछ समय बिता रहा था ।
परम वली, सबके श्रेष्ठ, हृषीकेश कृष्णजी तथा भाइयोंके साथ शत्रुओं की योजनाएँ जाननेमें व्यस्त इस राजा युधिष्ठिरने यादव राजसभा में शस्त्र शास्त्र तथा संगीतादिकी चर्चाएँ करते हुए और अर्जुनकी प्रतिष्ठा बढ़ाते हुए कुछ समय व्यतीत किया था ॥ ५८ ॥
निर्दोषविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, षट्तर्कचक्रवर्ती श्रीमान् पंडित विनयचन्द्र गुरुके प्रशिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकला चातुर्य चन्द्रिका के चकोर, नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनन्जयके राघव पाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसन्धान
काव्यकी पदकौमुदी टीकामें रात्रण युधिष्ठिर-लङ्काद्वारावती
प्रस्थान कथन' नामका अष्टम सर्व समाप्त ।
-----
३. श्लेषः- ब०, ना० । उपजातिवृत्तम् । २. श्लेषः - ब० ना० । हरिणीवृत्तम् । लक्षणं हि "रसयुगसम्रौ स्लो गो यदा हरिणी तदा । " ( वृ० र० ३।२३) ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमः सर्गः तस्मिन्काले जरासन्धो वैरामोधभिया युतः । चित्तस्थमनुजं पश्यन्दरतः पुरुषोत्तमम् ॥१॥ तथा विराधितं वैरिभीमहानियमोद्यतम् । उद्युक्त्याश्वासयन्ख्यातस्तं कौरव्यंशुभावहः ॥२॥ पृथ्व्याः पाताललङ्कान्तः श्रीगृहं प्राप्य भूषणम् । सीताचिन्ताकुलः कार्य दुःखमालोचयन्स्थितः ॥३॥ अज्ञातचरितं शत्रु श्रीवधूहरणोद्यतम् ।
विरित्सन्विधुना धौते सौंधे शीतेऽप्यतप्यत ॥४॥ श्लोकचतुष्टयमतप्यतेति क्रियया व्याख्यायते-तस्मिन्निति-अतप्यत, कोऽसौ ? रामो राघवः, कथम् ? वै स्फुटम् , क्व ? तसिन्काले सीतापहरणसमये, किं कुर्वन् ? पश्यन्नस्मिन्नवसरे नान्यः, कश्चित्सहायो ममातीति अन्तर्मुखाकारतया वीक्ष्यमाणः । कम् ? अनुजं भ्रातरम । किमाख्यम् ? पुरुषोत्तम लक्ष्मणम् , कथम्भूतम् ? चित्तस्थं मनोगतम् । कथम्भूतो रामः अघभिया पापभयेन दूरतो दूरादयुतोऽसङ्गतः निष्पापो निर्भयश्चेत्यर्थः, पुनः जरासन्धः जरयाइसन्धो सम्बन्धो यस्य सः, वार्धक्याविषयः घरमाङ्गत्वात् , शरीराविकारित्वात् , मोक्षगामित्वात्तस्येति सम्बन्धः । भारतीयः-अतप्यत कोऽसौ ! जरासन्धः जरासन्धाभिधानो नारायणप्रतिकूलो विद्याधरचक्रवर्ती, किं कुर्वन् ? पश्यन् । कम् ? चित्तस्थमनुज मनोगतमनुष्यम् , किमाख्यम् ? पुरुषोत्तम नारायणम् , कस्मात् ? दूरतः दूरात् । कस्मिन् ! तस्मिन्काले शरत्समये, कथम्भूतः सन् १ युतो युक्तः, कया ? वैरामोषभिया बैरात् कंसस्य स्वभागिनेयस्य वधसमुत्पन्नात् अमोघा चासौ भीश्च वैरामोपभीस्तया वैराप्रतिहताशङ्कयेति ।
तथेति-कथम्भूतो रामः ? ख्यातः प्रसिद्धः क्व ? को भुचि, किं कुर्थन् ? श्वासयन् धीरयन् , कम् ? ते प्रसिद्ध विराधितं खरदूषणनिििटतं चन्द्रोदरपुत्रम् , कथम् ? तथा तेनैव लक्ष्मणस्मरणाप्रकारेण वैरिभीमहानियमोद्यतं वैरिभ्यां खरदूपणाभ्यां भीः वैरिभीः वैरिभियां वैरियैरे सति महा नियमः खरदूषणयोर्वधघटनायां यावन्ममेष्टस्रग्बनिताचन्दनादिपरित्यागलक्षण व्रतं वैरिमी महानियमः तत्रोद्यतस्तं तथोक्तम् , कया ! उद्युक्त्या महाविचारणया, पुनः कथम्भूतः १ रव्यंशुभावहः खेरंशवः रव्यंशवस्तेषां भावं मत्तां स्वरूपं वा इन्तीति व्यंशु गावहः आत्मप्रतापेनाप्रतापत्य जेतेत्यर्थः । दिनकरकिरणदीप्तिभूदिति ।
----------------
तस्मिन् , काले. चितरोत्तमम् , अनुजं दूरतः पश्यन् वै जरासंधः रामः अघभिया युतः को रव्याप्तः रव्यंशुभावहा, तथा विराधितं वैरिभी महा नियमेनोयतं तम् आश्वासयन् पृथ्न्याः पाताललंकान्स:श्रीगृहभूषणं प्राप्य सीताचिन्ताकुलः कार्यमालोचयन्दुर्ख स्थितः।
सीताका अपहरणा हो जानेके समय पुरुषश्रेष्ठ मनमोहन अनुज लक्ष्मणको दूर गया देखकर बार्द्धक्यसे परे ('चरम शरीर', युवक ) रामको निश्चयसे रावणके पाप अर्थात् सीताहरणकी आशंका हो गयी थी। पृथ्वीपर विख्यात, सूर्यको किरणोंके प्रतापके तिरस्कारक राघव, लक्ष्मणके द्वारा कथित प्रकारसे सताये गये अतएव शत्रुके भयकी समाप्तिके लिए कठोर प्रतिक्षाओमें बद्ध, उसको साहसके वचनोंसे समझाता हुआ, भारत भूमिसे लेकर पाताल लंका पर्यन्त लक्ष्मीके निवासभूत सीताके भूषणोंको पा कर सीताकी चिन्तामें विभोर तथापि कर्त्तव्यका विचार करता हुआ, दुखसे समय बिता रहा था।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृत्वा
द्विसन्धानमहाकाव्यम् | भारतीयः कथम्भूतो जरासन्धः १ ख्यातः प्रसिद्धः, किं कुर्वन् ! तं प्रसिद्ध कौरव्यं दुर्योधनमाश्वासयन् जरासन्धगृह्माः कौरव्या इति वचनात् । कया ? उद्युक्त्या उच्चैर्विचारणया, कथं तथा ! दूरस्थस्यापि पुरुषोत्तमस्य चित्तस्थस्यावलोकनप्रकारेण कथम्भूते कौरव्यम् ! विराधितम् , कैः ? पाण्डवैरिति सम्बन्धी बोद्धव्यः, पुनः कथम्भूतम् १ वैरिभीमहानियमोद्यतं बैरी चासौ भीमश्च तस्य हानौ वध उग्र प्रतिकूलवृकोदरप्राणत्यागनतोद्यमपरभित्यर्थः । कथम्भूतो जरासन्धः ! शुभावहः शुभमावहतीति गुभावहः अश्वा सुभं न बहतीति सः नारायणहस्ताव्यापादनावधिसमरूतया दुर्दशा वहमान इत्यर्थः ।
पृथ्व्या इति-कथाभूतो रामः ? स्थितः, कथं यथा भवति ! दुःखम् , किं कुर्वन् ? आलोचयन् अन्तर्मुखाकारतया व्यालोकमान:, किम् ? कार्य कर्तव्यम् , कथम्भूतः ? सीताचिन्ताकुलः जानकीचिन्तनव्यमः, किं
! पूर्व प्राप्य :प्रविश्य, किम् ? श्रीगृहं बिलासमन्दिरम् , क पाताललद्दान्तः पाताललामध्ये, कथम्भूतम् , पृथिव्या मेदिन्या भूषणमलङ्कारम् । भारतीयः-कथम्भूतः जरासन्धः ? स्थितः कथं यथा ! दुःखम् , किं कुर्वन् ! आलोचयन् , किम् ? कार्यम् , कथम्भूतः ? सोता चिन्ताकुलः भूमिचिन्तया व्यग्रः केनोपायेनावनिर्मम स्थिरा भविष्यतीति स्मरणव्यासः, किं कृल्या ! श्रीयहं प्राप्य, कथम्भूतम् ! भूषणम् , पुनः कथम्भूतम् ? आललं मनोहरहरितालादिरसचित्रलिखितभित्तिकमित्यर्थः । कथम्भूतः १ कान्तः कमनीयमूर्तिः, पुनः पृच्याः पाता रक्षकः ।
अज्ञातेति-अतप्यत सन्तापेनान्वभूयत स रामः, क्व ? सौधे, कथम्भूते ? शीतेऽपि शीतलेऽपि पुनः धौते शुद्धीकृते, केन ? विधुना चन्द्रेण, किं कुर्वन् ? शत्रु रावणं विरिस्सन् संहतुमिच्छन् , कथम्भूतम् ? अशातचरितमविदितचेष्टं खेचरविद्याभ्याससम्भूतेः, पुनः श्रीवधूहरणोद्यतं सीताहरणतत्परम् ।
भारतीयः-जरासन्धः सौधेऽतप्यत, कथम्भूते सौधे १ विधुना फ: रेण धौते शुद्ध, किं कुर्वन् ? शत्रु नारायणं विरित्सन् , कथम्भूतम् ? श्रीवधूहरणोद्यतं लक्ष्मीललनापहारोद्यतम् । शेषं प्राग्वत् ॥१-४||
सत्यग्रेसरसीतापहारिण्येपेत्यलोकयत् ।
यां यां तया तयारत्या दूनः परमकाष्ठया ॥५॥ अन्वय-तस्मिन्काले चिसस्थमनुजं पुरुषोत्तम दूरतः पश्यन् जरासंधो रामोवभिया युतः तथा विराधितं वैरिभीमहानियमोद्यतं तं कौरय्यम् उद्युक्त्या आश्वासयन् शुभाऽवहः ख्यातः पृथिव्याः पाता कान्तः, सीता चिन्ताकुलः कार्यम् आलोचयन् दुःखं स्थितः ।
उस शरत्कालमें भी अहर्निश मनमें बसे पुरुषोत्तम नारायण रूपी शत्रुको दूरले ही सोचकर जरासंघपर शत्रुका व्यर्थ न होनेवाला भय छा जाता था, पूर्वोक्त प्रकारसे उत्तेजित किये गये प्रमुख शत्रु भीमके विनाशकी प्रतिज्ञाके पालक कौरव राजा दुर्योधनको बड़े-बड़े
आश्वासन देकर स्थिर करते हुए यह पुण्यसे विमुख तथापि ख्यात, अपने राज्यफी सुरक्षाके लिए चिन्तित, पृथ्वीके पालक रूपसे ज्ञात तथा सुन्दर वह (जरासंध) सुसजित तथा पूर्ण रूपसे चित्रित शोभन भवन में पहुँचकर भावी कर्तव्यका विचार करता हुआ दुःखसे समय बिता रहा था ॥१-३॥
प्रतिष्ठा तथा पत्नीके हरण के लिए प्रवृत्त तथा अज्ञात शील एवं गन्तव्य शत्रुके धधके लिए उत्सुक राम चन्द्रिकासे शावित, सुधामय तथा शीतल वातावरण में भी सन्तप्त हुए थे [राज्यलक्ष्मी रूपीके वधूके अपहरणके लिए तत्पर तथा अपनी आक्रमण योजना और तयारीको गुप्त रखते हुए, शत्रु श्रीकृष्णजीके वधके लिए व्याकुल जरासंध कपूरसे धुले अत्यन्त शीतल राजभवनमें भी जल रहा था ] ॥४॥
१. सुधामय इत्यर्थः वनस्थत्वात् । २. श्लेषः-१०, ना.। सर्गेऽस्मिन्ननुपुष्टुप्छन्दः। ३. भने सरतीत्यप्रेसरा "पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सत्तेः" इति टः। सतीनामग्रेसरा सत्यग्रेसरा सा चासौ सीसा घ सत्यग्रेसरा सीता "स्त्रीपुंनपुंसकादरेकार्थे नियां पुंवत्" इति युवभावः । सत्यनेस-प०,द.।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमः सर्गः
१६७ सतीति-हे परम उत्कृष्टविभूतिक श्रेणिक ! असी रामः दूनः कदर्धितः, कया १ तया तया काष्ठया दिशा, कया ? अरत्या पीडया, अलोकयद् दृष्टवान् , काम् ? यां यां काष्टाम् , कथम् ! इति वर्तते का ? एषा काष्ठा, कथम्भूता ? सत्यग्रेसरसीतापहारिणी सत्यग्रेसरसीतामपहरतीत्येवं शीला पतिव्रतामणीजानक्यपहारिणीति ।
भारतीयः-दूनः, कोऽसौ ? जरासन्धः, कया का ? तया तया सरस्था सरोवरेण, कया कृत्या ? अरत्या, कथम्भूतया ? परमकाष्ठया परमोत्कर्षया, अलोकयत् , काम ? यां यां सरसीम् , कथम् ! इति वर्त्तते, का ? एषा सरसी, क्व ? अग्रे पुरतः, कथम्भूता ? तापहारिणी पुनः सीता मनोशार ॥५॥
स्तनभारोधिकगुमध्यस्थो बलिविभ्रमः ।
तथापि साधुसंयोगात्तं न जहुः पुरेऽङ्गानाः ॥६॥ स्तनेति-ग जहन हृतवत्यः, काः १ अङ्गनाः कामिन्यः, कम् ? तं घूक्तिम् , कस्मात् ? साधुसंयोगात् , क्व ? पुरे नगरे, कथम् ? तथापि ? यद्यपि विद्यते कः ? स्तनभारः, कथम्भूतः ? अधिकगुरुः धनपीनोन्नतः, पाव विकलिभाः जिनमोलप:. भूतः सन् ? मध्यस्थः, यत्राधिको गुरुः शिक्षादायकः पुरुषः, यत्र च मध्यस्थो बलिविभ्रमः बलिनां विज़म्भणं मध्यगतं तत्र तत्संयोगेनान्यः कश्चिदलवान् पुरुषोऽपि पुरुपं पराजयत इति तद्वत्संयोगात् । किं रामा रामं जरासन्धञ्च शत्रुजयचिन्ताकुरितं जाहुः ? अपि तु न जब रित्यनेन रामायणापेक्षया रावणपराजयमन्तरेण भारतीयकथापेक्षया नारायणपराजयमन्तरेण रामजरासन्धाभ्यां रभणीकर्पूरादि न रोचते स्मेति भावः ॥६॥
मत्त वारणमारुह्य सन्दशन्दशनच्छदम् ।
जातु भ्र भङ्गविक्षेपमीक्षाञ्चक्रे दिगन्तरम् ॥७॥ मत्तेति-स रामः नातु कदाचित् भ्र भङ्गविक्षेपं यथा तथा दिगन्तरमीक्षाञ्च ददर्श, किं कुर्वन् ! मत्तवारणं बालाणकमारुह्य दशनच्छदमोष्ट' दशन् सन् । भारतीयः-मत्तवारणं मत्तदन्तिनम् , शेषं समम् ॥७॥
कदाचित्कृतनेपथ्यं स तुरङ्गमधिष्ठितः ।
उपरुद्धः क्षणं तस्थी तैः सुमित्रात्मजादिभिः ॥८॥ सती शिरोमणि सीताका इधर अपहरण हुआ होगा इस विचारसे रामने जिस जिस दिशाको खोजा, उस उस दिशाने उनको शोकसे संतप्त किया था।
अन्वय-पपा सती सरसी अग्रे सापहारिणी इति यां यां अवलोकयत्".......
यह सुन्दर झील पहिले संतापको दूर करती थी इस दृष्टिसे जरासंध जिस-जिस पर गया उसी-उसीने अन्तिम सीमाको प्राप्त अरतिका दुःख दिया था ॥५॥
उस राम अथवा जरासंधके मनको नगरमें अत्यन्त उन्नत स्तनभारवती तथा त्रिवलियुक्त कटिधारिणी स्त्रियाँ इसलिए नहीं हरण कर सकी थी कि ये राम-जरासन्ध क्रमशः साधुओंकी संगतिमें तथा साध्यकी पूर्ति में लीन थे ॥ ६ ॥
क्रोधसे ओटोंको चबाते हुए राम जंगली हाथीपर चढ़कर भ्रकुटी टेढ़ी करके कभीकभी समस्त दिशाओंको खोजते थे। [जरासंध राजभघनके छज्जेपर खड़ा होकर कृष्णजीकी दिशामें देखता था ] ॥ ७ ॥
१. इलेपः-ज०, ना.।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कदाचिदिति - स रामः क्षणं मुहूर्त्त सुमित्रात्मजादिभिः लक्ष्मण विराघितायैरुपरुद्ध आवृत्तः सन् तस्थौ स्थितः कथम्भूतः १ अधिष्ठितः आरूढः, कम् ? तुरङ्गमश्वम् | कथम्भूतम् ? कृतनेपथ्यं विहितभूषणम् । भारतीयः - सुमित्रात्मजादिभिः सुमित्रा : शोभनानि मित्राणि येषां ते, तेच आत्मजादयश्च तैरुपरुद्धः । शेर्पा समम् ॥८॥
१६८
कल्याणनिकणा वीणा श्रुती नृत्यं विलोचने ।
हरिचन्दनमप्यङ्कं तानि तस्य न पस्पृशुः ||९|
कल्याणंति-कल्याणनिकणा वीणा तस्य नरेन्द्रस्य श्रुती कर्णे तथा नृत्यं विलोचने, तथा हरिचन्दनम् अङ्गम् इत्थं तानि वस्तूनि न पस्पृशुः || १ ||
मौ मन्त्रिणि तद्राज्यं प्राज्यं क्षिप्ला विराधिते ।
भोगेषु विरतोऽतिघातदीक्षागुपाददे ||१०||
प्रौढ इति - भोगेपु ताम्बूाल्यादिषु विरती विरको रामोऽतिघातदीक्षाम् उपाददेऽङ्गीचकार । किं कृत्वा ? तद्राज्यं पातालङ्काया राज्यं विराधिते चन्द्रोदरपुत्रे क्षित्वा कथम्भूते ? प्रौढे अजय्ये, पुनः मणि हेयोपादेयतत्त्वविवेचकं कथम्भूतं राज्यम् ? प्राज्यं सर्वाङ्गपरिपूर्णम् । जरासन्धपक्षे अविराधिते अविरोधिते ॥१०॥
अन्यदा साहसगतविधातन सदागतः । उद्धृतभूपरागेण विलोलितगृहाश्रमः ॥११॥ उत्सन्नगौरवकुलः पुंनागोल्लासवर्जितः । निरन्तरवितापात्मा निजभूमहिमञ्झितः ||१२|| येन श्रीरूद्धता मुक्ताफलसङ्घातपत्रजा । तेन श्रीवृक्षमात्रेण किञ्चिदालक्षितोदयः || १३|| उद्भिरश्निव सन्तापमभ्यग्रामन्दमाकुलम् | सुग्रीवोतदारं तं नृपतिं शुचिराययौ || १४ ||
अन्यदेति चतुष्कुलवेन व्याख्यास्यामः । सुग्रीवो नाम विद्याधरचक्रवतीं तं प्रसिद्धं नृपतिं रामम् आययात्रागतः कथम्भूतः ? विलोरितगृहाश्रमः विलोलितः परिन्याजितः गृहाश्रमो गृहस्थधर्मों यस्य सः,
कभी-कभी गम सुसज्जित घोड़ेपर ( सीताजीको खोजने के लिए ) चढ़ते थे तो सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मणजी, भील आदिके द्वारा रोके जानेपर क्षण भरके लिए रुक जाते थे । [ सुन्दर वेश-भूषायुक्त रंगस्थली में बैठा जरासंध भी हितैषी मित्रों और पुत्रादिसे घिर जानेपर क्षण भर के लिए शान्त होता था ] ॥ ८ ॥
आनन्ददायक ध्वनि करती वीणाका राग इनके कानतक न पहुँचता था, नृत्य आँखों को न रुचता था और हरिचन्दनका लेप भी उसके शरीरको न छूता था ॥ ९ ॥
विलासादिसं रिक्त रामने वयस्क अथवा अनुभवी, मंत्र विचारमें दक्ष, चन्द्रोदरके पुत्रको शत्रु रावणका सर्वाङ्गपूर्ण लंकाका राज्य देकर प्रतिक्षा कर ली थी । [ जरासंधने भी अनुकूल गामी, गम्भीर तथा मंत्रीको द्वारकाका समृद्ध राज्य देकर शत्रुभूत नारायणके वातकी प्रतिज्ञाकी पूर्ति के लिए ताम्बूलादि छोड़ दिये थे ] ॥ १० ॥
जिसका कोई अवरोध नहीं कर सकता था उस साहसगति ( सुग्रीव ) का राजाके १. श्लेषः-३०, ना०। २ एष श्लोकः प०३० मुद्रित पुस्तकेषु " मत्तवारण” इति श्लोकात्पूर्ववर्ती । ३. इलेप:- ० ना० ।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमः सर्गः केन ? विघातेन उपघातेन, कथम्भूतेन ? उद्धृतभूपरागेण उद्धृतः भूपस्य रागो येन तेन, कस्य ? साइसगते: विक्टसुग्रीवस्य, कथम्भूतस्य साहसगतेः १ सदागतेरप्रतिइतशासनस्य, कदा ? अन्यदाऽन्यस्मिलहनि । भारतीयः-शुचिष्मस्तं नृपतिं जरासन्धमाययौ। कयम्भूतः ? विलोलितगृहाश्रमः विलोलिताः गृहाः मन्दिराण्याश्रमारतपस्विनां वसतयः मयादयो येन सः, केन ? सदागतेर्वातस्य विधातेनोपालवेन, कथम्भूतेन ? उद्धृतभूपरागेण उद्धृतः भुवः परागो येन तेनोरिक्षप्तभूमिरेत्करणेत्यर्थः । कथम्भूतस्य सदागतेः ? साहागतेः शीघ्र प्रवर्तमानस्य, अन्यान्यस्मिन्काले ।
उत्सनेति । कथम्भूतः ! उत्सन्नगौरवकुल उत्सन्नं गौरवं यस्य तत्कुलं यस्य स ध्वस्तमाहात्म्यवंशः, पुनः कथम्भूतः ? पुन्नागानां प्रधान गुरुवाणामुल्लासन आनन्देन वर्जितः, पुनः निरन्तरवितापात्मा होरात्र सन्तापात्मा पुनः निजभूमिहिमाझित आत्मीयगृथिवीमाहात्यपरित्यक्तः । भारतीयः-कथम्भूतः शुचिः ? उसनगौरतुलः उरानाः शकाः गौरवला. यत्र सः, पुनः पुन्नागोल्लासवर्जितः, पुन्नागानां वृक्ष. विशेषाणामुल्लासेन पल्लवितकुमामतमावलक्षणन अर्जितः दूरीकृतः, पुननिरन्तरवितापात्मान्तानिकान्तो निरन्तः स चासौं रचिताः सूर्यतापः, ताप आत्मा स्वरूपं यस्य सः पुनः निजभूमहिमोज्झितः निलः स्याभाविकः भूमा बाहुल्यं यस्य तन्निजभूम निजगम च तद्धिमं निजभूमहिमं तेनोचिडात उत्सृष्टः, तस्य विश्वस्मिन् सन्तापविधायिस्वरूपत्वात् ।
येनेत्यादि-कथम्भूतो राजा ? आलक्षितोदयः आलक्षित उदयो यस्य सः । कथम् ? किञ्चित्स्वल्पं यथा, फैन कृत्या ? श्रीवृक्षमात्रेण श्रीवृक्षो नाम दक्षिणस्तनोपरि शुभलाग्नविशेषः श्रीवृश्च एव मात्र परिमाणं श्रीवृक्षमात्रस्तेन, येन श्रीवृक्षमात्रेण मुक्ता परित्यक्ता, का ? श्री लक्ष्मीः, कथम्भूता ? उद्धता उल्याणा पुनः पालसङ्घातपत्रमा फलानां भोगोपभोगलक्षणानो सङ्घातः फलसद्धातः फलमम्पत्तिः, पत्राणि गजतुरगादीनि तेभ्यो जाता, अथवा बेनोद्धतातिशयेन विश्वस्ता, का ? श्रीः शोभा, कथम्भूता ? मुक्ताफलसङ्घातपत्रजा मुक्ताफलानां मचो यत्र तन्मुक्ताफलसङ्घ मुक्ताफलसङ्घञ्च तदातपत्रञ्च मुक्ताफलसङ्घातपत्रं तस्माजाता। भारतीयः कयम्भूतः शुचिः १ किश्चिदालवितोदयः किञ्चिदालक्षित उदयो जन्म यस्य सः, केन ? तेन श्रीवृक्षमात्रेण पिप्पलवृश्चपरिमाणेन, येन श्रीवृक्षमाण मुक्ता, का ! श्रीः शोभा, कथम्भूता ? उडतोत्कटा, पुनः फलसतातपरजा फलवृन्दपल्लवजा ।
उदिरन्नित्यादि-सुग्रीवो राममाययो । कथम् ! अभ्यक् सम्मुखम् , कथम्भूतम् ? दमाकुल दण्डनीतिव्ययं पुनः अपेतदारम् अपहृतकलत्रम् , कथम्भूतः मुग्रीवः ? शुचिरकुटिलः किं कुर्वन्निय ? सन्तापमुद्रिन्निध वमन्निव । भारतीय:-शुचिः जरासन्धमाययौ सन्तापमुद्रिन्निव । कथम्भूतं सन्तापम् ? अश्वग्रामन्दमभ्यमश्वासाचमन्दश्च तम् अभिनववेगम् , कथम्भूतम् ? आकुले व्यग्रं पुनः सुग्रीवोपेतदारं मुग्रीवाभिमपेताः दाराः कलत्राणि यस्य तम् ॥११-१४॥ अकस्मात् उत्पन्न क्रोधके द्वारा विनाश होनेपर गृहस्थाश्रमसे उदासीन अपने वंशकी गरिमास हीन, श्रेष्ठ पुरुषोंकी सेवा संगतिसे रहित, दिनरात मन ही मन जलता, अपने ही राज्यमें प्रभावहीन सूचित जिसके द्वारा लक्ष्मी, विपुल भागोफ्भोग, गजतुरंग, आदि रूप होती है उस अकेले श्रीवृक्ष (दक्षिण स्तनपरके बिह) के Pी जिसके प्रतापका कुछ-कुछ आभास मिलता था वह शुद्धाचार-युक्त सुग्रीव, आत्मसंतापको उगलता हुआ-सा दण्डनीतिकी योजनामें लीन, पत्नीसे बिछुड़े राजा रामके सामने एक दिन उपस्थित हुआ था।
__ अत्यन्त तीवगति वायुके विरूप हो जाने तथा उड़ती हुई धूल के कारण गृहों तथा आश्रमांको व्याकुल करता गौर बकुलादि पुष्प फलौका बिनाशक, पुन्नागादि वृक्षों के विकास हीन, सर्वदा गर्मी ही गर्मी फैलाता, अपने प्रतापसे शीतका उन्मूलक, फलसमूह तथा पत्रोंकी शोभाके विस्तारक केवल पीपल वृक्षक द्वारा ही जिसके प्रतापका कुछ आभास मिटता है ऐसा ग्रीष्म काल अभिनय तथा उन उष्णताका वमन करता हुआ सुन्दर श्रीयाधारिणी स्त्रियांस बिरे राजा जरासंध के सम्मुख आया था ॥ १२-१४ ॥
1. इलेपः-१०, ना।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् निपीड्यासनमावेद्य स्वं साहसगतिं तथा ।
प्रवृद्धमायासमयं स प्रतापमपप्रथत् ।।१५।। निपीत्येति-स सुग्रीका साहसगति विद्याधरचिटसुग्रीवमपप्रथत् प्रथयामास | किं कृत्वा ? स्वं सुग्रीवोऽहमित्यात्मानं निवेद्य निरूप्य, किं कृत्वा ? आसनं विष्टर निपीड्य उपविश्य, तथाऽपप्रथत् , कम् ? साहसगतेः प्रतापम् , कथाभूतम् ? प्रवृद्धभायासमा प्रवृद्धो मायारामयो यस्य स तं विस्तारितकौटिल्यकालम् ।
__भारतीयः-तथा नागमनप्रकारापानयत् । कोऽसौ ? स शुचिः, कम् ? प्रतापम् , कस्य ? स्वस्येति सम्बन्धी ज्ञेयः। कथम्भूतं प्रतापम् ? प्रबुद्धं प्रौढिमन्तम् , पुनः कथाभूतम् ? आयासमयमायासेन निबृत्तः आयासमवस्तम् , किं कृत्वा ? आवेद्य प्रकरयित्वा, कम् ? स्वम् , कथम्भूतम् ! साहसगति साहसी गतिर्यस्य तम् , किं कृत्वा ? पूर्व निपीड्य पीडयित्वा, किम् ? आसनं बीजवृक्षम् अत्र जात्यपेक्षयैकवचनम् ॥१५॥
जातं रणरणोपेतं सांराविणमितस्ततः ।
प्रभञ्जनोद्यतं तस्य मदाघातकरं महत् ॥१६॥ जातमिति-जातम् , किम् ? साराविणं सामस्त्येन ध्वनितम् , कथम् ? इतस्ततोऽत्र तत्र, कस्य ? तस्य साहसगतेः, कथं सांराविणम् ? रणरणोपेतं शस्त्रध्वनिसंयुक्तं पुनः प्रभञ्जनोद्यतं विध्वंसनसंयुक्तम् , पुनः कथम्भूतं जातम् ? महाघातकरं महद्विनाशकरं पुनः महद्दरिष्ठम् ।
__ भारतीयः-तस्य ग्रीष्मस्य रणरणोपेतं शब्दानुगतशब्दोपेतं प्रभञ्जनोद्यते महावातकृतं मदाघातकरमूष्मातिशयेन इर्षविनाशकरम् ॥१६॥
मजनेषु मनो गृहं विपरीतजलात्मसु ।
प्रकृत्या यः पुरस्तेषां समापातयदङ्गिनाम् ॥१७॥ 'मजनेष्विति-तेषामङ्गिनाम् प्राणिनां पुरोऽग्रेसरः, यः सुग्रीवविटः प्रकृत्या स्वभावेन विपरीतजलात्मसु धर्म्यपथविरुद्धजडात्मसु मजनेषु' मदयन्ति । 'मदी हर्षग्लेपनयोः' । तेषु जनेषु, गूढं मनः समापातयत्समासक्तवान् ।
___भारतीयः-प्रकृत्या पुरः पुलो महान् यो ग्रीष्मस्तेषामङ्गिनां प्राणिनां मनो गूढं निबिडं यथा स्यात्तथा, विपरीतजलात्मसु पक्षिच्याप्तवारिघूर्णेषु, मजनेषु वाप्यादिस्नानस्थानेषु ||१७||
पूर्वोक्त प्रकारसे कुटिलताके जाल-द्वारा किये गये अपने सिंहासन और प्रतापके पराभवको कहकर उसने साहसगतिको रामके पास भेजा था। [ उक्त प्रकारसे बीजवृक्षोको सुखाकर अपनी उग्रगतिका परिचय देते हुए ग्रीष्म ऋतुने अत्यन्त कष्टकारक अपने आतपको फैला दिया था ]॥ १५॥
___ उस (साहसगति) का प्रताप शस्त्रोंकी झंकारयुक्त, इधर-उधर चर्चाका विषय, विध्वंसके लिए तत्पर तथा अहंकारको चूर करता सिद्ध हुआ था। [ग्रीष्मका साँय-साँय करता, शोरपर शोर मचाता, आँधीके रूपमें कार्यशील और मस्तीको हवा में मिलाता रूप होता है ] ॥ १६ ॥
___ उन शरीरधारियों में श्रेष्ठ उस साहसगतिने धर्ममार्गसे विपरीत, विवेकहीन तथा अहंकारी नागरिकोंमें प्रच्छन्न रूपसे अपना अभिमत सहज ही फैला दिया था। [प्रकृतिमें प्रधान उस ग्रीष्म ऋतुने समस्त संसारके प्राणियोंके मनोको पक्षियोंसे व्याप्त जलाशयों में मजन करने के लिए अत्यन्त झुका दिया था] ॥ १७ ॥
१, श्लेषः-०, ना० । २. मुद्रितप्रतिमनुसृत्य । ३. मदयन्तीति मदः ते च जना तेषु ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
उच्चैरंहाः प्रतापेन कालः साक्षाद्भयानकः ।
तथा मेयं पुरं देशं विश्वं विषमयोजयत् ॥१८॥ उच्चै रिति-उचैरहा विपुलवंगः साक्षात्काल इब भयानकः प्रतापेन विषमयो गरलमयो यः विश्वमशेपम् अमेयं पुरं नगरं देशं विश्यम् अजयत् |
भारतीयः-अयोजयप्रेरयामाग, कोसौ ? कालः भीमसमयः, किम् ? पुरं नगरं विपं जलम् । मुख्या मुख्यया द्विवार्मिक निया देवा तथा विश्वं लोक किम् ? विष जस्टम् , कथम् ? अमेयं गणमातीतम् , कथम्भूतः कालः ? उच्चैरहा अतिवेगः, पुनः भवानकः, केन ? प्रतापन, कथं साक्षात् परामायवृत्त्येति ॥१८॥
उत्तुङ्गश्यामलकुचा तेन रम्या प्रियालकैः ।
धनाधिदेवता लक्ष्मी सर्वपां पश्यतां हृता ॥१९॥ उत्तति-हतापनीता, कासा ? पिया भार्या, ग ? तेन साहसगतिना, केषां सताम् ? सत्र खेचराणां भूचरागाच, नि कुर्वतां सताम् ? पश्यतामोक्षमाणानाम् असमर्थतया निभाल्यतागित्यर्थः, कयम्भूता प्रिया ? लक्ष्मीः पुनर्वनाधिदेवता पुनरुत्तुनदयामलकुचा उत्तुझी पीनी श्यामन्टौ कुची यस्याः सा, पुनः रम्या मनोहारिणी, कैः ? कुटिलकेशैः ।
__ भारतीया-हृता, का ? वनाधिदेवतालक्ष्मीः वनाधिदेवतैय लक्ष्मीः, केन ? तेन कालेन, कथम्भृता ? उत्तुङ्गश्यामलकुचा उत्तुङ्गाः श्यामन्तकुचा वृक्षविशेषा यस्याः सा, पुनः कयाभूता ? प्रियालकैश्चारै रम्या । सर्वमन्यत् प्राग्वत् ॥१५||
चन्दनस्यन्दसान्द्राङ्गी मल्लिकामालभारिणी ।
तारेन्दुवदना बाला सापि तेनोपतापिता ॥२०॥ चन्दनेति-उपतापिता संक्लेशिता, का ? सापि वाला मुग्धवधूः किमाख्याता ? तारा तारेति नामधेया, केन ! तेन साहसगतिना, कथम्भूता ! चन्दनस्यन्दसान्द्राङ्गी श्रीखण्डलेपलिसाझी पुनः मलिकामालभारिणी, मलिकामालां बिभत्तीति एवं शीला मल्लिकामालभारिणी पुनरिन्दुवदना चन्द्रमुखी।
भारतीयः-साविबाला तेन शुचिना उपतापिता | "बालेल्यत्र जात्यपेक्षयकवचनम् । कथम्भूता ! तारेन्दुवदना शारदचन्द्रानना ॥२०॥
साकृतोच्छसितावश्यं महिषी सकलाकुला |
मुशृङ्गारार्यतापाङ्गविभ्रमात्तं जलाशयम् ॥२१॥ अत्यन्त तीव्र गति, प्रतापमें साक्षात् यमके समान भयंकर, निस्सीम और विषमय साहसगतिने नगर, देश तथा विश्वको ही जीत लिया था। [ लम्बे-लम्बे दिनों युक्त अथवा धृपयुक्त, सर्वथा तापके कारण यमक समान भीषण ग्रीष्म ऋतुने नगर, देश और सृएिको अपरिमित जलकी ओर लगा दिया था ] ॥ १८ ॥
उस साहसगतिने समस्त विद्याध के सामने ही ऊँचे-ऊँचे श्यामल कुत्रधारिणी, सुन्दरी, वनकी देवी रूप तथा साक्षात् लक्ष्मी प्रियाका बाल पकड़कर अपहरण किया था । [सबके देखते-देखते ही ग्रीप्मने ऊँचे-ऊँचे श्यामलफुच वृक्षासे बढ़ी तथा संचारके द्वारा रमणीय देवीके समान धनकी शोभाका अपहरण किया था] ॥ १९ ॥
चन्दनके लेपसे देहको पोते, मल्लिकाके फूलोकी मालासे सजी तथा चन्द्रमुखी उस वाला ताराको भी साहसगतिने कष्ट दिया था। [ग्रीमने चन्दनका लेपधारिणी मल्लिका फूलोंसे ढंकी शरत्कालीन चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखधारिणी वालाओंको गर्मीसे व्याकुल कर दिया था] ॥ २० ॥
१. मुद्रितप्रतिमवलम्ब्येयं व्याख्या दत्ता ।
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
2
साकृतेति है आर्य अकृत चकार का सा महिषी पट्टरात्री तारेति प्रसिद्धनामधेया । कम् ? सं साहसगतिम् कथम्भूतम् ! वक्ष्यमात्मवशवर्त्तिनम् कथम्भूतम् ? जलाशयं मूढमित्यर्थः । कस्मात् ? तापाङ्गविभ्रमात् तापाङ्गस्य विशेषेण विभ्रमणात् 'अत्र कामावस्था सूचिता' । कथम्भूता ! उच्छ्वसिता प्राणिता, पुनः कथम्भूता ? सकल्ला कलाभिः सह वर्त्तमाना, पुनराकुला व्यग्रा, पुनः सुश्रृङ्गारा प्रशस्तभूषणा । भारतीयः - आरात गतवती; काऽसौ ? महिषी सैरिभी, कम् ? जलाशयं सरोवरम् कथं यथा भवति ? अपाङ्गविभ्रमा कटाक्षविक्षेपकोड़ीकृतम् ? कथम्भूता ? कृतोच्छ्रवसिता कृतमुच्छ्वसितं यथा सा, कथं यथा भवति ? अवश्यमनात्माधीनम् पुनः कथम्भूता ? सकन्या समस्ता, पुनराकुला पुनः सुशृङ्गा प्रशस्त विषाणा ॥ २१ ॥
,
१७२
,
सैकतेषु प्रियोपेता न तत्सञ्चारभीरवः ।
सञ्चरन्ति स्मराजीषु निबद्धा राजहंसकाः ||२२|
मैकतेष्यति न सञ्चरन्ति न प्रवर्त्तन्ते । के ? राजहंसकाः राजहंसानां नृपप्रधानानां समूहाः केषु ? सैकतेषु कथम्भूताः प्रियोपेताः कामिनीयुताः पुनः कथम्भूताः । तत्सञ्चारभीरवः साहसमतिप्रवत्तन नीतियुक्ताः पुनः कथम्भूता ? स्मराजी निबद्धाः कन्दर्पणसायकयन्त्रिताः ।
भारतीयः- राजहंसकाः मरालाः सैकतेषु शैवलेषु न सञ्चरन्ति स्म, कथम्भूताः ? प्रियोपेताः वरटायुताः, पुनः कथम्भूताः ? तत्सद्धारभीरवः ग्रीष्मविजृम्भणत्रस्ताः पुनः राजीषु श्रेणीपु निबद्धाः नियमितगात्राः । शेषं सुगमम् ||२२||
लोको वितपमानेन तप्तस्तेन गृहं गृहम् ।
अनुप्रवेशं निभृतमध्यास्तेहितकाङ्क्षया ॥२३॥
लोक इति-लोको जनः, अध्यास्ते तस्थौ किं कृला ? गृहं गृह मन्दिर मन्दिरं निभृतं निश्वलं यथा तथा, ईहितका क्षया मनोचाच्छ्या अनुप्रवेशं प्रविश्य कथम्भूतः सन् ! तप्तः क्लेशितः केन ! चितपमानेन दीप्यमानेन तेन साहसगतिना ।
;
"
भारतीयः - अध्यास्ते, कोऽसौ ? लोकः, किं कृत्वा ? पूर्वमनुप्रवेश प्रविश्य किम् ? गृहं गृहम् कथं यथा भवति निभृतम्, कया ? हितकाङ्क्षया सुरताभिलाषेण, कथम्भूतः सन् ? वित्तपमानेन आत्मना ज्वलता तेन शुचिकालेन ततः सन् ॥२३॥
मातरिश्वैकवृत्तेऽस्मिन्कालान्तरवितापिनी ।
तसं नाथहरिकुलं निलीनं वृक्षकुक्षिषु ||२४||
समस्त कलाओं में प्रवीण, व्याकुल तथा जोरोंसे साँस लेती समीचीन शृंगारवती उस पटरानी ताराने भी विवेकहीन साहसगतिको कटाक्ष डालकर वशमें कर लिया था । [ गर्मीले शीर मूर्छित हो जानेके कारण, सुन्दर सींगधारिणी व्याकुल तथा जोरसे हाँपती समस्त भैलोको उसने उस तालाच के वशमें कर दिया था ॥ २१ ॥
साहसगतिके अकस्मात् आगमनकी शंकासे भीत, श्रेष्ठ राजा लोग अपनी प्रेयसियोंके साथ समुद्र अथवा नदी के पुलिनोंपर नहीं घूमते थे यद्यपि कामदेवले युद्धमें बन्दी हो चुके थे । [ गर्मी के प्रसारसे भयभीत हंस भी हंसियों के साथ पुलिनपर नहीं निकलते थे। वृक्षपंक्ति आदिके नीचे ही छिपकर बैठे रहते थे ] ॥२२॥
प्रबल प्रतापी साहसगतिके द्वारा सताया गया लोक उसके आनेके तुरन्त बाद ही अपने-अपने घरमें छिपकर बैठते थे क्योंकि इसी में उनका कल्याण था। [ग्रीष्म ऋतुसे तपाया गया मनुष्य भी प्रवेश करनेके बाद अपने स्वास्थ्य और सुखकी दृष्टिसे घर में ही धूप से बचकर बैठता है ] ॥२३॥
१. श्लेपः - च० ना० ।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममः सर्गः
T
मातरीति- हे नाथ हे स्वामिन् राम, निलीनं प्रविष्टम् किम् ? हरिकुलम्, कासु ? वृक्षकुक्षिषु, कथम्भूतम् १ ततं सन्तप्तम्, कसति । अस्मिन् साहसगतौ मातरि स्वजनन्यां विषये श्वैकवृत्ते शुन इबैकं वृत्तं यस्य स तस्मिन् सति कथम्भूते । कालान्तरवितापिनि कालान्तरे वितरत इत्येवं शीलः स तस्मिन् समयान्तरवितपनशीले |
भारतीय:- नाथ हरिकुलं बलीवर्दसमूहः वृक्षकुक्षिषु विषये तसं सन्तप्तं सद्विलीनम् । क सति ? अस्मिन्शुचिसमये सति, कथम्भूते ? मातरिश्वैकवृत्ते मातरिश्वनिधायावेकं वृत्तं यस्य तस्मिन् पुनः कथम्भूते ? कालान्तरवितापिनी कालो वर्षाशिशिरौ तयोरन्तः पर्यन्तः कालान्तस्तस्मिन्यो रविः सूर्यः तस्य तापोऽस्त्यस्मि त्रिति कालान्तरवितापी तस्मिन् ||२४||
परोत्तापनशीलस्य पांसुलस्य चितौजसः । दुर्वृत्तं दुःसहं तस्य दुर्जनस्येव लक्षितम् ||२५||
परेति तस्य साहसगतेः दुर्वृत्तं दुश्चेष्टितं दुसहं सोढुमशक्यं रक्षितं ज्ञातम्। कस्बेव ? दुर्जनस्येव, कथम्भूतस्य ? परोत्तापनशीलत्य पुनः पांशुलस्य पारदारिकस्य पुनश्चित्तौजसः दुश्वराक्रमत्य ।
भारतीयः तस्य शुचिसमयस्य दुर्वृत्तं लक्षितम् । कथम्भूतम् ९ दुःसहम्, कस्येव १ दुर्जनस्येव, कथम्भूतस्य शुचिसमयस्व ! परोत्तापनशीळस्य, पुनः पांशुलस्य धूलियाहिणः पुनस्वित्तौजसः दुष्टतेजसः । अन्यत्समम् ||२५||
गृहartiy सोपानपंक्तयस्तस्य तापतः । पानीयपथसञ्चारैर्विमुक्ताः प्रतिवासरम् ॥२६॥
गृहेति-पानीयपथ सञ्चारो येषाम् जलहारिणां मनुष्याणां तैः सोपानपङ्कयः, विमुक्ताः परित्यक्ताः, कासु ? गृद्दवापीषु प्रासादक्रीडादीर्घिकासु, कस्मात् ? तस्य साहसगतेः तापत उपद्रवात्, कथं यथा भवति ? प्रतिवासरं दिनंदिनम् ।
भारतीयः - पानीयपथसञ्चारैः कल्लोलैः, तस्य शुचिसमयस्य तापतः सन्तापात् शोषणलक्षणात् शेषं पूर्ववत् ॥ २६ ॥
विहाय स्वान समानि तत्प्रचारविशङ्कया । दिनं गमितवन्तोऽन्ये वनदुर्गेषु निद्रया ||२७||
दूर देश तथा समय तक कष्ट दाता तथा अपनी माता के साथ भी कुत्ते के समान आचरणकर्त्ता इसके द्वारा सताया गया हरिवंश पेड़ोंके तनों में छिप गया है । आँधी रूपी प्रकृतिधारक तथा अन्य समय भी तपानेवाले इस ग्रीष्म ऋतुसे त्रस्त बैलोका समूह पेड़ोकी छाया में जा बैठा है ] ॥२४॥
उस साहसगतिका दुष्ट आचरण दुर्जनके समान दुखसे सहने योग्य है क्योंकि दूसरों को कष्ट देना ही उसका स्वभाव है। परस्त्री गमनके पापमें रत है तथा पराक्रमका अनीति में ही उपयोग कर रहा है। [ अत्यन्त तपनले जलानेवाले, धूलबहुल तथा कटकर तेजस्वी श्रीष्म ऋतुका स्वभाव भी दुर्जनके समान होनेसे असह्य होता है ] ||२५||
दिनों दिन बढ़ते साहसगतिके उपद्रवोंके कारण जलमार्गले चलनेवालोंने अपने नौकादि आरोहणको घरकी वायडियोंमें छोड़ दिया था । [ जलमार्गपर उठती लहरोंने घरकी बावड़ियाँकी सीढ़ियोंको प्रतिदिन पानी सुखाये जानेके कारण छोड़ दिया था ] ॥ २६ ॥
१. श्लेषः - ब०, ना० ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् विहायेति-अन्ये वनदुर्गेषु निद्रया प्रतिदिनं गमितवन्तः । किं कृत्वा १ स्वानि सदानि गृहाणि विहाय परित्यज्य तत्पचारविशङ्कया साहसगतिप्रवर्तनभीत्या । भारतीयः-तत्प्रचारविशङ्कया शुचिसमयविजृम्भणभयेन । समव्याख्यानम् ॥२७॥
सन्तापवद्दिनं जातं निशा क्रशिमयोजिनी |
अहो प्रतापो यत्तस्य बाधानिष्ठं दिवानिशम् ।।२८॥ सन्तापदिति-दिनं सन्तापवासन्तापयुक्तं , जातम् , तथा निशा रात्रिः शिमयोजिनी ऋशिमानं योजयत्येवंशीला जाता, अहो आश्चर्य वर्त्तते, कः ? तस्य साहसगतेः प्रतापः, यत् किम् ? दिवा च निशा च दियानिशमहोरात्रम् , कथम्भूतम् १ बाधानिष्ट पीडातत्परम् , अत्र तस्योपद्रवोद्रेकात् क यामि कि करोमीत्यहोरात्रचिन्ताकुलत्वं लोकस्य प्रदर्शितम् ।
भारतीयः-दिनं सन्तापवत् सन्तापकं जातं तथा निशा ऋशिमयोजिनी शिम्मा युध्यत इत्येवं शीला ऋशिमयोजिनी कृशतया युक्तत्यर्थः । अहो चित्रम् , एवं तस्य शुचिसमयस्य वर्तते यद्दिवानिशं लोकानां बाधानिष्टमासीत् । अत्र जातिव्यावर्णनम् ||२८||
उद्दीपितोय॑मायाभिर्निजप्रकृतिभिर्जनम् ।
अतापयदसावेवं तीत्राणां हीदृशी गतिः ॥२९॥ उद्दीपित इति-हे अर्य स्वाभिन् , एवमुक्तप्रकारेणासौ साहसगतिः निजप्रकृतिभिः जनं लोकमतापयत् ; कथम्भूतः १ मायाभिः कौटिल्यैरद्दीपितः हि युक्तम् , ईदृशी गतिर्वर्तते । केषाम् ? तीवाणामिति ।
भारतीयः-एवमुक्तप्रकारेगाऽसौ शुचिममयः जनमतापयत् । काभिः ? निजप्रकृतिभिरात्मीयस्वभावै, रुद्दीपितः, कः ? अर्यमा सूर्यः, ही कष्टम् अन्यत्समम् ।।२९||
तथावस्थं तमालोक्य तथा च क्रीडनांचितम् ।
रिपुमुदाधितं पापच्छिद्रामोघधियोद्यतः ॥३०॥ तयेति-असौ रामो राघवः रिपुं शत्रुमुदापितुं व्यापादयितुमुद्यतः, कया कृत्वा १ शत्रुरयमिति कृत्वा, अवधियाऽये धीरधधीस्तया अघधिया, कथम्भूतः सन् ? पापच्छित् पापं छिनत्तीति स तथोक्तः, किं कृत्वा ? पूर्वमालोक्य, कम् ? तं तथावस्थं सुग्रीवं वथा चालोक्य, कम् ? तं रिपुं साहसगति तथावस्थं परकलापहरणतुष्ट पुनः क्रीडनोचितं जनोपलवेन खेलनयोग्यम् ।
साहसगतिके आक्रमणके भयसे कितने ही राजा लोग अपने महलोको छोड़कर जंगलों अथवा किलोमें क्या सोकर दिन बिताते थे? अर्थात् जंगल या किले में भी जागतेजागते उनका समय जाता था। [गर्मीके उग्ररूप धारण करनेके भयसे वहुतसे लोग अपने घरोंको छोड़कर धने वनों में जाकर सोते-सोते दिन विताते थे ] ॥२७॥
उस साहसगतिका प्रचण्ड प्रताप ऐसा था जो दिनरात लोगोंको कष्ट देता था। दिन भर सन्ताप रहता था तो रातमें चिन्तासे शरीर और प्राण सूखते रहते थे। [आश्चर्य है कि ग्रीष्मका प्रचार दिनरात बाधा करता था क्योंकि दिन तपाता था और रात छोटी हो गयी थी] ॥२८॥
है आर्य ! अपने मायावी खभावके कारण अत्यन्त रुद्र (निर्दय ) यह साहसगति प्रजाको सय प्रकारसे कष्ट दे रहा था । [अत्यन्त जलता यह सूर्य अपने इस उग्र स्वभावके द्वारा संसारको तपा रहा था ] ठीक ही है निर्दय अथवा उप्माशीलोंका पेसा ही आचरण हो सकता है ॥२९॥
पापविनाशक राम अनर्थ बढ़ने की आशंकासे इस प्रकार दुर्गतिको प्राप्त सुग्रीवको देखकर तथा चक्रधारी के द्वारा सर्वथा पीडन करने योग्य शत्रु साहसगति का नियंत्रण या
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमः सर्गः .......... .... . . . . .....
भारतीयः-असौ जरासन्धः, तं रिपुमुदाधितुमुद्यतः, कया कृत्वा ! पापच्छिद्रामोघधिया पापद्वारेवप्रतिहतबुद्धया, किं कृत्वा ? तं शुचिसमयम् आलोक्य, कथम्भूतम् ? तथावस्थं लोकनाधाकरं तथा आलोक्य, कम् ? ते रिपुम् , कथम्भूतम् ? ईडनोचित स्तुतियोग्यम् ||३०||
पश्यन्निव पुरः शत्रुमुत्पतन्निव खं मुहुः । निगिलन्निव दिक्चक्रमुद्गिलभित्र पावकम् ॥३१॥ संहरन्निव भूतानि कृतान्तो विहरन्निव | ग्रीष्माग्न्यर्कपदार्थेषु चतुर्थ इब कश्चन ॥३२॥ प्रमत्तानेकपालालमुच्चैरथ निरन्तरम् ।
प्रचण्डतरसामन्तं द्विपो दण्डमयोजयत् ॥३३॥ अधुना श्लोकत्रयमयोजयदित्यनया नियया व्याकुर्मः । पश्यनिवेति-असी रामी रावयः दण्डं दण्डनीतिमयोजयत्प्रेरितवान् , किं कुर्वन्निव ? पुरोऽग्रतः शत्रु पश्यन्निव निरीक्षमाण इव, गगनमुत्पतन्निव उत्पतमान इव, दिक्चक्रं दिशां चक्रवालं गिलन्निव निर्मूल्य गिलग्नित्र, पावक्र दइनमुगिलग्निव उद्गरन्निव, संदरन्संहारविश्यीकुर्वन् , कः कानीव ? कृतान्ती यमः भूतानि जन्तुजातानीव, किं कुर्वन्निव ? विहरन्निव प्रवर्त्तमान इव, क इवोत्प्रेक्षितः १ चतुर्थ हब, कश्चन कोऽपि, केतु मध्ये ! प्री'माग्न्यपदार्थेषु शुचिज्वलनदिवाकरपदार्थषु त्रिपु मध्ये-अथ शब्दः प्रकारान्तरसूचकः, कथ्यते । अयोजयत् , को सौरामः । कमर दण्डं दण्डनीतिम्: कस्य ? द्विपः शत्रोः, कथम्भूतं दण्डम् ? अमन्तं रोगवन्तम् , केन हेतुना ? प्रचण्डतरसा तीव्रवेगेन, कथम् ? निरन्तरम् । कथम् ? अलमत्यर्थम् । समन्तमित्यस्य प्रयोगस्य भावः कथ्यते रामेण प्रयोजिता दण्डनीतिमहनिश चिन्तयन्तः दानवो रोगिणी जायन्त इति भावः । कथम्भूती रामः १ प्रमत्तानेकपाल: "तलप्रत्ययस्तसादिषु वर्त्तते, तेनायमर्थ:-अहमित्यत्व भावो मत्ताः प्रकृष्ट मत्ता येषां ते प्रमत्ताः क्षत्रियोऽहं क्षत्रियोऽहमित्यहमहमिका निष्ठा इत्यर्थः । प्रमत्ताश्च तेऽनेकाश्च (के च) प्रमत्तानेकाः (के) प्रमत्तानेकान्पाल्यतीति प्रमत्तानेकपाळ, कधम् ? उच्चैः अतिशयेन, अथवाऽजयत् , कोऽसौ ? रामः कान् द्विपः शत्रुन् कथं यथा भवति १ अन्तं प्राणत्यागं यथा, कथम्भूतो रामः ? दण्डमयो नीत्वात्मक इत्यर्थः । पुनः कम्भूतः ? उच्चमहान, कंपाम् ? प्रचण्डतरसां प्रचण्डं तरी बेगो येषां ते प्रचण्डतरसः तेषां प्रचण्डतरसा तीववेगानाम्, पुनः प्रमत्तानेकपालः प्रमत्तान प्रमादिनी जनाननेकानपायापालयतीति प्रमत्तानेकपालः, कथम् ? निरन्तरं कथम् अमिति । विनाश करने के लिए उद्यत हो गया था। [पाप तथा छिद्रोंके अन्यपणमें सर्वथा सफल जरासन्ध गर्मीके इस उन रूपको देखकर स्तुति करने योग्य चक्रवर्ती शत्रु (कृष्ण) का विरोध करने में लग गया था] ॥३२॥
मानो शत्रुको सामने ही खड़े के समान देखते हुए बारम्बार आकाशमें उचकता समान, समस्त दिशाओंको निगलता हुआ सदृश, घूमते हुए शरीरधारी यमके समान, आगको उगलता हुआ सा, समस्त प्राणियोंके संहारमै लीनके समान; ग्रीष्मऋतु, अग्नि और सूर्य पदार्थोंसे भी बढ़कर किसी दाहक चौथी वस्तु के समान अत्यन्त स्वाभिमानी अनेक क्षत्रियोंक प्रतिपालक अथा दण्डनीतिके पारंगत रामने अपने प्रतापके ही कारण रोगी शत्रुको निर्वाध, प्रबल तथा सतत प्रचण्ड भेगके साथ पराजित कर दिया था। [जरासंधने मदोन्मत्त हाथियोंसे तरंगित, रथों की भीड़के कारण धनी तथा अत्यन्त उद्धत सामन्तोंसे पूर्ण सेनाको शत्रुकी ओर भेज दिया था ] ॥३१-३३॥
१. सपा-ब०, ना० । २. तलप्रत्ययस्य तसादिपारन विभक्तिरज्ञत्वादस्मदो मदादेवा इनि भावः ।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
भारतीयः पक्षः - असौ जरासन्धः द्विषः शत्रोः दण्डं सैन्यमयोजयत्। कथम्भूतम् । प्रमत्ताने कपालोलं प्रमत्ताने पा लोला यत्र तं प्रक्षी गजेन्द्रचञ्चलं पुनरुच्चैरथनिरन्तरमुच्चैर्महान्तो रथा निरन्तरा अविच्छिन्नाः यस्मिन्तम् पुनः प्रचण्डतर सामन्तं प्रचण्डाः सामन्ताः क्षत्रियविशेषा यत्र तम् ॥ ३१ ॥ ३३ ॥ अधिष्ठितोऽस्त्रविद्याभिर्वीर श्रीलक्ष्मणान्वितः ।
१७६
विजजृम्भे तमुद्देशं विक्षेषो व्याप्य विद्विषः ||३४||
अधिष्ठित इति जिजूम्भे प्रज्वलति स्म, कोइसो १ रामः, किं कृत्वा ? पूर्वमुदेशमुद्दिश्य, कम् १ ते साइसगतिम् किं कृत्वा ? पूर्व व्याप्य स्वप्रतापेन प्रच्छाद्य, कान् ? द्विपः शत्रून, कथम्भूतो रामः ? विक्षेषः विगतः क्षेपः कालगमनिका यस्य सः, परित्यक्तकालयापन इत्यर्थः । पुनरस्त्रविद्याभिः "त्रिविधमस्त्रं यन्त्रमुक्तं पाणिमुक्तं पाणियुक्तञ्च । विद्याः शास्त्राणि अस्त्राणां विद्या अस्त्रविद्याः ताभिरधिष्ठितः समाश्रितः, पुनः वीरश्रीलक्ष्मणा वीरश्रियोपलक्षितो यो लक्ष्मणस्तेनान्वितः ।
भारतीयः- विक्षेपो दण्डः विजजृम्भे किं कृत्वा ? पूर्वमुद्देशमुद्दिश्य, कम् ? तं नारायणम्, किं कृत्वा ? पूर्व व्याप्यः कान् ? विद्विषः कथम्भूतः सन् ? अधिष्ठितः, काभिः १ अस्त्रविद्याभिः पुनः वीरश्रीलक्ष्मणा जयलक्ष्मीचनान्वितः ||३४||
वत्रावतं क्लुमित्र मित्राकृष्य निपीडितम् ।
तं नातिसन्दधे को वा नम्रात्मा व्यभिचारकः ||३५||
बज्रेति-नातिसन्दधे नमति स्म, किं तत्कर्तृ ? धनुः, कम् ? तं रामम्, किमाख्यं धनुः १ बज्रावर्त्त वज्रावर्त्तनामधेयम् कथम्भूतम् ? निपीडितम् किं कृत्वा ? पूर्वमाकृष्य, किमिव नातिसन्दधे ? मित्रमिव, युक्तमेतत् को या नम्रात्मा व्यभिचारकः व्यभिचारी स्यात् अपि तु न ।
भारतीयः - नातिसन्दधेयञ्चति स्म, किं कर्त्तृ ? यन्त्रस्यैवावन्तः पुलकं यस्य तद्वज्रावर्त्तम्, कथम्भूतम् ? मित्रमिव । शेषं सुगमम् ॥ ३५ ॥
?
धनुः; कम् ? तं दण्डम् कथम्भूतम् ? वज्राव निपीडितम् किं कृत्वा १ पूर्वमाकृष्य, किमिव १
"
समासवदसौ लोपं दाहं मदनबाणवत् | विध्वंसघटनां राहुरिव कत्तु समुद्यतः || ३६ ||
समासेति--असौ रामः लोपं कर्त्तुं समुद्यतः क इव ? समास इव तथा दाहम्, क इव ? मदनवाणवत् कन्दर्पशर इव तथा विध्वंसघटनां विनाशयोजनाम्, क इव ! राहुरिव विधुन्तुद हव ।
पहिले शत्रुओं को प्रतापसे आतंकित करके बादमें उस साहसगतिको लक्ष्य घना कर शास्त्र तथा नीति विद्याके प्रामाणिक विद्वान् वीरोंकी शोभाभूत लक्ष्मणजी द्वारा अनुयात तथा एक भी क्षण नष्ट बिना किये आगे बढ़ते राम आगे बढ़े जा रहे थे । [ समस्त शत्रुओंको आकान्त करके अस्त्रविद्याओंसे परिपूर्ण, वीर लक्ष्मीके चिन्हांसे युक्त जरासंध की सेनाका आक्रमण कृष्णको लक्ष्य बनाकर बढ़ता जा रहा था ] ||३४||
खींचकर चढ़ाया गया ( आलिंगन किया गया ) बज्रावर्त नामका प्रसिद्ध धनुष मित्रके समान आगे झुक गया । उचित ही है कौन शिष्ट पुरुष धोखा देता ?
वज्रके समान पुलकयुक्त सेनाको बलपूर्वक घसीटकर सताये गये मित्रके समान धनुपने धोखा दिया था, क्योंकि कौन उदण्ड व्यक्ति ऐसा है जो विश्वासघात न करता हो | ||३५||
यह राम अथवा जरासन्धकी सेना व्याकरणके समासके समान लोप ( विनाश ) १. इलेप:- अ० ना० । २. लेपः- ० ना० ।
है
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
नघमः सर्गः
भारतीयः-असौ दण्डः समुद्यतः । व्याख्या प्राग्वत् ॥३६।।
अस्त्राणि यन्त्रमुक्तानि तस्सिन्देशे समन्ततः ।
निर्याता इव निष्पेतुर्कुरसंहारहेतवः ॥३७॥ अस्त्राणीति-तस्मिन् किष्किन्धाख्ये देशे अस्वाणि चकादीनि समन्ततः सामरत्येन निष्पेतुः पतितानि, कथम्भूतानि ? योगदारहेतवः ती बायकारणानि. क इव ? निर्याता इव अशन य इव । भारतीयः-देशे सौराष्ट्राभिधे । शोप समम ॥३७॥
कलत्रपुत्रमित्राणि गृहीत्वा तत्र ते जनाः ।
यथायथं पलायन्त भावि भद्रं हि जीवितम् ॥३८॥ नानाति-से नागरिकाः जनाः, यथायथं यच्छया पलायन्त । किं कृत्वा ? कलत्रपुत्रमित्राणि समा. दाय, क्व ? तब किष्किन्धारस्य देशे, हि युक्तमेतत् , किं तत् ? जीवितम् , कथम्भूतं स्यात् ? भद्रं कल्यागम, कथम्भूतं सत् ? भाषि। भारतीयः-तत्र सीराने देशे। शेष समम् ॥२८॥
ततो बलेन बाल्येऽपि सहजेन कृतायतिः । सर्वार्जुनमयोदात्तनायकाभरणान्वितः ॥३९॥ परदारग्रहाविष्टः स्पष्टमायोजितायुधः । दिव्यान्वयोऽत्र सुग्रीवरूपः कोपारुणेक्षणः ॥४०॥ कृत्वोच्चैरथवेगेन केशवस्त्रातिसंयनिम् ।
निर्ययो साहसगतिः स भीमः संयुगं प्रति ॥४१॥ अधुना त्रिकलेन व्याख्यायते ॥ तत इति-ततः किष्किन्धाख्यनगरात् संयुगं प्रति स साहसगतिः निर्ययो । कथम्भूतः सन् ? कृतातिः विहितप्रसिद्धिः ? केन ? बरटेन सामर्चेन, कथम्भूतेन ? सहजेनाकृत्रिमेण, छ? बाल्येऽपि बाल्यावस्थायामपि, पुनः सर्वार्जुनमयोदात्तनायकाभरणान्वितः सर्वाणि समस्तान्यर्जुनमयानि हाटकनिर्मितान्युदात्तनायकानि उदात्तो दीप्त्योत्कटः नायको मध्यमणिर्यवां तानि च तान्याभरणानि तरन्धित्तः । भारतीयः-केशवः ततो द्वारकायाः सकाशानिर्ययो, कथम्भूतः सन् ? कृतायतिः विहितोत्तरकाल. फलः, न १ बाल्यऽपि शैशवपपि, कयं सह निर्थयौ ? सहजेन बन्धुना बलेन बलभद्रेण । पुनः कथम्भूतः ! सर्वार्जुनमयोदात्तनायकाभरणान्वितः सर्व समस्ताः, अजुनो हतुर्येषां तेर्जुनमयाः, सबै च तेऽर्जुनमयाश्च सर्वार्जुकामदेवके चाणके समान तपन ( हरन) और गहु के सगान विनाश (चन्द्रमाके अंशका ग्रास) करने में प्रयत्नशील हो गया था ॥३६॥
उस किष्किन्धा अथवा सौराष्ट्र देशमें चारों ओरसे मार द्वारा चलाये गये तथा भयंकर संहार करते हुए शस्त्र धज्रपातके समान गिर रहे थे ॥३७॥
उस देशमें समस्त नागरिक अपनी स्त्री, यो तथा मित्रोंको साथ लेकर जैसे बन पड़ा भाग खड़े हुए थे। भविष्यको कल्याणमय कल्पना पर ही जीवन आथित है यह इस पलायनसे स्पट है ॥३८॥
अपने स्वाभाधिक चलके कारण बाल्यावस्थामें ही प्रसिद्ध हुआ, विशुद्ध सोनेले पूरेके पूरे बने उदात्त नायकके आभूषणोंको धारे हुप, सुग्रीवकी पत्नी तागको रखने के लिए कदाग्रही, स्पष्ट ही मायाचारी, शस्त्रोंके द्वारा जीतने योग्य विद्याधर कुलमें उत्पन्न, आंशिक
१. अर्थान्तरन्यासः-१०, ना० ।
२३
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् नमयाः, ते च त उदात्तनायकाश्च सार्जुनमयोदात्तनायकास्त एवाभरणानि तैरन्वितः ।
पुनः कथम्भूतः ? परदाराग्रहाविष्टः परदारेष्वाग्रहः इमां तारा सुग्रीवपत्नी भोक्ष्यामीति दुरभिनिवे. शस्तेनाविष्टः पुनः स्पष्टमायः स्पष्टा प्रन्यक्ता माया कौटिल्यं यस्य स तथोक्तः पुनः जितायुधोऽभ्यस्तशस्त्रा, पुनः दिव्यान्वयः दिवि यान्तीति दिव्या विद्याधराः, दिव्यानामन्वयो यस्य स दिव्यान्वयः पुनः सुग्रीवरूपः ईपसिद्धः सुग्रीवः सुग्रीवः सुग्रीवरूपरूपधारीत्यर्थः, क ? अत्र किष्किन्धानगरे पुनः कोपारुणेक्षणः क्रोधलो हितलोचन इति । भारतीयः-- पुनरपि कथम्भूतः केशवः ? परदाराग्रहाविष्टः शत्रुविधारणाङ्गीकारयुक्तः पुनरायोजितायुध आयोजितान्यात्मसात्कृतान्यायुधानि तोमरादीनि येन सः, पुनः दिव्यान्वयः प्रशस्तान्वयः यादवान्वयः पुनः सुग्रीवरूपः प्रशस्यरेखात्रयान्विता ग्रीवा यरिंमस्तद्रूपं यस्य सः, क ? अत्र लोके । स साहसगतिः संयुगं प्रति सझानविनय निगा।
किं कृत्वा ? केशवनातिसंयति कृत्वा केशवम् पोरतिसंपत्तिः केशवत्रा तिसंयतिलाम, अतिशयेन केशवज्योबन्धनं कृत्वेत्यर्थः । केन ? घेगेन जयेन पुनः भीमो भवानकः । कथम् ? उच्चैरी अयशब्दो मङ्गलवाची गृह्यतेऽव्ययानामनेकार्थत्वान्, गायमर्थः-मङ्गलानि पुरम्सराणि कृत्वा निर्ययो । भारतीयः–केशवो नारायणः, उच्चै रथवंगेन स्वन्दनजवेन संयुगं प्रति नियंत्रो, किं कृत्वा ? बातिसंयतिं कृत्वा मन्त्राहबन्धनं विधाय । कथम्भूतः १ . साहसगतिः साहसं सन्नाह यत्र नाहं न भाय (वाऽ) य मिति प्रत्ययः साहसे भया साहसी साहसी गतिः प्रवर्तनं यस्य सः पुनः सभीमः वृकोदरयुतः ॥३९-४१॥
निषेकदिवसः कश्चिदुपालिङ्गन्नु किश्चन । प्राणिनामपमृत्युः स्विदिति लोकं विशङ्कयन् ॥४२॥ आलीहपदविन्यासमध्यमध्युपितं जगत् ।
अमंस्तोपनतं विश्वं सहसाकृष्टकार्मुकः ।।४३।। निकलमधुना युगलेनाह-निपेकेति-साहसगसिरमस्त, किं कुर्वन् ? लोकं विशङ्कयन् संशयं नयन् , कथमिति ? कच्चित् कोमलामन्त्रणे, अहो वर्तते निकदिवसो मृत्युदिनं न्यहो किशनोपालिङ्गन् स्विदपमृत्युरकालमरणं वर्तते, केषाम् ? प्रणिनामिति । असौ साहसगतिः जगदमस्त मन्यते रुस, कथम्भूतम् ? आलीढपदविन्यासमध्यमध्युषितमालीढस्थानान्तरालं निविष्टम् , कथम्भूतं जगत् ? उपनतमनुषङ्गमायातम् , पुनः विश्वं समस्तम् , कथम्भूतः साहसगतिः ? आकृष्टफार्मुक आरोपितचापः । भारतीयः असौ केशवः। शेष समम् ||४२-४३॥युग्मम् ।।
ऋजुपकारिनिव्यो कृच्छ्ष्वव्यभिचारिणम् ।
स मित्रमिव निर्दोपं दूरं चिक्षेप मार्गणम् ॥४४॥ सिद्धिका पात्र, क्रोधसे लाल लाल आँखें किये, बालों तथा वस्त्रोको भलीभाँति याँधे हुए यह भीषण साहसगति युद्ध करनेके लिए अत्यन्त धेगशील रथपर झटकेसे निकला था [सगे भाई के द्वारा बाल्यावस्थामें ही भावी पुण्यका संचय कर्ता, अर्जुन आदि समस्त धीरोदात्त नायक ही जिसके भूपण हैं, शत्रुओंके विनाशफी घोर प्रतिक्षासे अभिभूत, शस्त्रों तथा उनके संचालनमें सर्वोपरि, प्रशस्त वंशमें उत्पन्न, त्रिवलि सुक्क सुन्दर श्रीवाधारी, क्रोधके कारण रक्तनेन, स्वहसके साथ गम्भीर गति तथा भीमसे अनुगत कृष्ण सन्नाहको पहिनकर तीव्रगतिकाले रथके द्वारा युद्धकी तरफ चल दिये थे ] ॥३९-४१॥
क्या मृत्युका दिन ही सबका आलिंगन कर रहा है ? अथवा क्या मनुष्य मात्रकी अकाल मृत्यु ही चली आ रही है इस प्रकारकी शंकामें लोक पड़ गया था। पास पास पड़े पैरोंके चीचके स्थानमें ही पूर्ण विश्वको दबाता हुआ और चापको चढ़ाते ही वह साहसगति अथवा केशव सारे विश्वको पराजित मानते थे ॥४२-४३॥
१. श्लेषः-०, ना।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमः सर्गः
१७९ ऋविति-स साइसगतिः निषि किहमलवजितं निशितमित्यर्थः, दूरमत्यर्थम् , ऋजूपकारिनिर्व्याज ऋजुः प्राञ्जलः, उपकार्युपकारकः, निर्व्याजः निश्छलः, स च स च स च तं तथोक्तम्, कृच्छ्व व्यभिचारिणं समीपगं मागणं शर चिक्षेप, किमिव ! एतलक्षण मित्रमिव मुइदं यथा । भारतीयः-असौ केशवः । शेपं सभम् ॥४४॥
कोटिशः कुञ्जरबलं शरपञ्जरमध्यगम् ।
रामभद्रं जनोऽद्यापि वनस्थितमिवैक्षत ॥४५॥ कोटिश इति असौ जनः, तं रामभद्रं राघवमयापि साम्प्रातमपि वनस्थितमिवेक्षत ददर्श, कथम् ? कोटिशः कोट्या-कोट्या कोटिशः "रासये काद्वीप्सायाम्" [जै. सू. ४१२१४८] इति शस् । कोटिकोटिसङ्ख्यापरिभितो जनः, कथम्भूतम् ! अरबले कुञ्जरागामिव बलं यस्य ते नागबलमित्यर्थः, कशम्भृतं सन्तभैक्षत जनः ? वनस्थित मित्र, दारपअरमध्यगं राणमयगत , चमपि कथम्भूतम् १ अरवलं कुलानि लतादिपिहितोदराणि स्थानानि कुब्जे रवं प्रतिध्वनि लाति गृहातीति फुअरसले पुनः सरपसरमध्यगं जालस्थानमध्यस्थमित्यर्थः ।
भारतीयः जनः कोटिशः कोटि कोरिपरिमितं कु.सुरवलं गजसैन्यथैक्षत बनस्थितमिव कथम् ? अद्यापि, कयम्भूतम् सत् ! शरपसरमध्यगं पुनः कथम्भूतम् १ रामभद्रं रामं मनोज्ञ भद्रं सर्वलक्षणसम्पूर्ण भद्रजातीयं रामञ्च तद्रव रामभद्रमिति ||४५||
दष्टदन्तच्छदं बद्धभ्र भङ्ग मुक्तहुकृति ।
ग्रहाविष्टमिवानिष्टं घोरं युद्धमिहाभवत् ॥४६॥ दष्टेति-इह किष्किन्धाल्यदेशे युद्ध रणोऽभवत्सभातम् , कयम्भूतम् १ दष्टदन्तच्छदम् , दष्टादन्तच्छदा यत्र तञ्चर्वितोष्ठ पुनः बद्ध भूमाङ्ग बसो भूभङ्गो यत्र तद्विरचितभ्रुकुटि; पुनः मुक्त कृति मुक्ताहुत्तिर्यत्र तन्मुक्तहुङ्कारम् , अथवा पदत्रयमेतत् क्रियाविशेषणम् , पुनः अनिष्टममङ्गलं पुनर्घोर बीभत्सम् , किमिवोत्प्रेक्षितम् ? महाविष्टमिव ||४६॥
अपसले जनैरुस्राः सरन्तर्हिताः शरैः।
मुक्तकेशा इवाभूवन्दिग्दारा धूमकेतुभिः ॥४७॥ अपसस्र इति-जनैः लोकः, अपसोऽपस्तम् , तथा सलेः सूर्यस्य उला रमयः दारैरन्तर्हिता गूढाः, तथा दिग्दाराः दिराङ्गनाः धूमकेतुभिर्मुक्तकेशा इव अभूवन् सञ्जाताः ॥४७॥
सीधा, (उपकारक) इष्ट कार्यसाधक, लक्ष्यवेधक (निश्छल) कठिन लक्ष्यपर भी न रुकते शुद्ध धातुसे बने, अतएव सच्चे मित्रसमान चाणोंको उस साहसगति अथवा केशवने दूरतक फंक दिया था ॥४॥
___करोड़ी हाथियोंके बलके धारक तथा धाणोंके जालमेंसे जाते रामभद्रको इस युद्धके समय भी लोग वनवासी ही देखते थे [ वनवासी रामकी प्रतिध्वनि कुञ्जोंसे आती थी, तथा यह जलाशयों के बीच रहता था]
युद्धस्थली में खड़ी करोड़ों सुन्दर, भद्रजातिके, हाथियोंकी सेनाको वाण वर्षामसे गुजरनेके कारण, दर्शक जंगलमें फिरता-सा ही देखते थे ॥४५॥
किष्किन्धा अथवा सौराष्ट्र देशमें ऐसा दारुण और विनाशक युद्ध हुआ था कि योद्धा ओंठ चबा रहे थे, भृकुटियाँ टेढ़ी किये थे, ज़ोर ज़ोरसे हुंकार कर रहे थे फलतः ऐसे लगते थे कि उनपर भूत ही चढ़े हैं ॥४६॥
लोग भागते फिरते थे, सूर्य की किरणें वाणोंके जालके पीछे छिप गयीं थीं, आकाश में उदित धूमकेतुओंके कारण दिशा रूपी स्त्रियाँ ऐसी लगती थी मानो वाल बिखेरे खड़ी हैं ॥४७॥
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
istani
१८०
Him S
द्विसन्धानमहाकाव्यम् नष्टं भीतैः स्थितं धीरैः स्पष्टं दृष्टं सुरासुरैः ।
भीमेन बलरामेण गर्जितं सव्यसाचिना ॥४८॥ नष्टमिति-भीतैः भीरुभिः नष्टं पलायितं धीरैः स्थितं दृष्टं सुरासुरैः देवदानवैश्वकिवमवलोकितमित्यर्थः, कथम् ? स्पष्ट प्रत्यक्तं. बलरामेण बलिना रामेण गर्जितम् , कथम्भूतेन ! भीमेन भी मेण, पुनः सव्यसाचिना सव्यं सचत इत्येवं शीलः सव्यसाची तेन वामप्रदेशप्रणताङ्गविन्यासेनेति ।
भारतीयः--यथा नष्टम् , कैः ? भीतः, यथा स्थितम् , कैः ? धीरः, यथा दृष्ट चकितमवलोकितं कैः । सुरासुरैः, कथम् ? स्पष्टम् , तथा गर्जितम् , केन ? भीमेन वृकोदरेण, तथा गनितम् केन बलरामेण, हलिना, तथा गर्जितम् , केन ? सव्यसाचिना अर्जुनेनेति ॥४८॥
स दुरानमकोदण्डो मायावी विद्रुतो हतः ।
न रघोराहवे जातः कुले शूरोऽपि को जयेत् ॥४९॥ स इति-विद्रुतः पलायितः कोऽसौ ? स साहसगतिः, कथम्भूतः सन् ? इतः, क्य ? आहवे संग्राभे, कथम्भूतः स साहसमतिः ? दुरानमकोदण्डः दुःखेनानमति दुरानमः स चासो कोदण्टो यस्य सः पुनः मायावी निकारथान् , युक्त मेतको न जयेत् सों जयेत् सर्वोत्कण प्रवत, कः ? शूरो चीरः, कथम्भूतः सन् ? सञ्जातः समुत्पन्नः, क्व ? कुले चशे, कस्य ? रधोईढरथस्येति ।
भारतीयः-विद्रुतः पलायितः, कोऽसौ ? जरासन्धमुक्तो दण्डः सैन्यम् , कथम्भूतः सन् हतः, क्व ? भरघोराहवे धोरश्वासाबाहश्च घोराहवः नरत्य घोराहवः तत्र, अर्जुनस्य रौद्रसंग्रामे, कथम्भूतो दण्डः ! दुरानमकः दुःखेग जेतुं शक्यः, कथम्भूतः ? मायाघी मायाः लक्ष्म्या आयं प्रवेशमवतीत्येवं शील: मायावी लम्या आगमनाभिलापुकः, युक्तमेतच्छूरोऽपि सन् को न जयेत् रिपुभिरनभिभूतः सन् सर्वोऽपि सर्वोत्कर्पण प्रवर्तत इत्यर्थः, कशम्भूतः ? कुले जातः ||४९||
केशवो बलदेवश्च न पोरैरेव केवलम् ।
प्रत्युद्यातस्तथा तेषां रोमाञ्चः सञ्चितैरपि ॥५०॥ केशव इति-केशवो लक्ष्मणः बलदेवश्च रामश्च केवलं पोरैरेव नागरैरेव न प्रत्युद्यातस्तथा तेषां पौराणां रोमाञ्चैरपि पुलकितैरपि प्रत्युद्यातः कथम्भूतैः १ सञ्चितैः पुष्टिमागतः । भारतीयः-केशवो नारायणः नलदेवो रेवतीरमणः । शेषं समम् ॥५०॥
चलत्पताकालुद्ध तोरणां तामविक्षताम् ।
द्वारकां गोपुरद्वारैः किष्किन्धनगरीमिव ॥५१॥ भयभीत लोग भागते दिखते थे, धीर पुरुष डटे हुए थे, देव दैत्य आश्चर्यसे देख रहे थे तथा बाँयी तरफ शरीरको मोहे बलवान् तथा भयंकर रामने गर्जना की थी [कृष्णकी तरफसे मी भयंकर भीम, बलिष्ट बलराम तथा धनुषधारी अर्जुनने गर्जना की थी] ॥४८॥
बड़ी कठिनताले भी धनुपको न चढ़ा सकनेके कारण निकृष्ट छलिया तथा भागता हुआ वह साहसगति युद्ध में मारा गया था। रघुके घंशमें उत्पन्न स्वयं पराक्रमी होकर भी किसको न जीतेगा? [भगीरथप्रयत्न करनेपर भी अजेय माया (लक्ष्मी) की लोभी जरासंघके द्वारा भेजी गयी सेना अर्जुनकी घोर लड़ाई में या तो भाग गयी थी या मार डाली गयी थी । कुलीन तथा खयमेय योद्धाके लिए कौन अजेय है ? ] ॥४९॥
लक्ष्मण अथवा कृष्ण और बलदेव राम अथवा बलरामकी अगवानी केवल क्रमशः किष्किन्धा अथवा सौराष्ट्र के नागरिकांने ही न की थी अपितु सारे शरीरमें उठे उनके रोमाञ्चोंने भी इनका खागत किया था ॥५०॥
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमः सर्गः
चलदिति - रामलक्ष्मणौ, अथवा रामसुग्रीवौ किष्किन्वनगरीमविक्षतां प्रविष्टौ कैः कृत्वा १ गोपुरद्वारैः, कथम्भूताम् ? चपताकां बातान्दोलितध्वजाम् पुनरुद्रढतोरणा मूध्वीकृतवन्दनमालिकाम् कामित्र ? द्वारकामिव ।
भारतीयः - नारायणबलदेवी द्वारकामविक्षताम् कामिव १ किष्किन्धनगरीभिव । शेषं सर्व प्राग्वत् ॥५१॥
,
सुग्रीवः सपदि पराक्रमेण कन्यां वैकुण्ठः परिहृषितः शुभां सुभद्राम् । कल्याणीं स बहुमतो जितार ब्रेऽस्मै ये
"
दिनक्रम तथा धनञ्जयाय ॥ ५२ ॥
इति श्री धनञ्जयकृतौ राघवपाण्डवीये महाकाव्ये मायासुग्रीवनिमहजरासन्धबलविद्रावणं नाम नवमः सर्गः ॥ ९ ॥
सुग्रीव इति-सुग्रीवः अस्मै रामाय कन्यां पुत्रीं दित्सन् दातुमिच्छन् अक्रमत प्रवर्तते स्म, कथम्भूताय रामाय ? जितारये पराभूतशत्रवे तथा धनं दित्सन्, दातुमिच्छन्, किमर्थम् ? जयाय जयनिमित्तम्, कथम्भूतां कन्याम् शुभां शुभलक्षणाम् पुनः सुभद्रां शोभनानि भद्राणि कल्याणानि यस्यास्ताम् किमाख्यां कन्याम् ? कल्याणी कल्याणीनामधेयाम् कथम् १ शीघ्र सपदि कथम्भूतः मुग्रीवः ! कुण्ठः मन्दः, फैन ! पराक्रमेण प्रतापेन, कथम् ? वैस्फुटम् कथम्भूतः १ परिहृषितः प्रहृष्टः
3
पुनः बहुमतः बहूनां नीलनलजाम्य
दादीनां मतं यस्य सः ।
भारतीय:- वैकुण्ठो नारायणः सुभद्रां कन्यां कुमारी जितारयेऽस्मै धनञ्जयायार्जुनाय दित्सन्नक्रमत, कथम्भूतां कन्याम् ? शुभां कल्याणी कल्याणहेतुत्वात् कथम्भूतो वैकुण्ठः १ सुग्रीवः शोभना यथोक्तलक्षणलक्षिता ग्रीवा कन्वरा यस्य सः, पुनः बहुमतः, बहूनां मत इष्ट इति ॥५२॥
1
इति श्रीनिरवद्यविद्यामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलमण्डितस्य षटतर्कचक्रवप्तिनः श्रीमद्विजयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनान्नः क्षिप्येण सकलकलोद्भवचा रुचातुरीचन्द्रिका. घोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां पदकौमुदी नाम दधानायां टीकायां मायासुग्रीवनिग्रहजरासन्धबलविन्द्रायणं नाम नवमः सर्गः ॥९॥
राम लक्ष्मणने द्वारकापुरीके समान किष्किन्धापुरी में गोरोंसे प्रवेश किया था । गोपुरके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थी तथा बन्दनवार बँधी हुई थी । [बलराम और कृष्णने किष्किन्धापुरीके समान द्वारकापुरीके मुख्य द्वारसे प्रवेश किया था ] ॥ ५१ ॥
निश्चित ही रामके पराक्रमसे आश्चर्यचकित, अत्यन्त प्रसन्न, तथा नल-नील जामवन्तादिका मान्य वह सुग्रीव शत्रुओंके जेता इस रामके साथ शुभ लक्षणवती, अत्यन्त योग्य तथा भोली भाग्यवती लड़कीका विवाह करनेकी इच्छासे इसकी विजय के लिए तुरन्त ही धन देनेके कार्य में लग गया था। [निश्चित ही अर्जुनके पराक्रमपर परम प्रसन्न, सबका पूज्य, सुन्दर ग्रीवाधारी बैकुण्ठ (कृष्ण) भाग्यवती, शुभ सुभद्रा नामकी कन्या (बहिन ) को शत्रुके जेता इस धनञ्जयको व्याहने की इच्छासे तैयारी में लग गया था ॥ ५२ ॥ इति निर्दोषविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, पटतकंचक्रवर्ती श्रीमान् पंडित विनयचन्द्र गुरुके प्रशिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाचा सुर्य चन्द्रिका के चकोर, नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनन्जय के राघच पाण्डवीय नामसे ख्यात हिसन्धान
काकी पदकौमुदी टीका में 'मायासुग्रीवनिग्रह अरासन्धबल
विद्वावण' नामका नवम सर्व समाप्त |
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः अन्यदा रसमिवैक्षवं वचश्चित्त हारि हरिवंशनायकम् ।
दण्डगर्भमपि भोगलोलुपं कोप्युपेत्य पुरुषोत्तमोऽवदत् ॥१॥ अन्यदेति--अन्यदाऽन्यस्मिन्नहनि पुरुषोत्तमः लक्ष्मणः हरिवंशमायकं सुग्रीवं प्रति वचो वचनमनदत् उवाच । कथम्भूतं वचः ? चित्त हारि हृदयङ्गमम् ,पुनः दण्डगर्भमपि दण्डप्रधानं कोपि कोपनशीलम् , किं: कृत्वा ? उपेत्य समीपमा गत्य, कमिव ? ऐक्षवभिक्षुविकारं रसमिव निसभिव, कथग्भूत हरिवंदानायकम् ? भौगलोटपं सकचन्दनादिषु लम्पटम् ।
भारतीयः---अन्यदा कोपि पुरुषोत्तमः पुरुषोत्तमनाभा दृतः भोगलोलुपं हरिवंशनायक नारायणमुपेत्य वचोऽवदत् । कथा भूतं वचः १ ऐक्षवं रसभिव, पुनः कथम्भूतम् ? दण्डगर्भमपि दण्डमिश्रिताप ॥१॥
श्रीमत्तां श्रुतवतां कुलजानां त्वय्युपस्कृतमिदं न तु दृष्टम् ।
सत्यमुमतिमतां हि गुरूणां मेरुरेव विकृतो न कदाचित् ॥२॥ श्रीमतामिति-न तु दृष्टम् नावलोकितम् , किं तत् ? इदं प्रत्यक्षगोचरमुपस्कृतं वैकृतम् , क स्वयि विषये त्वय्येव, केषां मध्ये ? श्रीमता धनेश्वराणां तथा श्रुतवला ज्ञानिनां तथा कुलजानां महान्वयानामुन्नतिमता. मुच्चस्तराणाम् 'अत्रेदं तात्पर्यम्-यथा तुङ्गानां कुलाचलाना सता मरुख विकृतो न कदाचिद्दरीदृश्यते तथा धनेश्वराणां शास्त्र वतां कुलीनानाञ्च सता त्वमेवेति । एतेन सुग्रीवे' नारायणे च विद्याभिजन वृत्तं व्याख्यातम ॥२॥
यौवनं तव न वैकृतं गतं मन्मथोऽपि समभावमास्थितः ।
त्वं परं युवजरन्गुणानिमानापवादपदवीमजीगमः ॥३।। यौवन मिति-हे सुवजरन् तरुणानां मध्ये वृद्ध न गतम् । किम् ? तद्यौवनं प्रथमं वयः, किं न गतम् ! वैकृतं विक्रियाम् 1 कस्य ? तव, तथा मन्मधोऽपि समभावमास्थितः ? कन्दोऽपि भवन्तं विक्रियां न नीतवान् इत्यर्थः १ तथा चोकम् – “ये दीनेषु दयालवः स्पृशति यानल्पोऽपि न श्रीमदः व्यग्रा ये च परोपकारकरणे
किसी दिन भोग-विलासीमें लीन बानरवंशके नेता राजा सुग्रीवके पास जाकर मर्यादा पुरुष लक्ष्मणने इक्षुके रसके समान मनको मोहते, दण्डनीतिसे व्याप्त तथा क्रोधके कारण वचन कहे थे । [दूसरे समय किसी पुरुषोत्तम नामके दूतने सांसारिक सुखों के जुटानेके इच्छुक यदुवंश शिरोमणि कृष्णके पास जाकर सुनने में इक्षुरसके समान मनमोहक तथापि दण्डमिश्रित सूचना दी थी॥१॥
लक्ष्मीपतियों, शास्त्रों के पण्डिता, उच्चकुला में जात पुरुषों, वास्तव में अभिवृद्धिको प्राप्त महापुरुषोंकी विकियासे हे वानरराज ! अथवा हे नारायण ! आपमें कोई विकृति नहीं दिखायी देती है अर्थात् आप इन सबसे श्रेष्ठ हैं । टीक ही अन्य पर्वतोंमें विकृति होने पर भी मेहमें कभी कोई विकार नहीं होता है ॥२॥
आपका यौवन कभी भी विकृतिको प्राप्त नहीं हुआ है । आपका कामदेव भी संयत १. रथोखूतावृत्तम् , लक्षणं हि-"रानराधिह रथोद्धता लगो" (वृ. र० ३१३९)। २. लक्ष्मणे न सुग्रीवे पुरुषोत्तमे न नारायणे च विद्या-द० । ३. स्वागतावृत्तम् । लक्षणं हि-"स्वागतेति रनभाद्गुरुयुग्मम्"। (ऋ० २० ३।४०)।
...---.-..-.
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः हृष्यन्ति ये याचिताः । स्वस्थाः सन्ति च यौवनोदयमहाव्याधिप्रकोपेऽपि थे, ते भूमण्डलमण्यनैकतिलकाः सन्तः क्रियन्तो अनाः" तथा इमान् सौण्डीर्यादीन् गुणान् अपवादपदवी निन्दाविषयं नाजीगमः न नीतवान् ॥३॥
सद्गुणास्तव नृपैः सुगृहीतास्ते तथापि न भवन्ति भवद्वत् ।
तोयदाः खलु जलं जलधीनां बिभ्रतोऽपि न तथापि गम्भीराः ॥४॥ सद्गुणा इति-तथापि न भवन्ति न जायन्ते । के ? ते नृपा राजानः, क इव ? भवद्वत् भवत्सदृशाः। यद्यपि सुगृहीताः सम्यकप्रकारेणाङ्कीकताः। के? सदगणाः अनन्यसम्भावनः शस्त्रशास्त्रादिपर कैः पैः नरेन्द्रः, कस्य ? तब मवतः, युक्तमेतत् , तथापि तोयदाः जलधराः गम्भीराः न स्युः, यापि तोयदा इति लौकिकी रूदि प्रौदि मारूढास्तोयदाः । किं कुर्वाणा अपि ? बिभ्रतोऽपि दधाना अपि, किम् ? जलम् , केषाम् ? जलधीनां समुद्राणाम , कथम् ? खलु निश्चये ॥४॥
त्वं हिमाद्रिरपि तां सरस्वती त्वं रविश्व कमलाकरग्रहम् ।
त्वं विधुश्च भुचनाभिनन्दथु धत्थ इत्थमपरो न कश्चन ।।५।। स्वमिति-धत्थः धरथः, कौ ? त्वं भवान् हिमाद्रिरपि तुहिनगिरिश्च युवाम् , काम् ? तां सरस्वती भारती सरस्वतीनामधेबां नदी च । धत्यः कौ ! त्वं रविश्च युवाम् कमलाकरग्रहं सक्षमीहत्तगइणं पद्माकरग्रहदच । धत्थः, कौ ? त्वं विधुरिन्दुश्च युनां भुवनाभिनन्दधुं लोकाभिनन्दनम् । धत्य इत्थमुक्तप्रकारेण । द्वी विहाय नापरोऽन्यः कश्चन एवंविधां क्रियां दधातीति' ||५||
आश्रयस्त्वमसि सर्वलघूनां सेविता भवसि सर्वगुरूणाम् |
छन्दसस्तव च वृत्तिमुदार पर्णयन्ति कवयश्चरितेषु ।।६।। आश्रय इति-स्वं सर्वलचूनामाश्रयः . समस्तनिराश्रयदीनदुःखितभाम्यदूरवर्तिनामयम्भोऽसि, छन्दोऽपि सर्वलघूनामेकमात्रिकाणामाश्रयो भवति । भवसि । कोऽसौ ? त्वम् , कथम्भूतः १ सेविता संवकः, केषाम् ? सर्वगुरूणां समस्तशाशास्त्राणामन्याहततयोपदेष्टणाम् , तथा छन्दोऽपि सेवमानं भवति । केषाम् १ सर्वगुरूणां समस्तद्विमात्रिकाणाम् । एवञ्च भो भूपते ! वर्णयन्ति उपल्लोकयन्ति । के ? कवयः, काम् ! वृत्ति प्रवृत्तिम् , उदारामुत्कटाम्, यस्य ? ते तव छन्दसच, केषु ? चरितेषु प्रस्तावोचितवार्तासु चरित्रेषु चेति ॥६|| रूपमें है। वास्तव में आप श्रेष्ठ युवक तथा वृद्ध है और आपने कभी भी इन श्रेष्ठ गुणोंकी अख्याति नहीं होने दी है ॥३॥
संसारके राजाओंने आपके समान सद्गुणोंका अनुकरण किया है तथापि वे आपके सदृश नहीं हो पाये हैं । यह सत्य है बादल समुद्रीका जल पीकर ही पुष्ट होते हैं तथापि ये वे उसकी ( समुद्रकी ) गंभीरताको कदापि नहीं पाते हैं ॥४॥
आप हिमाचल पर्वत होकर भी सरस्वती नदीको धारण करते हैं। [विरोध-हिमाचल समान शीतल और उन्नत होकर भी शारदाके उपासक है] सूर्य है तथापि कमल समूहके रोधक है [ सूर्य के समान तेजस्वी है तथा कमला (लक्ष्मी)का हाथ पकड़े हैं ] और चन्द्रमा होकर भी पृथ्वीके नन्दन (संगल ) ह[चन्द्रमा समान शान्त सुन्दर तथा पृथ्वीके आनन्दको बढ़ाते हो ] इस प्रकारके परस्पर विरोधी गुणोंको कोई भी दूसरा नहीं पा सकता है ॥५॥
सब तुच्छोंके आश्रय होकर भी समस्त महापुरुषोंके सेव्य [कैसे ] हो [ सकते हो। समस्त दीन दरिद्रोंकी शरण हो और सबही महापुरुषोके आराध्य हो। अतएव आपके चरित्रका वर्णन करते हुए कवि लोग आपके उदार स्वभावको [ सर्व लघु अथवा सर्वगुरुमात्रा युक्त ] छन्दोंके द्वारा प्रशंसा करते हैं ॥६॥
१. वृत्तं हि रथोतात्र । २. स्वागतावृत्तम् । ३. रथोद्धतावृत्तम् । ४. स्वागताधृतम् ।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
rarameen-manothindee
--NA......
द्विसन्धानमहाकाव्यम् दुर्जनेऽप्यनुनयः स्वभावतः सअने तु विनयो विशेषतः ।
तत्त्वमेवमभिमानिनं मम स्वामिनं किमिति नानुवर्तसे ॥७॥ दुर्जन इति-स्वभावतः दुर्जनेऽप्यनुनयः प्रीतिः, तु पुनरपि सज्जने विशेषतो विनयोऽस्ति । तत्तस्माकारणात् त्वम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अभिमानिनं मम स्वामिने किमिति नानुवर्स से |
तादृशं प्रशमितं ननु वैरं तेन ते कृतमिदं न लघीयः ।
कंसपाहतपरि झुधि वित्तं नेह संम्परसि र स्मरणीय तादृशभिति-नन्वहो प्रशभितभुपशान्तिमानीतम् । किम् ? वैरम् । केन ? तेन रामेण, कथम्भूतं वैरम् ? तादृशं ताराहरण रूपम् , कस्य ? ते तव कृत किमिदं लघीयो लघुतरम् ? अपि तु न, इदमुपकृतं कृतं गुरुतरमित्यर्थः । तथा त्वं न संस्मरसि न संस्मृतिमान यसि, कम् ? अरिं साहसगतिनामधेयम , कथम्भूतं सन्तम् ? समाइतं व्यापादित , पुनः कथम्भूतम् ? वित्तं प्रसिद्धम् , के इह भुवि- अस्यां पृथिव्याम् , स साहसगतिः । स्मरणीयः, कस्य ? सति ।
भारतीयः पक्षः-नु अहो न कृतं न चिहितम् , कि तत् ? इदं चैरम्, कैन ? तेन कंसेन, कथम्भूतम् न कृतम् ? प्रशमि, पुनः कथम्भूतम् ? लघीयः, तस्मान्न स्मरसि, कोऽसौ ! त्वम् , कम् १ अरि कसनामधेयम्, कथम्भूतम् ? आहत व्यापादितम् , पुनस्तादृशमजय्यमित्यर्थः । शेष समम् ॥८॥
श्रीवधूहरणवैरवन्धतः सम्प्रति भ्र कुटिभराननः ।
मा रुपन्मम पतिः समेत्य तं पादयोः पत समाहिताञ्जलिः ॥९॥ श्रीति-द्विः-मारुषत् मा रुष्टो भवतु, कोऽसौ ? मम पती रामः, क्रस्य ? तवेति पदं द्रष्टव्यम् । भृकुटिभङ्ग रानगः सन् , कस्मात् ? श्रीन्नधूहरणवैरबन्धतः सीताहरणवैरानुबन्धात् अतः कारणात् पत | कोऽसौ ? त्वम् , कयोः पादयोश्चरणयोः, किं कृत्वा ? पूर्धे समेत्य समीपभागस्य, कम् ? तं पति रामम् , कथम्भूतः सन् ? समाहितासलिः कलिकायितकरद्वयः । कथम् ! सम्प्रति ।
अधुना भारतीयः-मारुषत् , कोसो ? मम पतिः श्रीवधूहरणवैरबन्धतः श्रीरेच वधूः श्रीवधूः श्रीवध्वा ऊदो यत्र तच्छ्रीवधूहं श्रीवधूहश्च तद्रणवैरव श्रीवधूवरणवैरं तस्य बन्धतः बन्धात् लक्ष्मीकामिनीवितर्कसंग्राम
स्वभावसे ही आप दुर्जन पुरुषके साथ शिष्ट व्यवहार करते हैं तथा सजनोंका विशेषरूपसे सत्कार करते हैं । जब आपकी प्रकृति ही ऐसी है तो आप मेरे (लक्ष्मणके) आत्मगौरवशाली अथवा (दूतके ) अहंकारी स्वामीका अनुवर्तन क्यों नहीं करते हैं ॥७॥
अन्नय-तेन तादृशं वैरं प्रशमितं ननु इदं से लघीयः न कृतं । इह भुवि वित्तं समाहतं न संस्मरसि १ क अ । स स्मरणीयः।
रामने तुम्हारे उस महान् ( पत्नीका अपहरणरूपी) वैरका बदला लिया है। तो यह कोई साधारण उपकार नहीं किया हैं ? इस संसार भरमें शात तथापि राम द्वारा मारे गये उस शत्रुकी याद नहीं आती है ? जरा उसकी याद करके देखो।
अन्धय-तेन इदं से वैरं लघीयः प्रशमि कृतम् । तादृशं, इह भुवि वित्त आहतं अरिं कसं न संस्मरसि, स्मरणीयः सः।
राजा कंसने तुम्हारे साथ बँधी शत्रुताको न ता करने ही दिया था और न शान्त ही होने दिया था। इस प्रकारके दुर्दम अकृत्योंके लिए संसार भरमें कुख्यात और मरणको प्राप्त उस कंस शत्रुकी स्मृति नहीं आती है ? उसे याद करना चाहिए ॥८॥
साक्षात् लक्ष्मी पत्नी सीता हरणसे उत्पन्न वैर भावकी प्रबलतासे चढ़ी भौहोंक कारण कुपित मुख मेरा स्वामी राम कहीं तुम पर रुष्ट न हो जाय । इसी समय आकर दोनों
१. रथोद्धृतावृत्तम् । २. स्वागतावृत्तम् ।
-
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः
-
-
वेरानुबन्धात् भृकुटिभङ्गरानमः, तस्मात् सम्प्रति पादयोः पत नम्रो भव । किं कृत्वा ? तं जरासन्धनामधेयं मम स्वामिनं समेत्य, कथम्भूतः सन् ? समाहिताञ्जलिः कुड्मलीकृतकरयुग्मः ॥१॥
अग्रतो भव शुभे पथि तिष्ठ प्रश्रयं भज जहीहि निजौजः।
खामिनः श्रुतिपथातिथिभावं प्रापय प्रियजनैः प्रियवार्ताम् ॥१०॥ अग्रत इति-अग्रतः पुरतो भव जायत्व, शुभे पथि मार्गे तिट आत्य, प्रश्रयं भज सेवस्व, तथा निजीजः स्वकीयं बाल स्तब्धत्वमित्यर्थः । जटीहि परित्यज । तथा चोक.म् -- "स्तब्धमुस्खनति किन्न मूलतः पादपं सटहई नदीरत्रः । चेतसः प्रणमनाद्विवन्ते चाटुदेव कुरुते हि जीवितम् ॥” तथा प्रियदाता शुतिपथा. तिथिभावं कर्णपदवीविषयं गमय प्रापय, कैः कृत्वा ? प्रियजनैः सचिम्म लोकः, कस्य ? स्वामिनः प्रभोः । पापयेशि श्रियायाः मुरल्यामुख्यतया कर्मयं ज्ञेयम् ॥१०॥
वाचवमुपकर्ण्य कर्णयोः कर्कशामकृशयोः कशोपमाम् ।
क्षोभमन्धय इवाययुस्तया बात्यया सदसि वानराधिपाः ॥११॥ वाचमिति-वानराधिपाः सुग्रीवप्रभृतयः शाखामृगस्वामिनः क्षोभमाययुः प्रापुः। कन हेतुना ? सया बाचा, क? सदसि समायाम् , किं कृत्वा ? वाचमुपकर्ण श्रुत्वा, कथम् ? एवमुक्तप्रयारेण, कथम्भूतां वाचम् ? कर्कश कटिनाम् , कयो । कर्णयोः कथमपुरानो गयो ? अहम्पोरदुर्बलयोः न्याव्यात्मविषयग्रहणप्रवीणयोः, कथम्भूताम् ? कशोपमा चर्मवद्धीसदृशीम् कार्कशत्वात्तस्याः, कया क इव शोभमाययुः? बाल्यया बातमण्डलेन अब्धय इव समुद्रा इव ।
भारतीयः-नराधिपा बलभद्रादयो नरेन्द्राः , अथवा नरो-र्जुनोऽधियो क्षेपाम् अर्जुनस्वाभिमा नरेन्द्राः क्षोभमाययुः, कथम् ? यथा भवति । सदसि, उत्खातखा', यथा भवति, मियाविशेषणमेतत् । अन्यत्प्राग्वत् ॥११॥
श्रीदशाहकुलजाः किल केचिन्मानिनः स्थितिविघातमयेन ।
क्रोधवह्निशिखया स्वयमन्त हदूनहृदयाः क्लममापुः ॥१२॥ श्रीति-किल अरुची लोकोक्तौ वा । आपुः प्रापुः, थे ? ये चिच्छीदशाहकुलजाः कुलजाताः कुलजाः श्रीदशामईन्ति श्रीदशाहीः भाग्यावस्थोचिताः श्रीदवाईश्च ते कुलजाश्च श्रीदशाई कुला मलनीलादयः, कम् ? सामं दम् , केन हेतुना ? स्थितिविशतभयेन स्थानविश्वंसन भीत्या, कथम्भूताः सन्तः ? मानिनोह. हाथ जोड़े टुय उसके पैरों में प्रणाम करो [ राज्य लक्ष्मीरूपी पत्नी विवाह (श्रीवधू-उह) भूत रणसे बँधे वैरके कारण भृकुटि चढ़ाकर मुखको टेढ़ा किये वैश मेरा स्वामी जरासंध आप पर रुष्ट न हो जाय ] ॥९॥
आगे बढ़ो, कल्याण मार्ग पर आओ, विनम्रताको धारण करो, अपने प्रतापको छोड़ दो, प्रिय लोगों के द्वारा सीता प्रियाक समाचारको मेरे स्वामी रामके कानोंका अतिथि बनाओ । [जरासंधक प्रिय लोगोंके द्वारा अपनी अनुकूलताकी चर्चा उसक कानों तक पहुँचाओ ॥१०॥
कालों के लिए अत्यन्त कटोर. चायुको समान उक्त चातको सुघुष्ट कानोंसे सुनकर वामरवंशी राजा लोग राजसभा, उसी प्रकार क्षुभित, ही उटे थे जिस प्रकार तूफान समुद्र हो जाता है [ अर्जुन आदि श्रेष्ठ राजा तलवार उठाकर ( सदसि ) क्षुब्ध हो पड़े थे] ॥१२॥
लक्ष्मीसम्पन्न मान्य कुलों में उत्पन अपनेको हो सब कुछ समझते नल-नील-आदि राजा अपनी मर्यादा और राज्य के विनाश भयसे अपने आप ही दुःखी हो गये थे क्योंकि
१. रथोखतावृत्तम् । २. स्वागतावृत्तम् । ३. रथोताछन्दसि ।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
मिति प्रत्ययगोचराः पुनरन्तदहदून हृदया अन्तर्दाहक दर्थितचित्ताः क्रोधवह्निशिखया क्रोधज्वलनज्वालया, कथम् ? स्वयमात्मनेति ।
भारतीय:- किल आपुः प्रापुः के ? केचित्कतिपयाः श्रीदशाईकुलजाः समुद्रविजयादयः अक्षोभःतिमिलसागर :- हिमवान् विजय:- अचलः- आरणः पूरण:- अभिचन्द्रः वसुदेवदचैते दशाहः श्रियोपलक्षिताश्च ते दशाहश्च श्रीदशाहस्तेषां कुले जाताः बलभद्रादयः, कम ? क्लमं खेदम् केन ? स्थितिविघातभयेन स्थितिभङ्गशङ्कया स्वयमात्मीयप्रकृत्या | शेर्पा समम् ||१२||
भोजकाः सुखनिबद्धसम्पदः स्वेदसेकनिचिताङ्गयष्टयः ।
केऽपि कीप शिखिशान्तये बर्मुक्तवारिकलशा इवोपरि ||१३||
भोजका इसिकेऽपि केचिन्नरेन्द्राः चशुः भान्ति स्म, कथम्भूता इव ? कोपशिस्त्रिशान्तये क्रोधाग्निविभापनाय उपरि मुक्तवारिकलशा व गल्तिपयःकुम्भा इव कथम्भूताः सन्तः ? स्वेदमेकनिचिताङ्गययः धर्मस्यन्दसम्भृतगात्रस्ताः पुनः भोजकाः भोक्तारः कस्याः १ मुखनिबद्धसम्पदः सुखेन निबद्धा चासौ संपत्तस्याः सुखसंयुक्तविभूतेः ।
भारतीयः - भोजकाः वादवाः । अशेषं शेषं समम् ॥१३॥
आशुशुणिरिवास कचिद्भूपतिः प्रवलयादवजन्मा ।
प्रज्वलन्कपिशतान्वितकायः सह्यते स्म परुषो न रुषान्यैः || १४ ||
आश्विति-न सह्यते स्म सोढुं शक्यते स्म । कः कर्मतापन्नः ? स कधिभूतिः नरेन्द्रः कैः कर्तृभिः ? अन्यैरपरैः नरेन्द्रैः, कथम्भूतः १ पदो निष्टुः, क्या ? प्रचलया प्रचुरया स्पा क्रोधेन, कथम्भूतः ? कपिशतान्वितकायः वानरशतसंयुक्तशरीरः, किं कुर्वन् सन्न सह्यते स्म ? प्रज्वलन् दैदीप्यमानः सन् क इव ? दचजन्माऽरण्यभवः आशुशुक्षगिरग्निरिव कथम् ? आशु शीघ्रम् |
भारतीयः- प्रबलयादवजन्मा प्रवासी यादवजन्मा प्रवलयादवजन्मा स कश्चिद्भूपोऽन्यः न सह्यते स्म, कथम्भूतः १ परुषः, किं कुर्वन् ? रुपा कोपेन आशुशुक्षणिरग्निरिव प्रज्वलन् कथम्भूतः १ कपिशतान्वि - तकायः पिङ्गतायुक्तशरीरः ||१४||
केsपि वृष्णिकुलजाः समागताः साम्यमम्बुधिगभीरचेतसः ।
आसनानि न बभञ्जुरूर्जिताः कापि किं भुवि चलन्त्यभीरवः ||१५|| केऽपीति- केऽपि नरेन्द्राः आसनानि न बभजुः न भजन्ति स्म । कथम्भूताः १ कुलजाः कुलीनाः,
ataरूपी अग्रिकी ज्वालासे इनके सनमें ताप था जिससे इनके हृदय दुःखी थे [समुद्र विजय, आदि दश पूज्य कुटों में उत्पन्न, आत्मगौरव के पुजारी बलभद्र, आदि राजा परिस्थिति विगड़ने की आशंका से खिन्न हो गये थे । क्रोध ] ॥ १२ ॥
सुखसे संयुक्त सम्पत्ति का पसीनाकी धारसे आई शरीर दूसरें राजा लोग ऐसे लगते थे मानो क्रोधानिकी ज्वालाको बुझाने के लिए इनके ऊपर जलके कलश ही छोड़े गये हैं [ सुखसे संचित सम्पत्तिके धारक दूसरे यादव लोग ऐसे ] ॥१३॥
जंगल में लगी जलती हुई प्रवल दावानिके समान उग्र क्रोध के कारण अत्यन्त कठोर कोई राजा सैकड़ों वानरोंके द्वारा पकड़े जाने पर भी नहीं सम्हाला जा सकता था [ अत्यन्त वीर यादव चंशमें उत्पन्न कोई अतिसाहसी राजा जलती अग्निकी ज्यालाके समान उत्तेजित हो रहा था, दूसरोंके द्वारा नहीं रोका जा सकता था तथा उसका सारा शरीर क्रोधले पिंग हो गया था ] ॥ १४ ॥
इन्द्रकी समताको प्राप्त, समुद्र के समान गंभीर चित्त तथा प्रौढ़ तेजस्वी कुछ कुलीन ९. स्वागताछन्दसि ।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः
१८७
पुनः कृष्ण इन्द्रे साम्यं सादृश्यं समागताः, पुनः अम्बुधिगभीरचेतसः अम्बुधिरिव गभीरं चेतो येषां ते, ऊर्जिताः प्रौढाः । युक्तमेतत् किम् अभीरवो धीराश्चरन्ति ? अपि तु न चलन्तीत्यर्थः । क ? कापि कस्यां भुवीति ।
पुनः
साठीय
वपुः । के
िदशार्हाणामाद्यो वृष्णिरन्धकवृष्णिः, नामैकदेशो नाग्नि प्रवर्त्तते यथा भीमो भीमसेनः, चलो बलभद्रः, भामा सत्यभामा । वृष्णेः कुलं वृष्णिकुलं तस्मिञ्जाताः वृष्णिकुलजाः कानि ? आसनानि कथम्भूताः ? समागताः किम् ? साम्यम्, कस्य ? अम्बुधिगमीरचेतसः, अम्बुभिरित्र गभीरं चेतो यस्य तस्य तथोक्तस्य सत्पुरुषस्येत्यर्थः । पुनरूर्जिताः । सममितरत् ||१५||
स्विन्नवान्स हरिचन्दनदेहः कम्पवाँ डुलपाटलदृष्टिः ।
क्षोभमात्मनि नियन्तुमशक्तः कामकातर इवाजनि भीमः || १६ || स्विन्नवानिति - हरिचन्दनदेहः हरिचन्दनाख्यस्य वानरस्य देहः शरीरम् कथम्भूतः अशक्तोसमर्थः, किं कर्तुम् ? आत्मनि विषये क्षोभं नियन्तुं निरोद्धुम् क इव ? कामकातर इव कथम्भूतः ! स्विन्नवान् स्वेदजलयुक्तः पुनः कम्पवान् पुनश्चटुलपाश्रिञ्चल कर्बुरलोचनः पुनः भीमः समानकः । भारतीयः - हरेश्चन्दनोपलक्षितो देहः हरिचन्दनदेह: आत्मनि क्षोभं नियन्तुमशक्तः, अथवा भीमो धृकोदरः आत्मनि क्षोभं नियन्तुमशक्तोऽजनि कथम्भूतो भीमः हरिचन्दनदेहः हरिचन्दनं प्रधान श्रीखण्डः तद्रन्धो देहो यस्य सः, अन्यत्समानार्थम् ||१६||
·
अस्त्यशक्यमपि दूरमर्जुनः कार्यमित्युपरि धूनयशिरः |
गौरवेण गुरु गन्धमादनः सामजस्य निजसौष्ठवं ययौ ॥ १७ ॥
अस्तीति- गन्धमादनी नाम वानरराजः निजसौष्ठव स्वकीयप्रौहिमानं ययौ । कस्य ? सामजस्य गजेन्द्रस्य, केन कृत्वा ? गौरवेण गरिमा, किं कुर्वन् ? धूनयन् किम् ? शिरो मस्तकम् कथम् ? उपरि, कथम् ? इति है दूरम : दुःखेन रम्यते यतेऽसी दूरम: तस्यामन्त्रणं हे दूरम, अस्ति किम् ? कार्यम्, कथभ्भूतम् ? अशक्यम् | केषाम् ? नोऽस्माकम् कथम्भूतमपि ? ऋषि प्राखलमपि पुनर्गुरु गरिम् ।
भारतीयः- ययौ, कोऽसौ ? अर्जुनः सव्यसाची, किम् ? निलसौष्ठवम् कस्य ? सामजस्य किं कुर्वन् ? शिरः धूनयन्, कथम् ? उपरि, कथम् ? इति किम् ? अस्ति किम् ? कार्यम्, कथम्भूतम् ? अशक्यमपि पुनः दूरमपि पुनः गुरु, कथम्भूतोऽर्जुनः १ गौरवेण गरिष्ठभावेन गन्धमादनः पर्वतविशेषः || १७ ||
राजपुत्राने अपने आसनोंको नहीं तोड़ा था । उचित ही है निर्भय वीर पुरुष पृथ्वीमें कभी भी अस्थिर नहीं होते हैं [ साम्य अथवा मानसिक संतुलनको प्राप्त, समुद्र के समान अगाध चित्त तथा तेजस्वी अन्धकवृष्णिकुलमें उत्पन्न कुछ राजपुत्र आसन से हिले भी न थे । उचित..... ] ॥ १५ ॥
उस चन्दन नामके वानरवंशी राजा का शरीर पसीनेसे लथपथ था, काँप रहा था, नेत्र लाल तथा चंचल थे। और अपने क्षोभको स्वयमेव न रोक सकने के कारण वह भयंकर कामपीडित सा प्रतीत होता है । [ अपने क्रोधको सभालने में असमर्थ भीमके शरीर से भी पसीना चल रहा था | चन्दन लेपसे युक्त उसका शरीर प्रायः काँप रहा था, आँखें लाल और चंचल हो उठी थीं । ] ॥ १६ ॥
हमारे लिए अशक्य कार्य भी सरल है इस प्रकारसे अपने मस्तकको झटके से हिलाता हुआ गम्भीर गन्धमादन नामक वानरराज ऐरावतके समान अपने गौरव के कारण स्वाभाविक प्रौढ़ता से आलोकित हो उठा था [ अपनी महत्ता के कारण गन्धमादन पर्वत तुल्य अर्जुनके लिए कोई कार्य अशक्य अथवा दूर अथवा गुरु होता है, इस विचारके निषेधर्मे शिर हिला दिया था फलतः वह सन्तुलनजन्य अपने प्राकृतिक सौन्दर्यको प्राप्त हुआ था ] ॥ १७ ॥
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
हिसन्धानमहाकाव्यम् योनलोभरमितः कदनेषु स्थेमवृत्तिरवहद्भुवि कीर्तिम् ।
पाण्डुमद्रयुचितमुन्नतिभावं सोऽवलम्ब्य नकुलप्रभुरस्थात् ॥१८॥ य इति- नास्थादपि त्वस्थादेव स्थितवानेव । कः १ स गलः नलनामधेयो वानरराजः, किं कृत्वा ? पूर्वभवलम्व्य समाश्रित्य, कम् ? उन्नतिमावर , कथम्भूतम् ? अद्युचितम् , कथम्भूतो नलः ? कुलप्रभुः वंशवामी अथवा कु. पृथ्वी हान्ति आददते ये ते कुलाः राजानस्तेषां प्रभुः नरेन्द्रस्वामीत्यर्थः । पुनः कृशम्भूतः ? स्थेमवृत्तिः स्थिरतरवृत्तिः यः अवहद् वहतिस्म । काम् ? कीर्तिम, कथम्भूताम् ! पाण्डं शुभ्राम् । कस्थास् ? भुवि, कथा भूतः सन ? इतः गतः, कथम् ? भरं तत्परताम् , केमु ? कदनेषु सङ्ग्रामेरिवति शेषः ।
भारतीय-अस्थात् स्थितवान् , कोऽसौ ? म नकुल प्रभु: 'चतुर्थपाण्डवः, किं कृत्वा ? पूर्वम् मालम्व्य, कम् ? उन्नति मात्रम् , कथम्भूतम् पाटुसद्युचितम् पाण्डुः पिता, मद्री माता पाण्डुश्च सदी च पाण्टु गरौ त योगन्वित योग्यं पाण्डुमद्रीयोग्यम् ? कथम्भूतः ? स्थेमवृत्ति : स्थिरतरवृत्तिः, कथाभूतो काल ? अनन् नाजनः: स्वरूणाग्जिरित्यर्थः । यः अबहद् कीर्तिम् , कस्याम् ? भुथि, कयम्भूतः सन ? इतो गतः, कम् ? भरम् , केषु? कदागेन । अथवा न लोभरमितः न लोमे रमितो नलोभरमितोऽयवान होमे रमितं निरत्वं यत्य स तथोक्त; अन्यत् मुखमम् ||१८||
तं विलोक्य सहदेवविक्रमं बिभ्रतं कुमुदमायतायतिम् ।
जृम्भमाणमभिमानसंश्रयं तत्र तत्रसुरितस्ततो जनाः ॥१९।। ___तभिति-नत्रसुन्त्रताः के ? अनाः, क्व ? तत्र सदसि, कथम् ? इतस्ततोऽत्र तत्र, किं कृत्वा ? पूर्व विलोक्य, कम् ? तं लोकप्रसिद्ध कुमुदं कुमुदनामधेवं वानरराजम् , किं कुर्वाणम् ? सद्द युगपत् , देवविनाम मुरप्रतापं विनतं दधानम् , कथम्भूतम् ? आयतायसिं विस्तृतीति पुनरभिमानसंश्रयं गर्वमन्दिरम् , कि कुर्धाणम् ? जम्भमाणं प्रवर्तमानम् ।
भारतीयः-तत्र सदसि सहदेवो नाम पञ्चमयाण्डको राजा तस्य विक्रम प्रौढिं विलोक्य जनास्तवसुः, सहदेवविक्रम कि कुर्चाणम् ? कु.नुदं पृथ्वीहवं बिभ्रतम् , कथम्भूतं तम् ? आयतायतिमावताऽऽयतिर्यस्मात्तं तथोक्तम्, अथवा कथम्भूतां कुमुदम् ? आयतायतिमायताऽऽयतिर्यस्यास्तां दीर्घोत्तरफला लोकैन्यश्विरकालं यावल्लब्धप्रशंसामित्यर्थः । पुनः कथम्भूतम् ? अभिमानसंश्रयम् , किं कुर्माण सन्तम् ? जृम्भमाणं स्वेच्छया प्रवत्तमानम् ॥१९॥
तं समुद्रविजयं प्रतापतः शूरतकपरमजनोद्भवम् ।
सुप्रतिष्ठितमवेक्ष्य लज्जितः सोऽखिलोऽभवदुपप्लुतो नृपः ॥२०॥ तमिति-अभवदनि, कोऽसो ? म लोकविख्यातोऽखिलो नृपः, किंविधोऽभवत् ? लजिसम्पावान , किं कृत्वा ? अञ्जनोद्भवमनायाः भूशाशदुद्भवो यस्य तं हनुमन्तम् , कथम्भूतम् १ रविजयं रखेरित्र भयो
जो राजा नल गुद्ध में तत्परतामय हो जाता है, स्वभावसे स्थिर है, संसार में विमल कीर्तिका स्वामी है। अपने वंशका प्रधान वह पर्वत सदृश उच्चताके भावको धारण करके क्या जमा नहीं रहा ? अर्थात् यह अडिग ही था [जो स्वभावसे ही अग्नि है, युद्ध संचालनमें पारङ्गत है, अडिग प्रकृति है तथा विश्व विख्यात है वह नकुलराज अपने पिता पाण्हु और माता मद्रीके अनुरूप धडप्यानको निभाता हुआ गम्भीर रूपसे बेटा रहा था । ] ॥१८॥
मुग्रीसकी सभामें अकलात् ही देवाके पराक्रमधारी, मुविस्तृत यशके स्वामी, अहंकारके आधार और आवेशसे टहलते उस कुमुद नामके राजाको देखकर इधर-उधरके लोग भयभीत हो गये थे।[पृथ्वीके हर्षके विधायक, विशाल भाची पुण्यके स्वामी, आत्मगौरवके निधान्द, उस सहदेवके पराक्रमको तथा उसको यादव सभामें चंक्रमण करता देखकर सर्वत्र जनता भयभीत हो उठी थी] ॥ १९ ॥
प्रतापमें सूर्यसे भी आगे, सदैव प्रसन्न, एकमात्र वीरताके कार्योंमें लीन और सर्वत्र
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः
१८९ इयत्य तम् , कस्मात् ! प्रतापतः, पुनः शूरतैकपरं वैरभावैकनिष्ठ क्षात्रधर्मपरिणतमित्यर्थः, पुनः सुपतिष्ठितम् , कथम्भूतो नृपः १ उपल्लुत उपद्रुतः, पुनः समुत्सहर्षः ।
भारतीयः--तं समुद्र विजयं नेमीश्वरजनकम् अवश्य स लज्जितोऽभवत् । कथम्भूतम् ? प्रतापात् शुरतैकपरमं शूरताया एकाऽसाधारणा परोत्कृष्टा मा यत्व तम्, पुनर्जनोद्भवं जनानामुन्द्रनो यस्मात् । शेषमशेषं समम् ॥२०॥
इत्यपायवदुपायवन्नयैरेकतश्चलितमन्यतः स्थिरम् ।
राजकार्यमिव राजपुत्रकं दुधरं सुधरमप्यजायत ॥२१॥ इतीति-राजपुत्र नरेन्द्रतनयसमूहः दुरं दुःखेन धर्तुं शपमजायताऽभवत् । किभिव ? राज. कार्यगिव, कथम्भूतं सन् ? एकतश्चलितमेकस्मिस्थाने चलम् , कैः ! अवायवन्नयैः पुनरन्यतोऽन्यस्मिन् स्थाने स्थिरम् , कः १ उपासनः सामवन्नीतिभिः, कथामृतम् ? मुधरं सुखेन धर्त्त, शक्यमपि ॥२१॥
कोपरक्तकपिलालसदृष्टिस्तां सभा ननु चलाङ्गलशोभी।
वारयन्निति स दृतगुणाड्यं तं जगाद मृदुवानरराजः ॥२२॥ कोपेति-नन्यहो जगाद उक्तवान् । कोऽसौ ? स यानरराजः सुग्रीवः, कम् ? तं ४क्ष्मणम् , कथम्भूतम् ! दूतगुणाल्यं दूतगुणाः-मा नित्वम्, धीरत्वम् , शुण्डीरस्वम् (त्यागशौर्याभ्यां विख्यातना शुण्डीरत्वमभिधीयते ), तेजस्वित्वम् , निक्रमित्वम्, वपुष्मत्वम् , नीतिमत्त्वम् , वाग्मित्वञ्चेल्पसौ दूतगुणाः । दूतस्य गुणाः दूनगुणास्तैराज्यस्तम् , तथा चोरम्
"मानी धीरश्च शुण्डोरस्तेजस्वी विक्रमी तथा । वपुग्मानीतिमान् वाग्मी दूतः स्यादभिर्गुणैरिति"॥ ।" कथं जगाद ? इति वश्वमाणप्रकारेग, कि कुर्वन् ! चला चपलांना सभा धारयनिषेधयन्, कथम् ? मृदु श्रवगयोः मुग्यदायकत्वासुकोमलं, यथा भवति, कथम्भूतः ? गलशोभी मनोहरकण्ठः, पुनः कोपरक्तकपिलालसदृष्टिः कोपेन रक्ताश्च ते कारण ते लालसा दृष्टियस्य सः।।
भारतीयः--ननु च स नरराजः नरेन्द्रः जगाद । किमाख्यः ? लागलशोभी बलभद्रः, कम् ? तं जरासन्धपुरुषम् , कथम्भूतम् ? दुतगुणाय मृद्विति नियाविशेषणम् अथवा अमृदु कथम् ? इति वक्ष्यमाणप्रकारेण, वा इवार्थवाची, किं कुर्वन् ? तां सभा वारयन् निषेत्रयन् , क यम्भूतः ? कोपरक्तकविलालसदृष्टिः रक्ता चासौं कपिल्टा च सा चाराावलसा च क्रोन रक्तकपिलालमा दृष्टियस्य स तथोक्तः ।।२२।।
अन्तरङ्गमनुभावमाकृतिः संयमो गुरुकुलं श्रुतं शमः । यागियं च तव तात सौष्ठवं साधु सेधयति मादेवं क्षमा ॥२३॥
सम्मानित उस अञ्जनीपुत्र हनुमानको देखकर आतंकग्रस्त संसारप्रसिद्ध वे समस्त राजा लजित हो गये थे।[जन अर्थात् जिन नेभिन जनशूरक्षा में अद्वितीय तथा अग्रणी अपने प्रताप के कारण सुर्धमान्य गजा समुविजयको नकर व्यर्थ ही उत्तेजित, वे सघ राजा लजा गये थे। ] ॥ २० ॥
__ हानिफर नीति के कारण एक औरते चंचल तो साधक नीति के कारण स्थिर फलदायक राजकार्य के समान वागर-याद्ध सभामै दूसरी ओरसे एकत्रित राजाऔका समूह कष्टकर प्रतिरोध द्वारा प्रारम्भ होकर भी सुसंयत अथवा अनुशासित हो गया था ॥ २१ ॥
शोधसे लाल वानर सेनाके द्वारा लालसापूर्वक देखे गये, मधुरकण्ठसे शोभित अर्थात् मृदुभाषी वानरवंशी राजा सुग्रीवने अपनी चंचल राजसभाको नियन्त्रित करते समान मान, धैर्य, आदि दूतके गुणोंसे युक्त लक्ष्मणको कोमलतासे कहा था । [क्रोधसे रक्त, जलती तथा एकटक दृष्टियुक्त मनुष्योंके स्वामी कृष्णने तथा लागलधारी वलरामने पूरी यादवसभाको आवेशमें आनेसे रोकते हुए दूतगुणसम्पन्न जरासंधके दूतको कहा था। ] ॥ २२ ॥
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अन्तरङ्गमिति-धति, 'अत्र ज्ञानविषयत्वात्सेधश्तेरास्वं न स्यात् । ज्ञापयति का ? आकृतिः, कम् ? अनुभावं परिणाभम् , कथम्भूतम् ? अन्तरङ्गम् , तथा सेधयति, कोऽसौ ? संघमः व्रतरक्षणलक्षणो धर्मः, किम् ? गुरुकुलम्, तथा संधयति कः ? शम उपशमः, किम् ? श्रुतं शास्त्रम् , तथा च सेधयति, का ! इयं वाक् भारती, किम् ! तातसौपच पितुः पाटवम्, कथम्भूतम् ? साधु भनोहारि । तथा सेधति का ? क्षमा क्षान्ति:, किम् ? भार्दवं मृदुत्वम् , कस्य ? तब, अथवा हे तात पितः । अत्रैकत्र श्लाघाऽन्यत्र वक्रोक्तिरिति योध्या ||२३||
रूपमेव तब शीलमुदारं स्थेयसी प्रकृतिमुन्नतिभावः |
स्वामिभक्तिमुचितामनुरागः सूचयत्यनुनयं नयमागः ॥२४॥ रूपमिति-सूचयति कथयति, किम् कत्त ? रूपमेव हि, किम् ? उदारमुस्कटं शीलम । तथोन्नतिभाव आदेयत्वं स्थेयमी स्थिरतरां प्रकृति स्वगावं सूचयति । तथा-नुरागः स्वामिभक्ति प्रभुसेवा सूचयति, कथम्भूताम ? उचितां योग्यां तथा नयभागः नीतिमार्गः तबाननयमनुमननं सूचयति ॥२४॥
वेलया विहिनकार्यमाधनं भर्यविक्रममगाधतां गुरुम् ।
विभ्रतस्तव पयोनिधेरपि क्षोभमेकमपहाय नान्तरम् ॥२५।। बल यति-तब पयोनिरन्तरं भेदो न विद्यते । किम् कृत्वा ? एक क्षोभमपहाय परित्यज्य, किम् कुर्वतः ! धैर्यविनाम बिभ्रतो दधानस्य, धैर्यमन्तरङ्गाबरम्भः; विक्रमः पराक्रमः; धैर्यञ्च विनमश्च धैर्यविक्रामम् , कथामृतम् ? विहित कार्य साधनं यस्य तत् , कया ? बलया कालकलया च बिभ्रतः, काम् ? गुरुमगाधताम् ॥२५॥
उन्नतोऽसि विशदोसि हिमानीगौरवं समुपयञ्छिशिरोऽसि ।
हन्त ते हिमवतश्च कथं वागर्हिता दहनवृत्तिरियं स्यात् ।।२६।। उन्नत इति-हन्त काटं स्यादियमसौ वाग्भारती कथम्भूता ? दहनवृत्तिः दहनस्य ज्वलनत्येव वृत्तिर्वतनं यस्याः सा सन्तापिपर्थः । कथम्भूता सती ? अहिंता पूजिता, कस्य ? ते तन्व, यद्यप्युन्नतोऽसि विशदोऽसि, हि स्फुटम् , कः ? त्वं मानी, तथासि, कथम्भूतः १ शिशिरोऽतीव्रः, किं कुर्वन् ? समुपयन्नुपचिन्वन् , किम ? गौरवं गुरुत्वमिति ।
हे तात ! तुम्हारी यह आकृति ही मनके भावोंको बता रही है, आत्मनियन्त्रण महान् कुलका, शान्ति शास्त्र ज्ञानको तथा वचन शिष्टताको और सहिष्णुता कोमलताको भली भांति प्रकट कर रही है [वक्रोक्तिके कारण-तुम्हारी आकृति कुमात्राको, असंयम यापके चंशकी, उसता निरक्षरताको, भाषा अशिपताको और उग्रता अहंकारको प्रकट कर रहे ॥ २३ ॥
आपका रंगरूप उदात्त स्वभावको, रया। अथवा उच्च विचार दृढ़ प्रकृतिको, राजाके प्रति प्रेम स्वामिभक्तिको, यथायोग्य और नीतिपूर्वक आचरण विनम्रता अथवा अनुशासनके प्रख्यापक है [ वक्रोक्ति श्लोक २३ के समान पलटकर चलेगी ] ॥२४॥
महान् धैर्य, पराक्रम, गम्भीरता तथा समायसे अपना कार्य पूरा करनेकी प्रकृतिक धारक आप और समुद्र में केवल क्षोभके सिवा और कोई अन्तर नहीं है [समुद्र भी स्थिर, पशु-पक्षी संचार युक्त, गहरा तथा किनारेके द्वारा कार्य करता है। ] ॥२५॥
आप उन्नत है, निर्मल अथवा स्वच्छ है, वर्फके गौरवको भी नीचा दिखानेमें समर्थ शिशिर हैं। इस प्रकार परम शीतलताके धारक आपकी अग्निके समान यह भाषा कैसे
१. अन्यम्-द०।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः भारतीयः-अहो कथं वा कथमिव स्यात्, का ? इयं दहनवृत्तिः, कस्य ? हिमवतो हिमाचलस्य, कथम्भूता दइनवृत्तिः ? गर्हिता निन्द्या यद्यप्यस्ति, कः ? उन्नत उत्तुङ्गः, तथाऽस्ति विशदः, पुनरस्ति तथा ६ शिशिरः शीतलः, किं कुर्वन् ! हिमानीगौरवं हिमसन्ततिगरिमाणं समुपयन् | तुल्योपमा ||२६||
संविधाय बहुमानमुच्चकैर्विप्रियं यदभिधीयते गिरा |
अम्बु शीतमभिवृष्य चित्रया तद्वितप्यत इवोत्कटातपम् ।।२७।। संविधाति-तद्वितप्यते । कया ? गिरा वाण्या, यदभिधीयत उच्यते, किम् ? विप्रिये दुःखदम्, किं कृत्वा ? पूधै संविधाय सम्पाद्य, कम् ? बहुमान प्रचुरसत्कारम् , कथम् ? उन्त्रैरतिशयेन | उपमार्थः प्रकश्यते-इच यथा तद्वितप्यते, कया? चित्रया नश्चत्रेण, कथं यथा भवति ? उत्कटातपमुल्वणोणं यथा तदिधीयते, किम् ? अम्बु जलं कथम्भूतम् ! शीतं शीतलम् , किं कृत्वा ? पूर्वमभिवष्य सिक्त्वा । अत्रोपमालम्भो' दर्शितः ॥२७॥
ज्ञायते च भवतः पतिरुच्चैंर्विक्रमेण भुवनं विजिगीषुः ।
देशकालबलबोधपरीक्षा पौरुषेऽपि ननु सा परिचिन्त्या ॥२८॥ ज्ञायत इति-ज्ञायते बुध्यते, कः ? पतिः प्रभुः, कस्य ? भवतः, कथम्भूतः १ विक्रमेण भुवनं जगत् विजिगीषुः विजेतुमिच्छुः, कथम् ? उच्चैरतिशयेन, नन्त्रहो परिचिन्त्या चित्ते वितक्या, का ? सा देशकालयल. बोधपरीक्षा, क्क सति ? पौरुपेऽपि विक्रमेऽपि ॥२८॥
पञ्जरे किल करोति किं शुकः पक्षवानपि विदेशमागतः ।
कि शुचावसमये शिखाबलः कोकिलश्च मधुरं स कूजति ॥२९॥ पञ्जर इति-किल लोकोक्तौ । किं करोति ? अपि तु न किमपि, य: १ शुकः कीरः, क ? पक्षरे, कथम्भूतोऽपि ? पक्षवानपि, कथम्भूतः सन् ? विदेशमागतः, तथा सुचौ धर्म शिखावलो मयूरः मधुरं यथा तथा कि कूजति शब्दायते ? अपि तु न । मेोन्नतिकालस्तु कूजनहेतुर्ने तरो धर्मः, तस्य तत्कृजनहेतुत्वाभावात् । चकारेण समुन्वयार्थो गम्यते । कोकिल पिकच, किं मधुरं सुकोमलम् असमये मेघोन्नतिकाले कूजति ? अपि तु न । चैत्रकालस्तु कूजनहेतुस्तथा नेतरो मेघोन्नतिकालः, तस्य तत्कृजन हेतुत्वाभावात् । अत्र तेषामेव देशकालबलबोधानामन्वयव्यतिरेको दर्शितौ ।।२९।।
देशकालकलया बलहीनः किं व्यवस्यति युतोऽपि शृगालः ।
स त्रयेण सहितश्च्युतरोधः किं न याति शरभस्तनुभङ्गम् ॥३०॥ अभिनन्दनीय होगी? [ उन्नत, धवल आत्मगौरघके निर्वाहकर्ता, स्वाभिमानी वर्फके धारक शीतल हिमालयकी निन्दनीय दाहक प्रकृति कैसे हो गयी ? ] ॥२६॥
सर्वथा सम्मान करने के बाद जो वाणीके द्वारा अनिष्ट प्रस्ताव आपके द्वारा किया जाता है यह पहिले शीतल जलकी मूसलाधार वृष्टि करनेके उपरान्त चित्रा नक्षत्र के द्वारा भयंकर आतप करनेके समान है ॥२७॥
आपका स्वामी राम अथवा जरासंध प्रबल पराक्रम के द्वारा विश्वकी विजय करनेके लिए आतुर है ऐसा प्रतीत होता है। किन्तु पुरुषार्थ होनेपर भी देश, समय, शत्रुवल तथा
आत्मबलका विवेक और आक्रमणके पहिले समस्त वातोंकी परीक्षा भी तो विचारणीय है ॥२८॥
विदेशमें आकर पिंजड़े में फँसा तोता पंखे रहनेपर भी क्या करता है ? कुछ भी नहीं । क्या गर्मीमें मयूर और असमय शीतकालादिमें कोकिल मधुर शब्द करता है ? ॥२९॥
1. अत्रोपमोपालम्भो दर्शितः-ब०, ना० ।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
·
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
देशेति किं व्यवस्यति किमुत्सहत १ अपि तु न । कोऽसौ १ शृगालः कोश, कीदृश: ? बलहीनः, किं विशिष्टोऽपि ? देशकालकल्या युतोऽपि । अत्र बलव्यतिरेको दर्शितः । स शरभोऽष्टापदः, किं तनुमङ्ग शरीरनाशं न याति न गच्छति ? अपि तु यात्येव । कथम्भूतः ? ध्युतबोधः परित्यक्तज्ञानः, कथम्भूतः ? देशकालबलत्रयेण सहितोऽपि । अत्र बोधव्यतिरेक उक्तः ॥ ३०॥
बुद्धिसत्ववलभाग्ययोग्यतां सर्वतः प्रकृतिरागमात्मनः ।
यः परस्य च न चिन्तयत्ययं यातयेयसमये विनश्यति ||३१||
;
बुद्धीतिविनश्यति कोऽसौ ? सोऽयम् छ ? यथेयसमये यदा याता गन्ता, येयो गम्यः शत्रुः, पर रणमन्तरेण प्रयाणोद्योगं करिष्यतः, समयो यदा येयो यायव्यः शत्रुरतस्मिन्काले गन्तुगम्यसमये यो बुद्धिसच्चचभाग्ययोग्यतां चुद्धिसाहितविवेचनी बाक; सत्त्वमन्तर लेना; च सम्यग भाग्यं दैवम् ; श्रीग्यतासामग्री | बुद्धि सच्चञ्च बलच भाग्यञ्च बुद्धिसत्यभाम्यानि तेषां योग्यता का तो न चिन्तयति न जानाति कथम् ? सर्वतः सामत्त्वेन, तथा यो न चिन्तयति, कम् ? प्रकृतिरागं प्रकृतयः स्वाम्यमात्यादयः सप्तप्रकृतीनामनुरागच, कस्य ? परस्य शत्रोरात्मनश्चेति ||३१||
इत्युपायमविचार्य तवार्यः केवलं बलवतीरितकोषः ।
विश्रुतः समरणोद्यमचेताः मामृजुप्रकृतिकः प्रतिभाति ॥ ३२ ॥
इतीति भाति । कोऽसौ ! अर्यः स्वामी, कस्य ? तव कथम्भूतो भाति ? ऋजुप्रकृतिकः प्राञ्जलवभावः के प्रति ? मां प्रति कथम्भूतः ? इति उक्त प्रकारेण उपायम् अधिचार्य यति बलिये रावणे ईरिकोषः ईरितः कोपो येन सः, कथम् १ वलम् कथम्भूतः १ विश्रुतो विख्यातः पुनः समरणोद्यमचेताः समं युगपत् रणोद्यमे चेतो यस्य स तथोक्तः ।
J
१९२
भारतीय:- माति ? कः । सोऽर्यः स्वाभी, कस्यः ? तव कथम्भूतो भाति ? केवलम् ऋजुप्रकृतिकः कम्प्रति ? माम्प्रति पुनः कथम्भूतस्तकार्यः ? बलवति चलोऽस्यास्तीति बलवांस्तस्मिन् बलभद्रेण युक्त कृष्णे, ईरितकोषः, किं कृत्वा ? पूर्वमविचार्य, कम् ? उपायम्, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण पुनः कथम्भूतः ? विश्रुतः विगतं श्रुतं यस्य सः हेयोपादेय विकलः पुनर्भरणोद्यमचेता मरणोद्यमे चेतो यस्य सः मरणोद्यभयुक्त इति शेषः ॥ ३२॥
दृष्ट्वा स दशास्यतेजसो भूभृतः खलु निरुन्धतीं दिशः । तिग्मतां यदुदयानुबन्धिनस्तवयवस्यति वृथा तवाधिपः ||३३||
देश, काल तथा चातुरी में पूर्ण शृगाल क्या साहस कर सकता है ? यदि उसके शरीरमैं ही शक्ति न हो । तथा देश काल और बलकी अनुकूलतासे पुए सिंह भी विवेक विमुख होकर आक्रमण करके अपने शरीरको क्षतविक्षत नहीं करता है ? ॥३०॥
जो अपनी अथवा शत्रुके हिताहित विवेक, आत्मवल सेवा, भाग्य और प्रजा अधिकारियों और साधन सामग्रीका सय दृष्टियोंसे विचार नहीं करता है वह आक्रम्यके ऊपर आक्रमण करते ही विनम्र हो जाता है ||३१||
हे लक्ष्मण ! आपका ज्येष्ठ भ्राता उक्त प्रकारले उपायोंका विचार बिना किये ही अत्यन्त बलवान् रावण के विरुद्ध कुपित होकर एकाएक रण करनेका संकल्प करता है अतएव वह मुझे शुद्ध शास्त्रश (पंडित) और सीधे स्वभावका प्रतीत होता है । [ हे दूत ! नीतिशास्त्रज्ञान शून्य तुम्हारा स्वामी जरासंध उक्त प्रकारसे उपायोंका सांगोपांग विचार बिना किये ही बलराम शुक्त मुझपर जो क्रोध करता है वह उसका मरनेकों प्रयत्नका ही विचार है। मुझे as अविवेकी ही मालूम देता है ] ॥ ३२ ॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः
१९३
दृष्टवानिति--[द्विः] तत्तस्माद्वथैवमेव व्यवस्यत्युत्सहते । कोऽसौ ? अधिपः स्वामी, कस्य ? तव, यद् यस्मात्कारणान्न दृश्वान्नावलोकितवान् , कः ? स तबाधिपो रामः, काम् ? दशास्यतेजसो रावणप्रतापस्य तिग्मता तीव्रताम् । कथम्भूतस्य ? भूभृतो भुत्रं पृथिर्वी बिमतीति भूभृत्तस्यावनेः पोषकस्येत्यर्थः ? कयम्भूतां तिग्मताम् ! दिशः खलु निश्चयेन निरुन्धती प्रच्छादयन्तीम् , कथम्भूतस्य दशात्यतेजसः ? उदयानुबन्धिन उदयमनुबनातीत्येवंशीलस्य ।
भारतीयः-अस्य भूभृतो नारायणस्य तेजसस्तीत्रतां न दृष्टवान् । कीदृशी तिग्मताम् ? दश दिशो निरुन्धतीम् । कथम्भूतस्य नारायणस्य ? यदुदयानुबन्धिनो यदूनां यादवानां दयां करणामनुबध्नात्तीत्येवंशील. स्तस्य । शेष समम् ॥३३॥
अन्तकोऽपि वरुणोऽपि कुवेरो वासवोऽपि स यमेव भयातः ।
पश्यति प्रकुपितं ग्रहरन्तं स्वप्नदर्शनकृपाणतलेषु ॥३४॥ अन्तको पाति-पश्यति निरीक्षते । कः कर्ता ? स लोकप्रसिद्धोऽन्तकोऽपि दक्षिणाशाऽधिपोऽपि, तथा वरुणोऽपि पाशपाणिरपि, तथा कुबेरोधि धनदोऽपि पासवोऽपि यज्रपाणिरपि, कम् ? यमेव रावगं नारायणश्चैव, किं कुर्वन्तं तन्तम् ! प्रहरन्तं पुनः प्रकुपितम् , केषु विषयेषु पश्यति ? स्वप्नदर्शनकृपाणतसेषु स्वप्नदर्शने खङ्गतलेषु च, तथा कथम्भूतः सन् पश्यति ? भयात्तों भयपीडितः अत्रान्त कादीनां साहनयादन्येषां नेतादीनां चतुर्णा ग्रहणमिति ||३४||
योऽन्यमर्यमणमप्यतिक्रमप्रक्रमं न सहते प्रतापिनम् ।
नागमन्तमनयन्महोद्धति यो जगन्नयवलेन तायते ॥३५॥ य इति-ग सहते न सोढुं शक्नोति । कोऽसौ ? यो रावणः, कम् ? अन्यमर्यमणं सूर्यम् , कथाभूतमपि ? प्रतापिनमपि, पुनः कथम्भूतं सन्तम् ? अतिक्रमप्रकममतिक्रमं प्रक्रमत इत्यतिक्रमप्रक्रमस्तम् । अथवाऽ तिक्रमस्य प्रक्रमो यस्य स तथोक्तस्तं जगतामतिवमं प्रक्रममाणमित्यर्थः । तथा यो रावणो नानयन्न प्रापयत् । कम् ? तमागर्म विद्वज्जनप्रसिद्धां राजविद्याम् , कां नानयत् ? महोद्धति परमोत्कर्षम् , तथा यो रावणो नानयत् , कम् ? तं चार्यमणं सूर्यम् , काम् ? महोदधृति तीव्रत्वम् , तथा यो रावणो न तायते न पालयति, किं तत् १ जगत्, केन ? नयरलेन नीतिसामयेन !
___ भारतीयः यो नारायणो न सहते, कम् ? अन्यमयमणम् , कथम्भूतम् ? प्रतापिनम् , पुनः कथम्भूतम् ? अतिक्रमप्रक्रमम् , तथा यो नारायणोऽनयत् , कम् ? नागं कुवलयपीडाख्यं दन्तिदानवम् , अथवा कालियाख्यं फणीन्द्रम् , कम् ? अन्तं विनाशम् , कथम्भूतं सन्तं नागम् ? महोद्धति महत्युद्ध तिर्थस्य तं गर्विष्ठमित्यर्थः । तथा यो नारायणस्तायते, किं तन् १ जगत् , केन ? नययलेनेति ।।३।।
पृथ्वी भरके शासक अभ्युदयके मार्गपर अग्रसर दशमुख रावण के तेजकी दिशाओको व्याप्त करती प्रखरताको आपके राजा रामने नहीं विचारा है इसीलिए वह व्यर्थ प्रयास कर रहा है। [यादवाकी दयासे प्रेरित इस पृथ्वीपासक राजा कृष्णके दशौ दिशाओंको आक्रान्त करनेवाले प्रतापकी तीक्ष्णताको वह तुम्हारा राजा जरासंध नहीं देखता है और व्यर्थ प्रयत्न कर रहा है ] ॥३३॥
दक्षिण दिशाका स्वामी वह यम भी, वरुण भी, कुबेर भी और देवराज इन्द्र भी, कुपित हो कर प्रहार करते इस रावण अथवा नारायणको स्वप्न में अथवा तलवारकी धारपर ही देखते हैं ॥३४॥
वह रावण परमप्रतापी सूर्य के द्वारा किये विश्वके दैनिक लंघनको भी सह्य नहीं करता है । लोकप्रसिद्ध आगमोके पूर्ण उत्कर्षको नहीं होने देता है और संसारपर नीतिमार्गसे शासन नहीं करता है। [यह नारायण भी"। उसने अत्यन्त उग्र कालिय नागका अन्त कर दिया था तथा संसारका नैतिकतापूर्वक पालन करता है। ] ॥३५॥
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धाममहाकाव्यम् यः पूतनामादरमुक्तवृत्तिं घोराञ्चलामाकृतिदारुणां ताम् ।
बालोऽप्यपीडत्कुपितोऽरिमूर्ति स्पर्द्धच्छया वः किमनेन सार्धम् ॥३६॥ य इति-अनेन रावणेन सा किं स्पर्द्धच्छया वो युग्माकम् ? यो बालोऽपि सन्नपीडत्पीडयामास । काम् ? तामरिमूर्तिभरीणां मूतिम् , कथम्भूताम् ? दरमुक्तवृत्तिम् , दर: भयम् , वृत्तिः प्रजापालनलक्षणा, अथवा प्रौढप्रतापलक्षणा, दरेण मुत्त वृत्तियस्याः सा तथोक्ता राम्, पुनः कथम्भूताम, १ बोरा तीब्राम, पुनः चलो चपला पुनराकृतिदारुणां कोपप्रसादाभ्यां जातेर धर्मेण सोहमशक्यामित्यर्थः । पुनः कथम्भूतः ? पूतनामा पूतं नाम यस्य सः, पुनः कुपितः वृद्ध इति ।
भारतीयः-अनेन नारायणेन साई कि स्पट्टेच्छया वो सुष्माकम् । यतो यो बालोऽप्यपीडत्, काम् ! पूतनाम् । कथम्भूतः सन् ? कुपितः, कथम्भूताम् ? अरिमूर्ति पुनरादरमुक्त वृत्तिम् । शेष समम् ॥३६॥
योलङ्कशीत्यायतिमायादिशि तीब्रां वैरी नामाघानि स येन प्रजिघांसुः । __ यो देवानां धाम समक्षं च विमानं तेजोवृत्या वेश्रवणीयं हरति स्म ॥३७॥
य इति-यो रावण आयात्प्राप । काम् ? लकेशीत्यायति लङ्कास्वामीति प्रसिद्धिम्, कथम्भूताम् ? तीवाम् , तथा नाम अहो येन रावणेनाधानि हतः स प्रसिद्धोऽपि वैरी शत्रुः, कथम्भूतः ? प्रजिघांसुः, हन्तुकामः, कस्याम् ? दिशि, दिशीत्युपलक्षणाद्वीप्साऽत्र बोद्धव्या । तेनायमर्थः-दिशि दिशि प्रजिघांसुः सन्नघानि वैरी स प्रसिद्धः । तथा यो हरति स्म, कि तत् ? घाम तेजः, केषाम् ! देवानां सुधाशिनाम् । कया कृत्वा ? तेजो वृत्या, कथम् यथा भवति ? समर्श लोकप्रसिद्ध लोकप्रत्यक्षम् । तथा हरति स्म, कि तत् ? विमानं पुण्यकाल्पम् , कथम्भूतम् ? वैश्रयणीयं वैश्रवणस्येदं चैश्रवणीयं धानदीयम् , कया ! तेजोवृत्त्या, कथम् ? देवानां समञ्चम् ।
भारतीयः- आयात्प्राप, काम् ? केशीत्यायति ख्यातिम्, स लोकप्रसिद्धो बैरी येन नारायणेन अलमत्यर्थमघाति । तथा च यः समक्षं वैकुण्ठं देवानां धाम हरति स्म, कया कृत्वा ? तेजोवृत्त्या, कथम्भूतम् ? विमानं विगतं मानं यस्य तद्विमानं प्रचुरमित्यर्थः । पुनः श्रवणीयं श्रोतव्यं सा न पुनलोचनगोचरमित्यर्थः ॥३७||
___ इस रावणके साथ स्पर्धा करनेसे आपको क्या लाभ है। पवित्र नामधारी तथा कुपित इसने शिशुक्यमें ही भयके कारण अपनी वृत्तिके त्यागकर्ता, निर्भय, चंचल, आकारसे ही कठोर शत्रुकी मूर्तिको मिटा दिया था [ इस नारायणसे ....."आदरहीन व्यवहारपूर्वक पूतना राक्षसीको मार दिया था।] ॥३६॥
जो लंकेश्वर इस उद्धेजक नामसे ख्यात हुआ था, मारने के लिए उद्यत अपने वैरीका जिसके द्वारा वध हुआ था और जिसने दोनोंके देखते रहनेपर भी इन्द्र के प्रताप और पुष्पक विमानको अपने तेजमय आचरणसे छीन लिया था। । जो दिशा-दिशामें नारायण केशी इस नामले पुकारा जाता है, जिस नारायणके द्वारा शत्रुओंका समूल विनाश किया गया है और जिसने सीमातीत वैकुण्ठ अथवा देवताओंके निवास स्वर्गका अपने प्रतापी चरित्र द्वारा अपहरण किया था। यह सब सुनने योग्य ही है ॥३॥
१. इन्द्रवज्रा वृत्तम् । २, य आयात् प्राप । काम् ? केशोत्यायति विष्णुरित्याख्याम् , कथम्भूताम् ! तीनाम् , कथम् भलम् अत्यर्थम् । तथा नाम अहो येन अघाति, कः ? स लोकप्रसिद्धो मधुः कैटभो वा वैरी, कथम्भूतः सत् ? प्रजिघांसुः कस्याम् ? दिशि, तथा वै यो हरति स्म, किं तत् ? धाम तेजः, केषाम् । देवानाम् कथं यथा भवति समक्षम्, कथम् ? व स्फुटम्, कया कृत्वा ? तेजोवृत्या, कथम्भूतं धाम ! विमानं वि-प०, द० । ३. मत्तमयूरच्छन्दसि ।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९५
दशमः सर्गः
वैरन्तुङ्गोवर्धनमिच्छन्ननु दृष्ट्वा कीर्त्यकैलासं गतमुच्चैः स्थितिमुग्रः । तं यो लोकं वायुरिवो धरति स्म त्रुट्यत्तन्तूभूतभुजङ्गभुजदण्डैः ||३८|| चैरमिति नन्वहो यो रावणः उच्चैः स्थितिं गतं प्राप्तं तं कैलास की यशसे वैरं हटवा चर्द्धनं वृद्धिमिच्छन् सन् भुजदण्डै: त्रुट्यत्तन्तूभूतभुजङ्गा यत्रोद्धरणकर्मणि तद्यथा तथा घरति स्म । कः कामिव १ वायु लोकमित्र, कथम्भूतो रावणः १ तुको मानी ।
अधुना भारतीयः - नन्वहो यो नारायणः तं गोवर्द्धन गोवर्द्धननामधेयं पर्वतं भुजदण्डैर्धरति स्म । कथम् ? ऊर्ध्वम् ? किं कुर्वन् ? इच्छन् । किं कर्त्त ुम् ? रन्तुम्, किं कृत्वा १ पूर्व दृष्ट्वा कथम् ? वै स्फुटम्, कथं यथा धरति स्म १ एकैलासम्, इलायां भवा ऐव्यः वृक्षाः, आसः क्षेपणं पतनमित्यर्थः ऐलानामासः, ऐलासः, एकः केवलः ऐासो यत्रोद्धरणकर्मणि तदेकैलासं वृक्षोन्मूलपतनं यथेति । कथं यथा भवति ? त्रुज्यत्तन्तूभूतभुजङ्गम् कथम्भूतं गोवर्द्धनम् ? उच्चैः स्थितिं गतम् कथम्भूतो नारायणः १ कोसी उम्र: क ? वायुरिच । यथा वायुरूर्ध्वे लोक धरतीति ॥ ३८ ॥
J
यस्य द्विषां शृङ्खलखङ्कतानि प्रबोधतूर्यध्वनिमङ्गलानि ।
fe प्रार्थयतेऽत्र साक्षाद्वैश्वानरः साहसिकः स एव ||३९||
यस्येति यस्य रावणस्य द्विषां शृङ्खलखङ्कृतानि प्रबोधतूर्यध्वनि मङ्गलान्यजायन्त । यस्तं रावणम् अत्र युद्धे प्रार्थयते स एव पुगान्साक्षात् परमार्थकृत्या वैश्वानरो वृद्धिः स्यात् । कथम्भूतं रावणम् ? शमनन्यसम्भविपराक्रमम् यः प्रार्थयते स कथम्भूतः ? साहसिकः यत्र नायं नादमिति प्रत्ययस्तत्साहसं
तद्वान् |
भारतीय :- स एवार्थः । यः अत्र युद्धे ईहां नारायणं प्रार्थयते स एव परः श्वा रात्रिजागरः स्यात्साक्षाद्वैस्फुटम् कथम्भूतः सन् ? साहसिकः ॥ ३९ ॥
किं विग्रहेणोभयजन्मनाशादन्योन्यमालिङ्ग्य भुजोपरोधम् । सुखेन जीवाम निजानुकूलं विवाहसम्बन्धपरम्पराभिः ||४०||
किमिति – विग्रहेण युद्धेन किं प्रयोजनम् ? कस्मात् ? उभयजन्मना उभाभ्यां जन्म यस्य स चासो नाशश्च तस्मादुभयजन्मनाशात् । किं कृत्वा ? पूर्वमाथि परिरभ्य, कथं यथा भवति ? भुजोपरोधं भुजा
अपने यशकी वृद्धिकी कामना करते हुए जिस अभिमानी तथा उन रावणने कैलासपर्वतके अत्यन्त ऊँचे भाग तपस्या करते अपने शत्रुको देख अपने भुजदण्डोंपर वैसे ही उठा दिया था जैसे वायु ऊर्ध्वटोकको उठाये है । रावणके उटाने के समय पृथ्वीतलमें वास करते हुए नाग तागोंकी तरह टूट गये थे ।
अपने यशके कारण प्रथल नारायणने क्रीड़ा करनेकी इच्छा करके सामने अत्यन्त ऊँचे गोवर्द्ध को देखा और आश्चर्य है कि केवल वृक्षोंकी जड़ोंके उन्मूलन और तन्तुके समान टूटते सर्पों के साथ उसे वैसे ही भुजाओंसे ऊपर उठा लिया था जिस प्रकार वायुसंसारको उठाये हैं ॥३८॥
शत्रुओंकी वन्धन श्रृंखलाओंकी झंकार जिसके लिए प्रभात कालीन बाजांकी मंगल ध्वनिका काम देते हैं । इस प्रकार के प्रबल पराक्रमी रावणको जो ( राम ) व्यक्ति युद्धके लिए ललकारता है वह वास्तवमें ज्वाला है अथवा अतिसाहसी है [ ऐसे वीरशिरोमणि नारायणको जो संसार में अनुचर बनाने की बात करता है वह ( जरासन्ध ) मनुष्य वास्तवमें अतिसाहसी कुत्ता ही है । ] ॥३९॥
युद्धके द्वारा दोनोंका जन्म नाश करनेसे क्या लाभ है ? दोनों भुजाओं से कोलमें १. उपजातिवृत्तम् ।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
द्विसन्धानमहाकाव्यम् बुपरुध्य, कथम् ? अन्योन्यं परस्परम , अतो जीवाम, जीवामेत्यत्र सन्तोषार्थे लोट निर्देशः। केन १ सुखेन, काभिः कृत्वा ? विवाहसम्बन्धपरम्पराभिः पाणिग्रहणोत्सवसम्बन्धश्रेणीभिः कथम् ! निजानुकूलं यथा ॥४०॥
इति तस्य निशम्य तीवभूयं भुवनेशासनहारिणा बभाषे ।
परुषं पुरुषोत्तमेन पत्यो न सुभृत्यः क्षमते क्षिपां हि जात्यः ॥४॥ इतीति—अभापे उक्तम् , केन ! पुरुषोत्तमेन लक्ष्मणेन, कथं यया भवति ? परुपं निष्ठुरम् , किं कृत्वा ? पूर्व निशम्य श्रुत्वा । किम्? तीवभूयं तीव्रत्वम् , कस्य ? तस्य सुग्रीवस्य, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण, कथम्भूतेन । घुम्घोत्तमेन ? भुवनेशासनहारिणा भुवनेशानां नीलनलादीनां नरेन्द्राणामासनं हरतीत्येवंशीलेन राज्ञामासनपरिक्षेपकारिणेत्यर्थः । युक्तमेतत् सुभृत्यः प्रशत्योऽनुचरः पत्यौ स्वामिनि क्षिपामाक्षेप न क्षमते न सहते । कथम् १ हि स्फुटम् , कथम्भूतः मुमृत्यः ? जासः कुलीन इति ।
भारतीयः-पुरुषोत्तमेन पुरुपोत्तमनामधेवेन दृतेन बभाये, कथाभूतेन पुरुषोत्तमेन ? शासनहारिणा लेखवाहिना, क्व ? भुवने जगति, युक्तमेतत् । अन्ययोजना प्राग्वत् ॥४१॥
त्वमिहात्थ यथा तथा स नो चेत्सुभटः प्राणपरिव्यये सहिष्णुः।
किमिहोत्सहतेऽधिपो ममाहुर्निजशूरेषु हि विप्रियं प्रियं वा ॥४२॥ स्वमिति-आत्य [आहस्थः इत्यनेन सूत्रेण थादेशः ब्रवीपि, कः ? त्वमिह स्वकीयस्थाने, कथम् ? यथा तथा यहच्छयेत्यर्थः, नो चेत् यदि न स्यात्, कोऽसौ ? सोऽधिपः स्वामी, कस्य ! मम, कथम्भूतः ? सुभटः, यदि च न स्यात् सहिष्णुः, क ? प्राणपरिव्यये प्राणत्यागे, किम् ? उत्सहते, व १ इह युद्ध, युक्तमेतत्, हि स्फुटम् , आहुर्बदन्ति, के ? विद्वज्जनाः, किम् ? विप्रियं प्रियं बा, फैषु १ निजशूरेष्वात्मनोऽधीरेषु ॥४२।।
यदेष राज्ञः प्रथमं परिग्रहस्तदाहवेऽन्यन हतो हतैरपि ।
समापतन्तं मृगयुर्मदोद्धतं न राजवध्यं हि शृणाति शूकरम् ॥४३॥ यदिति-सामान्योक्त्या व्याख्यायते । यत् न हतः, कोऽसौ ? एष परिग्रहः परिवारः, कैः १ अन्यैः शत्रुभिः, कथम्भूतैः ? हतैरपि, छ ? आधे संग्रामे, कथम् ? तदा तस्मिन्काले, कथम् ? प्रथमं प्रथमतः, कस्य परिग्रहः १ राशः, युक्तमेतत् 1 हि यत्मान्न ऋणाति हिनस्ति, कोऽसौ ? मृगयुः पापर्द्धिकः, कम् ? राजवथ्य सगापतन्तं समागच्छन्त मदोद्धतं मदोत्कटं शुकरं पोत्रिणम् ||४३|| भरकर एक दूसरेफा आलिंगन करें तथा आपसमें विवाहोंके सम्बन्धकी परम्परा चलाकर जैली सुविधा हो उस प्रकार सुखसे जीवन व्यतीत करें ॥४०॥
इस प्रकारसे सुग्रीवकी तीखी बातें सुनकर बड़े-बड़े पृथ्वीपतियोंके राजसिंहासोंके अपहरणकर्ता, पुरुप श्रेष्ट लक्ष्मणने कठोरता पूर्वक कहा था । कुलीन अनुगामी अपने स्वामीपर किये गये आक्षेपीको सहन करते हैं [ इस प्रकारसे नारायणकी तीक्ष्ण तथा कटोर घातें सुनकर पुरुषोत्तम नामक सन्देशवाहक दूतने कहना प्रारम्भ किया था। संसारमें अच्छे सेवक अपने स्वासीकी अवज्ञाको नहीं सहते हैं। ] ॥४१॥
आप अपनी राजसभामै जो मनमें आया सा कह रहे हैं। वह आदर्श योद्धा मेरा खामी प्राण देकर भी सहिष्णुताके व्रतको न निभाता होता तो यहाँ ऐसा साहस न करता । आत्मवलियोंका भला-बुरा अपने ही आधीन होता है गेसा गुरुजल कहते हैं ॥४२॥
___आघात किये जानेपर भी युद्ध में दूसरे लोगोंने राजाके इस परिवारको जो पहिले ही नहीं मारा है वह उसी प्रकार है जैसे भदोन्नात्त, आगे बढ़ते आते तथा राजाके लक्ष्यभूत शूकरको दूसरे आखेटके साथी नहीं मारते हैं ॥४३॥
१. औपच्छन्दसिकं वृत्तम्। तल्लक्षणं हि "यर्यन्ते यो तथैव शेष स्वीपच्छन्दसिकं सुधीभिरुक्तम् ।' वृ०र० ॥२॥१३॥ २. पंशस्थवृत्तम् ।
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशमः सर्गः
ऊडवान्यदपि गण्डशैलकं तन्न कारणमुदारमुन्नतेः ।
भूरिभारवहनं क्रमेलकः श्लाघ्यते युधि वधं तु सिन्धुरः ||४४ ||
ऊढवानिति-यदिति सामान्योक्तौ । यत्पुमान् गण्डशैलमारूढवान् स्थूलोपल्म धितस्थौ । तदुन्नतेरुदारमुत्कटं कारणं न स्यात् । युक्तमेतत् । इलाध्यते, कोऽसी ? क्रमलेकः उष्ट्रः, किं कर्त्तुम् ? कत्तु भूरिभारवहनम्, तु पुनः अप्यते, कोऽसौ ? सिन्धुरो गजेन्द्रः, किं कर्तुम् ? तुम, कम् ? वधम् बा १ सङ्ग्रामे । उत्तरार्द्ध सोपस्करतया व्याख्यातमिति ॥४४॥
रमिह ततः सा रामे या क्रियेत विधेयता
न तु लघुजरा सन्धेयास्मिन्प्रतापिनि वक्रता । क्वचिदपि न वः स्वामी साहायकं प्रतिनाथते
सुपथगमनप्रारम्भाय प्रभोरमुद्यमः || ४५ ||
१९७
वरमिति--[द्विः] ततस्तस्मात्कारणात् सा वरं स्यात् या विधेयता प्राञ्जन्यत्वं त्रियेत विधीयेत, क ? इद्द रामे, कथम्भूते ? प्रतापिनि अस्मिन् चक्रता कुटिलता न सन्धेया न सन्धातव्या, कथम्भूता वक्रता ? लघुजरा लवी जरा यस्याः सा नश्वरीत्यर्थः । न नाथते न याचते । कोऽसौ ? स्वामी, केषाम् ? वो युष्माकम्, कं कस्मै १ प्रति ? साहायकं प्रति मित्रसमूह प्रति क्र १ कचिदपि कस्मिंश्चिदपि कार्ये । अयमुद्यमः स्यात्, सुपथगमनप्रारम्भाय न्याय मार्गानुसरणप्रारम्भाय, कस्य ? प्रभो रामस्येति ।
भारतीयः- ततः सा वरं स्यात् क्रियेत का ? या विधेयता, कथम्भूता ? सारा, पुनरमेया । क्क ? इह जरासन्धे, कथम् ? लघु शीघ्रम् कथम्भूते ? प्रतापिनि, न त्वसौ वक्रता स्यात्, कचिदपि कस्मिंश्चित्कार्ये । न नाथतेऽपि तु नाथत एव । कः ? स्वामी के प्रति ? साहायकं प्रति केषां स्वामी! वो युष्माकम्, तथाऽयमुद्यमः स्यात्, कस्मै ! असुपथगमनप्रारम्भाय यमानुसरणप्रारम्भाय कस्य ! प्रभोः केषाम् ? वो युष्माकमिति ॥ ४५॥
नाथोऽभ्युपेत्य विनयेन ततोऽनुनेय
स्तस्य द्विषामित्र दशा भवताञ्च माभूत् ।
यदि छोटेसे कैलाश अथवा गोवर्द्धनको उठा लिया तो इससे ही रावण अथवा नारायणकी विशाल उन्नतिका पता नहीं लग सकता है । युद्धस्थलमें भारी-भारी बोझ उठानेको ऊँट ही पसन्द करता है । हाथी तो मरने मारने में ही सुखी होता है ॥४४॥
अतएव जो सरलता यहाँ करेंगे वहीं ठीक है । इस परम प्रतापी रामके साथ शीघ्र ही नष्ट होनेवाली कपटनीतिका प्रयोग नहीं करना चाहिए। मेरा स्वामी कभी भी आप लोगों से सहायता के लिए प्रार्थना करता है ? अपितु महाराज रामका यह प्रयत्न सुमार्गपर लानेके लिए ही है।
इस प्रखर प्रतापी जरासन्धके साथ जो सीमित किन्तु सारवान आज्ञाकारिता शीघ्र की जायगी वही लाभप्रद है, विपरीत आचरणसे कोई भी लाभ नहीं है । हमारा स्वामी आपकी सहायता ही चाहता है । आपलोगोंको कुमार्ग अथवा मृत्यु मार्गपर चलाने के लिए ही हमारे प्रभुका यह प्रयास है ॥ ४५ ॥
१. रथोद्धृतावृत्तम् । २. हरिणीवृत्तम् ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् इमाशु धीप्सितएवीर्य पौ स देशं
श्रीसाधनं जयधियां खलु विक्रमोक्तिः ॥४६॥ इति श्रीद्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य कृतौ राघवपाण्डीये महाकाव्ये
दूतसंवादो नाम दशमः सर्गः ॥१०॥ नाथ इति-[द्विः] ततस्तस्मात्कारणात् नन्वहो, अनुनय आश्रयणीयः, कः ? नाथः स्वामी, विनयेन प्रश्रयण, किं कृत्या ? पूर्वमुपेत्य समीयमागत्य, तथा च मा भूत् माध्मवत , का ? दशा अवस्या, कैयाम् , भवताम् , च, बोपामिव ? द्विवामित्व यथा दाणाम् , कस्य ! तस्य रामस्य इति धीप्सितं वक्तुभिष्टम् , उदीयं प्रोच्य ययो, कः ? स लक्ष्मणः, कम् ! देशम् , कथम् ? आशु शीघ्रम् , युक्तमेतत् , नन्बहो स्यात् , का ? विनामोक्तिः, किं स्यात् ? श्रीसाधनं २भ्याः धारणम , केनाम् ? जय धियामिति ।
भारतीयः- पुरुषोत्तमनामधेयो दूतः देशं स्वविषयं ययो कथम् ? आशु शीमम् , कि कृत्या ? पूर्वभुदोर्याभिधाय, किम् ? धीप्सितं विवक्षितम् , कथम् ? ननु ततोऽनुनयः, कः ? नाथः, नन्वही त्यात् , का ! विक्रमोक्तिः, किं स्यात् ! श्रीमाधनम् , केपाम् ? जयधियामिति ॥४६|| इति निरवद्यविधामपनमण्डितपण्डितमण्डलीमण्डितस्य पट्तचक्रवर्तिनः श्रीमद्विनय. चन्द्र पण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोजपचारधातुरीधन्द्रिकाचकोरेण नेमिबन्देण विरचितायां पदकौमुदी नाम दधानायां
रीकायां दूतसंवादकथनो नाम दशमः सर्गः॥०॥
अतएव विनयपूर्वक सेवामें जाकर रामका अनुसरण करो। आपकी उसके शत्रुओके समान दुर्दशा न हो इस प्रकारसे अभीष्ट वक्तव्यको शीघ्र समाप्त करके वह ओजस्वी वत्ता लक्ष्मण उस स्थानको चला गया था जो विजयके इच्छुक लोगोंके लिए राज्यलक्ष्मीका साधन है। [ ....''इस प्रकारसे अपने भनकी बात कहकर पुरुषोत्तम दूत शीघ्र ही अपने देशको भाग गया था। यह विरुद्ध क्रससे कही गयी यात ही धनञ्जयमें आस्था रखनेवालोंके लिए निश्चयसे लक्ष्मी थीं ] ॥४६॥ इति निर्दोपविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, षट्सईचक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाकी चातुर्य-चन्द्रिकाके चकोर, नेमिचन्द्र द्वारा घिरचित कवि धनन्जयके राघव-पारधीय नामसे ख्यात द्विसन्धान कान्यकी पदकौमुदी टीका दूतसंवाद नामक
दशम सर्व समाप्त ।
१. वसन्ततिलका वृत्तम् ।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः यस्यां नाथाः सप्रभावानराणां हित्वास्थानी तां ययौ मन्त्रशालाम् ।
क्षुण्णैः कैश्चिन्नीतिमानेकपीनां विद्यास्वयॊ दीप्रभावासुदेवः ॥१॥ यस्मामिति-ययौ गतवान् । कोऽसौ ? देवः, वेषाम् ? कपीना शाखामृगाणां सुग्रीव इत्यर्थः । काम् ? मन्त्रशालाम् , कथम् ? कैः १ मल्लिभिः, कथम्भूतैः १ क्षुष्णैः कृताभ्यासैः, कासु ? विद्यासु व्याकरणतर्कालङ्कारादिलक्षणासु, कयम्भूतासु ? दीप्रभावासु दोनो भावः स्वरूपो यासा ताः दीप्रभावाः, अथवा दीपः संशयमारित्यागतया विशदः, भावी हेयोपादेयलक्षणविवेचक; परिणामो यासु तास्तथोक्तास्तासु, कतिसरव्योपेतः ? कैश्चित् त्रिभिश्चतुर्भिवा । कथं देवः ? अध्यः पूज्यः क्व सति ? नीतिमाने नीतिश्च मानश्च नीतिमानम् । अत्र समाहारापेक्षय कवचनं तस्मिन्नीतिमाने, नीतिमान् मानी च सन्नध्य इत्यर्थः। किं पूर्व मन्त्रशालायां ययौ ? हित्या परित्यज्य, काम् ? तामारथानी सभाम् , यतो यस्यामभूवन् , के ! नाथाः स्वामिनः, कथम्भूताः ? सप्रभास्तेजस्विनः, केषां नाथाः ? वानराणामिति ।
भारतीयः-ययो, कोऽसौ ? वासुदेयो नारायणः, काम् ? मन्त्रशालाम् । कथम् ? सह, कै? मन्त्रिभिः । कथम्भूतैः ? क्षुण्णः विहितयोग्यैः, कासु ? विद्यासु, कथम्भूतैः ? कैश्चित् त्रिभिश्चतुर्भिर्वा, कथम्भूतो वासुदेवः ? नीतिमान् न्यायमार्गवेदीत्यर्थः । पुनरयः जगद्वन्धः पुनःप्रभाः दीपा भा यस्य सः, प्रोज्वलत्कायकान्तिः प्रोद्दीप्रकोपतंजा वा । किं कृत्वा ? पूर्व हिवा, काम् ? तामात्थानां सभाम् , एफपीनां स्कन्धोपपीडमुपविष्टैरविच्छिन्नतया सामन्तादिभिः सम्भृतामित्यर्थः । यस्यां सभायामभवन, के ? नाथाः समुद्रविजयादयः स्वामिनः, केषाम् ? नराणाम . कथम्भता भूवन् ? सप्रभावाः प्रभावेन सह वर्तन्त इति सप्रभावाः समाहात्म्या इति ॥१॥
शान्तारावे सारिकाद्यप्रवेशे देशे मन्त्रं पञ्चकं शास्त्रशुद्धः ।
इत्यारेभे मन्त्रिमिदृष्टशौचैरं दीर्घ ध्यायतां कार्यसिद्धिः ॥२॥ ___ शान्तेति-आरेभे प्रारब्धवान् । कः १ सुग्रीवो नारायणश्च, कम् १ मन्त्रम् , कथम् ? सह, कैः १ मन्त्रि भिः, कथम्भूतैः ? शास्त्रशुद्धैः शास्त्रपवीणैः, पुनः कथम्भूतैः ? दृष्टशौचैः दृष्टं शौचं येषां तैशौचैः शत्रुप्रयुक्त लम्बोपचारदूरीकृतैः प्रभोः कार्यभङ्गभीत्या निर्लोभत्वासेषाम् । अत्रान्वयपरम्परयागतत्त्वात्सुजातित्वं कुलीनत्वञ्च प्रदर्शितं तेषां मन्त्रिणामिति भावः । क्व मन्त्रमारेभे ? शान्तारावे शान्त; आरावो यत्र तस्मिन्निर्जन्तुकतया प्रतिध्वनिपरित्यक्ते सारिकाद्यप्रवेशे सारिकाकीरवर्तिकादीनां प्रवेशोजिझते, यतः शुकसारिकादिभिभिन्न मन्त्री दृष्टोऽतएव तेषां प्रवेशाभावी विहितः । देशे प्रदेशे। कथाभूतं मन्त्रम् ? पञ्चकं पञ्चावयवा यस्य तम्, कस्मिन्मन्व्यम्, किम्मन्न्यम्, कैः सह मन्न्यमिति त्रिविधो विकल्पः। आयो देशकालापेक्षया द्विष्ठः द्वितीयः
जिस स्थानपर मनुष्यों के भावधारी नाथ ये उस स्थानको छोड़कर राजनीति और गौरवकी रक्षक मन्त्रशालामें, तीक्ष्णा विचारशक्तियुक्त विद्याओंके अभ्यासी कुछ मन्त्रियोंको साथ लेकर वानर बंशियोंका राजा सुग्रीव चला गया था।
जिसमें मनुष्यलोकके विविध प्रभावशाली राजा बैठे थे उनसे भरी हुई उस राजसभासे उठकर प्रखर कान्तिमान् , नीतिनिपुण, वासुदेव, राजनीति अगदि विद्याओंके अनुभवी लोगोंके साथ मन्त्रशालाको चला गया था ॥२॥
सब प्रकारके कोलाहलसे रहित मैना, तोता, आदिके प्रवेश वर्जित मन्त्रशालामें सुग्रीव अथवा नारायणने निलोभिता तथा कुलीनताके लिए ख्यात शास्त्रोंके मननके कारण शुद्ध बुद्धि मन्त्रियों के साथ, मन्त्रणा की देश-काल, विषय, मन्यदाता आदिके भेदसे पञ्चांग
5. सर्गेऽस्मिन् शालिनीवृत्तम्।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिसन्धानमहाकाव्यम् कर्मणामारम्भोपाय इत्यादिभिः पञ्चकः । कीदृशैः कतिपयौति द्विष्टस्तथैवमुदायिते । कथम् ? इति कृत्वा मन्त्रिभिर्मन्नं समारंभे । भो मन्त्रिणः सर्वकार्यधुरीणाः ध्यायतां पालोचयताम्, का ? कार्यसिद्धिः, कथं यथा भवति ? दीर्घ दीर्घकालं दूर दूरदेशविपये, कैः ? भवद्भिरिति सम्बन्धनीयमिति ।।२।।
अप्रारम्भात्कार्यमकौशलाद्वा स्थानत्यागात्कामतः शेषतो वा ।
नातिक्रान्तं प्राप्यते यौवनं वा तेनालोच्यं वोऽनुबन्धैश्चतुर्भिः ॥३॥ अप्रारम्भादिति-न प्राप्यते न लभ्यते, किं तत् ? कार्यम् , कथम्भूतं सत् ? अतिक्रान्तमतीतम , कस्मात ? अप्रारम्भात्यमादरशादनुामात् । वा अथवा कार्ये प्रवृने अकौशलादनैपुण्यात् , वा स्थानत्यागात् सत्यपि क्रियामात्रने पुण्य स्थानत्यागास्थानास्थानान्तरगमनात् अत्र याराना स्थानत्यागात् न दि गीरपि दुपरा, कि पुनः पुममिति । वा अथवा कामतः यदृच्छातः, अथवा शेषतः ग्रोधादिमिः । अत्रोपमार्थः प्रदर्यत-चा यथा याचनमतिकान्त पुनर्न प्राप्यो यतः, तेन कारण नालोच्य धी युप्माकं यु मामिः । यः कृत्या ? अनुबन्धः कतिसपापित: १ चम--अभी थी, अर्थमनः, अर्थमर्थः, अनर्थमनश्री, अत्र वामना निरूप्यते अयोऽर्थानुबन्धी, अर्थ नानुबन्धी, अनयांध्यांनुबन्धी, अन योजनानुबन्धीत्येचं रूपैरिति ||३||
शिष्टैजुष्टं रक्षितं दण्डनीत्या दृष्टं दोच्चैयच्च पुष्पाश ।
कार्यद्वारं श्रीगृहद्वारभूतं तस्मिन्मूढ दिग्विमूहं निराहुः ॥४॥ शिटैरिति-निराहुनिबंचनयन्ति । के ? नीतिविशारदाः, कम् ? मूढम् , छ ? तस्मिन्नालोव्ये, कथम्भूतं मूढ़ गिराहुः ? दिग्विमूह दिशामूढम् । यच्च गुष्ट सेवितम् , कैः? शिप्टेंः शास्त्रज्ञैः पुम्भिः,यच्च रक्षितम् , कथा ! दण्डनीत्या बाह्याभ्यन्तर विश्वेशभी दण्ड़ी दण्डस्तव नील्या, यच्च दृष्टम् । कैन ? पुण्यग्रहेण देवानुग्रहेण, कथम ? उच्चैः । अतिशयेन, कथाभूतमालोच्यम् ! कार्यद्वारं मिया मुखम् , पुनः कथम्भूतम् ? श्रीगृहद्वारभूतमिन्दिरामन्दिरद्वारभूतम् ॥४॥
'तच्चैकैकं यन्मुखेनैककेन प्राप्तं योज्यं ग्रासवद्भावि पथ्यम् ।
नानाद्वारैरापतद्वा हपीके श्यस्पृश्यादीव तद्ग्राह्यमेभिः ॥५॥ तदिति-तच्च कर्म एकैकमेकमेक स्यात् । यत्प्रासम् , कैन ? मुखेन, कथम्भूतेन ? एक केनैकेन, योज्यम् , किं तत् १ पथ्यम् । पयोध्नपेतं पथ्यम् । यदत्तु गृहीतम् सत् पुरती वित्रियां न भजते तत्पथ्यम् । कथम्भूतम् , भावि भविष्यत् , क हव ? ग्रामवत् कवरः इव । बाथवा ग्राह्यमादेयम् , किम् ? तत्कम, किं कुर्वत् ? आपतदागच्छत् , कैः ? एभिनानादारः मन्त्रस्य पञ्चाययधैः, किमिव प्रायम ? दृश्यस्पृश्यादीव दृश्यस्पृश्यादिवत् , मन्त्रणा प्रारम्भ की थी। हे मंत्रियो, विचार करें किस प्रकार चिरस्थायी और व्यापक सफलता होगी ॥२॥
प्रारम्भ न करनेसे, प्रारम्भ करके भी अनुभव हीनता के कारग, चातुरी होनेपर भी स्थान परिवर्तनके कारण अवसर पीता कार्य अथवा यौवन पुनः हाथ नहीं आता है अतएव आप लोग प्रकृत विषयपर अर्थसाधक अर्थ, अनर्थकारी अर्थ, अर्थवाधक अनर्थ और अनर्थकारी अनर्थ इन चार दृष्टियाँले विचार करें ॥३॥
जिस कार्य योजनाम सज्जनोंका सह्यांग हो, दण्डनीति जिसका रक्षक हा तथा उच्च स्थानपर गत शुभ ग्रहों की जिसपर दृष्टि हा वह लक्ष्मी-मन्दिरके प्रवेश-द्वारके समान होती है। जो ऐसी योजनाके विश्यमें मूढ़ है उसे जीतिकार दिग्भ्रान्त ही कहते हैं ।।८।
इनमेंसे प्रत्येक, जो सामने आता है उसको एक-एकको दृष्टिसे एसा बैठाना चाहिए जो भधिप्यमें इष्ट साधक हो जैसा कि सामने आये ग्रास एक मुखसे ही पक-एक करके लेनेसे पथ्य होते हैं । अथवा एक साथ उपस्थित विचारणीय विषयोंको इस पाँच अवयवोंकी पिसे
१. पुस्तके "यच्चैकैकं यरसुखेनैककेन" इति पाठोऽस्ति ।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः
२०१
दृश्यं लोचनविषयम् स्पृश्यं स्पर्शविषयमित्यादिवदुत्पद्यते । यथा दृश्यस्पृश्यादि गृह्यते । कैः १ हृषीकैरिन्द्रियैः स्पर्शनरसन त्राण लोचनश्रवणैरिति ॥ ५ ॥
तत्सर्चं वारभ्यमल्पाल्पमेव स्वीकर्त्तव्यं कर्म कालक्षमञ्चेत् ।
राहारं हृद्यमाहृत्य विश्वं कामं रोमन्थायतेऽनुक्रमेण ॥ ६ ॥
?
तदिति वा थवा स्वीकर्त्तव्यमेव उररीकरणीयमेव, किम् ? तत्सर्वमारभ्यं कर्म, कथम्भूतं सत् अस्पाल स्तोकस्तोकं चेद्यदि स्पात् किम् ? कर्म, कथम्भूतम् ? कालक्षमं कालं क्षमते कालक्षमं समय सहिष्णु । यत एतत् मुप्रसिद्धमिदं रोमन्यायते रोमन्थं करोति, काउसो १ गोर्नन्दिनी | केन ? अनुक्रमेण परिपाच्या शनैः शनैरित्यर्थः । किं कृत्वा पूर्व रोमन्यायते ? आहृत्य जग्च्छा | कभू ? आहारम् कथम्भूतम् ? हृद्यं हृदि साधु यन्नक्षितं सद्वृदि व्ययान्न कुरुते तद्वयम् सात्म्यभूतम् विदवं समस्तम् कथमाहृत्य ? काम खेच्छया आष्टमिथः ||६|
कार्यस्यादयः प्रयुङ्क्ते न नीतिं गच्छन्त्यस्य स्वादुभावं न भोगाः । नूनं धात्राऽप्येतदर्थं जनानां जिह्वास्येषु स्थापिता नोदरेषु ||७||
कार्यस्येति यः पुमान् न प्रयुङ्क्ते न प्रयोजयति, काम् ? नीतिम्, क ? आदी प्रथमारम्भे, कस्य ? कार्यस्य कर्मणः, यत्तस्ततो न गच्छन्ति न व्रजन्ति के ? भोगाः कर्पूरकस्तूरीताम्बूलादयः, कम् ? स्वादुभाव रविनीताम् कस्य ! अस्य पुंसः । स्थापिता का ? जिल्हा रखना, केन ? धात्रा ब्रह्मणापि क १ आस्येषु वदनेषु केषाम् ? जनानाम्, किमर्थम् ? एतदर्थं स्वादुभावार्थम् नोदरेषु स्थापिता, कथम्भूतम् ? नूनं निश्रयेन, अथवा नूनमिति शब्दोऽत्रोचार्थो विशेषव्य इति ॥७॥
कस्यात्यन्तं मित्रमेकान्ततो वा शत्रुः कृत्यं शत्रुमित्रत्वहेतुः । यस्यारम्भान्नातिवर्तेत सख्यं वैरं वारात्येन तत्कर्म कुर्युः ||८||
यस्येति - आक्षेपेण च व्याख्यायते । कस्य मित्रं स्यादपि तु न कस्यापि कथम् ? अत्यन्तमतिशयेनाजन्मपर्यन्तमित्यर्थः । वा अथवा कस्य शत्रुः स्यादपि तु कस्यापि कथम् ? एकान्ततो नियमेन, अतः कारणात्कृत्यं कार्य शत्रु मित्रत्वहेतुः स्यात्, शत्रुत्वकारणं मित्रत्वकारणञ्च । अतः कुर्युः विदध्युः भवन्तः किम् ? तत्कर्म कार्यम्, नातिवर्तेत नातिक्रामति, किम् ? सख्यं मित्रावं, अथवा वैरम्, केन सह ? आरात्येनारातिसमूहेन, कस्मात् ? आरम्भात् कस्य ? यस्य कर्मण इति ||८||
अभ्यादत्ते कार्यजं योनिजं वा प्राप्तं मित्रं शत्रुमप्राप्तमेव ।
तस्य श्लाव्यं जन्म कृत्वावधानं किं तूत्तायो रावणीयोऽपि चिन्त्यः ||९|| वैसा ही विचारना चाहिये जैसे विविध दृश्य और स्पृश्य भोगोंको इन्द्रियोंसे ग्रहण करते हैं ॥५॥
अथवा, यदि प्रतीक्षा की जा सकती हो तो समस्त आरब्ध कार्यको थोड़ा-थोड़ा करके ही हाथ लगाना चाहिए जैसे गाय परम प्रिय भोजनको एक बारमें ही पूरा तथा जी भरके खा करके याद में धीरे-धीरे जुगाली करती है | ॥६॥
जो व्यक्ति कार्य के प्रारम्भमें ही नीतिसे काम नहीं लेता है उसके राज्यादि भोग सरस नहीं होते हैं । इसीलिए विधाताने लोगोंके मुखमें जिला बनायी है और पेटमें नहीं बनायी हैं, यह निश्चय है | ॥७॥
कौन ऐसा व्यक्ति है जिसके अत्यन्त मित्र होते हो अथवा जिसके सर्वथा शत्रु ही होते हो । अतपय जिसके आरम्भ करनेसे मित्रताका अतिक्रमण न होता हो अथवा शत्रु समूहक साथ वैरका अपलाप न होता हो वही कार्य आप लोग करें | || ||
२६
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
अभ्यादत्त इति-अभ्यादत्ते प्रतिगृहाति, कः १ यः पुमान् , किम् ? मित्रं सहायम् , कथम्भूतम् ! प्राप्तं वर्तमानम् , कथम्भूतम् ? कार्यजं कायोज्जातं योनिजं वा योनेजातमन्वयपरम्परयागतमित्यर्थः । तथाऽ भ्यादत्ते, कम् ? शत्रुम् , कथम्भूतमेव ? अप्राप्तमेव भाविनमेव, कथम्भूतम् ? कार्य योनिज वा वंशजं वा । श्लाघ्यं स्तुत्यम् , किम् ? जन्म जीवितम् , कस्य ? तस्य पुंसः, अतः कारणात् , किन्त्वनुशयान इति प्राह सुग्रीवः- भो मन्त्रिपमिचन्त्यो जायते, कः ? उत्तापः, केषाम् ! भवताम् , किं कृत्वा ! पूर्व कृत्वा विधाय, किम् ? अवधानं तत्परताम् , कशम्भूतः ? उपात्तः रावणीयो रावणस्यामिति ।
भारतीयः-फिन्त्यनुशयानो वासुदेवः प्राह:-भो मन्त्रिपश्चिन्त्यः, कः ? उत्तापः । क्व ? अरौ, कथम् ? अणीयः स्वल्पं यथा, केपाम् ? भवताम् , किं कृत्वा ? पूर्व कृत्वा, किम् ? अवधान प्रणिधानम् । शेयं समम् ॥९॥
यद्वंशस्य प्राभवं लोकरूड यः शौरीयं धाम संहर्तु मीशः ।
ब्रद्धस्पर्धोऽनेन विद्वेषभाजा साधं मित्रैर्गोत्रनाशं समेति ॥१०॥ य इति-यो राम ईशः सगर्थः, कि कत्तं म् ? संहत्तु म , कम् ? प्रभावं माहात्म्यम् , कस्य ? यदंशस्य रावणान्वयस्य मालिसुभालिममृतेः, तथा संहर्तुं मीशो रामः, किम् ! धाम तेजः, कथम् ? शौरीयं शूराणां समूहः शौरः शौरस्येदं शारीयमथवा सूर्य एवं सौरः, स्वार्थेऽण , सौरस्येदं सौरीयमादित्यस्येदम् , पुनः कयम्भूतम् ? लोकहढं जगत्प्रसिद्धम् , अतः समेति सम्यकप्रकारेणायाति, कः ? बद्धस्पर्धः विहितस्पर्द्धः कृतेष्यों नरः, कम् ? गोत्रनाशम् , कथम् ? सार्द्धम् , कः ? मित्रैः, बद्धस्पर्धः केन ? अनेन रामेण साधे सह, कथम्भूतेनानेन ? विद्वेषभाजा विद्वेषं भजमानेन ।
अथ भारतीयः-यो जरासन्ध ईशशः समर्थः, किं कतम् ? संहर्त म , कम् ? प्राभवं माहात्म्यम् , कस्य ? यदशम्य यदूनामंशस्य, अथवा प्रभवे जातः प्रभवस्तं प्राभवं जन्मजातम् । अत्र वासना-मन्येषां का वार्ता यादवांशस्वैकदिनजात बालकमपि सह मीष्टे तथा संहत्तु मीशः, किम् धाम तेजः, कथम्भूतम् शौरीयं नारायणीयम् , पुनः कथम्भूतम् ? लोकरूदं जगद्विख्यातम् | अथवा यो जरासन्धः, किम् ? धाम तेजः, कथम्भूतम् ? सौरीयं सूर्यस्येदम् , पुनलोकरूढम् । रूपकमिदम् , अनेन जरासन्धेन सह यः प्राणी बदम्प! जायते । कथम्भूतेन ! विद्वेषभाजा विद्वज्जनानां वेषभाकार मजमानेन, समेति स प्राणी, कम् ? गोत्रनाशम् , कथम् ? सार्द्धम् , कैः ? मित्रैरिति ॥१०॥
स्वस्यारेश्चायोधयन्मित्रमित्रं मित्रं पाणिग्राहमाक्रन्दकञ्च ।
नन्यासारावप्युपायैर्जिगीपुः शक्त्या सिद्धयाभ्युद्यतो हन्त्यरातिम्॥११॥ उसका जन्म प्रशंसनीय है जो कार्यकृत अथवा जन्मजात स्वयं अभ्यागत मित्रोंको स्वीकार करता है तथा व्यवहारकं कारण बने अथवा कुलकमागत शत्रुका दूरसे ही प्रतिकार करता है । किन्तु इससे सावधान होकर आपको रावणके उपद्रवका विचार करना है [ किन्तु इस समय पूरा विवेकके साथ आपको शत्र ( जरासंध) के विषयमें छोटे से गेटे भी विराध सोचने हैं ] ॥९॥
जिसके वंशका प्रभाव संसारमें छा रहा है, जिसका तेज वीरतासे उत्पन्न है, जो शत्रुओंके बिनाशमें समर्थ तथा सहज ही रुष्ट होनेवाले इसके साथ ईर्ष्या करनेवाला अपने सहायकों के साथ वंशके क्षयको प्राप्त होता है।
__ अन्वय-या बदु-अंशस्य प्राभव लोकरूढ़ शौरीयं धाम संहर्तुम् ईशः विद्वेषभाजानेन बद्धस्पर्धा मित्रैः सार्ध गोत्रनाशं समेति ।
जो जरासंध राजा यदुकी सद्यःप्रसूत, नागयणकी शक्तिसे सम्पन्न जगद्विख्यात सन्तानको भी मार सकता है, विद्वानोंके वेषके धारक इसके साथ प्रतिद्वन्दिता करनेवालेका ही नहीं अपितु उसके मित्रोंके भी वंश नष्ट हो जाते हैं। ॥१०॥
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः
२०३
स्वस्येति-हन्ति हिनस्ति, कः १ जिगीषुः, कम् ? अराति शत्रुम् , कैः कृत्वा ? उपायः सामादिमि. श्चतुर्भिः, सामभेददण्डोपदानैः, कथम्भूतः सन् ? अभ्युद्यतः सामत्येनोस्थितः समुत्पन्न इत्यर्थः । कया ? सिद्ध्या पुण्यपाकेन, तथा शक्त्या शक्तित्रयेण । तथा चोक्तम्-"प्रभुशक्तिर्भवेदाचा मन्त्रशक्तिद्धितीयका । तृतीयोत्साहशक्तिश्चेत्याहुः शक्तित्रयं बुधाः"-किं कुर्वन् ! आयोधयन् , किम् ? मित्रमित्रम्, (मित्रं च ) कस्य ? स्वस्यात्मनः, अरेश्च शत्रोश्च 1 तथा पाणिग्राहमाक्रन्दकच, तथा आसारी पाणिग्राहमित्रमानन्दकमित्रं च आयोधयन् । अत्र व्यक्तिराया प्याक्रियते -स्त्रमित्रभित्रेण सहारिभित्रमित्रमायोधयन् , तथा स्वमित्रेणारिमित्रम् , आनन्दकेन । सह पाहि पाणिपाहासारण सहामन्दासारम् । कथम् ? ननु, नन्थिति शब्दोऽत्र निश्चयायों ऽवधारणाथोंऽप्यामन्त्रणार्थो वा गृह्यते । भित्रादयो दश द्वौ मध्यस्थाधिति द्वादशमण्डलम् । तथा चोक्तम्"विजगीपोषिज्जेतुमित्रमित्रं रिपोरपि । जिगीपोर्मित्रमित्रञ्च मिग्रारोमित्रमेव च ॥ जिगीषोः पृष्ठतः पाणिग्राहाकान्दाजुपस्थितौ । तदासारौ तु विज्ञेयौ मध्यस्थी पार्श्वयोरपि" ॥११॥
रक्षोपायः शक्यते केन का का क्रुद्धेऽस्मिन्यामयीहेत योद्धुम् ।
उद्योक्तव्यं नैप कालः क्षमाया योज्यो योगक्षेमसिद्ध्यै हि दण्डः ॥१२॥ द्विः । रक्षेत्ति-शक्यते समर्यो भूयते, केन कर्ताऽपि तु न केनापि, किम् ? कर्नु म त्रिधातुम् , कः ? रक्षोपायः रक्षसो रावणस्यापायो विध्वंसस्तथा ईहेत इच्छेत कः अपि तु न बोऽपि, किं कर्तुम् ? योद्धम् , क ? अस्मिन्रावणे, कथम्भूते ? कुद्धे, पुनमामिले, यो मनला जाणीया, गतीन वरी कः ? एप काल: समयः, कस्याः ? क्षमायाः, अतो बोज्यो योजनीयः, कः ? ६ष्टः सैन्यम् , कस्यै ? योगक्षेमसिद्ध्यै; योगोऽलब्धलाया, क्षेमो लब्धपरिरक्षणम् , तयोः सिद्ध्यै सिद्धिनिमित्तम् , कयम् ? हि स्फुटमिति शेषः ।
भारतीय-रक्षोपायो रक्षाया उपायः, वैन कर्तुं शक्यतेऽपि तु न केनापि, बाऽथवाऽस्मिन् मयि विगौ कुद्धे सति क ईहेत योदधुमपि तु न कोऽपि । अत उद्योक्तव्यम्, माया नैप कालो वर्तते, योन्यो दण्डः, कस्यै ? योगक्षेमसिद्ध्यै, कथम् ? हि स्फुटम् ॥१२॥
इत्येतस्मिन्नुक्तवत्येतदेवं धीरोदारं धर्मजन्मा बभाषे ।
गाम्भीर्येणानूनभाजाम्बवोऽसौ राशिः सत्त्वस्याश्रयः शौर्यवृत्तेः ॥१३।। इतीति-इत्युक्तप्रकारेणैतस्मिन्सुग्रीवे, एतदेवमुक्तवति सति बभाषेऽवादीत् , कोऽसौ ? असौ जाम्बवः, कथं यथा भवति ? धीरोदारम् , कथम्भूतः १ धर्मजन्मा धर्भणोपलक्षितं जन्म यस्य स धर्मजन्मा, पुनः कथंभूतः १ अनूनभाः प्रचुरकायकान्तिः, अथवा प्रौढ प्रतापः, पुनर्गाम्भीर्येण सत्त्वस्य राशिः, पुनः शौर्यवृत्तेराश्रयः।
भारतीयः--इत्युक्तप्रकारेण तदेवमेतस्मिन् नारायण उक्तवति सति बभाये, कः ? असौ धर्मजन्मा युधि__ सर्वथा सन्नद्ध विजयका इच्छुक अपने तथा शत्रुके मित्रोंको, मित्रोंके मित्रोंको सेनाके पीठेके व्यूहभूत पाणिग्राह और आक्रन्दकाको एवं दोनों पाश्चोंके बीच में चलती सेना (आसारों)को लड़ाते हुए, सामादि उपायोंके द्वारा, प्रभु-मंत्र-उत्साह शफिके द्वारा और विद्या, आदिकी सिद्धिके द्वारा निश्चित ही शत्रका नाश करते हैं। ॥११॥
इस राक्षसका कौन विनाश (रक्षसः-अपायः) कर सकता है? इसके कुपित तथा प्रतिकूल हो जानेपर कौन इससे युद्ध करने की इच्छा करेगा ? अतएव इससे लड़नेका ही पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए यह क्षमाका समय नहीं है। अप्राप्तकी प्राप्ति (योग) तथा प्राप्तके संरक्षण (क्षेम)के लिए दण्ड का प्रयोग करना चाहिये [कौन विष्णु (मयि)के कुपित हो जानेपर उनसे लड़नेका साहस करेगा अथवा रक्षाका उपाय (रक्षोपाय) कर सकता है... J॥१२॥
इस प्रकारसे, इतना सुग्रीवके द्वारा कहते रहनेपर ही जाम्बवान्ने अत्यन्त धीरता और उदारतापूर्वक कहा था। जाम्बयानका जन्म धर्मके लिए था, शरीरकी कान्ति अविकल थी, गम्भीरताके कारण वह बलकी राशि था तथा वीर वृतिका आश्रय था[इस प्रकारसे कृष्णजीके द्वारा कहे जानेपर धर्मराज युधिष्ठिरने धीरोदार रूपसे कहा था, धर्म
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
ठिरः, कथं यथा भवति ? धीरोदारम् , कथम्भूतः ? आम्बको राशिः समुद्रः, कस्य ? सल्यस्य, केन कृत्वा ? गाम्भीर्येण, कथम्भूतेन ? अनूनभाजा प्राचुर्य भजमानेन, पुनः कथम्भूतः ? आश्रयः, कस्याः ? शौर्यवृत्तेरिति ॥१३॥
कर्मोपायं प्रक्रमं तत्फलाप्ति साधूदाख्यत्पौरुषेणानुविद्धम् ।
वस्तूदात्तं भूरिवागल्पसारा स्वल्पे दृश्य दर्पणे हि स्थवीयः ॥१४॥ कर्मति-उदाख्यदुदाहरत् , कोऽसौ ? जाम्बवो युधिष्ठिरश्च, कम् ? कोशायं बलदुर्गराष्ट्रवान्यादिविषयात्मीयम् , तया प्रक्रभ पाइगुडविचम् , तथा तिं मापारम्भात् कार्यफल कार्यप्राप्तिञ्च, कथं यथा भवति ? साधु कथम्भूतं कीषायं प्रक्रमञ्च ? पौरुषेणानुविद्धमनुस्यूतम् , पुनर्वस्तूदात्तं वस्तुसमृद्धम् , युक्तमे तत् , स्यात् भूरिवाक् प्रचुरवचनम् , कथम्भूता स्यात् ? अल्पसारा अल्पार्था तुच्छेत्यर्थः । हि यस्मात् यथा स्वल्पे दर्पणे दृश्य स्तम्भकुम्भा दिवस्तुस्थवीयः स्थूलतरं स्यादिति ।।१४॥
किं व्यायामो यो विहीनः शमेन व्यायाम यः प्रेक्षते किं शमस्तौ । __ योगक्षेमस्यैतयोः पड्गुणास्ते योनिस्तेभ्यः स्थानबृद्धिक्षयाः स्युः ॥१५॥
किमिति-स कि व्यायामः कारिमाणां योगाराधनलक्षणः, यो विहीनः स्यात्, केन ? अमेन कर्मफलभोगोपभोगानां क्षगाधनलक्षणेन, विहि स्वर्गफलनिरपेक्षस्तपोमार्गस्तथा स कि शमो यः प्रेक्षते, कथम् ! व्यायामम्, तपस्यालेशव्यपेक्षः स्वर्गः, तो व्यायामशमी योनिः स्याताम्, यस्य ? योगक्षेमत्य । 'अत्र समाक्षारापेक्षया एकवचनम् । एसयोव्यायामदामयोः ते एड गुणाः सन्धिविग्रयानासनसंश्रयद्वैधीभावलक्षणाः योनिः स्युः, तेभ्यः षड्गुणेभ्यः स्युः, * ? स्थानवृशियाः फलानि । तथाहि यस्मिन्गुणे परस्य वृद्धिरात्मनः क्षयस्तस्मिन् तिष्ठेत्स क्षयः, यस्मिन्परस्य क्षय आत्मनो वृद्धित्तस्मिन्तिप्ठेत्सा वृद्धिः, यस्मिन्परस्य आत्मनश्च भयो न तत्स्थानम् अथवा यदि यातव्यः शत्रुस्थानस्थितः त्यात्तेन सह सन्ध्यासने स्तः, वृद्धियुतश्चेद्भवेत्तेन सार्द्ध द्वैधीभावभंश्रयो स्तः । यदि क्षयी स्यात्तेन सार्क यानविग्रही स्तः ॥१५॥
तयातव्यं तत्प्रकृत्यानुकूल्यं दैवं मात्यं कर्मनिर्माणशक्तिम् ।
ध्यात्वा कृत्याकृत्यपक्षान्गृहीत्वा वाग्दानाभ्यामुद्यतेनाभिषेण्यम् ॥१६॥ तदिति-तत्तस्मात्कारणादभिषेश्यं सेनयाऽभियातव्यमुद्यतेन विजिगीषुणा, किं कृत्वा ! पूर्व गृहीत्वादाय, कान् ! कृत्याकृत्यपक्षान् , कृत्याः क शक्याः, अकृत्याः कत्तुं मशक्या:, कृत्यानामकृत्यानाञ्च ये पश्चास्तान् भेद्याभेद्यपक्षानित्यर्थः । काभ्याम् ? वाग्दानाभ्याम् , यतः किं वाङ्मात्रेण दानरहितेन, कि दानमात्रेण सम्भाषणरहितेन कार्य स्यात् , अतः द्वाभ्यामेव युगपद्भवितब्य कार्यसिद्धये । किं कृत्वा ? पूर्व ध्यात्वा, कम् ! राज परिपूर्ण रूपसे विकसित गाम्भीर्य के कारण पराक्रम के समुद्र (भाम्बको राशिः) थे तथा वीर वृक्तिके...] ॥१३॥
जाम्बवन्त अथवा युधिष्ठिरने सैन्य, दुर्ग आदि कोंके उपायों, संधि, विग्रह आदि प्रक्रमों तथा इनके फलौकी प्राप्ति के विषयमें भलीभाँति समझा दिया था। यह मंत्रणा पौरुष के पुटसे व्याप्त थी, अर्थमें महान् थी । बहुत वचन और थोड़े अर्थ वाली नहीं थी क्योंकि छोटेसे दर्पण में भी बड़े-से-बड़े पदार्थकी परछाई दिख जाती है ॥१४॥
वह बल साधना किस काम की जिसका फल व्यवस्था और समृद्धि न हो । वह शान्ति और समृद्धि भी कैसी जो कप्टों और साहसकी अपेक्षा करती हो । व्यायाम और शमको योग तथा क्षेमका उद्गम कहा है। इन्हीं दोनों में सन्धि, विग्रह आदि वे षड्गुण निहित हैं जिनके प्रयोग द्वारा अवस्थिति, वृद्धि और क्षय होते हैं ॥१५॥
अतएच विजिगीषुको सहायता करने में समर्थ तथा असमर्थ पक्षोंका विचार करके और उन्हें आश्वासन तथा सहायता देकर अथवा लेकर अनुगामी बनाकर, सब प्रकारसे
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः
२०५ यातव्यं व्यसनिनगधार्मिकं घुणजग्धकाष्ठसधर्माणं शत्रुम्, तथा घ्यावा, किं तत्प्रकृत्यानुकूल्यं शत्रुप्रकृतीनां स्वाम्यमात्यादीनामानुकूल्यं तथा घ्यावा, किम् ? दैवं धर्माधर्मलक्षणम्, तथा ध्यात्वा किम् ? मा नयानयलक्षणम्, तथा ध्यात्वा, काम् ? निर्माणशक्ति कार्यनिष्पत्तियोग्यतामिति ||१६||
साम्ना मित्रारातिपातो भवेतां दण्डेनारं केवलं नैव मैत्री ।
सान्त्वे दण्डः साम दण्डे न वहेर्दाहोऽस्त्येकः शैत्यदाह हिमस्य ||१७|| साम्नेति भवेतां स्याताम् कौ ? मित्रारातिपाती मित्रं शत्रुपातच, क्रेन ! साम्ना, तथा स्यात् । किम् ? आरम् अरेर्भावः, शत्रुत्वभित्यर्थः । कथम् ? केवल परमेकमेव वा, केन ? दण्डेन, नैव मैत्री स्यात् । अतो न स्यात्, कः ? दण्डः, क ? सान् साम्नि युक्तमेतत् तथा न स्यात् किम् ? साम, क ? दण्डे | अस्ति, क: ? दाहः, कथम्भूतः ? एक: कस्य ? वह्नेः कृशानोः स्तः स्याताम् की ? होत्यदाही, कस्य १ हिमस्य तुद्दिनस्येति ॥१७॥
तीक्ष्णो नादः साधयेद्यन्प्रदीयान्मूलं नाप्नोत्यग्निरापः खनन्ति । किञ्च प्राप्यं चक्रशीलो न यावद्यात्येवर्जुस्तावदभ्येत्य भुङ्क्ते || १८ || दीयान् मृदुभाषी नरः किम् ? यत्, अद एतत्साम, तन्न साधयेत् न लभते कः ? अग्निः किम् ? मूलम् यथा खनन्त्युन्मूलयन्ति, अथ तीवत्व प्रदर्शितम् । किञ्चाधिकमुच्यते । यावत् न याति न
तीक्ष्ण इति साधयेत् कः ? कः ? तीत्रः तीव्रभाषी, यतो नाप्नोवि काः ? आपः पयांसि कि ?
प्राप्नोति कः ? वो वऋशीलो नरः किम् ? प्राप्यं लभ्यं वस्तु । तावद्भुत एव कः ? ऋजुः प्राणी,
,
किम् ? प्राप्यम्, किं कृत्वा ! पूर्वमभ्येत्य श्रीप्रमागस्येति ॥ १८ ॥
साम्नारब्धे शात्रवे किं वरैर्वा भेद्या दूतैरेव तस्योपजाप्याः ।
भिन्नं राज्यं सुप्रवेशं मणि वा वज्रोत्कीर्ण निर्विशेकि न तन्तुः ||१९||
साम्नेति - किमाक्षेपे, किं प्रयोजनम् १ ः १ चरैगूढपुरुषैः क्व सति ? शात्रवे शत्रुसमूहे साम्ना सान्त्वेनारब्धे सति वा अथवा जायन्ते, के ? उपजाप्याः कर्णेजपाः कथम्भूताः ! भेद्याः भेत्तुं शक्याः, केन ? याम्ना, तदा किं प्रयोजनम् । कः ? दूतैरेव युक्तमेतत् । स्यात् किम् ? राज्यम्, कथम्भूतम्, सुप्रवेशम्, कथम्भूतं सद् ? भिन्नम्, वा शब्दोऽत्रोपमार्थोऽवगम्यते, तेनायमर्थः तन्तुवरकः, वज्रोत्कीर्ण होण विद्धं
सुप्रवेशं यथा, किं न निर्विशेदपि तु निर्विशेदेव ||१९||
सन्नद्ध होकर सेना लेकर शत्रुपर आक्रमण करना चाहिये । इसके पूर्व शत्रुकी स्वामी, आदि अठारह प्रकृतियों, पुण्य पाप, नीति-निपुणता अथवा अनीतिमता और कार्य- शक्तिका भी विचार कर लेना चाहिये ॥ १६ ॥
के द्वारा मित्र प्राप्ति तथा शत्रु विनाश होता है । दण्डके उपयोगले शत्रु ही होते मित्रता नहीं होती है । सामके स्थानपर दण्डका और दण्डके पात्रपर सामका प्रयोग ठीक नहीं है । एक (दण्ड) तो अग्निसे जलाना है तथा दूसरा (साम) हिमके शीत और दाहके सदृश है ॥१७॥
तीक्ष्ण प्रकृति वह कार्य नहीं कर पाता जो कोमल प्रकृति करता है । अग्नि पेड़की जड़ तक नहीं पहुँच पाती किन्तु पानी उसे उखाड़कर फेंक देता है । टेढ़ा चलनेवाला ( कुटिल) जय तक अभी के पास पहुँचता भी नहीं है तब तक सीधा चलता (सरल) उसके पास पहुँचकर उपभोग भी कर लेता है ॥१८॥
यदि शत्रुका प्रतीकार साम-द्वारा आरम्भ हो जाय तो गुप्तचरोंकी क्या आवश्यकता है ? उसके सन्निकट परामर्शदाताओं में दूतोंके द्वारा ही भेद डाल देना चाहिये । भेदके शिकार राज्यपर विजय पाना सुकर होता जैसा कि वज्रके द्वारा भेदे गये मणिमें क्या सरलतासे तागा नहीं चला जाता है ? ॥१९॥
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
नानामार्गः पांसुलो दीर्घमत्रः अनुः पन्थानाप्तमत्यागमेन ।
यत्तत्क्षेपं जायते तत्कदा वा गम्यो नीचैश्चक्षुरप्रक्रमेण ॥२०॥ नानेति-जायते, कः ? शत्रुः, कथं यया भवति ? यत्तत्क्षेपम् , यदा तदा काले क्षेपो भवतीत्यर्थः । वैन ? आप्तगत्यागमेन, ये येषामवञ्चकास्ते तेषामाप्ताः आप्तानां यातायासेन, कथम्भूतः शत्रुः १ नानामार्गः समृद्धासमृद्धप्रायः, पुनः कथंभूतः १ पांसुलः पापिष्ठः, पुनः दीर्घसूत्रः भाविकार्यफलसम्पदन्वेषी, तत्कदा वा गम्यो जायते शत्रुः । केन हेतुना ? नीचैश्चक्षुरप्रक्रमेण नीचैश्चक्षुर्वेषां ते नीचैश्चक्षुषस्तेपामप्रक्रमेण शत्रणा मनुयोगेनेत्यर्थः । अथवा तत्कदा वा गम्यः । कैः ? नीचैन्यायमार्गहीनः, फैन च हेतुना ? क्षुरप्रक्रमेण शणप्रकमेणेति | पन्याश्चैव यत्तत्क्षेपं जायते, केन ? जाप्तगत्यागमेन, कथम्भूतः पन्थाः ? नानामार्गः बहुप्रकारः माजलाप्राञ्जलप्रायः पुनः पांसुल: रेणूत्करेण सह वर्तमानः, पुनः दीर्घसूत्रः दूरतरस्तत्, कदा वा गम्यः पन्थाः केन हेतुना ? नीचैश्चक्षुरमकोण अधोनयनमवृत्या अधश्चक्षुषी कृत्या शनैः शनैरित्यर्थः ।।२०।।
अप्यज्ञात्वा रावणावार्यशक्ति के मे तन्त्रावांपयोश्चेत्यमत्वा ।
नो स्थातव्यं देशकालानपेक्षं शय्योत्थायं धावतां कार्यसिद्धिः ॥२१॥ द्विः । अपीति-नो स्थातव्यम्, कथं यथा भवति ? देशकालानपेक्ष देशकालावनपेक्ष्वेत्यर्थः । किं कृत्वा ? पूर्वमशात्वा, काम् ? रावणावार्यशक्ति राणत्याप्रतिषेध्यां शक्तिम् । किं कृत्वा ? पूर्वभमत्वा । कथम् ! इति ? के पुरुषाः स्युः, कस्य ! मे मम, कयोमध्ये ? तन्त्रावापयोः, तन्त्रं स्वप्रकृत्युत्पत्तिविधानवम् , आवापः परशक्तीनामात्मनि विषयेऽध्यारोपलक्षणः, तन्त्रञ्च धापश्च तन्त्रावापी सयोस्तन्त्रावापयोरपीति, युक्तमेतत कार्यसिद्धिः, किं कुर्वतां सताम् ? धावतां पुरुषाणाम् , कथं यथा भवति ? योत्थाय शय्याया उत्थायेति ।
अधुना भारतीयः-हे आर्य गुणैर्गुणवद्भिवां अर्यत इत्यार्यस्तस्यामन्त्रणम्, नो स्थातव्यम्, कथम् ? देशकालानपेक्षम् , कि कृत्या १ पूर्वमशास्था, काम् ? शक्तिम् , क्य ? अरौ शत्रौ, कथम्भूते १ अणावपि क्षुद्रेऽपि, किं कृत्वा ? पूर्वममत्वा, के मे सन्त्रावापयोश्चेति, युक्तमेतत् , शय्योत्थाय धास्तां कार्यसिद्धिरिति ।।२१।।
इत्याकूतं तस्य भीमोहितस्य ज्ञात्वालापैरञ्जनानन्दनोऽसौ ।
इत्थंकारं पथ्यमयं जगाद न्यायं नोपेचिक्षिपन्ते हि सन्तः ॥२२॥ इतीति--जगाद कोऽसौ ? अञ्जनानन्दनः इनूमान् , किम् ? पथ्यम्, कैः कृत्वा ? आलापैः, कथम्भूतम् ! अर्थ्यमभिलपणीयम् , किं कृत्या ? पूर्वमित्यङ्कारमेवं कृत्वा, किं कृत्वा ? पूर्वं ज्ञाला, किम् ? आक्
अस्थिर नीतिमान् , पापनिष्ट, अवसरका लाभ उटानेमें असमर्थ शिथिल शत्रु भार्गके समान प्रामाणिक पुरुषोंके चले जाने तथा वापस न आनेके कारण जिस किसीके द्वारा तिरस्करणीय हो जाता है। नीचे की ओर ही देखनेवाले से शत्रुपर कय पकाएक आक्रमण नहीं किया जा सकता है ? विविध वीथियों युक्त, धूलमय (सूखा) दूर दूर तक चला गया तथा विश्वस्त लोगोंसे आया-गया मार्ग जिस किसी के जाने योग्य हो जाता है। ऐसे मार्गपर क्या नीची दृष्टि करके सावधानीसे चलना चाहिये ॥२०॥
रावणका प्रतिरोध करने के लिए कठिन शक्तिको बिना जाने, कितनी अपनी निजीशक्ति है और कितनी दूसरोंसे मिलेगी इसका विचार विना तथा अनुकूल देश तथा समयकी उपेक्षा करके नहीं रहना चाहिये क्योकि शय्यासे उठकर ही दौड़ते हुओंको ही सफलता मिलती है [ हे आर्य कृष्ण ? छोटेसे छोटे भी शत्रुकी शक्तिको बिना जाने (आर्य ? अणौ-अपि अरौ शक्तिं अज्ञात्वा)...सफलता मिलती है ] ॥२१॥
भयले मोहित (भी-मोहित) उस जामवन्तके वचनों द्वारा ही उसके अभिप्रायको जान१. 'नानासर्गः'-द।
------------.-....--........................
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः तमभिप्रायम् , कस्य १ तस्य जाभ्यवस्य, कथम्भूतस्य ? भीमोहितस्य मिया मोहं प्राप्तस्य, कथं ज्ञात्वा ? इत्युक्तप्रकारेण, युक्तमेतत् नोपेचिक्षिषन्ते-नौपेक्षितुमिच्छन्ति, के ? सन्तः सत्पुरुषाः, किम् ? न्याय्यं न्यायादनपेतम् , कथम् ? हि स्फुटमिति ।
भारतीयः-जगाद, कोऽसी ! भीमः, किम् ? पथ्यम् , कथम्भूतम् ! अय॑म् , किं कृत्वा ? पूर्वभिस्थङ्का रमेशरसा अङ्गीकार
) असे खड्गे, किं कृत्वा ? पूर्व ज्ञावा, किम् ? आकृतम् , कस्य ? तस्य युधिष्ठिरस्य, कथम्भूतत्व ? हितस्याव्यभिचारिणः कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण, कथम्भूतो भीमः ? रजनानन्दनः रजना चित्ताहादनोपायलणा, रऊनया नन्दयतीति जनानन्दनः अत्र ल्युप्रत्ययः । कैः कृत्या ? आला पैरिति ! युक्तमेतत् , न्याय्यं नोपेनिक्षिपन्ते हि सन्तः ॥२२॥
न्यूना वाणी नोपकुर्याज्जडानामुन्मूढानां चाधिकोद्वेजनाय ।
न स्तोकेयं तारकी नातिरिक्ता यस्तूपात्तान्वेति लावण्ययुक्तिम् ।।२३।। न्यूनेति-नोपर्यात् । का ? वाणी, केषाम् ? जडाना हेयोपादेवधियःकविकलानाम् , कथम्भूता ? न्यूना स्तोकाऽल्पावरा । अत्र क्रिया या अध्याहारः । तथा च जायते, का ? याणी, कस्मै ? उद्वे जनाय, केषाम् ? उन्मूदानाम् प्राज्ञानाम् , कथाभूता सती ? अधिकारक्षराडम्बरतया प्रचुरा कार्यन्येत्यर्थः, इयं ताबकी वाणी ताबन्न स्तोका न तुच्छा स्यात्तथा न स्यादतिरिका रिक्त शून्यमतिकान्ताऽसिरिता प्रचुरा, अतएवान्त्यनुयाति, या ! इयं ताक्की वाणी, काम् ? लावण्ययुक्ति विद्वज्जनानां युक्तियुक्तार्थसम्पादकलया' प्रामाण्यघटताम् , कथम्भूता सती ? वस्तूपात्ता वस्तुना उपात्ता वस्तूपाचा परमार्थयुक्तियुक्ता, याथातथ्यविवेचनवतीत्यर्थः।।२३।।
सन्दिग्धेऽस्मिन्सत्पथे कापथौधैः पाश्चात्यानां पूर्वजैः पत्रपातः ।
सोऽस्त्येचाों यः कृतः सन्नयाख्यस्तव्यामोहः किं वृथैव क्रियेत ॥२४॥ सन्दिग्ध इति-एवकारोऽत्रावधारणार्थोऽधिगम्यते । अस्त्येव, कः ? स पत्रपातः भाषापत्रम् , कथम्भूतः १ आद्रों नूतनः, पुनः कथम्भूतः ? सन्न याख्यः सती समीचीना नयस्याख्या नाम यस्य स तथोक्तः, केपामस्त्येव ? पाश्चात्यानां पदचारसमुत्पन्नानाम् , यः कृतः, कैः । पूर्वराः , छ सति ? अस्मिन्सत्पथे सतां मार्गे, कथाभूते ? सन्दिग्धे सन्देहतुलामारूढे, कैः ? कापौषैः दुर्जनानां मार्गसङ्घातैः यतः, तत्तस्मारकारणात् , किं वृथैव एवमेव नियेत, कः ? ध्यामोह इति ॥२४॥
सन्तिष्ठन्ते सान्त्वमात्रेण नान्ये लिप्सन्तेऽथं ते न माद्यन्त्यदाने ।
कुप्यन्त्यन्ते दत्रिमाद्वैरबन्धाद्वैरं मन्ये दत्रिमं तल्लघीयः ॥२५॥ कर अजना सतीके नन्दन हनुमानने निम्न प्रकारसे परिणाममें सुखावह तथा सारगर्भित वाक्य कहे थे । उचित ही है सज्जन पुरुष न्याय-मार्गकी कभी भी उपेक्षा नहीं करना चाहते हैं [हितचिन्तक उस धर्मराजके अभिप्रायको समझकर तलवारके विषयमें अपने वचनों के विनोदसे सबको हर्षित करते हुए भीमने पहिले तो उसका अनुमोदना की थी और फिर शुभावह तथा उपयोगी सम्मति दी थी । सज्जन...] ॥२२॥
थोड़ा कद्दे जानेपर मूखोंकी समझ में नहीं आता है, बहुत बोलना विशेषज्ञ विद्वानोंको उद्वेजित कर देता है किन्तु आपकी पूर्वोक्त उक्ति न कम है और न व्यर्थका प्रलाप ही है। समुचित सुझाव रूप अर्थसे परिपूर्ण होने के कारण वह विद्वानोंकी युक्तिके समान है ॥२३॥
विविध पुनीत मागों के कारण सन्देह भाजन इस समीचीन नीतिमार्गमें पूर्व पुरुषोंने धर्मनीति रूपसे विख्यात तथा सर्वथा नूतन जो परम्परा भाषी पीढ़ियोंके लिए स्थापित की है वह आपके सामने है, तब व्यर्थकं लिए ही विविधामें क्यों पड़ते हैं ॥२४॥
1. संवादकतया-द० । २. पत्रपाठः-६० ।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् सन्तिष्ठत इति-न सन्तिष्ठन्ते न विरमन्ति, के ? अन्ये शत्रवः, केन ? सान्स्वमात्रेण, ये लिप्सन्ते लब्धुमिच्छन्ति, किम् ? अर्थ द्रव्यम् , न माद्यन्ति न तुष्यन्ति, के १ ते पुरुषाः, व ? अदाने, कुप्यन्ति कोपमायान्ति, के ? ते पुरुषाः, कस्मात् ? दत्रिमात् , व १ अन्तेऽवसाने, कथम्भूतात्रिमात् ! वैरबन्धाद्वैर बध्नात्येवं शीलात् , अतः मन्ये जानेऽहम् , किम् ? दुनिमाम् , किं मन्ये १ वैरम् , तत्तस्मास्तपीयो दत्रिम माध्यमिति ||२५||
भेत्त नारिः शक्यतेऽरातिगृह्या भेया भिन्नेष्वेषु बैरी विभिन्नः । किं भेदोक्त्या किं विभिन्नैः शफेवा गोरेवाश्वः किं त्वभिन्न बाह्यः ॥२६॥
भेत्तमिति-न शक्यते, कोऽसौ ? अरिः, कि कर्तुम् ? भेत् तदा स्युः, के ? अरातिया अमात्यादयः पक्षाः, य.थम्भूताः १ भेषाः भेत्तु क्याः, यतः स्यात्, कोऽयों ? बैरी, संयभूतः १ विभिन्नः, पु सामु ? एवरातिगृहेषु, कशाभूत ? भिन्भु वाऽपवा, कि यंत; कन्या ? भेदोत्या, मात्र कि.मिति शब्दः प्रश्नार्थ बोद्धव्यः, कि गोरेव वृपभ एक चाहते ? कैः ? : पुरैः, कथम्भूतैः ? विभिन्नः, किन्तु न बायो जायते ? कः ? अश्वः, कैः ? शर्फः, कथम्भृतैः ? अभिन्नैः, अपितु बास्य एवेति ॥२६॥
कृत्याकृत्येप्यन्यदीयेषु योज्ये स्याद्दण्ड्योऽन्यः सामभेदोपदाने ।
कल्प्येऽन्यस्मिन्कः परो दण्ड्यमानः शूराः शत्रौं कुर्वते तेन दण्डम् ॥२७॥
कृत्याकृत्येविति-स्यात् कः ? अन्यः शतुः, कथम्मृतः ? दण्ड्यो ६०इमहतीति, दण्ड्यो दण्डोचितः, क्व सति ? सामभेदोपदाने, साग च भेदश्च उपदानञ्च, सामभेदोपदानम्, तस्मिन् कथम्भृते ? योज्ये, केयु विषयेषु ? कृत्यात्येषु भेग्राभेद्येषु सामन्तभण्डलादिषु अन्य दीयेषु फल्न्येऽन्यस्मिन्सति कल्पनागोचरेऽरी सत्ति, व: ? परो दयमानीटस्ति, अपि तु न को-पि, अत्र वासना विशितं विपक्ष विहायान्यो दण्ड्यमानो नाम नास्ति । तेन कारणेन कुर्वते विदधति, थे. १ भूगः, अतुलबल पराक्रमिणः अत्रियकुमाराः, वम् ? दण्डम् , क्व ? शत्रौ अराविति ॥२०॥
कोऽपि क्षोभीभूतलकेशवारी राजन्नासीद्व्याप्तवानित्यचिन्त्यम् ।
शस्त्रं शास्त्रं विक्रम कौलपुज्यं तस्यैवानुप्रेक्षसे नास्य विष्णोः ॥२८॥ क इति-हे राजन् हे जाम्बब, आसीत् , कः १ कोऽपि, कथम्भूतः १ क्षोभीभूतलकेशवारी अक्षोभः सक्षोभो भूतः शोभीभूतः क्षोभीभूतश्चासौ लकेशश्च क्षोभीभूतल शस्तं पारवतील्येवं शीलः स तथोक्तः, पुनः
अन्य राजा लोग केवल आश्वासती या साम-नीतिसे नहीं मानते हैं क्योंकि वे सम्पत्ति के लोलुप होते हैं । जब तक उन्हें धन नहीं मिलता है वे विरत नहीं होते हैं । शत्रुताका सूत्रपात करनेवाली दानहीनताके कारण वे अन्त में कुपित भी हो जाते हैं। अतएव दानहीनताको सबसे निकृष्ट बैर मानना चाहिये ॥२१॥
शत्रुटार वशमें करणीय मंत्री आदि यदि नहीं फूटते हैं तो शत्रु भेद-नीति द्वारा नहीं जीता जा सकता है और यदि अरातिग्राह्य मन्त्री आदिमें फूट पड़ गयी तो शत्रुको पराजित ही समझिये । फिर भेदके लिए प्रयत्नसे क्या लाभ ? क्योंकि गाय फटे खुरोसे ही चलती है पर क्या अभिन्न खुरासे घोड़ा नहीं दौड़ता है ? ॥२६॥
शत्रु पक्ष के विषयमें क्या करणीय है और क्या अकरणीय है यह विचार करनेपर जव साम, भेद आदि उपाय त्याज्य हो जाँय तो शत्रु दण्डनीय ही होता है। इस कार्य परपरामें कौन शत्रुपक्ष दण्डनीय नहीं है, अर्थात् सभी है। इसी कारणसे शूर पुरुष शत्रुपक्षपर दण्डनीतिका प्रयोग करते है ॥२७॥
हे राजन् अत्यन्त कुपित रावणका तिरस्कार-कर्ता व्यापक प्रभावशाली कोई हुआ था क्या यह अविचारणीय है। उसके ही आयुधबल, नीतिशास्त्रज्ञता, पराक्रम और
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः
२०९
कथम्भूतः १ व्याप्तवान् इति हेतोरनुप्रेक्षसेऽवलोकसे, कः १ खम्, किं किम् ? शस्त्रं तथा शास्त्रं तथा विक्रमं तथा कौलपुत्र्यम्, कथम्भूतम् ? अचिन्त्यम्, कस्य १ तस्यैव रावणस्य नास्य विष्णोर्लक्ष्मणस्येति सम्बन्धः । भारतीयः पक्षः - ३ राजन् हे युधिष्ठिर, कोऽपि केशवा रिरासीत् कथम्भूतः १ क्षोभी सर्वदा प्रयाणकिं सम्भ्रमवान्, पुनः कथम्भूतः ? व्याप्तवान् कम् ? भूतलमवनीतलमिति हेतोरनुप्रेक्षसे, कोऽसौ ? त्वम्, किम् ? शस्त्रं तथा शास्त्रं तथा विक्रमं तथा कोल्पुत्र्यम् कथम्भूतम् ? अचिन्त्यम्, कस्य ? तस्यैव जरासन्धस्यैव नास्य विष्णोर्नारायणस्येति ॥ २८||
यः साम्राज्यं प्राज्यमध्यक्षमेषां त्वं नार्यायं नोऽग्रही द्वेत्सि किं तम् । सश्रीरामेणाहतो माधवेन द्रष्टव्योऽयं केन चान्येन साध्यः ||२९||
य इति है आर्य ( है ) गुगिगणसमाश्रय, किं न वेत्सि किं न जानासि त्वम्, कम् ? तम् रावणम्, योऽग्रहीत् गृहीतवान् किम् ? साम्राज्यम्, कथम् यथा भवति १ अध्यक्षम् प्रत्यक्षम् पाम् एपोनोऽस्माकम् कथम्भूतं साम्राज्यम् । प्राज्यं प्रौढिमारूढम् पुनराख्यम्, सोऽयं रावणो द्रष्टव्यः कथम्भूतः सन् ? आहतः, केन ? श्रीरामेण कथम्भूतेन ? माघवेन लक्ष्मीवल्लभेन, चकारात्समुच्चयोऽभिगम्यते, तेनायमर्थः, -श्रीरामं च विहाय के नान्येन साध्यो भवति, अपि तु न केनापि ।
J
भारतीय:- हे आर्य स्वाभिन्, किं न वेत्सि ? कम्? तं जरासन्धम्, योऽग्रहीत् किम् ? साम्राज्यम्, कथं यथा भवति ? अध्यक्षम् केपाम् ? एपान्नोऽस्माकम् कथम्भूतं साम्राज्यम् ! प्राज्यंम्, पुनराढ्यम्, सोऽयं द्रष्टव्यः, कथम्भूतः सन् ? आदतः केन ? भाघवेन नारायणेन कथम्भूतेन ? श्रीरामेण श्रीरेच रामा रमणीयस्य स श्रीरामस्तेन यहा श्रीरामाभ्यां लक्ष्मीवलमद्राभ्यां वह वर्तमानेन केन चान्येन साध्यः ||२९|| दीप्त्यानिष्टं यस्य निष्टब्धमारं ख्यातोऽवद्यन्यश्चरित्रैरवद्यम् ।
युष्माक्षा बाहवो यस्य पक्षास्तत्रैलोक्यं जय्यमस्यावलोक्यम् ||३०||
1
"
दीप्त्येति-निष्टब्धं निरस्तम् किम् ? आरमरीणां समूहः, कथा ! दीप्या क्षात्रतेजसा, कस्य ? यस्थ, कथम्भूतं सदारम् ? अनिष्टमनभिमतम् यः ख्यातः प्रसिद्धः कैः १ चरणैराचरणैः किं कुर्वन् ? अवद्येन् निरस्यन्, किम् ? अवद्यं पापमयशो वा युध्मादृक्षाः भवादृशाः पक्षाः यस्य बाहवो विद्यन्ते तत्तस्मात् कारणात्, अवलोक्यम् किम् ? त्रैलोक्यम् कथम्भूतम् ! जन्यं जेतुं शक्यम्, कस्य १ अस्य रामस्य विष्णोश्चेति ||३०|| इतीदमाकर्ण्य स पावनंजयेरतोऽत्रपार्थस्य विरित्सया रिपोः । उदीर्णमुच्चैः फलदोहलायुधस्तथासदृक्षः पुनरत्रवीद्वचः ॥३१॥
3
अनुगामी कुलीन राजपुत्रताका आप विचार करते हैं इस विष्णु रामको क्यों नहीं देखते हैं [ हे धर्मराज ! पृथ्वीको कँपानेवाला (क्षोभीभूतलं ) कोई व्यापक प्रभावशाली श्रीकृष्णजीका शत्रु (केशवार) हुआ है यह अविचारणीय विष्णु श्रीकृष्णजीको......] ॥ २८ ॥
हे सुग्रीव ! क्या आर्य उस रावणको नहीं जानते हैं जिसने हम सबके सामने ही अत्यन्त समृद्ध तथा विस्तृत साम्राज्यको बलपूर्वक ग्रहण किया है। अब तो यही देखना है कि वह लक्ष्मी वल्लभ ( माधवेन ) श्रीरामके द्वारा मारा जाय । किसी दूसरेके द्वारा "देखना है कि उसकी समाप्ति शक्य नहीं है [ है यदुपति ! क्या आप उस जरासन्धको " वह लक्ष्मी और बलराम ( श्री + रामेण ) से अनुगत माधव के द्वारा मारा जाय । ] ॥२९॥ जिसके प्रताप के द्वारा शत्रुओंका उपद्रव दूर हो जाता है, अपने प्रशस्त आचरणके द्वारा जो पाप कर्मोंका परिहर्ता रूपसे प्रसिद्ध है तथा, आप जामवन्त अथवा पाण्डव ऐसे तपस्वी राजा जिसकी भुजाएँ हैं तथा जिसके लिए तीनों लोकोंकी विजय भी सुकर है वही राम अथवा कृष्ण इस ( रावण अथवा जरासंध ) की ओर दृष्टि देवें ॥ ३० ॥
१. निष्टतम् - द० ।
२५
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
इतीति- अब्रवीद वादीत्, कोऽसौ ? स ऋक्षः जाम्बवः किम् १ वचः, कथम् ! पुनः पुनरपि, कथम् ? तथा तेनैवाञ्जनानन्दनाभिहितप्रकारेण किं कृत्वा ? पूर्वमाकर्ण्य, किम् ? इदम् उदीर्णमुदीरितम्, कस्य ? पाचनञ्जयः पचनञ्जयस्यापत्यं पुमान् पावनञ्जयिस्तस्य पावनञ्जयः पवनजयपुत्रस्य हनुमन्नाम्नः, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण, केन हेतुनोदीर्णम् ? विरित्सया हन्तुमिच्छया, कस्य ? रिपोः शत्रोः कथम् ! उच्चैः अतिशयेन, अतः कारणात्पुनरवीद्वचः, कथम्भूतम् ? सत्समीचीनम्, कथम्भूत ऋक्षः ? फलदो हलायुधः फले विपक्षक्षोदलक्षणे दोद्दलं दोहल्कं यस्य तदायुधं यस्य स फल्दोहलायुधः कथम्भूतस्य पावनञ्जयः ? अत्रपार्थस्य न नरामर्थयतेऽत्रपार्थस्तस्यात्रपार्थस्य सज्जस्येत्यर्थः । अत्र पार्थस्येति इन्गतः कौलिन्यं दर्शितम् ।
૦
अथ भारतीय अग्रवीत् ? सहलायुधो बलभद्रः किम् ? वचः, कथम् ? पुनस्तथा भीगोदित प्रकारेण किं कृत्वा ? पूर्वमाकर्ण्य किम् ? इदम् उदीर्णमुदीरितम्, कस्य ? पार्थस्य भीमस्य केन हेतुना ? त्रिरित्या कस्य ? रिपोः कथम्भूतमुदीर्णम् ? पाचनं पवित्र नीतिमार्गानुसारीत्यर्थः । कथमुदीर्णम् ? इत्युक्तविधिना, कथम्भूत प्रयुचः ? असहक्षोऽनुपमः अत्र रूपेणाचारेण वा क्षात्रधर्मेण सकलकल्यपरिपूर्णत्वेन वा न हलायुधल तुल्बोऽस्ति कश्चनेति भावः । पुनः कथम्भूतः ? जयेरता अर्जरासन्धस्य पराभव कर्त्त, भन्यत इत्यर्थः । पुनः कथम्भूतः ? उच्चै फल्द उच्चैः फलानि ददातीत्युच्चैः फलदः स्वाश्रितान्न पदवीं नीतचान् ||२१||
आक्रीडशैलाः कुलपर्वतास्ते वाप्यः समुद्रा जगदङ्गणं तत्
I
दिशः समस्तास्तव लङ्घनानां भवन्ति कीर्तेरपि न प्रभूताः ||३२||
आर्क डेसि भवन्ति जायन्ते ? के ? ते लोकविख्याताः कुलपर्वताः कथम्भूताः ? आकीडशैलाः क्रीडागिरथः कस्याः ? तब कीर्त्तेस्ते समुद्राः वाप्यः क्रीडादीधिका भवन्ति । तथा तब कीर्त्तस्तज्जगत् अङ्गनं प्राङ्गणं क्रीडाये भवति । तथा तव कीर्सेडनानामनर्गलफा'ल्केलीनां दिशोऽपि समत्ता न प्रभूता न प्रचुरा भवन्तीति शेषः ||३२||
artist द्विषतां निहन्तुरवद्यवृत्तेरपि कीर्त्तिभाजः ।
मातेव नीतिर्विपदां विहन्त्री नेया न सा कामदुघाञ्चभूतिम् ||३३||
बलीयसइति-न नेया न प्रापणीया, का ? सा नीतिः काम् ? अवधूतिमवधीरणम्, कस्य ? तवेत्यध्याहार्यम्, कथम्भूतस्यापि ? बलीयसः अपि बलं सैन्यादिवाह्य मान्तरं वा शक्तित्रयलक्षणम्, बत्साह
राजा पवनञ्जयके पुत्र, कुलीन एवं संकोचशील हनुमानके द्वारा शत्रुको मारनेकी इच्छासे स्पष्ट तथा बलपूर्वक कहे गये उक्त वचमको सुनकर, शत्रुके विनाशकी अभिलाषारूपी अस्त्रधारी उस रिच्छकुलीन (ऋक्षः) जामवन्तने फिरसे बोलना प्रारम्भ किया था [ उक्त प्रकारसे शत्रु जरासन्धके विनाशकी इच्छासे कहे गये भीम (पार्थस्य ) के वचनों को सुनकर महाफली के दाता ( उच्चैः फलदः ) विजयशील तथा लोकोत्तर ( अदृक्षः ) हलायुध बलरामने पुनः पवित्र सम्मति दी थी ] ॥ ३१ ॥
विजययाथापर निकले तुमको वे कुलाचल क्रोडाशैल हो जायगे, समुद्र बावडीतुल्य सुतर हो जायगे, और सारा विश्व भगनके समान हो जायगा तथा समस्त दिशाएं तुम्हारी कीर्तिके उछलने (विस्तार) के लिए पर्याप्त न होंगी ||३२||
अतरंग बहिरंग वलशाली, शत्रुओंके विनाशमें समर्थ, निर्दोष आचरणधारी तथा
१. वंशस्थवृत्तम् । २. 'अनर्गल फलकेलीनाम्' प०, ब०, ना० । ३. उपजातिः ।
४. 'बलं मातङ्गतुरङ्ग मानुचरचरलक्षणं बाह्यम्, अन्तरंग वा बलं शक्तित्रयलक्षणम् । प० द० ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकादशः सर्गः
चात् पुरुषोऽपि बलोरिनीयते, अत्यथ बलवतः पुनर्विषतां विपक्षाणां निहन्तुः, पुनरवद्यवृत्तस्य निरवा. चरणशीलस्य पुनः कीर्तिभाजोऽपि, कथम्भूता नीतिः १ विपदा विपत्तीनां विहन्त्री विध्वंसिनी पुनः सम्पदा कामदुधा कामान् दोग्धीति सा, केय ? मातेव यथा जननी सर्वार्थसम्यादयित्री स्तनन्धयानां नाबमान्या तथा नीतिरपि ||३३॥
विद्यापलेन विभवेन पराक्रमेण
चिन्त्यस्त्वया बलवता वलवान्विपक्षः । दण्डारणिप्रकृतिरग्निरिवान्तरुत्थ
स्तापं तनोति हि महानुभयोर्विमः ॥३४॥ वियोति-बलवता त्वया का विपक्षः शत्रुः चिन्त्यश्चिन्त्यनीयः, केन चिन्त्यः ? विद्यालेन विद्याश्चतल आन्वीक्षिकीयोवाच दण्टनीतितक्षणास्तासां बटेन सागर्थेन, तथा विभयन विभूत्या तथा पराक्रमण पौरुषेण, कथम्भूतो विपक्षः ? बलवान् हि यतस्तनोति मिदः संग्रामः, कम् ? तापम् , कयोः १ सयोमायोनरेन्द्रयोः, कथम्भूतो विगदः १ महान् , यः इव ? अग्निरिव याग्निस्तनोति तापम् । कथाभूतोऽग्निः ? दण्यारणिप्रवृति: दण्डो मनिकाप्टम् अरणिरधाकाष्टम् , दाइ भारणिय दण्डारणी त एवं प्रकृतिसत्पत्तिकारणं यस्य स दण्डपाणिप्रकृतिः । धुनः कथम्मूतः ? अन्तरुत्थः मध्यसमुत्पन्न 'इति ॥३४॥
नयस्य शौर्यस्य धनस्य कीर्वाग्देवतायाः सततं श्रियश्च ।
मध्यस्थभावेन कृताभिवृद्धिर्विभीपणः किं विदितो न भीष्मः ॥३५॥ नयस्येति-किं न विदितः, कः ? विभीपणो विभीषणनामधेयो रावणानुजः, कथम्भूतः ? भीमो भयानकः, पुनः कथम्भूतः ? कृताभिवृद्धिः विहितोपचयः, कस्य ? नयस्य तथा शौर्यस्य तथा धनस्य तथा कीस्तथा धाग्देवतायाः सरस्वत्याः श्रियश्च, अत्र वासनार्थोऽभिधीयते आस्मापेक्षी नयः, आत्मनिरपेक्ष शौर्यम् , बहिरङ्गं धनम् , हिरण्यादिबाह्या पुण्यावाप्तिः कीर्तिः, कर्मारम्भाणामुपायशास्त्रं वाग्देवता, कर्मफलोपभोगानां विभवानुभवः श्रीः, केन कृत्वा कृताभिवृद्धिः ? मध्यस्थभावेन समवृत्या, कथम् ! सततमनवरतमिति ।
भारतीयः पक्षः-किं न विदितः किं न विज्ञातः, कः भीष्मो गायनामा कौरवचलनेता, कशम्भूतः ? विभीषणो भयङ्करः ॥३५॥
त्वं श्रीमहामङ्गल कुम्भकर्ण कन्याकुमारं वर चीरलक्ष्म्याः ।
समं रथो यस्य मनोरथश्च पूर्णस्तथाशासु कथं न वेत्सि ॥३६॥ यशस्वी आपको माताके समान नीतिको अवज्ञा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि नीतिपथ ही विपत्तियों का विनाश करता है तथा अभिलषित अर्थोंको सहज ही जुटाना है ॥३३॥
स्वयं बलशाली आपके द्वारा उद्धत तथा वली शत्रुका, आन्धीक्षिकी आदि विद्याऔकी दृष्टिसे, सम्पत्ति साधनोंकी अपेक्षा तथा पराक्रमक आधारसे विचार किया जाना चाहिये । क्योंकि घिसने और घिसी जानेवाली लकड़ियोंके बीचसे उत्पन्न स्वाभाविक आगके समान संग्राम भी दोनों पक्षीको महान् कष्ट देता है ॥३४॥ -
मध्यम मार्ग अथवा मध्यस्थताको धारण करके नीति, शौर्य, धन, वाग्देवी, सरस्वती तथा लक्ष्मीकी अनवरत वृद्धि करता हुआ वह दृढ़ रावणका भाई विभीषण अथवा अत्यन्त भयंकर कौरवोंका सेनापति भीष्म क्या आपको विदित नहीं है ? ॥३५॥
१. घसन्ततिलकावृत्तम् । २, उपजातिः ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
खमिति-दे श्रीमहामङ्गल, कथं न बेसि, कः ? स्वम् , कम् ! कुम्भकर्ण कुम्भकर्णनामधेयं रावणानुजम् , कथम्भूतम् ? वान्याकुमारं कन्येव कुमारोऽपरिणीतः पुमान् कन्याकुमारोऽभिधीयते, तं कन्याकुमार परिणेतारं वरमित्यर्थः । कस्या वरम् १ ( वर ) वीरलक्ष्म्याः ( श्रेष्ठ ) जयश्रियः (कथा) पूर्णः, कः ? स्थश्चकवरणः, कासु आशासु दिक्ष, कस्य ? यस्थ, कथम् ! समं युगपत् , तथा मनोरथश्च पूर्णः, कस्य ! यस्य, कासु ! आशासु वाञ्छामु !
भारतीय:-हे महामङ्गल ! हे कुम्भ ! हे वर ! कस्याः ? वोरटम्या:, किन घरिस, तं कर्ण कर्णनागधेयं नरं कौरवबलाध्यम् , कायम्भूतम् ? कन्याकुमार कन्यायाः कुमारस्तं कुमारीपुत्रमित्यर्थः । शेपं समम् ॥३६॥ द्विपन्मारीचोद्यप्रबलरथवेगो दिशि दिशि
स्वयं गजेन्द्रोणो रणशिरसि केनाथ विधृतः । सदाप्युच्छ्वासेनोच्छसिति भुवनं यस्य सकलं
स कैार्यो दुर्योधन इह बलेनेन्द्रजिदसौ ॥३७॥ द्विषदिति-स मारीची मारीचनामधेयो रावणमातुलः, केन विधृतः, अपि तु न केनापि, छ ? रणशिरसि युद्धमूर्द्धनि, किं कुर्वन् ? द्विषन् , कथम् ? अन्य साम्प्रतम्, कथम्भूती मारीचः ! द्रोणो मेघः, कयम् ? स्वयं स्वरूपेणात्मनेत्यर्थः किं कुर्वन् ? गर्जन गर्जितं कुर्वन्, पुन: प्रबलरथवेगः प्रबलो रथवेगी यस्य य तथोक्तः, छ ? दिशि दिशि, अथवा असाविन्द्रजिन्नामा रावण पुत्रः कैटिश्रः कैः प्रतिध्यः, छा ! इह रणशिरसि, अपि तु न कैरपि । कथम्भूतः सन् ? दुर्योधनः दुःखेन योद्धुं शक्यः, यस्येन्द्रजितः श्वासेन सकलं भुवनमुच्छ्वसित्युच्छ्वास करोति ।
मारतीयः पक्षः-स द्रोणो धनुर्विद्यायां प्रसिद्धो द्रोणाचार्यनामधेयो गुरुः केन रणशिर्रास विधृतः न केनापि, किं कुर्वन् ? स्वयमात्मना गर्जन् ? कथाभूतः १ द्विषनारी द्विषतो भारयतीत्येवं शीलः शत्रुविनाशक इत्यर्थः । पुनश्नोद्यप्रचलरथयेगश्वोद्य आश्चर्याभूतः अथवा चकारोऽत्र, उद्यप्रबलरथस्य वेगो यस्य सः तथोक्तः, क दिशि दिशि, अथासौ दुर्योधनः दुर्योधननामधेयो गान्धारीपुत्रः कौरवाधिपः ऊवार्यः, क ? इह रणशिरसि, अपि तु न कैरपि, कथम्भूतः ? बलेन शरीरसामर्थेन चतुरङ्गसैन्यलक्षणेन घा इन्द्रजिदिन्द्रस्य जेता । शेपं प्राग्वत् ॥३७॥
हे लक्ष्मी तथा कल्याणके भाजन सुग्रीव ! वीरता रूपी श्रेष्ठ लक्ष्मी के लिए बालब्रह्मचारी (कन्याकुमार) वर रावणके अनुज उस कुम्भकर्णको नहीं जानते हो । जिसके स्लमरत दिशाओं में व्याप्त रथको साथ साथ मनोरथ भी पूर्ण हो गये हैं [ हे श्री के वर, तथा महामंगलमय कलश ! क्या आप वीरलक्षीके कर्ण समाज कुमारी कुन्तीके पुत्र सिन्धराज कर्णको नहीं जानते हैं । जिसके...""] ॥३६॥ ।
समस्त दिशाएँ जिमले तीव रथके वेगसे आज आक्रान्त हैं और गरजते हुए मूर्तिमान प्रलय मेघ (द्रोण) तुल्य है उस शत्रु रावणके मामा मारोचको युद्धमें कौन रोकेगा? जिसकी साँसके द्वारा सर्वदा ही सारे जगत्की साँस फल जाती है तथा जो भीषण युद्ध करता है उस इन्द्रजीतको यहाँ शुद्ध में किसके द्वारा परास्त किया जायगा ? [शत्रुओके संहारक, सब दिशाओंमें प्रबल वेगाल रथको बढ़ाते हुए तथा क्रोधसे गरजते हुए उस द्रोणाचार्यका (स्वयं गर्जन-द्रोणः) घोर संग्राममें किसके द्वारा प्रतिरोध किया जायगा ? सेनाके द्वारा इन्द्रको भी जीतनेमें समर्थ (बलेन-इन्द्रजित्) कौरव-राज दुर्योधनका युद्ध में कौन सामना करेगा क्योंकि उसकी आशासे सकल भुवन व्याप्त हैं] ॥३७॥
१. शिखरिणीवृत्तम्।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१५
एकादशः सर्गः एभिः शिरोभिरतिपीडितपादपीठः
सङ्ग्रामरङ्गशवनत्नसूत्रधारः । तं कंसमातुल इहारिगणं कृतान्त
दन्तान्तरं गमितवान समन्दशास्यः ॥३८॥ एभिरिति-दशास्यो रावणः, कं तं भुवनतले प्रतीतमरिगणं शत्रुमेलाप गमिसवान् न नीतवान् ? अपि तु सर्वमपि गमितवान् । किम् ? कृतान्तदन्तान्तरं यमदशनमध्यप्रदेशम् , क्र ! इह मध्यलोके, कथम् ! समं युगपत्, कथम्भूतः सन् ? समातुल. मातुलेन मारीधेन सह वर्तमानः, पुनः कथाभूतः ? एभिः पूर्वोक्तनरेन्द्रः शिरोभिमालिभिः असिपीडितपादपीटः अतिपीडितं निकृष्टं पादपीठं यस्य सः, सामन्तीपमदितचरणविष्टर इत्यर्थः पुनः सङ्ग्रा मरङ्गशवनर्तनसूत्रधारः समर ननिस्थाने शवनत्तंगा नार्यः ।।
भारतीयः–स कंसमातुली जगसन्धः तगरिंगणं कृतान्तदन्तान्सरं न गमितवान, अपि तु गमितवानेव, कथम्भूतः ? मन्दशास्पः मन्दतोद्रेकस्वादासमन्यानां शिक्षादायकः । अन्यत्सव समम् ।।३८||
विगणय्य परस्य चात्मनः प्रकृतीनां समवस्थितिं पराम् ।
अमुयोपचिताः कयापि चेद्विपतेऽमूयियिषन्ति सूरयः ॥३९॥ विगणय्येति चेदि, उपचिता: पुनीताः, के ? सूरय आचार्य्याः, कयापि, कया ? अमुया प्रकृतिसमवस्थित्या, तदा अथियिषन्त्य सूर्या कर्तु मुत्सहन्ते, ३.स्मै ? द्विषते शत्रवे, किं कृत्वा ? पूर्व विगणय्य ज्ञात्वा विमर्येत्यर्थः, काम् ? परस्य शत्रोस्तथाऽऽत्मनः परामुत्कृष्ट प्रतीनां अवस्थितिम् ।।६६
तत्संहारो मा स्म भूद्वन्धुतायाः सिद्धादेशव्यक्तये सिद्धशैलम् ।
नीत्वा विष्णु तं परीक्षामहेऽमी ज्ञात्वा दण्डं साम वा योजयामः ॥४०॥ तदिति-तत्तस्मात्कारणात् बन्धुतायाः बन्धुसमूहस्य मैच्या या संक्षरो बिलयो मा स्म भूत् मा भवत् । अतः परीक्षामहे परीक्षाकर्मः । के ? अभी चयम् , कि कृत्या ! पूर्व नील्वा तं विष्णु लक्ष्मणम् , कं नीत्या ? सिद्धशैलं कोटिशिलाम्, कस्यै १ सिद्धादेशध्यक्तये श्रुतशानोपदिशनिश्चयाय, तथा च योजयामः | कम् ? दण्ड वाऽथवा साम, किं कृत्वा ? पूर्व ज्ञास्वा, क १ तं विष्णु लक्ष्मणम् । भारतपक्षे नारायणमिति ॥४०॥ इत्यस्य वाचमभिनन्ध भरोत्थितानां
राज्ञां गलाङ्गादगलद्गुलिकाच्छलेन ।
------------
-----
-----------
इन पराकमी राजाओंके मस्तकोंसे पूजित चरण, आसनपर विराजमान, संग्राम रूपी रंगमंचपर शाके नर्तन कराने के लिए सूत्रधार तथा अपने मामासे अनुगत उस दशमुखने इस पृथ्वीमें कौनसे अपने शत्रु समूहको एक ही साथ यमके दातोंके वीचमें नहीं झोंक दिया है ? [.."सूत्रधार तथा मूर्खताके कारण अहकारियों के शिक्षक (मन्दशास्यः) उस कंसके मामा, जरासंध (कंसमातुला)ने इस पृथ्वी..."झोंक दिया है । ॥३८॥
अपनी अथवा शत्रुकी अटारह प्रकृतियोंकी अन्योन्य साधना उत्कृष्ट स्थितिकी उपेक्षा करके यदि किसी प्रकृतिसे प्रेरित होकर राजा शत्रुधों प्रति अभियान करता है तो नीतिशास्त्रके आचार्य उसपर ईर्ष्या ही करते हैं ॥३९॥
अतएव बन्धुता अथवा बन्धुओंका संहार नहीं होना चाहिये । वासुदेव लक्ष्मण अथवा कृष्णको लेकर कोटिशिलापर जाते हैं और वहाँसे जिज्ञासा करते हैं । वहाँ श्रुतशानियोले जानकर साम अथवा दण्डका प्रयोग करेंगे ॥४०॥
१. घसन्ततिलकावृत्तम् । २. वैशालीयं वृत्तम् । ३. शालिनीवृत्तम् ।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् मन्त्रस्य कल्पितमिवाजनि मल्लिकाना
माराधनं जयपरं मुकुलोपहारैः ॥४१॥ इति श्रीद्विसन्धानकवर्धनञ्जयस्य कृतौ राघवपाण्डबीये महाकाव्ये
मन्त्रनिर्णयकथनो नामैकादशः सर्गः ।।११॥ इतीति- अजनि जातम् , किम् ? आराधनम्, कस्य ? मन्त्रस्य, येन ? गलाङ्गदगलद्गुलिकाच्छलेन गलस्याङ्गदा गलाङ्गदाः, गलाङ्गदेभ्यो गलन्त्यश्च ता गुलिकाश्च गलागदगलद्गुलिकास्तासां छलेन कठकेयूरक्षरन्मौक्तिकव्याजेन, केषाम् ? राज्ञां भूपानाम् , कथम्भूतानां राज्ञाम् ? भरोत्थितानाम् , किं कृत्वा ! पूर्वमभिनन्द्य संस्तुत्य, उररीकृत्येत्यर्थः । काम् ? वाचं वाणीम् , कस्य ? अस्य जाम्यवस्थ, कथम् ? इत्युकप्रकारेण मन्त्रस्याराधनम् , किमिव ? कल्पितगिन, कैः ? मुकुलोपहारः कलिकोपहारः, कामाम् ? मल्लिकानाम् , कथाभूतमाराधा ? जयपरं जयं पिपत्ति पालयतीति जयपरमिति ।
भारतपशे-अस्य यतभद्रस्येति ॥४२॥ इति निरवविद्यामण्डनमजितपपिउतमण्डलीमण्डितस्य षट्तचयनिनः श्रीमद्विनयचन्द्र पण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनी देवननिदनाम्नः शिष्येण सकलकलोमपचारुचासुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण धिरचितायां पदकौमुदी नाम दधानायां टीकायां सुग्रीवजान्याञ्जनेय-नारायणपाण्डवादिमन्त्र
__ कथनो नामैकादशः सर्गः ॥१६॥
------..-...
-..---
----
-----
------
-
-------...-..-.-
-.---.--.-
-------------------
उक्त प्रकारकी इस जामवन्त अथवा बलरामकी सम्भतिको स्वीकार करके झटकेके साथ उठे राजाओंके गलेके भूषण अथवा अंगपरसे गिरते हुए मल्लिकाकी कलियोंकी अञ्जलि-तुल्य मणियोंके व्याजसे मंत्रणाकी पूजाविधि सी हो गयी थी जिसका परिणाम विजय ही था ॥४॥ इति निर्दोपविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, षट्तचक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य, देवनन्दिके शिप्य, सकलकलाकी चातुर्य-चन्द्रिकाके चकोर, नेमिचन्द्र-द्वारा विरचित कधि धनञ्जयके राघव-पाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसन्धान __ काव्यकी पदकौमुदी टीकामें 'मुग्रीवजाम्बधाञ्जनेय
नारायणपाण्डवादिमंत्रकथन नामक
एकादश सर्ग समाप्त ।
१. वसन्ततिलकावृत्तम् ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
अथ वानराधिपतिभिः प्रबलैः परमः पुमान्चलयुतोऽनुगतः ।
श्रुतविक्रमश (मि) भि: प्रयौ विनयैर्विभूतिमिव सिद्धशिलाम् ॥१॥
अथेति - अथशब्दोऽत्र मन्त्रकथनानन्तर्यार्थी बोद्धव्यो मङ्गलार्थो वा गृह्यते । प्रययौ प्रकर्षेण गतवान्, कः ? परमः पुमाँ लक्ष्मणः, काम ? सिद्धशिला कोटिशिलानामधेयां दृषदम् कथम्भूतः सन् ? अनुगतः, कैः १ वानराधिपतिभिः सुग्रीवप्रभृतिभिर्वानिरेन्द्रः कथम्भूतैः १ प्रबलैः प्रकृष्टसामर्थ्यवद्भिः पुनः श्रुतविक्रममशमिभिः शास्त्रपौ रूपोपशमवद्भिः । कथम्भूतः परमः पुमान् ? बल्युतः रामयुक्तः, कामिव ? विभूतिमिव यथा सम्पदं विनयैरनुगतः सन् पुमान् प्रवासीति शेषः ।
भारतीयः - अथवा परमः पुमान्नारायणः सिद्धिशिलां प्रययौ कथम्भूतः सन् अनुगतः कः ? नराधिपतिभिः समुद्रविजयादिभिभूतैः कथम्भूतैः १ प्रबलैः प्रकृष्टवलसैन्ययुक्तः पुनः कथम्भूतेः १ श्रुतविक्रमप्रशमिभिः, कथम्भूतः परमः पुमान् ? बलयुतः बलभद्रयुतः, कामिव १ विभूतिमिव यथा विनवैरनुगतः सन् मानवो विभूति प्रातीति ॥१॥ अनुजग्मुरेनमनुकूलतया हरिवंशजाः सुखचरा बहवः ।
व्यवसायमायनिचया इव तं किममी न वाततनयप्रमुखाः ||२||
अनुजग्मुरिति किं नानुजग्मुरपि त्वनुजग्मुरेव के ? अमी हरिवंशजाः सुग्रीवादयो नरेन्द्राः कम् ? तमेन लक्ष्मणम्, क्या ? अनुकूलतया आनुकूल्येनात्तयेत्यर्थः, कथम्भूता हरिवंशजाः । सुखचराः प्रशस्त्रविद्याधराः, पुनर्ऋततनयप्रमुखाः हनुमत्प्रभृतयः, कतिसंख्या: ? बहवः प्रचुराः क इव कं यथा ? इव यथा आयनिचयाः द्रव्य प्रवेशद्वाराणि व्यवसायमुद्यममनुगच्छन्तीति ।
भारतीयः - इरिवंशजाः यादवान्वयसमुत्पन्नाः भूपाल्यः तं नारायणम्, सुखचराः सुखेन वर्त्तमानाः, पुनराततनयप्रमुखा विस्तीर्ण नीतिप्रमुखाः । शेषं समम् ||२||
रविमण्डलोत्थित इवान्य इव स्वयमन्यजन्म गतवानिव सः । नरभीमयोजन सुदुःसहया प्रभया परिष्कृतततुः शुशुभे ॥ ३ ॥
रवीति - सलक्ष्मणः शुशुभे कथम्भूतः ! प्रभया परिष्कृततनुरलङ्कृतशरीरः वयम्भूतया ! जनानां मुदुःसहयातिशयेन सोकुमशक्यया, कथम्भूतः १ नरभीमयो नराणां भयहेतुः क इवोत्प्रेचितः ? रविमण्डलोत्थित सूर्यविम्वात्समुत्पन्न इव, तथाऽन्य इवोत्प्रेक्षित इव स्वयमात्मनाऽन्यजन्म गतवानिव ।
मंत्रणा वाद, घड़ी सेनाओंके स्वामी, शास्त्र, पराक्रम तथा प्रशमधारी वानरवंशी राजाओंसे अनुगत, बलभद्र (राम) के साथ परम पुरुष लक्ष्मण उसी प्रकार कोटिगिलाको गया था जैसे चिनम्रता से अनुगत विभूति जाती है [समुद्रधिजय आदि राजाओं से अनुयात बलरामके साथ परमपुरुष कृष्ण उसी प्रकार कोडिशिला जाती है] ॥१॥
हरिवंश में उत्पन्न ये बहुत से उत्तम विद्याधर (सुखचरा) हनुमान आदि अनुकूल होने के कारण क्या उस लक्ष्मणके पीछे पीछे वैसे ही नहीं गये थे जैसे उद्योगशीलता के साथ सम्पत्तिके आगमन मार्ग चलते हैं [ यादववंशमें उत्पन्न बहुतसे सुख से जीवन बिताते तथा विस्तृत नीति के प्रमुख संचालक अनुकूलता के कारण क्या उस कृष्णके हैं] ॥२॥
अत्यन्त परिष्कृत शरीर होनेके कारण लोगोंके लिए भयकारक वह लक्ष्मण, जनसाधारण के लिए न सहने योग्य अपनी कान्तिके द्वारा ऐसा सुशोभित हुआ था कि वह सूर्य
१. सर्गेऽस्मिन् प्रमिताक्षर वृत्तम् ।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
भारतीयः -- शुशुभे कः ? स नारायणः कथम्भूतया प्रभया ! नरमीमयोजन सुदुःसहया, नरोऽर्जुनः, भीमो वृकोदरः तयोर्योजनं योगस्तेन सुदुःसहया । शेषं समानम् ||३||
विशदं यशोऽखिलदिशं निखिलां भुवमायतिः स्तुतिकथां महिमा । समतीयिवत्सममिदं सकलं भुजयोः शिरोऽस्य समतीतवतोः || ४ ||
२१६
विशदमिति - इदं सकलं धर्म समतीयिवदतिक्रान्तयत् ? किम् ? इदं सकलं कत्तु कथम् ? सममेकवैया, कयोः सतोः ? भुजयोः कथम्भूतयोः सतोः ! शिरः समतीतत्रतोः, मस्तकमतिलङ्घित्तवतोः, कस्य १ अस्य लक्ष्मणस्य विष्णोब । अभेदं तात्पर्यम् - उन्नतस्कन्धावयेकवाद्यशःप्रभृतीनां स्पद्ध प्रदर्शिता । तद्यथासमतीयिवत् किं कर्त्तृ ? यशः, काम् ? अखिलदिशं समस्ताशाम् कथम्भूतम् ? विशदम्, तथा समतीयुषी, का ? आयतिः प्रसिद्धिः काम् ? भुवम् कथम्भूताम् ? निखिलम् तथा समतीयिवान, कोसी ! महिमा माहात्म्यम्, काम् १ स्तुतिकथाम् ||४||
१
Tag में सुजेन भुवनस्य भरं वहतः शिला चहिरियं जगतः ।
raat भुवं किमु नगस्य भरस्तरुरित्ययं स्मयमियाय मुहुः ||५||
किम्बिति किमित्यनेन शब्देनाक्षेपो गम्यते, उ अहो, इयं शिला जगतः किं बहिरस्ति मे मम, किं कुर्वतः ? बहतो धरतः, कम् ? भुवनस्य भरम्, न कृष्ण भुजेन बाहुना, किमु भुवं दधतः विभ्रतः नगस्य गिरेः तरुर्भरः अपि तु नैव, इत्यय विष्णुः मुद्दुवार चारं स्मयं गर्वभियाय गतवान् ||५||
विनिपातितं विनिहितं प्रथमं क्वचिदात्मनोद्धृतमदः सुहृदाम् । अधुनात्मसाहसमसौ सहसा ददृशे ब्रजन्निव निरूपयितुम् || ६ ||
3
विनिपातितमिति - अधुना साम्प्रतमिति ददृशे दृष्टः कोऽसी ? असौ विष्णुः, किं कुर्वन् ? व्रजन् कथम् ! सहसा शीघ्रम्, किंतु मिष ? निरूपयितुमिय, किम् ? अद एतदात्मसाहसं धैर्यम्, केशम् ? सुहृदाम्, कथभूतं सत् १ विनिपातितं तथा विनिहितं तथोद्धृतम् फैन ? आत्मना छ ? कचित् कापीत्यर्थः, कथम् ? प्रथममिति ||६||
2
नागमो निजशुचिः सुरभिर्वनपुष्पगः समहिमोग्रजवः ।
सरसां शरच्छविमितः शिशिरो मरुदन्वगात्तमृतुमूर्त्तिरिव ॥७॥
राधनागम इति - अन्वगादनुगतः कोऽसौ ! मरुद्वातः, कम् ? तं विष्णुम् कथम्भूतः ? सघनागमः सह धनागमेन वर्त्तमान इति सघनागमः मन्दया गया वर्त्तमान इत्यर्थः । पुनर्निजशुचिः निजेनात्मना शुचिनिर्मल: रेणूत्रशून्य इत्यर्थः पुनः सुरभिः सुगन्धिः, अतएव सुरभिर्यतो वनपुष्पगः कान्तारकुसुममकरन्दमण्डल से उत्पन्न, अथवा दूसरेके तुल्य अथवा स्वयमेव दूसरे जन्मको प्राप्त के समान शोभित हो रहा था [अर्जुन, भीम आदिले सम्बन्धके कारण अगम्य वह कृष्ण था] ॥३॥
इस लक्ष्मण अथवा कृष्णके शिरके ऊपर उटी भुजाओंने एक साथ ही आगे कहे सब चमत्कारोंका भी अतिक्रमण कर दिया था । निर्मल यशने समस्त दिशाओंको, सौभाग्यकी यातिने पूर्ण विश्वको तथा महिमाने स्तुतिकी चर्चाको लाँब दिया था ॥४॥
समस्त विश्व के दायित्वको इन भुजाओं से उठाये हुए मेरे लिए क्या यह शिला जगत् के बाहर है ? पृथ्वीको धारण करनेवाले भूधरके लिए पेड़का भार अलग होता है क्या यह सोच कर as (लक्ष्मण-कृष्ण) आश्चर्य में पड़ गये थे ॥ ५ ॥
कहीं पर छोड़ा गया अथवा रखा गया अपना प्राचीन साहस अब मैंने अपने आप ही सम्हाल किया है । बन्धुवान्धवों को यह प्रत्यय कराने के लिए ही अकस्मात् जाता हुआ सदृश वह लक्ष्मण अथवा कृष्ण देखा गया था ॥ ६॥
मेघ घटायुक्त, स्वयमेव निर्मल, वनके फूलों के परागयुक्त होनेसे सुगन्धित, शीतलता (हिम) युक्त, शरत् ऋतुके तालाबों की (अथवा सरस) कान्ति युक्त, शिशिर तथा ओरसे
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
बिन्दुत्करबासनावासिततनुरित्यर्थः । पुनः समहिमा समं हिमं यस्य सः सर्वजनतापहारकतया प्रशस्य इत्यर्थः, पुनरमजवः प्रधानवेगः मयूरपिच्छभेदीत्यर्थः । पुनः शरच्छवि वारिरूपताभितः प्रासः, कथम्भूतां शरच्छविम् ? सरसां रसिकाम् । अत्र तात्पर्य जललवसमालम्बिततयाऽतिसूक्ष्मसूक्ष्मस्वभावताप्रतिपन्नान् पयःकणान् पक्षरतीत्यर्थः । अतएव शिशिरः शीतला, क इवोत्प्रेक्षितो मरुत् ! ऋतुमूर्तिरिख, पण ऋतूनां मूर्तिरिव तद्यथा शरच्छरत्कालः स लोकप्रसिख धनागमः प्राट् , तथा शुचिः ग्रीष्मः, तथा सुरभिर्वसन्तः, तया सम हमो हेमन्तः, कथाभूतः सन् ? छवि स्वच्छतामितः, केषाम् ? सरसो सरोवराणां तथा शिशिर एते षड्तवस्तमनुजग्मुरिवेति ||७||
वचनातिपातमटवीमटवीं सधुनी धुनीमभिनिवेशमगात् ।
सलतागृहान्वसतिरम्यतया तरसाभिपादमभिपादमगात् ॥८॥ वचनेति-अगात् गतवान् , कः १ स विष्णुः, कथम् ! तरसा शीघ्रम् , किं कृत्वा ? पूर्वमतिपातमतिकम्य, काम् ? अटवीमधीम् , अरण्यानीमरण्यानीम् पुनः किं कृत्वा ? पूर्वमभिनिवेशं प्रविश्य, काभ् ? धुनी धुनीम् , तरङ्गिणी तरङ्गिणीम् , पुनः किं कृत्वा ! पूर्वमभिपादमभिपादं प्रपद्य, कान् ? अगान् पर्वतान् "अगानित्यत्र चिवृक्षानिति व्याख्यानयन्ति” । कथम्भूतान् ? सलतागृहान्, कया ? वसतिरम्यतया मन्दिरमणीयतयेति ॥८||
पथि पाण्डुराजकुलवृद्धिमतः किल केशवं मुखरयन्ककुभः ।
इति भीमसेन उचितावसरं सरसं जगाद स मरुत्तनयः ॥९॥ पीति-किल लोकोक्तौ शास्त्रोक्तौ वा । अतः कारणाजगाद उक्तवान् को सौ १ स मरुत्तनयो हनूमान् , कम् केशवं लक्ष्मणम् , क ? पथ्यध्वनि, कथं यथा भवति ? उचिता बसरं योग्यप्रस्तावं पुनः सरस पुनः पाण्डुनिर्मलं परीक्षाक्षोदक्षमगित्यर्थः, कथम् ? इति वक्ष्यमाणप्रकारेण, किं कुर्वन् ? ककुभ आशा मुखरयन् शन्दयन् , कथाभूतः १ भीमसेनः भीमा रोना यस्य सः, अथवा भीमा चासौ सा च भीमसा तस्या इनः भीमसेन, शत्रूणां प्रध्वंसनवशात्परमोत्कर्ष प्राप्ता या लक्ष्मी तस्या प्रभुरित्यर्थः । कथम्भूतं केशवम् ? राजकुलवृद्धिं राजकुलस्य नरेन्द्रसमूहस्य वृद्धिर्यस्य स तथोक्तस्तम् , तस्य लक्ष्मणस्यानेकेषां भूमिपालानां मेलापकोऽभूदित्यर्थः । अथवा पाण्डुराजकुलवृद्धिं पाण्डुरं निःपापं तथा विशदम, अजनामा नृपो दशरथस्याद्यः पुरुषः, अजस्य कुलमजकुलं पाण्डुरच तद जकुलश्च पाण्डुराजकुलं तस्य वृद्धिर्यस्मात् तम् |
भारतीयः-भीमसेनो वृकोदरः कथम्भूतः १ पाण्डुराजकुलवृद्धिमतः पाण्डुराजकुलस्य पाण्डुराजान्ययस्य नृद्धी मत इष्टः, पुनरुत्तनयः मरुतः देवाः सन्त्यस्य महत्तः 'पर्वमरुभ्यां तः', इति सूत्रेण तप्रत्ययः, महत्तस्येव शक्रस्येच नयो नीतिर्यस्य स तथोक्तः शेष तुल्यम् ।।९।।
शशिनस्तुलां समुपयाति कुलं भवतो यतेरुपशमश्च विधाम् ।
तव पौरुषं स्वसदृशं भुवनं भ्रमदव्यपेक्ष्य भुजयोरजरत् ॥१०॥ बहता फलतः मूर्तिमान छहाँ ऋतुयुक्त पचन उसके पीछे-पीछे बह रहा था [घनागमसे वर्षा, सरस छवि शरद, शीतलताले शिशिर, सम-हिमसे हेमन्त, सुरभि धन पुष्प युक्त बसन्त तथा निजशुचि ग्रीष्म] ॥७॥
कहीं पर जंगलके बाद जंगलोंको पार करता, नदियोंसे समन्धित नदियोंको घुसकर लाँधता, और लताकुजोंसे व्याप्त एवं सब तरफसे वृक्षों द्वारा आच्छादित पर्वतोंको पैदल ही पैदल भवनकी रमणीयताके साथ चढ़ता-उतरता यह वेगंसे चला जा रहा था ॥८॥
भीषण सेनाके स्वामी उस पचनञ्जयके पुत्र हनुमानने धवल कीर्तिधारी राजा अजके कुल (रघुवंश)की वृद्धिकी दृष्टि से उचित अवसर देखकर दिशाओंको [जाते हुए निम्न सरस वचन लक्ष्मणजीको कहे थे [राजा पाण्डके वंशकी प्रतिष्ठाभूत इन्द्र के समान नीतिश (मरुत्तनय) भीमने श्री कृष्णसे वचन कहे थे] ॥९॥॥
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
१
शशिन इति- समुपयाति प्राप्नोति, किं कर्तृ ? कुलमन्वयः, काम् ? तुलां सादृश्यम्, कस्य ? शशिनश्चन्द्रस्य विशदतया सकललोकानामानन्दकारिकुलमित्यर्थः । तथा भवन उपशमः यतेर्योगिनः विद्यां तुला समुपयाति तथा तव भुजयोः पौरुषं पराक्रमोऽजरजीर्णम्, किं कुर्वत् ? भुवनं जगत् भ्रमत् पर्यत् किं कृरका ? पूर्वमव्यपेक्ष्यानपेक्ष्य, किम् ? स्वसदृशमात्मसमं मित्रम् । अन्येषां शत्रूणामभावाबुद्धाभावो दर्शितः ॥ १०॥ तव पूर्वजेन यदुनोपनताः किमरातयो नरघुणा निहताः |
सकलं जगद्वगतं कृतवान्स कया शिलोद्धरणडम्बनया ||११||
२१८
द्वि० तवेति- अहो, किं नोपनताः किं न नम्रीकृताः ? के ? अरातयः शत्रत्रः, तथा किन हिताः किं न प्रध्वस्ताः ? के ? अरातयः केन ? रघुणा दशरथेन, कथम्भूतेन ? पूर्वजेनाद्येन, कस्य ? त अपि तूपनता निहताश्च । अत्र तात्पर्य से शरणमागतास्ते नम्रीकृताः, ये च स्तब्यस्ते निहता इत्यः । तथा कृतवान् कोऽसौ स रघुः किम् ? जगत् कथम्भूतम् ? वशगतमात्माधीनं पुनः सकलं समस्तं यद्यस्मात् कारणात् तत्र किं प्रयोजनम् ? कथा १ शिलोहरणडम्बनया तवेति शेषः ।
भारतीय:- किं निहता अपि तु न, के ? अरातयः कथम्भूताः सन्तः १ उपनताः, पुनः नरघुणाः नरकीटकाः, केन कर्त्रा १ यदुना राज्ञा, कथम्भूतेन ! पूर्वजेन, कस्य ? तव, तथा च कृतवान् स यदुः, किम् ? जगत् कथम्भूतम् ? वशगतं पुनः सकलम्, तत्र किं ? कया शिलोद्धरणडम्बनयेति ॥११॥ जनमाकलस्व भुवि सांशयिकं भवतस्तथाप्युचितमुद्यमनम् । तदिदं द्विषां हि पलितकरणं विजयश्रियश्च सुभगङ्करणम् ॥१२॥
जनमिति-त्वं भुवि जनं लोकं सांशयिकं संशवापत्नं हि स्फुटमाकलस्य जानीहि तथापि भवतस्तव उग्रमनमुत्रम उचितं स्यात् तदिदमुचमनम् कथम्भूतं स्यात् ? द्विषां शत्रूणां परितङ्करणम् अपलितं पलितङ् क्रियतेऽनेन तत्तथोक्तम्, तथा विजयश्रियश्च सुभगङ्करणम् असुभगं सुभगक्रियतेऽनेन तत्तथोक्तम् । “कृञ्ः करणे युट् च” । अत्रेदं तात्यर्थम् त्वदुद्यमं श्रुत्वा पलायमानानां द्विषतां भूमेरुदुद्धृतेन रेणूत्करेण धूसरितकेशाः सन्तो वार्द्धकेन विना त्वयोद्यमेन कृत्वा परिता इव क्रियन्ते, तथा चिरं निःसौभाग्याया जयश्रियस्त्वयोद्यमेन कृत्वा सौभाग्यं क्रियते || १२||
कुलपर्वताः कुलपराभवतः समवैमि तेऽद्य निजमुन्नमनम् ।
कलयन्ति फल्गु विलयं मनुते सवितोदयास्तमय सानुमतोः ॥ १३ ॥ कुलेति-समभिजानामि, कलयन्ति मन्यन्ते, के १ ते कुलपर्वताः कुलाचल मेर्वादयो ग्रिश्यः, किम् ? उन्नमनसुन्नतिम्, कथम्भूतम् ? फल्गु व्यर्थम् पुनः कथम्भूतम् ? निजमात्मीयम् । कुतः ? कुलपरा
3
आपका कुल (लोकके लिए आनन्दकारी होनेसे) चन्द्रमाकी समानता करता है, आपकी शान्ति यतियोंकी प्रशमता तुल्य है और आपके भुजाओंका पराक्रम त्रिभुवनमें घूमता हुआ किन्तु अपने सदृश दूसरेको न पाकर (निराशा से थक गया है ॥ १० ॥
आपके पूर्वज महाराज रघुने फ्या शरणागत शत्रुओंको विनम्र नहीं बनाया था ? अथवा अहंकारियोंका सर्वनाश नहीं किया था ? उन्होंने तो सारे संसारको जीत लिया था, अपच आश्चर्य है (यत्-उ ) इस कोटिशिला के उठानेकी विडम्बनासे क्या लाभ है ? [आपके वंशके आदिपुरुष राजा यदुने नरकीट, विनम्र शत्रुओंको क्या मारा था ? उन्होंने...... लाभ है] ॥११॥
तथापि संसारकी संशयशील जनताको पुरुषार्थ जता दीजिये इस दृष्टिसे आपका यहू उद्योग सर्वथा उचित है। क्योंकि आपके भयसे भागते शत्रुओंके थाल धूलधूसर ( पके सदृश ) हो जायगे और विजयलक्ष्मीका सौभाग्य फिरसे चमक उठेगा ॥ १२॥
हे लक्ष्मण अथवा कृष्ण १ आपके द्वारा हुए अपने वंश के पराभव के कारण कुलाचल
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
भक्तोऽन्वयाभिभवात् , कस्य १ ते तव, कथम् ? अद्य साम्प्रतम् , अतो मनुते, कः १ सविता रविः, कम् ? विलयं प्रध्वंस , कयोः १ उदयास्तमयसानुमतोरुदयाचलास्ताचलयोः । अनेदं तात्पर्यम्-विष्णोः कुलादभिभूतानां क्षोणीधराणां स्वकीयामुन्नति फल्गुमन्यमानानां विलये सति तन्मध्यवर्तिस्वादुदयास्तभूधरयोविलयं भनुतंऽहं निराश्रया भविष्यामिति सदस्य सूयरा प्रदर्शितम् ।।१३।।
तदितो निरूपय पयोधरयोस्तटयोभरेण मृन्दुमदगतिम् ।
बलिशोभितां सरितमश्वमुखीमपि सारसानुगमनाकुलिताम् ॥१४॥ तदिति-हे विलो निरूपयावलोकयस्व, कः ? त्वम् , काम् ? सरितम् , केयम् ? वदित इतस्ततः, कथम्भूतम् ? बलिशोगिताम् तरङ्गशोभिताम् , पुनः मृदुगन्दगतिं पेशलालसगमनाम् , केन ? पयोधरयोर्जल. धारिणोस्तटयोः यू.ल्यो रेण पुनः सारसानुगगनाकुलितां सारसानां लक्ष्मणानामनुगमगेन गमनपौनःपुन्येन आकुलिता भोग नीता गित्यक्षः । अपि शब्दोऽत्र समुच्चये न केवलं. सरितमवलोकय, अश्वमुखीं किसरीमध्यवलोकय, कयम्भूताम् ? पयोधरयोस्तनयोस्तटयोच्छितयोमरणोन्नत्येन दुमन्दगतिं पुनर्वलिशोभितां जठर राजित्रयविराजितां पुनः सारसानुगमनाकुलिता सारञ्च तत् सानुषु गमनं च, सेनाकुलिताम् ||१४||
इह सैकतं तरणितप्तमिदं परिहत्य ईसकुलमेति सरः । .
विरला वसन्ति च सति व्यसने किमु पक्षपातनिरता हि पुनः ॥१५॥ इहेति-दहा स्मिन्प्रदेशे इदं हसकुल तरणिततं दिनकरप्रदीतं सैकतं सिकतापुञ्ज परिहत्य परित्यज्य सरः सरोवरमेति वाति । युक्तमेतत् किं वसन्ति तिन्ति, के ? विरलाः सरपुरुषाः, अपि तु न केऽपि, क्व सति । व्यसने विनिवासनिपाते, उ अहो पुनः किं क्सन्ति, के ? पक्षपातनिरताः, अपि तु न, कथार ? हि स्पुटमिति शेषः ॥१५॥
परतो नतं जघनपाणिभरा हु पूर्वतः कुचभरात्किमपि ।
पुलिनेषु सूचयति तत्पदयोरमराङ्गानागमनमत्र पदम् ॥१६॥ परत इति-अभास्मिन्प्रदेशे सूचयति, किं कत्तु १ पदम् , किं कर्म १ अमराङ्गनागमनम् , कयोः पदम् ! तस्यदयोरमराजनाचरणयोः, केषु ? पुलिनेषु सैकतेषु, कथम्भूतम् ! नतम् , कथं यथा भवति ! बहु, कथम् ? परतः पश्चात् , कस्मान्लतम् ! जघनपाणिभरात् जघनभरेणान्तस्तित्वात् पायोभारोऽप्युपचर्यते, न तु साक्षादस्तीति भावः। तथा नतम् , कथम् १ किमपि कियत् , कथम् ? पूर्वतः पुरतः कस्मात् किमपि नतम् ? कुचभरादिलि |१६| आज अपनी ऊँचाई व्यर्थ ही समझते हैं । फलतः सूर्य भी उदयावल और अस्ताचल पर्वतोंकी समाप्तिकी कल्पना करता है, ऐसा मेरा विचार है ॥१३॥
जलके प्रवाइके रोकनेवाले किनारोंकी ऊँचाईके कारण धीरगम्भीर बहती हुई, तरंगोंसे सुन्दर तथा सारसोंके इधर-उधर आने-जानेसे आकुल इस नदीको तथा स्तनोंकी ऊँचाई और भारके कारण बिलासपूर्वक मन्दमन्द जाती, त्रिवलिसे सुन्दर तथा ठोस और उन्नत शिखरों (सार-सानु) पर चलने के कारण अश्वमुखी किनारीको भी देखिये ॥१४॥
सूर्यके आतपसे तपायी गयी चालुकामय स्थानको छोड़कर यह इंसाका झुंड तालाबकी ओर चला आरहा है। उचित ही है क्योंकि विरले ही चरित्रवान व्यक्ति आपत्ति आनेपर दृढ़ रहते हैं। जो पंखोपर उड़ने वाले हैं [ जो पक्षपाती लोग हैं ] उनका तो कहना ही क्या है ॥१५॥
जंघा तथा नितम्बोंके भारके कारण पड़ीकी तरफ बहुत गहरा तथा पंजेकी तरफ भी स्तनोंके भारके कारण कुछ कम गहरे पदचिह्न पतलाते हैं कि इन बालुकामय प्रदेशोंमें देवांकी देवियाँ विहार करके गयी हैं ॥१६॥
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अमुतश्च पुष्पशयनं रचितं नवयावकाकितपदं त्रिदशैः।
रुधिरारुण कुसुमवाणचितं मदनस्य पश्चकमिव ज्वलति ॥१७॥ अमुत इति-अमुतश्चास्मिन्प्रदेशेऽपि ज्वलति भाति, किम् ! पुष्पशयनं कुसुमास्तरणम् , कथम्भूतं सत् ? चितं विहितम् , कैः ! त्रिदिवैर्देवैः, पुनः कथम्भूतम् १ नवयाबकाङ्कितपदं नूतनालत कचिह्नितपदम् , किमिवोत्प्रेक्षितम् ? मदनस्य कन्दर्पस्य मधिसरणं रत्तःशोणितं कुसुगवाणचितं प्रसूनशरपुष्टं पञ्चक युद्धमिव ॥१७॥
स्तनतापसूनमवनम्रनलं विशपत्रमत्र कुसुमास्तरणे ।
किमुतोज्झितान्यमनसा विगुणा सुरयोषिता विरहवल्लकिका ॥१८॥ स्तनेति-अवास्मिन्प्रटेशेऽभूत्. किन ? विपत्रं पद्मिनी पत्रं कथम्भूतम् ? स्तनतापसून कुचतापशुष्कं पुनरवनम्रनलमवनम्रो नलो यस्य तत्तयोक्तम्, स्तनतापसूनत्यान्नलोऽपि शुष्को विशपत्रस्येति भावः, छ ? कुसुभास्तरणे, उताहो किमुजिझता किं परित्यक्ता, अपि तु न । का ? विरहवल्लकिका वियोगवीणा, कथा ? सुरयोषिताऽमररमण्या, कथम्भूता सती ? विगुणा अस्तितन्त्रीका, कथम्भूतया सत्या सुरयोषिता ! अन्यमनसाऽन्यचित्तया । अत्र वासनार्थः प्रदर्यते-चिरप्रोषितो मर्त्ता कदाऽऽगमिष्यति, कदा तं हम्म्यां द्रक्ष्यामि कदाऽतिदीर्घवियोगाग्निदग्धैः कटाक्षविशेपैरात्मपतिहदयं जर्जरीकरिष्यामीति चित्तादनावस्थाप्राप्तचिन्त. येत्यर्थः ॥१८॥
मृगनाभिजं परिमलं द्विरदः करिदानगन्धमनुयाति हरिः।
इह जन्तुरेवमपरोऽपि परं विनिहन्तुमेव समनुव्रजति ॥१९॥ भृगेति-इहास्मिन्प्रदेशे द्विरदो इस्ती मृगनामिज कस्तूरिकाजातं परिमलमनुयात्यनुगच्छति । एवमुक्तप्रकारेण हरिः सिंहः करिदानगन्धमनुयाति । अपरोऽपि जन्तुः परमन्यं विनिहन्तुमनुव्रजति ।।१९।।
सरसीह मजति करियलिनां परिधिः कराग्रनिभृतः स्फुरति ।
जलदेवतार्थमिदमुद्गतवरक्षणमातपत्रमिव बर्हमयम् ॥२०॥ सरसीति-इहास्मिन्प्रदेशेऽलिनां भ्रमराणां परिथिः मण्डलं परिस्फुरति, कथम्भूतः ! कराग्रनिभृतः शुण्डामस्थितः क्व सति ! करिणि गजे सरसि सरोवरे मजति ब्रुडति सति । उत्प्रेक्षते उद्गतवदिव ( उद्तवत् उद्गतमिव ) किम् ? इदम् आतपत्रं छत्रम् , किमर्थम् ? जलदेवतार्थम् , कथाभूतम् ? बहमयं पिच्छमयम् , क्षणं मुहूर्तमेकमिति शेषः ॥२०॥
इस ओर देवताओंके द्वारा यनायी गयी, नूतन तथा गीले आलतायुक्त पदचिह्नोंसे भूषित, पुष्पशय्या है। जो फूलके वाणोसे व्याप्त तथा रक्तसे लाल होनेके कारण कामदेवके संग्रामको भूमिके समान जगमगा रही है ॥१७॥
इस पुष्पशय्यापर स्तनोंकी उष्मासे सूखा नालयुक्त कमलपत्र ऐसा प्रतीत होता है जैसी कि विदेश गये प्रेमीको चिन्तासे आकुलचित्त देवोंकी अप्सराके द्वारा छोड़ी गयी बिना तारकी विरहवीणा होती है ॥१८॥
_कस्तूरी मृगकी नाभिसे उत्पन्न सुगन्धके पीछे हाथी चलता है, हाथी के मदजलकी गन्धका सिंह पीछा करता है, इस प्रकार इस अरण्यमें एफ जन्तु दूसरे जन्तुको मारनेके लिए उसका पीछा करता है ॥१९॥
इस वनमें जब हस्तिनी तालावमें गोता लगाती है तो उसकी सूंड़के अप्रभागपर स्थिर बैठे भौरीका छत्ता ऊपरको उड़ता है । ऊपर उड़ता यह धतुलाकार भौरोंका झुंड उस समय ऐसा लगता है मानो मयूरपत्रमय छत्र ही जलदेवताके ऊपर तन गया हो ॥२०॥
१. मनकमिव-दछ ।
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
२२१ सबलाकिका नववृणा जगती मृदु निझरं वहति वाति मरुन् ।
सवितावृतश्च विपिनैरिह किं जलदागमः सततसंनिहितः ॥२१॥ सबला किकेति-इहास्मिन्प्रदेशे वहति, का ? पृथ्वी जगती, कम् ? निरिम् , कथम् ? यथा मृदु मन्दम् , कथाभूता ? सवलाकिका बलाकाभिः सह वर्तमाना पुनर्नवतृणा नवानि नूतनानि तृणानि यस्यां सा तथोक्ता, तथा वाति, कः ? गरुत्, तथा वृतस्तिरोहितः, कः ? असौ सविता सूर्यः, कैः १ विपिनैः कान्तारैः, अतः किं विद्यते जलदागमः प्रावृट् , कयम्भूतः १ सततसन्निहितोऽनवरतनिकटवर्तीति शेषः ॥२१॥
द्विपदन्तपत्रमदमौक्तिकवधतः श्रवोभुजगलं शबरान् ।
करिणां न केवलमसन्मनुवे हरतोऽमुतः सकलसारमपि ॥२२॥ द्विपेति-इह केवलं मनुवे जानेऽहम् , कान ? शबरान् किरातान् , किं कुर्वतः सतः १ दधतः, किम् ? अवोभुजगलं कर्णबाहुकण्ठम् , कथम्भूतम् ? द्विपदन्तपत्रमदमौक्तिकवत् । अत्रेदं तात्पर्थम-दन्तिदन्तपत्रं कर्णयोः, मदं भुजकक्षयोः, मौक्तिकानि गले । हरतोऽपि मनुबे, कान् ? असू-प्राणान , केषाम् ? करिणाम सकलसारम् , क १ अनुतोऽमुस्मिन्प्रदेश इति शेषः ।।२२।।
अभिपेचकं निपतता हरिणा पुरतः क्रमेण पदयोर्द्विरदः ।
स्थितवानिहोन्नमितकुम्भकरः क्षणमङ्कुशेन विनिरुद्ध इव ॥२३॥ अभिपेचकमिति-इहास्मिन्प्रदेशे स्थितवान् , कोऽसौ १ द्विरदो हस्ती, के इवोत्प्रेक्षितः ? अंकुशेन विनिरुद्ध इव, कथम् ? क्षणं मुहूर्तमेकम् , कथम्भूतः सन् ? उन्नमितकुम्भकरः, केन् ? निपतता हरिणा सिंहेन, केन् ? पदयोः क्रमेण चरणयोः फालेन, कथम् ! पुरतः, कथं निपतता ? अभिपेचकं पुच्छमूलं लक्षीकृत्येति शेषः ||२३||
तरवो न सन्त्यफलिनो न लताः कुसुमोज्झिता न विरत तयः ।
सरितोऽलिहंसशुककोकिलकध्वनिवर्जितोऽत्र न परोऽस्ति रवः ।।२४॥ तस्व इति-अत्रेह प्रदेशे तरवो वृक्षा अफलिनः फलरहिता न सन्ति, तथा लताः कुसुमोज्झितरः प्रसूनशून्या न सन्ति, तथा सरितो नद्यः विरतसुतयः जलनिझरोविझता न सन्ति, तथा परोऽन्यो रवी ध्वनिरलिहंसशुककोकिलध्वनिवर्जितः भ्रमरादिशन्दवर्जितो नास्ति ॥२४॥
इह भान्ति. मण्डपभुवः सलताः सवितर्दिका गिरिपतत्सलिलाः ।
वनदेवताभिरपदिश्य मिथः पथिकान्प्रपा इव शुचौ रचिताः ॥२५॥ इस वनकी भूमिपर धीरे-धीरे बहते झरनोंके तुषारयुक्त हवा बहती है, सर्वदा सारस उहते रहते हैं, नूतन कोमल दूध उगती रहती है तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंके कारण सूर्य छिपा रहता है अतएव ऐसा लगता है कि यहां वारहों महीना वर्षा ऋतु रहता है ॥२१॥
मेरा विचार है कि इस घनमें हाथियोंके दन्तपत्रोंको कानों में पहिने, मदको दोनों भुजाओंमें आत्मसात् किये तथा मस्तकके मुक्ताओंको गलों में धारण किये हुए भीलोंने दाधियों के केवल प्राण ही नहीं लिये हैं अपितु उनकी समस्त सारभूत सम्पत्ति (वस्तुएँ ) भी हर ली है ॥२२॥
इस यनमें सामनेसे ही पूँछ के हिस्सेको लक्ष्य करके उछलते हुए सिंहके पंजोंका घचाव करनेकी दृष्टिसे हाथी गण्डस्थलों तथा सूंडको तानकर क्षणभर वैसा ही जमके खड़ा रहता है जैसा कि महावतके अंकुशके संकेतपर निश्चल हो जाता है ॥२३॥
इस प्रदेशमें ऐसे वृक्ष नहीं हैं जिनपर फल न आते हों, सब लताएँ ऐसी हैं जो फूलती है, एक भी नदी ऐसी नहीं है जिसकी धार टूट जाती हो तथा भौंरा, हंस, शुक, कोफिल, अदिकी मधुर कूजके सिवा दूसरी ध्वनि नहीं सुनायी पड़ती है ॥२४॥
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
इहेति-इह प्रदेशे सलताः ताभिः सह वर्त्तमानाः मण्डपभुवः भान्ति, कथम्भूताः ? सवितर्दिकाः वेदिकासहिताः पुनः गिरिपतत्सलिला गिरिभिः पतत्सलिलं यासु ताः क्षोणीधरप्रक्षरज्जाः, का इव १ पथिकानध्वगान् अपदिश्योद्दिश्य शुचौ ग्रीभे वनदेवताभिः मिथः परस्परं रचिताः प्रपाः पानीयशालिका इव ॥ २५ ॥ पतितस्तरोः शकुनिविष्टिचितः शरैरितोऽशपथ क्रियया ।
उपयुक्तमुक्तसित तण्डुल कैरवभाति कीर्ण इव पर्णचयः ||२६||
पतित इति - इतोऽस्मिन्प्रदेशे तरोः वृश्चात् पतितः शकुनिविष्टिचितः विहगामध्ययुक्तः पर्णचयः पत्रसमुदोऽवभाति शोते, क इव ? शरैः कर्तृभिरपयुक्तमुक्त सिततण्डु के रुपयोगी कृतोज्झितश्वेत तण्डुलसमूहैः कीर्ण इव, कया ? अर्कशपथक्रियया सूर्याजा - (च) विधिना ॥ २६ ॥
२२२
॥२७॥
कुसुमं धनुर्मधुलिहोऽस्य गुणः शुककूजितं समरसूर्यरवः । मदनस्य साधनमिदं प्रचुरं सुलभं न साध्यमिह तद्विपि कुसुममिति-इह विपिनेऽस्मिन्कान्तारे मदनस्य कन्दर्पस्य यत इदं साधनं विद्यते, कथम्भूतम् ? प्रचुश्म्, पुनः सुलभं सुप्रापम्, तद्यथा कुसुमं धनुर्जायते, मधुलिहो भ्रमरा अस्य धनुषो गुणो जायते, तथा शुककूजितं कीरध्वनिः समस्तूर्यरवः रणवाद्यशब्द इति साधनम्, तत्तस्मात् साध्यं सुलभं न, अपि तु सुलभमेवेति काकुः ॥२॥
त्रिदिवेच्छया व्रतमित्यजनैः क्रियते न मुच्यत इदं दिविजैः । तदिदं वनं दिवमवैमि दिवं शतशीर्णकल्पतरुशेषहताम् ||२८||
त्रिदिवेति-इहत्य जनै रिहसम्भूतैर्जनैः त्रिदिवेच्छया व्रतं क्रियते विधीयते, त्रिवर्गाणामन्योन्यव्याघातोस. तत्वाद्यथावृत्तिकेन धर्मार्थकामाचरणलक्षणेन धर्मेण दीव्यते गम्यते प्राप्यत इति यः प्रदेशः स त्रिदिवस्तस्येच्छया, तथा न मुच्यते न परित्यज्यते, वि.म् ? इदं वनम् कैः १ दिविजैः देवैः तत्तस्मादवैमि जानामि, किम् ? इदं वनम् काम् ? दिवं स्वर्गम्, तथाऽवैमि काम ? दिवम् कथम्भूताम् १ शतशीर्णकल्पतदशेषहतां शतशीर्णाश्च ते कल्पतरवस्तेषां शेषस्तेन हताम् इदमैतिह्यमत्र, इह वने नन्दनाय मानकल्प के लिसुखं प्रपन्नेषु देवेषु दिव्यसुखं मन्यमानेषु सत्सु मनुष्याणामिव सुधापान सन्तृप्तमानस्तया प्रसिद्धानां फल्ादिभक्षणाभावात् सफल्तानुयोगत्यात्कल्पतरुभिरेवमेव शीर्यते स्मेति भावः ||२८||
"
पर लताओं से घिरी हुई, मध्य में वेदी से युक्त तथा पर्वतोंसे उतरती छोटी-छोटी जलधाराओं से शोभित मंडप-भूमियाँ हैं । वे ऐसी लगती हैं- मानो वनदेवताओंने पथिकों की सुविधाकी दृष्टिसे परस्परमें विचार करके ग्रीष्मऋतु के लिए पियाऊपं स्थापित कर दी हैं ||२५|| इस ओर वृक्षों से घिरी तथा पक्षियोंकी वीटसे व्याप्त पत्तोंकी राशि वैसी प्रतीत होती है जैसी कि भीलोंके द्वारा की गयी सूर्य की पूजा के उपयोग में आये और पूजा-समाप्तिपर इधरउधर बिखेर दिये गये तण्डुल लगते हैं ॥२६॥
पुष्पराशि रूपी धनुष, भ्रमर पंक्ति रूपी उसकी ज्या तथा शुक, आदिकी कूजरूपी युद्ध-भेरियोंकी ध्वनि ये सब कामदेवकी समरयात्राकी साधन-सामग्री इस वनमें प्रचुर मात्रा सुलभ है किन्तु समस्या यही है कि कोई जेय नहीं है ||२७|
यहाँ उत्पन्न मनुष्य स्वर्गकी इच्छासे व्रत, नियमादि का पालन करते हैं और अपनी रमणीयता के कारण यह वन स्वर्गके देवों द्वारा कभी भी नहीं छोड़ा जाता है । अतश्च मैं इस बनको स्वर्गीय नन्दनवन ही समझता हूँ। और सोचता हूँ स्वर्गका नन्दनवन अनुपयुक्त फलों से लदे वृक्षोंके कारण नष्ट हो रहा होगा ||२८||
१. अत्रातिशयोक्तिः - प०, ६० ।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
२२३
इति सङ्कथां निशमयन्सुहृदः स निशामयन्सपदि तत्तदयम् ।
समराघवक्रमधुराजगती रतिमाप येन समवाप शिलाम ॥२९॥ इतीति-समबाप प्राप्तवान् , कोऽसौ ? सोऽयं लक्ष्मणः, काम् ! शिलाम् , कि कुर्वन् ! निशमयन् ऋश्वन , काम् ? सकायां वात्तीम् , कस्य ? सुहृदः हनुमतः, कथम् ? इत्युक्त प्रकारण, किं कुर्वन् ! निशाभयन् पश्यन् , किम् ? पदार्थसार्थम् , येन लक्ष्मणेन कृत्या आप, का ? जगती पृथ्वी, काम् ? रतिम् , कथभूता सती ? समराघवमधुरा धूमामय राधा राधपश्चाती काय सधवक्रमः राघवामस्य धुरा राघवक्रमधुरा, समा प्राअला राघवक्रमथुरा यस्याः सा तथोक्ता।
भारतीयपक्षे-समवाप, कोऽसौ १ सोऽयं विष्णुः, काम् ! शिल्लाम् , किं कुर्वन् ? निशामयन् , काम् ? सङ्कयां परस्पराकुटिलभानगम् , कस्य ? सुहृदो भीमस्य, कथम् ? इत्युक्त प्रकारण, किं कुर्वन् ? निशामयन् पश्यन् , किम् ? तत्सत्प्रसिद्ध वस्तुजातम् , किमाप अपि तु न प्राप्तवती, का १ समराधवक्रमथुराजगतिः अघवत्यापयत् वक्रोधवक्रः समरे मङमा मेऽवयकः समराधवक्रः स चासौ मधुश्च समराधवक्रामधुस्तस्य राजपतिः समराधवरामधुराजगतिरघवत्समरक्रूरमधुराज्यमित्यर्थः, काम् ? रतिम् , केन ? येन विष्णुनेति ॥२९||
ऋषिकोटिभीत इति जन्यभिया स्वगले निबध्य मदनेन नदीम् ।
प्रविविक्षणा खलु कुतश्चिदियं न शिलाहृतेति कलित हरिणा ॥३०॥ ऋषीति-न आहता अपि त्वाहता आनीतेत्यर्थः का ? इयं शिला, केन ? मदनेन रतिपतिना, कुतः ? कुतश्चित् , कथम् ? खट निश्चयेन, कथम्भूतेन ? प्रविविक्षुणा प्रवेश कत्तुमिच्छता, काम् ? नदीम् , किं कृत्वा ? पूर्व निबध्य काम् ? शिलाम् , क ? स्वगले, कया ? जन्यभिया जनापवादभवेन, कथमिति ? ऋभिकोटिभीत इति, हरिणा लक्ष्मणेन । भारतपशे-नारायगेन ॥३०॥
प्रभविष्यतः कलियुगाद्भयतो न खलूपगोप्य भुवि धर्मनिधिम् ।
यतिभिः शिलोपरिकृतेयमिति प्रवितर्कितं हलधरेण तदा ॥३१॥ प्रेति-तदा तस्मिन्काले प्रवितर्फित हलधरेण रामेण कथम् ? इति न कृता, अपि तु कृतव, का ? इयं शिला, कैः ? यतिभिः, कथम् ? उपरि, कथम् ? खलु निश्चयेन, किं कृत्वा ? पूर्वमुपगोप्य, कम् ? धर्मनिधिम् , कस्वाम् ? भुवि, कस्मात् ? भयतो भयात् , कस्माद्भयम् ? कलियुगात् कलिकालात् , कथम्भूतात् ? प्रभविष्यतः भाविनः । भारतपक्षे-हलधरेण बलभद्रेण ॥३१॥
हरिणा जिनाभिपवणान्मनसा जनताविर्यमुपपादयितुम् ।
निकटान्न पाण्डुकशिलागपतेः खलु साहृतेत्यवहितं हरिभिः ॥३२॥ मित्र हनूमानकी उक्त सुन्दर चर्चाको सुनता हुआ तथा उन-उन रमणीय पदार्थीको देखता हुआ यह लक्ष्मण अनायास ही कोटि-शिलापर पहुँच गया था जिसके द्वारा संतुलित रघुवंशियोंके चरणोंकी आधार पृथ्वीको प्रसन्नता हुई थी मित्र भीमकी निष्कपट समीचीन उक्त बाते सुनता हुआ तथा उन-उन वास्तविकताओंको समझता हुआ श्रीकृष्णा कोटिशिलापर पहुँच गये थे जिसके कारण युद्धमें होने वाले पापोंके कारण कर-आचरण दैत्य मधुके राज्यको प्रसन्नता नहीं हुई थी ॥२९॥
इस घनमें तपलीन करोड़ों ऋषियोंसे डरे, लोकापवादकी आशंकासे कामदेवके द्वारा तो कहींसे यह शिला इसलिए लायी गयी होगी कि इसे गले में बाँधकर वह नदी में डूब जायगा पसी कल्पना हरि लक्ष्मण अथवा कृष्णके मनमें आयी थी ॥३०॥ - उस समय राम अथवा घलरामके मनमें यह विचार भी आया था कि भविष्य में बलपूर्वक आने वाले कलियुगके भयसे धर्मकी निधिभूत इस शिलाको भूमिके भीतर छिपाके रख दिया गया था किन्तु यतियोंने इसे भूमिके ऊपर कर दिया है ॥३१॥
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् हरिणेति-अवहितं प्रतीतिमानीतम् , कैः ? हरिभिः सुग्रीवादिभिर्वा नरेन्द्रः, कथम् ? इति नाहता, अपि त्वाइता, का १ पाण्डुकशिला, केन ! हरिणा इन्द्रेण, किमर्थमाहता ? उपपादयितुम् , किम् ? जनताविदूर्य जनानां समूहो जनता, आबिदूर्य सामीप्यमित्यर्थः जनताया आविदूर्य जनताविर्यम् , कथम्भूतेन हरिणा ? जिनाभिषवाणोन्मनसा जिनाभिषेकोत्कण्ठितचित्तेन, कस्मादाहता ? अगपतेर्मेशः निवटासमीपात् , किं कर्तुम् ? उपपादयितुम् , कथम् ? खलु निश्चयेनेति । भारतपक्षे इरिभिर्यादवैः ॥३२॥
उपवीणयन्हषदि सिद्धपई मिल्याभिहिम्पनिवहो निगात ।
न महः क्षणं विषहते स्म हरेबलवत्तरोऽस्ति बलिनोऽप्यथवा ॥३३॥ उपेति-निरगानिर्गतवान् , कोऽसौ ? निलिम्पनिवहः देवसमूहः, कस्मात् ? निलयात्स्यकीयस्थानात् , किं कुर्वन् ! उपवीणयन् वीणयोपगायन् , किम् ? सिद्धिपदं जिनेश्वरयशः, अथवा रागद्वेषरित्यागादात्मस्वरूपोपलब्धि प्राप्तानां यतीनां कन्दर्पदर्पविजयलक्षणां सिद्धिम् , कस्याम् ? दृषदि शिलायाम् , तथा न विपहते स्म सोढुं न क्षमते स्म, कोऽसौ ? निलिम्पनिवहः किम् ? महस्तेजः, कस्य ? हरेलक्ष्मणस्य, कथम् ? क्षणं मुहूर्तमेकम् , युक्तमेतत् , अस्ति कः ? बलवत्तरो बलीयान् , कस्मात् ? बलिनः। अथवा कस्य । बलिनः। भारतपशे-हरेर्नारायणस्य, शेषं प्राग्वत् ॥३३॥
गजगण्डपट्टितमदच्छुरितां गजशङ्कया मुनिशिलां नखरैः ।
विलिखन्नसम्मभिपतञ्छरभः शरणं व्यगाहत गुहागहनम् ॥३४॥ गजेति-व्यगाइत माविक्षत, कः ? दशरमः शार्दूलः, किम् ? शरणम् , किम् ? गुहागहनं गुहा च गहनञ्च गुहागहनम् , दरीमुखमित्येके व्याकुर्वन्ति । किं कुर्वन् ! दिलिखन्नुत्किरन् , काम् ? मुनिशिल कोरिषदम् , कैः १ नखरैनसः, कथा ? गजशङ्कया गजभ्रान्त्या, कथम्भूतां सतीम् ? गजगण्डपट्टितमदच्छुरितां करिकपोलसङ्घर्षमदजलविलिप्ताम् , किं कुर्वन् ? रसन् गर्जन् , पुनः किं कुर्वन् ? अभिपतन सम्मुख गच्छन्निति ||३४||
तमुदीक्ष्य शैलमुपयनभसा ववृधे स्वयं स भुवनाम्यधिकम् ।
करकन्दुकागिरिमतीव लघु पुरुषोत्तमोऽतिपरुषोजगणत् ॥३५॥ समिति-वqधे वृद्धि गतवान् , कोऽसौ १ स पुरुषोत्तमो लक्ष्मणः, कथम् ? स्वयमात्मना, कथं यथा भवति ? भुवनाभ्यधिकम् , किं कुर्वन् ? उपयन् समीपं गच्छन् , कथम् १ रमसा औत्सुक्येन, किं कृत्वा ? पूर्वमुदीक्ष्यावलोक्य, कम् ? तं शैलं कोरिशिलानामधेयं भूधरम् । तथा अजराणत् अमंस्त, कः ? पुरुषोत्तमः, कम् ? गिरिम् , कथम्भूतम् ? लधुम् , कथम् १ अतीव अतिशयेन, कस्मात् ! करकन्तुकात् हस्तकन्दुकात् ,
सुग्रीवादि वानरवंशी अथवा यादव राजाओंको यही विश्वास हुआ था कि श्रीजिनेन्द्रदेवका अभिषेक करने के लिए उत्सुक इन्द्र के द्वारा पर्वतराज सुमेरुके ऊपरसे लायी गयी यह पाण्डुकशिला ही है, जो कि नरलोककी जनताके समीप सपने की दृष्टिसे लायी गयी है ॥३२॥
, स्वर्गवासी देव लोग वीणाके ऊपर सिद्ध परमेष्ठीकी स्तुतिको गाते हुए अपने अपने स्वर्गीय विमानोंसे निकले थे किन्तु इस (सिद्ध) कोटि-शिलापर उपस्थित हरि लक्ष्मण अथवा कृष्णके तेजको एक क्षण भी न सह सके थे। ठीक ही है श्रेष्ठ थली हरिसे अधिक बलवान् भी कोई हो सकता है ॥३३||
हाथीके गण्डस्थलसे बहते मदजलसे लिपी हुई कोटिशिलापर हाथीकी आशंकासे उछलकर आया सिंह, नखोंसे उसे खरोंच कर शरणभूत गुफा अथवा धने वनमें चला जाता है ॥३४॥
उस पर्वतको देखकर ही बड़े वेगके साथ उसके निकट पहुँचते हुए अत्यन्त कठोर
-FHD
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
૨૨૬
कथम्भूतः सन् पुरुषोत्तमोऽजगणत् ! अतिपषोऽतिशयेन कठोरः । भारतपक्षे-पुरुषोत्तमो नारायणः । शेषं सुगमम् ।।३५||
जघनं निवध्य वसनेन धनं विनियम्य केशनिचयं शिरसि ।
भुवमुत्खनश्चरणपाणितलैः स ववल्ग पल्ल इव वल्गु नदन् |॥३६॥ जधन भिति-चचाल चलति स्म, कोसौ ? स लक्ष्मणः । भारतपक्षे स विष्णुः, क इव ! मल इव, किं कुर्वन् ? वल्गु नदन मधुरं गर्जन , पुनः किं कुर्वन् ? उत्खनन्नुल्लिखन् , काम् ? भुवं वसुन्धराम् , कैः कृत्वा ? चरणपाणितलेः, किं कृत्वा ! विनियम्य दृढे नियन्त्र्य, कम् ? शिरसि मस्तके केशनिचयम् , कि कृत्वा ? पूर्व निबध्य नियन्त्र्य, वि.म् ? जपनं नितम्बं करि प्रदेशम , केन ! वमनेन वस्त्रेण, कथं यथा भवति ? घनं गामिति ॥३६॥
पदधातजातदरि मुक्तधरं स धराधरं सुकृतवान्कृतवान् ।
विजहाति वा बलवता निहतः श्लथमण्डलः किल न कः पृथिवीम् ॥३७॥ पदेति-कृतवान् विहितवान , कोऽसी : सवितुः, फन् ! परं शैलम् , करमूलम् ! मुक्तधर मुक्ता धरा येन तम् , कय यथा भवति ? पदधातजातदार पदपातेन जाता दरी यस्मिन्मोचनकर्मणि तत्तथोक्तं यथा, कथाभूतः स विष्णुः ? सुकृतवान् , वाऽथवा, युक्तमेतत् , किल लोकोत्तो, इत्यमण्डलो भूत्वा को न पृथिवी चिजहाति, अपि तु सर्वोऽपि परित्यजति, कथम्भूतः सन् ? निहतः, केन ? बलवता बलिनेति ।।३७॥
स दरीमुखेन नतकुजतनुः प्रविशन्नधस्पदममुष्य गिरेः।
सममि दर्शितवराहगतिर्गतवान्वराह इति नाम तदा ॥३८॥ स इति-समवैमि जानेऽहं तदा तस्मिन्काले गतवान् , कोऽसौ ? स विष्णुः, किम् ? नामाख्याम् , कथमिति ? वराह इति, काभूतः सन् ? दर्शितवराहगतिः प्रकटितदंष्ट्रिवृत्तिः, किं कुर्वन् सन् ! प्रविशन् किम् ? अधः पदमधोभागम् , कस्य ? अमुष्य अस्य गिरेः, केन ? दरीमुखेन कथाभूतो भूत्वा ! नतकुब्जतनुः नता चासो कुब्जा सङ्कचिता तनुर्यस्य सः ॥३८॥
उरसा निपीड्य भुजयोतियं परितः प्रसार्य परिचार्य शिलाम् |
समुदक्षिपद्वरविवाहशिलामिव गोमिनीं परिणिनीषुरसौ ॥३९॥ उरसेति--समुदक्षिपदुन्नीतवान् , कोऽसौ ? असौ विष्णुः, काम् १ शिलाम् , कामिव ! वरविवाहपुरुषोत्तम लक्ष्मण अथवा कृष्ण अपने आप ही सारे विश्वसे भी अधिक सोत्साह हो गये थे। तथा यह शिला उनको हाथकी गैदसे भी बहुत छोटी प्रतीत हुई थी ॥३५॥
परिधान वस्त्र के द्वारा कमर तथा आँघोंको कसकर, माथेपर बालोंको जकड़कर बाँधके, भूमिको पैरोंके तलुओंसे खोदता हुआ तथा मधुर मधुर बड़बड़ाता हुआ वह लक्ष्मण अथवा कृष्ण कोटिशिलाकी ओर बढ़ा जा रहा था ॥३६
विशाल पुण्यके स्वामी लक्ष्मण अथवा कृष्णने चरणोंके आघातसे ही फटते हुए उस पर्वतको भूमिसे अलग कर दिया था। उचित ही है क्योंकि जिसकी आधारभूमि शिथिल हो जाय तथा प्रथल विरोधीके द्वारा आक्रान्त हो तो कौन ऐसा है जो उखड़ न जाय { जिस राजाका अपना सामन्तमण्डल दल अथवा उदासीन हो तथा प्रबल शत्रुके प्रहार हो रहे हो यह भी अपने राज्यसे च्युत हो जाता है ] ॥३७॥
__ शरीरको मोड़कर कुब्जेकी तरह गुफामेसे इस कोरिशिलाके पर्वतके नीचे के भागमें घुसते हुए विष्णु (लक्ष्मण तथा कृष्ण)ने यतः सूकरकी चालका प्रदर्शन किया था अतएव इसी समयसे इनका भी नाम वराह पड़ गया होगा ऐसा मैं समझता हूँ ॥३८॥
दोनों भुजाओंको पूरा फैला कर छातीसे चिपकाकर कोटिशिलाको उठाकर इस
२९
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
.
द्विसम्धानमहाकाव्यम्
शिलामिव, कथम्भूतः ? गोमिनी लक्ष्मी परिणिनीषुः परिणेतुमिच्छुः, किं कृत्वा ? समुदक्षिपत् ? परिधार्य सामस्त्येन धृत्वा, किं कृत्वा ? पूर्व प्रसार्य, किम् ? भुजयो होः द्वितयं युगम् , कथम् ? परितः सामस्त्येन पुनर्निपीड्य, केन ? उरसा वचसा ॥३९||
कृतपाणिपीडनविधिः प्रथमं पुरुषोत्तमेन समुदृढतनुः
विरराज कोटिकशिला भयतः परिकम्पिता नववधूरिब सा ॥४०॥ कृतेति-विरराज शुशुभेतराम् , काऽसौ ? सा कोटिशिला, कथम्भूता सती ? पुरुषोत्तमेन विष्णुना समुढतनुः समुदतमूर्तिः, पुनः कृतपाणिपीडनविधिः, कथम् ? प्रथमम् , पुनरपि कथम्भूता ? भयतः परिकपिता, के विरराज ? नववधूरिव, कथम्भूता ? समुदृढतनुः, केन ? पुरुषोत्तमेन नरप्रधानेन सम्भोगचातुरीचतुरेण, पुनः प्रथम कृतपाणिपीडनविधिः विहितपरिणयनविधाना ||४०॥
परितः पतभुजगपक्तिरसौ गलितान्त्रजालजटिलेव बभौ ।
परिभिन्ननिर्झरजला हरिणा विधृतानिलेन धनमूर्तिरिव ॥४१॥ परित इति--असौ कोटिशिला मौ । केव ? गलितान्त्रजालजटिलेव च्युतान्त्रमाला जटावलम्बिनीवेत्यर्थः, कथम्भूता सती ? पतद्भुजङ्गपंक्तिः क्षरत्सर्पश्रेणिः, कथम् ? परितः सामस्स्येन, पुनः परिभिन्ननिरजला सवन्निरपानीया, पुनः हरिणा विधृता, केव ? अनिलेन विधृता घन मूर्तिरिय मेघमूतिरिव ॥४१॥
दिवि दुन्दुभिः प्रणिननाद दिवः कुसुमाञ्जलिः प्रणिपपात तथा ।
तमुदीक्ष्य विस्मयमिवोच्चलितास्तरवोऽपि पुष्पमभितश्चकरुः ॥४२॥ दिवीति-दिवि गगने दुन्दुभिः देवतूर्य प्राणननाद ध्वनितवान् , तथा कुसुमाञ्जलिः घुष्पवृष्टिः दिवः गगनात् प्रणिपपात, तथा तरवो वृक्षाः अपि अभितः सामत्येन पुष्पं चकमः विक्षिप्तधन्तः । अत्र जात्यपेक्षयकवचनम् । के इवोत्प्रेक्षिताः, तं विष्णुम् उदीक्ष्य विलोक्य विस्मयमाश्चर्यम् उच्चलिता इव ||४२॥
द्विषतां भयेन सुहृदा प्रमुदा युनिवासिनापतिशयेन हरेः ।
अपि साहसैरभवदुघृषितं ननु वस्त्वनेकविधमेकविधम् ॥४३॥ द्विषतामिति-अपिशब्दः समुच्चये 1 द्विषतां शत्रूणां भयेन उद्धृषितं रोमाञ्चितम् अभवत् जातम् , लक्ष्मण अथवा कृष्णने कोटिशिलाको उसी प्रकार उठा दिया था जैसे लक्ष्मीके साथ विवाह करनेको उद्यत विष्णुने विवाहशिलाको उठाया था ॥३९॥
पुरुषोत्तम लक्ष्मण अथवा कृष्णकी भुजाओं द्वारा कसके दवायी गयी, और गोद में उठायी गयी वह कोटिशिला काँपती हुई [पाणिग्रहण होनेके बाद पहिले पहिले आलिंगन की गयी अतएव भयसे काँपती हुई ] नव वधूके समान सुशोभित हुई थी ॥४०॥
निकलकर चारों ओर भागते हुए साँपोंके गुच्छोंके कारण यह कोटिशिला ऐसी लगती थी मानो इसकी आँत ही फैल गयी हैं। लक्ष्मण अथवा कृष्णके द्वारा उठानेसे सब तरफ फूटकर बहते झरनोंके पानीके कारण वह शिला वायुसे उड़ाये गये मेघके समान प्रतीत होती है ॥४॥
मूर्तिमान आश्चर्यके समान बढ़ते हुए लक्ष्मण अथवा कृष्णको देखकर स्वर्गमें देवॉकी दुन्दुभियां गरज उठी थीं, आकाशसे पुष्पवृष्टि हो पड़ी थी तथा वृक्षोंने भी स्वयमेव सर्वत्र पुष्पोंको विखेर दिया था ॥४२॥ __आतंकके कारण शत्रुओंके रोम खड़े हो गये थे, हर्षातिरेकमें मित्रोंका शरीर पुलफित हो उठा था, आश्चर्यकी अतिने स्वर्गवासी देवोंको रोमांच ला दिया था तथा अपने साहसकी
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
२२७ तथा सुहृदां प्रमुदा आनन्देन, तथा युनिवासिनां देवानाम् अतिशयेन आश्चर्येण, तथा साइसधैयः हरेः विष्णोः, युक्तमेतत् , ननु अहो जायते, किम् ? वस्तु एकविघं सदनेकविधमिति ||४३॥
अवलोक्य तं कलकलं मुमुचुर्दिशि खेचरा जितशिलोद्धरणम् ।
सहधर्ममानितनया क्तितं प्रविजेष्यसे रिपुमपीति जगुः ॥४४॥ अवेति-वेचराः सुग्रीवादयो विद्याधराः कलकलं कोलाहलं दिशि मुमुचुः, कि पूर्व कृत्वा ? तं लक्ष्मण जितशिलोद्धरणं जितं दिलाया उद्धरणं येन तं अवलोक्य, कथा भूताः ? सहधर्ममानितनयाः सह युगपत् परस्परव्यभिचारितायाः परित्यागात् धर्मेण विनयलक्षणेन मानितो नयो नीति: गृहाश्रमलक्षणो ये ते तथोक्ताः, अथवा धर्मेण शिष्टपरिपालनदुष्टनिमहलक्षणोन मानितो नयो नीतियेषां ते 'शिष्टानां प्रतिपालनं दुष्टानां निग्रहो राश धर्मो न तु शिरोमुण्डनं, जटाधारणं तीर्थात्तीर्थान्तरगमनं चति वचनात् । अपिशब्दोपत्र समुच्चयार्थः । तथा जगुरुज वन्तः, कथम् ? इति विततम् अनवरतं विजेयसे, कः ? त्वम् , कम् ? रिपुं रावणम्, कथम् ? सह एकहेलया।
भारतीयपक्षे-'धर्ममानितनयाः धर्मस्य पाण्डुनरेन्द्रस्य मानिनः मानवन्तः गर्विष्टाः तनयः पुत्राः पाण्डवाः रिपुं प्रविजेधसे इति जगुः । शेषं समम् ।।४४||
प्रतिरोप्यतां तदियमत्र शिला भवितासि शत्रुकुलनिर्दलनः ।
प्रतिशुश्रुवानिति वचः सुहृदां समतिष्ठिपत्पुनरिमां स हरिः ॥४५॥ प्रतिरोप्यतामिति-प्रतिशुश्रुवान् अङ्गीकृतवान् , किं ? सुहृदां वचो वचनम् , कयम् ? इति, तत्तस्मात् प्रतिरोप्यता स्थाप्यताम् . का ? इयं शिला, क ? अन्नास्मिन् स्थाने, यतो भवितासि, कः ? कथम्भूतः १ शत्रुकुलनिर्दलनः रिघुवंशावमी, पुनः पश्चात् समतिष्ठिपत् प्रतिरोपयामास, कः ? सहरिलक्ष्मणः, काम् ? इमां शिलाम् , मारतपशे-हरिनारायणः ॥४५||
सरसीजलप्लवहिमस्तमसौ द्विपदानसौरभमथानुभवन् ।
मृगनाभिगन्धमपि गन्धवहः सभयं वनेचर इवाभिययौ ॥४६॥ सरसीति-अभिययौ सम्मुखं गतवान् , कः ? असौ गन्धवहो वायुः, कम् ? तं विष्णुम् , कथम् ? सभयं यथा, कथम्भृतः गन्धवहः ? सरसीजलप्लवहिमः जलाशयपयःपूरशीतला, किं कुर्वन् ? अनुभवन् , लीनतासे स्वयमेव लक्ष्मण तथा कृष्ण भी प्रफुलित थे। इस प्रकार एक ही वस्तुने अनेक रूप धारण किये थे ॥४३॥
__ सफलतापूर्वक कोटिशिलाका उद्धरणा करते हुए उस लक्ष्मणको अथवा कृष्णको देखकर आकाशचारी देवों और विद्याधरोंने दशों दिशाओंको जयके कोलाहलसे गुंजा दिया था, धर्मपूर्वक नीति-मार्गका पालन करनेके कारण [धर्मराज पाण्डके स्वाभिमानी पुषोंके साथ ] निश्चित ही आप शत्रुओंको पूर्ण रूपसे जीतेंगे यह घोषणा की थी ॥४४॥
आप निश्चित ही शत्रु-कुलका सर्वनाश करेंगे अतएव इस शिलाको फिर यहाँ रख दीजिये । लक्ष्मण अथवा कृष्णने स्वर्गवासियोंके इन वचनोंको स्वीकार कर लिया था और कोटिशिलाको फिर यथास्थान रख दिया था ॥४५॥
जलाशयोंके जलप्रवाहके स्पर्शके कारण शीतल, हाथियोंके मदजलकी सुगन्धिसे
. मुमुधः, के ? खेचराः देवाः, कम् ? कलकलम्, कस्याम् ? दिशि, कलकलाउपेक्षयाऽत्र वीप्सा सम्भाव्यते । तेनायमों लभ्यते दिशि दिशि । कि करवा ? अवलोक्य, कम् ? तं विष्णुम्, कथम्भूतं ! जितशिलोद्धरणम्, अपि तथा धर्म-प०, द० ।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
किम् ? द्विपदानसौरभ द्विरदमदामोदम् अपिशब्दः समुच्चयं सूचयति तथा मृगनाभिगन्धं कस्तूरी परिमलम्, के इव १ वनेचर इत्र मिल्ल इव, यथा वनेचरस्तं विष्णुम् अभियाति । अन्यत्समम् ||४६ || उत्खातरोपणमिदं निजमेव पुंसा न्याय्यं व्रतं तदनुपालय पालनीयम् । इत्यग्रजस्य वचनं प्रतिमान्य तुष्टस्तुष्टाव सिद्धपदपंक्तिमावुपेन्द्रः ||४७|| उत्खावेति- उपेन्द्रो लक्ष्मणोऽजस्य रामस्य वचनं प्रतिमान्य अङ्गीकृत्य तुष्टो हृएः सन् सिद्धपदपंक्ति सिद्धं पदं येश तें सिद्धपदाः तेषां पंक्ति मुक्तश्रेणी तुष्टाव स्तौति स्म । कथं वचनम् ? इति उत्खातरोपणम् उन्मूलितप्रत्यवस्थापनमेव तं पालनीयम् कथम्भूतम् १ निजगात्मीयम् केषाम् ? पुंसां पुरुषाणाम् पुनः कथम्भूतम् ? न्याय्यं न्यायादनपेतं तत् अनुपालय । भारतपक्षे-उपेन्द्र विष्णुः, अग्रजस्य बलभद्रस्येति ॥ ४७ ॥ योsधः स्थितोऽशोकतरोरभासीत्तद्वृक्षमूली यमहाव्रतस्य ।
फलं यतिभ्यः प्रथयन्निवार्हन्वन्यः सुराणां स पुनः पुनातु ॥४८॥
य इति सः अर्हन्, पुनातु पवित्रीकरोतु कथम्भूतः ! सुराणां देवानां पुनः वारं वारं वन्द्यः स्तुत्यः । पुनः कथम्भूतः १ अशोकतरोः पिण्डीद्रुमस्य अधः अधोभागे स्थितः, किं कुर्वन्निव ? यतिभ्यः फलं प्रथयन्निव या अमासीत् रेजे | कस्य फलम् १ तद्वृक्षमूलीय महाव्रतस्प, वृक्षस्य मूलं हितं यस्य स वृक्षमूदीयः, स चा वृक्षमूलीयश्च तद्वृक्षमूलीयः तस्य महात्रतं तस्य लोकप्रसिद्धस्य वृक्षमूल्य निवासिनो मुनिगणस्य महाव्रत मित्यर्थः ॥४८॥
बोधाम्भोधी यः समाधीन्दुवृद्धे सिद्धेरुच्यं कर्तुमिच्छन्निवर्द्धिम् ।
निन्ये मान्यं साधु रत्नत्रयं नः सिद्धः सिद्धां कार्यसिद्धिं करोतु ||४९||
बोधेति-करोतु विदधातु स सिद्धो मुक्तात्मा, काभ् ? कार्यसिद्धि कार्य मोक्षलक्षणम्, सिद्धिः प्राप्तिः तिर्वा कार्यस्य सिद्धिः कार्यसिद्धिस्ताम् केषाम् १ नोऽस्माकम् कथम्भूतां कार्यसिद्धिम् ! सिद्धां पूर्वापरप्रमाणबाधापरित्यागाद्युक्तियुक्तचेतसां पुंसां प्रतीतिशिखरिशिखरमारूढाम् । यो निन्ये नीतवान् किम् ? रत्नत्रयं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावम् काम् ? ऋद्धि वृद्धिम्, क ? बोधाम्भोधौ, बोधः अवगमविगमसजन्माज्ञानातिशयः स बोधाम्भोधिः तस्मिन् केवलज्ञानसमुद्र, कथम्भूते ? समाधीन्दुवृद्धे क्रोधादिचतुष्टयजनितचित्तकालुष्यपरित्यागाद्यदात्मनः प्रसन्नता स समाधिः, स एवेन्दुः तेन वृद्धे, कथम्भूतं रत्नत्रयम् ? साधु साधूनां मोमिनो योग्यत्वात्साध्वित्यभिधीयते । अथवा आत्मीयदोषैः परित्यक्तत्वात्साधु ! पुनः कथम्भूतम् ! मान्य
1
व्याप्त तथा कस्तूरी मृगकी नाभिके गन्धसे सुगन्धित पवन उस लक्ष्मण अथवा कृष्णके सामने भय के कारण भीलके समान धीरे-धीरे चल रहा था ॥ ४६ ॥
आदर्श पुरुषों का यह अपना न्यायोचित तथा सब प्रकारसे पालने योग्य व्रत है कि जिसे उखाड़ दिया है उसकी पुनः स्थापना कर दें अतएव आप भी इसका पालन करिये। ज्येष्ठ भाई राम या बलरामकी इस सम्मतिको उपेन्द्र ने स्वीकार कर लिया था और बड़े संतोष के साथ सपरमेष्ठी चरणपंक्तिकी स्तुति की थी ॥४७॥
समवशरण में अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान होनेसे दर्शनीय तथा अनन्त सुख रूपी मोक्षके मूलभूत महाव्रतोंके सुफलको यतियोंको देता हुआ. सदृश वह अर्हन्त परमेष्ठी हमारा चन्द्य है । वही देवोंको भी पवित्र करें ||४८॥
कषाप परित्यागसे उत्पन्न चिसकी निर्मलतामय समाधि रूपी चन्द्रमाके द्वारा ज्वारको प्राप्त केवलशानरूपी समुद्र में जिसने अमूल्य सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चरितमय रत्नत्रयकी १. वसन्ततिलकावृत्तम् । २. उपजातिवृत्तम् ।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वादशः सर्गः
२२९ सुरोगनरेन्द्राणां पूज्यम् , किं कुर्वन्भिव रत्नत्रयं वृद्धिं निन्ये । इच्छनिव, कि कत्तुम् ! कत्तु विधातुम् , किम् ? रुच्यं भूषणम् , कस्याः ? सिद्धेः मुक्तिललनाया इति ॥४९॥ तथाचार्य चर्यापरिणतमुपाध्यायमखिल
श्रुतोपाध्यायं तं बहुविधतपःसाधनपरम् । स्तुवे साधु साधु स्थितिजननिरोधव्यतिकरं
सदा पश्यत्प्राहुखितयमिदमेव त्रिपुरुषम् ॥५०॥ तथेति-तथा द्वयोरर्हसिद्धयोरासारूपतया स्तवनाकारण स्तुवे तवाम, फम् ! आया सूरिम् , कथम्भूतम् ? चर्यापरिणतं चर्याज्ञानदर्शनचरणतपोवीर्याचाराः पञ्च, चयाभिः परिणतस्तं चर्यापरिणतं पश्चाचारेषु अज्ञानवासनावासितान्तःकरणसया जलतैलवदुपय्युपरि वर्तमानं जनं परिणामयंतगात्मस्वरूपोपलाधिलब्धमित्यर्थः । तथा स्तुवेऽहम् , कम् ! उपाध्यायं पाठकम् , कथम्भूतम् ? अखिलश्रुतोपाध्यायं समस्तागमस्यापदेशारम् , तथा स्तुवेऽहम् । कम् ? तं साधु संसारसागरसंसरणसरागपरिणामबहिर्मुखत्वादन्तर्मुखाकारतया मानमवलोकमानः तद्रूपतया परिणमन् बहियेषु संयोगतामापनेषूदासीनतामव' लम्बमानः साधुभिधीयते । कथाभूतं साधुम् ? बहुविधतपःसाधनपरं बहुविध बाह्याभ्यन्तरप्रकारम् , बहुविधं च तत्तपश्च बहुविधतपस्तसाधनं च हेतुः हेयं हेयरूपतयोपादेयमुपादेयतया विवेचकं ज्ञानं साधनमित्युच्यते, बहुविधतपश्च साधनञ्च बहुविधतपःसाधने, ते परे परमोत्कर्ष प्राप्ते यस्य स तथोक्तस्तम् , अतः कारणात् पाहुवंदन्ति, के ? विद्धजनाः, किम् ? तदिदं त्रितयम् , किमेव प्राहुः ? त्रिपुरुष त्रयाणां पुरुषाणां समाहारस्त्रिपुरुषं हरिहरहिरण्यगर्भम् , किं कुर्वत् १ पश्यत् अवलोकमानम् , कम् ? स्थितिजननिरोधव्यतिकरम् , स्थितिः ध्रौव्यम् , जन उत्सादः, निरोधो व्ययः, स्थितिदच जनश्च निरोधश्च स्थितिजननिरोधास्तेको व्यतिवारः सम्बन्धो यस्य पदार्थसार्थस्य तत्तथोक्तम् उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सदित्यर्थः । कथं यथा भवति ? साधुपूर्वापरप्रमाणबाधाविषयतायाः परित्यागादात्मप्रतीतिविषयमन्दिरं यथा, कथम् ! सदा सर्वकालम् , अत्र तात्पर्यमभिधीयते, प्रबोधकत्यादमार्गान्मार्गप्यारोपकाच्छीलात् प्रच्यवमानानां शीले प्रत्यवस्थाप्याविनेयानां कारण्यबुद्ध्या प्रतिपालकः स्यात्तस्य तथाविविधतपसा विविधकर्मभस्मीकरणास्साधुः हरोऽभिधीयते, कषायदैत्यानां क्षयकारकत्वात्तस्येति शेषः ॥५०॥ इत्युच्चकैः स्तुतिशतं विरचय विष्णु
नमालिखन्सुरगणैर्जहसे शिलायाम् । द्वीपाम्बुराशिकुलपर्वतदेवलोक
लोकान्तरेषु लिखितं किल केन वेति ॥५१॥ इतीति-जहसे हसितः, कः ? विष्णुः, कैः ! सुरगणैः देवसमूहैः, किं कुर्वन् ! शिलायो दृपदि नाम आलिखन् उस्किरन् , किं कृत्वा ? पूर्व विरचय्य कृत्वा, किम् ! स्तुतिशतम् , कथम् ? उच्चकैरतिशयेन, भलीभाँति वृद्धि, मुक्तिरूपी वल्लभाके आभूषण बनाने के लिए की है वह सिद्ध परमेष्ठी हमारी अनन्त कार्यसिद्धि अर्थात् मोक्षके साधक हो ॥४९॥
शान, दर्शन, चरित्र, तप-वीर्य पंचाचारके आचरणमें आचार्य परमेष्ठीको, समस्त शास्त्रोंके समीचीन उपदेशक उपाध्याय परमेष्ठीको, तथा अनेक प्रकारके बाह्य तथा अभ्यन्तर तपकी साधनामें लीन साधु परमेष्ठीकी भी स्तुति करता हूँ। ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययकी प्रक्रियाको सदा भलीभाँति समझनेवाली यह त्रिपुटी ही वास्तब ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रिपुरुष हैं ॥५०॥
इस प्रकार प्रगाढ़ श्रद्धापूर्वक सैकड़ों स्तुतियां करने के बाद लक्ष्मण अथवा कृष्ण 1. तामधलम्बी मुनिः सा-प०, २० । २. शिखरिणीवृत्तम् ।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण तद्यथा किलेतिशब्द 'ऽप्याश्चर्ये खेदे वा, कैनेति शब्दोऽनुयोगा'र्थो ग्राह्यः वा अथवा केन लिखितं किम् ? नाम, केषु द्वीपाम्बुराशिकुलपर्वतदेवलोकलोकान्तरेषु द्वीपं समुद्रसमृद्धनगरपुरपत्तनादि, अम्बुराशयः समुद्राः, कुलपर्वताः उदयास्तमयभूधरादयः देवलोक : अमरावतीपुरी, लोकान्तरं मनुष्यलोकः, इतरेतराश्रयो द्वन्द्वः, तानि तथोक्तानि तेषु सुरगणानां प्रहासवचनमिदमिति ॥ ५१ ॥
इत्थं हिरण्यकशिपूद्यपक्षपाती
नारायणः पथि बभूव निवर्तमान : I सिद्धाभिपूजन विशेष विवृद्धतेजाः
श्रीवर्धनं जयकरं विनयं निराहुः ||५२ ||
इति श्रीधनञ्जयकविविरचिते राघवपाण्डवीयापरनाम्नि द्विसंधानकाव्ये लक्ष्मणचासुदेवयोः कोटिशिल्टोद्धरणकथनो नाम द्वादशः सर्गः ॥१२॥
इत्थमिति - बभूव जज्ञे, कोऽसौ ? नारायणो विष्णुर्लक्ष्मणः कथम्भूतः १ निवर्त्तमानो व्याघुटन के ? पथि मार्गे, पुनः कथम्भूतः ! हिरण्यकशिपूदयपक्षपाती हिरण्यं काञ्चनम्, कशिपू ग्रासाच्छादने, उदयः अभ्युदयः, हिरण्यं च कशिपू च उदयश्च हिरण्यकशिपूयाः तेषां पक्षपातोऽस्यास्तीति सः तथोक्तः, बन्दिभ्यो . वंशस्तुतिकरणेन कनकप्रासाच्छादन विभूतीनां दातेति भावः । पुनः कथम्भूतः १ सिद्धाभिपूजन विशेषविवृद्धतेजा आदावेव तेजस्वी सिद्धाभिपूजनाद्विशेषेण वृद्धं तेजो यस्य स तथेति कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण युक्तमेतनिराहुदन्ति के ? विद्वज्जनाः, कम् १ विनयं प्रश्रयम्, कथग्भूतम् ? जयकरम् पुनः श्रीवर्द्धनमिति ।
J
भारतीये - इत्थमुक्तप्रकारेण, सिद्धाभिपूजन विशेषविवृद्धतेजा भूत्वा नारायणो निवर्त्तमानः, पथि बभूव, कथम्भूतः सन् ! हिरण्यकशिपदयपचपातां हिरण्यकशिपुर्नाम दैत्यराजस्तस्योदवपक्षं पातयतीत्येवंशीलः स तक्तः, हिरण्यकशिपोः प्राणहर्तेत्यर्थः । अन्वत्समम् ॥ ५२ ॥
इति श्रीनिरवद्यविद्यामण्डनमण्डित पण्डित मण्डली मण्डितस्य पट्तर्कचक्रवर्त्तिनः श्रीमद्विजयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोवचारुचातुरीचन्द्रिका. ahir नेमिचन्द्रेण विरचितायां पदकौमुदी नाम दधानायां टीकायां लक्ष्मणवासुदेव कोटिशिलो रणकथनं द्वादशः सर्गः ॥१२॥
शिलापर नाम लिखते हुए देवोंके द्वारा देखे गये थे । आश्चर्य है ? क्योंकि द्वीप, जलनिधि, कुलाचल, अमरपुरी, अथवा लोकान्तर में कब किसने अपना नाम लिखा है |॥५१॥
सम्पत्ति ( हिरण्य ) सुख सामग्री ( कशिपू ) तथा समृद्धि ( उदय ) के पक्षका समर्थक लक्ष्मण अथवा हिरण्यकशिपु नामके दैत्यके उत्कर्षका लमाशिकर्ता कृष्ण सिद्धशिला पर सांगोपांग सिद्ध परमेष्ठी की पूजाके कारण लौटता हुआ मार्ग में अद्भुत रूपसे बढ़े तेजके स्वामी नरनायक हुये थे । क्योंकि विद्वज्जन भगवान् की विनयको लक्ष्मीका पोषक तथा विजयका कर्ता कहते हैं ॥५२॥
निर्दोष विद्याभूषणभूषित पण्डित मण्डली के पूज्य, पतर्कचक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द गुरुके प्रशिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाचातुर्य चन्द्रिका के चकोर नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनञ्जयके राघवपाण्डवीय नामसे ख्यात हिसन्धान काव्यकी पदकौमुदी टीका में लक्ष्मण वासुदेव कोटिशिलोद्धरण कथन नामक द्वादश सर्गः समाप्त |
१. प्रश्नार्थी - प० द० । २. घसन्ततिलकावृतम् ।
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रयोदशः सर्गः स श्रीशैलोदीर्णवलेन प्रजिहानः स्थित्यादौत्यनाम निरूडं हरिणोक्तः । वैदेह्यथं योजयतैको व्यवसायं तक्षः स्थानमरातेरभियातः ॥१॥
स इति-स: श्रीशैलो हनूमान् अभियातः, उद्दिश्य गतवान् , किम् ? तत् आ विद्वदनाप्रसिद्ध स्थानं लङ्कारल्य पुरम् , कस्य ? अराते रावणस्य, कथम्भूतम् ! दूरक्षः, दुष्टानि रक्षांसि गक्षसा यत्र तत् , कथम्भूतो. भियातः ? एक: एकाकी, पुनः कथम्भूतः ? इरिणा लक्ष्मणन उक्तः, किं कुर्वता ? व्यवसायं निश्चयं योजयता प्रेरयता, किमर्थम् ? वैदेह्यर्थ विदेहानगरी तस्याम्भवा, अथवा विदेहो राजा तस्यापत्यं स्त्री वैदेही तदर्थम् सौतानिमित्तमित्यर्थः, किं कुर्वाणः १ प्रजिहानः प्राप्नुवन् , किं तत् ? त्यनाम हनुमानित्यभिधानम् , कथग्भूतम् ? निरूढम आबालागोपालविख्यातम् , छ ? स्थित्यादौ उत्पत्तिकालमारभ्य, कथम्भूतेन हरिणा ? अदीर्णरलेन पुष्टसामध्येन ।
___ भारतीयः नाम अभियातः, कोऽसौ ? स एकः श्रीशैलः श्रीशेलनामधेयः कश्चित् पुमान , किम् ? तहलोकप्रसिद्ध स्थानं राजगृहाख्यं पुरम् , कस्य ? अरातेर्जरासंधनामधेयस्य शत्रोः, किं कुर्वन् ! दौत्यं दूतकर्म प्रजिहाना, कथम्भूतं दौत्यम् ! स्थित्या निरूदं रूढिमत , कथम्भूतः सन् ? हरिणा नारायणेन उक्तः, कथम्मूतेन हरिणा ? अदीर्णबलेन प्रौढप्रौद्धिमता पुनः कथम्भूतेन ? वै स्फुटं देह्यर्थ पुरुषार्थ व्यवसायमुद्यम योजयता, कथम्भूतः श्रीशैल: ? दूरचो दुःखेन गाति "
दुर्ग राष्ट्र तीर्थमरण्यं व्रजमायञ्जानशत्रोश्चारमबुद्धः स्वयमन्य। स स्वीकुर्वन्कृत्यमकृत्यं व्युपजाः स्थाने स्थानं स्वप्नमपीच्छन्प्रयतोऽभूत् ॥२॥
दुर्गमिति-स श्रीशैलः प्रयतः प्रयत्नपरः अभूदजनिष्ट, किं कुर्वन् ? आयन् आगच्छन् , कि तत् ? दुर्ग' तथा राष्ट्र तथा तीर्थ तथा अरण्यं तथा बज घोषम् , किं कुर्वन् ? शत्रोः रिपोः चारं गतिं जानन् , कथम्भूतः ! अन्यैरपरैः स्वयमात्मना अबुद्धः अज्ञातः, किं कुर्वन् ? कृत्यं भेद्यम् अथवा अकृत्यमभेद्यममात्यादिकं व्युपजापैः सामादिभिः प्रयोगैः स्वीकुर्वन् उररीकुर्वन् , पुनः किं कुर्वन् ? स्थाने निरुपद्रवे प्रदेशे स्थिति तथा स्वप्नमपिनिद्रां चेच्छन् ।॥२॥
अध्वान्तेऽसौ चेतसि वैरं प्रतिबन्धज्ञाता नीतेः संप्रतिमातामहतापम् । कुर्वन्धैर्येणावजितं तद्रि पुजातं साम्नायोज्य स्वामिनि सर्वसहमेयः ॥३॥
वैदेहीके उद्धार के लिए अपने पूर्ण पुरुषार्थका प्रयोग करते हुए, प्रकृष्ट सामर्थ्यवान लक्ष्मणके द्वारा कहे गये, वृष्टिके प्रारम्भसे ही त्यत् (हनूमान ) नामके विख्यात धारक वह पवनसुत दुष्ट राक्षसोंसे भरे शत्रु रावणकी पुरीको अकेले ही चल दिये थे [पुरुषार्थके लिए पूर्ण प्रयत्नशील प्रबल बलशाली कृष्णके द्वारा प्रेरित कोई एक श्रीशैल नामके सजन परिस्थितियों के कारण अत्यन्त नियमबद्ध दूतके कार्यके भारको लेकर अत्यन्त अरक्षित शत्रु जरासंधकी राजधानी राजगृहको चल दिये थे] ॥१॥
वह किले, राष्ट्र, घाटों या तीयों, चना, आभीर पल्लियों को पार करता जाता था। शत्रुके गुप्तचरोंकी गतिविधिपर दृष्टि रखता था तथा शत्रुओंके लिए वह अक्षात था, फोड़ने योग्य अथवा स्वामिभक्त शत्रुके लोगोंको साम, आदिके उपायोंसे वशमें करता हुआ, सुरक्षित स्थानपर रुकता तथा सोता हुआ वह श्रीशैल अपने दूत कर्ममें पूर्णरूपसे जुट गया था ॥२॥
1. सर्गेऽस्मिन्मत्तमयूर वृत्तम् ।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
अध्वान्त इति संप्रति असौ श्रीशैलः अञ्जनासू नुः हनूमान् ऐयः गतवान् किं कुर्वन् ? तत् जगविख्यातं रिपुजातं शत्रुसमूह स्वामिनि रामे सर्व सह सर्व सहत इति सर्वसहम् आज्ञासहिष्णुं कुर्वन् विदधत् किं कृत्वा १ पूर्वम् आयोज्य सम्बध्य, केन सह ? साम्ना सान्त्वेन प्रयोगेण, कथम्भूतं सत् ? अवजितम्, केन कृत्वा ? धैर्येण पौरुषेण तथा कुर्वन् मातामद्दतापं महेन्द्रराजस्य अञ्जनासुन्दरीतातस्य पश्चात्तापम्, क ? अनामो मार्गमध्ये, कथम्भूतः ? नीतेः ज्ञाता, किं कुर्वन् ? वैरं प्रतिबन्धन् मम माता गर्मिणी सती निर्दयेनानेन शन्दिरायसीति ।
भारतीय पक्ष:- ऐयः प्राप्तवान् कः ? असौ श्रीोलनामधेयो दूतः कम् ? आपम् आपोऽस्मिन्देशे सन्तीत्यापः तं सजलप्रदेशम् केन १ महता गरिष्टेन धैर्येण किं कुर्वन् ? तद्रिपुजातम् अवजित संतर्जित सत्साम्ना पूर्वम् आयोग्य स्वामिनि विष्णी सर्व सह कुर्वन् कथम्भूतः श्रीशैली दूतः ! संप्रतिमाता वर्तमानकारपरिच्छेदकः निश्वयवानित्यर्थः पुनः नीतशांता, पुनः किं कुर्वन १ अध्वान्तं निर्मले चेतसि वैर प्रतिबध्नन् ॥३॥
२३२
अव्यालोलङ्कायमानो यश ओजो वाञ्छन्मुद्यनीतिविदार्य प्रियवेषः ।
सुः शालं राजगृहं तं समतीतश्वके लङ्कामाकुलवृत्ति परमाजी ||४||
अत्यालोलमिति - स हनुमान् लङ्कां लङ्कामुन्दरीनामधेयां वनमालिनः पुत्र परम् अत्यर्थम् आकुलवृ तिम आज संग्रामे चक्रे नकार, कथम्भूतः १ शालं प्राकारं समतीतः अतिक्रान्तः, किं कृत्वा १ पूर्व विदार्य भक्त्वा, कथम्भूतः सन् ? तत् विख्यातं राजगृहं राजमन्दिरं प्रेप्सुः प्राप्तुमिच्छुः पुनः कथम्भूतः १ भियवेषः सतामाकारभृतः, पुनः अव्यालोऽदुष्टः सुहृदय इत्यर्थः, किं कुर्वन्, अयमानो गच्छन्, काम् ? लङ्कां लङ्का नामधेयां नगरीम्, किं कुर्वन् ? वाञ्छन्, किम् १ यशः तथा ओजः क्षात्रं तेजः तथा उद्यन् प्राप्नुवन् काम् ? नीति स्वं स्वमाचारम् लोका नीयन्ते प्राप्यन्ते यया सा नीतिः ताम् ।
"
भारतीयः - हे विदार्यं विदाम् आर्य हे विद्वज्जनानां मध्ये गुणगणसमाश्रय श्रेणिक चक्रे कृतवान्, कः १ स श्रीशैल दूतः, कम् ? परं शत्रुम् कथम्भूतम् ? कामाकुलवृत्तिम् अभिलाषेणाकुलवृत्तिम्, का ? आजी प्रागे, कथम्भूतः १ समतीती रचितवान् कम् ? तं सजलप्रदेशम् पुनः शालं प्रेसुः, किं कुर्वन् ! राजगृहम् उद्यन् गच्छन् पुनः कामयमानोऽभिलषन् किम् ? अभ्यालीले स्थिरतरं यशः तथा ओनः तथा नीतिम् अहं वाञ्छन् ॥४॥
}
,
दारुप्राकारोऽयमुताहो रथकट्या किंवाश्वीयं वारिधित्रेला परिखाश्वित् ।
सौधा जालोल्लासितधूमाः किमु मेघाः श्वेता नीलान्कि सवमन्तीतीति शशङ्कते ॥५॥
मार्ग में आये मातामह महेन्द्र राजके प्रति मन ही मन वैर भावको पुष्ट करता हुआ नीतिशास्त्र का पंडित वह हनुमान दृढ़ता के द्वारा ही पराजित शत्रुराजा समूह को साम के प्रयोग करने के पश्चात् अपने स्वामी रामके प्रति सर्वधा आज्ञाकारी बनाता हुआ चला जारहा था [ निर्मल चित्तमें वैरकी गांड बाधता हुआ, नीतिश, सर्वोत्तम अनुमान कर्ता, अपने असीमित धैर्यके द्वारा ही पराजित शत्रुओं को साम नीति द्वारा स्वामी कृष्णका पूर्ण अनुयायी बनाता हुआ उस प्रदेशमें पहुँचा था जो जलबहुल हैं ॥३॥
के
लंकापुरीको जाते हुये निष्कपट शिष्ट, कीर्ति और प्रताप के इच्छुक, उत्कृष्ट नीतिज्ञाता, शिष्ट तथा प्रिय वेषधारी तथा युद्ध में परकोटोको लांघ कर सर्वविदित राजभवन में घुसने के लिए उद्यत उस हनुमानने वनमालीकी पुत्री लंकासुन्दरीको अत्यन्त चंचल चित्त कर दिया था [ अत्यन्त स्थायी ( अभ्यालोल ) यश और तेजकी अभिलाश करता हुआ, समर्थ नीति व्यवहारका इच्छुक, प्रिय वेष श्रीशैल इस जलमय प्रदेशको पार करके परकोटे को लांघकर राजगृहमें प्रवेश कर रहा था । तथा उसने शत्रुको युद्धके लिए अत्यन्त लालापित कर दिया था ॥४॥
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रयोदशः सर्गः
२३३
किंवा
दार्विति उताहो अयं दारुप्राकारः, अहो रथकट्या रयसमूहः, किं वाश्वीयम अश्ववृन्दम्, वारिधिवेला, श्वित् किं वा इयं परिखा, किमु अहो कि सौधाः गृहाः कथम्भूता: १ जालोल्लासितधूपाः गोद्गीर्णधूमणः, किं नमन्ति किमुदगिलन्ति के ? मेघाः, कान् ? नीलान्मैवान् कथम्भूताः सन्तः ! श्वेताः शुभ्रा इति शशके स इति ॥ ५ ॥
निर्बद्धोच्चैरावतमुच्छीकरसेकं
3
दृष्ट्वास्योच्चैरावणतुङ्ग द्विपशालम् 1 जाता चेतस्यम्बुदबन्दीगृहशङ्का पुण्योपाचा किं प्रभुशक्तिर्न करोति ॥ ६ ॥
निर्चति-जाता का ? अम्बुदवन्दीगृहशा मेघानां कारागृहभ्रान्ति छ ? चेतसि । कस्य ? अस्य हनुमतः, कथम् ? उच्चैरतिशयेन किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्वा आलोक्य, किम् ? रावणतुङ्गद्विपशालं द्विपानां शाला द्विपशा हस्तिशालं तुझें च द्विपशालं तुद्वपशालं रायस्य तत् तुङ्गद्विपशाले रावणद्विपशालम्, कथम्भूतम् ? उच्छीकरसेकभू कभी शीकराणां शुण्डान्मुक्तजलकणानां रोकी यत्र तदुच्छीकरको पुननिदोन्रावतम् उच्चश्चासावैरावत उच्चैरावतः निर्वशः उच्चैरायतो यत्र तन्निर्वोच्चैरावतम् युक्तमेतत् पुण्त्रीपात्ता प्रभुशक्तिः किं न करोति ? अपि तु सर्व करोत्येव ।
भारतीय:- जाता, का ? अभ्युदवन्दी गृहशङ्का के ? अस्य श्रीशैलनाम्नो दूतस्य चेतसि किं कृत्वा ? पूर्वं दृष्ट्वा, किम् ? उच्चैरावणंतुङ्ग द्विपशालम् उश्च्चोन्नता ऐरावणवत्सुङ्गाः ये द्विपात्तेषां शाब्य यत्र तत् कथम्भूतम् ? उच्छोकर सेवम्, पुनर्निर्बद्धोच्चैरावतम्, इरावत्यां भवा ऐरावता हस्तिनः उच्चाश्च ते ऐरावताश्च उच्चैरावताः निर्वद्धा आलयनिता उच्चैरावता यत्र तत् शेषं पूर्ववत् ॥६॥
"
दयालबन्धेन किशोरानेवं ह्येतैः संप्रति पीडामपि नीतैः ।
दम्यन्तेऽन्ये स्वाम्युपकारैर्न तु नाथा जात्यस्येत्थं वृत्तिरुदात्तेति स मेने ||७||
,
दृति मेने अमंस्त, कोऽसौ ? सः, कथम् ? इति दस्यन्ते, के कर्मतापन्नाः १ अन्ये शत्रवः, कर्त्तभिः १ एतैः किशोरैः, कथम् १ एवं स्वदमनप्रकारेण कैः कृत्वा १ स्वाम्युपकारैः, कथम् १ संप्रति सांप्रतम्, कथम् ? हि स्फुटम् कथम्भूतैरपि १ दम्यन्ते पीडां नीतैरपि केन कृत्वा १ श्रृङ्खलबन्धेन किं कृत्वा पूर्व मेने सः १ दृष्ट्वा, कान् १ किशोरान् अवबालकान् कथम्भूतान् ? दम्यान् कथम् ? इत्थमनेन प्रकारेण न तु ते पुनर्दम्यन्ते, के ? नाथाः प्रभवः, कैः १ एतैः युक्तमेतत् जायते का ? वृत्तिर्वर्तनम् कस्य ? जायस्य जातिसमुद्भवस्य कथम्भूता १ उदाचा उत्कटा ||७||
"
उद्यत्कक्षा गोपुरशालध्वजमाला मत्तालम्बालम्बनबाला समृदङ्गाः । तस्याधावत्तुङ्गतुरङ्गावबभासे राजन्यानां कन्दुकभूमिर्नगरी वा ||८||
क्या यह लकड़ीका परकोटा है या रथोंकी विशाल पंक्ति है ? क्या यह अश्वसेना है या समुद्र तट है अथवा परिखा है ? जालियोंसे धुआं निकालते हुए विशाल भवन हैं अथवा श्वेत मेघ नील नील जलराशिका चमन कर रहे हैं ? इस प्रकारसे वह सन्देह में पड़ गया था ॥ ५॥
राजकी ऊँची हस्तिशाला में ऐरावत के समान हाथी बँधे थे तथा वे अपनी सूँड़ों से जलविन्दु बरसा रहे थे । इसको देखकर ही हनुमानको मन ही मन ऐसा लगा था कि चह मेघोंका कारावास है। पूर्व पुण्यसे प्राप्त प्रभुता क्या नहीं करती है [ इरावतीमें उत्पन्न तथा सूँड़से पानी उछालते हुए ऐरावत हाथी सदृश बड़े बड़े हाथियोंकी शाला ( उच्चैरावणतुंगद्विपशाला ) को देखकर दूत श्रीशैलको मनही मन ऐसा है ] ॥६॥
सकल में बाँधकर वशमें किये गये तथा सिखाये गये बच्चा घोड़ोंको देखकर उस हनुमान या श्रीशैलके मनमें यह विचार हुआ था - इस समय इस प्रकारसे कष्ट दिये जानेपर भी स्वामीका कार्य करने के लिए तत्पर इन घोड़ोंके द्वारा बाद में शत्रु भी इसी प्रकार पराजित किये जायेंगे । फलतः यह उदात्त परम्परा इनकी आतिका ही गुण है ॥७॥
३०
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् उद्यदिति-अवबभासे प्रतिभासते स्म, का ? फन्दुकभूमिः कन्दुकैः क्रीडा क्रियते यस्यां भूमौ सा कन्दुकभूमिः, केषाम् ? राजन्यानां राजपुत्राणाम् ,कस्य ? तस्य हनूमतः श्रीशैलनाम्नो दूतस्य च, उद्यकक्षा गोपुरप्राकारयोरन्तर्भूमिः कक्षा उद्यन्ती कक्षा यस्याः सा पुनः गोपुरशालध्वजमाला गोपुरशालेषु ध्वजमाला यस्यां सा, पुनः भत्तालम्बालम्बनबाला मत्तालम्बानाम् आलम्बनं यस्यां ताः मत्तालम्बालम्पनाः मत्तालम्बालभ्यना बाला यस्यां सा तथोक्ता, अवष्टम्भनकाष्ठावष्टम्ममुग्धाङ्गनेत्यर्थः, पुनः समृदङ्गा समदला पुनः आधावत्तुङ्गतुरङ्गा आधावन्तः तुङ्गाः तुरङ्गा यस्या सा, केव ? नगरीव, विशेषणानि पूर्ववत् ॥८॥
यत्रोद्धेगे मूर्छति शोकेनयमस्त्री तस्थौ दुःस्थं चाशु भवानीशसमेत्या । त्यक्त्वालङ्का राज्यविभोगं धनदोऽपि द्वेषी कारागारमसौ तन्निचचाये ॥९॥
योति-निचचाथे ददर्श, कः ? असौ हनुमान , किम् ? तत् लोकप्रसिद्ध कारागारं बन्दीगृहम् , यत्र कारागारे तस्थौ स्थितवती यमस्त्री छाया नामधेया कृतान्तभार्या, कथम् ? दुस्थ दास्थ्यं यथा, क्व ? उद्वेगे सति, कीग्विधे ? मूर्छति वृद्धिं याति, केन ? शोकेन शुचा, चकारः समुच्चयार्थः, तथा तस्थौ, का ? भवानी गौरी दुःस्थमिति क्रियाविशेषणम् , कथम्भूता ? ईशसमेत्या ईशानयुक्ता ; क सति ? उद्वेगे, किं कुर्वति ? मर्छति, केन ? शोकेन, कथम् ? आशु शीघ्रम् , तथा तस्थौ, कः ? असौ धनदोऽपि द्वेषी, कथम् ? दुःस्थम् , किं कृत्वा १ पूर्व त्यक्तत्वा अपाकृत्य, कम् ? अलकायनिभोगम अलंकालगरी नाभा जगत्रिभोग ग्ल्यानुभवनम् । विन्दुच्युतक, “यमकश्लेपचित्रेषु बवयोईलयोन भित् । नानुस्वारविसर्गौ च चित्रभंगाय सम्मती" इति वचनात् ।
___ भारतीये-असौ दूतः तत् कारागारं निच्चाये ददर्श, यत्र कारागारे तस्यौ, कः ? द्वेषी शत्रुः, कथं यथा भवति? अनयम् अन्याय्यप्रवेशम् , कथं यथा भवति? दुःस्थं क्षुत्पिपासादिजनितबाधायां सत्यामन्नादी नामप्राप्ती सदभिलाषमित्यर्थः, क्व सति ? शोके कि कुवंति ? मूळति विदधति, तथा शोकादुद्वेगे च सति, कथम्भूतः सः ? अशुभत्रान् , कथम्भूतोऽपि सन् ? धनदोऽपि धनं ददातीति धनदः, अपिशव्दात् बन्धनात्पूर्व स्थूलदातेत्यर्थः, किं कृत्वा ? पूर्व स्यत्वा विहाय, किम् ? अलकाराज्यविभोगम् अलङ्काराः कङ्कणकुण्डलादिविभूषणानि, आज्यवयः षोडशवार्षिकाः कमनीयकामिन्यः, भोगः 'कुङ्कमकर्पूरचन्दनादिलक्षणः, अलङ्काराश्च आज्यवयश्च भोगश्च लङ्काराज्यविभोगम् , कया ? ईशसमेत्या स्वामिसंगल्या जरासन्धादभिभवेनेत्यर्थः, पुनः कथम्भूतः १ अस्त्री शस्त्रवान् , उक्तं च "सम्भोगलालसा नित्यं धनपीनपयोधरा । पोडशाब्दा तु या नारी थुप्रैराज्यविरुच्यते" ॥९॥
दूतको राजपुत्रोंके गेंद खेलनेकी भूमि नगरीके समान ही सुन्दर लगी थी। क्योंकि प्रवेश द्वार और सीमा (परकोटा) पर ध्यजा तथा मालाएं लगी थीं, गोपुरके पासको भूमि (कक्षा) विस्तृत थी, छज्जेके सहारेकी लकड़ियोंपर भी स्त्रियाँ खुदी थीं, मृदंग बज रहे थे तथा घोड़े लगातार इधर-उधर दौड़ रहे थे ॥८॥
इस हनुमानने रावणके कारागारको देखा था जिसमें विपत्तिमें पड़े (अशुभवान् ) पतिके पास आकर यमकी पत्नी भाधोद्धगमें शोकके कारण मूर्छित हो जाती थी। तथा रावणका शत्रु कुबेर भी 'अलकापुरीके राज्यके भोगोंको छोड़कर अत्यन्त फटकारक परि. स्थितियों में पड़ा था [श्रीशैलने जरासंधका वह कारागार देखा था जिसमें जरासंधके सामने पड़नेका साहस (भवानीके पति शिवजीको पूजा) करनेके कारण हो शत्रुलोग शीघ्र ही आभूषण, षोडशी युवतियाँ तथा समस्त भोगोंसे वंचित होकर बड़े कटते रहते थे। पहिले पर्याप्त सम्पत्ति भेट करनेपर भी अन्याय पूर्वक पकड़े गये ये शस्त्रसन्नद्ध राजा लोग अनुताप और शोकसे मूर्छित हो जाते थे] ॥९॥
१. कपूरकाशमीरचन्दनादिस्वभाव-प०, द० ।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३५
प्रयोदशः सर्गः सारङ्गद्ध संगतसत्त्वैरथयुक्तं रम्यं राजच्छत्रवितानैर्बहुफेनैः।
बद्धोत्सेधं नीरविशालं नृपमार्ग गच्छन्गङ्गासागरसङ्गं स्मरति स्म ॥१०॥ सारङ्गेति-स दूतः गङ्गासागरसंगं स्मरति स्म सुरसरित्सरित्सतिसङ्गमम् अचिन्तयत्, किं कुर्वन् ? गच्छन् अयमानः, कम् ? नृपमार्ग राजपदवीम् , कथम्भूतम् ? सारगड़ गजेन्द्रसमृद्धम् , पुनःरययुक्तं स्यन्दनसमन्वितं पुनः रम्यं रमणीयम् , कैः ! संगतसत्त्वैः सं समीचीनं न्यायमार्गानुयायि गतं गमनं येषां ते संगताः संगताश्च ते सत्वाश्च संगतसस्वास्तैः नीतिमार्गानुसारिभिः प्राणिभिः शिष्टजनै रित्यर्थः, पुनः बद्धोत्सेधं बद्ध उत्सेधो यत्र स बद्धोत्सेधस्तं विरचितशोभमित्यर्थः, कै? राजच्छत्रवितानैः नरेन्द्राणामातपत्रसमूहः अथवा छत्राणि च वितानानि च छत्रवितानानि राजन्ति च तानि छत्रवितानानि राजच्छबवितानानि तैः शोममाना तपधारणचन्द्रोपकैरित्यर्थः, कयम्भूतैः ? बहुपनैः फेन कल्पैः डिण्डीरपिण्डसदृशैरित्यर्थः, शुभ्रत्वाच्छवाणां वितानानां च पुनरपि कथम्भूत राजमार्गम् ? नीरविशाल निर्गतो रविर्यस्मात् स नीरविः नीरधिः शालो यत्र स नीरविशाल व निर्गतसूर्यप्राकार शारभ्योच्चशगंगनमार्गविलमत्वादबहि:स्थित दिनकरमित्यर्थः, अपशब्दः प्रकारान्तरसूचकः, कथम्भूतं गङ्गासागरसङ्गम् ? सारङ्गई चातकाढयम् , पुनः कथम्भूतम् ! सङ्गतसत्त्वैः मिलितमीनमकरादिजीवैः युक्तम् , पुनः रम्यं मनोहरम् , पुनः राजछत्रवितानैः राजत् छत्रवत् वितानं येषां तैः, बहुपनैः प्रचुर डिण्डी रैः बद्धोत्सेधम् , पुनः कथम्भूतम् ? नीरविशालं नीरवीनां जलविहङ्गमानां शालो यत्र तम् ॥१०॥
सांध्यं रागं रत्नमयूखैर्विदधानं क्षीराम्भोधेः सैकतमुद्यन्मकरीकम् । संह पीठं निर्जयदास्थायुकमुच्चैरक्षोभीतं मागधसेव्यं च्यलुलोकत् ॥११॥ ___ सांध्यमिति-स हनूमान् तं रावणं व्यललोकत् अपश्यत् , कथम्भूतम् ? रक्षोभीतं रक्षोभिः परिवारितम् , पुनः मागधसव्यं वन्दिनामास्तोतव्यम्, पुनः सैंह सिंहानाभिदं सैंह पीटमासनं सिंहासनमित्यर्थः, आस्थायुकम् आस्थितम्, कथम्भूतं पीठम् ? उच्चकैः उन्नतम्, किं कुर्वाणम् ? रत्नमयूखैः कृस्वा सांध्यं संध्याभवं रागं विदधानम्, पुनः क्षीराम्भोधेः दुग्धसमुद्रस्य सैकतं सिकतामयप्रदेशं निर्जयत् न्यक्कुर्वाणम्, कथम्भूतं सत् ? उद्यनाकरीकम् उद्यन्त्यो मकर्यो यत्र तत् ।
भारतीयः स दूतः मागधसेव्यं मागधानां क्षत्रियविशेषाणां सेव्यं तं जरासन्धं व्यलुलोकत् , कथम्भूतो दूतः १ अक्षोभी निःक्षोभः, कथम् ? उच्वैरतिशयेन, कथम्भूतं जरासंधम्, सैंहं पीटम् आस्थायुकम् , अन्यत् समम् ॥११॥
दीर्घन्यस्तं हस्तमधिष्ठायुकमीषत् पीठीवद्धालाननिषण्णद्विपशोभम् । भूभृच्चूडाकोटिषु पादं निदधानं रागाक्रान्तं भानुमियोच्चैरुदयस्थम् ॥१२।।
कुलकेन व्याख्यास्यामः, दीर्घति-स हनूमान् तं रावणमवोचत् , कथम्भूतम् ? अधिष्ठायुकम् अवष्टभ्योपविष्टम्, कम् ? हस्तम्, कथम्भूतम् ? दीर्धन्यस्त दीर्थे न्यस्तः दीर्धन्यस्तस्तम् , कथम्भूतं रावणम् ! ईषत्पीठीबद्धालाननिषण्णद्विपशोभम् ईप्रत्पीच्या वेदिकायां पूर्व निबद्धः पश्चादालाननिष्णाः स चासो द्विपश्च तस्येव
हाथियोंसे व्याप्त, यथास्थान बँधे सिंहादि प्राणियोंसे सुन्दर, रासे युक्त, घने फेनके समान राजाओंके छात्रों के कारण चँदोवा युक्त पक्के बने लम्बे ऊँचे तथा पानीसे धुले राजमार्गसे जाते हुए हनुमान या श्रीशैलको गंगा तथा समुद्र के संगमकी याद आयी थी [ संगम भी चातकोंसे व्याप्त है, एकत्रित मीनादि प्राणियोंसे रम्य होता है, सुन्दर छत्रोंके समान फेन राशिसे युक्त तथा गहरा और जलचर, पक्षियोंके गतागतसे युक्त होता है ] ॥१०॥
सब तरफ जड़े हुए रत्नोंकी किरणोंसे संध्याकी लालिमाको फैलाते हुए, उछलती हुई मकरियांसे युक्त क्षीरसागरके सैकतके विजेता, उन्नत सिंहपीठपर विराजमान, राक्षसोंसे घिरे तथा बन्दियों के द्वारा प्रशंसित रावणको हनूमानने देखा था [- क्षोभहीन स्थिर तथा मगध देशके लोगोंसे सेवित उस जरासंधको श्रीशैलने देखा था ] ॥११॥
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
शोभा यस्य तम् अथवा ईपत्सीठीबद्धालाननिषण्ण द्विपशोभमित्यादि क्रियाविशेषणम् , अत्र तात्पर्याथोंऽयं सभायामुभये पार्श्वेऽपीपल्पीठीबद्धालाननिषण्णेघु मदरशात्स्वशिरोबिधूयमानेषु द्विपेषु विषये गतागतं विदधानया कर्णमैत्री प्राप्तया भ्रूवल्लरी ललाटशिखरं नयन्त्या दृष्टया तरनिरीक्षणाजनितशोभं यथा भवति, कथम्भूतं रावणम् ? उदयस्थम् उदयं प्राप्तम्, पुनः रागाफ्रान्तम्, पुनः कथम्भूतम् ? भूभृच्चूडाकोरिपु नरेन्द्रमुकुटशिखरेषु पादं निदधानं स्थापयन्तम् , कमिब ? भानुभिव, सूर्य यथा, कथम्भूतं भानुम् ? उदयस्थम् उदयगिरिशिखरगतम् , पुनः रागाकान्तं पुनः पादं किरणम् , जात्यपेक्षथैकवचनम् : भूभृण्डाकोटि शिखरिशिखरेषु निदधानम् । भारतपक्षे-जरासन्धम् ||१२||
स्त्रीणां शुक्लैः सामिकटाक्षः सहपातं संगच्छद्भिश्वामरभारैः कृतशोभम् । कल्लोलानां मीनविलासमिलितानां नुन्नं वेलाशैलमिवाब्धेः समवायः ॥१३॥
स्त्रीणामिति-कथाभूतम् । चामरभारः प्रकाश कसगृहैः कृतशोभं कृता शोभा यस्य तम, कथम्मतैः ? स्त्रीणां शुक्ल घाल: साभिकटाक्षः अर्द्धनेत्रापास सह पातं संगच्छद्धि: पतनं प्राप्नुवद्भिः, कमिव ? बेलादलभिव, कथम्भूतैः १ अब्धे; समुद्रस्य गीगविलासः मत्त्वकीइनेः मिलिताना कल्लोलानां तरक्षाणां समवायैः समूह: नुन्न प्रतिहतम् ॥१३॥
श्रीवाग्देव्योर्वक्षसि वाचि स्थितिमत्योः कण्ठे हारं वास्तुकसीमेव वहन्तम् । मुक्तामाला मन्मथदोलामिय लोलां बिभ्राणाभिर्वारवधूभिः परिविष्टम् ॥१४॥
श्रीवाग्देव्योरिति-पुनः कशम्भूतम् ? वारवधूभिर्विलासिनीभिः परिविध परिवेष्टितम् , किं कुर्वन्तीभिः ? मुक्तामा मौक्तिकदाम बिभ्राणाभिः दधानाभिः, कथम्भूताम् ? लोला चञ्चलाम् , कामिव ! मन्मथदोलामिव रतिपतिहिन्दोलकगिर, किं कुवाणम् ? वहन्तं धरन्तम् , कम् ? हारम् , छ ? कण्ठे ग्रीवायाम् , कामिव ? वालुकसी मेय', चमतिमर्यादाभिय, कयोः ? श्रीवाग्देव्योः लक्ष्मीसरस्वत्योः, कथम्भूतयोः १ स्थितिमत्योः, क. ? वासि उरसि, वाचि बाण्यामिति ऋमेग ।।१४॥
एवं वाक्यं विष्टरविष्टस्तमवोचद्यत्रानुक्तं नापि दुरुक्तं स मनोज्ञः । कालान्तेऽपि क्षोभमगच्छन्गुरुसत्त्वः पारावारः सोऽयमपूर्वश्विरदृष्टः ॥१५॥
एवमिति-स हनूमान् रावणं प्रति एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वाक्यमवोचत्-यत्र वाक्ये नास्ति किम् ! अनुक्तम् अथवा नाप्यस्ति, किम दुरुस्तम्, चिरः, कः ? सोऽयं रावणः कथम्भूतः ? अपूर्वः पारावारः, एवंविधः पारावारोऽपि भवति, कथाभूतः सन् ? गुरुसत्त्यः स्थूलनामकरादिजीचः, रावणः किंविशिष्टः १ गुरुसत्यः गुरु गरिष्टं सत्त्वं पुरुषवर्मा यस्य सः, किं कुर्वन् ? अगन्छन् । कम् १ शोभन , क सति ? कालान्तेऽपि सति प्रलयकालेऽपि, पुनः मनोज्ञः परिचितोपलक्षकः, पुनः विष्टरविष्टः आसनोपविष्टः ।
हाथको नीचे लटकाकर सिंहासनकी पीटपर सहारा लेकर बैठे रावणकी शोभा वैली ही थी जैसी कि वेदीपर बाँधे गये और बादमें खूटे (घाँधनेका स्तम्म) के सहारे बैठे हाथीकी होती है। विकासको प्राप्त तथा सीताकी आसक्तिसे व्याप्त यह राजाओंके मुकुटीपर भी [ उदयाचलपर आगत अरुणोदययुक्त तथा पर्वतोंके शिखरौपर किरणे डालते सूर्यके समान चरणाको रखता था ॥१२॥
सुन्दरियोंके आधे खुले नेत्रोंसे गिरते धवल कटाक्षीके साथ-साथ दुरते हुए चमरोंकी कान्तिसे उसकी शोभा पेसी बढ़ गयी थी, जैसीकी तटवर्ती पर्वतकी उस समय होती है जब मछलियोंके गुण्डौकी क्रीडायुक्त एक साथ उठती हुई लहरें उससे टकराती हैं ॥१॥
क्रमशः वक्षःस्थल तथा घाणीमें निवास करती लक्ष्मी और सरस्वतीके निवासोंकी सीमा रेखाके समान कण्ठमें हार पहिने हुई और कामदेवके हिंडोलेके समान चंचल मुक्तामाला धारिणी वेश्याओंसे वह घिरा हुआ था ॥१४॥
१. सीमनशब्दस्य स्त्रीत्वाद्वितीयायां चिन्त्यमिदम् ।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रयोदशः सर्गः भारतपशे–स दूतोऽवोचत् । शोषं समम् । कुलकम् ||१५॥. वृत्तस्कन्धः पत्रसमृद्धः शुचिशाखस्त्वं पैदृष्टः कामफलानां वितरीता । सन्निातः कल्पतरुस्तैन च यस्तैः प्रज्ञाचक्षुर्विक्रमशीलः परिपाता ॥१६॥
वृत्चेति- दृष्यः , कः । त्वं भवान् , कैः ? यः पुरुषैः, कथम्भूतः १ वितरीता दाता, केषाम् ? कामफलानाम् , पुनः शुचिशाखः शुचयो निर्लाञ्छनाः शास्त्राः सोदरोदरजादयो यस्य सः, पुनः पन्नसमृद्धः प्रोत्तुङ्गतुरजमादिवाहनान्यः, पुनः वृत्तस्कन्धः वृत्तौ कन्धौ यस्य स तथोक्तः, सन्निभ्यांतोः दृष्टः, कः ? कल्पतमः कल्पवृक्षः, कैः ? सेः पुरुषः, कथम्भूतः कल्पतरः ? शुचिशाखः शुचयोचुणगोचराः शाखा यरय सः, पुनः पत्रसमृद्धः पाशसम्भृतः, पुनः वृत्तस्कन्धः वर्तुलबुधाः तथा न दृष्टः, क: ? त्वम् , कः ? यैः पुरुः नष्ट, कः ? कल्पतरूः, कः ? सैः पुरुषः, पुनरपि बागम्भूतस्त्वम् १ प्रज्ञाचक्षुः, पुनरपि कयम्भूतः ? विक्रमशीलः, पुनरपि कथम्भूतः ? परिपासा प्रतिपालकः ॥ १६||
सर्वस्यास्मिञ्जन्मनि जातस्य जनस्य द्वेषो दोपे प्रेमगुणे चेति निसर्गः । दयो गुण्यः स्याच स येनाचरितेन प्रायस्तद्वेवेक्ति न कश्चित कुरुते वा॥१७॥
सर्वस्वेति-अस्मिन् जन्मनि इह संसारे, जातस्योत्पन्नस्य सर्वस्य समस्तस्य जनस्य दोये द्वेषो जायते गुणे च प्रेम प्रीतिः आयते इति निसर्गः स्वभावः, च पुनः येनाचरितेन दोषगुणरूपेण दूष्यः दोषवान् तथा गुण्यो गणवांश्च स्यात् तद् दापगुणस्यभाचाना चारस कश्चित् प्राणी प्रायः बाहुल्यन नदेवक्ति न जानाति वा अथवा न कुयते । अन्तःपातिमो नोऽप्युभवावलोको दरीदृश्यते; काकनयनगोलकवत् डमरुकमणिवञ्च, तस्योभयाथीचलोकात् । अत्र प्रस्तुतप्रक्रमो शेयः । उभयत्र व्याख्या समा ||१७||
अर्थान् प्राणान् स्वान् विनयन्ते गुणहेतोस्तत्तद्भपस्तयदि दवा गुगिनः स्युः । छेदः कोऽयं तद्व्रज सीतोपनयेन श्रीसम्पत्योः स्थावरभृतां गुणवत्ताम् ॥१८॥
अर्थानिति-विनयन्ते रविनयं कुर्वन्ति, के ? जनाः, कान् ? अर्थास्तथाप्राणांश्च, कथम्भूतान् ? स्वान् स्वकीयान् . किमर्थ विनयन्ते ? गुणहेतोगुणानां निमित्तम्, तत्ततः यदि चेत्स्युभवेयुः, के ? गुणिनः, किं कृत्वा ! पूर्व दत्वा वितीर्थ, क्रिम् १ तदर्थादि, केभ्यः ? तद्वद्भ्यो गुणिभ्यः, कोऽयं छेदः केयं हानिः स्यात् । तत्तस्मात्
मृत्युकाल आ जानेपर भी प्रकृतिमें स्थिर, महान् पराक्रमी, तथा मनकी बातोंका शाता अतएव लोकोत्तर समुद्र [प्रलयकाल में भी शान्त, बड़े-बड़े जन्तुओंसे भरा] के तुल्य आसनपर बैठे रावण अथवा जरासंधको हनूमान अथवा श्रीशैलने देरतक देखा था। इसके उपरान्त उसको ऐसे बचन कहे थे जिनसे न तो कुछ छूटता ही था और न जो अशिष्ट रीतिसे कहे ही गये थे ॥१५॥
भिप्रादि राजाओंके चक्रसमूह युक्त, तुरंग आदि वाहन (पत्र) से समृद्ध, पवित्र बन्धुबान्धवासे शोभित, तथा यथेच्छ फलोंके दाता आपको जिन्होंने देखा है ये अनायास ही कल्पवृक्षका स्मरण करते हैं । और जिन्होंने गोल तने युक्त, पत्तोंसे हरामरा, पुष्ट डालोंसे विशाल तथा अभिलाषाओंका पूरफ कल्पवृक्ष देखा है उन्होंने विवेकरूपी नेवारी, स्वभावसे ही पराक्रमी तथा प्रतिपालक आपको नहीं सोचा है ॥१६॥
इस संसारमें उत्पन्न समस्त प्राणी विशेषकर मनुष्योंकी प्रकृति ही यह है कि दोषोंसे विमुख होते हैं और गुणोंसे प्रीति करते हैं । किन्तु जिस आचरणके द्वारा दोषभाजन होते है अथवा गुण-गृह होते हैं उसको प्रायः कोई भी नहीं सोचता है और न आचरण ही करता है ॥१७॥
गुणों की प्राप्तिके लिए अपनी सम्पत्ति तथा प्राणोंको भी समर्पण कर देते हैं, यदि गुणियोको अर्थ या प्राण देकर स्वयं गुणी हो जाते हैं तो आपकी ही कौन-सी यह हानि है ?
१. व्ययं कुर्वन्ति-प०, द०।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨૨૮
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कारणात् बज गच्छ, कः १ त्वम् , काम् ? गुणवत्ताम् , केन कृत्वा ? सीतोपनयेन जानकीसमर्पणेन, कथम्भूतां गुणवत्ताम् ? स्थावरभूतां स्थिरस्थितिकारणम् , कयोः ! श्रीसंपत्त्योः श्रीः हिरण्यमण्यादिस्वभावा, संपत्तिगोमहिप्यादिस्वभावा श्रीश्च सम्पत्तिश्च श्रीसंपत्ती तयोः । भारतीये-सीतोपनयेन भूमिप्रदानेन । शेषं समम्||१८||
मृत्वा जीवित्वैव च यस्मिन्गुणमेयात्तस्मिन्पर्तुं जीवितुमिच्छेद्गुणगृह्यम् । प्राहुः संपद्व्यापदमस्माद्वनमुच्चैरामो ही नो नायत पाण्डुप्रभवोर्यः ॥१९॥
मृत्वेति-एयान प्राप्नुयात् , कः ? प्राणी, कम् ? गुणम् , किं कृत्वा ? पूर्व मृत्वा जीवित्वा च, कस्मिन् ? यस्मिन्नेव कार्ये, इच्छेत् वाञ्छेत्, कः ? प्राणी, कि कत्तुम् ? मत्त जीवितुं च, कस्मिन् ? तस्मिन्नेव कार्थे, प्राहुर्वदन्ति, के ? नीतिभन्तो जनाः, किम् ? संपद्वयापदम् सम्पच व्यापच्च अत्र सन्तिः प्रत्ययः, के माहुः १ गुणगृह्यं गुणग्राहकं जनम , अस्मात् कारणात् ही कष्टं नोऽस्माकम् अर्यः स्वामी रागः उच्चैरतिशयेन वनं नायत नायासीत् , कशम्भूतः ? पाण्टुप्रभवः प्रशस्तजन्मा । इदं व्याख्यानं काका ध्याख्येयम् ।
भारतीय नायत, कः ? पाण्डुप्रभवः युधिष्ठिरः, कथम्भूतः ? नोऽस्माकम् अर्यः पुनः आमः आर्द्रहृदयः, उच्चरत्यर्थ ही वाष्टम् । अत्र पूर्वार्द्धगतं व्याख्याने बोध्यम् ||१९|
मन्दोदर्यामिच्छसि चित्तव्यतिपात न्याय्यं त्वं वैभीषणमुक्तं न शृणोषि । नावाप्युच्चैः किश्चिदतीतं तव कार्य गत्वा विष्णु तं प्रभविष्णु वरिवस्य ।।२०।।
मन्दोदयांमिति-इच्छसि, कः ? स्वम् , कम् ? चित्तव्यतिपातम् अप्रेमतया चेतोऽन्यत्र नेतुम् , कत्याम् १ मन्दोदयों मन्दोदरीनामधेयायां पट्टमहिष्याम् । अत्रान्यायप्रवृत्त्या परकलत्रासक्ततया प्रगलितप्रेम. परम्परां मन्दोदरी कर्त मिच्छीति भावः । तथा न्याय्य न्यायादनपेतं विभीषणस्येदं वैभीषणम् उक्तं वचनं न शृपोषि नाकर्णयसि । अद्यापि सांप्रतमपि उच्चैः महत् तव कार्य नातीतं न गतम् , कथम्भूतम् । किञ्चिदपि, अतः कारणात् त्वं प्रभविष्णु प्रभवनशीलं तं विष्णुं लक्ष्मणं गत्वा वरिवस्य नमस्कुल ।
भारतीयः-इच्छसि, कः ? त्वम् , कम् ? चित्तव्यतिपातं चित्तं प्रपातयितुम् , कस्याम् ! दो गुहायाम् , कथम्भूतस्त्वम् ? मन्दः हेयोपादेयविकलः, तथा न शृणोषि, कः ? त्वम् , किम् ? उक्तम् , कथम्भूतम् ? भीषणं भयावहम् , कथम्भूतं सत् ? न्याय्यम् , कथम् १ वै स्फुटम् , अद्याप्युच्चैः कार्य किञ्चित् नातीतम् , कस्य ? तव भवतः, अतस्त्वं गत्वा प्रभविष्णुं तं विष्णु वासुदेवं वरिवस्य ॥२०॥
इत्युक्तेऽस्मिन्पादमुपात्तं मणिपीठात् प्रापय्योरुं सव्यगतासिस्थित दृष्टिः। न्यस्यन्नक्ष्णोरिन्द्रियवर्ग सकल तु क्षोभात्कार्य कोपविवृत्तिं गमयन्नु ॥२१॥
जो सीताको वापस करके [पाँच प्राम भूमि पाण्डवोंको दिलाकर ] चिरस्थायी लक्ष्मी और वैभव संयुक्त गुणीपनेको प्राप्त हो ॥१८॥
जिस कार्यके करनेपर मरके अथवा जीवित रहकर गुणों की प्राप्ति होती हो, गुणोंका लोभी उसकी पूर्ति में मरने वा जीनेकी अभिलाषा करता है क्यों कि नीतिमान् गुणों की प्राप्तिको सम्पत् और विपरीतको विपत्ति कहते हैं । इसी कारणसे हमारा पूज्य विमल घंशमें उत्पन्न राम वनमें आया है [पाण्डुराजसे उत्पन्न और अत्यन्त सहृदय युधिष्ठिर उनमें आया है] ॥१९॥
हे रावण ! तुम पटरानी मन्दोदरीसे अपने चित्तको हटाना चाहते हो। और भाई विभीषणके द्वारा कहे गये न्यायपूर्ण वचनोंको नहीं सुनते हो । आज भी तुम्हारा कोई कर्म पूर्ण रूपसे नहीं बिगड़ा है। जा करके अत्यन्त प्रभावशाली रामकी शरण ग्रहण करो [हे मन्द बुद्धि जरासंध ! क्या गुफामें जाकर दिन बितानेकी मनमें है? जो तुम न्यायोचित भीषण सत्य पर कान नहीं देते हो । आज भी.........."कृष्णको प्रणाम करो] ॥२०॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
त्रयोदशः सर्गः
२३९ सभ्रयुग्मं वैरविरुद्धं घटयन्नु स्विद्यन्क्रोधकाथितलावण्यरसो नु । रुद्धः स्थित्वाधोरणमुख्यैर्द्विरदो नु प्रोचे विष्णोरित्यरिरग्निं विवमन्नु ॥२२॥युग्मम् ।
द्विः। इत्युक्त सभ्रूभङ्गमिति-प्रोचे प्रकर्षणोक्तवान् , कः ? अरी रिपुः, कस्य ! विष्णोः लक्ष्मणस्य, रावण इत्यर्थः, कथम् ! इति वक्ष्यमाणापेक्षया, क सति ? अस्मिन्नुक्ते, कथम् ? इति उक्तप्रकारेण, किं कृत्वा ? पूर्व प्रापथ्य नीत्वा, कम् ? पादं चरणम् , के नीत्वा ? अहम् , कथं पादम् ? अपात्तम् आकृष्टम् , कस्मात् ? मणिपीठात् रत्नमयपादविष्टगत् , कथम्भूतः ? सव्यगतासिस्थितदृष्टिः सव्ये दक्षिणपावें गतः प्राप्तो योऽसिः खङ्गः तत्र स्थिता दृष्टिलोचनं यस्य सः, किं कुर्चन् ! न्यस्यन्नु आरोपयन इव, कम् ? इन्द्रियवर्ग पर्शगरसनप्राणश्रोत्रसंदोहम् , कयोबस्यन ! अक्षणोलोचनयोः, कथम्भृतमिन्द्रियवर्गम् ? सकलं समस्तम् , सकलशब्दात् मनसोऽपि ग्रहणम् , न शब्दोऽत्र इवार्थः । किं कुर्वन् ? गमयन्नु प्रापयन्निव, कम् ! कायं दारीरम् , काम् ! कोपविवृत्तिम् , कस्मात् ? क्षोभात् , नुशब्दोऽत्र विताभिधायकः, कि कुर्वन्नु ? घटयानु विरचयन्निव, किम् ? वैरविरुद्धं भ्रयुग्मम् , अत्र चैरवशाद् भ्रयुगलं ललाटशिखरं नयन्निति भावः । पुनः किं कुर्वन् ? स्विद्यन् स्वेदजलं मुञ्चन् , पुनः कथम्भूतः ? कोधकाथितलावण्यरसः कोपरिकलितलावपरसः, किं कृत्वा पूर्व प्रोचे ! स्थित्वा स्थितो भूत्वा, कथम्भूतः सन् १ अनुरुद्धः, कैः ? रणमुख्यैः मुभटैः क्षत्रियकुमारैः, कथम् ? अधः, किं कुर्वन् ? विवमन्नु उद्लिनिव, कम् ? अग्निम् , क इव अनुरुद्धः १ द्विरदो नु यथा गजेन्द्रोऽनुरुध्यते, कैः ? आधोरण मुख्यैः पस्तिपकाग्रणीभिः ।
भारतीये-प्रोचे, कः ? अरिः वासुदेवस्य जरासन्ध इत्यर्थः । इतिशब्दोऽत्र वक्ष्यमाणार्थसूचका, क सति प्रोचे ? अस्मिन्नुक्ते, कथम् ? इति उक्तप्रकारेण 1 दोपं पूर्ववत् ।।२२।।
प्राणान्कृत्वान्यत्र कथंचित्तव कायं केनाप्यन्येनाविशतैतद्यदि वोक्तम् । भाषा नैषा ते ननु मत्तस्य विलापं श्रुत्वा मद्यस्यैष न तस्येत्यविचार्यम् ॥२३॥
प्राणानिति-न स्यात् , का ! एपा भाषा, कस्य ? ते तव । यदि चेदुक्तम्, किम् ? एतत् , केन ! त्वया । वा अथवा उत्तम् , किम् ? एतत्, केन ? केनाप्यन्येन, केनचित्तवापरेण स्वामिना, किं कुर्वता सता ? आविशता प्रविशता, कम् ? कायं दारीरम् , कस्य ? तव, कथम् ? कथञ्चिन्महता कष्टेन, किं कृत्वा ? पूर्व कृत्या विधाय, कान् ! प्राणान् , क ! अन्यत्र, असून्विहायेत्यर्थः, युक्तमेतत् , सोपस्कारतया व्याख्यायते । ननु अहो अविचार्य स्यात् वचः, कस्य ? तस्य पुंसः यो व्रते, कथम् ? इति, न स्यात्, कः ? एष प्रलापः, कस्य ? मद्यस्येति, किं कृत्वा गूर्व ब्रूते ? श्रुत्वा आकर्य, कम् ? विलापं प्रलापम् , कस्य ? मत्तस्येति । अत्र तावत्तव स्वामी मदिरायते तदनुशीलनान्मत्तो भूत्वा त्वं यदृच्छया प्रब्रवीधीति भावः ॥२३॥
यद्यप्युक्तं दूतमवध्यं हृदि कृत्वा पत्युः पातश्चेतसि चिन्त्यः स तथापि । काकोलूकं क्रीडदरण्ये भयमुक्तं मत्वा गच्छेत्कस्तदजस्र शववित्रम् ॥२४॥
इस प्रकारसे दूत के द्वारा कहे जानेपर मणिमय चौकीपरसे उठाये गये पैरफो जाँघके ऊपर रखते हुए, दाँयी तरफ लटकती तलवारके ऊपर दृष्टि डालते हुए, समस्त इन्द्रियोंके समूहको केवल दोनों आँस्त्रों में ढालते हुए, क्षोभके कारण पूरे शरीरमें क्रोधका पूर फैलाते हुए, दोनों भृकुटियोंको वैरके कारण वक्र करते हुए, क्रोधकी अग्निमें पके लावण्यके रसके समान पसीनेसे युक्त, प्रधानांके द्वारा शुद्धसे रोके गये अतएव आवेशमें नीची गर्दन किये बैठे (प्रधान महावतोंके द्वारा वशमें किये गये) हाथीके समान राम तथा कृष्णके शत्रु रावण-जरासंधने आगको उगलनेके समान कठोर वचन कहे थे ॥२१-२२॥
किसी प्रकार अपने प्राणोंको कहीं छिपाकर तुम्हारे शरीरमें प्रवेश पाये किसी दूसरे ने यह सब कहा है यह तुम्हारी भाषा नहीं है। यदि उस मत्तकी बोली सुनकर यह कहा गया है तो मदिराका विकार होनेके कारण यह अविचारणीय ही है ।।२३।।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
यदीति यद्यपीदमुक्तम्, अनेन तथापि चिन्त्यः कः १ स पातो विनाशः कस्य ? पत्युः स्वामिनः, क चिन्त्यः १ चेतसि मनसि किं कृत्वा पूर्व चिन्त्यः १ कृत्वा विधाय, कम् ? दूतम्, कथम्भूतम् ? अवध्यम्, क ? हृदि हृदये, युक्तमेतत् कः ? गच्छेत् अपितु न कोऽपि किम् ? तदरण्यम्, कथम्भूतम् ? शवविसं कुथितमृतकपूतिगन्धव्याप्तम् कि कृत्वा ? पूर्व मत्वा ज्ञात्वा, किम् ? काकोलूक काका उदकाश्च काकोदकम् कुर्वन् ? क्रीडन्, क ? यस्मिन्नरण्ये, कथम्भूतं सत् १ भयमुक्तं निर्भयम्, कथम् ? अजलम् अनवरतमिति । अत्र तावत्वत्स्वामी शायते, पूतिगन्धवत्त जनितोह मिति प्रत्ययवशात्वयापि काकोलूकायितम् । अतएव महच्छायपिनि कोपः सतामनुचित इति भावः ॥ २४ ॥
न न्यूनानां भीतिरन्नादिति तस्मात्तत्किं नान्येषामपि मान्याद्भयमस्ति । भृङ्गस्याङ्गक्षोभसहीऽन्यं मदमुज्झन्सर्वाङ्गीणं मुञ्चति हस्ती
महत्वा || २५ |
२४०
नेति नास्ति, का ? भीतिः, केपाम् ? न्यूनानां बलहीनानाम्, कस्मात् ? अनूनात् अधिकचात्, कथम् ? ति देतीः तद्भयं किं नास्ति ? अपि त्वस्त्येव केषाम् ? अन्येगमपि समबलानामपि कस्मात् तस्मात् अनूनान् समस्तानां जनानां मान्यात् पृज्यात्, युक्तमेतत्, कि मुञ्चति परित्यजांत ? अपितु न, कः ? इस्ती दन्ती, कम् ? अन्यं प्राणिनम् किं कृत्या ! पूर्वभू अहत्वा प्राणव्ययीकृत्य अन्यं प्राणिनं हत्वा मुञ्चतीत्यर्थः । किं कुर्वन् ? सर्वाङ्गीणं मदम् उञ्झन्, पुनः कथम्भूतः ? भृङ्गस्य भ्रमरस्य अङ्गभोमसहः || २५॥ योऽलङ्कमणोऽपि स एवं न विवक्षुर्नूनं कालत्राकृतकायस्तव नाथः । स्वामिस्थानीयेन चिरुद्धः स मयामा भूभेरन्तर्गच्छति भीरुः किमिदानीम् ||२६||
|
य इति न स्यात् कः १ स प्राणी, कथम्भूतः ? विचक्षुः वछुमिच्छुः कथम् ? एवं प्रकारेण यः प्राणी स्यात् कथम्भूतोऽपि ? अलकमणोऽपि अङ्कः सर्वकार्यसमर्थोऽपीत्यर्थः । नृनमिति शब्दो निश्चयार्थाभिधायक उत्प्रेक्षा भित्राकोऽप्यस्ति द्वयोरपि ग्रहणम् । इदानीं राम्प्रति किं गच्छति ? कः ? स नाथः स्वामी, कम् ? अन्तर्मध्यम्, कस्याः १ भूमेः पृथ्व्याः कस्य नाथः ? तव कथम्भूतः सन् ? मयामा खाखे त्रिरुद्धः विपरीतः पुनः भीरुत्रन्तः पुनः कालत्राकृतः कालायान्तकाय देयः निहितः कायः शरीरं येन स तथोक्तः, अत्र " देये वा " [ ० ३/४/६२ ] इति प्रत्ययः केन सह ? स्वामिस्थानीयेन स्वपरिवारसमृद्देनेति' ||२६||
श्रुत्वा भग्नान्दूत विचेतीकृतवृत्तीन्नाज्ञासीद्वा संप्रति जातो यदिवासी ।
कस्मिन्कोऽयं केशवनामा पतितः किं न प्रस्तीमे मज्जति युद्धेऽसृजि बालः ||२७||
श्रुत्वेति दूत स भवस्वामी रणरमणे विन्सीकृतवृत्तीन् हेयोपादेय विवेक विकलान् स्वपरसामर्थ्यपरिज्ञानशून्यानित्यर्थः । विपक्षान् भग्नान् श्रुत्वा न अज्ञासोत् न प्रतिबुद्धः, यदि वा संप्रति जातोऽसौ कस्मिन्निति
यद्यपि दूत अवध्य होता है तथापि उसके कथनको मनमें रखकर उसके स्वामीके विनाशका पूर्ण चित्तसे विचार करना ही चाहिये। क्योंकि जहाँ काक और उल्लू खेलते हॉ तथा सर्वत्र शव तथा पीप व्याप्त हो उस वनमें कौन व्यक्ति निडर होकर जायगा ॥ २४ ॥
तुच्छोंको महापुरुषोंसे भय नहीं रहता इसीलिए क्या दूसरों ( समान या शत्रु ) को भी मान्य पुरुषोंसे नहीं डरना चाहिये ! सारे शरीर से भदजलको बहाना तथा भोरोंकी रेलपेलको भी सहता हुआ हाथी दूसरे अवज्ञाकारीको बिना सारे छोड़ता है ? ॥२५॥
जो तुम्हारा स्वामी सब कार्य करने में समर्थ है वह इस प्रकारसे बोलकर निश्चित ही अपना शरीर कालकी बलि बनाता है। उसके स्वामी होने योग्य मेरे साथ विरोध करके वह भीरु अब देखते-देखते ही पृथ्वीसे समाप्त हो जायगा ॥ २६ ॥
हे दूत ! मेरे प्रहारों से मूर्च्छित किये गये तथा सर्वथा उन्मूलित शत्रुओं की कथा सुनकर भी तुम्हारे स्वामीने मुझे नहीं जाना है । अथवा यदि यह अभी उत्पन्न हुआ है तो कहाँ ?
१. रामस्य कृष्णस्य वा प्रभुप्रभविष्णुना स्वामितुल्येन वेति रुचिरतरोऽर्थः ।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रयोदशः सर्गः
२४१ प्रश्ने ? कोऽयं केशवनामा, अथवा किन्न मन्जति बुडति स बालः, क १ असृजि रुधिरे, कथम्भूते ? प्रस्तीमे द्रवीभूते, कथम्भूतः सन् ? युद्धे रणे पतितः ॥२७॥
स व्यात्युक्षी नाडिविमुक्तै रुधिरौपैरन्त्रसम्भिर्व्यत्यमिताडीमपशब्दैः । कृत्वा व्याक्रोशी च यमस्य द्विजदोलामिच्छत्यारुह्यायमकालेऽपि वसन्तम् ॥२८॥
स इति-सोऽयं भवत्स्वामी अकालेऽपि अप्रस्तावेऽपि यमस्य कृतान्तस्य द्विजदोलां दंष्ट्रान्तरालदोलाम् आम च्छति, कम् ? वसन्तम्', कि कृत्वा ! पूरा , म ! यारयुक्षी परस्परासेचनम् , कैः कृत्वा ! मधिरौघैः, कथम्भूतैः १ नाद्वियिमुस्तैः धमनीनिःसृतैः तथा कृत्वा, काम् ? व्यत्यभिताडीम् अन्योन्यहननम् , फाभिः कृत्वा ? अन्त्रसम्मिः अन्त्रमालाभिः, तथा च कृत्वा, काम् ? व्याक्रोशी परस्पराभिशपनम् , कैः कृत्वा ! अपशब्दैरिति ॥२८॥ इति स मरुतः शक्त्यास्तोकं (क:) पदं पृथुसंपदः
शमनिरतया वृत्या श्रेयस्तरां स्वपतेः श्रियम् । परिणमयितुं तोऽवोचत्प्रसह्य रिपुक्षिपां
स न हि सचिवः स्वामिस्वार्थ भनक्ति भरेषु यः ॥२९॥ इतीति-द्वि० स मरुतः वायोस्तोकः पुत्रो हनूमान् दूतः अवोचत्, किं कर्तुम् ? स्वपतेः स्वस्वामिनो रामस्य श्रेयस्तरां कल्याणवी श्रियं लक्ष्मी परिणमयितुं वर्द्धयितुम् , किं कृत्वा ? पूर्व प्रसा, काम् ? रिपुक्षिपां शत्रोरविश्पम् , कया ? शमनिरतया उपशमसक्तया वृत्त्या, कथम् ? इति उसप्रकारेण, पुनः कथम्भूतः १ पदं स्थानम्, कस्याः ? शक्त्याः सामर्थ्यस्य, कथम्भूतायाः शक्त्याः १ पृथुसंपदः पृथ्वी संपत् यस्याः सकाशात् तस्याः, युक्तमेतत् , हि स्फुटं स सचिवो न स्यात् यः स्वामिस्वार्थं भनक्ति, केषु सत्सु ! भरेषु, केषाम् । शत्रूणां दुर्वचमामित्यध्याहार्य पदमिति ।
भारतीयपशे-समस्तः समं रुतं यस्य स तथोक्तः उच्चनीचयोः परित्यागेन हृदयङ्गमवचनः पुनः शक्त्या स्वबलेन अस्तोकः पुटः पुनः संपदः पृथु गरिष्टं पदम् | अन्यत् समम् ॥२९॥
दशाननोद्दीपनमात्रहेतोस्तत्सजरासंधरयाहतस्य ।
दीपस्य गेहे स्फरतस्तवापि स्नेहच्युतस्य ज्वलनं कियद्वा ॥३०॥ दशेति-हे दशानन हे रावण, वाऽत्रावधारणार्थ:, कियत् कियत्कालमेव तज्ज्वलनं स्यात् , कस्य ? यह केशव नामका कौन है ? क्या यह बाल (मूर्ख ) यहते हुए युद्ध के रुधिरमें गिरकर डूब नहीं जायगा ॥२७॥
नाडियोंसे निकले रुधिरपूरकी होली, आंतोंरूपी मालाओंकी छीना झपटी तथा अपशब्दोंकी वकझक करके असमयमें ही यमके दांतोरूपी झूलेपर चढ़कर तुम्हारा स्वामी वसन्त मनाना चाहता है [वसन्तोत्सबमें पिचकारीसे रंग फेंका जाता है, मालाओंसे एक दूसरेको मारा जाता है, गालियां देते हैं और झूला झूलते हैं ] ॥२८॥
इस प्रकारके शत्रुके आक्षेपोंको अत्यन्त शान्तिनिष्ठ स्वभावके द्वारा सहन करके पवनञ्जयके पुत्र और अपनी सामर्थ्य के कारण विशाल राज्यलक्ष्मीके पात्र हनुमानने अपने स्वामी रामकी [स्थपतेः] कल्याणकारी समाप्तिके विकासके लिए उत्तर दिया था। क्योंकि वह सच्चा सचिव नहीं है जो शत्रुके दवावमें अपने स्वामीके स्वार्थको भूल जाय। [अथवा एक सदृश मिष्टभाषी, अपने बलसे विशाल तथा विशाल सम्पत्तिके स्वामी दूतने अपने स्वामी कृष्णकी...] ॥२९॥
हे रावण ? शत्रुको उत्तेजित करनेमै समर्थ, पृथ्वीके द्वारा अनाहत फलतः स्नेहसे १.हरिणीवराम् ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
Key
२४२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
दीपस्य, तथा तवापि, कथम्भूतस्य तब १ स्नेहच्युतस्य प्रीतिरहितस्य नितरां कठोरह्दयस्येत्यर्थः । किं कुर्वतः सतः ? स्फुरतः विजृम्भमाणस्य, क ? गेहे मन्दिरे, कथाभूतस्य १ आइतस्य व्यापारितस्य, कया १ घरया भूम्या, सज्जरासम् इति क्रियाविशेषणं सीदति फ्लेशं करोतीति "सत्सु द्विषः" [जै० सू० २१३।५९] इति किप् , सद् द्वेषः, रायतीति र: “भातः कः" [जै० सू० २।२।३ ] रः शब्दः, असनम् आसः, सदो जातः सज्जः, सज्न३चासौ रश्च सज्जरः, सज्जरस्य आसो यत्र ज्वलनकर्मणि तत् राज्जरासं रोपप्रभवशब्दाक्षेपम् , पुनरपि कथम्भूतस्य ? उद्दीपनमात्रहेतोः उद्दीपनमात्रमेव हेतुर्यस्य तस्य दैवबिजम्भणमात्रकारणस्येत्यर्थः । दीपस्य कथम्भूतस्य ? स्नेहच्युतस्य तैलरहितस्य, किं कुर्वतः ? कुरतः, छ ? गेहे, पुनः कथम्भूतस्य ? सज्जरासंधराहतस्य जराया अस्तोन्मुखताया मन्दतेजखां परिणतेः आसन्धः आ सामस्त्येन योगो यस्य स जरासन्धः जरासन्धश्चासौ रयश्च जरासन्धरयः, सन् सत्तामात्रः, संश्चासौ जरासन्धरयश्च सज्जरासन्धरयः, सज्जरासन्धरयेण आहतः सज्जरासन्धरयाहतस्तस्य तयोतसा तेलक्षयवशाच्छिवाप्रकम्पवद्वेगेन कटाश्चितस्वेत्यर्थः, पुनः दशाननोद्दीपनमात्रहेतोः वर्तिकामुखे प्रज्वलनमात्रतोरिति ।
भारतीये-हे जरासन्ध कंसमातुल, किया कियत् कालमेव तत्सत्रामीचीनं ज्वलनं निरवद्यतया विजम्भणं स्यात् , कस्य ? दीपस्य तवापि, किं कुर्वतः १ स्फुरतः, छ ! गेहे, कथम्भूतस्य १ स्नेहच्युतस्य पुनः स्याहतस्य आतुरवृत्त्या सविक्षेपमूर्तेः, पुनः दशाननोद्दीपनमात्रहेतो दैवावस्थायां प्रथमप्रारम्भे विजृम्भणमात्रकारणस्येत्यर्थः । दीपस्य विशेषणानि प्राग्वत् ॥३०॥
अपि दूरमपैयती प्रदेशं यदि वा विश्रमितुं त्वयि स्थिता।
न वधू वरलिप्सया वजन्तीमिव लक्ष्मीमवरोद्धमर्हसि त्वम् ॥३१॥ अपीति-यदि वा स्थिता ? का १ वधूः, कि कत्तम् । विभिनु श्रम स्फोटयितुम्, क ! त्वयि विषये, कि कुर्वती सती १ अपैष्यती अतिक्रमिष्यती, कम् ? प्रदेशम्, कथम्भूतम् ! दूरमपि, तर्हि नार्हसि न योग्यो भवसि, कः १ स्वम्, किं कत्तुम् ? अवरो नियन्त्रयितुम् , काम् ! तां वधू सांताम्, पाम् ? लक्ष्मीम् , रूपकमेतत् , किं कुर्वन्ती १ वजन्ती, कयेव ? वरलिप्स्या इव रामं प्राप्तुमिव ।
भारतीयः यदि वा स्थिता, का ? लक्ष्मीः, किं कम् ? विश्रमितुम् , क ? त्वयि, किं कुर्वती सती ? अपैयती, कम् । प्रदेशम् कथम्भूतमपि १ दूरमपि, तर्हि नाईसि, कः १ त्यम् , किं कत्तुम् ? अवरोद्धुम्, काम् १ तां लक्ष्मीम्, किं कुर्वन्तीम् ? वजन्तीम्, कया १ वरलिप्सया नारायणं माप्तुमिच्छया, कामिव वजन्तीम् । वधूमिव ॥३१॥ वंचित और अपने ही घरमें माननीय तुम्हारा । सत्य पक्षकी जीर्णताका मूलाधार यह क्रोधका आवेग [स्पष्ट निर्वाणके लक्षणों और वेगसे युक्त, तेलहीन, केवल वर्तिकामें जलते तथा भभकते ] दीपकके समान कबतक चलेगा ?
अन्वय-जरासंघ ! दशाननोद्दीपनमानहेतोः रयासस्य गेहे स्फुरतः स्नेहच्युतस्य तव दीपस्य वा सत् ज्वलनं क्रियद्वा!
हे कंसके मामा जरासंध ! भाग्यकी प्रारम्भिक अवस्थाके कारण प्रकर्षको प्राप्त, किन्तु आतुरतासे विक्षिप्त, अपने ही भवनमें दिखाई देती और प्रजाके प्रेमसे वंचित तुम्हारी यह वृद्धि अब कितने दिन चलेगी ॥३०॥
यद्यपि इस समय तुम्हारे श्रमको व्यर्थ करनेके लिए यहाँ रुकी हुई है तथापि रामफी वधू सीता दूर देशको जायगी ही । अतएव अपने घर रामसे मिलनेकी इच्छासे जाती हुई इस लक्ष्मीके समान वधूको अपने अन्तःपुरमें ले जाना तुम्हें उचित नहीं है [हे जरासंध ! यदि राज्यलक्ष्मी विश्राम करनेके लिए आज तुम्हारे पास रुकी है तथापि दूर प्रदेशको जायगी ही। घर कृष्णकी प्राप्ति के लिए जाती हुई इस बधूके समान लक्ष्मीको रोकना तुम्हें शोभा नहीं देता है ] ॥३१॥
1, उपजातिः वृत्तम् ।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४३
त्रयोदशः सर्गः उक्त न पौनःपुनिकेन किं वा वेलामिवोर्वी प्रलयाम्बुराशेः ।
चमू विकर्षन्तमवेक्षमाणः स्वमे हरिं पश्यसि तं समक्षम् ॥३२॥ उत्तनेति-वा अथवा किं प्रयोजनम् , केन ! पौनापुनिकेन उक्तेन पुनः पुनर्भवेन द्विरुक्तेनेत्यर्थः, पश्यसि, कः १ त्वम् , कम् ? तं हरिं लक्ष्मण समक्षमिति क्रियाविशेषणं प्रत्यक्षं यथा भवतीत्यर्थः, किं कुर्वाणस्त्वम् ? अवेक्षमाणः अवलोकमानः, कम् ? हरि लक्ष्मणं नारायणं च, छ ? स्वग्ने, किं कुर्वन्तम् ? विकर्षन्तम् , काम् ! चमू सेनाम् , कथम्भूताम् ? उनी गरिष्ठाम् , कामिव १ प्रल्याम्बुराशेर्वेलागिव । उभयत्र सममन्यत् ॥३२॥
समातुलानीतनयैः स्वबन्धुभिः प्रभो जयत्येष निहत्य ते बलम् ।
समेध्यलारचितं परस्तव स्थिरं मनश्चेत्कुरूदेशमीशिता ॥३३॥ ___ समेति-हे प्रभो जयति, कः ? एप लक्ष्मणः, किं कृत्वा ? स्वबन्धुभिः विभीषणादिभिरात्मयान्धवैः सह ते तव बलं सैन्यं निहत्य, कथम्भूतैः ? समातुलानीतनयैः साधारणतया निरुपद्रवतया च सर्चासां प्रजानां प्रतिपालकत्वात्समं यथा भवति तथा शत्रुभिर्न तुल्यत्वेनोपमीयते इत्यनुलं यथा सममतुलम् आनीतो निश्चितो नयो यैस्ते समातुलानीतनयास्तैस्तथोक्तः, हे मेध्य पवित्र ! चेद्यदि ईशिता ऐश्वर्वेणानुभविष्यति, कः ? स लक्ष्मणः, कम् ? देश जनपदम् , कथम् ? पुरोऽमतः, कस्य १ तव, तदा कुरु विधेदि, किम् ? मनश्चेतः, कथम्भूतम् ! स्थिरं निश्चलम् , पुनः कथम्भूतं सत् ! लङ्कारचितं लङ्कायों मन्दमन्दवातवशादोलायमानः शुभ्रांशुकोपलक्षितध्वजै रत्नमयैस्तोरणवद्भिः प्रासादैरनन्यशोमो मासा ममेयं पुरीति कृत्या विहितं मनः स्थिरं कुर्विति भावः ।
भारतीयः-प्रभोजयति ग्रासयति, कः ? एष नारायणः, किम् ! बलं सैन्यम् , कस्य ! ते तव, कैः कृत्वा ? स्वबन्धुभिर्वलभद्रादिभिरात्मबान्धवैः, कथम्भूतैः १ समातुलानीतनयः मातुलानीपुत्राः युधिष्ठिरादयः तत्सहितः, किं कृत्वा पूर्व प्रभोजयति ? निहत्य प्रध्वंस्य तथा ईशिता, कः ? स चक्रपाणिः, कम् ! कुम्देशं कुरुजाङ्गलनामधेयं जनपदम् , चेदस्ति, किम् ? मनः, कयम्भूतम् ! स्थिरम् , कस्य ? तब भवतः, कथम्भूतं सत् ! कारचितं कारः कामचारः, तेन चितं पुष्टम् , कथम् ? अलमत्यर्थम् , तदा समेधि सम्यक् प्रकारेण भव, पुरः पुरत इति ॥३३॥ नयस्यावद्यस्य व्यपनयमुखेन स्तुतिकृती
जनस्यापि शान्तिर्भवति वसतिस्तस्य भविता । कथंकारं ग्रीडा पतसि पतिदेवत्यचरिते
सुरापाने मौनव्रतमिव तदेतत्प्रहसनम् ॥३४॥ नेति-भवति जायते, का ? शान्तिः क्षमा, कस्य । जनस्यापि, कत्यां सत्याम् ! स्तुतिकृतौ स्तवन
बार-बार कहने से क्या लाभ है ? प्रलयकालके समुद्रकी घेलाके समान विनाशक विशाल सेनाको बढ़ाते हुए हरिको स्वप्नमें देखते हुए तुम अब उनको साक्षात् सामने देखोगे॥३२॥
लक्ष्मणके समान निरुपम तथा नीतिमार्गके प्रतिपालक अपने साथियों के द्वारा यह तुम्हारे ऐसे प्रभुकी सेनाका संहार करके विजय प्राप्त करेगा। यदि वह तुम्हारे सामने ही इस देशका स्वामी होनेवाला है तो हे बलि (मेध्य ) भूत ! लंकामें आसक्त अपने मनको स्थिर करो [बलभद्रादि भाइयों और पाण्डवादि मामाके पुत्रों द्वारा कृष्ण; अपनेको प्रभु मानने वाले तुम्हारी सेनाको काटकर विजय प्राप्त करेगा और कुरुजांगल देशका स्वामी बनेगा। यदि अत्यन्त मनमानी करनेसे ढीठ तुम्हारा मन स्थिर है तो उसके सामने बढ़ो] ॥३३॥
निराकरण करनेके रूपसे पापाचरणमें लीन लोगोंकी चर्चा करनेपर भी सुननेवालोंको १. उपजातिः वृत्तम् । २. शस्थवृत्तम् ।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
निरधानाधाममा क्रियायाम् , केन कृत्वा स्तुतिकृतिः स्यात् ! व्यपनयमुखेन निराकरणद्वारेण, करय व्यपनयमुखेन ? नयस्य, कथम्भूतस्य ? अवद्यस्यावद्यबहुलत्यादवद्यस्तस्यावद्यस्य प्रचुरपापोत्पत्तिकारणस्येत्यर्थः । भविता भविष्यति, पतिदेवत्यचरिते ब्रीडां विहाय [पतिदेवत्यचरिते] पतसि चेत्तदेतत्प्रइसनं स्यात् तब, किमिव ? सुरापाने सुरास्वादने मौनिव्रतमिव इति ॥३४॥
अन्तर्बहिः संप्रति कालरात्रौं तवोद्यतायां हरिशस्त्रपातः ।
लब्धश्चिरस्येति तनोतु तिर्यग् ज्योत्स्नामकालेऽपि यमाट्टहासः ॥३५॥
अन्तरिति-तनोतु, कोऽसौ ? यमाहासः, काम् ? ज्योत्स्नाम् , छ ? अकालेऽपि अप्रस्तावेऽपि, कयम् ? तिरीक्, कथम्भूतः सन् ! लल्धः, कथम् ? चिरस्येति चिरेणेतिकालेन, कैः कृत्वा लब्धः । हरिशस्त्रपातैः लक्ष्मणमुक्तमार्गणगणैः, कस्यां सत्याम् ? कालरात्री, कथम्भूतायाम् ? उग्रताया गुत्पन्नायाम् , कस्व १ तब, कथम् ? अन्तर्बहिः, कथम् ? संप्रति साम्प्रतमेव ।। भारते-हरिशब्देन नारायणः ॥३५।। । इत्युक्त्वासौ तस्य विरागं प्रकृतीनां
नानाभापावेषलिपिज्ञैरवसपैः । ज्ञात्वा हस्तकृत्य समस्तं पुरिकृत्यं
तस्याः पारं प्राप्य च रम्यं वनमागात् ॥३६॥ इतीति नानाभाषावषलिपिः नानाभाषाः करपल्लव्यादयः, मानायेषाः कौलिकभौतिकाद्याकाराः; नामालिपयः कार्णाटकद्रमिलान्धागवङ्गदेशोद्भववर्णानां पङ्क्तया विन्यासाः ; नानावेयाश्च भाषाश्च लिपयश्च नानाभाषाघेपलिपयः ताः जानन्ति तैः, तस्य रावणस्य प्रकृतीनां स्वाम्यमात्यादीनां सङ्घानां विरागं च विशिष्टमनुरागं ज्ञात्वा इति पूर्वोक्तप्रकारेण उक्त्वा च पुरि लङ्कायां समस्तं निखिलं कृत्यं करणीयं हस्तकृत्य स्वाधीनं विधाय तस्या लङ्कायाः पारं पर्यन्तं प्राप्य असौ इनूमान् रम्यं पल्लवितकुसुमितफलितविविधवनस्पतिशाखान्तरोपविष्टमत्तमयूरकोकिलालापसुन्दरं वनमागादागतवान् ।। भारतीये-असौ दतः । तस्य जरासन्धस्य । तस्याः राजगृहनगर्याः। शेष समम ॥३६॥
उपवनयभिरामवल्लभां स वनजनेत्ररुचि निरूपयन् ।
स्वपतिगुणविशेषरञ्जितामुपलभते स्म सतीं वचोहरः ॥३७॥ उपवनमिति-स वचोहरो हनूमान् रामवल्लभां नानकीम् उपलभते स्म ददर्श, कथम्भूताम् ? वनजने. शान्ति हो जाती है तथा अनीतिमान्का निर्वाह हो जाता है किन्तु लोकलाज छोड़कर यदि देवता स्वरूप नृपति ही अनाचरण करने लगें तो फैसे चलेगा । उस अवस्थामें तुम्हारा यह हँसना मदिरा पीकर मौनत्रत धारण करनेके समान है ॥३४॥
हरि लक्ष्मण अथवा कृष्णजीके सतत शस्त्र प्रहारके द्वारा अब तुम्हारे अन्तरंग और बाहर, दोनों में ही कालरात्रि फैल जानेपर बहुत समय बाद आया यमका अट्टहास ही असमयमें बिजलीका प्रकाश करे ॥३५॥
इस प्रकारसे रावण अथवा जरासंधको कहकर तथा विविध भाषाओं, वेषों और लिपियोंके शाता गुप्तचरों द्वारा उसकी प्रजाकी उदासीनता अनवा विमुखताको भांपकर अपने पूरे कर्तव्यको मुट्ठी में करके उस दूतने लंका अथवा राजगृह नगरके एक किनारे जाकर सुन्दर घनमें प्रवेश किया था ॥३६॥
इस वनके आसपास सर्वत्र देखते हुए उस निर्भय दूत हनुमानने कमलके समान सुन्दर १. शिखरिणीवृत्तम् । २. वंशस्थवृत्तम् । ३. मत्तमयूरवृत्तम् ।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रयोदशः सर्गः भूपचिं वनजस्येव नेत्रयो रुचिर्यस्याः सा तां कमलदललोचनामित्यर्थः, पुनः स्वपतिगुणविशेषरञ्जिताम् स्वपतेगुणविशेषाः शौर्यादयस्तै रञ्जिता रामस्य गुणैराह्लादितामित्यर्थः, पुनः सती , किं कुर्वन्नुपलेभे ? अभिनिर्भय यथा उपवनं निरूपयन्नवलोकमानः ।
भारतीगः-२ अभिरा श्रेति स बचोदरः श्रीशैलनामा दूतः काचिद्वल्लभां कामिनीम् , उपलभते स्म निरीक्षा चक्रे, कथम्भूताम् ? वनजनेत्ररुचिम् ? वनजमिव नेत्रे वनज नेत्रे तयो निर्यस्यास्ताम् , आकर्णान्तविश्रान्त. नेत्रां पुनः स्वपतिगुणविशेपरञ्जितां चक्रवत्तिगुणविशेषैरानन्दितां, पुनः सतीम् अतिरामीचीनाम् अङ्केयूपानेषु च सम्पूर्णलक्षणोपल्लक्षितापित्यर्थः । किं कुर्वन् ? उपचनं निरूपयन् । अन्यत्तुल्यम् ॥३७॥
पथिपथि परिरक्षतो दिगन्तान्दशमुखरागवतो वनान्तपालान् ।
उपशमफलया स विद्यया तां नयविदवोचन मोहयन्नितीदम् ॥३८॥ पथीति-नयवित् नीतिशः स वचोहरो हनूमान् इदमेतत् इति वक्ष्यमाणप्रकारेण तां सीताम् अयोचत् उक्तवान् , किं कुर्वन् ? वनान्तपालान् वनमाल्यादीन् उद्यानपालकान् उपशमपल्या उपशम एव पलं यस्याः सकाशात्तया विद्यया मोइयन् मोहं नयन् , कथम्भूतान् ? दशमुखरागवतः दशमुखे रागो विद्यते येभ्य (येषां) ते तान् रावणानुरागिणः पुनः पथिपथि दिगन्तान् दिशां सीम्नः परिरक्षतः।
भारतीये-स वचोहरः तां कामिनीम् अवोचत् , कथाभूतः ? नयवित् व्यवहारमार्गप्रवीणः, कथाभूतान वनान्तपालकान् ? दश दशसंख्योपेतान् पुनः मुखरागवतः सुखेष्वारक्तिमानं दधाना नित्यर्थः ॥३८॥
तवैव संदर्शनसंकथाः कथास्त्वयि प्रसक्ताः श्रुतयो दिवानिशम् ।
त्वयैव वाञ्छाः सहवासतत्परा विना त्वदुर्वीपतिरुन्मनायते ॥३९॥ तवेति-तवैव कथाः वार्ताः प्रवर्तन्ते, कथम्भूताः ? सन्दर्शनसंकथाः, सन्दर्शनं संकथयन्तीति ताः भवलोकनसूचिन्य इत्यर्थः तथैव त्वयि प्रसक्ताः स्वत्सम्बन्धविषयाः श्रुतयः आकर्णनानि प्रवर्त्तन्ते । तथा त्वयैव सइवासतत्पराः एकत्रावस्थानसम्बन्धिन्यो वाम्छाः दिनानिशं यथा तथा प्रवर्त्तन्ते स्वद्विना त्वया विना उर्वीपतिः रामः उन्मनायते खेदमनुभवति भारतीये-उर्वीपत्तिर्गरहध्वजः । शेष सुगमम् । ॥३९॥
सुनिचितमपि शून्यमाभासते परिजनविभवोऽपि सेकाकिता।
अरुचिरभवदस्य लक्ष्मीमुखे त्वदनभिगमनेन रिक्तं मनः ॥४०॥ नेत्रवती और अपने पति रामके विशेष गुणोंकी स्मृति में प्रसन्न रामकी प्राणप्यारी सती सीताको देखा था [हे अभिराम श्रेणिक ! राजगृहके घनको देखते हुए उस श्रीशैल दूतने कमलनयनी, सती और द्वारकाधीश कृष्णके गुणोंपर मुग्ध सुन्दरीको देखा था] ॥३७॥
प्रत्येक मार्गपर दशों दिशाओंसे रक्षामें निरत रावणपर अनुरक्त धनके रक्षकोंको निष्क्रिय करनेवाली विद्यासे मूर्छित करके नीतिशास्त्रके पण्डित हनुमानने सीताजीसे यह कहा था [ दशौ दिशाओंसे आगत प्रत्येक वर्गकी रक्षामें नियुक्त ऊपरसे ही जरासंधके भक यनरक्षकोंको शान्त करने में समर्थ अपनी कुशलतासे वशमें करके उस व्यवहारज्ञ श्रीशैलने उस कृष्णपर मुग्ध नायिकासे कहा था ] ॥३८॥
तुम्हारे देखनेका वर्णन करनेवाली ही कथाएँ होती है, दिन-रात तुम्हारे सम्बन्धकी ही चर्चाएँ सुनता है और तुम्हारे सहयासकी ही कामना करता है तथा हे सती ! पृथ्वीपति राम अथवा कृष्ण तुम्हारे विना उदास रहते हैं ॥३९॥
1. चक्रपाणि:-प. ६.१.२. अपरचक्नम् वृत्तम् तल्लक्षण-"अयुजि ननरका गुरुः समेन जमपरषस्त्रमिदं ततो जरौ।" [इ. र. १५] | ३. पुष्पित्ताग्रावृत्तम् । ५. वंशस्थवृत्तम् ।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सुनिधानं
सभासते वस्तु वृत्त्या न तु शून्यम्, कथम्भूतमपि १ सुनिचितमपि संभृतमपि, तथा साप्येका किताऽऽमासते यः परिजनविभवः परिवारजनसम्पत्, तथा अभवत् का ? अरुचिरप्रीतिः, क ? लक्ष्मीमुखे, कस्य १ अस्य नरपतेः रिक्तं मनो वर्त्तते, केन ! त्वदनभिगमनेन तवानभिगमनेन त्वया सह सम्भोगव्यापारमन्तरेणेत्यर्थः ॥ ४० ॥
૨૯
अनुरहसमुपैति मन्त्र मुहुः परमपि परिवृत्त्य नाथेत सः ।
असुषु वसुषु च व्ययं व्यश्नुते सपदि तब कृते न किं तत्कृतम् ॥४१॥
अन्विति-उपैति प्राप्नोति कः १ स रामः, कम् १ मन्त्रं गुप्तभाषणम्, कथम् ! अनुरहसम् एकान्ते जनकोलोज्झिते प्रदेशेऽपीत्यर्थः । तथा नाथेत याचेत अनेन मार्गेण गच्छन्ती मत्तमतङ्गजगामिनी मन्मनोहारिणी मैथिली भवद्भिर्हष्श न वेति पृच्छेदित्यर्थः, कम् ? हरं मार्गगामिनं जनम, अपिशब्दात् अत्र भेरुण्डविहङ्गमचकाङ्गचकोरसर्पत्सर्पादीनां ग्रहणम् । किं कृत्वा पूर्व नाथेत ? परिवृत्य, कथम् ? मुहुर्वारंवारम्, तथाचोक्तं- "भो भो भुजङ्ग तरुपल्ल पलोलजिह्न बन्धूकपुष्पदकसन्निभलोहिताक्ष । पृच्छामि ते पवनभोजन कोमलाङ्गी काया शरविन्दुमुखी न दृष्टा ॥" तथा व्यस्नुते कः १ स रामः, कम् ? व्ययम्, केषु ? असुषु प्राणेषु वसुषु च द्रव्येषु कथम् ? सपदि शीघ्रम्, हे सुन्दरि अनेन प्रकारेण तत् किं न कृतम् अपितु सर्वभेव कृतम्, कथम् ? कृते निमित्ते कस्य ? तवेति ।
भारतपश्चे स नरेन्द्रः । परमपि इतरमपि जनम् | शेषं सुगमम् ||४१||
सुहृदयमसुदेयं प्रेम मेऽन्योन्ययोगात्सहजमुपकरिष्यत्यायतं हन्त यस्मिन् । स्वयमुपनयमानं तत्कदाभावितादृग्दिनमनुदिनमेवं ध्यायति त्वां नरेन्द्रः ॥४२॥
सुहृदयमिति-दन्त अहो तद्दिनं कदा कस्मिन् काले भाषि भविष्यति कथम् ? ताहक तादृशं पुनः उपनयनमानं प्रढौकमानम्, कथम् १ स्वयमात्मना यस्मिन् दिने उपकरिष्यति किं कर्म ? सुहृदयं कर्म, किम् ? प्रेम, मे मम, कस्मात् ? अन्योन्ययोगात् परस्पर सम्बम्धात् कथम्भूतं प्रेम ? असुदेवम् असवः प्राणा देया यत्र तत्तथोक्तम्, पुनः कथम्भूतम् ? सहजं नैसर्गिकं पुनः आयतं दीर्घम् एवमुक्तप्रकारेण नरेन्द्रो रामः त्वां ध्यायति स्मरति कथम् ? अनुदिनं प्रतिदिनम्। भारतपश्चे - नरेन्द्रो विष्णुः | शेषं सुगमम् ॥४२॥
af विष्णोरथस्यमय धीरकाकुस्थनादां
नागैर्व्याप्ता मिह समकरैर्दिग्गतैरीक्षितासे । कल्पान्ताधिप्लुतिमिव महाभीममत्स्य ध्वजौघां
संगन्तासे त्वमचिरमतस्तेन पद्मेश्वरेण ॥ ४३ ॥
लोगों से परिपूर्ण भी उसे शून्य-सा लगता है, विभव और परिजनोंसे घिरे रहनेपर भी घ अपनेको एकाकी समझता है, सम्पत्ति और सुखोंसे (लक्ष्मी सहवाससे कृष्णको इसे अरुचि हो गयी है तथा तुम्हारे वियोग से इसका मन खाला हा गया है ||४०||
एकान्त मिलते ही अपने आपसे बोलता है, बारम्बार घूम-फिर कर दूसरोंसे तुम्हारे विषय में पूछता है, क्षण भरमें ही अपनी सम्पत्ति तथा प्राणोंसे भी विरक्त हो जाता है। हे देवि ! वह कौन-सा कार्य है जो राम अथवा कृष्णने तुम्हारे विरह में न किया हो ॥ ४९ ॥
'प्राण देकर भी पालनीय, स्वाभाविक और अपरिमित मेरा प्रेम एक दूसरेके सहबास के द्वारा जिस दिन मेरे हृदयको तृप्त करेगा' हाथ वह दिन किस चेलामें अपने आप आयगा ? इस प्रकार नारायण प्रतिदिन तुम्हारा ही ध्यान करता है ||४२ ॥
1. प्रमुदितवदना वृत्तम् । सलक्षण " प्रमुदितवदना भवेन्नौ ररौ ।" [इ. २.५२ ] | २. मालिनीवृतम् ।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रयोदशः सर्गः
૨૫૦
सेना मिति - हे क्षामोदरि विष्णोर्लक्ष्मणस्य इहास्मिन् प्रदेशे रथस्यमयीं स्यन्दनवेगेन निर्वृतां सेनां वाहिनीं त्वम् ईक्षितासे द्रक्ष्यसि कथम्भूताम् ? वीरकाक्रुस्थनादां धीरः काकुस्थस्य नादः यस्यां ताम् अक्षोभरामध्वनिम्, पुनः करै सह मया शोभया वर्त्तन्त इति समाः समाः करा येषां तैः सशोभण्डादण्डः दिग्गतैः दिक्षुप्रसृतेः नागैर्गजैः व्याप्तां पुनः कथम्भूताम् । महाभीममत्स्यध्वजौघ गरिष्टभयानकमीनाकारालम्बसमूहाम् कामिवेचिता १ कल्पान्तान्धिलुतिमित्र कल्पान्तकालजलधिप्रवभिव, कथम्भूताम् ? रथस्यमयीं रथस्यैव रयो रथस्यो सहेतुर्यस्यास्ताम् पुनः धीरका कुरुथनादां कुर्वसुधा, ताम् आ आकु, आकु तिष्ठति आकुस्थः वसुन्धरां व्याप्यस्थित इत्यर्थः, धीरं च कं व धीरकं निस्तरङ्गजलं गम्भीरजलमित्यर्थः, धीरकः आकुस्थो नादो यस्यां सा तथा ताम् अतलस्पर्शजल्वशान् मेदिनीव्यापिघोषामित्यर्थः पुनः नागैर्हस्तिभिः व्याप्ताम् कथम्भूतैः १ समकरैः सह मरे जलनरजीवविशेषैर्वर्त्तन्त इति तैस्तथोक्तेः । अत्र मकराणां साहचर्याजनागानां ग्रहणम् । पुनः कथभूतैः दिग्गतेः दिप पुनःariनजीवाम् भीमाश्च मत्स्या महान्तश्च ते भीमाच ते मत्स्याश्च महाभीममत्स्याः, (ते) ध्वजा इव ओधेषु जलप्रवाहेषु यस्यां ताम्, अतः कारणात् अचिरं शीनं त्वं तेन पद्मेश्वरेण रामेण संगन्तासे संगमिष्यसे ।
भारतीये - कृशोदरि ! त्वं विष्णोः दामोदरस्य रवमयी वेगमय सेनाम् ईक्षितारो, कथम्भूतां सेनाम् १ धीरकाकुस्थनादां काकुर्वक्रोक्तिः तस्यां तिष्ठतीति काकुस्थः धीरः काकुस्थो नादो यस्यां ताम्, पुनः कथम्भूताम् १ महाभीममत्स्यध्वजौधाम् भीमो वृकोदरच मत्स्यो विराटश्च भीममत्स्यौ तयोर्ध्वजोष आलम्बपंक्तिः महान् भीममत्स्यध्वजौघो यस्यां ताम्, अथ विष्णुसेनादर्शना नन्दरसादनन्तरं पद्मश्वरेण पद्माया ईश्वरेण संगन्ताखे । अतः अस्मात् प्रदेशात् अन्यत्सर्वं प्राग्वत् १ ॥ ४३ ॥
इतीदमभिधाय तां नयपरोऽयमाश्वासयन्प्रदाय नृपमुद्रिकासमुपलक्षितं प्राभृतम् । हृदायत पतिं रिपोः कुलधनं जयन्तं विधोस्तथैति हि कृतार्थवक्रमुपपौर्णमासं महः ॥ ४४॥
इति श्रीद्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्य कुतौ राघवपाण्डवीये महाकाव्ये हनुमनारायणदूताभिगमनो नाम श्रयोदशः सर्गः ॥ १३ ॥
>
,
इतीति- आयत आयातवान् कोऽसौ ? अयं हनूमान् कम् ? पतिं रामं पत्युः समीपमागत इत्यर्थः, कया ? मुदा हर्षे, किं कुर्वन् ! आश्वासयन् धीरयन् काम् ? तां जानकीम् किं कृत्वा ? पूर्वम्, प्रदाय दत्त्वा, किम् ? प्राभृतमुपायनम् कथम्भूतम् ? नृपमुद्रिका समुपलक्षितम्, किं कृत्वा १ पूर्वमभिधाय उक्त्वा,
1
"
आप यहाँ पर रथोंके वेगसे युक्त, सुन्दर शुण्डाधारी समस्त दिशाओंमें फैले हाथियोंसे पूर्ण, अत्यन्त भयानक मत्स्य चिह्नयुक्त ध्वजाओंसे छायी तथा काकुस्थ रामकी गम्भीर ध्वनि से चालित अतएव प्रलय समुद्र के पूर तुल्य [प्रलयपूर भी रथके वेगसे चलता है, पानी गहरा होता है, उसका रोर समस्त पृथ्वी में होता है, दिशा दिशामें मकर तथा नाग होते हैं, भीषण मछलियाँ ध्वजाकी तरह पानीपर उछलती हैं] विष्णुकी सेनाको देखेंगी और शीघ्र ही उस प्रभु पद्मके वा आपका मिलन होगा ।
अन्वय- विष्णोः रयमयों धीरकाकुस्थनादां समकरैः दिग्गजैः नागैः प्यासी महाभीम-मत्स्यऔषां कल्पान्ताधिप्लुतिमिव दक्षितासे अतः तेन पद्मेश्वरेण त्वमत्रिरात् संगन्तासे ।
अत्यन्त वेगशालिनी, भटोंकी व्यंगोक्तियोंके नादसे युक्त, समानतासे कर ग्रहीता प्रधान नागवंशी राजाओंसे परिपूर्ण, महान् भीम तथा मत्स्यराज विराट्की ध्वजाओं से शोभित फलतः प्रलयकालीन समुद्र के पूर तुल्य कृष्णकी सेनाको देखोगी और इस स्थान पर ही तुम्हारा उनसे मिलन होगा ॥४३॥
उक्त प्रकार से यह सब कहकर राजा रामकी मुन्दरीके रूपमें भेंट देकर उस सीताको १. मन्दाक्रान्ता मुक्तम् । तल्लक्षणञ्च "मन्दाक्रान्ता जलधिपढगैम्भनतो ताहरू चेत्” [ ० २०
३।९४ ] ।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
किम् ? इदमेतत् , कथम् ? इति उक्तप्रकारेण, कथम्भूतो हनूमान् ! नयपरः नयं पिपर्तीति सः, नीतेः पालक इत्यर्थः, कथम्भूतं पतिम् ! जयन्तं पराभवन्तम् , किम् ? रिपोः कुलधर्न कुलं च धनं च कुलधनम् अथवा कुलमेव धनम् , तथा हि स्फुटम् ऐति आगच्छति, किं कर ? महस्तेज; कृतार्थवत्रं कृतार्थस्य वक्त्रं रामस्थ वदनम् , कस्य ! विधोश्चन्द्रस्य, कथम्भूतं महः ? उपपौर्णमासं पौर्णमासीसमीपोद्भवम् ? कस्मात् ! अलनानन्दनवदनोद्गीर्णजनकतनयाकुशलकिंवदन्तीश्रवणादिति योज्यम् ।
भारतीये हे कृतार्थ कृतपुण्य ! हे नृप-श्रेणिक ! तथा तेनैव प्रकारेणायत प्राप्तवान् कोऽसौ ? अयं श्रीशैलनामधेयो दूतः, कम् ? पतिं चक्रपाणिम् , किं कुर्वन्तम् ! रिपोः कुलधनं जयन्तम् अभिभवन्तम् , किं कृत्वा ! प्राभृतं प्रदाय, कथम्भृतम् ? मुद्रिकासमुपलक्षितं मुट्रैव मुद्रिका अत्रैवकारोऽवधारणार्थोऽवगम्यते, तेनायमर्थः-यादवाना कुलकमायाता लक्ष्मीः मुद्रा गरुडमुद्रा वा ग्राह्या त्या समुपलक्षित मुद्रामुद्रितमित्यर्थः, किं किं कुर्वन् ? उद्यानस्थां कांचित् कामिनीम् आश्वासयन् , किं कृत्वा ? पूर्वमभिधाय च, किम् ? इदमेतत् कथम् ! इत्युक्त प्रकारापेक्षया, कथम्भूतो दूतः ! नयपरः नीतिनिष्ठः, यथा येन प्रकारेण ऐति, कि कत्त ? महः । किमेति ? वक्त्रं वदनम् , कस्य ? नृपतेः, कथम्भूतम् ? उपपौर्णमासम् , विधोरिन्दोः, कथम् ? हि स्फुटमिति ॥४४॥ इति निरवविधामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलीमण्डितस्य पट्तचक्रवर्तिनः श्रीमष्ट्विनयचन्द्र पण्डित्तस्य गुरवासिनो देवादिनः शिवः स्वः कोमलचारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरधितायां द्विःसन्धानरुवेर्धनञ्जयस्य राधवपाण्डवीयापरनाम्नः काव्यस्य पदकौमुदी नामदधानायां टीकायां हनुमनारायण
दूताभिगमनो नाम प्रयोदशः सर्गः ॥१३॥
ढाढस बँधाता हुआ वह नीतिमार्गका पालक दूस अपने स्वामीके पास वापस आगया था । स्वामी राम अथवा कृष्ण भी शत्रुओंके वंश तथा वैभवको जीतने में समर्थ थे तथा [दूतसे पल्लमाके समाचार सुनकर ] उनके मुख पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान कान्तियुक्त हो उठेथे॥४४॥ इति निदोषविद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, षट्तचक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य, देवनन्दिके शिध्य, सकलकलाकी थासुर्य-चन्द्रिकाके चकोर, नेमिचन्द्रद्धारा धिरचित कवि धनम्जयके राषव-पाण्डवीय गामसे ख्यात द्विसन्धान कान्यकी पदकौमुदी टोकामें हनुमनारायणदूताभिगमन
नामका प्रयोदश सर्ग समाप्त ।
1. पृथ्वी छन्दः, तल्लक्षणम्-"जसौ असयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वो गुरुः [१. ई० ३-१९१]।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः
श्रीपार्थः सपदि हरिस्तथा सरामः सुग्रीवः सदसि समं प्रभाविराटः। ___ निश्चित्य प्रकृतिषु शक्तिमभ्यमित्रं व्युत्तस्थुः प्रलयदवानला इवामी ॥१॥
श्रीपार्थ इति-अमी एते भूपाल्पः अभ्यभित्रं शत्रु लक्ष्यीकृत्य व्युत्तस्थुः अभ्युस्थिताः, क इवोत्प्रेक्षिताः ? प्रलयदवानला इच कल्पान्तकालवय इच, किं कृत्वा ? पूर्व निश्चित्य आत्मप्रतीतिमानीय, काम् ? शक्ति साभयम्, केषु विषये ! प्रकृतिषु सप्तम स्वाम्यमात्यादिस्वभावामु, के ते भूपाला इति दर्शयन्नाह-व्युत्तस्था, का ! हरिलक्ष्मणः, कथम्भूतः ? श्रीपार्थः श्रियं पाति श्रीपा:, श्रीपा अर्था यस्य सः श्रीपार्थः लक्ष्मीरक्षणापरायणप्रयोजनवान्, पुनः प्रभाषिराटः प्रभावी राठो यस्य सः प्रमाधिराटः सप्रमावनिः मयि सुग्रीवे करे करवाल गृहीतवति रणरङ्गे न मां प्रति कस्यचित् क्षत्रियकुमारस्य सम्मुखं स्थातुं शक्तिस्ति इति गर्जिगजिमध्वनि रित्यर्थः । क ? सदसि सभायां रारामः रामसहितः सुग्रीवः व्युत्तस्थौ ।
भारतीये—व्युत्तस्थुः, के ? अमी नरेन्द्राः। कयम् ? अभ्यमित्रम् , क इधोत्प्रेक्षिताः ? प्रल्यवानला इव, कृत्या पूर्व व्युत्तस्थुः ? निश्चित्य, काम् ? शक्तिम्, कासु ? प्रकृतिषु, व १ सदसि, के ते नरेन्द्राः १ इतिप्रकटयति-त्युत्तस्थौ श्रीपार्थः थियोपलक्षितः पार्थः श्रीपार्थः लक्ष्म्योपलक्षितोऽर्जुनः, कथम् ? सपदि शीघ्रम् , तथा व्युत्तस्थौ, कः ? स हरिः चक्रपाणिः, कि विशिष्टः ? सरामः बलभद्रसहितः पुनः सुग्रीवः शोभना ग्रीवा यस्य सः पुनः समं प्रभाः समं सम्यक् प्रकृष्टा मा यस्य सः, प्रकृष्टप्रतापवानित्यर्थः, तथा व्युत्तस्थी, कोऽसौ १ विराट इति ||१||
स्कन्धस्था मदकरिणः प्रयाणभेरी दध्वान प्रतिसमयं निहन्यमाना। अत्युच्च पदमधिरोप्य मान्यमारान्न्यक्कारं क इह परैः कृतं सहेत ॥२॥
स्कन्धेति-मदकरिणः मत्तमातस्य स्कन्धत्था प्रतिसमयं क्षणं क्षणं प्रतिनिहन्यमाना ताड्यमाना सती प्रयाणभेरी दध्वान ध्वमितवती । युक्तमेतत्-परैरन्यैर्दुर्जनः कृतं विहितं न्यक्कार कः सहेत, कथम् ? आसत्
स्वामि, अमात्यादि साता अपनी प्रतियोंकी शक्तिका सभामें निश्चय करके रामसे संयुक्त लक्ष्मीका रक्षक हरि (लक्ष्मण) तथा शोभायुक्त प्रतापके कारण दारुण सुग्रीव, शत्रुके विरुद्ध प्रलयकालीन दावानल के समान चल दिये थे [ स्वामी राजसभामें विचार करके लक्ष्मीका स्वामी अर्जुन, बलभद्रयुक्त कृष्ण तथा सुन्दर ग्रीवाधारी वैभव तथा प्रतापके लिए ख्यात विराटराज तुरन्त शत्रुके विरुद्ध"थे] ॥१॥
मदोन्मत्त हाथीके कन्धेपर रखी तथा प्रतिक्षण बजायी गयी युद्ध-यात्राकी मेरी जोरोंसे गर्ज उठी थी । निकटमें ही खूब ऊँचे तथा मान्य स्थानपर रखकर शत्रुके द्वारा बनाये गये नगाड़ेकी कौन उपेक्षा कर सकता है। सर्वथा सम्मानयुक्त अत्यन्त उन्नत स्थानपर
१. जनवानित्यर्थः कथम् ? सपदि शीघ्रम्, तथा व्युत्तस्थी, कः स रामः राघवः, कथम् ? सपदि तथा व्युत्तस्थौ, कः! स सुग्रीवः किष्किन्धनगराधिपः, कथम्भूतः ? प्रभांविराटः प्रभावी राटो यस्य सः प्रभाधिराटः सप्रभावध्वनिः, मयि सुग्रीवे कालकरालं करवाल रणरङ्गणे गृहीतवति सति माम्प्रति न कस्यचित् क्षत्रियकुमारस्य सम्मुखे स्थातुं शक्तिरस्तीति गर्जिर्जिमवनिरित्यर्थः क सदसि सभायाम् कथम् ? समं युगपदिति शेषः । "भारती-प. द. ।
२. सर्गेऽस्मिन् प्रहर्पिणी वृत्तम् ।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
पश्चात् , क ? इहास्मिन् लोके, किं कृत्वा १ पूर्वमधिरोप्य नीत्वा, कम् ! मान्यं जनम् , किमधिरोप्य ? अत्युच्च पदं स्थानम् ॥२॥
आरावं दिशि दिशि तं निशम्य तस्या रोमाञ्चैः परिहषितस्तनु पाणाम् । अम्भोदसधनस्योरथरत्ननधिः सरजे स्वयमिव सा विदूरभूमिः ।।३।।
आरावमिति नृपाणां राज्ञां तनुः रोमाञ्चैः रोमाङछुरैः सरेजे शुशुभेताम् , कथाभूतैः ? परिपितैः अत्यानन्दममुत्थितः, किं कृत्वा ? पूर्व तस्याः प्रयाणभेर्याः दिशि दिशि प्रतिदिशम् आरावं ध्वनि निशम्य श्रुत्वा, केव संरेजे १ यथा सा लोकप्रसिद्धा विदूरभूमिः विदूरो नामपर्धतः तस्य भूमिः, कथम्भूता ? अम्भो. दप्रश्रमरचोत्थरत्नसूचिः, अम्भोदस्य गेघस्य प्रश्रमरवात् उत्था उत्पत्तिर्यासां ताः रत्न सूचयो बस्या सा, कथम् ? स्थयमात्मनेति ||३||
रागादेः सह वसतोऽपि तापवृत्तेर्यः स्वस्मिन्नवधिरहो न कस्यचित्सः । भूपानां रिपुमभिपश्यतामिवोग्रं यत्कोपे स्फुरति रसान्तरं न जज्ञे ॥४॥
रागादेरिति-अहो आश्चर्य कस्यचित् कस्यापि न स्यात् , कः ? स योऽवधिः सीमा, कस्य ? रागादेः अविद्याधर्मस्य, कथम्भूतस्य ? तापवृत्तेः तापः वृत्तिर्यस्य सः तस्य, किं कुर्वतः १ सहवसतोऽपि एकत्रावस्थानचतोऽपि, क १ स्वस्मिन्नात्मनि, अतएव कारणात् न जजे न जातम् , किं तत् ? रसान्तरम् एकस्मात् रसाद. परो रसोरसान्तरं यत् स्फुरति बिजृम्भते, क सति १ कोपे, कथम्भूतम् १ यद्रसान्तरम् उग्रं सोढुमशक्यम् , केषाम् ? भूषानां नृपाणाम् ? कयम्भूतानामित्र ? रिघु शत्रुम् अभि सामस्त्येन पश्यतामिव निरीक्षमाणानामिव ||४||
सारङ्गः कृतमणिमण्डनैचिंगाहा साश्वासा प्रतिदिशमुन्नमत्स्यदामा । सामन्तैः पथि चलिता चमूः पयोधेवेलेव प्रबलमदध्वनन्मरुद्भिः ॥५॥
सारङ्गैरिति-अदध्वनत् ध्वनितवती, का ? सा चमः, कथम् १ प्रबलं प्रकृष्टरलं यथा, कथम्भूता सती ? चलिता, क ? पथि मार्गे, कथम् ? अमा सार्द्धम्, कैः १ सामन्तैः, पुनः कथम्भूता ? उन्नमत्स्यदा उच्चलद्वेगा, कथम् ? प्रतिदिशं दिशं दिशं प्रति, पुनः साश्या अस्वैः सह वर्तमाना पुनः सारङ्गैर्गतङ्गैर्विगाढा ध्याता कथम्भूतैः सारङ्गैः ? कृतमणिमण्डनैः कृतं मणीनां मण्डनं येषां तैः । केवादध्वनन् ? पयोधेः समुद्रस्य वेलेव, कथम्भूता सती ? पथि मार्गे चलिता, कथम् ? यथा भवति प्रबलं प्रौढप्रोटि यथा भवति तथा पुनरुनमत्स्यस्थापित करके बादमें शत्रुके द्वारा सामने ही की गयी अवज्ञाको कौन सहन कर सकता है ] ॥२॥
समस्त दिशाओं में प्रयाणभेरीके उस धोषको सुनकर परम आनन्दसे उठे रोमाञ्चके द्वारा राजा लोगोंकी काया वैसी ही शोभित हुई थी। जिस प्रकारसे वर्षार में मेघोंकी प्रथम गर्जनाको सुनते ही अपने आप निकले रत्नके शंकुरोसे युक्त विदूर-पर्वतकी भूमि होती है ॥३॥
__ मनमें प्रवल सन्तापका भाव होने पर किसी भी व्यक्तिको उसके साथ ही अपने आत्मामें रहनेवाले राग आदि भावोंकी सीमापर अनुभव नहीं होता है उसी प्रकार शत्रुको सामने खड़ा देखते हुए राम तथा कृष्णके अनुयायी राजाओंको क्रोध आ जानेके कारण दूसरे प्रबल रसोंका अनुभव ही नहीं हो रहा था ॥४॥
मणियोंके आभूषणोंसे सुसजित हाथियोंसे व्याप्त, घोड़ोंसे पूर्ण, वेगके साथ प्रत्येक दिशामें बढ़ती हुई और मार्गमें सामन्त राजाओंके द्वारा संचालित वह राधव-पाण्डव सेना आंधीके द्वारा उठायी गयी समुद्र की लहरोंके समान [ समुद्रवेला भी चातकपूर्ण, गणितुल्य
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः दामा उन्न केशं प्रापितं मत्स्यानां मीनानां दाम माला यस्यां सा तथोक्ता, कैः १ तैः प्रसिद्धैः मरुद्भिर्वातैः, कथम् ! यथा भवति सामं साई यथा भवति, पुनः साश्वासा आश्वासैः जलप्रवेशैः सह वर्तमाना सा, कयम् ! प्रतिदिशं दिशं दिशं प्रति पुनः सारङ्गैातकैः विगाढा कथाभूतैः कृतमणिमण्डनैः मणयः सूक्ष्मसूक्ष्मा जलविन्दवोऽभिधीयन्ते, शब्दानामनेकार्थत्वान्तेषां मण्याकरत्वाद्वा कृतं मणीनां मण्डनं यैस्तैरिति ॥५॥
आनीलं द्विपमधिरुह्य रामभद्रः श्वेतोऽब्दं मिहिर इवासितं निरैयः । सिन्दूरधुतिरचितं स पीतवासाः कृष्णोऽध्र जलद इवारुणं तडित्वान् ॥६॥
आनीलमिति-रामभद्रो राघवः निरैयः निर्जगाम, किं कृत्वा ! पूर्वभानीलं सर्वाङ्गश्यामं द्विपं गजमधिसाह्य, क इन १ मिहिर इव यथा 'मेयोऽस्मितं नीलमब्द मेघमधिरुन (निर्गच्छति) कथम्भूतः मिहिरः । श्वेतः शुभ्रः । अत्र तात्पर्यमुपन्नस्यते, घनसभवनिवृत्ती सत्यां शरत्समवस्य प्रवृत्ती सत्यां गगनप्रवृत्तस्य नीलनीरदाधिरूदस्य जलरित्तोदरस्य शुभ्रा भ्रस्य शोमा नीलगजाधिरूढो रामो निर्गमनसमये अभार । तथा निरैयः, कः ? पीतवासा लक्षाण :, किं कृत्वा ! पूर्वमधिमा, किम् ? अभ्रम्, कथम्भूतम् ? सिन्दूरातिरचितम् , क इव ? जमद इव, यथा जलदो निर्गच्छति, किं कृत्वा ? पूर्वमधिसहा, किम् ? अभ्रम्, कथम्भूतम् १ अरुणम् आरक्तम् , कथाभूतः जलदः ? कृष्णः पुनस्तडित्वान् विद्युयुक्तः । अत्र भावो विभाव्यते दिनेशस्य निक्रान्ती संध्यायाश्च प्राप्ती सत्यां गगनतटगमनोन्मुखारणाममधिरूढस्य तडिद्युक्तस्य कृष्णस्य जलदस्य शोभा सिन्दूरद्युतिरचित्तगजेन्द्राधिरूढ़ो लक्ष्मणः पीताशुपरिधानो निर्गमनसमये विभराम्बभूवेति भावः।
भारतपक्षे-रामभद्रो रेवतीरमणः । पीतवासा नारायणः ॥६॥ ये कुन्त्यां जननमिता विभासयन्तो राजानः पथिषु नभः सदाञ्चितेन । धाम्ना ते ननु चतुरङ्गसेनयोच्चैः प्रासादिस्थितियुतया स्म संचरन्ते ॥७॥
य इति-ननु अहो संचरन्ते स्म निर्जग्मुः, के ? ते राजानः, कथम् ? उच्चैः, कया सह ? चतुरङ्ग सेनया हत्यश्वरथपदातिपृतनया, कथम्भूतया ! प्रासादिस्थितियुतया प्रासादीनि प्रास आदिर्येषां शस्त्राणां तानि प्रासादीनि, कुन्त-सेल्ल-मल्लि-तीरी-तोमर-यष्टि-मुद्र-शक्ति-चक्रादीनि तेषां स्थित्या युता तया किं, कुर्वन्तः १ ये त्यां तां प्रसिद्धां कुं पृथिवीं धाम्ना तेजसा पथिषु मार्गेषु विमासयन्तः, केषां थाना ? नभासदां विद्याधराणां सुग्रीवप्रभृतीनाम् , कथम्भूतेन घाना १ चितेन पुष्टेन, कथम्भूताः, राजानः ? जन-नमिताः जन-नमस्कृताः इति ।
भारतीये-ननु अहो संचरन्ते स्म, के ? ते लोकविख्याताः राजानः, केषु ? पथिषु, कया सइ १ तुरङ्ग सेनया हयवाहिन्या, कथम्भूतया ! उच्च प्रा पृ पालनपूरणयोरित्यस्य धातोःप्रयोगः पूरणं पृ० विच प्रत्ययान्तः विचः, सर्वापहारीनाशः, पालना रक्षणम् , पूरणं भरणपोषणादि, उच्चैः पूर्वस्या सा उच्चैःपृस्तया उच्चैःप्रा उच्छलते जलविन्दुयुक्त, भंवरोंसे ( आश्वास) भीषण, और सब तरफ उछलती मछलियोंकी माला से भूपित होती है ] जोरोंसे गर्ज रही थी ॥५॥
गहरे काले हाथीपर चढ़कर सिलधारी राम तथा बलराम युद्धके लिए निकलते थे। धन श्याम मेघोंके ऊपरसे उदित सूर्यके समान, पीताम्बरधारी तथा विद्युत (के समान अस्त्र)-धारी लक्ष्मण तथा कृष्ण सिन्दूरसे सजाये गये अतएव लाल हाथीपर जाते हुए ऐसे लगते धे जैसा सन्ध्याकी लाली से उड़ता विजलीयुक्त मेघ लगता है ॥६॥
जनताके द्वारा मान्य, सुग्रीव, आदि विद्याधरीके द्वारा पुट अपने तेजके द्वारा पूर्ण पृथ्वीको प्रकाशित करते हुए चे रामके पक्षके राजा लोग हस्ति-अश्व-रथ-पदाति चारों प्रकारकी प्रास, कुन्त आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित सेनाके साथ मार्गमें चले जा रहे थे।
महारानी कुन्तीसे उत्पन्न, देवताओंके द्वारा भी मान्य अपनी शरीर कान्तिसे शोभाय1. 'मार्तण्ड' इति समुचितोऽर्थः—सं । २. शुभ्रभास्करस्य-सं० ।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अतीवरक्षणभरणपोषणयेत्यर्थः, अथवा उच्चैः प्राः इति विशेषणं राज्ञाम् , कथम्भूतास्ते राजानः १ उच्चैप्रा पृङ् व्यायाम इत्यस्य रूपं प्रियते इति प्रः, अक्प्रत्ययः, उच्चै प्रो येषां ते उच्चैःप्राः उच्चव्यायामवन्तः शस्त्रास्त्रकृतश्रमाः पुनः कथम्भूतया ? सादिस्थितियुतया अश्वारोहाधिष्ठितया, (क) उच्चैः प्रासादिस्थितियुतया उच्चैः प्रासादाः सन्ति येषां ते उच्चैःप्रासादिनः सप्तभूमिगृहस्वामिनः उच्चैःप्रासादिनामिव या स्थितिः तया युतया एतेन सेनायां गुदुरपटमण्डपादिसमृद्धिरभ्यधाथि, ये राजानः कुन्त्यां कुन्तीविषये जननं जन्म इताः प्राप्ताः युधिष्ठिरादयः इत्यर्थः, कथाभूताः ? धामा शरीरेण तेजसा विभासयन्तः शोभगानाः, कथम्भूतेन धाग्ला ? अचितेन लोकाशस्यैन पुनः नभःसदा नभसि सीदतीति तेन गगनविजृम्भमाणेनेत्यर्थः ||७||
शौर्यात्तस्थिति विषमाभयादवोत्थं वैराटं चतुरगकुञ्जरप्रधानम् । सौमित्याहितरति संयदुत्कपीनं गत्वैक्य जगदिव तबलं चचाल ॥८॥
शौर्यति-चचाल चलति स्म, किम् ? तलम् , तेषां बलं तदलम् , किमिव चचाल १ जगदिव, किं कृत्वा ? पूर्वमैक्यं गत्वा, कथम्भूतम् ! संयदुत्कपीनं संयति संग्रामे उत् उच्चैः कपीनाम् इनः अधिपो यत्र तत् , अथवा संयदुत्कपयः इना प्रभवो यत्र तत् संग्रामोत्कटमर्कटनायकगिर्थः, पुनः सौमिच्याहितरति सुमित्राया अपत्यं पुमान् सौमित्रिः लक्ष्मणः तेन आहिता रतिर्यत्र तत् पुनः वैराटं बैरम् अटति वैराटं वैरगामि, पुनः कथम्भूतम् ? चनुरगकुझरप्रधानं चतुरं गच्छन्तीति चतुरगाः, चतुरगाः कुजराः प्रधाना यत्र तत् पुनः दवोत्थं दवाग्निसमुत्पन्नम् , कया ? विषमाभया तीव्रतरदीया पुनः शौर्यान्तस्थिति क्षात्रधाररीकृतस्थिति ।
भारतीये-तद्धलं सैन्यं चचाल, कथाभूतम् ? संयदुत्कपीनं संयते रणाय उत्कैः उत्कष्टितैः पुंभिः पीनं पुष्टं निरन्तरम् , पुनः सौमिच्याहितरति सौमिन्ये सौहार्दे आहिता रतिर्येन तत् समीचीनमित्रत्वारोपिता शक्तीत्यर्थः, पुनः शौर्यान्तस्थिति शूरो वसुदेवः शूरस्यापत्यं शौरिः नारायणः तेन अन्ता स्थितिर्यस्य तत्, पुनः विषमाभयादवोत्थं विषमाभा ये यादवस्तेभ्य उत्था यस्य तत्, तीव्रतरप्रतापबद्भयो यादवेन्य उत्पन्नम् तथा चचाल वैडर बलं विराटो नाम नरेन्द्रस्तस्येदं वैराटम् कथम्भूतम् ? तुरगकुञ्जरप्रधानं यकरिसनाथीकृतमित्यर्थः ।। ८ ।।
उत्कीर्णैरिव विधुभिमुखैस्तमालपारोहैरिव चिहुरैशां विलासैः । कुर्वद्भिः सर इव सोत्पलं दिगन्तं तद्देव्यः प्रसमचरन्त दन्तिनीभिः ॥९॥
उत्कीर्णैरिति-प्रसमचरन्त भासयन्तो गताः, काः १ तद्देव्यः तेषां पूर्वोक्तानां, राज्ञां महिष्यः तदन्तःपुरसीमन्तिन्यः, काभिर्दन्तिनी भिः किं प्रसमचरन्त ! दिगन्तमाशान्तम् , कैः कृत्वा १ मुस्खैराननै, कैरिवोनक्षित ? विधुभिरिव चन्द्ररिव, कथम्भूतैः १ उत्कीर्णैः उल्लिखितः, पुनः कैः प्रसमचरन्त १ चिहुरैः कुटिलकेशमान वे पाण्डध राजा मगध के मार्गपर चले जा रहे थे, निश्चित ही यह सेना रक्षण करने में अग्रणी अश्वारोहियोंसे भिरी थी ॥७॥
पराक्रमके परम श्रद्धालु, असाधारण प्रतापके कारण दावानल तुल्य, व्यूह रूपसे चलती मुख्य हस्तिसेना युक्त, युद्धमें शिरोमणि वानरोंके राजाओंसे पूर्ण सुमित्राके पुत्र लक्ष्मण में एक निष्ठ, फलतः एक सूध बद्ध होकर शत्रुके ऊपर बढ़ती हुई वह सेना संसारके समान प्रयाण कर रही थी।
लोकोत्तर प्रतापी यादधाले बनी, मुख्य रूपसे अश्वों और हस्तिमय विराट राजाकी सेना सहित, पारस्परिक मित्रताके भावकी प्रगाढ़ताके कारण सर्वथा एकरूप, युद्धके प्रेमी भटोंसे परिपूर्ण तथा शूर कुलमें उत्पन्न वासुदेव द्वारा नियन्त्रित वद्द सेना क्या चली थी अखिल विश्व ही मगधपर टूट पड़ा था ॥८॥ ___खोदकर बनाये गये चन्द्रोंके तुल्य सुन्दरमुखी, तमालके गाद अंकुरों सदृश केशधारिणी, नेत्रोंके विलास द्वारा समस्त दिशाओंको विकसित कमलयुक्त तालाबोंके समान १. सप्तक्षण गृहा--प० द.
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः पाः के रिव १ तमालप्ररोहैरित्र, सुगममेतत् , पुनः कै समचरन्त ? दृशां लोचनानां विलासैः कटाक्षविक्षेपः, कथाभूतैः दृशां विलासैः ? दिगन्तं सोत्पलं सकुवलयं सर हव सरोवरमिव कुर्वद्भिविदधन्द्रिः ।। ९ ॥
उत्कार्तस्वररुचयोऽपि सौम्यभावा भामिन्यः सहजघनाः कुचोदिताङ्गयः । मेवालीप्धिव करिणीषु दिव्यरुच्या लालित्यात्तडित इवाभवत्स्फुरन्त्यः ॥१०॥
उत्कात्विर इति-भामिन्यः अभवन्संजाताः, कथम्भूताः ? सौम्यभायाः प्रसन्नतयाशान्तरूपाः, कस्मात् ? लालित्यात् मनोहरत्वात् , किं कुर्वन्त्यः १ करिणीषु भासमानाः पुनः उत्कास्विरमचयोऽपि निष्टप्सकाञ्चनभासोऽपि गौरवर्णकान्तयः इत्यर्थः, पुनः सहजघनाः पुनर्दिव्याच्याः मनोहराभरणाः पुनः कुचोदिताशयः कुचाभ्यां स्तनाभ्यामुदितम् उन्नतम् अहं यासो ताः कुचोदिताशयः, काइव का वाऽभवन् भामिन्यः ? मेघालीषु तडिश इत्र, यथा मेघालीपु स्फुरन्त्यः तडितो भान्ति, कथम्भूताः ? सौम्यगावाः, कस्मात् ? लालित्यात मनोजस्वात् कन्याः लालित्यम् ! दिव्यरुच्याः मनोहरदीसेः, पुनः उत्कार्तस्वररुचयोऽपि उत्क उत्कट: आतः भयानकः स्वरः शब्दो यत्र सा चियासां ताः निखिलजननयनकम्पनकारिणी विद्युतः स्फूर्तिः रचिरभिधीयते, पुनः सहजघनाः सहजाः सह सार्द्ध जाता घना मेघा यासा ताः, पुनः कुचोदिताशयः को भुवि चोदितं प्रेषितमङ्ग शरीरं याभिस्ताः ॥१०॥
उन्नेतुं तपनवितापमङ्गनानां छन्नाभिर्मणिमयकम्बलैधुपीभिः । शोणामित्रभुरधिरुडसांध्यरागा गच्छन्त्यस्तय वायु परियः १११
उन्नेनुमिति-करिण्यः वृपीभिः करिक्रम्बस्नः बभुः, कथग्भूताभिः ? शोणाभिलोहिताभिः पुनः मणिमयकम्बरलै छन्नाभिझम्पिताभिः, का इव ? अम्बुदां मेघानाम् , किबन्तभिदं रूपम् 'आतो धातोः' इत्यनेन सूत्रेणाकारन्टोपः । ततय इव श्रेणय इव पुनः अधिरूढसान्ध्यरागा अधिमटः सांध्यो रागो याभिस्ताः, किं कत्तुम् ? तपनयितापं सूर्यातपम् उन्नेतुं निराकर्तुम् , कासाम् १ अङ्गनाना राजीनाम् ||११||
मायूरं गतयुतनौप्लवं गतानां वाहानां पथि परतोऽधिरोपिताभिः । बालाभिः कुचभुजपीडिता युवानस्तद्भयः स्थपुटदरीष पानमीषुः ॥१२॥
मायूरमिति-युवानः तरुणाः स्थपुटदरीषु नीचोच्चभूमिगत सु तद्यानं शिविकाम् (यात्राम् ) ईषुः वाञ्छन्ति स्म, कथम् १ भूयोवारंवारम्, कथम्भूताः सन्तो युवानो वाञ्छन्ति स्म ? कुचभुजपीडिताः स्तनबाहुकदर्शिताः, काभिः । बालाभिः तारुण्यरसकूपिकाभिः तरुणीभिः, कथम्भूताभिः ! अधिरोपिताभिः, क ? परतः पृछे, केषाम् ? वाहानां वाजिनाम्, कथम्भूतानाम् ? गतानां प्राप्तानाम्, किम् ? गतं गमनम्, कथम्भूतम् ! मायूर मयूराणामिदं मायूरम् , उत अथवा गतानाम्, कम् ? नौप्लवं यानपात्रगमनम् , क ? पथि अध्वनि।।१२॥ बनाती और हथिनियोंपरकी जाती हुई दोनों सेनाओंकी रानियोंकी छटा ही निराली थी ॥९॥
तपाये हुए सोने के समान कान्तिमती होकर भी अत्यन्त सौम्यशीला, सुन्दर समान जंधाधारिणी, स्तनोंके उभारयुक्त, रानियाँ मेघपंक्तिके तुल्य हस्तिनियों में भी अपने अलौकिक लालित्यके कारण विजलीके समान शोभित हो रही थीं विद्युत भी मेघोंके साथ उत्पन्न होती है, कर्कश भयानक कड़क करती है, असाधारण चमक होती है, करिणीके समान काली मेघालिमें अपने ज्योतिपुंजसे चमकती है तथा पृथ्वीकी ओर बज्र रूपसे गिरती है ] ॥१०॥
___ रानियों के ऊपर आती धूपको रोकनेके लिए मणि जटित कम्बलोंसे ढकी हुई, गेरू आदिकी श्रंगार-सज्जाके कारण लाल लाल फलतः उड़ती मेघपंक्ति के समान जाती हुई हृथिनियोंकी शोभा हुई थी [ मेघपंक्ति भी सूर्यके आतपको 'रोक लेती है, मणि आदिके उत्पादक जलराशिसे पूर्ण होती है, सन्ध्याकी लालिमाके चढ़नेपर लाल हो जाती है ] ॥११॥
मोरके समान उड़ते अथवा नौकाके समान सरपट जाते घोड़ोंकी पीटपर बैठायी गयी फलतः आगे बैठे युवकको कुचों और भुजाओंसे जोरसे जकड़ती हुई तरुणियोंके कारण घे बार-बार यही इच्छा करते थे कि सरल मार्गसे न जाया जाय ॥१२॥
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाध्यम् आत्मैव स्वयमवधार्यते कथंचिद्दुर्वारः परिणतमण्डलः प्रतापी । नामेति व्यभिचरितं तदातपत्रैः पूषास्तं गत इब न विर्ष पुपोष ॥१३॥
आत्मेति-नाम अहो व्यभिचरितम् , कैः? तदातपत्रैः नरेन्द्रधर्मधारणैः कथमिति ? अवधार्यते निश्चीयते, कः ? आत्मा स्वरूपम् , केन ? सूर्यगेत्यध्याहार्य च, कथम् ! स्वयमेव आत्मनैव, कथचिन्महता कष्टेन, भवामि, कोऽसौ ? अहम्, कथम्भूतः ? प्रतापी प्रतापवान् परिणतमण्डलः पुनः दुर्वारो दुःखेन वरीतुं शक्य इत्यतएव प्रयाण समये पूषा सूर्यः विपम् आतपं न पुपोप न पुष्णाति स्म, क इवोत्प्रेक्षिते ? अस्तं गत इव ॥१३॥
निःशेषोऽप्यधिषि बद्धचित्रचिलो मातङ्गास्तुरगतरङ्गभाजि तुङ्गः । नौसंघः समभिपतनमहाकरानं सेनाब्धावक्तरदुच्चकर्णधारः ॥१४॥
निःशेष इति-मातङ्गो हत्ती सेनाधौ सैन्यसमुद्रे अतरत् तरति स्म, अत्र जात्यपेक्षयकवचनम्, कथम्भूते सेनाब्धी ? नुरगतरङ्गभाजि वाजिकल्लोलाभिते, कथं यथा भवत्यतरत् ? सम अभिपतन् महाकराग्रम् ऊर्वीभवन् महाशुण्डाग्रम् , कयम्भूतोऽपि मातङ्गः ? निःशेषोऽपि समस्तो:-पि बद्धचित्रचिहः नियमितविविधध्यजः, कयं यथा भवति ? अधिपि प्रतिझम्बकम् , पुनः कथम्भूतः १ तुङ्गः उन्नः पुनः उच्चकर्णधारः उच्चैः कर्णवर्तिका इत्यर्थः । उपमार्थो ददर्यते-क इवातरत् मातङ्गः ? नौसंघ इव यथा निःशेषोऽपि प्रवणसमूहस्तरति, क्छ ? समुद्र, कशम्भूते १ तुरगतरङ्गमाजि, फयाभूतो नौसंघः ? उच्चकर्णधारः उच्चैर्नियामक इति । अन्यत् समम् ||१४॥
यद्रं निकटतरं हयाः समीयुर्नेदीयो यदतिययुः क्षणादवीयः । दूरस्थं यदसुलभं तदाप्तुकामस्तत्याप्तं त्यजति नवप्रियो हि लोकः ॥१५॥
यदिति-समीयुः संजग्मुः झ्याः अश्याः, किं तत् ! निकटतरं समीपतरं स्थानम् , यत् विद्यते किम् ? दूरम् | अतिययुरतिशयेन गताः किं तत् ? दवीयो दूरतरं स्थानम्, कथम् ! क्षणात् क्षणमात्रेण, यद्विद्यते, किम् ? नेदीयो निकटतरम् , युक्तोऽयमर्थः, हि यस्मात् कारणात् त्यजति, कः ? लोको जना, किम् १ तद्वस्तु, कथम्भूतम् ! यत् संप्राप्तं लब्धम् । कथम्भूतो लोकः १ नवप्रियः नवं प्रियं यस्य सः, पुनः आप्तुकामः लन्धुकामः, किम् १ तद्वस्तु, कथम्भूतम् ? यत् दूरस्थं पुनः कथम्भूतम् ? असुलभं दुर्लभम् । अथवा असुभिर्लभ्यते असुलभं प्राणाः सुलभाः वस्त्विदं दुर्लभं चेति मनसि कृत्वा प्राणान् दत्वा गृह्यत इत्यर्थः ॥१५॥
वधीभिर्विमथितमग्रयपश्चिमाभिः स्वेदाम्भः सितरुचि फेनिलं हरीणाम् । रूप्यस्य स्फुरदिव मण्डनं चकाशे केषां वा श्रमफलमुमति न धत्ते ॥१६॥
सेनामें जाते छत्रोंने थोड़ी सी भूल की थी। उनके कारण अस्तको प्राप्तके समान सूर्यका प्रताप पुष्ट नहीं हो सका था। अपितु पूर्ण रूपसे बढ़ा अपना गोलाकार होनेपर भी प्रतापी तथा जाज्वल्यमान सूर्य अपने आपको भी किसी तरह समझ पाता था ॥१३॥
__ रंग-बिरंगी और चिह्नोंयुक्त ध्वजाओंसे शोभित, श्रेष्ठ महावतोंसे परिचालित, लम्बी सूहीको आगे फटकारते ऊँचे-ऊँचे समस्त हाथी अश्वारूपी तरंगोंसे भरे सेना समुद्र में वर्षाकालीन नौकाओंके समूहके समान कूद पड़े थे [ वर्षाकालीन समुद्र में भी लहरै तेजीसे चलती हैं, बड़े-बड़े ग्राह उछलते रहते हैं तो भी विविध पालोसे युक्त, कर्णधारों द्वारा खेयी गयी, पतषार चलाती और ऊँची-ऊँची समस्त नौकाएँ चलती है ] ॥११॥
दौड़ते हुए घोड़े दूर जो पदार्थ थे उन्हें निकटतरके समान पा जाते थे और जो बहुत दूर थे उनमें भी निकटस्थोंके समान आगे निकल जाते थे । ठीक ही है, क्यों कि नूतनका प्रेमी संसार सरलतासे अप्राप्य तथा दूरस्थको प्राप्त करना चाहता है और जो प्राप्त है उसको छोड़ देता है ॥१५॥
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः
२५५ वाधीभिरिति-चकाशे शुशुभे किम् ? स्वेदाभी धर्भजलम् , फेषाम् ! हरीणामस्वानाम् , कथम्भूतं सत् ? चिमथितमालोडितं सत् , काभिः ? यीभिः चर्मयष्टिभिः, कथम्भूताभिः ? अध्यपश्चिमाभिः अप्रभवाभिः पश्चाद्भवाभिश्चेत्यर्थः, पुनः कथम्भूतं धर्मजलम् ! सितरुचि श्वेतदीप्ति पुनः फेनिलं संजातफेनम् , किं कुर्वन् चकाचे ? स्फुरदीप्यमानम् , किमिव ? रूप्यस्य रजतस्य मण्ढनमिव, युक्तमेतत् वा श्रमफलं केषाम् उन्नति न धत्ते, अपितु सर्वेक्षमपीति ||१६||
मातङ्गप्रभृतिपदाभिघातधूतः संप्राप्य प्रसरमितस्ततोऽपि पांसुः । आरुक्षन्नृपतिशिरः समुद्धतत्वान्नीचस्य स्थितिरियमद्भुतं न किंचित् ॥१७||
मातङ्गति-पांमु: रेणुः नृपतिशिरः आरक्षत् आरोह, किं कृत्वा ? पूर्वम् इतस्ततोऽपि यत्र तत्रापि प्रदेशे प्रसरं व्याति सम्प्राप्य, कथम् ? मासनप्रभृति पदाभिघातधूतः, मातङ्गप्रभृतीनां गजेन्द्रादीनां चतुरङ्गसैन्यानां पदाभिघातेन धूत: माराङ्गादिचरणक्षोदोरिक्षसः, युक्तमेतद्वयं स्थितिः स्यात् , कस्य ! नीचस्य, कस्मात् ! समुद्धतत्वात्, अतएव किंचिदभुतं न ||१७||
संतप्तस्तपनमरीचिभिः कटाम्यां नागानां मदगुरुणाग्रपल्लवेन । क्षुण्णोऽपि भ्रमरगणः स्थितोऽनुकर्ण छाया यत्पदमपि सा बरं न तूष्णम् ।।१८॥
संतप्तेति-भ्रमरगणः द्विरेफसमूहः, अनुकर्ण श्रवणयोः पश्चात् क्षुण्णोऽपि क्षोभ नीतोऽपि स्थितः, केन ! मदगुरुणा अग्रपल्लवेन कांग्रभागेन कथम्भूतः ? तपनमरीचिमिः दिनकृत्किरणः संतप्तः, काभ्यां क्षोभं नीतः सन् १ नागानां दन्तिनों कटाभ्यां कपोल्टाभ्याम् , युक्तमेतत् , छायापि यत् पदं विद्यते साबरं स्यान्न तूरणमिति॥१८॥
कायस्य त्वचि कठिनस्य कर्कशायां निर्यातुं विकलमपास्य तप्तमनास्यात् । सूत्कार तकरशीकराः कराग्रेरन्तस्थं ववमुरिव द्विपाः श्रमाम्भः ॥१९॥
कायस्येति-द्विपाः हस्तिनः करानैः शुण्डागः श्रमाम्भः श्रमजलं वबमुरिव वन्ति स्मेय, कथम्भूतम् , अन्तःस्थम् , किं कृत्या ? पूर्वमास्याद्वक्त्रात् विकलमसमर्थे तत श्रमाम्भः अपास्य अपाकृत्य किं कत्तुम् ! नियतिम् , कस्याम् १ कायस्य स्वचि शरीरस्य चर्मणि, कथम्भूतस्य ? कठिनस्य कर्कशस्य, कथम्भूतायां त्वचि ! कर्कशायां निष्ठुरायाम् कथम्भूताः सन्तो द्विपाः ? सूत्कारस्तुतकरशीकराः सूत्कारवशात्प्रस्यन्दितशुण्डानिष्ट्यतजलकण। इत्यर्थः ॥ १९ ॥
उच्छवासाद्विविधभरं लघु वहन्तः किं न्यूनं किमधिकमित्यधीश्वराणाम् । सत्कारं निजनियतं च कर्म कार्मा मध्यस्थाः समतुलयन्निवाध्वनीनाः ॥२०॥
आगे तथा पीछे चलती हुई चायुकों के द्वारा मथे गये समान, अत्यन्त धवल तथा झागयुक्त घोड़ोंका बहता पसीना चैसा ही शोभित हुआ था जैसा जगमगाता चाँदीका आभूषण लगता है [ उचित ही है, क्योंकि ] ऐसा कौन है ? परिश्रमके फलस्वरूप जिसकी उन्नति न हुई हो ॥१६॥
हाथी, आदि चाहनोंके चलने (पैर मारने) से उठी धूल पहिले तो इधर, उधर सर्वत्र फैल गयी थी। इसके बाद ऊपर उड़ने (उद्धत होने के कारण राजाके शिरके भी ऊपर पहुँच गयी थी। इसमें आश्चर्य ही क्या है ? क्योंकि नीच की स्थिति ही यही है ॥१७॥
सूर्य की किरणों के द्वारा तपाया गया तथा हाथियों के बहते मदजलसे भीगनेके कारण भारी कानके अगले भागके द्वारा सताया गया भी भौरीका समूह कानके पीछे बैठा हुआ था | उचित ही है--थोड़ी-सी भी छाया भली होती है, गर्मी नहीं ॥१८॥
प्रकृत्या कठोर देहकी अत्यन्त कर्कश चमड़ीसे पसीनेको निकालने में असमर्थ हाथी शरीरके भीतर भरे उष्ण स्वेद जलको मुखसे निकालकर, 'सू' 'सु' करनेमें सूंडसे निकलते जलके बिन्दुओंके बहानेसे सूंडसे ही उगल रहे थे ॥१९॥
Animal
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
उच्छ्वासादिति - समतुलयन्निय सम्यक् प्रकारेण तुल्यन्ति स्मेव, के १ कार्माः कर्मणि नियुक्ताः कार्माः कार्यवाहाः पुरुषाः, कम् ? सत्कारं सम्मानम् केषाम् ? अधीश्वराणां स्वामिनाम्, तथा समतुलयन्निव च, के ? कार्याः, किम् ? कर्म, कथम्भूतम् ? निजनियतं कर्मणोर्मध्ये किं न्यूनं स्यात् किमधिकं स्यात् इति कथम्भूताः सन्तः ? मध्यस्थाः सत्कारकर्मणोरित्यध्याहार्यम् पुनः कथम्भूताः । अध्वनीना: अध्वानमलङ्गामिनः, किं कुर्वन्तः ? विविधभर कार्यभारं वदन्तः, कथम्भूतम् ? उच्छ्रसात् आयासवशात् नासाद्वारेणवायुविमोचनात् लघुम् ॥ २० ॥
7
सेनैवं विरचितपार्थवाजिवेगादिक्ष्वाकुस्थितिविधिना यशो निधित्सुः । प्रस्थानात्प्रभृति पृथग्विधा निवेशान्नात्रुट्यञ्जलनिधिगामिनी धुनीव ॥ २१ ॥
सेनेति-सेना निवेशान् प्रभृति स्थितियोग्यप्रदेशं मर्यादीकृत्य प्रस्थानात् प्रयाणकम् प्रदेशात् नाट्यत् न त्रुटतिस्म के ? धुनीव नदी यथा, कथम्भूता १ जलनिधिगामिनी, कथम्भूता सेना पृथग्विधा विविधा, पुनः कम्भूता ? निधित्सुर्निधातुमिच्छुः किम् ! यशः कस्मात् १ एवं १ विरचितपार्थया जिवेगात्, एवमिति शब्दोऽ ङ्गीकारे वर्त्तते, तस्य सतामवश्यंभावितत्वात् एवमेवमित्यङ्गीकारेण कृत्वा विरचितं पार्थवं यस्मिन् स एवंविरचितपार्थवः अङ्गीकार विहितपृथुत्वः, आजो वेगः आजिवेगः संग्रामोत्सुकत्वमित्येवं विरचितपार्थवश्वासावा जिवेगश्र, एवं विरचितपार्थिवा जियेगस्तस्मात् केन १ इक्ष्वाकुस्थितिविधिना इक्ष्वाकूणां रामलक्ष्मणादीनां स्थितिविधिः इक्ष्वाकु स्थितिविधिस्तेन, इक्ष्वाकूणामाशयेति ।
२५६
भारतीय:- सेना नानुयत्, कस्मात् ? निवेशात् कथम् ? प्रभृति, कस्मात् ? प्रस्थानात् कथमेव एवमुक्तप्रकारेण, केव १ धुनीव, यथा धुनी न त्रुट्यति, कस्मात् निदेशात् उत्पत्तिस्थानमादिकृत्वा स्थितियोग्यप्रदेशं मर्यादी कृत्य न त्रुदयतीत्यर्थः । कथम्भूता सती ? जलनिधिगामिनी, कथम्भूता सेना ? पृथग्विधा विविधा, पुनः कथम्भूता ? यशोनिभित्सुः कासु ? दिक्षु आशासु, केन ? आकृस्थितिविधिना कुम् आ आकु आकोः स्थितिः आकुस्थितिः तस्या यो विधिः तेन, पृथ्वीं व्याप्यावस्थान विधानेनेत्यर्थः पुनः विरचितपार्थवाजिवेगा, पार्थोऽर्जुनः पार्थस्य वाजी पार्थवाजी, विरचितः पार्थवाजिनो वेगो यया सा तथोक्ता ||२१||
वीभत्सं रणरुचिरङ्गदोर्जितश्रीराशंसुर्जित परभूमिपावनिश्च ।
भीमोघस्थितिरिपुदुर्धरं स्वरूपं पौरस्त्यां धुरि गतिमापतां ध्वजिन्याः ||२२||
द्वि० बीभत्स मिति - आपतरं प्राप्तवन्तौ कौ ? अङ्गदः पावनिश्च हनूमान् एतौ काम् ? गतिम् कथम्भूताम् ? पौरस्त्यां पुरो भवा पौरस्त्या ताम् अप्रभवामित्यर्थः कस्याः १ ध्वजिन्याः सेनायाः धुरि, कथम्भूतोऽङ्गदः पावनिश्श्र १ रणरुन्त्रिः रणे संग्रामे रुचिः प्रीतिर्यस्य सः, पुनः अर्जितश्रीः पुनः भीमो भयानकः
अपनी महाप्राणता अथवा लम्बी साँस रोककर नाना प्रकारके भारीको अनायास ही ले जाते हुए विहंगी (कावर ) धारक कुशलतापूर्वक मार्गको पार करते हुए, स्वामियोंके सम्मान और अपने पर आये दायित्व इन दोनों (कौन बड़ा है और कौन कम है) को मध्यस्थके समान तोलते हुए समान लगते थे ॥ २० ॥
इक्ष्वाकु वंशधरोंकी आज्ञासे युद्धकी त्वराकी विशालता (पार्थच + आजियेगात् ) । से परिपूर्ण नाना प्रकारकी रात्रव सेना विजयके यशकी प्रतिष्ठा करने के लिए नदीके समान समुद्र की ओर बढ़ती हुई भी प्रारम्भसे लेकर लक्ष्य पर्यन्त चली गयी थी बीचमें कहीं भी टूटी नहीं थी [ अर्जुनके घोड़ोंके वेगसे ( पार्थ + वाजि ) समस्त पृथ्वीको आक्रान्त करके ( आ-कु-स्थिति-विधिना ) दिशाओं में अपनी कीर्ति स्थापित करनेके लिए चतुरंग पाण्डव सेना समुद्रगामिनी नदीके समान स्कन्धावार से लेकर युद्धस्थली पर्यन्त अखण्ड रूपसे फैली थी ] ॥२१॥
युद्धके प्रेमी, रौद्ररसकी प्रशंसा करनेमें लीन, लक्ष्मीके निधान, शत्रुओंकी भूमिके विजेता और भयके कारण स्वयमेव निरुत्साहको प्राप्त शत्रुओंके लिए युद्ध में दुर्धर अंगद
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः
२५७
पुनः आशंसुः श्लाघमानः, किम् ? बीभत्सं रौद्रं स्वरूपम्, कथं स्वरूपम् ? जितपरभूमि जिता परेषां शत्रूणां भूमिर्येन तत् पुनः अघस्थिति अवस्य स्थितिर्येषु अधेनोपलक्षिता स्थितिर्येषां वा ते अवस्थितयः से च ते रिपवच अवस्थिति रिपवस्तेषां दुर्द्धरं पापस्थितिमनुष्याणां दुःखेन धत्तु" शक्यमिति, अथवा भीमोघस्थितिदुर्धरं थिया भयेन मोघा निष्फला स्थितिर्येषां ते मीमोघस्थितयः भीमोघस्थितयश्च ते तथोक्तास्तेषां दुर्द्धरस्तम् ।
भारतीये - आप प्राप्तवान् कः ? भीमो वृकोदरः, काम् ? तां गतिम् कथम्भूताम् ? पौरस्त्याम्, कस्याम् १ धुरि, कथम्भूतः १ गदोर्जितश्रीः गदया ऊर्जिता श्रीर्येन सः पुनः जितपर भूमिपावनिः जितापरभूमिपानां शत्रुनृपाणाम् अवनिः पृथ्वी येन अभिभूतेतरनरेश्वरभूमिरित्यर्थः । पुनः बीभत्समर्जुनं श्लाघमानः कथम्भूतमर्जुनम् १ रणरुचिरं रणः रुचिरः प्रीत्युत्पादको यस्य सः तम् अथवा रणे रुचि प्रीति राति गृह्णातीति तं पुनः अवस्थितिरिपुहुर्द्धरं पापस्थितीनां रितॄणां दुःखेन धत्तुं शक्यम्, पुनः कथम्भूतम् ? स्वरूपं स्वस्य आत्मनो रूपं यस्य स तम् कस्याम् १ ध्वजिन्यां धुरि इति ॥ २२ ॥
तत्पार्श्वे गतधृतिमत्स्यदेशमाढ्यं भुञ्जानोऽनलसहितः सुखं प्रतस्थे । पञ्चालोचितविषयप्रभुश्च सैन्यं विभ्राणः सवसुयशोविलासिनीलः ||२३||
तत्पार्श्व इति स लोकविख्यातो नीलः नीलनामधेयो विद्याधरचक्रवतीं प्रतस्थे किं कुर्वाणः १ तत्पार्श्वे तस्या ध्वजिन्याः पार्श्वे हनुमदङ्गपार्श्वे वा सैन्यं विभ्राणो धरन्, कथम्भूते तत्पार्थे ! गतधृतिमत्स्य देंगतधृतिरस्यास्तीति गतधृतिमान् गतधृतिमान् स्वदो यस्य तस्मिन् गमनधरणवद्वेगे इत्यर्थः कथम्भूतं सैन्यम् १ सुयशोविलासि सुयशोभ्यां द्रव्यश्लोकाभ्यां विशेषेण लसतीत्येवंशीलं तत् किं कुर्वाणः १ शमाढ्यम् उपशमप्रधानं सुखं भुञ्जानोऽनुभवन् कथम्भृतो नीलः १ नलसहितः नलनामधेयेन राज्ञा संयुतः, पुनः पश्वालोचित - विषयः पञ्चात्यः क्षत्रियाः तेषाम् उचिता ये विषया भोगास्तेषां प्रभुः स्वामीः अथवा पाञ्चाल्ये देशः, पञ्चाल एवं उचितो योग्यो विषयो येषां चितविषयाः पादेोवाः क्षत्रियास्तेषां प्रभुः ।
भारतीये प्रतस्थे कः १ राजा, किं कुर्वाणः १ मत्स्यदेशं वैगरदेशं भुञ्जानः कथम्भूतम् १ आं किं कुर्वाणः १ तत्पार्श्वे समृद्धम् कथं यथा भवति । सुखं यथा; एतेन विराटनामधेयो नरेन्द्रश्वचालेति लब्धम्, तस्याः पार्श्वे सैन्यं विभ्राणः, कथम्भूते तत्पार्श्वे १ गतधृति गतं चरति गतधृत् तस्मिन् कथम्भूतो विराटः ! अनलसहितः अलसाः मन्दाः न अलसाः अनलसाः उद्योगिनस्तेषां हितः, अथवा अनलसाः सकलकलाकुशलाः हिता: अमात्यादयः पुरुषा यस्य सः पुनः पञ्चालेोचितविषयप्रभुः आलोचिताः सकललोक प्रतीताः विषयाः इष्टस्रग्वनिता चन्दनादयः, आलोचिताश्च ते विप्रयाश्व, आलोचितविपयाः, पञ्च च वे आलोचितविषयाश्च पञ्चालोचितविषयास्तेषां प्रभुः शृङ्गाररसरसिक इत्यर्थः तथा चोक्तं "रससङ्गेन यो रीतेर्विदधाति सुबर्णताम्, स कविः स नरेन्द्रश्य धन्द्यः कस्य न जायते", पुनः कथम्भूतः १ सवसुयशोविलासिनील: वसु द्रव्यम्, यशो वर्णः, विलासिन्यः सुन्दर्यः, इला मेदिनी एतैः सह वर्त्तते सः तथोक्तः ॥ २३॥
और पनसुत रामकी सेना के आगे-आगे चले जा रहे थे [ अपनी गदा के कारण अधिक शोभायमान, शत्रु पक्ष से मिले राजाओं की भूमिका विजेता, पापके गर्त में पड़े शत्रुओं कौरवों के द्वारा रोके जानेके लिए अत्यन्त कठिन और युद्धके लिए आतुर अर्जुन ( बीभत्स ) की प्रशंसा लीन भीम कृष्णकी सेनाके आगे चल रहा था ] ॥ २२ ॥
शान्तिकालके विशाल सुखका भोक्ता, सम्पत्ति और कीर्ति के द्वारा शोभित, सबकी चर्चा विषय पाँचों इन्द्रियोंके भोगोंका स्वामी (पञ्च-आलोचित-विषय-प्रभुः ) तथा विशाल सेनाका नेता वह नील भी यात्राके आयासको सहने में समर्थ रथपर ( गतधृति मत्स्यदे ) चढ़कर नलके साथ उन अङ्गद और हनुमानके पार्श्व में चल रहा था [ धन, कीर्ति, कामिनी और भूमिकी अपेक्षा परिपूर्ण, आलससे दूर और हितैषी, सम्पन्न मत्स्य देशका सुखसे भोग करता तथा पाञ्चाल और संलग्न देशोंका भी राजा विराट सेना लेकर आक्रमण सहनेमें समर्थ पाण्डव सेनाके पार्श्व में चल रहा था ] ॥२३॥
३३
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् तन्मध्यं हरिकुलनायकैरनेकैरामोदस्फुटसितचन्दनोचिताङ्गः । दुर्वृत्तं विजहदसज्जनार्दनोऽसौ भूपार्थक्षतशमनोद्यतो जगाहे ॥२४॥
तन्मध्यमिति-गाई गाहते स्म, कोऽसौ १ असौ रामो राघवः, किम् ? अद एतत्तन्मध्यं तस्या ध्वजिन्या मध्यम् , कैः सहः १ हरिकुलनायकैर्वानरसमूहस्वामिभिः । कथम्भूतैः ? अनेकैर्नानाविधैः, किं कुर्वन् ? दुर्वृत्तं दुःशीलत्वं विजहत् । कथम्भूतो रामः ? स्फुटसितचन्दनोचिताङ्गः स्फुटसितः सुग्रीवः चन्दनश्चन्दननामधेयो नृपः तयोचितम् अङ्गं यस्य सः तथोक्तः, अत्र रामशरीरस्य मुग्रीवचन्दनयोः आरक्षकत्वं प्रतिपादितम् , कथम्भूतः ? असजनार्दनः असतो जनानर्दयतीति असजनार्दनः रिपुप्रध्वंसक इत्यर्थः । पुनः भूपार्थक्षतशमनोद्यतः भूपानां यः अर्थः क्षात्रधर्मः तस्य यत् क्षतं लोपः तस्य शमने उद्यतः भुपार्थक्षत्तशमनोद्यतः, अद इत्यत्र विसर्गभूतस्य सकारस्य स्कुटपदराकारस्य लोपो द्रष्टव्यः "झरो झरि स्वे" [जै० सू० ५।४।१३९ ] इत्यनेन सूत्रेण सकारलोपप्रतिपादितत्वात्।
भारतीये-जनार्दनी नारायणः तन्मध्यं तस्या ध्वजिन्या मध्यं जगाहे, की सहः १ हरिकुलनायकैः समुद्रविजयादिभिर्नरेन्दै, किं कुर्वन् ? असौ स्खङ्गे असत् असमीचीनं क्षत्रियकुमारैर्निन्दितं दुर्वृत्तं विजहत् परित्यजन् , कथाभूतो जनार्दनः आमोदस्फुटसितचन्दनोचिताङ्गः, आमोदन स्फुटं यत् सितचन्दनं तस्योचितमङ्गं यस्य स परिमलप्रवक्तव्यश्वेतश्रीखण्डयोग्यशरीर इत्यर्थः, पुनः भूपार्थक्षतशमनोद्यतः भुवः पृथिव्याः पार्थानां पाण्डवानां क्षतशमने उद्यतः ॥२४॥
मदोत्तमाद्रेयबलेभसारे भागेऽपरे सर्पति जाम्बवेऽस्मिन् । द्वीपेन्विते राजभिरप्रसयैः ससर्प वेलेव चमूः पयोधेः ॥२५॥
मदेति-ससर्प जगाम, फा १ चमूः सेना, क ? अस्मिन् द्वीपे, अत्र केव ससर्प चमूः ? पयोधेः वेलेव, अस्मिन् द्वीपे, व सति चमूः ससर्प १ अपरे पश्चिमे पाश्चात्ये भागे, पुनः कथम्भूते १ जाम्बवे जाम्बवस्यायं जाम्बवः तस्मिन् जाम्बवश्वत्रियसम्बन्धिनि पुनः मदोत्तमाद्रेयबलेभसारे मदोत्तमाः मदप्रधानाः आद्रेयाः अद्रिजाताः ये बलेभाः सैन्यगजाः तैः सारे पुनः सर्पति विजृम्भमाणे पुनः राजभिर्नरेन्द्रैः अन्विते युक्ते, कथम्भूतैः राजमिः ! अग्रसौः सोढुमशक्यैः ।
भारतीये-चमूः ससर्प, क ? जाम्बवे जम्न्या इदं जाम्बवं तस्मिन् जम्बूपलक्षिते द्वीपे, केव ! पयोधेः वेलेव क सति चमूः ससर्प । भागे, कथम्भूते ? अपरे पश्चिमे, किं कुर्वति सति ? सर्पति, पुनः कथम्भूते ? मदोत्तमाद्रेयबलेभसारे मदोत्ताः मदलिन्नाः त्रिगण्डैर्मदजलप्रवाहिण इत्यर्थः, ये माद्रेययोर्मद्रीपुत्रयोर्न कुलसहदेवयोलेमाः तैः सारे। अन्यत्समम ॥ २५ ।।
अनेक वानरवंशी राजाओं के साथ उस सेनाके धीचमें श्रीराम जा रहे थे, सुग्रीव (स्फुटसित ) और चन्दन इनके अंग-रक्षक थे, स्वयं ये दुराचारके त्यागी थे और दुओंके विनाशक थे तथा क्षात्र धर्मपर आये प्रहारका वारण करनेके लिए कटिबद्ध थे [अनेक यादववंशी राजाओंसे घिरे, पृथ्वी और पाण्डवोंके साथ हुए अन्यायका प्रतीकार करनेको उद्यघृत जनार्दनने शस्त्रविद्या ( असौ) के प्रतिकूल ( असत्,) निन्ध आचरणको छोड़कर उस सेनाके केन्द्रको सम्हाला था। उनके पूरे शरीरपर श्वेत चन्दनका लेप हो रहा था जिसकी सुगन्ध सर्वत्र फैल रही थी ] ॥२४॥
सामना करने के लिए अशक्य राजाओंसे युक्त, पर्वतोंमें उत्पन्न ( आद्रेय ) मदोन्मत्त उत्तम दाथियोंके कारण सुपुष्ट जामवन्तकी पीछे चलती हुई सेना इस लंकाद्वीपपर उसी तरह चढ़ गयी थी जैसे समुद्रकी लहरें चढ़ जाती है [ सामना मदजलसे गीले (मदोस) माद्रीसुतो ( माद्रेय) की हस्ति-सेनासे सबल पाण्डव सेना इस जम्बूद्वीपके अपर भागमें उसी तरह हैं ] ॥२५॥
१. उपजातिवृत्तम्।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः
एवं नानाक्षत्रियवगैः पृतनाग्रे सालङ्कान्तं रौप्यमिवैतैः सह सालम् । वेलापातश्वेततरङ्गं जलराशिं तं सारम्भोगाङ्गमवापन्नृपतिश्च ||२६||
एवमिति सा पृतना सेना लङ्कान्तं लङ्कासमीपवर्तिनं सालं प्राकारम् अवापत् प्राप्तवती, कमिव ? रौप्यं रजतनिर्माणमिव, कथम् ? अग्रे प्रथमं कथम् ? एतैः नाना क्षत्रियवगैः सह कथम् ! एवमुक्तप्रकारेण, तथा अथापत् प्राप्तवान् कः ? नृपतिरत्र रामः, कम् ? तं जलराशिं समुद्रम्, कथम्भूतम् ? वेलापातश्वेततरङ्गम्, सुगममेतत्, तथावापत् कः ? नृपतिः किम् ? भोगाङ्गं भोगः सकृद्भुज्यते इति भोगः भोगस्याङ्गमिति भोगाङ्गं ताम्बूलकुसुमचन्दनादि, कथम्भूतम् ? सारं प्रधानमिति । अग्रे प्रथगम्, अग्रे भारतीयः पक्षः- अवापत् का ? पृतना सेना, कम् १ जलराशिभू, कथम् इति विभक्तिप्रतिरूपक मध्ययपदम् कैः सह ? एतैः नानाक्षत्रियवर्गः, कथम् ? अलमत्यर्थम्, कथम्भूतं जलराशिम् ? गाङ्गं गङ्गाया अर्थ गाङ्गस्तम्, पुनः कथम्भूतम् ? वेलापातश्वेततरङ्गम्, कभिव १ रौप्यं रजतमयं सालमिव पुनः कान्तं मनोहरं तथा चावापत् नृपतिर्जनार्दनः, कम् ? जलराशिम् कथम् ? अलमत्यर्थमू, कथम्भूतः जनार्दनः ? सारम्भः साटोप: ॥२६॥
२५९
चिरानवस्थाननियोगखिन्नमेकस्थमस्यायतमापगौधम् ।
यथाम्बुराशिं ध्वजिनीरजोभिः श्यामायमानं ददृशुर्बलानि ||२७||
चिरेति - बलानि सैन्यानि अम्बुराशिं समुद्रं ददृशुः निरीक्षाञ्चक्रिरे, कथम्भूतम् ? ध्वजिनीरजोभिः सेनारेणूत्करैः श्यामायमानम्, कमिवोत्प्रेक्षितम् १ यथापगौधं सरित्समूहमिव, कथम्भूतम् १ एकस्थमेकत्रविश्रान्तम्, पुनः चिरानवस्थाननियोगखिन्नं बहुतरकालपर्यटन व्यापारेण श्रान्तं पुनः अत्यायतं दीर्घतरम् । भारतीये - दहशुः कानि ? बलानि, कम् ? अम्बुराशिं जलसमूहम्, कथम्भूतम् ! आपगोवम् आपगानामोघः आपगौवः आपगौघस्यायमा पगोधस्तम्, कथम्भूतं ददृशुः ? ध्वजिनीरजोभिः श्यामायमानं पुनः अत्यायतम्, कमिवोचितम् ? एकस्थं यथा एकत्र विश्रान्तमिव । शेषं सुगमम् ॥२७॥
दिक्षुराद्यन्तमिव प्रमाणं पूर्वापरं वा प्रथमाभिषङ्गा ।
समुद्रतीरञ्जितसर्वलोका सेनापगां व्याप्तवती बलेन ॥ २८ ॥
द्विः । दिक्षुरिति- आप प्राप्तवती का ? सेना, किम् ? समुद्रतीर जलवितटम्, कथम्भूता ? व्याप्तवती, काम् ! गां पृथिवीम्, केन कृत्वा ९ बलेन रामचन्द्रेण कथम्भूता सती १ जितसर्वलोका, सुगममेतत्, केवो
"
विविध वंशके क्षत्रिय राजाओंसे परिपूर्ण यह रामकी सेना उक्त प्रकारसे, किनारेपर अपनी श्वेत तरंगोंको फेंकते हुए लंकाके पास के अतएव चाँदीके परकोटा के समान समुद्र के पास पहिले पहुँच गयी थी तथा राजा भी भोगके प्रधान साधनको प्राप्त हुआ था [ यह पाण्डव सेना अत्यन्त सुन्दर, किनारे पर धवल लहराते अतपय चाँदीके परकोटाके सहश गंगाकी जलराशिके पास सबसे पहिले पहुँची थी । और इसके बाद सजधजके साथ राजा जनार्दन भी पहुँचे थे ] ॥२६॥
राघव-सेनाने अत्यन्त विस्तृत तथा सेनाके चलनेसे उड़ी धूलके कारण काले-काले समुद्रको देखा था । मानो चिरकालतक घूमते रहने के कारण थकी नदियोंकी विपुल जलराशि ही एक स्थानपर रुक गयी थी [ पाण्डव सेनानेकाले मगधकी नदियों के समूहको देखा था जो चिरकालतक भटकते रहने के कारण खिन्न, अतएव एक जगहपर थमी जलराशिके तुल्य लगता था ] ॥२७॥
पहिले-पहिले पहुँचनेके कारण आदि और अन्त अथवा आगा और पीछा देखनेकी १. मत्तमयूरवृत्तम् । २. उपजातिवृत्तम् ।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् स्पेक्षिता ? दिक्षुष्टुमिच्छुरिव, किम् ? प्रमाणं प्रकृष्टं मानं प्रमाणम्, कथम्भूतम् ? आद्यन्तम् आदिश्च अन्तश्च आद्यन्तौ आद्यन्तौ यस्य तदाद्यन्तं वाथवा पूर्वापरं पारम्पर्यतया प्रसिद्धं प्रमाणं दिक्षुरिव, कस्मात् १ प्रथमाभिएतात् प्रथमसम्बन्धात् ।
भारतीयः-व्यासवती, का ? सेना, काम् ? आपगां नदी गङ्गाम्, कथाभूता समुद्रवी ? रक्षितसर्वलोका आनन्दिताखिलविश्वा, केन कृत्वा ! बलेन सामथ्येन बलभद्रेण वा पुनः रामुद्रतिः मुदि रतिः मुद्रतिः सह मुद्रत्या वत्तते इति समुद्रतिः इपरत्या सह वर्तमाना पूर्वार्द्ध पूर्वोक्तव्याख्यानविषयं बोधव्यम् ॥२८॥
समुद्रं हा न्यायं विदधदाहितस्यापिहितधीः
___ स नीलाभोगङ्गां व्युदतरदवन्विष्णुरखिलम् । गतं खेलं कुर्वदलमपि तथा वानरमयं
.. रजस्त्वेकं चम्बाः सलिलधिनिषिद्धं निववृते ॥२९॥
द्विः। समुद्रमिति-हा कष्टं व्युदतरत् व्युत्तीर्णवान् , स विष्णुर्लक्ष्मणः, कम् ? समुद्रम्, कथम्भूतम् ! नीलाभोग नील आभोगो यस्य तम्, किं कुर्वन् ? विदधत् कुर्वन् , किम् ? न्यायं नीतिम् , कथाभतो विष्णुः १ हितधीः हितं सुखं तत्कारणं च, हिते धीर्यस्य स हितधीः, कस्यापि १ अहितस्यापि शत्रोरपि अथवा विदधत् कुर्वन् , किम् ? क्षन्यायं छाने आयं प्रध्वंसस्य प्राप्तिम् । अहितस्य रिपोः, कथम्भूतोऽपि ? हितधीरपि उपकारनिष्टबुद्धिरपीत्यर्थः, किं कुर्वन् ! अवन् रक्षन् , काम् ! गां मेदिनीम् तथागतं , किमपि ? बलमपि, कुर्वत् , किम् कुर्वत् ! अलं विभूषाम् , क ! खे गगने, कथम्भूतं बलम् ! वानरमयं वानरा हेतुर्यस्य तद्वानरमयं पुनः अखिलं तु पुनः निववृते निवृत्तम् , किम् १ एक रजः कस्याः १ चम्वा : सेनायाः, कयम्भूतं सन्निवृत्तम् १ सलिलधिनिषिद्धमिति ।
___ भारतीया-व्युदतरत् , कः १ स विष्णुर्नारायणः, काम् १ गङ्गां सुरसरितम् , किं कुर्वन् ? विदधत् , कम् ! न्यायं नीतिम् , कस्य ? अहितस्य शत्रोः, किं कुर्वन्नपि.१ अबन्नपि, कम् ? न्यायं नीतिम् , क ? आत्मनीतिसंयोज्यम् , कथम्भूतो विष्णुः १ नीलामः श्यामलकायकान्तिः पुनः हितधीः हितेष्वन्यभिचारिष धीर्यस्य स हितधीः, पुनः कथम्भूतः ? समुद्रहाः, मुत् हर्षः रहो वेगः मुदो रहः मुद्रहः सह मुद्हसा वर्तते इति समुद्रहाः, अथवा व्युदतरत् गङ्गां स विष्णुः किं कुर्वन् ! विदधत् कुर्वन् , किम् ? आयं संयोगम् , कया सद्दः १ हान्या विनाशेन, कस्य १ महितस्य विपक्षस्य, किं कुर्वन् ? अवन् रक्षन् , कम् । समुद्रम् , २ः ध्वनिः, सह मुदा घर्तते इति समुत् समुच्चासौ रश्च समुद्रः तं समुद्रं सानन्दरवमित्यर्थः, व १ आत्मनीत्यध्याहार्यम् , कथम्भूतः सन् ! अपिहितधीः अनावृतमतिः शानावरणीयकर्मसंयोगवियोगात् सकलशास्त्रप्रवीणबुद्धिरित्यर्थः तथा गतम्, किम् बलमपि. कयम्भूतम् १ नरमयम् , वा हवाथे, तेनोपमार्यो लभ्यते, किं कुर्वदिव गतम् ! कुर्वदिव,
इच्छासे ही, अपने सामर्शदाय समस्त पृथ्वीको आक्रान्त करती, विश्व-विजयिनी वह सेना समुद्र तटपर पहुँच गयी थी [""इच्छासे ही, नारायणकी उपस्थितिके कारण सानन्द और अनुरक्त, तथा समस्त लोकको प्रसन्न करती उस सेनाने गंगा नदीको व्याप्त कर लिया था ] ॥२८॥
शत्रुके भी कल्याण करनेका इच्छुक, न्यायका फर्ता तथा पृथ्वीकी रक्षामें तत्पर लक्ष्मण नीली नीली शोभामय समन सागरको पार कर गये थे। और वानरोंकी सेना भी आकाशमें (रखे) पूर्ण रूपसे चलती हुई पार हो गयी थी। समुद्र के जलसे शान्त अतपय रोकी गयी सेनाको धूल ही केवल लंका जाते जाते लौट आयी थी [शत्रुके लिए विनाशक संयोग (हान्याय) का कर्ता, समस्त आनन्दमय प्रसंगोंका रक्षक, बुद्धिमत्ताके लिए ख्यात (अपिहितधीः) तथा नील कान्तिके धारक उस विष्णुने गंगाको पार कर लिया था। और
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुर्दशः सर्गः
कम् १ खेल क्रीडाम्, कथम्भूतं बलम् । अखिलं समस्तं तु पुनः निक्तृते, किम् १ एकं रजः, कथं सत् १ सलिलधिनिषिद्धमिति ॥ २९ ॥
तद्वानेयद्विपमदमरुद्भ्रान्तचित्तं कथञ्चिद् भूतावेशादिव शिरो धुन्वदाधोरणानाम् । तीरोपान्तप्रहितनयनं हास्तिकं वारि तीर्ण
गन्तुं सेतुः कृत इव घटाबद्धमक्षौहिणीनाम् ||३०||
,
तदिति-तीर्णम् किम् ? हास्तिकं हस्तिसमूहः, किं तीर्णम् ? वारि जलम् कथम्भूतं सन् ? घटाचदम्, क इवोत्प्रेक्षितम् १ सेतुरिव कथम्भूतः १ विहितः, किं तुम ! गन्तुम, कासाम् ? अक्षौहिणीनां सेनानाम्, कथम्भूतं हास्तियम् ! सीरोपान्तप्रहितनयनं तदसमीपप्रेरितलोचनम्, किं कुर्वत् ? धुन्वत् कम्पयत्, किम् दस्तक, पाम् किं कुर्वत् ? भ्रमत् कस्मादिव ? भूतावेशादिन ग्रहावेशादिव, कथम्भूतावेशोऽजनिष्ट ! कथञ्चित् केनचित्प्रकारेण पुनः कथम्भूतम् ! तद्वानेयद्विपमदमरुदुद्भ्रान्तचित्तं वने भवा वानेयाः वानेयाश्च ते द्विपाश्च वानेयद्विपाः तस्य समुद्रस्य वानेयद्विपास्तेषां मदमस्ता भ्रान्तं चित्तं यस्य तत्तथोक्तं समुद्रवनभदेभमदामोदवायुसंमोहितचेत इत्यर्थः ॥ ३० ॥
बाजी वायुमयं जयं जवमयं चित्तं स चेतोमयं
देहं विदिवाखिलोsपि चटुलोऽप्यारोरेवाशये ।
२६१
कस्याः १ श्वभ्वाः,
काये चैक्यमुपेयिवानिव वशादर्णः समुत्तीर्णवान्
द नाम विवर्तते मयितुः शीलेन कालान्तरे ॥ ३१॥
वाजीति - समुत्तीर्णवान् कः १ स बाजी अश्रः अत्र जात्यपेक्षयैकवचनम् किम् ? अर्णो जलम् कस्मात् १ वशात्, कस्यैव १ आरोदुरेव अश्ववारस्यैव, कथम्भूतः १ अखिलेोऽपि पुनः चटुलेोऽपि चञ्चलेोऽपि, कइवोत्प्रेक्षितः ! ऐक्यम् अभेदम् उपेयिवानिव प्राप्तवानिव क्क ! आशये हृदये काये शरीरे च, कस्यैव ? आरोरेव किं कुर्वन्निव वायुमयम् अनिलनिर्माण जवं वेगं विभ्रदिव घरन्निव तथा चित्तं मनः जवमयं वेगनिर्माणं विश्रदिव तथा विभ्रदिव, कम् । देहम् कथम्भूतम् १ चेतोमयं मनो निर्माणम्, युक्तमेतत्, नाम अहो विवर्त्तते परिणमति, किम् ? दभ्यं वस्तु, दमयितुः शिक्षासमर्थस्याचार्यस्य शीलेन कौशल्यगुणेन, क कालान्तरेर समयान्तरे ॥ ३१ ॥
प्राप्तव्योमासङ्गमोघं रथानां सव्येष्टास्तेऽनादिचक्रभ्रमेण ।
मुक्ताशं संसारपारं सुखं तं भव्यं सन्मार्गा इव स्मानयन्ति ||३२||
प्रयाणको खेल समझती वह पुरुष सेना भी पार हो गयी थी केवल " 'गंगाके द्वारा रोका धूलिपुञ्ज ही इस पार रह गया था] ॥ २९ ॥
जंगली हाथियों के मदजलसे षासित गंधके कारण कुछ कुछ मत्त अतएव भूतावेशके प्रभाव के समान महावतोंके शिरोंको हिलाते हुए, उस किनारेकी भूमिपर दृष्टि गढ़ाये और पानीको पार करके व्यूह-रचनासे चलते हाथियोंका समूह ऐसा लगता था; मानो सेनाके जानेके लिए पुल ही बना दिया हो ||३०||
पूरीकी पूरी चंचल अश्वसेनाका वेग वायुके समान था, विश्व वेगमय था, शरीर चितमय था तथा चित्त और शरीर एक-मेक हो जानेके कारण वद्द. अश्वारोहियोंकी प्रेरणा से जलराशिको पार कर गयी थी । उचित ही है शिक्षार्थी या विलेय समय बीतने पर शिक्षक या आचार्य के शीलसे प्रभावित होता है ॥ ३१ ॥
१. शिखरिणीवृतम् । २. मन्दाक्रान्तावृतम् । ३. शार्दूलविक्रीडितम् वृत्तम् ।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
द्विसम्धानमहाकाव्यम् प्रातेति-आनयन्ति स्मानीतवन्तः, के ? ते सव्येष्टाः सारथयः, कम् ! तमोघं समूहम् , केषाम् ! स्थानाम् । केन कृत्वा ? अनादिचक्रभ्रमेण नात्यादिर्यस्य स अनादिः आदेरपेक्षायाम् अन्तस्यापि ग्रहणं निरपेक्षामावविषयत्वात् सापेक्षत्वाच सर्वपदार्थसार्थानाम् इति, चक्राणां भ्रमः चक्रभ्रमः अनादिश्वासोचभ्रमश्च अनादिचक्रनमः तेन कथं वथा भवति ? मुक्ताशंसं मुक्तप्रदांसम् , कथं यथा भवतीत्यानीतवन्तः १ सुखं यथा कथम्भूतं मोघम् ? प्रासन्योभासङ्गं प्राप्तो व्योग्नः आकाशस्य आसनः सम्बन्धो येन सः तु पुनः सारपार सारो रेणूक्तरः लोहं यासारः पारः पर्यन्ते यस्य स सारपारतं सारपारं पुनः भव्यं रम्यम् , क इवानयन्ति स्म ? सन्मागा व यथा सन्मार्गाः सम्यग्दर्शनशानचारित्रलक्षणाः आनयन्ति, कम् ? भव्यं धर्मनिष्ठ जनम् , कमानयन्ति ? संसारपारं भवतट , कथं यया भवति ? सुखम् , केन कृत्वा ? अनादिचभ्रमेणेपार्जिततीनकर्मोपशमवशात् द्रय क्षेत्रकालभावचतुष्टयत्य लभ्या इत्यर्थः, कथम्भूतं भव्यम् ? प्राप्तव्योमासङ्गम् उमया सङ्गः कीर्तिसंयोगः प्रासव्य उमासको पस्य तं पुनः मुक्ताशं मुक्ता आशा थेन तं परित्यक्तबाह्य व्यापारम्' ॥ ३२ ॥
कर्णश्रति गच्छति तूर्यनादे ध्वजेषु दृष्टिं पुरतः स्पृशत्सु ।
मोहं गतानीव चिरं विजजुः कथंचिदात्मावसथं बलानि ॥३३॥ कर्णति-विजनुः जानन्ति स्म, कानि ? बलानि, कम् ? आत्भावसथं स्वकीयां वसतिम्, कपम् ! कथञ्चित् महता कष्टेन, कयम् १ चिरं बहुतस्थालेख, कथम्भूतानीवोत्यक्षितानि बलानि ! मोहं गतानीव, क सति ! पनादे कर्णश्रति कर्णरन्धमार्गे गच्छति सति, केषु सत्सु ? ध्वजेषु आलम्वेयु' पुरतोऽग्रतः दृष्टि स्पृशत्सु ॥३३॥
तदेव गाम्भीर्थमदः प्रमाणमगाधता सैव तदायतिश्च ।
चमरशेषा चिततानुकूलं सा नद्यधीनप्रतिमेव रेजे ॥३४॥ ... तदेव इति-द्विः । तदेव गाम्भीर्यमस्ति तया अद एतत् एव प्रमाणमारत, वा सेवांगायताऽस्ति, तथा तदायत्तिश्च तदैर्य चास्तीति कृत्वा रेजे भाति स्ग, का ? सा चमू सेना, कथम्भूता सती ! वितता प्रस्ता, कथम् ? अनुकूलं प्रतितटम् , पुनः कथम्भूता १ अशेषा समस्ता, केव रेजे चमूः १ नद्यधीनप्रतिमेव नदीनामधीनः नदाधीनः नद्यधीनस्य प्रतिमा नद्यधीनप्रतिमा समुद्रमूर्तिरिवेत्यर्थः । - भारतीय-नद्यधीनप्रतिमेव नद्या अधीना नद्यधीना नद्यधीना चासौ प्रतिमा च नद्यधीनप्रतिमा सेव गङ्गायत्तमूर्तिरिवेत्यर्थः । शेपं सुगमम् ।। ३४ ॥
विचित्ररत्नप्रतिभाविशालं राजालयं राजकमभ्युपेत्य ।
रामाननालोकगतादराक्षं पार्थक्षतं रोद्धमनोऽवतस्थे ॥३५॥ सतत प्रचलित चक्रोंकी गति के द्वारा विस्तृत आकाशमें व्याप्त धूलि पुंजके बाहर ले जाकर प्रशंसनीय ढंगले सारथि लोग रथोंकी पंक्ति सुखसे टीक रास्तेपर वैसे ही बढ़ाये लिये जा रहे थे जैसे कल्याणकारी तथा स्पृहणीय रत्नत्रय रूपी मोक्षमार्ग, लोकमें साध्यभूत लक्ष्मीके मोहके कारण निष्फल अनादि कालसे चले आये संसार-समुद्रके उस पार भाशापाशसे रहित भव्य जीवको भेज देता है॥३२॥
चाोके आरावसे कानोंके छेद भर जाने से तथा आगेसे आँखोपर ध्वजाओंके पड़ जानेके कारण सेनाकी टुकड़ियां मूर्छाको प्राप्तके समान यहुत देरसे अपने-अपने निघासको पहिचान सकी थीं [मूञ्छित व्यक्ति भी कानोंपर वाद्य बजानेसे तथा आँखों में शीतल पदार्थादि लगानेपर बड़ी कठिनाईसे आत्मचैतन्यको प्राप्त होता है 1 ॥३३॥
वह परिपूर्ण और किनारे, किनारे दूरतफ फैली राघव अथवा पाण्डव सेना समुद्र अथवा गंगा नदीकी मूर्तिके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि इसकी गहरायी, (शक्तिकी सीमा) विस्तृत संख्या, अथाहपना (गुहाता) तथा विस्तार समुद्र या गंगाके तुल्य ही थे॥३४॥
1. शालिनीवृत्तम् । २. अलम्धेपु-प०, ३० । ३. उपजातिवृत्तम् ।
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्दशः सर्गः
२६३ विचित्रेति-अवतस्थे स्थितवत् , किम् ? राजकं राजसम्हः, किं कृत्वा ? पूर्वमन्युपेत्य सामस्त्येन प्राप्य, कम् ! राजाल्यं राजमन्दिरम् , कथम्भूतम् ? विचित्ररत्नप्रतिभाविशालं विचित्ररत्नानां प्रतिभां दीप्तिम् अवतीति विचित्ररत्नप्रतिभावी स चासौ शालो यस्य तम् , कथम्भूतं राजकमवतस्थे ? रो मनः रोर्बु मनो यस्य तद्रोद्धमनः नियमयितुं चेतः, किम् ? पार्थक्षतं पृथुरेव पार्थम् , पृथौ भवं वा 'तत्र भवः' जै० सू० ३१३।२८] इत्यण भीमात्रेदिखबशसयस्य लोपः (भवमात्रे टिखवशादवयवस्य लोपः) पार्थ च तत्क्षतं च पार्थक्षत दीर्धतरमागोत्पन्नायासवशातीव्रतरं खेदमित्यर्थः ? पुनरपि कथम्भूतं राजपम् ? रामाननालोकगताद्रामस्य यत् आनने मुखं तस्य य आलोकः अवलोकनं तत्र गतः प्रातः आदरो क्योस्ते अक्षिणी यस्य तसथोक्तं दाशरथिमुखावलोकनप्रवृत्तादरलोचनमित्यर्थः ।
भारतीये-विचित्ररत्नप्रतिभाविशालं विचित्ररत्नैः प्रतिभाविन्यः साला यस्य तम् , कथम्भृतं राजकमवतस्थे ! पार्थक्षतं पार्थानां श्रुतं पाण्डवक्षतं रोद्धमनः पुनः रामाननालोकगतादरा रमणीयरमणीमुस्त्र - निरीश्चणे सादरेक्षणम् । योजना सर्वा प्राग्वत् ॥ ३५ ॥
पथः श्रमं नेतुमपेतभारैचिंगाह्य हस्तेन विमुक्तमम्भः ।
विशीर्यमाणं प्रति सूर्यमुद्यन्मुक्ताफलाकारमियाय नागैः ॥३६॥ पथ इति-अम्मो जलं मुक्तफालाकारम् इयाय जगाम, कि कुर्वत् ? प्रतिसूर्य सूर्य प्रति उद्यत् अर्ध्व गच्छत् , पुनः कथम्भूतम् १ विशीर्यमाणं शतशः स्फुटत् , पुनः कथम्भूतम् ? नागैर्हस्तिभिः हस्तेन शुण्डया विमुक्तं समुत्सृष्टम् , किं कृत्वा ! पूर्व विगाह्य आलोज्य, कि कत्तुम् ? नेतुम् अपाकत्तुम् , कम् ? श्रमम् , कस्य ? पथो मार्गस्पेत्यध्याहार्यम् , कथं नाग : १ अपेतभारः उत्तारितमारैः ।। ३६ ॥
पादधातविहितं चिरमागस्तद्भुवं क्षमयितुं प्रणमय्य ।
स्वं शिरोऽधिपदमश्वसमूहश्चाटुकार इव निल्ठति स्म ॥३७॥ पादेति-अश्वसमूहः निलठति स्म निललोठ, क इव ? चाटुकार इव प्रतिछन्दानुवत्तीव, किं कृत्वा ? पूर्व प्रणमय्य नपयित्वा, किम् ? शिरो मस्तकम् ? कथम्भूतम् ? स्वमात्मीयम् , कथम् अधिपदं पदयोस्परि, किं कत्तुम् ? भुवं पृथिवीं तत् आगः क्षमयितुम् , तत् किमागः यत् चिरं पादघातविहितं चरणहननकृतम् ।। ३७ ॥
तीर मेषु करिणः पटपण्डपेषु याहाः सुधाभवनभित्तिषु राजलोकाः ।
आवासमादिषत, दम्पतयो गुहासु सवत्र पुण्यसहिताः सुखमावसन्ति ॥३८॥ विचित्र रत्नोंकी कान्तिसे दैदीप्यमान परकोटासे घिरे राजभवनके समीप पहुँचकर लम्बा मार्ग चलने के कारण थके (पार्थक्षत) तथापि रामके मुखको देखनेसे उत्साहित राजा घेरा डालनेकी इच्छासे स्थिर हो गये थे विविध प्रकारके मणियोंकी कान्तिसे जगमगाते मगधराजके प्रासादके निकट पहुँचते ही रमणीके मुख देखने के लिए उत्सुक तथा अर्जुनसे संचालित राजाओंने घेरा डालनेकी दृष्टिसे व्यूह रचना की थी] ॥३५॥
भारको उतारकर (कार्यसे युक्त) मार्गकी थकानको दूर करनेके लिए समुद्र (गंगाकी धार) में उतरे हाथियों (नागवंशी सैनिकों)की सूड़ों अथवा हार्थोसे सूर्यकी ओर फेंका (सूर्य के प्रति अर्घ रूपसे दस्त) बूंद बूंद करके फैला जल उछलते हुए मोतियोंकी अंजलीके समान लगता था ॥३६॥
टापोंकी मार (पादाघात) द्वारा चिरकालसे संचित अपने पापको क्षमा कराने के लिए ही पहिले अपने शिरको पैरों में झुका कर चाटुकारके समान बादमें घोड़े भूमिपर लोटने लगे थे (चाटुकार भी पहिले की गयी पैरोंकी मारके अपराधको क्षमा कराने के लिए पैरों में मस्तक झुका देता है और बादमें घोड़की तरह पैरों में लोट जाता है ॥३७॥
१. भवमाने टिखञ्च । अपस्य लोपः । २० ।
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
तोरेति-करिणो गजाः तीरमेषु आवासं स्थिति आदिषत गृहीतवन्तः, वाहा अश्वा पटमण्डपेषु आवासम् आदिघत । राजलोकाः सुधाभवनभित्तिषु शुभ्रगृहप्रधानेषु आवासम् आदिपत ।
भारतपक्षे सुधाभवनभित्तिपु, सुधावत् आभा यासां ताः सुधाभाः ताश्च ता वनभित्तयश्च तासु अमृतशीतला स्वित्यर्थः तथा दम्पतयः स्त्रीपुरुषद्वन्द्वानि गुहामु कन्दरा आवासम् आदिषत | युक्तोऽयमर्थः । पुण्यसहिताः देवाधिकाः पुरुषाः सर्वत्र सर्वस्मिन् स्थाने सुखं यथा भवति तथा आवसन्ति तिष्ठन्ति ॥ ३८ ॥
गाङ्गाहिताः प्रतिजवैजलपातशीताः कच्छान्तरेषु मरुतः कृतपुष्पवासाः । वार्धा बलाध्यपरिखेदममुं विनिन्युः संबन्धनं जयति विश्रमदायि विश्वम् ॥ ३९ ॥
इति श्रीधनञ्जयकविविरचिते राधवपाण्डवीयापर नाम्नि द्विसन्धान
महाकाव्ये प्रयाणनिरूपणो नाम चतुर्दशः सर्गः ॥ गाति-मरुतो वाताः अमुम् इमं बलावपरिखेदं सैन्यानां मार्गश्रमं विमिन्युः अपाकृतवन्तः, कथम्भूताः ममतः ! वार्डाः वाड़ी भवा वााः वा.रागता वा वाभः समुद्रोद्भवाः सामुद्रा वा, पुनः कथम्भूताः ? कृतपुष्पवासाः विहितकुसुमामोदाः, केपु ? कच्छान्तरेषु पुनः जलपातशीता नीरयरशीतलाः, पुनः कयाभूताः ? प्रसिजवैः प्रतिगैः गां भुवं गाहिता व्याप्तवन्तः, युसभेतत् , जयति सर्वोत्कण वर्तते, किम् ? संबन्धन सम्बन्धः, कथम्भूतम् ? विश्व समस्तं पुनः विश्रमदायि ।
भारतीयः कथम्भूताः भरतः ? गाङ्गाः गायां भवाः मङ्गाया इमे वा पुनः हिताः सुखकारिणः पुनः वार्धाः याः दधति वा वारिधारिण इत्यर्थः । शेष मुगमम् ॥ ३९ ।। इति निरवधिधामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलीमण्डितस्य पटतर्क चक्रवर्तिनः श्रीमद्विनयचन्द्र पण्डितस्थ गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोवचारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां द्विसन्धानकावेर्धनअयस्य राधषपाण्यापरनाम्नः काव्यस्य पदकौमुदीनामदधानायां टीकायां प्रयाणनिरूपणी
नाम चतुर्दशः सर्गः ॥१॥
......................... हस्तिसेना तटवर्ती वृक्षों के नीचे रुकी थी। अश्य सेना कपड़े के मण्डपों में बँधी थी और राजा लोग सुधाकी कान्तियुक्त (सुधाभ) धन-पंक्तिके पीछे ठहरे थे तथा दम्पत्ति गुफाओंमें चले गये थे । उचित ही है पुण्यात्मा लोग सर्वत्र सुखके साथ रहते हैं ॥३८॥
पानीके ऊपर उड़नेसे शीतल, कछारमें फूले पुष्पोंकी सुगन्ध युक्त समुद्रकी हवाएँ (पानीको धारण किये) पृथ्यीपर आती हुई [गंगासे उठी (गांग) तथा सुखद (हिता) हवाके झोका रास्ता चलनेसे उत्पन्न सेनाकी थकानको दूर कर रही थीं। विश्राम अथवा शान्तिका दाता सम्बन्ध संसारमें सबसे बढ़कर है ॥३९॥ इति निर्दोषविद्याभूषणभूप्तिपण्डितमण्डल के पूज्य, पटतर्कचक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाकी चातुर्य-चन्द्रिकाके चकोर, नेमिचन्द्र-वारा विरचित कवि धनम्जयके राघध-पाण्डवीय नामसे ख्यात द्विसन्धान काम्यकी पदकौमुदी टीकामे प्रयाणनिरूपण नामका
श्वनुदेश सर्ग समाप्त।
..वसन्ततिकका सम् । २. वरिमे वा-प...
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चदशः सर्गः
अथ वनपनुकूलमङ्गनाभिः समलयजाङ्कपयोधरोचिताभिः ।
सह गतिमृजुमन्थरां गताभिः सरति यदूर्जितनायका विजहुः ॥१॥ अथेति-अथ शब्द आनन्तर्ये वर्त्तते, विजह्नः विहृतवन्तः, के ? कपयो वानराः सुग्रीवादयः, किम् ? तद्वनम् , कथम् ! अनुकलं तट तटं प्रति, कथम् ? सह, काभिः? अङ्गनाभिः कामिनीभिः, कथम्भूताभिः १ अधरोचिताभिः अधरौ ओठी उचिती सामुद्रिकलक्षणसम्पन्नौ सुपवाचिभ्यसदृशौ स्थूलोमतदूषणोझिताविति भावः, अधराबुचितौ यासां ताभिः, पुनः कथम्भूताभिः ? अजुमन्थराम् अवक्रां मन्दा च गतिं गताभिः प्राप्ताभिः, कथम्भूतां गतिम् ? समलयज समश्वासौ लयः समलयस्तस्माजात 'लयः साम्यमुदाहृतमिति वचनात् , कथम्भूताः कपयः ? ऊर्जितानां प्रौढिमत्प्रतापवता नायकाः स्वामिनः, यत् अस्ति बनम् , कथम्भूतम् ? सरति सक्रीड. मिति ।
___ भारतीयः-यदुर्जितनायकाः यदधश्च ते ऊर्जितनायकाश्च यादयाः प्रतापिनो नरेन्द्राश्च विजल्लुः । किम् ? वनम् , कथम् ? अनुकूल पुनः सरति सक्रीडम् , कथम् ? अङ्गनाभिः सह, कथम्भूताभिः ? समलयजाङ्कपयोधरोचिताभिः मलयजाङ्केन चन्दनस्थासकेन सह वर्तते इति समलबजाको एथंभूतौ पयोधरौ उनितो सामुद्रिकलक्षणविषयो वनपीनोन्नती नातिस्थूलो नातिहस्वी नातिदीधी यासां ताभिः ॥१॥
दिशि विदिशि परस्परं न दृष्टं विरचयता कुसुमोच्चयं जनेन ।
न च ददृशुररण्यजास्तदन्तं बहु किमु चेति निरूपितं न कश्चित् ॥२॥
दिशीति-न दृष्टं नावलोकितम् , कथम् ? परस्परम् अन्योन्यम् , फैन ? जनेन लोकेन, किं कुर्वता सता ? कुसुमोधयं फुल्लत्फुल्लत्रोटनं घिरचयता, क्व ? दिशि विदिशि, तथा च न ददृशुर्न दृष्टवन्तः, के ? अरण्यजाः पुलिन्दादयो जीवाः, किम् ? तदन्तं बनमध्यं वनपर्यन्तं वा र शब्दः सम्बोधनार्थवाचकः, उ अहो कि बहु, चकारादबहिति लब्धम् , किमिव बहिति ? न कैश्चिच निरूपित्तम् , किम् ? अनम् , कथम् ? इति ईदृशम् इतीति कृत्वेत्यर्थः ॥ २ ॥
पृथु विहितवता यनं विधात्रा चिरमुचितानुपभोग्यमेकयोग्यम् ।। ललितजनचितं कृतं कथञ्चित्परिहरतेव तदापदे श्रमं तम् ॥३॥
सम तथा लयसे समन्वित सीधी और मन्द्र चाल चलती तथा शुभ लक्षण मय ओष्ठधारिणरि अंगनाओंको साथ लेकर, प्रतापी राजाभोंको नेता तथा रति भावसे प्रेरित सुग्रीव आदि वानरवंशी राजा समुद्र के किनारे किनारे बनमें चंक्रमण करने लगे थे [ मलयज चन्दनके लेप युक्त स्तनधारिणी सरल और धीमी धीमी चलती सुपात्र नायिकाओंके साथ निकले यादववंशी प्रतापी राजा लोग प्रेमपूर्वक गंगा किनारेके वनमें बिहार कर रहे थे] ॥१॥
दिशाओं और विदिशाओं में पुप्पोंका चयन करते हुए लोगोंने न तो आपसमें एक दूसरेको देखा था। और न वनवासी भील आदिने ही इन्हें देखा था। बहुत क्या कहें ? आश्चर्य तो यही है कि किन्हीने भी उस वनका ओर-छोर नहीं जान पाया था ॥२॥
१. सर्गेऽस्मिन् पुष्पितायावृत्तम् । तल्लक्षण "अयुजि नगरेफत्तो यकारो युजि च नजी जरगाश्च पुषिताम्रा" [वृ. र. ४११०]
३४
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
पृश्चिति-कृतम्, किम् ? वनम् , चैन ! विधात्रा ब्रह्मणा, कथम्भूतम् ! ललितजवचितं कमनीयलोकविभूषितम्, किं कुर्वतेव सता ? परिहरतेव त्यजतेव, कम् ? तं श्रमं प्रयासम् , छ ? अपदे अस्थाने कथञ्चिन्महता कन, कथम् ? तदा तस्मिन् काले, कथम्भूतेन विधात्रा ? विहितवता कृतवता किम् ? वनम् , कदा ? चिरम् कथाभूतम् ? उचितानुपभोग्यम् उचितानां शिष्ट जनानाम् अनुपभोग्यम् , कयम्भूतम् ? एकयोग्यं ऋरसत्वानां योग्यम्, कथम्भूतम् ? पृथु विस्तीर्णम् ॥ ३ ॥
प्रियमदइदमेतदित्यपूर्व प्रति जनताग्रगमेन 'तृप्तुमैच्छत् । यदि परिचितसाम्यतोऽन्यतोऽपि प्रतिविरतोऽस्ति न कस्य निवृतिः स्यात्॥४॥
प्रियभिति--ऐच्छत् वाञ्छति स्म, का ? जनता जगसमूहः, किं कम् ? तृप्तुं तृमिमात्मानमानेतुम् , केन १ अग्रगमेन पुरोयानेन, किं प्रति ? अपूर्व प्रति, कथम् ? इति अदः प्रियमिदं प्रियमेतत् नियमिति यदि चेन्नास्ति, कः ? प्रतिविरतो बिरसो जनः, कस्मात् ? अन्यतोऽपि अन्यस्मादपि वस्तुनः कथम्भूतात् ? परिचितसाभ्यतः परिचितेन अनुभवमानौतेन वस्तुगा शाम्यं सादृश्यं यस्य तस्मात्तथोक्तात् तदा कस्य न कस्यापि निर्वृतिः सौख्यं स्यादित्यर्थः ।।४।।
कुसुममिषुचयो गुणोऽलिमाला मृदुविटपायतयष्टयो धषि ।
विविधमिदमनङ्गशस्त्रजातं सफलमभृच्चिरलक्ष्यदर्शनेन ॥५॥ कुसुममिति-कुसुमं पुष्पम् इचयो काणजमूहोऽभूत् तथालिमाला अमरश्रेणिः गुणः जीवाऽभूत् , मृदुविटवायतयष्टयः कोमलदिटपदीर्घयष्टयः धघि चापान्यभवन् इति कृत्या विविधं नानाप्रकारमिदमनङ्गशस्त्रजातं कन्दपायुधसमूहः सफलाम् अर्थक्रियाकारि अमृन्, केन ? चिरलक्ष्यदर्शनेन बहुतरसमयतो वेध्यावलोकनेनेति ॥५॥
कलमलिकुलकोकिलापलापं स्मरधनुरानकनादमाकलय्य ।
दयितपरिगमेऽपि कातराणां धगिति कृतं हृदयेन कामुकीनाम् ॥६॥ कलमिति-धगिति कृतम् , केन ? हृदयेन, कासाम् ! कामुकीनां कन्दर्पदपंकथितानां कामिनीनाम् , क सत्यपि १ दयितपरिगमेऽपि वल्लभपरिरम्भे पि, कथम्भूताना कानुकीनाम् ? कातराणां भीरूणाम् , किं कृत्वा हृदयेन धगिति कृतम् ? कलं मनोहरम् अलिकुलकोकिलाप्रलापं स्मरधनुरानकनादम् आकलय्य शकित्वा ॥६॥
अनादि कालसे शिष्ट लोगोंके उपयोग के लिए अनुपयुक्त तथा ऋर जंगली प्राणियों के अनुकूल बनोंके रचयिता विधाताने अस्थानमें कृत परिश्रसके अपवादसे बचनेकी दृष्टिसे ही बड़े परिश्रम पूर्वक सुन्दर शिष्ट लोगोंसे परिपूर्ण इस वनको बनाया था |॥३॥
'आ हा, यह कैसा प्यारा है ? यह कैसा है ? इसकी सुन्दरता देखिये ?' इत्यादि शब्दों द्वारा अब तक न देखें गये पुष्पोंके प्रति उद्गार प्रकट करती जनता आगे-आगे बढ़ कर ही संतुष्ट होना चाहती थी। यदि जाने परचे और पक समानसे भी लोग विरत नहीं • होते हैं, तो विलक्षणसे किसको निवृत्ति हो सकती है l
फूलौ रूपी घाणों का विशाल संचय, भ्रमरश्रेणि मयी जीवा तथा कोमल और लम्बी डालियों रूपी धनुष, ये कामदेवझे विविध शस्त्रसमूद्द बहुत समय बाद लक्ष्य सरस पुरुषों के सामने आते ही सफल हो गये थे ॥५॥
भ्रमरश्रेणी तथा कोकिलोको मधुर वाणीको सुनके कामदेयके धनुषकी टंकारका भ्रम हो जानेके कारण प्रकृतिसे ही भीरु कामिनियों के हृदय धक् धक् करने लगे थे, यद्यपि उनके वल्लभ ही उनको आश्लेष कर रहे थे।।६।।
१.'प्रस्तुमै- उचितो पाठ:
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चदशः सर्गः
प्रणयकलह कैतवं प्रणामं शपथमसत्यमुपागमं विलज्जम् ।
प्रतिमिथुनमिदं निरूप्य रेजे स्फुटदिव तत्सकलं हसेन पुष्पम् ॥ ७ ॥
प्रणयेति तत्सकलं समस्तं पुष्पं रेजे शुशुभे किं कुर्वदिन ? हसेन हास्येन स्फुटदिव किं कृत्वा ? प्रतिमिथुनं मिथुनं मिथुनं प्रति प्रणामं प्रणिपात प्रणयकलहकैतवं प्रणवकल्हेन केतनं दम्भो यत्र तं तथा विलज्जं विगतालज्जा यत्र तन् उपागमम् आलिङ्गनम् इदं सर्व निरूप्यावलोक्य ॥ ७ ॥
२६७
अवचितकुसुमावशिष्टवृत्तं वनमबलाकृतिविस्मयेन हस्तम् ।
विकसितम कृते तन्महान्तो ननु रुजतामपि सुग्रहा गुणेन ॥ ८ ॥
अवचितेति तद्वनं हस्तम् अवलाकृतिविस्मयेन अबलानामाकृतिः अबलाकृतित्तस्यां विस्मयेन कामिनीकायाद्भुतेन निकशित अकृतेव चकारेव, कथम्भूतं वनम् ? अवचितकुसुमावशिवृन्तम् अवचितकुसुमैरवशिटानि तानि यत्र वात् श्रेोटित पुष्पोज्झितप्रसवबन्धनमित्यर्थः, युक्तमेतत् ननु अहो जायन्ते, के ? महान्तः सन्तो नराः । कथम्भूताः सुग्रहाः सुखेन ग्रहीतुं शक्याः, केपामपि १ रुजतामपि पीडाकारिणामपि केन कृत्वा ? गुणेन ॥ ८ ॥
कथमपि नमयन्त्युपेत्य शाखा करयुगलेन लतान्तमुच्चिचीषुः । स्तनकलशभरेण भग्नमध्या तरुमवलम्ब्य निषेदुषीव काचित् ॥ ९ ॥
कथमिति-काचित् कामिनी त वृक्षं करयुगलेन हस्तन्द्वेन अवलम्ब्य अवयस्य, कथमपि मद्दता कष्टेन शाखां नमयन्ती निषेदुपी स्थितवती, कथम्भूता ? उपेश्य सभीपमागत्य लतान्तं कुसुमम् उच्चिचीपुः उच्चेतुमिच्छुः, केवोत्प्रेक्षिता ? स्तनकलशभरेण कुचकुम्भमारेण मग्नमध्येव ॥ ९॥
निकटसुलभमुद्रमं विहाय श्लथवलिनीव विदूरगं ललडे ।
प्रथमुदरं परा स्त्रिया हि प्रियतमविभ्रमगन्धनोऽन्यसङ्गः ।। १० ।
निकटेति परा अन्या काचित् कामिनी उद्गमं पुष्पं ललचे अतिकान्तयती, कथम्भूतम् ? विदूरगम् अनिकटतरम् कथं यथा भवति १ दलथलिनी विशिथिलितवलिपरिधानमन्थि, किं कृत्वा ? पूर्व निकटसुलभम् उद्गमं विहाय नुवा, कि कत्तुम् ? उदरं जटरं प्रथयितुं प्रकटयितुम् युक्तमेतत् स्यात् कः ? अन्यसङ्गः कथम्भूतः १ प्रियतमविभ्रमगन्धनः वल्लभकटाच सूचकः, कस्याः स्त्रियाः कामिन्याः, कथम् ? छिं स्फुटमिति ||१०||
प्रणय कलह और उसका दम्भ दूर करनेके लिए पैरोंमें पड़ना, झूठे शपथ तथा अनुकूल होकर निर्लज रूपसे आलिंगन, आदि प्रत्येक युगलकी क्रियाओं को देखकर ही वह समस्त पुष्प समूह हँसीके मारे फटते ( खिलते ) के समान सुन्दर लगता था ॥ ७ ॥
फूल तोड़ लेनेके बाद शेष बचे डंटलोंसे पूर्ण वह बन सुकुमारांगी नायिकाओंकी लोकोत्तर आकृतिको देखकर उत्पन्न हुए आश्चर्यके कारण खुले हुए इस्तों ( रोमांचों ) से युक्त के समान प्रतीत होता था। ठीक ही है महापुरुष गुणोंके कारण कष्टदाताओंके भी में हो जाते हैं ||८||
कोई नायिका दोनों हाथोंसे पकड़कर लताके ऊपर विकसित पुष्पको तोड़नेकी इच्छा से बड़े परिश्रमपूर्वक शाखा तक पहुँच कर उसे झुकाती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानो स्तनरूप कलशोके भारसे कमर टूट जाने के कारण पेड़ पकड़कर ही खड़ी रह गयी है || २ ||
दूसरी कामिनी पास ही विकसित अतएव सुलभ पुष्पको छोड़कर अपने कृश उदरको प्रकट करने के लिए ही नीवीको शिथिल करती समान बहुत ऊपर खिले पुष्पके लिए उच्चक रही थी । उचित ही है क्योंकि स्त्रियोंके व्यर्थ कार्य परम प्रिय वल्लभके कटाक्षोंके प्रेरक होते हैं | १०||
१. उचिकीर्षुः- ० ।
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
૬૮
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सुरभि वितरितु प्रसूनमेका सकृदधिपेन विपक्षनाम नीता । कितत्र तव फलं तदस्तु लब्धं प्रियजनयेऽर्पय पुष्पमित्यकुप्यत् ॥ ११
1
सुरभीति - एका कामिनी अकुप्यत् कुपितवती, कथमिति ! हे कितव धूर्त अस्तु तिष्ठतु, किं तत् ? प्रसूनम् अर्पय देहि कस्यै १ प्रियजनये प्रियभार्यायै यतो लब्धं प्राप्तम् किम् फलम् ? कस्य १ तव, सत्यध्याहार्यम्, कथम्भूता सती अकुप्यत् १ नीता प्रापिता, किम् ? विपक्षनाम सपन्यभिधानम्, केन ? अधिपेन स्वाभिना, कथम् ? सकृदेकवारम् किं कर्तुम् ? सुरभि सुगन्धि प्रसूनं वितरितुं दातुम् ||११||
कुचयुगमतुलं कुतोऽस्य भारः किल भवतीति तुलाधरोपणाय ।
सह तुलयितुमात्मनोद्यतेत्र क्षणमपरा व्यलगीत्प्ररोहदोलाम् || १२ ||
कुचेति - अपरा अन्या काचित् कामिनी प्ररोहदोललं व्यलगीत आदरोह, कथम्भूता सती ? तुलाधि रोपणा उता, किंतु नि ? अतुलम् अनुपमं कुचयुगं स्तनद्वितयं तुलवितुमिव कथम् १ सह, केन १ आत्मना, कथमिति कृत्वा व्यलगीत् ? किल शब्दो लोकोक्त वाक्यालङ्कारे वा वर्तते, किम् ? स्यात् कः ? भारः कस्य ? अश्व कुत्रयुगत्य कृतः ? आत्मनः सकाशात् आटो स्वित् किं स्यात् आत्मनो मारः कुचयुगात् इति ॥ १२ ॥
अवचनमधिशय्य मन्युनान्या पृथगधिपाद्विरचय्य पुष्पशय्याम् I
स्परशरशयनस्थितेव दूना ननु विरहः प्रियगोचरोऽपि दीनः || १३ ||
,
अवचनमिति - बभूवेति क्रियाध्याहार्या, "साध्याहाराणि वाक्यानि भवन्तीति वचनात् ", बभूव का ? अन्या कामिनी, कथम्भूता ? दूना कदथिता, केन ? मन्युना कोपेन किं कृत्वा १ पूर्वमधिशय्य निद्राय कथं यथा भवति ! अवचनं संभोगगोचरालापहितम् कथम् ? पृथक, कस्मात् ? अधिपात् स्वामिनः किं कृत्वा ? पूर्व विरचय विधाय काम? पुष्पशय्यां प्रसूनास्तरणम्, केव दूना बभूव ? स्मरशरशयनस्थितेव कुसुमरोपणशयनमारुदेव, युक्तमेतत् नतु अहो जायते, कोऽसौ १ विरहः, कथम्भूतो जायते, दीनः कथम्भूतोऽपि सन्, प्रियगोचरोऽपि वल्लभविषयोऽपीति शेषः ॥ १३ ॥
व्रततिषु गहनासु कापि लीनं मृगयितुमीश्वरमाकुलं भ्रमन्ती । करघृतलतिकावलोपलब्धुं तमुदधृतेव मनोभवस्य शाखाम् ॥१४॥
व्रततिष्विति -- उपधृतेच उद्धृतिं नीतेव का ? अबला कापि कामिनी, काम् ? मनोभवस्य मकरध्वजस्य शाखाम्, कथम्भूता १ करवृतलतिका हस्तधृतवल्ली, किं कर्तुम्, कम् ? उपलब्धुं प्राप्तुम्, तमीश्वरम् किं कुर्वति १ भ्रमन्ती पर्यटन्ती हिण्डमानेत्यर्थः, कथं यथा भवति ? आकुलं व्यग्नम्, किं
सुगन्धित फूलको देते समय पतिके द्वारा एक बार ही सौतका नाम लिये जानेपर एक नायिका कुपित हो उठी थी । और कहती थी 'हे कितव ! इस पुप्पको अपनी प्राणप्यारीको ही दो । रहने दो। तुम्हारी प्रीतिका फल में पा चुकी' ॥११॥
अन्य विलासिनी अपने निरुपम स्तनको अपनी ही कायाके साथ तौलनेके लिए और इस स्तन गुगलका भार किस कारण से होता है यह निश्चय करनेके लिए ही दोनों को तुलापर रखने के लिए उद्यतके समान क्षण भरके लिए लटकते हुए वटके प्ररोहपर झूल गयी थी ॥१२॥
क्रोध के आवेगमें कोई नायिका पतिसे अलग पुष्पशय्या बना कर चुपचाप लेटी हुई ऐसी दिखती थी मानो कामदेवके बाणोंकी शर-शय्यापर लिटाकर सतायी जा रही हो । उचित ही है, क्योंकि प्रेमी के सामने रहनेपर भी विरह-व्यथा कम नहीं होती है || १३ ||
सघन लता कुंज में छिपे अपने प्राणनाथको खोजने के लिए आकुलतापूर्वक इधर-उधर १ - इप्यदीनः उचिततरः पाठः ।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चदशः सर्गः कत्तुंम् ? मृगवितुम् अवलोकयितुम् , कम् ? ईश्वरं पतिम् , कथम्भूतम् ? प्रततिषु वल्लीषु लीनम् कथम्भूतामु ? गहनासु घनतरासु ।।१४।।
श्रवसि शिरसि कृत्स्नमुच्चयेऽपि स्मितहसितानुकृतीर्घया क्षिपन्ती । मुकुलमुदितमुग्दर्म च सर्वस्वमपि वनस्य परोद्यतेव हतुम् ॥१५॥
श्रयसीति–परा काचित् कामिनी धनस्य सर्वस्वं हर्तुमिब उद्यता, किं कुर्वन्ती १ श्रवसि कर्णे मुकुलं ऋलिका क्षिपसी प्रेरयन्ती तथा शिरसि मस्तके उद्गमं क्षिपन्ती, कस्मात् क्षिपन्ती ? ईयया स्पर्दया, कथम्भूतमुद्याम् ? कृत्स्नं समस्तं पुनः उदितं निर्गतं पुनः स्मितहसितानुकृति स्मितमीपद्धास्थम् ओष्टपुटत्यायादानावृदयान्तर्वत्तितया हास्यमित्यर्थः । हसितमोष्टपुटं प्रसार्य यत् हास्यं प्रवते तद्धसितमित्यर्थः, स्मितं च हसितं न स्मितहसित मितहस्तियोरनुकृतिर्यस्य सत्तथोत्तम, अथवा विशेषणमिदं द्वयो कुलोद्मयोग
व्यं, तथा कथम्भूतं मुकुलम् ? स्मितानुकृति, उद्गभं च कथम्भूतम् १ हसितानुकृति, ध सत्यपि १ उचधेऽपि बोटनेऽपि ॥१५॥
इति चपलविलासिनीविहारैर्विलुलितमुद्गतकर्णिकारकोशम् ।
प्रशमयितुमुपप्लवं वधूभ्यो मुकुलितहस्तमिवावभावरण्यम् ॥१६॥
इति-अरण्यं वनम् आयमौ सामस्त्येन रेजे, किमिव ? मुकुलितहस्तमिव कुड्मलितकरमित्र, बाभ्यः ? वधूभ्यः कामिनीभ्यः, किं कत्तुम् ? प्रशमयितुम् उपशान्ति नेतुम् , कम् ? उपद्रवमुपपत्रम, कथम्भूतमरण्यम् ? विलुलितमुपद्रुतम् , को ? चपलविलासिनीविहारैदचञ्चलकामिनीकीडनैः, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण, पुनः कथम्भूतम् ! उद्गतकर्णिकारकोशे निर्गतकर्णिकारकर्णियम् इति ।। १६ ॥
स्थलकमलपरागपिजरागः परिचितांश्च नदीनवार्जवं यः।
श्रमयभिभवति स्म कामिनीनां विधुतमयूरशिखः स मातरिश्वा ॥१७॥
स्थलेति-मातरिश्वा यायुः कामिनीनां नारीणां श्रमं खेदम् अभिभवति स्म अपाकरोत् , कथम्भूतः? विधुतमयूरशिखः पुनः स्थलकमलपरागपिचरागः स्थलवाजकि अल्ककय्रकान्तिः यश्च परिचित्तवान् प्रासवान , कम् १ नदीनवार्जवं समुद्रपारिवेगम् |
__ भारतीयः-यश्च परिचितवान् , किम् ? नदीनवार्जवं नवञ्च तत् आर्जवं च नवाजवं नद्या नवाजवं नदीनवार्जवं सरिन्नूतनप्राअलत्वम् अर्थात् गङ्गायाः नवार्जवं लब्धम् । शेपं समम् , उभयत्र वायोः सुरभिशीतलमन्दा गुणाः प्रदर्शिताः ।। १७ ।। भटकती कोई मुग्धा उसे (पत्तिको) पाने के लिए हाथसे लता पक थी तो ऐसी प्रतीत होती थी मानो कामदेवकी शाखा ही उठा लायी है ॥१४॥
अपने स्मित और बासका अनुकरण करती हुई समान कलियों और विकसित फूलोंको पुष्प चयनके द्वारा कमशः अपने कानों और जूसमें सजाती हुई कोई कामिनी ऐसी प्रतीत होती थी मानो वह उस क्रीडावनका सर्वस्व ही चुरानेके लिए टूट पड़ी हो ॥१५॥
उक्त प्रकारसे चंचल विलासिनियोंके वन विहारके प्रसंगसे नोचे गये, उस क्रीड़ा बनने इस चतुर्दिक उपद्धको शान्त करने के लिए ही उन बन्धुओंके सामने कनेरकी कलियोंके बहानेसे हाथ ही जोड़ दिये थे ॥१६॥
समुद्रकी जलराशिके वेगसे [गंगा नदीके नूतन निर्मल पूरसे] सम्बद्ध अतएव शीतल, स्थलके कमलोंके परागसे व्याप्त फलतः सुगन्धित और मोरों के पंखोंको फैलाती हुई तीब्र इवाने क्रीडामें लीन कामिनियोंकी थकानको दूर कर दिया था ॥१७॥
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् क्षुपविपिनलतान्तरे जनानामिति सुरतव्यवहारवृत्तिरासीत् । ननु दयितपरस्परानिकारव्यवहरणं मुवि जीवितव्यपाहुः ॥१८॥
क्षुपेति-जनानां क्षुपविपिनलतान्तरे क्षुपाः ह्रस्वशाखाः शाखिनः विपिनस्ता वनकन्दलिन्यः अन्तरं मध्यं क्षुराश्च विपिनलता क्षुपविपिनलतास्तासामन्तरे सुरतव्यतिहारवृत्तिः संभोगपरस्रानुवर्तनम् आसीत् ननु युक्तमेतत् , भुवि गूमी विद्वांसो दयितपरस्परानि कारव्यवहरणं दयितयोर्दम्पत्योः परस्परा निकारस्य अन्योन्याप्रतारणत्य व्यवहरणं जीवितव्यं जीवितम् आहुः ॥१८॥
परिपजति परस्परं समेत्य प्रतिमिथुने कुचमण्डलं बाधे।
अजति हि दिजान पीडा कारमध्यगतापवारकं वा ।।१९।।
परीति–परस्परम् अन्योन्यं परिषजति आलिङ्गति सति कुचमण्टलं स्तनमाडली बबाधे बाधते स्म ; किं कृत्वा ? पूर्व समेत्य मिलिया, युक्त भेत् वा अथवा पीडा की कं पुरुष न भजति अपितु सर्वमेव, कथाभूत सन्तम् ? अपरमध्यगता पवारकम् अपरयोमध्यगतो योपचारकस्तम् इतरान्तस्थित परिपान्धकमित्यर्थः, कथ. म्भूतम् ? गिजकर्कशम् आत्गना कठिनमित्यर्थः, कथम् ? हि स्फुटम् ||१९||
उदधमदिव तत्पराभिमादधरयुगं व्यतिचुम्बितं स्वमङ्गम् ।
अधरितगतयो गृहीतमुक्ताः समुपचिता हि सह बौः स्फुरन्ति ॥२०॥
उदिति-अधरयुगम् ओष्टद्वयं स्वं स्वकीयमङ्गम् उदधमदिव उक्छ्वासयति स्मेव, कस्मात् ? तत्पराभिमात् तस्य प्रतिमिथुनस्य यः पराभिमर्शः तस्मात् , कथम्भूतम् अधरयुगम् ? व्यतिचुम्वित परस्परवस्त्रसंयोगीकृतम् , युक्तमेतत् , स्फुरन्ति विजम्भन्ते, के १ अधरितगतयः अधरिता गतिर्येषां ते अधोगतस्फुरणा इत्यर्थः, कथम्भूताः ? त्रणेः समुपचिताः संभृताः, कथम् ! सह युगपत् , पुनः कथम्भूताः ? गृहीतमुक्ताः पूर्व गृहीताः पश्चान्मुक्ताः तथाविधा अधरा अपि भवन्तीति भावः ॥२०॥
परभृतशुकसारिकाविरावाः सममवलासुरतारवं तिरोऽधुः।
अपि चरितमवाच्यमन्यदीयं रहयति पक्षिगणो न कि मनुष्यः ॥२१॥
परभृतेति-परभृतशुकसारिकाविरावाः. कोकिलादीना ( कोकिलकीरसारिकाणां) स्वराः अबलासुरतारवं मुग्धाङ्गनारतकूजितं तिरोऽधुः प्रच्छादितवन्तः, कथम् ? समम् , युक्तमेतत् , पक्षिगणः विहङ्गमसमूहोऽपि अन्यदीयं परकीयम् अवाच्यमपि गोयमपि चरितं चेष्टितं रहयति सम्पयति किं पुनः मनुष्यो न प्रच्छादयतीत्यर्थः । अत्र भाव उपन्यस्वते पश्ची जनकजननीसम्बन्धलक्षणो वेषां ते पक्षिणः कुलसंभूताः तेषां गणोरपि अवाच्यम् ।
छोटे-छोटे पौधों की सघन पंक्ति और लताओंकी आइमें कीड़ा करते लोगों की सुरतक्रियाका आचरण हुआ था । सत्य है, क्योंकि प्रेमी तथा प्रेमिकाके परस्पर निश्छल व्यवहारको ही संसारमें जीवन कहते हैं ॥१८॥
निकट भाकर एक दूसरेको गाढ़ आलिंगन करने में प्रत्येक जुगलको स्तन मण्डल बड़ी बाधा दे रहा था । ठीक ही है, जो स्वयमेव कठोर है वह अथवा दोके बीच में आया बाधक किसको कष्ट नहीं देता है ? ॥ १९ ॥
तत्तत् युगलों के द्वारा गाढ़ आलिंगन किये जानेपर सतत चुम्बन किये गये दोनों पोष्ठोंने अपनी अपनी कायाको वायुसे फुला सा दिया था। ओष्ठौकी प्रणयगति को प्राप्त अतएव दबाफर दन्त-क्षतोंके साथ छोड़े गये ओठ फड़कते ही है [ निन्दनीय आचरण कर्ता भी बन्धन को प्राप्त होते हैं और धायोंसे भरी देह लेकर जब छूटते हैं तो वेदना से तड़पते हैं ] ॥२०॥
कोकिल, तोता, मैना आदि पक्षियोंकी सतत और सरस ध्यनिने मुग्धाओंकी सुरतकी चौखको सर्वथा छिपा दिया था । दूसरोंके गोपनीय आचरणको पक्षि समूह भी गुप्त रखता
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चदशः सर्गः
अन्यदीयं चरितं प्रच्छादयति, किं मनुष्यः किमिति शब्देन मनुष्य आक्षिप्यते, मनुष्यमात्रोऽकुलीनो न रहयति || २१ ||
प्रशमय रुषितं प्रिये प्रसीद प्रणयजमप्यहमुत्सहे न कोपम् ।
तव विमुखतयाऽधिरूचापे मनसिशये कुपिते कुतः प्रसादः ||२२||
प्रशमवेति है प्रिये वल्लभे तत्तस्मात् कारणात् त्वं रूपितं रोपं प्रशमप, तथा प्रसीद प्रसन्ना भव, यस्मात् अहमपि नोत्सहे न सोढुं शक्नोमि कम् ? प्रययजमणि हसमुत्पन्नमपि कोपम्, कुतः कस्मात् प्रसादः प्रसन्नता स्यात् अपि तु न भवेत् क सति ? मनसिशयं कन्द कुपिते प्रानको कथम्भूते ? अधिरूद्रचापे अधिज्य कोदण्डे, कया ? तव विमुखतया भवत्याः पराङ्मुखत्वेन ॥ २२ ॥
मम यदि युवतिं विशङ्कयां श्वसिमि तव श्वसितैर्नृपान्ययोगः । भवतु मनसि संशयस्त्वमक्यात्प्रविभजसे त्वयि जीवितं कथं मे ||२३||
२७१
1
ममेति-यदि चेत् विशङ्करो शङ्काविपयीकरोषि का सौ त्वम् काम् ? युवति कामिनीम्, कथम्भूताम् ? अन्यामम् कस्य? मम, तदा मृणा एवमेव अन्ययोगः अन्यत्याः कामिन्याः योगः सम्बन्धः, यः श्वसिमि प्राणिमि ? तव भवत्याः श्वसितैः प्राणितैः भवतु नाम मनसि संशयः सन्देहः, कथं प्रविभजसे केन प्रकारेण पृथक्करोपि, कासी ? त्वं भवती, किम् ? जीवितं त्वयि स्थितम् कस्य ? मे मम कल्मात् ? ऐक्यात् अपृथक्त्वात् || २३ ॥
न पुनरिदमहं करोमि जीवन्निति शपथेऽधिकृते पुराकृतं स्यात् । स्वज कुपितमितीरिते नु सत्यं कुपितवती भवसीव तन्न जाने ||२४||
,
3
नेति - अहो सत्यं कुपितवती सवय तन्न जाने तन्न वेद्मग्रहम् के सति ? इरितेऽभिहिते सति कथित इत्यर्थः, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण त्यज जहि क्रिम, कुपितं कोपम् यतः स्वात् भवेत् किम् ? पुराकृतं कर्म च सति ? शपथे आज्ञायाम्, कथम्भूते ! अधिकृतेऽङ्गीकृते कथमिति ? जीवन् पुनरिदं नाहं करोमि इति ॥ २४ ॥
हुतिमवलोक्य नाथमानं कलयसि सत्यमिमं कृतापराधम् ।
अनुदितवचनं नवप्रियं मां गणयसि गर्वितमन्यवारितं वा ||२५|
बह्निति-कल्यास जागा, कासी ? त्वन् कम् ? इमं जनं कृतापराधं विहितागसम् कथम् ? सत्यं परमातः, किं कृत्वा ? पूर्वमवलोक्य निरीक्ष्य, कम् ? मामू, किं कुवाणंम ! नाथमानं याचमानम्, कथम्भूतं सन्तम् ? बहुतिथं बहूनां पूरणं बहून् जनान् मेलयित्वा के सह प्रार्थयन्तमित्यर्थः तथा गणयसि मन्यसे, कम् ? माम्, है तो क्या सम्मीची मातृ-पितृ पक्ष में (पक्षि ) उत्पन्न मनुष्य नहीं छिपायेगा ? ॥ २१ ॥ हे प्रिये, कोपको शान्त करो, प्रसन्न हो जाओ। मैं प्रणयकी लड़ाईको भी सहन नहीं कर सकता हूँ । तुम्हारे मुख फेर लेने पर और मनमें उत्पन्न कामदेवके धनुष चढ़ा लेनेपर मेरी कहाँ कुशल है ? ||२२||
यदि तुम्हें मेरी किसी दूसरी प्रेमिका के होनेका सन्देह है तो विश्वास रखो मैं तुम्हारी ही साँससे जीवित हूँ, पर सम्बन्ध है । मनके सन्देहको जाने दो। तुमपर ही मेरा जीवन हूँ । तुम्हारे प्राणोंमें एकमेक मेरे प्राणोंको क्यों अलग करती हो ? || २३ ||
1
शायद कभी पहले भूल हुई हो । क्रोध छोड़ो। 'फिर जीते जी कभी ऐसा अपराध नहीं करूँगा ।' ऐसी शपथ ले लेने पर भी मैं यथार्थ नहीं जानता कि क्यों तुम कुपित हो गई हो ||२४||
विविध प्रकार से तुम्हारी प्रार्थना करते हुए देखकर क्या मुझको वास्तवमें ही तुम
"
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कथम्भूतम् ? नवप्रियम्, पुनः कथम्भूतं सन्तम् १ अनुदितवचनम् अनुक्तवाचम् , तथा गणयसि गर्वितं वा अथवा अन्यवारितम् अन्यया कामिन्या वारितं प्रतिषिद्धं वेति शेषः ।। २५ ।।
शिथिलय हृदयं न मेऽनुरागं विसृज विषादमिमं न तन्धि वाक्यम् ।
इति दयितमुपागमैकदौत्य स्वयमबलाभिगतं कथञ्चिदैच्छत् ॥२६॥
शिथिलयति-ऐच्छत् स्वीचकार, कामो ? अबला मुग्धाङ्गना कादित् , कम् ? दयितं बल्लभम् , कथम् ? कचित् महता कष्टेन, कथम्भूतं दयितम् ? उपागभैयादौत्यम् आलिङ्गनाय साधारण दूतत्वं यस्य स सधोन.स्तम् , कथम्भूतम् ? अभिगतं स्वीकृतवन्तम् , किम् ? वाक्यम् , कथम् ? स्वयमात्मनैव, अश्वा शोभनोटयो यस्मिन् वारयाशीकारकर्माण तत् स्वयं समीचीनदेवं यथा भवति, कथम् ? इति, हे तन्धि तन्दरि! शिथिलय शिथिलीकुरु, कामौ ? त्वम् , वि.म् ? हृदयं मा कोपाच्चेतो. विधेहीत्यर्थः । न शिथिलय त्वम्, कम् ? अनुरागम् अतीव प्रीतिम् , कस्य ? मे मम, तथा विसृज बिनुञ्च, कम् ? विपादम् आनन्दाभावम् , न विसृज, कम् ? इमं मल्लक्षणं जनमिति ||२६ ॥
तरलयसि दृशं किमन्यचेता, दृतिरिव लोहकृतां किमुष्णमुष्णम् ।
श्वसिषि, किमिदमुत्त्रसस्यपैतुं, किमिव भयं, बद का मन:प्रिया ते ॥२७॥ इदानी कुलकेन व्याख्यायते–तरलयसीति-दृशं दृष्टिं किं दरल्यसि चपल्यास, कथम्भृतः सन् ! अन्यचेताः अन्यस्यां चेतो यस्य सः अपरमनस्क इत्यर्थः, तथा उणाम् ३ष्णं किं इवसिघि प्राणिपि, केय ? लोहकृताम् अयस्काराणां दृतिरिच भक्षेव, किमिदमुत्त्रससि उद्विजसे, किं कर्तुम् ? अपैतुम् अपसम् , किमित्र भयं दियते भवतः, पद त्वं ब्रूहि का मनःप्रिया चित्तवल्लभा स्ति ते तवेति ॥२७॥
अलस इव, गतं कुतोऽपि चित्तं मृगयितुमिच्छरिवोद्भ्रमनिय त्वम् ।
किमसि किमपराकृति प्रपन्नस्तुव चपलस्य मनोगत न वेद्मि ॥२८॥ अलस इति-किभसि मत्रसि त्वं भवान् , क इव ? अलस इव आलस्योपहत इव, क्रिमसि, क इव ? इच्छुरिवाभिलाषुक इव, किं वर्तुम् ? मृगयितुम् अवलोकयितुम् , किम् ? चित्तं चेतः, कथम्भूतम् ? गतं नयम् , कस्मात् कारणात् ? कुतोऽपि, किमसि, किं कुर्वन्निव ? उद्भ्रमन्निध मुह्यन्निव, किमपराकृतिम् अन्याकारं प्रपन्नोऽसि प्राप्तोऽसि, न वेद्मि न जानामि, कासौ ? अहम् , किम् १ चपलत्य तरलस्य तव मनोगतमभिप्रायम् ||२८||
किमतिविपिनमन्तरे नदी वा तव गिरिदुर्गमुतास्ति योपितो वा ।
यदनवरतचिन्तयासि खिन्नो ननु च तथा सति किं नु वल्लमत्वम् ।।२९॥ अपराधी समसती हो ? मुझ नये प्रेमीसे बोलती भी नहीं हो और मुझे ही अहकारी तथा दूसरी प्रेमिकाके द्वारा रोका गया सोचती हो ॥२५॥
__ मनकी गाँठको थोड़ा ढीला करो, मेरी प्रगाढ़ प्रीतिका नहीं। इस शोकको छोड़ो, अपने वचन (प्रेमप्रतिज्ञा) को मत त्यागो। इस प्रकार पुनर्मिलनके एकमात्र दूतपनेको प्राप्त तथा अपने आप ही प्रेयसीके पास पहुंचे प्रेमीको सरला सायिकाने बड़ी कठिनाईसे अंगीकार किया था ॥२६॥
दूसरी प्रेमिकामें चित्त रहनेसे आँखाको चंचल क्यों किये हो ? लुहारों की धोकनीके समान किस कारणसे तुम उप्ण उप्पा साँसें ले रहे हो ? क्यों भागने के लिए चार-चार चौक पड़ते हो? तुम्हें क्या डर है ? धोलो तुम्हारी मनमें वसी प्यारी कौन है ? ॥२७
तुम आलसीसे क्या हो रहे हो ? कहीं चले गये मनको ही खोजने के लिए उत्सुक समान तुम क्यों भटकते से हो ? किस कारणसे आज तुम्हारी पाकृति ही दूसरी हो रही हैं ? अत्यन्त चालाक तुम्हारे मनकी बात ही मैं नहीं समझ पा रही हूँ ॥२८॥
१. "गमैकदैत्यमिति" पाठोऽपि रुचिरः ।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
पञ्चदशः सर्गः
२७३ किमिति-तब अन्तरे मध्ये कि अतिविपिन महदरण्यमस्ति, वा अथवा नद्यस्ति, उत् अथवा गिरिदुर्गमस्ति, वा अथवा कि योषितः' सन्ति, यत् यस्मात् कारणाद् अनवरतचिन्तया निरन्तरचिन्तनेन त्वं खिन्नः दुर्बलः असि, ननु अहो तथा च सति एवं च सति पूर्वोक्तप्रकारे सतीत्यर्थः, किं नु वल्लमत्वं वाल्लभ्यम् । अथ प्रकारान्तरेण व्याक्रियते--चकारो नियमार्थो गम्यते, तेनायमर्थः-तथा सत्येव है वल्लभ ! त्वं किं नु अपि तु त्यभेबास्मा वल्लभो भवसीत्यर्थः ।।२९।।
मधुरमभिहितो न भापते मां न खलु भवानभिचुम्बितः प्रणिस्ते ।
न च परिरभते कृतोपगृढः पटलिखितः स्विदपेक्षते न दृष्टः ॥३०॥
उपलम्भपुरःसरतया व्याक्रियते--मधुरमिति-भवान् रवं मां न भाषते न ब्रूते, कथंभूतः सन् ? अभिहितः संभाषितः, क यथा भमति ? मधुरं वर्णकहराहादि तथा न प्रणिस्ते न चुम्बति, कोऽसौ ? भवान्, काम् ? माम्, कथम् ? खलु निश्चयेन, अथवा खलुशब्दो नियमार्थो गम्यते तेनायमों नैव प्रणिस्ते कथंभूतः सन् ? अभिचुम्बितः, तथा न परिरभते नालिङ्गति । कोऽसो ? भवान्, काम् ? माम्, कथंभूतः सन् ? कृतोपगूढः कृतालिङ्गन:, स्वित् अथवा नापेक्षते नाङ्गीकरोति, कोऽसौ ? भवान्, काम् ? माम्, कथंभूतः सन् ? : अबलोकितः, पुनः कथंभूतः ? पटलिखितः वस्त्रचित्रित इत्यर्थः ॥३०॥
इति किमपि विकोपितास्तरुण्यः किल तरुणान्विनियम्य काश्चिदाम्ना ।
कलवलयरवं विशीर्णसूत्र कुसुमगुणैरवताडयांबभूवुः ॥३१॥
इतीति-किलशब्दोऽत्र वाक्यालंकारे वरीवति । अवताइयांदभूवुः सामस्त्येन ताडितवत्यः, काः ? तरुण्यो युवत्यः, कान् ? तरुणान् यूनः, के कृत्वा ? कुसुमगुण : पुष्पसूत्ररज्जुभिः, किं कृत्वा ? पूर्व विनियम्य विशेषेण नियंग्य, केन कृत्वा ? काश्चिदाम्ना मेखलामालया, कथं यथा भवति ? कलबलयरवं पुनः विशीर्णसूत्रम्, कथंभूताः ? किमपि विकोपिता: विशेषेण कोपं प्रापिताः, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण ॥३१॥
कुपितमबचनं शिरःप्रणामः शपथमयः प्रणयः कृतोपचारः। इदमद इति गोचरो न वाचां प्रतिदयितं बहुकैतचं बभूव ॥३२॥
क्या तुम्हारे प्रथया तुम्हारी प्रेमिकाके बीचमें कोई घना वन है ? अथवा कोई नदी बह रही है ? या कोई दुर्गम पहाड़ ना गया है ? जिसके कारण तुम अनवरत चिन्तित हो और खेद-खिन्न हो । वास्तवमें यदि ऐसा है तो बलिहारी आपकी बल्लभताको ? ॥२६॥
रसीली बातें करनेपर भी प्राप चुप हैं । तरह-तरहसे लगातार चुम्बन करनेपर भी प्राप मेरा चुम्बन नहीं करते हैं। गाढ़ प्रालिंगन करनेपर भी प्राप आलिंगनके लिए नहीं बढ़ते हैं। मेरी दृष्टि प्रापपर हो लगी है किन्तु प्रापकी ष्टि मेरी ओर घूमती ही नहीं है। मानो-पाप सामने नहीं हैं प्रापका चित्रपट में देख रही हूँ ॥ ३० ॥
इस प्रकारसे बहुत खिजाये जानेपर तरुणी कामिनियोंने अपने तरुण प्रेमियोंको करधनीरूयी शृखलासे बाँध दिया था और फूल-मालासोरूपी घाबुकोंसे तडातड़ मारना प्रारम्भ कर दिया था। फलस्वरूप तागा टूट जानेसे फूल बिखर गये थे और हाथकी चुड़ियोंको झनझनाहटसे वातावरण व्याप्त हो गया था ॥ ३१ ॥
..षष्ठीकरणे अथसौष्ठवं मविष्यति.यथा हि 'तव योषितो वा अन्तरे महदरण्यमस्ति, अथवा नदी भस्ति, अथवा..' हत्यादि।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कुपित मिति-न बभूव न प्राप्नोति स्म, कोऽसौ ? गोचरः विषयः, किम् इदम्, अदः इति एतत्, कैतवम्, कथंभूतम् ? बहु यहुप्रकारम् असत्यव्यवहारम्, कथम् ? प्रतिदयितं दयितं दयितं प्रति, कारा गोचरः ? वाचाम्, वचनानां कृत्वा, गोचरः प्रदश्यते--तथा बभूव किं कर्तृ ? कुपितं कोपः, कथंभूतम् ? अवचनं वचनरहितम्, तथा बभूव, कोऽसौ ? शिरःप्रणामः, कथंभूतः ? शपथगय: मातृपित्रादिवविधानलक्षणाज्ञा शपथो भिधीयते, शपथेन निवृत्तः शपथमयः, तथा बभूव, कोसी ? प्रणयः स्नेहः, कयंभूतः ? वृतोपचारः वृत्त उपचारो यत्र स तथोक्तः । अत्र कुपितादिकर्तृपदानां कैतवमिति सर्वत्र योज्यं कर्मेति ॥३२॥
इति वनमभितो विहृत्य खेदादगुरुचितायति साधुनीपयोगात् ।
समकररुचिरक्षतां हरीणां प्रियजनता रतये समुद्रवेलाम् ॥३३॥
इतीति--अगुः गतवत्यः, काः ? प्रियजनताः प्रियाश्च ता जनताः 'अप्रियादी स्त्रियां पुवत्' [ जै० सू० ४।३।१४६ ] इति अनेन सूत्रंण पुबद्भावः । काम् ? समुद्रदेला पोधेिलान्, कस्यै ? रतये फ्रीडाये, बेषां प्रियजननाः ? हरीणां सुग्रीवादीनां कपीन्द्राणाम्, कथंभूतां समुद्रवेलाम् ? समकररुचिरक्षता मकरा जलचरविशेषाः रुचिराः मत्स्याः अभिधीयन्ते । उक्तं च-"चिरं कुसुमं प्रोक्तं रुचिरं रुधिरं तथा, रुचिरः शफरः प्रोक्तो रुचिरं पेशलं मतम्", इति जयाभिधाने दृष्यत्वात्, मकराश्च रुधिराश्च मवररुचिरास्तेषां क्षतेन सह वर्तत्त इति तां समकरमीनजनितगाहनामित्यर्थः, कस्मादगुः ? खेदात् श्रमात्, कि कृत्वा ? विहृत्य फलपुष्पपल्लवोच्चयार्थ पर्यट्य, किम् ? वनं कान्तारम्, कथम् ? अभितः सामस्त्येन, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेग, कथंभूतं वनम् उचितायति, उचिता योग्या आयतिर्देयं यस्य तत्-कस्मात् ? साधुनीपयोगात् साधवश्च ते नीपाश्च साधुनीपा फलकुसुमपल्ल त्रैमनोहराः कदम्बा इत्यर्थः तेषां योगात्।
भारतीय:--अगात् गतवती, काऽसौ ? प्रियजनता, किम्? धुनीपयः नदीजलम्, कस्यै ? रतये, केषां प्रियजनता? हरीणां यादवानान्, कथंभूता नियजनशा ? समुदवा समुत् सानन्दो रखो यस्या: सा समुद्रवा, कस्मात् ? खेदात, किं करवा पूर्व विहृत्य, किम् ? बनम्, कथम् ? इति उक्तप्रकारेण, कभुतं वनम् ? अगुरुचितायति अगुरुभिः वृक्षविशेषश्चिता संभृता आयतिर्यस्य तत्, कथम् ? अभितः सांमस्त्येन, कथंभूतानां हरीणाम् ? इला भुवं रक्षता प्रतिपालयताम्, कथं यया भवति ? समकरचि समः साधारण: "न्यूनान्यूनपरित्यागात् साधारणसमो मतः' इति वचनात्; कर: सिद्धायः, रुचिः प्रीतिः, समः करो यस्यां सा समकरा, समरा रुचियस्मिन् पृथ्वीपालनलक्षणे कर्मणि तद्यथा भवतीति ॥३३॥
فيهيهيهيهرعلی
कुपित होना और बोलना छोड़ देना, माता-पिताको शपथ खाना और पैरोंमें माया टेक देना, मनानेके लिए तरह-तरहसे प्रेमोपचार करना और प्रीति प्रकट करना इत्यादि भांति-भाँतिके कपटपूर्ण व्यवहार प्रत्येक प्रेमिकाके साथ इतने किये गये थे कि उनको शब्दों में कहना कठिन है ॥ ३२ ॥
[साधुनोपयोगात् उचितायति वनं अभितो विहृत्य खेदात् हरीणां प्रियजनता रतये समकररुचिरक्षतां समुद्रवेला अगुः ] ऊँचे और सोधे कदम्ब वृक्षोंकी बहुलताके कारण विहारके लिए अत्यन्त उपयुक्त बनके कोने-कोने में घूमनेके बाद वानरों ( सुग्रीव प्रादि की प्रिय जनता थक गयी थी। फलतः मगरों और ( रोहू ) मलयोंसे व्याप्त समुद्र के किनारे जलविहारके लिए जा पहुंची थी।
[अगुरुचितायति वनं अभितः विहत्य खेदात् इला रक्षतां हरीणां समकररुचिः प्रियजनता समुद्रवा रतये धुनोपयः अगात] प्रगुरु चन्दन आदिके वृक्षोंकी सघनताके कारण विस्तृत वनमें उक्त प्रकारसे प्रेमलीला करती हुई यादवोंको अनुरक्त जनता लान्त हो गयी
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७५
पञ्चदशः सर्गः पयसि भयमवेत्य योषितां दयितजनोऽभवदग्रतः सरः। कुतपनियतविक्रमाः त्रियः क्व न विधुरे पुरुषः पुरस्सरः ॥३४॥
पयसीतिदयितजनः भत समूहः योपिताम् तरुणीनाम् अग्रतः सरः अभवत्. किं कृत्वा ? पयसि वारिरिण भयम् भवेत्य अवगम्य, युक्तमेतत्, स्त्रियः कुतपनियतविक्रमाः कुतपे नियतो विक्रमो यासां ताः तथोक्ता: उदुम्बरकनियमितचरणाः, वब ? विधुरै भये, पुरुषः तासां स्त्रीणां पुरःसरो न भवेत् अपि तु सर्वस्मिन् भवेदेवेति ।।३४।।।
प्रणिपतदिव वारि पादयोस्त्रसदवलग्नमिवापि अङ्घयोः । शिथिलयदिव लोलमंशुक प्रिय इव चाटुम्रपानयद् वधूः ॥३५॥
प्रणिपतदिति-वारि कतुं वचः कामिनी: चाटुं चाटुकारम् उपानयत् प्रापयत्, कि कुर्वदिव ? पादयोः प्रभिपसदिद, कि कुर्वदिन ? त्रसदिव उद्वि जमानमिव बिभ्यदिवेत्यर्थः, कथंभूतं सत् ? अजयोरपि अवलग्नं सक्तभिव पुनः अंशुकं वस्त्रं शिथिलय दिव, कथंभूतम् ? लोलं चञ्चलम्, क इवोपानयद् बधूः ? त्रिय इव वल्लभ इब, प्रियविशेषणानि पूर्वोक्तानि तुल्यार्थानि ।।३।।
तुलितरसनमौपनीविकं बलिभमिवाम्बु बभूव नाभिगम् । त्रियलिषु पुनरुक्तवाधिक बहुभवमेव पलायसंगतः ॥२६॥
तुलितेति---अम्बु वारि हुलितरसमं तुलिता रसना येन ततयोक्तं बभूव संजातम्, रसना सदरत्नाशी, उक्तं च-"रसना सर्वरत्नाङ्गी मेखला मुख पंयुता । एकयष्टिर्भवेत् काञ्ची करोति कटिमूत्रकनिति" ? कथंभूतम् ? औपनीविकम् नीत्री समीपे भवन् परिधानग्रन्धि समीपस्थितम्, किमिवोत्प्रेक्षितम् ? बलिभमिक, बलिघु भत्रम्, वलिभम्, वलिस मुत्पन्नमिवेत्यर्थः, पुन: नाभिगम् नाभी गतम्, तथा एति आगच्छति, कि कहूं ? अम्बु, किम् ? बहुभवं प्राचुर्यम्, कस्मात् ? अदलावसंगतः कामिनीसंयोगात्, कथंभूतं तत् ? पुनरुक्तवीचिकं पुनरुक्ता वीचयो येन तत्तयोक्तं द्विगुणीकृततरङ्गकम, कासु? त्रिवलिषु वलियये, अत्र लुलोपमा बोध्या। यया जनः अवलावसंगतः कामिनीसंयोगात् बहुभवं बहूनां भवानां समाहारो बहुभवं तत् प्रचुरजन्म एति गच्छति ।।३६।।
थी। आदर्श और एक समान करम्यवस्थाके कारण प्रसन्न, पृथ्वी-पालकोंकी यह जनता मानन्दसे कोलाहल करती हई विश्राम और विनोदके लिए नदीकी धाराकी पोर बढ़ गयो थी॥३३॥
जलमें संकट हो सकता है यह सोचकर ही प्रेमी प्रपनी अपनी प्रेयसियोंके आगेमागे पानी में उतरते जा रहे थे । स्त्रियोंका साहस पानीमें उतरते ही पानी-पानी होने लगता है, तब कौन ऐसा पुरुष है जो प्रियाके भीत होते ही प्रागे न बढ़े ॥ ३४ ॥
पहले चरणोंमें पड़ते ( पैर डुबाता ) हुएके समान बादमें जांघों तक पहुंचकर (जांघ डुबाता ) भी डरता हुआ ( लहराता ) सदृश और अन्तमें चंचल ( लहराती ) साडोको भी ढोला ( लथपथ ) करता हुमा समुद्र या नदीका पानी भी प्रेमियोंके समान प्रेमिकाओंका अनुरंजन कर रहा था ॥३॥
नीवी ( साडीकी गाँठ ) तक पहुँचकर पानी करधनोंके समान हो गया था। नाभि तक पहुंचकर उसने त्रिवलिके समान नायिकाको भूषित किया था और त्रिवलिसे मिलकर
१. "कुतपोऽस्त्रियो दौहिने बाये छागज कम्पछे । कुशे दिसरूपाएमाशे ना सूर्ये कुतपो पुनः ।" मेदिनी । मतो 'कुतपे कुशे नियतो विक्रमो यास ताः' न्याख्योचिततरा ।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
.
।
..
.
।
।
।
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अभिमुखमवलम्बितोऽम्बुना निचितकुचद्वयसंप्रियाजनः । स्तनजघनभरेण पीडितः स्फटिकमयीमिव भित्तिमाश्रितः ॥३७॥
अभीति-अम्बुना वारिणा कर्या प्रियाजन: अवलम्बितः अभिमुखमिति क्रियाविशेषणमेतत् निचितकुचद्वयसम् कुची परिमाणं कुचद्वयसम् "परिमाणे द्वयसहनमात्रट." [जै० सू० ३।४११५९] इत्यनेन सूत्रेण द्वयसडिति प्रत्ययः, निचितं कुचयसं यस्मिन् अवलम्बनलक्षणे कर्मणि तद्यया भवति तथा, क इवोत्प्रेक्षितः ? आश्रित इव, काम् ? भित्तिम्, कथंभूताम् ? स्फटिकमयीं स्फटिकनिर्वृत्ताम्, कथंभूतः प्रियाजनः ? स्तन. जघनभरेण पीडितः ।।३७।।
परिचितमभिगम्य लीलया कुचभुजयोविंशतान्तरं मिथः । परिपजादिव योषितो जलं चलवलिबाहुयुगेन निर्बभौ ॥३८॥
परिचितमिति–जलं निभी भाति स्म, कि कुत्रंदिव ? अङ्गना: कामिनी: परिषदिव आलिङ्गदिव, केन कृत्वा ? चलवलिवाहुयुगेन तरङ्ग मुजद्वन्द्वेन, कयम् ? मिथः परस्परम्, कि कुवंता सता ? अन्तरं मध्यं विशता, कयोः ? कुचभुजयोः, कया ? लीलया अनायासेन, किं कृत्वा ? पूर्वमभिगम्य प्राप्य, कथंभूतम् अन्तरम् ? परिचितं संस्तुतमिति ।।३८।।
अधिजलमधिकङ कुमं बभौ करधृतमङ्गनया स्तनद्वयम् ।
कनककलशयुग्ममम्भांस स्मरमभिषेक्तुमिवावतारितम् ॥३६॥ अधीति–अङ्गनया कामिन्या कैरधृतं हस्त रुवं स्तनद्वयं कुचयुगं बभी रेजे, कथंभूतम् ? अधिकुकुम प्रचुरकुडकुमचचितम्, क्व वनो? अधिजलं जलमध्ये, किमिव ? कनककलशयुग्ममिव शातकुम्भकुम्भद्वि तयमिव, कर्थभूतम् ? कन्दमभिपेक्तुम् । अम्भसि जले अक्तारितम् ।।३९॥
करतलपिहितं प्रियाननं प्रियमृदुसिक्तविषक्तशीकरम् ।
मुकुलितमिव परमुल्लस द्विरलतुपारजलं व्यराजत ॥४॥ करेति-प्रियाननं भामिन्या मुलं व्यराजत, बभी, कथंभूतम् ? करतलपिहितं हस्ततलप्रच्यादित पुनः नियमृदुसिक्त-विषक्तशीकर प्रियेण मृदु यथा भवति पूर्व सिक्ताः पश्चाद् विषवता लग्नाः शीकरा पानीकी लहरें दुगुनी सहश हो गयी थीं। इस प्रकार कामिनियोंके सम्पर्कसे पानीने भी अनेक भव ( रूप ) धारण किये थे ॥३६॥
पुष्ट एवं कठोर कुच-युगल-प्रमाण गहरा पानी जलक्रीड़ामें विभोर इन प्रेयसियोंके मुखके सामने आ गया था [ मुखका भी धुम्बन कर रहा था ] ! और इस पानी में डूबी नायिकाएं ऐसी लगती थीं कि अपने स्तन और जंघानोंके भारसे पीड़ित होकर इन्होंने स्फटिकमरिणको भीतिका सहारा ले लिया है ॥३७॥
पूर्व-परिचितके समान रतिलीला करता हुमा पानी नायिकायोंको सब तरफसे प्रावेष्टित करके उनके स्तनों और बाहुलतानोंके बीचमें भी घुस गया था। तथा चपल तरंगों रूपी भुजाओंके द्वारा उनका प्रालिंगन करते हुएके समान सुशोभित हो रहा था॥३८॥
पानीमें उतरती हुई नायिकाोंने अपने-अपने स्तनोंको कंकुमसे रंगे हाथों-द्वारा सम्हाल लिया था। इस प्रकारसे सम्हाली गयी स्तनोंकी जोड़ीको देखकर लगता था कि ये स्तन नहीं हैं, अपितु कामदेवके अभिषेक के लिए पानीमें डुबाये गये कुंकुम-चर्चित दो सोनेके सुन्दर कलश ही हैं ॥३६॥
Hamarrin
wunnarunmunnnnnnninrnment
Autnanagar
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चदशः सर्गः
२७७ वारिकणा यस्मिन् तत्, किमिय? मुकुलितं संकुचितं पद्ममिव, कथंभूतम् ? उल्लसद्विरलतुपारजलम् उल्लसद् विजृम्भमाण विरलं हिमवारि यति ॥४०।।
निचितमलकमल्पमौक्तिकग्रथितमिवाम्बुकणैर्नतभ्रवः ।
नयनबहलपक्ष्म चारुचत् प्रणयजयाप्पविशङ्कितप्रियम् ॥४१॥ निचितमिति–अलकम् अरुचत्. जात्यपेक्षयकवचनम्, आविष्टलिङ्गत्वानपुंसकलिङ्ग च केशपाश इत्यर्थः, कयंभुतम् ? अम्बुकर्णः उदबिन्दुभिः निचितम् निभृतम्, कस्या अलकम् ? नत ध्रुवः नत्ते ध्रुवी पस्याः तस्याः, नत्र लाजा व्यङ्गया, किमिवारुचत् ? अल्प मौक्तिकग्रयितमिव पुनः नयनबलपक्षमलोचनमोलकच्छदघनकेशः पुन: प्रणयजवाष्पविशतिप्रियं प्रणयजेन वाष्पेण कृत्वा विशङ्कितः प्रियो येन तत् स्नेहोद्भवाश्रुविशङ्कितवल्लभमिति ।।४।।
किमु विलुलितकुङ्कुमावलि किमधिकुचं नखरक्षतं नवम् ।
विमतिरिति विपक्षसेचनेन च कुपितोऽकुपितोऽवलाजनः ॥४२॥ किमिति-घकारोऽत्र संभावनाओं भागते न गुमायजाम लगते, अकुपितोऽपि सन् अबलाजनः कुपितः, केन ? विपक्षसेचनेन सपत्नी जनोक्षणेन, कथंभूतः ? विमतिः विशङ्कितमना:, कथम् ? इति कृत्दा दर्शयति, उ अहो कि विलुलितकुङ्कुमावलिः आघाततया प्रकटीभूता घुसृणरेखेयमित्यर्थः, कथम् ? अधिकुचं कुचयोरपरि, अथवा नसरक्षतं नखक्षतम्, किंभूतम् ? नवं नूतनम् ।।४२।।
सपदि न तदवेयुषो वधूरघिदयितायतबाहु विप्लुता।
रमणसलिलयोः किमीयतः पुलकितमङ्गमिति प्रसङ्गतः ।।४३|| सपदीति-न अवेयुषी न ज्ञातवती, का ? कन्दः, किम् ? तत्, कथम् ? सपदि शी नम्, कथम् ? इति प्रवाटयते, पुलकित रोमाञ्चितम्, किम् ? अङ्गम्, कस्मात् ? प्रसङ्गतः संबन्धात्, कयो: ? रमणसलिलयोः भर्तृजलयोः, कथंभूतात् प्रसङ्गात् ? किमीयतः कस्यायं किमीयः तस्मात् कस्य संबन्धिनः, कथम् ? अधिदयितायतबाहु आयती च तो बाहू च आयतबाहू दयितस्य आयत बाहू दयितायतबाहू दयितायतबाह्वोरुपरि अधिदपितायतबाहु रमणस्योद्दण्डदोर्दण्डयोरुपरि विप्लुता ।।४३॥
बल्लभको पानीकी बौछारसे बचनेके लिए बल्लभाने अपना मुख हाथोंसे ढक लिया था। तो भी प्रेमी-द्वारा धीरे-धीरे उछाले गये पानीको कुछ बूंदे उसके मुखपर रह गयी थों। फलतः उसका मुख क्वचित्-क्वचित्, प्रोसको बूदोंसे युक्त विकसित कमलको कलीके समान कान्तिमान हो गया था ॥४०॥
जलक्रीड़ामें रत नायिकाके पलक झपके हुए थे। उसके गुंथे हुए सुन्दर जूड़ेपर पानीको कुछ बूंदे सक गयी थी और इनके कारण वह ऐसा सुन्दर लगता था मानो थोड़े-से मोतियों से सजाया गया हो । प्रांखोंके घने पलकोंपर भी कुछ जलबिन्दु रुक गये थे। वे भी पतिपर हुई शंकाके कारण आँखोंमें छलक पाये शोकके आँसुओंकी छटा दिखा रहे थे ॥४१॥
सपत्नीके द्वारा पानी डाले जानेपर प्रसन्नतासे जलक्रीड़ा करती हुई नायिकाएं भी अप्रसन्न हो गयी थीं। और कह उठी थों, मेरा कुंकुमका लेप क्यों पोंछ डाला ? और तुम्हारे कुचपर नया नखक्षत कहाँसे आ गया ? ॥४२॥
पतिने अपनी प्राजानु लम्बी भुजामोंपर पत्नीको पानीमें तेरा दिया था। इसके कारण नायिकाको तुरन्त रोमांच हो गया था। किन्तु वह मुग्धा यह न समझ सकी कि यह ( रोमांच ) पतिके स्पर्श और जलक्रीड़ामें से किसके कारण हुआ था ॥४३॥
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
द्विसन्धानमहाकाव्यम् परिहृषितमुखं पदं दधवरोऽपि बग पाडताए ।
श्लथितमथ विलेपनाअनं निधुवनमन्वहरज्जलप्लयः ॥४४॥ परीति---जलप्लवो जलक्रीडा निधुबनं स्त्रीपुंसयोः संयोगम् अन्वहरत् अनुचकार, तथा हि कृत्वा दर्शयति---कुचद्वयं स्तनयुगं परिहृषित मुखं रोमाञ्चकिताननं बभूव संजातम्, अपिशब्द: समुच्चये, अधरोऽपि पाण्डुनां दधन् बभूव संजात: ताम्बूल जनितरागविरहात् शुक्लोऽभवदित्यर्थः; अथ तथा विलेपनाञ्जनं विलेपनं च अजनं च विलेपनाजनम्, समाहारत्वादेकवचनम, श्लथितं श्लवं बभूव । अत्र भावोऽप्यपन्यस्यते-- जल लाओ जलपीजनाधिक्यं पायम् । निधुवरपक्षे-परिहृषिततया कुचद्वये पाण्डुनया अधरे अजनबिरहाल्लोचने चुम्बनं विलेपनश्लथनाच्चालिङ्गनं व्ययम् ।।४४।।
जलपरिचयैरुत्सूत्रत्वं गतः परिघट्टितः
शिथिलितगुणो मुक्ताहारोऽप्यधोगतिमागतः । चटुलललनाकण्ठासक्तेष्वहो किमु संयमः
किमनशनतावासस्तेषां ध्रुवं विलयः पुनः।।४।। अलति-मुक्ताहारोऽपि अधोगतिम् आगतः, कथंभूतः ? शिथिलितगुणः श्लथसूत्रः, पुनः कथंभूतः ? उत्सुत्रत्वं उबरकाभावं गतः प्राप्तः पुन: जलपरिचय: जलानुशीलनैः परिघट्टितः विलुलितः, युक्तमेतत्, अहो घटुलललना कण्ठासक्तेषु चपललल नागलालिङ्गनरसिकेषु किमु संयमो नियन्त्रणं स्यान् अपि तु न संभाव्यते किम् ? अनशन तावासः, नश्यते नशनम्, नशनस्य भावो नशनता, नशनतायाः 'वासः, नशनतावासः, न नशनताबास: आशनतावास: अनशनलागन्धः, अपि तु न भवेदेव, ध्रुवं निश्चयेन तपां घटुलललनाकण्ठासक्तानां पुनर्विलय एव स्यात्---"यमकश्लेषचित्रेषु वबोर्डलयोन भित्," इत्यलंकारपरिभाषया लोकोक्सो जडपरिचयस्य प्रभावो विभावयते, मुक्ताहारोऽपि मुक्तः आहारो येन स तथोक्तोऽपि तपस्व्यपि अधोगतिम् आगतः, कथंभूतः ? शिथिलितगुण: गलितज्ञानाभ्यासः पुनः उत्सूत्रत्वं शास्त्राभावं गत', 'पुनः परिघट्टितः स्वदासनावासितः, के: ? जडपरिचनैः जडा अज्ञाततत्त्वास्तेषां परिचयाः संसर्गास्तै:, युक्तमेतत्, अहो चटुलललना कण्ठासकतेषु पुंसु किमु संयम: आजन्मत्रतपरिग्रहः, अपि तु न, निरर्थक एव स्यात्, तथा किमनशननावासः,अशनता पृष्टाहारता बासो वस्त्रम् अशनना च वातश्च अपानतावास: अत्र समाहारापेक्षयेकवचनम्, न अशततावाम : अनशनतावासः अपि तु अशनबासपरित्यागोऽनर्थक एव स्यात्, ध्रुवं परमार्थतः तेषां पुंसां पुनविलयः संसारसंसरणं स्यात् इति ॥४५।।
जलक्रीडाने सुरत-लीलाका अनुकरण किया था। क्योंकि कुन-कलशोंके मुख विकसित हो गये थे, दोनों ओठ सफेद पड़ गये थे, शरीरपर मला गया शालिचूर्णका लेप धुल ( पुंछ ) गया था तथा प्रांखोंका अंजन नादि भी फोके हो गये थे ॥४४॥
बहुत समय तक पानी में पड़े रहनेके कारण उलझो मोलियोंकी मालाका तागा शरीर और जलकी रगडमें पड़कर ढीला पड़ गया था और नोचेको लटक गया था। चंचल ललनामोंको ग्रीवामें पहने गये गहनोंको ठीकसे बँधा रखा जा सकता है ? या उनमें लेश मात्र अनश्वरता लायी जा सकती है ? चंचल कामिनियोंके गलेमें पड़ी वस्तुप्रोंका टूटनाफूटना हो निश्चित है [ श्लेषमें ड और ल का भेद नहीं होता। अतएव जलको 'जड' करनेपर-दुष्टोंकी संगतिके कारण शाखविरुद्ध ( उत्सूत्र ) प्राचरपमें लीन, फलतः व्यसनोंकी चपेट में प्राया और यम-नियम प्रादि गुणोंको साधना शिथिल साधक भोजन
१. भावासः सुष्टुतर: यतो हि चटुलललनाकण्यासतानाम् कृते नाशस्यैय भावासः । २. लेश इति यावत् । ३. हरिणीवृतम् ।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६
पञ्चदशः सर्गः कान्तोन्नतस्तननितम्बनिपीडनेन प्राप्तं प्रवक्तमिव भोगमगादगाधम् । मध्येजलं तटजलं जलवृत्तयोऽल्पे धावन्ति हि श्रियमुदीरयितुं महद्भयः ॥४६।। ____ वान्तेति-- अगात् गतम्, विम् ? तटजलम्, कथम् ? मध्ये जलं कि वर्तुम् इव ? प्रवक्तुमिव निवेदयितुमिव, कम् ? भोगम्, कथंभूतम् ? प्राप्तमनुशीलितम्, केन ? कान्तोन्नतस्तन नितम्बनिपीडनेन, पुनः कथंभूतम् ? अगाधं प्रचुरम्, युक्तमेतत्, हि स्फुट जलवृत्तयः जलस्येव वृत्तियेषां ते तघोक्ताः थियम् रदीरयितु धावन्ति, केभ्यः ? महद्भ्यः सत्पुरुपेभ्यः कथंभूताः ? अले तुच्छाः, अथ च जलवृत्तयः जडानामिव वृत्तिर्येषां ते तथोक्ताः अथवा जहा वृत्तिर्येषां ते तथोक्ताः'? ॥४६॥ मध्यस्थवृत्तमपि बञ्चति नन्वगाधं लोको दुरन्तमपि गच्छति गाहनीयम् । यद्गुल्फजानुजघनस्तनदानमेव स्त्रंणं समागममयान्न पयो गभीरम् ।।४७||
मध्यस्थेति-जनु अहो वञ्चति जहाति, कोऽसौ ? लोकः, किम् ? मध्यस्यवृत्तं मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थं मध्यस्थं च तद्वृत्तं च मध्यस्थवृत्तम् अथवा मध्यस्थानां वृत्तं मध्ास्थवृत्तम्, कथंभूत मपि ? अगावमपि, तथा गच्छति, किम् ? गाहनीयं वृत्तम्, कथंभूतमपि ? दुरन्तमपि दुधमन्तं तटं यस्य तत्, अथवा दुष्टस्वरूपमपि, यवस्मात् कारणात् नायात् न याति हम, कि का ? पयः, कम् ? समागमम्, कथंभूतं पयः ? गभीरमतलस्पशि, तहि कथंभूतमे वायात् ? गुल्फजानुजघनस्तनदघ्नमेव गुल्फजानु जघन स्तना: परिमाणं यस्य तत्तयोक्तम्, कथंभूतं समागमम् ? स्त्रैणं स्त्रीणामयं स्त्रणः सम् ।।४।।
स्रस्ताः सजा शिथिलितानि विलेपनानि संदर्शितानि च विपक्षनखक्षतानि ।
इत्यात्मदोषचकिता इव वेपमाना वेलारधूभिरभवत् क्षणदृष्टनष्टाः ॥४८|| छोड़े रहनेपर भी गिर जाता है। घपल कामिनियोंके माकण्ठ श्लेषके लिए प्रातुर लोगोंसे कभी संयम पाला गया है ? उनके अनशन और वखत्याग ( दिगम्बरत्व )से भी क्या होना है ? इनका तो विनाश ही अटल भविष्य है ] ॥४५॥
__ सुन्दरियोंके उन्नत स्तन और नितम्बोले टकराते-टकराते किनारेके पानीमें भवरें ( भोग ) उठने लगी थीं। इसे बतानेके लिए ही वह बीचके जलमें गहरे चला गया था। पानीमें पड़े थोड़े लोग ( देव ) क्या बहुतों ( दैत्यों )से लक्ष्मीको उबारनेके लिए दौड़ते हो हैं [जड़ या चंचल स्वभावके छोटे लोग ही किनारे या बीचमें कामिनियों के साथ की गयी जलक्रीड़ाके असीम आनन्दको बड़ोंसे कहने के लिए या अपनी सम्पत्तिका प्रदर्शन करनेके लिए दौड़ते हैं] ॥४६॥
___ जलनोड़ामें लगे लोग बीच में भरे वृत्ताकार गहरे पानीको छोड़ देते हैं और ऊबड़पावड़ होनेपर भी किनारेके पैठने योग्य कम पानीमें घुसते हैं इसीलिए पंजा, एड़ी, पिडुली, जांध, स्तन तक गहरे पानीको ही कामिनियोंका संपर्क प्राप्त हुप्रा था। गहरा पानी अछूता रहा था [लोक भी मध्यस्थ स्वभावके गंभीर व्यक्तियोंसे भागते हैं और अन्तमें धोखा देनेवाले चपल व्यक्तियोंका साथ करते हैं। स्त्रियोंके दास ही पर, एड़ी शादि दवाते हैं। धीर गंभीर ऐसा नहीं करते हैं ] ॥४७॥
viwww
1. वसन्ततिलकावृत्तम् । २. दृष्टान्तालंकार-प००।
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् सस्ता इति---बेला जलकल्लोला: अमबन् अजनिषत, कथंभूताः ? क्षणदृष्टनष्टाः क्षणं पूर्व दृष्टाः पश्चान्नटा: क्षणटनाः, काभिः ? ववभिः मुग्धाङ्गनाभिः, किं कुर्वाणा: वेला: ? वेपमानाः कम्पमानाः, किं विशिटा इवोत्प्रेक्षिताः ? आत्मदोषचकिता इव स्वकीयापराधभीता इव, कथस् ? इति कृत्वा दोषं दर्शयति, स्रताः न्युनाः सजो माला: तथा विलेपनानि अङ्गरागाः सिथिलितानि तथा विपक्षनखक्षतानि सपत्नीकररुहत्रणानि संदर्शितानि ।।४८।
तथा वेषं तेषां कुसुमरचितं कुक्कुचितं
दधानोदाराणां दिशि दिशि जनानां प्रियतमम् । चिरं चक्रे शङ्कामिव हृदि परासंगजननी
नदीवाहो वेला त्वरितगतिरीशस्य सरिताम् ॥४६॥ ___ तयनि-द्विः–तथा क्षणनष्टभवनप्रकारेण अहो चक्रे कृतवती, का ? सरितामीशस्य समुद्रस्य वेला, काम् ! शङ्काम्, कथं भूतामिव ? परासंगजननी मिव परेषामासंगः परासंगः तं जनयतीति ताम् अन्येषामातंगस्य जनयित्रीमिव, क्व ? तेषां जनानां हृदि हृदये, कथम् ? चिरं बहुकालम्, कथंभूतानाम् ? उदाराणाम् कथंभूता वेला? त्वरितगति: स्वरिता गतिर्यस्याः सा शीघ्रतरप्रवर्तना, क्व ? दिशि विशि, केद ? नदीव कि कुर्बाणा ? वेषम् अलंकारं दधाना, कथंभूतम् ? कुसुमरचितं पुनः कुकुमचितं पुनः प्रियतमं मनोहारि।
भारतीयः पक्षः-नदीवाहो नदीपूरः चक्रे, काम् ? शताम्, कथंभूतामिव ? परासंगजननीमिद, क्व ? दाराणां कलत्राणां हृदि, तथा जनानां लोकानाम्, कथम् ? चिरम्, कथंभूतो नदीवाहः ? त्वरितगतिः त्वरिता गतिर्यस्य सः, क्व! दिशिशि , के त्वरित मतिःसरिताम् ईशस्य वारिनिधे: देलेव, कथंभूत:? कुसुम रचितं पुनः कुङ्कुमचितं प्रियतम वेषम् आकारं दधानो घरन् अत्रोभयथा वेलानदीजलयो रमणरमणीक्रीडाधिक्यात् कुसुमकुङ्कुममयत्वं प्रदशितमिति' ।। ४९॥
पुष्पं प्रवालमखिलं स्ववनस्य कोपात्सर्वस्वमाहतमुपाहरतीव भूयः । भूपा विहृत्य पयसि द्रुतमित्यपेयुः के वान्यदुत्सुकधियोऽन्यधनं जयन्तः ॥५०॥ इति श्रीधनंजयकविविरचित राघवपापडीयापरनाम्नि द्विसन्धानमहाकाव्यं कुसुमावचय
जलक्रीडावर्णनं नाम पम्पदशः सर्गः ।
टूटी मालाओं, पुंछ हुए अंगराग तथा साफ-साफ दिखले नखक्षत प्रादि अपने अनाचारों के कारण भीत और कांपती हुई क्षण-भर सामने पाकर छिपी दोषी नायिकाके समान समुद्र अथवा गंगाको वेला (किनारा) को कुलीन बहनों ने देखा था [क्यों कि जलक्रीड़ामें टूटो मालाएँ, विलेपन झरे पंखे मादि किनारे जा लगे थे और किनारेपर पक्षी आदिके पंजोंके ठप्पे बन रहे थे। और संध्या हो जानेके कारण क्षण-भर ही यह सब देखा जा सका था ॥४॥
सब दिशाओंमें फूलोंसे सजे और ढके, कुंकुमके विलेपनसे सने और लोगोंको परम प्रिय किनारेको चंचल शोभाने समुद्र या नदीके अनन्त पाट (प्रासंग)की मनमें शंका कर दी थी [ पुष्पोंसे सजे, 'अंगराग युक्त और प्रत्यन्त मनोहारी वेशभूषाको देखकर, बड़ों-बड़ोंको भी परके प्रति अभिसारको शंका हो ही जाती है ] ॥४९॥
१. शिखरिणीवृत्तम् ।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
पश्चदशः सर्गः
२८१
पुष्पमिति - अपेयुरपसत्रः अपसृतवन्तः के ? भूकम्पम् किं कृत्वा ? विहृत्य संक्रीड, क्व ? पयसि जले, कथम् ? इति उक्तप्रकारेण किं कुर्वतीय ? पयसि उपाहरतीबाद+ दतीव किम् ? पुष्पं प्रसूनं तथा प्रवालं कोमलपल्लवं कथम् ? भूयो मुहुर्मुहुर्वारंवार मिति यावत् कथंभूतं द्वयम् ? अखिलं समस्तम्, पुनः कथंभूतम् ? सर्वस्वं पुनः भूपैः आहृतम् आनीतमिति संबन्धो बोद्धव्यः, कस्य ? स्ववनस्य आत्मकान्तारस्य कस्मात् ? कोपात् रोषात् के वा विजिगीषत्रः स्युः अपि तु न केऽपि, कथंभूताः सन्तः ? अन्यदुत्सुकधियः अन्यस्मिन् उत्सुका धीर्येषां ते तथोक्ताः, किं कुर्वन्तः ? जयन्तः किम् ? अन्यधनमिति || ५०॥
इति श्रीनिरवद्यविद्यामण्डनमण्डिस पण्डितमण्डलमण्डितस्य षट्तर्कचक्रवर्तिनः श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारुचातुरीचन्द्रिका चोरेण नेमिचन्द्रेण कृतायां द्विसन्धानकवेर्धनंजयस्य राघवपाण्डवीयापरनाम्नः काव्यस्य पकौमुदीनामदधानायां टीकायां कुसुमावचय जलक्रीडाव्यावर्णनं नाम पञ्चदशः सर्गः ॥ १५ ॥
क्रोध में आकर हरण किये गये वनके फूल, कोमल पत्र वापस करते हुएके समान इन सबसे युक्त जलराशिको छोड़कर जलक्रीड़ा करनेके उपरान्त त्वरासे पानीमें से निकल आये थे । ineप विजयी पुरुष दूसरेको सम्पत्तिपर दृष्टि नहीं डालते हैं ॥५०॥
आदि समस्त सम्पत्तिको राघव पाण्डव राजा लोग क्योंकि लक्ष्य के प्रति कृत
निर्दोष विद्याभूषणभूषित, पण्डितमण्डळी पूज्य, षट्तर्कचक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र रुके प्रशिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकलाधातुरी- चन्त्रिकाचकोर नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कविधनंजय के राजद-पाण्डवीय नामले ख्यात हिसन्धानकाव्यकी पदकौमुदी टीकाम कुसुमापचय जलक्रीडादर्णन नामका पंचदश सर्गे समास ।
३६
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः ततः समीपे नवमस्य विष्णोः श्रुत्या पलं संभ्रमदष्टमस्य ।
क्रुधा दशनोष्ठमरिं मनःस्थं गाढं जिघत्सन्निव संनिगृह्य ॥१॥ तत इति-द्विः । कुलकेन व्याख्यास्यामोऽधुना। ततो रामपाण्डवप्रयाणानन्तरं निरेयो निर्गतवान्, रावण: कि कुर्वन्निव ? जिघत्सन्निव ग्रसितुमिच्छुरिव कम् ? अरिंशत्रुम्, कथम्भुक्तन् ? मनःस्थम्, किं कृत्वा? पूर्व सन्निगृह्म निपीडच, कथम् ? गादमत्यर्थम्, कि कुर्वन् ? क्रुषा कोपेन ओष्ठं दशन् खादन् पुनः किं कृत्वा निरेयः ? अष्टमस्य अष्टानां समापूरणोऽएमः तस्याष्टमस्य विष्णोर्लक्ष्मणस्येत्यर्थः, वलं सैन्यं श्रुत्वा आकर्य कथम्भूतस्य ? नवमस्य नवा नूतना मा लक्ष्मीर्यस्य तस्य अथवा अस्य विष्णोः बलं कि विशिष्टम ? नवम् अपूर्वम् कि कुर्बत् ? संभ्रमत् पर्यटत, क्व ? समीपे निकटे । अथ भारतीयः-सोऽयं जरासन्धो राजा नियो निरगमत्. किं कृत्वा ? अस्य विष्णरायणस्य बलं श्रुत्वा, कथम्भूतस्य ? नवमस्य नवानां सङ्ख्यापूरणो नवमः तस्य, भव ? समीपे कथम्भूतम् ? सम्भ्रमदष्टं संभ्रमास्तम्, शेर्ष प्राश्वत् ।।१।।
तइंशमीताधररागसङ्गादिवारुणादस्त दुपाश्रयेण ।
पिङ्गयोन बोरुदतथमराजिनेभ्राडिवेन्द्रायुधमध्यकेतुः ॥२॥ तदंशेति-कथम्भूतो रावणः ? अरुणाक्षः बरुणे अक्षिणी यस्य स तथोक्तः कस्मादिव ? तदंशभीता. घररागसंगादिव तस्य रावणस्य दंशस्तदंशस्तदंश भीश्वासावधरच तद्देशभीताधरस्तस्य यो रागरतस्य संगात् संबन्धादिव, पुनः कथम्भूतः ? उद्गतयूमराजिः उद्गता धूमरा जिर्यस्य सः समुत्पन्नमणिः, कयोमध्ये ? पिङ्गयोद्ध्वोः केन ? तदुपाश्रयेण तयोरक्ष्णोर्लोचनयोर्य उपाश्रयस्तेन क इव ? नभ्राडिव मेघ इव कथम्भूतो सम्राट् ? इन्द्रायुधमध्यकेतुः इन्द्रायुधस्य मध्ये केतुर्यस्य सः ॥२॥
हस्तं कृपाणे हृदयं स्थिरत्वे दृष्टिं सपत्ने च समादधानः ।
सदात्मतन्त्रोऽप्युदितस्य मन्योरालुच्यमानाङ्ग इव स्यदेन ॥३॥ हस्तमिति-कथम्भूत इव ? मन्योः को घस्य स्थदेन वेगेन आलुच्यमानाङ्ग इब आहियमाणशरीर इव, कथम्भूतस्य ? उदितस्य उत्पन्नस्य, कथम्भुतोऽपि ? वात्मतन्त्रोऽपि स्वायत्तोऽपि, कथम्मूतोऽपि ? सदात्मतन्नोऽपि सन्त आत्मनन्त्रा यस्य स तथोक्तः, कथम् ? सदा सर्वकालम्, कि कुर्वाणः ? कृपाए खड्गे हस्तं कर समादधानः आरोग्यन् तथा स्थिरत्वे स्वयें हृदयं दृष्टि सपत्ने शत्रौ च ।।३.३
समुद्र पार करनेके बाद लंकामें बढ़ती हुई प्राठवें विष्णु ( लक्ष्मण ) की नूतन सेनाके निकट ना पहुँचनेका समाचार सुनकर रायगने [ गंगा पार करनेके बाव राजधानीके निकट पहुँची और भयके साथ देखी गयी नौवें विष्णु ( श्रीकृष्ण ) की सेनाका सन्देश मिलते ही जरासन्धने ] क्रोधसे अोठ चबा लिये थे । मानो मनमें बैठे शत्रु राम या कृष्णको जोरसे पोठोंमें बन्द करके मार डालना चाहता था ॥१॥
राधरण अथवा जरासन्ध, कहीं मुझे चबा न जाये', इस भयसे अोठोंकी लाली अखिोंमें पहुंच गयो यो। क्रोपसे जलती आँखोंके निकट होनेके कारण भृकुटियां धूम्ररेखाके समान तन गयी थीं। तथा नेत्रोंको झाँकी बिना बाबलोंके चमकती बिजलीमें धूम्रकेतुके समान लगती थी॥२॥
१. सर्गेऽस्मिन् उपजातिवृत्तम् ।
vasanapurARAM
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
अलङ्घितव्योमगधार्यभूमिं प्रियामिवाशंसुरयं स राजा ।
चित्तेन लङ्कामवशात् प्रकोपव्याजं वहन्गजगृहान्निरैः ||१||
२८३
अलङ्घितेति सोऽयं राजा रावणः कस्मात् ? राजगृहात् राजमन्दिरात् किं कुर्वन् ? बहून् धरन्, क? प्रकोपाचं प्रकोपाक्षेपम् कस्मात् ? अवशात् पारतन्त्र्यात् कथम्भूतः ? माशंसुः प्रशंसन् काम् ? लङ्का, केन ? चित्तेन कामिव ? प्रियामिय, कथम्भूतां लङ्काम् ? अलङ्घितव्यो मगधार्थभूमि व्योम गच्छ वीति व्योमगाः विद्याधराः अलङ्घिताश्च ते व्योमगाश्च अलङ्तिव्योमगा: अलङ्घितव्योमगंर्धार्या भूमिवास्ताम्, अजेधैः खेचरेयिमाणावनिमित्यर्थः । हे मगधार्य, मगधाः क्षत्रियाः अर्थः स्वामी भगवानामयः अथवा मगध देशस्तस्यार्थः तस्य सम्बोधनं क्रियते हे भगवार्य श्रेणिक ? सोऽयं राजा जरासन्धो निरेयः कस्मात् ? राजगृहात् राजगृह्नगरात् किं कुर्वन ? बहन् किम् ? अतलमग्निम्, कथम्भूतमु, प्रकोपव्याजं क्रोधरूपम्, केन ? चितेन, कथम्भूतः ? आशंसुः काम ? प्रिया, कामिव भूमिमिव कथम्भूतो जरासन्धः ? अलङ्घितव्य: अजय्य इत्यर्थः || ४ ||
समागधैर्योऽनुगतः सहायैरक्षोद वैराकुलिताखिलाशः ।
रणाजिरं विश्वजगद्विनाशं यमः स्वयं कर्तुमिवावतीर्णः ||५||
समागधेरिति अवतीर्णो रावणः, किं कर्तुमिच ? रणाजिरं कर्तुमिव विधातुमिव कथम्भूतम् ? विश्वजगद्विनाशं विश्वानि च तानि जगन्ति तेषां विनाशो यत्र तत् कथम्भूतः ? यमः कालप्रायः, कथम् ? स्वयमात्मना, पुनः कथम्भूतः ? समागमेयः मां लक्ष्मीं गच्छति प्राप्नोतीति मार्ग मार्ग च तद्वे च मागधेय सह मागधैर्येण वर्तते इति समागवेयं पुनरपि कथम्भूतः ? अनुगतो युक्तः, कै: ? सहायैः मित्रैः पुनः
कुलिताखिलाशः आकुलिता अखिला माशा येन स तथोक्तः व्यग्रोकृत समस्तदिक्कः कः सहायैः ? रक्षोदवैः रक्षida दवाः रक्षोदवास्तै राक्षसदावानलेरिति । भारतीयः पक्षः स जरासन्धः स्वयमात्मना यमोऽवतीर्ण कथम्भूतः सन् ? अक्षोदबैराकुलिताखिलाशः क्षोदो विकारः न क्षोदो यस्य तदक्षोदम् अक्षोदं च तद्वरं व अक्षोदरं तेनाकुलिता अखिलाशा येन तयोक्तः । अथवा अः नारायण: आत् क्षोदो यस्य तदक्षोदं वीराणां समूहो वैरं अक्षोदं च तद्वैरं च अक्षोदरं तेनाकुलिता अखिला आशाः समस्ता अभिलाषा यस्य सः योग मागः मगधदेशोद्भवैः क्षत्रियैः शेषं सुगमम् ॥ ६५ ॥
रावरण या जरासन्धका हाथ तलवारपर जा पहुँचा था, मनते स्थिरता या दृढ़ता पायी थी और आँखें शत्रुपर जमी हुई थीं । इस तरह वह श्रात्म-नियन्त्रण में था, तो भी भभकते क्रोध के कारण अपने ही शरीरको नोचता-सा लगता था ॥ ३ ॥
ऐसे राजा रावरणने लंकाको मन-ही-मन सराहना की थी क्योंकि यह प्रकाशग्रामी विद्याधरोंसे रक्षित थी— प्रथवा श्राकाश-गामियों द्वारा शासित विद्याधर लोक भी इस लंकाको महिमाको नहीं पा सकता था । किन्तु अपनी बेक्शीको क्रोध के रूप में प्रकट करता हुआ वह राजमहल से चला था [ ऐसे राजा जरासन्धने मागध घायों की भूमि ( मगध देश ) की अन्तरंग से वैसी सर्वांत प्रशंसा की थी जैसी कोई कामके वश होकर अपनी प्रियतमाकी करता है । तथा क्रोधाविष्ट होकर उसने राजगृहनगरीसे प्रयाण किया था ] ॥ ४ ॥
धारी लक्ष्मीकी प्राप्ति में साधक ( मान्ग ) सहायक, रावण के पीछे चल रहे थे श्रौर राक्षसोंकी सेनारूपी दावानलने समस्त दिशाको संकटसे व्याप्त कर दिया था । लगतर था कि रणभूमिके रूप में अखिल विश्व और तीनों लोकोंको विनाशकी लिए स्वयं यमराज ही स्वर्गले उतर कर श्राया है [ जरासन्धके पीछे
लीला भूमि बनाने के
अनुगत एवं सहायक
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सङ्ग्रामरङ्गं शवनृत्यरम्यं सुराः समागच्छत पश्यतेति । निमन्त्रणायेव निकाय्यमेषामापूर्य सूर्यं विरुतं विचक्रे || ६ ||
सङ्ग्रामेति तु विरुतं विचक्रे विशेषेण कृतवत् किं कृत्वा ? पूर्वमेषां सुराणा निकाय्यं मन्दिरमापूर्व संस्कृत्य, कस्मादिव ? निमन्त्रणायेव, कथमिति कृत्वा दर्शयति हे सुराः हे देवा: समा गच्छत पश्यत निरीक्षध्वं यूयम्, किम् ? संग्रामरङ्गम्, कथम्भूतम् ? शवनृत्यरम्यं प्रेतनर्तनपेशलम् ॥६॥ शुद्धं निसर्गेण कलङकम प्रदीयः कठिनं मनः स्वम् । बद्दिस्तदन्तर्युधि कुर्वतीय भेजे नृपाणां समितिः सवर्मा ॥ ७॥
शुद्धमिति – नृपाणां समितिः समूहः भेजे बभी कश्रम्भूता ? सवर्मा सकवचा, कि कुवतीबोचिता ? बहिर्ब्राह्यं ससदङ्गमन्तव्ये कुर्वतीय विदवतीय, कथम्भूतम् ? प्रदीयः मृदुतरम् पुनरपि कथभूतम् ? शुद्धं निर्मलम् केन ? निवर्येण स्वभावेत, पुनरपि कथम्भूतम् ? स्वमात्मीयं तथा कुर्वतीय, कि तत् स्वम् ? मनः, कथम् ? बहिर्बाह्यम् कथम्भूतं सत् ? अन्तः आन्तरम् अन्तर्गतमित्यर्थः पुनः कथम्भूतम् ? कठिनं निष्ठुरम् पुनरपि कथम्भूतम् ? कलव पापयुक्तम् केन ? निसर्गेण स्वभावेन पुनरपि क्व कुर्वती ? युधि रणे ॥७।।
रथो वरूथस्य हयस्य वाजी गजः करेणोः पदिकः पदातेः ।
दुर्मन्त्रितं ध्यानमिवात्मधियं स्वस्यैव संनद्धमिवाग्रतोऽभूत् ||८||
रथ इति – रथो वरूथस्याग्रतोऽभूद् बभूव दाजी ह्यस्याप्रतोऽभूत् गजः करेणोः हस्तिनोऽप्रतोऽभूत् तथा पदिकः पदातेरतोऽभूत् रथादिसर्व किमिवोत्प्रेक्षितम् ? दुष्टो मन्त्रः स जातोऽस्येति दुर्मन्त्रितं ध्यानमिव तथात्मविम्बमिव सन्नद्धं स्वस्यैवाग्रतोऽभूदित्युत्प्रेक्षितं चेति ॥८॥
राज्ञां सरेणुः कलुषस्वभावो रोषोद्गतश्वास इवाशु सूर्तः ।
सेने निषेधमिव मध्यमापत्प्रायः चतं नेच्छति पशुलोऽपि ॥ ६ ॥
राज्ञामिति सरेणुः तारक्षतं रजः मध्यम् आपत् किं कुर्वन्निव ? सेने ध्वजिन्यो निषेधन्निव वारयन्निव कथम्? आशु श्रोत्रम्, क इवोत्प्रेक्षितो ? राज्ञां नरेन्द्राणां मूर्तः कलुषस्वभावो रोषोद्गतः श्वास वेति, सुगमम् युक्तमेतत् प्रायो बाहुल्येन पशुलो तं नेच्छतीति विशेषः || ९ ||
मागध राजन्य चल रहे थे और विकारसे परे, श्री विष्णु कृष्ण वैर के कारण उसकी सब आशाएँ धुंधली हो गयी थीं तो भी विश्व और तीनों लोकोंको प्रलय पूरमें भोंकनेको उद्यत फालके समान जरासन्ध पाण्डव सेनाकी शोर बढ़ा जा रहा था ] ॥ ५ ॥
रकी तुरईका तार-गम्भीर धाराव देवलोकमें भी व्याप्त हो गया था । मानो यह उन्हें निमन्त्रण दे रहा था--' - 'हे देवताओ' आओ। और नाचते हुए योद्धानों, घड़ों और शिरोंके कारण कुतुहलपूर्वक देखने योग्य इस युद्धरूपी संहार नाटकको देखो' ॥ ६ ॥
कवच धारण करके युद्ध में उतरे युयुत्सु राजानोंकी लम्बी-लम्बी कतारें देखनेपर लगता था कि स्वभावसे ही शुद्ध और कोमल अपने अन्तस्तल और शरीरको कवचके बहाने बाहर से कठोर और मलिन दिखानेका प्रयत्न कर रहे हैं ॥ ७ ॥
रथ के आगे रथ जा रहा था, वाजीके श्रागे हम बढ़ा जा रहा था, हथिनीको पिछाड़कर हाथी चल रहा था और पदाति पदातिसे श्रागे निकलनेका प्रयत्न कर रहा था। इस प्रकार समस्त सेना उस कुध्यानके समान थी जिसमें खोटे मन्त्रका जाय होनेसे [इष्ट देवताका साक्षात्कार न होकर ] अपना ही समग्र प्रतिबिम्ब सामने श्रा जाता है ॥८॥
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
साक्षादलक्ष्य दिवसो नु सोऽयं सृष्टेरियचावधिरेष कश्चित् । आशाः समूहन्निव राजलोकः संनह्यति स्म प्रतिकेशवस्य ||१०||
साक्षादिति -- तु महो साक्षात् परमार्थतः सोऽयं कश्चित् कश्चन किमलङ्घयो दिवसः संहार दिवस:, किमेष इयत्तावधिः कस्याः ? सृष्टेरिति किं कुर्वन्निव ? समूहसिव वितर्कयन्निव का ? आशा दिशः, सराजलोकः संनह्यति स्म सन्नहनं करोति स्म, कस्य ? प्रतिकेशवस्य प्रतिनारायणस्येति ॥ १० ॥ तमूर्जसारावणिमव्यपेतौ दुर्योधनं क्रोधपराक्रमौ तौ ।
दधानं पुलकात्तमङ्ग रागेण मीत्याप्यभवद्ध्वजिन्याः ॥ ११ ॥
२८५
तमिति - अभवत् संजातम् किम् अङ्गम्, कथम्भूतम् ? पुलका रोमाश्वगृहीतम् कयो: ? ध्वजिन्योः सेनयोः केन ? रागेण प्रीत्या तथा भीत्या भयेनापि किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्वाऽवलोक्य, कम् ? तं लोकप्रसिद्ध रावण रावणस्यापत्यं पुमान् रावणिः इन्द्रजित् तं तथोक्तम्, कथम्भूतम् ? दुर्योधनं योद्धुमशक्यम् कि कुर्वाणं सन्तम् ? दधानं धरन्तम् की ? ती लोकोत्तरी क्रोधपराक्रमी, कयम्भूतौ ? अव्यपेतौ अपरित्यक्त, केन ? ऊर्जसा बलेन । अत्र स्वसेनाया रागेण परसेनाया भीत्या पुलकात्तमङ्गमभूदिति भावः । भारतीयपक्षे— रागेण भीत्यापि ध्वजिन्योः पुलकात्तमङ्गमभूत् किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्या कम् ? तं लोकप्रसिद्धं दुर्योधनं तन्नामधेयं राजानम् किं कुर्वाणम् । अभी तो लोकोत्तरी कोषपराक्रमी दधानम्, कथम्भूतो ? अणिमव्यपेतो अणोर्भावः अणिमा तेन व्यपेतो अणुत्परित्यक्तौ प्राचुर्ययुक्तावित्यर्थः ॥ ११ ॥ नमस्यया संप्रति कुम्भकर्ण बलिं नवं संयुगभूतकेभ्यः ।
प्रदातुमुद्यन्तमिवारिरूपं दुःशासनं वीच्य जनश्चकम्पे ||१२||
नमस्ययेति -- जनो लोकः संप्रति अधुना कुम्भकर्ण कुम्भकर्णनामानं रावणभ्रातरं वीक्ष्यावलोक्य कि कुर्वाणमिवोत्प्रेक्षितम् ? संयुगभूतकेभ्यः संग्रामभूतसमूहेभ्यः बलि प्रदातुमुद्यन्तभिव, कया ? नमस्यया नमसि तेन कथम्भूतम् ? नवं नूतनम् कि बलि दातुम् ? अरिरूपम् अरीणां रूपम् अरिरूपं शत्रुशरीरम् अथवा अरय एवं रूपं यस्य बले। तमरिरूपं बलिम्, कथम्भूतं कुम्भवाम् ? दुःशासनं तीव्राजम् । भारतीयः पक्षः - चकम्पे, कोऽसौ ? जनः कथम् ? संप्रति किं कृत्वा ? पूर्वं वीक्ष्य कम् ? दुःशासनं दुःशासननामानं राजानं दुर्योधनानुजम् कीदृशम् ? कुम्भकर्ण कुम्भको नाम हस्ती कुम्भकः ऋणं यस्य स कुम्भकर्णः तं कुम्भकर्णं कुम्भकस्य स्वामिनमित्यर्थः ।। १२ ।।
युद्धके लिए तत्पर राजाओं के दूषित मनकी प्रथवा क्रोधसे निकले श्वासको मूर्तिके समान धूलिपुंज शीघ्र ही दोनों सेनाओंके बीच में उमड़ आया था । मानो वह इन्हें लड़ने से रोक रहा है, क्योंकि पापी ( धुलिमय ) भी बहुधा मार-काटको पसन्द नहीं करता है ॥६॥ क्या यह वही दिन है जिसका जान-बूझकर भी अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है ? अथवा सृष्टि प्राज तक ही रहती हैं यह सोचकर प्रतिनारायण लक्ष्मण अथवा कृष्णके अनुयायी राजानोंका समूह कवच पहनकर तैयार होने लगा था ॥ १० ॥
निरर्थक न जानेवाले क्रोध तथा पराक्रमसे विभूषित और अपने बल के कारण भीषण युद्धकर्ता रावके पुत्र ( रावरिण ) इन्द्रजीतको देखकर दोनों सेनाओंकी देह प्रीति तथा भयके कारण रोमांचित हो उठी थी । [ शत्रुपर ( मरौ ) पूर्णरूपसे तथा पूरी शक्तिके साथ बरसनेवाले क्रोध और पराक्रमके स्वामी उस राजा दुर्योधनको देख फौरव सेना प्रीति से तथा पाण्डव सेना आशंका के कारण पुलकित हो उठी थी ] ॥ ११ ॥
तब युद्ध के समस्त देवताओं को नमस्कार करके शत्रुरूपी नूतन बलि चढ़ानेके लिए तैयार और नियन्त्रण करनेके लिए कठोर रावण के भाई कुम्भकर्णको देखकर लोग काँप
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धान महाकाव्यम्
न कानि कुम्भासुरभावमाजौ दुर्मर्षणं दूरमभिद्रवन्तम् । रुपात्मशङ्कामगम निरीचत्र प्रजातमुच्चैर्भुवना नितान्तम् ||१३||
नेति -कानि भुवनानि आत्मशङ्कां नागमन् न गच्छन्ति स्म अपितु सर्वाणि भुवनानि आत्मशङ्कां जग्मुरिति भावः । कथम् ? उच्चैरतिशयेन, कथं यथा भवति तान्तं कष्टम्, कि कृत्वा ? पूर्व निरीक्ष्य, कम् ? कुम्भासुरभावं कुम्भासुरो नाम रावणस्य मण्डलिकस्तस्य भावम् किं कुर्वन्तम् ? अभिद्रवन्तं विजृम्भमारणम्, बत्र ? आज संग्रामे, कथं यथा भवति ? दूरं विप्रकृष्टम् कथम्भूतं कुम्भकर्णम् ? दुर्मर्षणं दुःसहं पुनः रुप कोपेन प्रजातं समुत्पन्नं तथा, का प्रजा आत्मशङ्कां नागमत् अपितु सर्वेत्यर्थः कथम् ? नितान्तम् अतिशयेन, किं कृत्वा ? पूर्व निरीक्ष्यावलोक्य कम् ? तं कुम्भासुरभावम् कयम्भूतम् ? आतम् आ सामस्त्येन अतो ज्ञातं यस्य स आवस्तम् आतं सविवेकम् अत सातत्ययमन इत्यस्य धातोः प्रयोगेऽच्प्रत्ययान्तः सर्वे गत्यर्थाः धातवो ज्ञानार्थे बोद्धव्याः" इति वचनात् पुनः कथम्भूतम् ? दूरमभिद्रवं दुःखेन रमन्ते दूरमा दुविलासिन: पुरुषाः दूरमान् भिनत्तोति दूरमभित दूरमभित् श्वो यस्य स तं तथोक्तम् कथम्भूतम् ? रुषा कोपेन दुर्मर्षणम् ? कथम्भूता प्रजा ? उच्चैर्भुवना उच्चैर्भुवनं यस्याः सा । भारतीयः पक्षः --- कानि भुवनानि आत्मशङ्कां नागमन् अपि तु सर्वासीत्यर्थः कथं यथा भवति ? नान्तम्, कथम् ? उच्चैरतिशयेन किं कृत्वा ? पूर्व निरीक्ष्य, कम् ? दुर्मर्षणं दुर्षणनामानं दुर्योधनस्य लघुभ्रातरम्, किं कुर्वन्तम् ? अभिद्रवन्तम्, कामु ? कुं पृथिवीम्, कया ? रुपा कोपेन कथं यथा भवति ? प्रजातं प्रजानामातो यस्मात् स प्रजातस्तं प्रजातं लोकानां सन्ततं पलायनं यस्मात् इत्यर्थः कथं यथा भवति ? दूरं कथम्भूतम् ? आजी युधि भासुरभाव दीप्तस्वरूत्रम् ।।१३।।
२८६
आकृष्टचापं द्रुतमुक्तवाणं कुलोचिताकर्णमसौ जयश्रीः ।
उत्काकुमारीचरणं विहाय भीतेव गन्तुं परवासमासीत् ||१४||
अकृष्टेति — जयश्रीः परवासं प्रोषितत्वं गन्तुं संजाता आसीत्, केवोत्प्रेक्षिता प्रोषिदेव, कि कृत्वा ? पूर्व विहाय परित्यज्य किम् ? मारीचरणं रावणमा तुलसङ्ग्रामम् कथम्भूतम् ? आकृष्टचापम् आकर्षणविषयीकृतधनुष्कम् कथं यथा भवति ? आकर करपर्यन्तं पुनः द्रुतमुक्तवाएं शीघ्रमुत्कलितशरम् कथं यथा भवति ? काकु काकुरभिप्रायसूचकं वचः उदिता काकुयंत्र वाणमोचनकर्मणि तद्यथा, वैध्यनामपूर्वकमित्यर्थः, कथम्भूता जयश्रीः ? कुलोचिता निजभुजप्रतापवह्नि प्रदीपयितुं शत्रूणां कुं पृथ्वीं लान्ति गृहन्तीति कुला वीरा:, वीरभोग्या वसुन्धरेति श्रुतेः तेषामुचिता योग्येत्यर्थः भारतीयः - आसीत्, काउसो ? जयश्री : कि विशिष्टा सती ? उस्का उत्सुका, किं कर्तुम् ? गन्तुम्, कम् ? पश्वासं परमन्दिरम् केव ? भीतेव कि उठे थे [ "कुम्भक नामके हाथीपर सवार ( कुम्भक - ऋणं ) दुर्योधनके भाई दुःशासनको सामने देखकर ] ॥ १२ ॥ अन्वय- उच्चैर्भुवना का प्रजा नितान्तमातं दूरमभिद्रवं रुषा दुर्गवर्णं लं निकुम्भासुरभावं निरीक्ष्य ग्रात्मशंकां नागमन् ।
निकुम्भासुरकी सर्व साधारण में स्यात और प्रत्यन्त दूर प्रदेश में क्रीड़ा करते लोगोंको भी डरानेवाली गर्जना को सुनकर तथा क्रोधके कारण असह्यरूपसे तीव्र निर्दय प्रवृत्तिको देखकर किस समृद्ध देशको जनता ऐसी थी जो अपने भविष्यको चिन्तामें न पड़ गयी हो । श्रन्यय - कानि भुवनानि उच्चैः तान्तं कु दूरंमभिद्रवन्तं रुषा प्रजातं श्राजौ भासुरभावं दुर्मर्षणं निरीक्ष्य श्रात्मशकां नागपन् ।
टूर-दूर तक पृथ्वीको प्राक्रान्त करनेवाले क्रोधसे उद्दीप्त प्रसन्न एवं प्रभावक दुर्योधनके अनुज दुबं को देखकर पृथ्वीके कौन-से tet esset, अपने अनिष्टको कल्पनासे न काँप उठे थे ॥ १३ ॥
,
तथा युद्ध में ही प्रत्यन्त ऐसे भाग थे ? जो
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
२८७ कृत्वा ? पूर्व विहाय, कम् ? कर्ण कर्णनामधेयं नरेन्द्रं दुर्योधनगृह्यम्, कयम्भूतं सन्तम् ? कुमारीचरणं कुमार्याः सकाशात् धरणं प्रवर्तनं जन्म यस्य तम् "कन्या कुमारीति श्रुतेः, पुनः काथम्भूतम् ? प्राकृश्चापं आकृष्टं चापं येन तम् पुन: द्रुतमुक्तवाणं द्रुत मुक्ताः बाणा येन तम्, कथम्भूता जयश्रीः ? कुलोचिता वेशयोग्या, अत्रभावोऽप्युपन्यस्यते-कुलीना [ हि ] कामिनीव जयश्रीः स्ववंशलाञ्छनभीत्या लोकदृष्यं कन्यापुत्रं विहाय सत्पुरुषमन्दिरं गन्तुमुत्कासीदिति सम्बन्धः । अथवा आकृष्टचायं द्रुतमुक्तवाणं कर्णनरेन्द्रं विहाय असो खङ्गविषये च कुमारीचरणं कन्याद्रतं च विहाय भीतेवोरका जयश्रीः परवासं गन्तुमासीदिति शेषः ॥१४॥
कुर्वन्स्वरं हस्त उदारवृत्तिं स कं प्रहस्तः सहसारणेन । दीपांशुकस्तत्र जयद्रथोऽयं रिपुं प्रकुप्यन्नवशं चकार ॥१५॥
(चतुरर्थकः) कुर्वन्निति-~-सोऽयं हस्तः हस्तनामधेयो राजा के रिपु वशं न चकार, अपि तु सर्वम्; कि कुर्वन् ? स्वरं विदधत्, कथम्भूतम् ? उदारवृत्तिम्, कि कुर्वन् ? रणेन युद्धेन सहना शीघ्रं प्रकुप्यन् सन्, कथम्भूतो हस्तः ? प्रहस्त; प्रकृष्टौ हस्तौ यस्य सः, आजानुप्रलम्बकर इत्यर्थः, पुनः दीप्राशुकः उज्ज्वलवस्त्रः पुनः जयद्रथः जयन् रथो यस्य सः, क्व ? सत्र रणे, एकः पाः, तथा सोज्य प्रस्तः प्रहसनामधयो राजी अकुप्यन् सन् कं रिपुं वशं न चकार, अपि तु सर्वम्, कि कुर्वन् ? सारणेन गमन सह साद्धम् उदारवृत्ति कुर्बन्, कस्मात् ? स्वरंहस्तः आत्मवेगात्, कथम्भूतः प्रहस्तः ? दीपांशुक: पुनः जयद्रयः, क्व ? तत्र तस्यामुदारवृत्ताविति, द्वितीयः पक्षः, तथा सोऽयं शुक: शुका भिधानो नरेन्द्रः कं रिपुं वशं न चकार अपि तु सर्वम् ; कि कुर्वन् ? प्रकुप्यन्, क्व ? तत्र रिपो, पुनः किं कुर्वन् काम? उदारवृत्तिम्, कयम्भूताम् ? दोष सेजस्विनीम्, कस्मात् ? प्रहस्तः प्रहसनं महः, क्विप् रूपम्, प्रवृष्टिं हास्यमित्यर्थः; तस्मात् प्रहस्तः प्रहसनात्, कथम्भूतास् ? स्वरंहस्ता स्वं द्रव्यम् रहो वेमः, स्वस्य रहो यस्मिन्स्तत्तथोक्तं तस्मात्, कथम्भूतः ? जद्रयः, इति तृतीयः पक्षः, अथ चतुर्थो भारतीयः-सोऽयं अयद्रयो जरासंघगृह्यो नरेन्द्रः प्रवृप्या सन् के रिपुं वशं न पकार अपि तु सर्वमकरोदेवेत्यर्थः, कथम्भूतः ? दीप्रांशुकः दीप्राः अंशवः किरणा यस्यासी दीपांशुः सूर्यः कं तेजः, तदुक्तं "ब्रह्मात्मवाततेजस्सु कायस्वर्गशिरोजले । सुखेऽर्थेषु यशस्वेव कः वान्दोऽप्यत्र वत्तं इति'' दीपांशोरिव कं यस्य सः यस्य जयद्रथस्य हस्तो नोदार नोदयं प्राप्तवान् ? अपि तूदारेव, कि कुर्वन् ? कुर्वन् काम् ? बृत्ति व्यापारम् केषु ? के प्रहस्तः कं प्रहसन्तीति क्वि' कंप्रसस्तेषु कंप्रहस्सु, कंप्रहस्स्वेकंप्रहस्तः "दृश्यतेऽन्यतोऽपि जि. सू. ४.११७९ ]" इति सूत्रनिर्दिष्टत्वात् तस्, वक्रोक्तित या हास्यं कुवाणेपु पुरुषेषु इत्यर्थः कस्मात् वृत्ति कुर्वन् स्वरहस्त स्वस्यात्मनो वेग: स्वरंहस्तः "कायास्त से [ जै. सू. ४:१।७३ ] इति सूत्रनिर्दिष्टत्वात् तस् कथम्भूतः ? सहसा सह युगपत् स्यतीति वित् ( विच् ) सहसा हिनः क्व ? रणे, रणं विहायान्यत्र हिंस्रो न भवतीति भावः ॥१५॥
शत्रुको व्यंग्य-वचन कहते हुए शीव्रतासे कान तक पूरे रूपसे खींचे गये धनुषसे रसाये गये बागोंसे व्याप्त मारीचके युद्धको छोड़कर, डरी हुई-सी विजय लक्ष्मी पर ( परमात्मा ) श्रेष्ठ पुरुष रामके प्राश्रयमें चली गयी थी, क्योंकि लक्ष्मी पृथ्वी ( कु) के विजेता ( लाति ) वीरोंकी ही भोग्य ( उचित ) है।
अन्वय--प्राकृष्टचापं, द्रुतमुक्तवाणं, कुमारीचरणं कर्ण विहाय असौ उत्का कुलोचिता जयश्रीः भीतेव परवासं गन्तुमासीत् ।
धनुषको पूरा खींचकर शोघ्रतासे बारण बरसानेमें निपुण और कुमारी कुन्तीसे उत्पन्न राजा कर्णको छोड़कर कुल मर्यादाको प्राधिके लिए उत्कण्ठित जयश्री धर्मसन्तति पाण्डवोंकी ओर चल दी थी॥ १४ ॥
उस युद्ध में रणके प्रसंगसे उच्च स्वरसे ललकारते, प्रखर रूपसे हाथोंको फटकारते और क्रोधसे उद्दीप्त प्राजानुबाहु राजा शुकने अकस्मात् ही किस शत्रुको वशमें नहीं कर
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् संरम्भिणाशान्तनवेन मुक्त होमेण भूरिभनसान ! स्वयंभुवा वाग्गुरुणा न सोढः स सिंहनादः कृतवर्मणा च ॥१६॥
(पञ्चार्यकः) पञ्चकृत्वः, संरम्भिरणेति—स सिंहनादो न सोड:, कया? भुवा भूम्या क्षोभेण कृत्वा यः सिंहनादो मुक्तः, केन ? संरम्भिणा मेघनादेन रावणपुत्रेण, कथम्भूतेन ? आशान्तनवेन आशान्ते दिगन्ते नवः स्तुतिर्यस्य स तथोक्तस्तेन सर्वदिक प्रसिद्ध नेत्यर्थः पुनः कथम्भूतेन बरेण उत्तमेन, केषां मध्ये ? भूरिश्रवसां प्रचुरयशसाम्, वाथं यथा भवति ? स्वयम् अयो भाग्यवहो विधिः शोभनोग्यो यस्मिन् कर्मणि तत्स्वयम् पुनः कथम्भूतेन ? वागुरुणा वचनगरिष्डेन पुनः कथम्भुतेन कृतवर्मणा विहितसन्नाहेन, इत्येकः पक्षः, तथा स सिंहनादो न सोढः, केन का? भुवा न सोढः कथम् ? स्वयमात्मना भोभेण कृत्वा यः सिंहनादो भूरिश्रवसा भरिश्रवोऽभिधानेन कुम्भकर्णपुत्रेण युक्तः, कथम्भूतेन ? संरम्भिरणा राभस्यवता पुनः कथम्भूतम् ? शान्तनत्रेन शान्तश्चासो नवश्व शान्तनबस्तेन शान्तनबेन उपशमवता यौवनवता चेत्यर्थः, पुनः कथम्भूतेन ? आम्बरेण अम्बरगतिराम्बरस्तेन तथोक्तेन पुनरपि गुरुणा गरिष्ठेन पुनः कृतवर्मणेति शेषः । अथ भारतीयः-स्वयम् आत्मना अम्बरेणाका शेन भुवा भूम्या च सिंहनादो न सोढः, क्षोभण कृत्वा यः सिंहनादो मुक्तः, केन ? शान्तनवेन गाङ्गेयेन, कयम्भुतेन ? संरम्भिणा औत्सुक्यवता, पुन: कथम्भूतेति ? भूरिश्रवसा प्रचुरयशसा पुनः गुरुणा पुनः कृतवर्मणा, तृतीयः पक्षः, तथा स्वयम्भुवा ब्रह्मणा न स सिंहनाद; सोढः यो वा क्षोभेण कृत्वा सिंहनादो मुक्तः, केन की ? गुरुणा द्रोरणेनाचार्येण, कथम्भूतेन ? संरम्भिणा पुनः आशान्त नवेन सर्वदिसिद्धेन पुनः भूरिश्रवसां वरेण प्रचुरयशसां श्रेष्ठेन पुनः कृतवर्मणा, चतुर्थः पक्षः, तथा स्वयम्भुवा अयोगिजेन गुरुणा बृहस्पतिनापि स सिंहनादो न सोड: य: क्षोभेण कृत्वा सिंहनादो मुक्तः, केन फर्ना ? कृतवर्मणा कृतवर्माभिधानेन नरेन्द्रेण, कथम्भूतेन ? संरम्भिणा कोपयुक्तेन पुनः शान्तनवेन शान्तेषु जितेन्द्रियेष्वेव पुरुषेषु नवः स्तवनं यस्य तेन शान्तैरपि स्तुतेनेत्यर्थः पुनः भूरिश्रवसां वरेणेति थेषः, पञ्चमः पक्षः ।।१६।। लिया था ? क्योंकि उसका रय जिधर जाता था उधर ही विजय होती थी।
अन्वय--प्रहस्तः स्वरंहस्त उदारवृत्ति कुर्वन्, दीप्रांशुकः, रणे स-हसा सोऽयं जयद्रथः प्रकुप्यन के रिपुं वशं न चकार ।
यद्यपि लोगोंके द्वारा हसा गया था तथापि अपने वेगके साथ प्रागे-मामे बड़कर उदार प्रकृतिका परिचय देता हुना, प्रखरकिरण (सूर्य) के समान तेजस्वी और रगमें अकस्मात् ही संहारकर्ता, उस जयद्रथने कुपित होनेपर किस शत्रुको नहीं हरा दिया था ? ॥ १५॥
(प्रथम अर्थ ) महान् यशस्वियोंके अग्नपी मेघनाद ( संरम्भिन ) को तिहगर्जनाको किसीने भी नहीं सहा था, क्योंकि इसको कीर्ति विशानोंके अन्त तक फैली थी, इसके मारे पृथ्वी काँपती थी, इसके वचनोंमें सार था, और उस समय वह कवच धारण करके युद्धके लिए सम्बद्ध था ( हितीय अर्थ ) अत्यन्त वेगवान्, प्रकृति से प्रशान्त और युवक, बातका हठी और युद्धवेशमें उपस्थित खेचर पुत्र भूरिश्रवाको रोषसे निकली हुँकारको स्वयम् रामने भी नहीं सहा था।
(तृतीय अर्थ ) विश्व में प्रत्यन्त विख्यात, वय तथा पदके कारण पितामह, कवचाविसे सुसज्जित तथा युद्ध के प्रपंचमें प्रवीण भीष्म ( शान्तनय ) के द्वारा क्रोधावेगसे किये गये अनक्षरो युद्धघोषको पृथ्वी और प्राकाश भी स्वयं नहीं सम्हाल सके थे। ( चतुर्थ )
१. 'अशान्तश्चासौ नवश्व अशान्तनवस्तेन अशान्तनवेन भौद्धस्यवतेति । २. अभक अनक्षरः शब्दभेदरहित इति यावत् सिंहनाद मध्य वसेयः ।
A
nnanoos
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
२९६ स्थानिमेऽन्ये च समं नरेन्द्राः प्रपूरिताशानथवाजियुक्तान् ।
आपूरयन्ति स्म मनोरथांश्च किं नोद्यतामामुपपद्यते च (वा) ॥१७॥ रथानिति-बापूरयन्ति म, के ? इमे अन्ये च नरेन्द्राः, कान् ? रयान्, कथम् ? समं युगपत् प्रपूरिताशान् प्रपूरिता आशा दिशो यस्ते तथोक्तास्तान् पुनः वाजियुक्तान वा अथवा मायूरयन्ति स्म नरेन्द्राः कान् ? मनोरयान् वाथम्भूतान् ? प्रपूरिताशान् प्रपूरिता अशा वाञ्छा स्तान् पुनः आजियुक्तान सङ्ग्रामयुक्तान्, घुत्तमात्, वा अपवा उद्यानास उद्य तवज्ञा पुंसा मिनीपाद्यते किन्न जायते, अपि तु सर्वमप्युपपद्यते, इति शेषः 11१७॥
स्वयं परान्ना(पुरा ना-)मयसीति भर्ता स्त्रीनवोठेब पुरन्ध्रिवर्गः ।
बलात्कृता राजविरङ्गलग्ना वक्रय भूयो धनुषः खरस्य ॥१८॥ स्वयमित-बलात्कृता दाइयं नीता, का कर्मसापन्ना? ज्या मार्यो, कयम् ? भूर: पुनः, कथमिति ? स्वयं पुरा नामयसि भर्तुरिति स्वामिन: स्वयमात्मना पुरा पूर्व नम्रा भविष्यसि । कैलात्कृता? राजमिनरेन्द्रः, काथम्ता मनी ? अगलग्ना, कस्य ? धनुषः, कथम्भूतस्य ? वस्य पुनः खरस्य निष्ठुरस्य, केव बलात्कृता ? नवोटा नानपरिणीता स्त्रीव, कैः ? पुरन्निवर्गः प्रौढमहिलाजन, कथमिति ? स्वयं पुरा नामयसि भर्तुरिति शेपं सुगमम् ॥१८॥
जीवाभिघातं कृतधर्मपीडं न्याय्येषु मार्गेषु निषक्तचित्ताः ।
ते सत्यसन्धाः मुधियोऽपि चक्रुर्यो यादृशः कर्म च तस्य तादृक् ॥१६॥ जीवेति-न्याय मार्गेपु निषक्तपित्ताः ते सत्यसन्धाः सत्यप्रतिज्ञाः सुधियोऽपि सन्तः जीवाभिधातं कुतधर्मपीडमिति विशेषणं चनुरिति, विरोध परिहरति न्याय्येषु मार्गेषु न्याच्याश्च ते इपुमाश्चि न्याय्येषुमार्गास्तेषु श राणा मा टिमुष्टिसन्धानध्यायेषु दत्तवेतस्का इत्यर्थः, पुनः सत्यसन्धाः सत्यं सन्दधते बाणान
युद्ध के लिए तैयार, दिगन्त विख्यात, महान् यशस्वियोंमें श्रेष्ठ तथा कवचधारी द्रोणाचार्य ( गुरु ) के मुख से निकली रोषके कारण अस्पष्ट सिंहगर्जनाको कृष्ण ( स्वयम् ) भगवान ने भी सहन नहीं किया था। ( पंचमार्थ ) अत्यन्त कुपित तथा उत्तेजित, यशस्वियोंके प्रमुख, शान्त पुरुषों के द्वारा स्तुत कृतवर्माके मुखसे निकली हुंकारको स्वयम् भगवान् तथा वृहस्पति (गुरु) ने भी नहीं सहा था ॥ १६ ॥
घोजोंसे युक्त समस्त दिशाओं में व्याप्त रथोंपर पूर्वोक्त राजा तथा और दूसरे राजा लोग भी एक साथ बैठ गये थे। मानो युद्ध में लीन इनके अभिलषित मनोरथ ही पूर्ण हो गये थे। ठीक ही है, पुरुषार्थी पुरुषों के लिए क्या नहीं प्राप्त होता है ? ॥ १७॥
टेढ़े तथा तीक्ष्ण धनुबके ऊपर राजाओं-द्वारा चढ़ारी गधी डोरोको उनकी पत्नियोंने इसलिए खूब कसा तथा कड़ा किया था कि नव-विवाहिला खोके समान वह उनके पतियोंके शत्रुओंको स्वयं झुका देगी [प्रौढ़ खियोंके द्वारा विमुख और रुष्ट पतिके पास भेजी गयो तथा जबरदस्ती उसकी देहसे चिपटी वय-विवाहिता बहू भी बादमें पतिको सर्वचा भुका लेती है ] ॥१८॥
न्याय मार्गपर चलनेके लिए कृत-संकल्प और सच्चे प्रतिज्ञा पालक विवेकी पुरुषांने भी धर्मको विनाशक जीवहिंसा को थी [ विरोधाभास है। परिहार ] शवविद्या-सम्मत
१. ही नहीडेव टोकासम्मतः पाठः। मूलपाठोऽपि जमाक्षे अम्लीः, नवोदापक्षे पदच्छेदेन योज्यः ।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
सत्यसन्धा: पुरिपोपि दETE की विहितचापकदर्शनं यया भवति जीवाभिधात प्रत्यञ्चाविस्फार चः कृतवन्तः, युक्तमेतत्, यो यादृशः तागेव तस्य कर्म जायते, चकारोऽत्रावधारणे बोद्धव्योऽव्ययानामनेकार्थत्वात् ॥१९॥
उत्कर्ण्य मौर्वीनिनदं नृपाणां तनुलता कण्टकिताऽनुरागात् ।
उत्सेकतो चोररसैकसारादभूद्विरूढेव समं रिपूणाम् ।।२०।। उत्कण्येति-अनुरागादानन्दभरात् कण्टकिता सती तनूलता सममेव हेलयाऽभुत् संजाला, केपाम् ? नृपाणाम्, केव? विरूदेव अङ्कुरितेव, कस्मात् ? उत्सेकतो गति, कथम्भूतात् ? वीररसैकसारात, कि वृत्त्वा ? पूर्व कण्टकिता तनूलता उत्कर्ण्य ऊध्र्धकरणं श्रुत्वा, कम् ? मौििमनदं ज्याध्वनितम्, केपाम् ? रिपूणामिति ॥२०॥
ज्याचक्ररूद्ध स्थितमङ्गमेव रवरिवोच्चैः परिवेषभाजः ।
तेजो जगद्वथाप तु राजकस्य रोढुं परं ज्योतिरहो न शक्यम् ॥२१॥ ज्येति-स्थितमझ मेव, कथम्भूतम् ? ज्याचक्ररुद्ध मौमण्डलनियन्त्रितम्, कस्व ? राजकस्य नरेन्द्रसमूहस्य, कस्येव ? रवैरिव, ययोच्चैः परिवेषभाजो रवेरङ्गमेव स्थितं तु पुनाप व्याप्नोति स्म, कि कर्तृ ? तेजः, कि फर्म ? जगत् लोकम्. कस्य ? राजकस्य, फस्येव ? रवेरिव, यथा रदेस्तेजो जगद्व्याप्नोति, युक्तमेतत्. अहो परं निरुपम ज्योति: रोद्धं न शक्यं स्यादिति शेषः ॥२१॥
घाताय कत द्विषतां प्रवीरैः शरोऽनमुक्तान्मनसो रथाच । प्रागम्यमित्रो जनि पश्चिमोऽपि पश्चान्न शीघ्रः प्रथमोऽपि मन्दः ॥२२||
घातायेति ---अत्र चकारेण सम्भावनाओं निवेद्यते । द्विषतां शत्रूगा घाताय कर्तुं प्रवीरैः सुझट: रथात् मनसोयन मुक्तान् अभ्यमित्र्यः शत्रुसम्मुखः सन् शरः प्राक् पूर्वोजनि, युक्तमेतत्, शीतः पश्चिमोऽपि न पश्चात् स्यात् मन्दः प्रथमोऽपि न प्रथमः स्यात् इति शेषः ॥२२॥ शर संचालनको विधि ( न्याय्य इषुमार्गेषु ) में तल्लोन, तथा ठीक लक्ष्य (सन्ध) को साधते हुए सन्मति योद्धा धनुष ( धर्म ) को पूरा खोंचते थे तथा ज्याको फटकारते थे । उचित ही है जो जैसा होता है उसका कर्म भी वैसा होता है ॥ १६ ॥
शत्रु राजाओंकी ज्याकी टंकारको सुनकर शुद्ध वीर रसका उद्रेक होनेसे सपक्षी राजानोंके इकहरे शरीर एकाएक वैसे ही रोमांचित हो उठे थे जिस प्रकार धन-गर्जनाके साथ-साय वृष्टि के सेकसे खेलें अंकुरित हो उठती हैं ॥२०॥
योद्धा राजामोंका तना हुमा उत्तम शरीर हिची वाफे गोलेसे घिर गया था तथा उसका प्रताप सारे विश्वमें फैल गया था। हातएक वे परिवेशसे घिरे और संसारको प्रकाशित करते सूर्य-बिम्बके समान लगते थे। उचित ही है क्योंकि सर्वोपरि ज्योति या पराब्रमको कोन रोक सकता है ? ॥२१॥
शनोंपर प्रहार करने के लिए महान योद्धानों द्वारा छोड़ा गया बारण, अपने से पहले चले योद्धाके रथ और मनसे भी जल्दो शत्रुके सामने जा धमका था। उचित हो है बादमें घला वेगशाली भी पीछे नहीं रहता और पहले चला धीमा भी आगे नहीं जा पाता है ॥ २२॥
.... अभ्यमिभ्यः इति र कास्थः पाठ इचित्तः ।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
२६१ अन्योन्यमुत्पीडयतोः सखीव ज्याधन्वनोमध्यमनुप्रविश्य । निवारयन्तीव युगं त्रिदुरं तदायतेषुः पृथगाचकर्ष ॥२३॥
अन्योन्यमिति--आचकर्ष अाकृवती, का ? इपुर्याण:, किम् ? तद् द्वितयं पृथक्, कथम्भूता सती ? आयता दीर्घा, कि कुर्ब तीब ? निवारयन्तीव, किम् ? युगं युद्धम्, कथं यथा भवति तथा वि (दूर) दूरतरम्, केच ? सखीव, कि कृत्वा ? अनुप्रविश्य, धिम् ? मध्यम्, कयो: ? ज्याधन्वतो: मौर्वीचापयोः, कि कुर्वतोः ? उत्पीडयतोः कदय नोः, कथम् ? अन्योन्यमित रेत रमिति ।।२३।।
परस्परं वेपिनमाप्नुवन्तो न पेतुरुद्भिद्यशरा हयाश्च । तेऽन्योन्यसेनामुभयेऽप्यनाप्य स्वं श्लाघमाना इस तीक्ष्णभावम् ॥२४॥
परस्परभिति-से उभयेऽपि द्विरयेऽपि मरा हयाश्च न पेतुः न पतिताः, किकृत्या ? पूर्वमनाप्या:प्राप्य, काम् ? अन्योन्यसेनामितरतरसम्यम्, कि त्वा ? नुदिमध अब मित्या, कथन् ? परस्परम्, कि कुर्वन्तः सन्तः ? आप्नुवन्तः, किम् ? वेगितम्, कि कुर्वन्त इव ? साघमाना इव, कम् ? तीक्ष्णभावं स्वमात्मीयमिति शेषः ।।२४।।
इयत्तशा वक्ताहं न शक्तः स्यदानिपूणां युधि ये गिरिभ्यः । स्थवीयसोऽध्याशु विभिद्य नागानिबद्धकोषा इत्र रक्तरक्ताः ॥२५॥
इयत्तपति-युधि सलामे, तेयामित्यध्याहार्यम्, इषूणां बाणानां स्यदान वेगान् इयत्तया वक्तुं न शक्तोऽहम्, ये : इषके निबद्धकोष! इव रक्तरक्ताः रक्तेन रुधिरेण रक्ता: शोणिता इत्यर्थः, बभूवुः, कि कृत्वा ? पूर्व विभिध विशेषेण भित्या, कान् ? नागान हस्तिनः, कथम् ? आशु शीघम्, कथम्भूतान् ? गिरिभ्यः पर्वतेभ्यः स्थवीयसः स्थूलतरागपि ॥२५।।
आस्येषु जिह्वा हृदयेषु हस्तानसेषु शूराः श्रवणान् पृषकैः । समस्तमन्पुष्करिणां पिशाचान् स्तम्मेषु कीलैरिव मन्त्रसिद्धाः ॥२६॥
आध्येथिति-शूरा: भटा: पृषत्वोः बाग: पुष्करिणां हस्तिनाम् आस्येपु मुखेषु जिह्वा: समस्त भन् कील याभाशुः, तथा हृदये हस्तान् शृण्डा बण्डान्, तथा अंसे स्कन्धेषु श्रयणान्, क इव ? मन्त्रसिद्धा इव, यथा मन्त्रिणः पिशाचान की लै; स्तम्भेषु संस्तन्नमति शेषः ।।२६।३।
एक-दूसरेको परस्पर में पोड़ा देते हुए धनुष और ज्याके बीच में पाये हितैषी मित्रके समान लम्बे-लम्बे बाल ऐसे लगते थे मानो उन दोनोंके संघर्षको दूर करनेके लिए ही उन्हें अलग-अलग खींचकर रोक रहे थे ॥ २३ ॥
अपनी-अपनी तीक्ष्णता और जनताको प्रशंसा करते हुए और प्रतिक्षस वेगको बढ़ाते हुएके समान वे दोनों अर्थात् योद्धाओं के बाण तथा घोड़े पक्ष और विपक्ष की सेनाओं तक बिना पहुँचे परस्परम्ने हो टकराकर नहीं गिर गये थे ॥२४॥
उन पारणोंकी तेजो या गतिको नहीं कहा जा सकता है, जो युद्ध-भूमिपर प्राये और पहाड़ोंसे भी विशालकाय हाथियोंको पलक मारनेके समय में ही छेदकर निकल जाते थे । और रक्तसे ऐसे लाल हो जाते थे, मानो तीन शोधले हो भभक रहे हैं ॥ २५ ॥
वीर योद्धानोंने अपनी बाप-वकेि द्वारा हथिनियोंको जोसोको मुखोंने, शुण्डा दण्डको छातीपर और कानोंको शन्दोंपर उसी तरह टोक दिया था जिस प्रकार मन्नोको जगानेवाले सिद्ध पुरुष कोलों के द्वारा पिशाचोंको खम्भोंपर कीलित कर देते हैं ॥२६॥
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् निर्याणभागेविषुभिर्विभिन्नास्तैरङ्कुशाकर्षनिबद्धशङ्काः ।
परावृतन् दूरमिभा न भीताः स्मरन्ति शिक्षा विधुरेऽपि धीराः ॥२७॥ निरिणति-तैः शूरैः इषुभिः शरैः निर्माणमागेषु कुम्भस्थलप्रदेशेषु विभिन्ना इभा हस्तिनः दूरं यथा भवति तथा परामन् परावृत्ताः, कथम्भूताः सन्म: ? अंकुशाकर्षनिबद्धशङ्काः अङकुश राकपणे निबद्धा शङ्कायेषां ते, युक्तमे नत्. धीराः शूराः शिक्षा विद्योपादागं स्मरन्ति, क्व सत्यपि ? विधुरेऽपि कष्टेऽपि, न भीताः, श्रस्ता: पुरुषाः शिक्षा न स्मरत्तौति शेषः ।।२।।
व्यर्थै परानानतपूर्वकायाः स्कन्धान्तयोस्तैर्विनिसातवाणाः ।
योधाः सतूणद्वितया इवासन बध्नात्यनर्थोऽपि कुतश्रिदर्थम् ॥२८॥ ध्यद्धमिति-सोथाः धनुर्थनाः त: 'विध्यदभिः सम्धान्तयोरंसान्तरालयो. विनिखारवाणाः विनिखाता निहिता बाणा येषां ते तथोक्ताः सन्तः सतूणद्वितया इव सबाणधियुग्मा इव आरन् बभूवुः, कथम्भूताः ? परान् शत्रून् व्यखं तायितुम् आनतपूर्वकायाः, युक्तमेतत्, कुतश्चित्पदार्थादार्थोऽप्यर्थ बघ्नातीति शेषः ।।२८।।
तेषां धनुमण्डलितं यशो न द्विषो धरिच्यामपतन्न बाणाः।
पृष्ठे निषङ्गः स्थितवान्न कश्चिननाम देहो हृदयं ननाम ॥२६॥
तेषामिति–तेषां नरेन्द्राणां धनुः मण्डलितं कुटिलिलं यशो न मण्डलितं सख़ुचितमित्यर्थः, द्विषो धरियाम् भूमौ अपतन् न बागाः; वैरिणी मेदिन्यां पेतुः न तु शराः, पृष्ठे निवङ्गः बाणधिः स्थितवान् न कश्चित् शत्रुः, नाम अहो देहः कायः नमाम नत्रोऽभूत् न हृदयं ननामेति शेषः ॥२९॥
ततो यदनां मलमप्यवस्थां गतं हतं तैः परिवतंते स्म । स्थिरासिकापेयमधिष्ठितानां तद्वारियादोभिरिवाम्बुधीनाम् ॥३०॥
द्विः तत इति-ततो धीरवर्णनानन्तरं परिवर्तते स्म व्याधुटितम्, किम् ? तलम्, केषाम् ? अधिष्ठितानाम् आश्रितानाम्, कि तत् ? कापेयं कपीनां भावः, कपिज्ञातर्दप [ जै० सू० ३.४१११७ ] कपित्वं पानराणामित्यर्थः, कथम्भूतं दलम् ? स्थिराति स्थिरा असयो यत्र तत् तथोक्तम्. यदलं गतम्, काम् ? ऊना होनाम अपि अवस्थाम, कथम्भूतम् ? तैः शत्रुनिहतं सत्, इय यया अम्बुवीनां समुद्राणां यादोभिर्जलअन्तुभिर्हतं सत् ऊनाम् अवस्थां गतमपि वारि परिबर्तते इति शेषः ।
बागोंको भारके द्वारा गण्डस्थल फोड़ दिधे जागेपर भी हाथियोंको अंकुशक खोचनेको शंका हो जाती थी । फलतः उरे रहनेपर भी वे लौटकर दूर तक मार करते थे । उचित ही है, धीर व्यक्ति विपत्तिमें पड़ जानेपर भी क्या शिक्षाको याद नहीं करते हैं ? अपितु करते ही हैं और डरते नहीं हैं ॥२७॥
शत्रुओंको छेदने के लिए शरीरके ऊपरी भागको मागेको ओर झुकाये हुए योद्वानोंके कन्धोंपर प्रतिपक्षी योद्धा वारण गाड़ देते थे। तब वे ऐसे लगते थे मानो दोनों कन्धोंपर तूरपोर लटकाये हैं । ठीक ही है कभी-कभी बुराई भी भलाई हो जाती है ॥२८॥
वीर योद्धानोंके घनुष्य खिचते-सिंचते गोल हो गये थे किन्तु यश ज्योंका त्यों था। चनके शत्रु पृथ्वीपर लेट गये थे पर एक भो बाण घरती नहीं छुई थी। पीउपर केवल तूणीर ही चढ़ा था कोई दूसरा टूटू भी नहीं पाया था। और शरीर अवश्य झुकता था किन्तु मनने पानसमर्पण नहीं ही किया था ॥२६॥
हड़ताके साथ तलवार चलाती हुई (स्थिरासि), जमकर लड़ते हुए सेनानायकों१. शत्रुमिः -प० ।
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
२६३
भारतीयः पक्ष:---राद् यदुना यादवानां बलं परिवर्तते स्म, कथम्भूतानाम् ? अधिष्ठितानाम्, कथम्भूतं बलम् ? स्थिरासिकापेयं स्थिरमासितुं पर्यायः स्थिरासिका सा अपेया परित्याज्या यस्य तत् तथोक्तम् । शेष प्राग्मत् ॥३०॥
तथा हरीणां कलहायमाना सेना मुखं दातुमपारयन्ती। सुधातिसुप्ता बहुवासराणि क्षणं न वेश्येच ययौ न तस्यौ ॥३१॥
द्विः तथेति-सपा तेनैव कारण ही मां बाराणां सेना न ययौ न गता न च तस्यीन स्थिः वती, येोग ? वेश्येव, कथम् ? क्षणं मुहुर्तमम्, कथं सी? अनि सुप्ता अतिनिदामा गुस्सासक नेत्यर्थः, कानि ? बहुवासरा रिण प्रचुराणि दिनानि, कथम् ? मुधा एकमेव, कयम्भूता ? कलहायमाना कलहे कुणा पुनः मुखं दातुम् अत्यन्ती पराल मुशीभवन्ती ।
भारतीयः-हरीणां यादवाना सेना। शेष पावत् ।।३१।।
तदाशशंसे रणमूभिरेषां प्राज्योषिताङ्गा एतिमातराणा । परासुमजातिकृतावलेपा पतिवराभ्यङ्गविधि गते ॥३२॥ तदेशि-तदा तस्मिन् काले रणभूमिः पति स्वमिनम् बाशशंसे इलाधते स्म, वेषाम् ? एषां नरेन्द्राम्, कथम्भूता? प्रज्योचिताङ्गा प्राज्यानि प्रचुताणि उचितानि योग्यानि अङ्गानि गजवाजिर थपदातिर.क्षणानि यस्यां सा तयाँका, पुतः यायाशा ? भातवारणा गृहीताशाः, पुनः कथम्ला ? परासुमज्जातिकृतायलेगा परासून शवाना मज्जा संवा अतितोऽवलंपोऽवलेपने यस्याः सा, के पतिमः शशं मे रणभूमिः ? पतिबरेव विवाहोचिचा पान्येब, कवा सती? अभ्यविधि र जनक्रियां गता, पुनः प्राज्यांचिताङ्गा प्रहारमाज्यं प्राज्यं प्रकृष्ट एनं प्राजास्मोचितझं (प्रामानि पुर्णविकसितानि उचितानि आनुपातिक निशानि) यस्मा सा, पुन: आतबाणा (पवित्वेन गृहीहीमारहरः) पुनः परामुमज्जातिकृतानले.पा परा सम्पूर्ण लक्ष लक्षिता ( श्रेष्ठा ) या असुमतां जाति: प्राणिजातिः, तस्यां सोऽवलेपो गर्यो यया सा तथोक्ता ॥३२।।
को वा वानरसेना यचपि संस्थाकी दृष्टिसे कुछ हीन (ऊना) अवस्थाको प्राप्त हुई थी तथापि शन्नोंफे द्वारा आपात होते ही फिर वैसे ही टूट पड़ी थी जैसे जलचर जन्तुओंकी उछल-कूदके कारण समुद्र का पानी चंचल हो उठता है [एक स्थानपर टहरने (स्थिरासिका) की प्रकृतिले दूर (प्रपेयं) प्रति अत्यन्त उद्योगी हद अनुगामी राजारोंकी यादवसेना विशेष प्रयस्था प्राप्त कर लेनेपर भी शत्रुओंके द्वारा प्रहार होनेपर दूसरी पोरसे वैसे ही चढ़ बैठी थी जैसे जलचर 'चंधल हो उठता है] ॥३०॥
इस कारसे युद्ध में लीन वानरसेना अथवा यादवासेना (हरीणां सेना ) शत्रुओंसे उटकर, सम्मुस-युद्ध करने में सफल हो सकी थी अर्थात् व्यूह-युद्ध कर रही थी। धेश्याके समान कई दिन तरुन सो सझी थी और न क्षण-भरके लिए भी स्थिर ही रह सकी थी और न मागे बढ़ सकी थी (वेवा भी विसे लह करती है, मुख छूने नहीं देती है, रातें जाग-जागर दिसा देती है और न भागती है और न क्ष-भर पास ही बैठती है) ॥३१॥
प्रचुर हस्ती, अश्व, रथ और पदाति सेनाके उपाय मंगोंसे पूर्ण, बारणोंसे व्याप्त तथा मृत सैनिकोंकी च से लिपी हुई फललः विवाहके लिए उबटन लगाये वधूके समान रग लिने राजानोंके नायतोंशी प्रशंसा की थी [वधूके भी अंग पुष्ट, भानुपातिक रीतिसे पूर्ण विकसित तथा सुन्दर होते हैं। प्राहि-जगलको श्रेष्ठ जाति (मनुष्य गति) को भी ऐसी सुन्दरीका लद गौरव होता है जब यह प्रेमीको पतिरूपले स्वयं वरण करनेके लिए उबटन नादि लगाकर तैयार होती है] ॥३२॥
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
स्थिराचरान्तं युधिशब्दपूर्वं नामप्रसिद्ध भुवनं समस्तम् ।
यस्य स्तुतेऽद्यापि विनामयुक्तं क्रुद्धः सरामो हि गतिर्नयस्य ॥३३॥
द्विः स्थिरेति हि स्फुटं स रामो दाशरथिर्युधि सङ्ग्रामे क्रुद्धोऽपि सन् नवस्य नीतेगंतिरासीत्, अद्यापि साम्यमपिस्तुले स्वयंति किं कर्तृ ? भुवनम् कथम्भूतम् ? समस्तम् किम् ? नाम, कस्य ? यस्य रामस्य कथं [ कथंऋतं प्रशिद्धं प्रकृष्ट सिद्धपरमेष्ठित्वं गतम् ] यथा भवति ? विनामयुक्तं विनामो युक्तो यत्र स्तवनकर्मणि तया भवति नाम कथं याति ? बिरखोत्यक्षरो मोक्षः अन्तः अष्टगुणलक्षणो धर्मः अक्षरस्य अन्तः अक्षरान्तः, स्थिरोऽविचल: अक्षरान्तो यस्मात् स्तवन कर्मणस्तद्यथा भवति, कथं यथा भवति ? पूर्व पब्दो यशः उक्तञ्च "शब्दः प्रपठ्यते सद्भिराविष्कारे गिरि ध्वनी, यशस्येवाभिभःपायां शब्दास्त्रविशारदै " -- रितिशब्दः पूर्वो यस्मात् स्ववनकर्मणस्तद्यथा भवति । क्षत्र पूर्व जमद्वाप्यस्थित्या गरेन्द्रनागेन्द्रविभूतिसुसेवनानन्तरं पश्चात्तत्तवनान्मोक्ष भवितेति यथा भोक्षो भवतीति भावोऽन्यस्तः ।
२६४
भारतीयः पत्रः -- यस्य शत्रोः स नरेन्द्रः क्रुद्धः एतस्य प्राणापहारं करोमीति हृदयेऽत्यन्तया दुष्टपरिणामतया शत्रोः गतिर्नास्ति, केनोपायेन जीवामीति लक्षणायना न विद्यते कथम्? हि स्फुटम् ऽपि सन् ? सरामोऽपि र गम्भीरो ध्वनिः, बामः सार्द्धं चेतः उक्तब - "मामो रोगे तथासावित्री पठते शब्द कोविदयाने गम्भीरे च ध्वनाविति," वह रामाभ्यां वर्तत इति समः, यस्य नरेन्द्रस्य नाम अद्यापि समस्तं भुवनं स्तुते स्तोति कथम्भूतं नाम ? स्थिरादारान्तं स्थिरमक्षरमन्ते यस्य नान्नस्वयम् पुनः कथम्भूतम् ? युविशब्दपूर्व युधिशब्दः पूर्वमादिर्यस्य तत् पुनः विनामयुक्तं स्वत्वयोविनासंज्ञेयं विनामेन पत्वेन युक्तं यत्तत्तयोक्तं पुनः प्रसिद्धं विख्या, [ अथवा प्रकृष्टा या साधुता तां गतम् ] युधिष्ठिरः मेति भावः ।। ३३ ।
स्वैरखदानन्दनमाशुकारैर्भीमन्दानम्रमराविजातम् ।
कुमुद्यन्तमुदीच्य सेन्द्रैर्विसिस्मये खेऽधिगतैर्विमानम् ||३४||
द्विः स्वैरमित्रि—विसिस्मिये विस्मितम् कैः ? सेन्द्रः देवैः कथम् ? से गमने विमानं देवयानम् अधिगमैरधिष्ठितै, कि कृत्वा ? अञ्जनानन्दनं हनुमन्तम् उदीक्ष्य निरीक्ष्य, कथम्भूतम् ? यम् उद्यमं कुर्वाणम्, न कथम्भूतम् ? स्वैः स्वीवैराशुकारैः शीघ्रकरणैः अरातिजातं शत्रुसमूहं भीमन्दं भयनिरुताम् ग्रज् कुर्वन्तं विदधतम् ।
प्राज समस्त संसार यश (शब्द) की गाथा से प्रारम्भ करके अविचल मोक्ष (अक्षर) की प्राति पर्यन्त जिसके जीवनकी सब घटनाओं (नाम) की स्तुति करता है और परम सिद्ध (प्रसिद्ध ) रूपमें प्रणाम (वि-नाम) करता है वही राम कुपित होकर भी इस युद्ध में नीतिमार्ग के प्रावरणके आदर्श थे [ जिसके नाम में पहले 'युधि' शब्द है और (त्व) युक्त स्थिर (डिटर ) शब्द है और साधुता अवतार ( प्रसिद्ध ) जित युधिष्ठिरकी आज भी पूरा विश्व स्तुति करता है । इतना ही नहीं। जिसका हृदय करुणासे भींगा ( स नाम ) है तथा वाली (र) गम्भीर है वह जिसपर कुपित हो जाता है उसका संसारमें निर्वाह (पति) नहीं है ] ॥३३५
तीव्र आक्रमणों द्वारा अनगिनते (वि-मान) तथापि भयसे शिथिल (जीद) शत्रु समुदायको चरणोंमें झुकाता ( विनम्र ) हुआ तथा युद्धमें उत्साहपूर्वक तल्लीन जनयन (हनुमान) को देखकर श्राकाशमें आये इन्द्र तथा देवगण आश्चर्य में
१. वर्तमानं प्रमाणं यस्मात् सदाराविज्ञातम् ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः । अधुना भारतीयः-विविस्मिये, कैः ? खेऽधिगतः खेऽधिगतं येषां तः विद्याधरैः, कथम्भूतः ? सेन्द्रः इन्द्रयुतैः किं कृत्वा ? भीमं वृकोदरम् उद्यतम् उद्यमं फुर्वन्तम् उदीक्ष्य पुन: अरातिजातं स्थैरं स्वमात्मानभीरवतीति स्वैरस्तम्, कैः ? आशुकाः , दमाननं इमेन आननं कुर्वन्तम्, कथम्भूतं भीमम् ? जनानन्दनम् ? बनानानन्दयतीति जनानन्दनस्तम्, पुनः कथम्भूतम् ? विमानं विशिष्टो मानो गर्यो यस्य तं प्रकृयाहारमिति भावः 1 ३४॥
प्रभावितारातनयस्य वीर्य कृताधिपार्थस्य निरूप्य भीताः ।
दत्तान्तराः पूर्वसरा बभूवुर्विपद्विरुद्धा इव बन्धुवः ॥३५॥
द्विः प्रभावीति-बधुवर्गाः बन्धुसमुहाः भीताः सन्तः विपद्विरुद्धा इब दभूः संजाताः, कथम्भूताः ? पूर्वसराः अग्नेसराः, पुनः दत्तान्तराः दत्ताबसराः, कि कृरदा? पूर्व निरूप्यावलोय, किम् ? प्रभावि प्रभाववत्, ताराततयस्पाङ्गदस्य वीर्यम्, कथम्भुतस्य ? वाताधिपार्थस्य कृतोधिपायों येग तस्य विहितराघवार्य पेति शेषः।
अप भारतीयः-विपहिरुद्धा इब विपदा विरुद्धास्ते तयोक्ता इव बन्धुवर्गा. भीमादि बान्धका समूहा बभूवुः, कथं यया भवति ? कृताधि विहितमानसपोडम्, कथम्भूताः ? पूर्वसराः पुरःसराः पुन: दत्तान्त राः पुनः भीता: भीः इता गता येषां ते भीताः बिनभयाः, कि कृत्वा ? पूर्व पाण्यार्जुनस्य वीय शक्ति निरूप्यावलोक्य, कथम्तस्य ? प्रभावितारातनयस्य अरासीमामयमासरः ग चासो नयश्च भारातनयः प्रभावितो निश्चित आरासनयो येन तस्य तथोक्तस्य ।।३५।।
वरूथिनीलङ्घनमन्य सैन्य बलत्प्रकोपानलमुत्पतन्तम् ।
दृष्ट्वा यमाकारमरिप्रजातं संहारमहाय भुवः शश? ॥३६॥
वस्थीति ---त्रिः । अरिप्रजा भुव: पृथिव्याः संहारं शश? शङ्कितवती, कथम् ? अनाय झटिति, किं कृत्वा ? अन्वतन्यं परबलम् उत्सतन्तम् अभिगच्छन्तम् तं प्रसिद्धं नीलं नीलाभिधानं वा नरेन्द्रं दृष्ट्वा, कथम्भुतमन्य हैन्यम् ? धनं निविडं पुन: दरूथि वख्याः अस्मिन् सन्तीति वरूयि तद् रथगुष्टियुक्तम् पड़ गये थे [सहज भायसे वेगके साथ किये गये गदाके प्रहारोंसे शत्रुलोंके गुण्डाको दमन फरके गिराते (मातम्र) हुए, पाण्डव लोगों (जन) के प्रानन्दके कारण और प्रत्यन्त अहंकारी (वि-मानं) भीमको आगे बढ़ता देखकर भाकाशचारी (विद्याधर) तश उनके नायक प्राचर्यचकित रह गये थे] ॥३४॥
स्वामी रामके (अधिपत्य) इष्ट कार्य (अर्थस्य) को करते हुए ताराके पुत्र ( तारा तनयस्य) अंगदके प्राश्चर्यकारक पराक्रसको देखकर भयभीत मित्र राजा भी विपत्ति काल में मुख मोड़नेवालोंके समान पाये बढ़े चले जा रहे थे तथा अंगदको विजयको परिस्थिति पैदा कर रहे थे (विपत्ति काल में अपने भी पिश हो जाते हैं, पहले ही साथ छोड़ देते हैं और सामना नहीं होने देते हैं) [शत्रु कौरवों (अराति) को राज तथा युद्ध नोति (नयस्य) को भी विफल करते हुए तथा उनके मन को प्राकुलता (प्राधि) में डालते हुए अर्जुनके पराक्रमको देखकर भीम, श्रादि पाण्डव भी, विपत्तिके ही बिरुद्ध हो गये लोगोंके समान, युद्धमें आगे-मागे बड़े जा रहे थे तथा अर्जुनको प्रगतिके अवसरको जुटा रहे थे। और भय (भी) तो उनसे दूर-दूर हो भागता-फिरता था (इतः) ] ॥३५॥
___ोधको अग्निसे तमतमाते हुए तथा मूर्तिमान यमराज बोलको रयोंसे घिरी (बहथि) तथा अमेय (धन) शत्रुओंको सेनाके ऊपर टूटता देखकर रावणको प्रजा
१. मा. इला गया येभ्यः निर्भया।
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
द्विसन्धानमहाकाव्यम् कथम्भुतं नीलम् ? ज्वलत्प्रकोपानलं ज्वलन् प्रकोप एवानलो यस्य तं पुन: यमाकारं यमस्येवाकारो यस्य तम् इत्ये कोऽर्थः, तथा अरिप्रजा नलं दृष्ट्वा नलाभिधानं वा नरेन्द्र वीक्ष्य भुवः संहारं शश ठू, कथम्भूता अरिजा ? जबलत्प्रतापा, कथम्भूतम् अन्य सैन्यम् ? वरूपिनीलङ्गमं वरूथिनी सेना लङ्घते इति तथोक्तम् ।
भारतीयः--अन्यसैन्यं कत्तुं शक शाजितवती, कि कर्मतापहाम् ? संहारम्, कथम्भूतम् ? अरिप्रजातम् शत्रुभवम्, कस्याः ? भुवः, कथम् ? अहाथ, किं कृत्वा ? यमाकारं यमस्य पुत्रस्यात् यमो नकुलसहदेवौ सयोराकारं गति दृष्ट्या, कि कुर्वन्तम् ? अन्यसैन्यं कौरदसैन्यम् उत्पत ता । अन्यन् पूर्वतमम् । तृतीयोऽर्थः ।।३६॥
स वानराणां पतिरुप्रसेनः किं वर्मणा स्यास्किल गर्मणेव । __ पराद्गृहीतेन मिति चित्र संनद्धवान् संनहनं न भेजे ॥३७॥
हिः स इति--पित्रमाश्चर्य स वानराणां पतिः सुग्रीवः समनं न भेजे, कघन्भूतः सन् ? सन्नद्धवान्, कथम् ? इति, मिल लोकोको, वर्मणा सनहनेन किं स्यात्, फयम्भूसेन ? परादिवरस्माद्गृहीतेन, कया कृत्वा ? भिया भयेन, फेन ? मणेर, कयम्भूनो वानराणां पत्तिः ? उनसेनः उग्रा सेनाऽस्य स तीव्रदण्ड इति शेषः।
भारतीयः-- वायवा स नराणां पतिः उगोर जमनाहि नरेन्द्र गाने मरे। पं तुल्यन् ।।३७॥
दिधक्षवे लोकारातिसेनं संधुक्षमाणं द्रपदेन तेन ।
क्रोधाग्नयेाल्यत कोटिकल्पं भामण्डलेनोत्तपताकतेजः ॥३८॥
द्विः । दिधक्षेति--तेन प्रसिद्धन भामण्डलेन जानकीभ्राता नाकल्प्यत न कल्पितम् किम् ? अराति. सेनम्' अराजीना सेना अरातिसेनम्. कथभूतम् ? साधुक्षमाणम्, कस्म ? जोधामये कोपथहये, क्व ? द्रुपदे दारस्थाने, कथम्भूताय शोधाग्नये ? दिधक्षवे, कम् ? लोकम्, कि कुर्वता सता भामण्डले ? उत्तपता, किम् ? अर्कोलेज. सूर्यवत्रः, कथम्भूतमरातिसेनस् ? कोटिकल्पं कोटिप्रमाणम् ।। सोचती थी कि अब शीघ्र ही संसारका भी संहार जो जायेगा ( यमके समान संहारकर्ता तथा समस्त सेना (वरूथिनी) के भेदन (लंघन) में समर्थ नल नामले राजाको शगुरोनाको ओर बढ़ता देखकर, रावणके अकार्यके कारण कोषले जलती (ज्वलत्प्रकोपा) उसको प्रजा सोरती थी उसका ही नहीं अपितु विश्वका अन्त निकट है) [लेनाओंको परास्त (लंघन) करने में समर्थ, लपटें लेती क्रोधाग्निके समान जग, यमके समान भयानक प्राकृतिधारी (यमके नामज) अथवा युगल रूपसे उत्पन्न (यमाकार) नकुल और सहदेदको अाक्रमण करते देखकर ही प्रतिपक्षी (अन्य) कौरव सेना अपने राज्यकी समापिकी, उस कल्पनाको करके कोप उठी थी जो शत्रुनों पाण्डवों के द्वारा होनेवाली वा ॥३६॥
अाश्चर्य है कि दुर्दम्य सेनाके स्वामी दान के राजा सुग्रीवने [अथवा मनुष्यों (नरासां) के अधिपति (पति) उग्रसेनने युद्ध के लिए तैयार होकर भी कश्च नहीं पहना था! दह कहता धा कवचका क्या होगा ? शत्रुले रंद मात्र भय न खानेवाला हृदय ही पर्याप्त है ॥३७॥
सूर्यके तेजसे भी अधिक प्रतापी सीताके भाई प्रसिद्ध भारुण्डलने समस्त लोकको भस्मसात् करनेके लिए अत्यन्त प्रज्वलित अपनी क्रोवरूपी अग्निमें हबकी लकड़ी
१. पराकोः अग्रहीतेन भिया मा शत्रुभग्रनुका सेति । इतस्मादाहीनेनेति । सम्प्रदाने द्वितीया।
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
२६७ भारतीयः-तेन द्रुपदेन द्रुपदनाम्ना राज्ञा अरातिसेनं संक्षमाणं नाकल्पतेव, कस्मै ? क्रोधाग्नये, कथम्भुताय ? दिधक्षये, कम् ? लोकम्, किं कुर्वता सता ? उत्तपता उत्तेजयता, किम् ? अनौतेजः, केन कृत्वा ? भामण्डलेन दीपिपरिषेण, कथम्भूतम् ? कोटिकल्पमिति शेषः ।।३८।।
तीवोद्धवं ऋद्धमने कसैन्यं परासुषेणन्तमरिबजाय । निर्विज्य नित्यास्तमयात्कथंचिद्वरोचनीदीप्तिरूपायतेव ।।३।।
द्विः तीवेति-देशेचनी विरोचनस्येयं रोचनी, दीतिः तं लोकप्रसिद्धं सुषेणं सुघेणाभिधं राजानमुपायते व परिणीतबतीब, कि कृत्वा ? पूर्व निविज्य, कस्मात् ? नित्यास्तम्यान अनवरतास्तात्, कथम् ? कथंचिन्महता कष्टेन, कथम्भूतं सुषेणए ? क्रुद्धम् , कस्मै ? अरिजजाय रिपुबय पुनः तीनोद्धवमुग्रग पुनः अरे कसैन्यं प्रचुरबलम्, कथम्भूता दोनिः? परा उत्कृष्टा।
भारतीया-वैरोचनो नाम कौरवगृह्यो राजा तस्येयं वैरोचनी दीप्तिस्पायते व गतवतीव, कम् ? उद्धवं नारायणामात्यमुद्धवास्यम् । किं कुर्वन्तम् ? अणन्तम् ऊर्जन्तम्, कस्मै ? अरिग्रजाय, कथम्भूताय ? परासुषे, 'असु क्षेपणे' इत्यस्य धातोः क्यस्प्रत्ययान्तः 'सर्वधातुभ्यः क्वसुकानो वक्तव्याविति; निराकृतवत् इत्यर्थः, किम् ? अनेकसम्यम् कथम्भूतं सत् ? बुद्धम्, कथम्भूता दीप्तिः ? तीदा, या वैरोचनी दीप्तिः अयात् गतवली, कम् ? अस्तम्, किं कृत्वा ? पूर्व निविज्य, कथम् ? कथंचित्, कथम्भूता ? नित्या परैरभिभवनीयेति भावः ।। ३६॥
सञ्जाम्बवः क्षोभणमभ्यगच्छन्न केवल वारिधयोऽद्रयश्च । भिन्ना विदुरे विशिखैरमोघं तथा दुरन्तं विदुरस्य शस्त्रम् ॥४०॥
सदिति-म केवलमभ्यगच्छत्, कोऽसौ ? सज्जाम्वदः, संश्वासी जाम्यवः, सज्जाम्बवः जाम्बवाभिधानः सुग्रीवस्य मन्त्री, किम् ? क्षोभणम्, तथा अभ्यगच्छन्, किम् ? क्षोभणम्, के ? नारिधयः समुद्राः अद्रय: पर्वताश्च, कथम्मृताः सन्तः ? विशिखणिबिदूरे समामे विभिन्नाः, तथा विद्वांसोऽस्य जाम्बवस्य अमोघं सफल दुरन्तं दुद्धरं शस्त्रं विदुः जानन्ति, वारिध्यद्रिक्षोभणप्रकारेणेति !
__ भारतीयः-- न केदलं वारिधरः क्षोभणम गच्छन्. कथाभूताः सन्तः ? सज्जाम्बवः सज्जमम्बु येषां ते तथोक्ताः, अद्रयश्च क्षोभणमभ्यगच्छन्, कयम्भूताः ? भिन्नाः, कैः ? विशिखैः बाणः, तथा सति (द्रु-पद) की जगह क्या कोटि संख्या प्रमाण शत्रुओं को सेनाको नहीं झोंक दिया था ?
प्रताप-पुंज (भा-मण्डल) के द्वारा सूर्यके तेजको भी पछाड़ने में समर्थ पद देशके राजाने (द्रुपदेन) शत्रु लोकको जलानेके लिए भभकतो हुई क्रोधाग्निक कुण्डमें फरोड़ों प्रमाण कौरव सेनाकी आहुति दे दी थी ॥३८
प्रतिदिन प्रस्त होनेवाले सूर्य से विरक्त होकर सूर्यको उत्कृष्ट दीप्ति, अत्यन्त प्रतापी वानर राजा सुधेणके पास किसी प्रकारसे चली हो गयी थी। यह सुघेरा राजा भी (शत्रु समूहपर कुपित होने के कारण) राम-रावण युद्ध में विशाल सेनाके साथ सम्मिलित हुआ था।
कौरव पक्षके राजा वैरोचनकी प्रखर दीग्निने भगवान् कृष्णके अमात्य उद्धवको वरण कर लिया था। विशाल सेनाके अधिपति उद्धव भी तिरस्कार के पात्र शत्रु-समूहपर ऋद्ध थे । यही कारण है कि वरोचनको स्थायी प्रतिष्ठा सवाके लिए लुम हो गयी थी ॥३६॥
राम रावण युद्ध में (विदुरे) केवल जामवन्त ही क्षुब्ध नहीं हुए थे अपितु इसके बारणोंसे छेये गये पर्वत और समुद्र भी कांप उठे थे। क्योंकि इस जामवन्तके शस्त्र ऐसे ही (अद्भुत) विनाशक और लक्ष्यभेदी थे।
महाभारतमें धृतराष्ट्रके अनुन विदुरके उतर पानेपर पानीसे लहराते समुद्रों और विशाल पर्वतोंमें भी नारा वर्षाके कारण केवल उथल-पुथल ही नहीं मच गयी थी, अपितु
३८
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
सिन्धानमहाकाच्यम् अधुः रक्षन्ति स्म, के ? वारिषयः, कम् ? अन्तं स्वरूपं द्रवकाठिन्मलक्षणम्, रे शब्दः निकृष्टसम्बोधने, रे जनः अविद्वान्सः । विद्वज्जना विदुनिन्ति, किम् ? शस्त्रम्, कथम्भूतम् ? अमोघम्. कस्य ? विदुरस्य विदुराभिधानस्य धृतराष्ट्रस्य लधीयसो भ्रातुरिति शेपः ॥ ४० ॥
न सोढवैराधितरौद्रहेतिः स्थिरं तथैकं पदमन्यसेना ।
वैराटवीचारभयेन जाता गेहेष्विवाजिष्वपि कस्य गर्जः ॥ ४१ ॥
नेति न जाता, का ? अन्यसेना सोढौराधिकरौद्रहेतिः विराधितो विराधितनामधेपश्चन्द्रोदयनामधेयस्य विद्याधरस्य पुत्रः, विराधितस्येमा वैर।धित्वः, सोढा: वैराधिय: विराधसम्बन्धिम्यो रोद्रा: तीया हेतयो यया सा अन्य सेना । तथा एक स्थिरं पदं नासीत्, केन ? पैराटीचारमन, वैरमेवाटवी तस्यां यः चारः प्रवर्तनं तस्माद्यद्भयं तेन, युक्तमे तत्, आजिष्यपि समा मेष्वपि कस्य मर्जी विद्यते अपितु न कस्यापि, केष्विव ? गेहेविव, यथा मेहेषु सर्वेषां जनानां गजों न तथा जिम्वपीति शेषः ।
__ अथ भारतीय:---न जाता, का? अन्यसेना, कथम्भूता ? सोढरा, सोठं वैरं यया सा सोढवेरा, तथा न जाता अन्यसना, कथम्भूता ? रौद्रहेतिः, तथा नाधित न धृतवती, का? अन्यसेना, किम् ? स्थिरमेकं पदम्, केन ? वैराटयी चारभयेन बैराट: विराटाख्यो नरेशः, वीचारः आभिचारिक कर्म, मारणमित्यर्थः, विराटसम्न्धी यो वीचारः तस्माद्ययं तेन । अन्य समन् ।। ४१ ।।
तं सत्यकोपाहतशत्रुसुच्चैरामन्दमारम्भगभीरनादः । विमीषणः सोऽग्रजवैरभीतः समेत्य नाथं प्रधनं ननाथ ॥४२॥
द्विः तमिति-तं लोक प्रसिद्ध नाथं स्वामिम राम राघवं प्रधनं सामं स विभीषणो रावण भ्राता ननाथ याचितवान् कथम् ? उच्चैरतिशयेन, कि कृत्वा ? पूर्न समेत्य असत्य, कथम्भूतं रामम् ? सत्य. कोपाहतशत्रु सत्यश्चासो कोपश्च सत्यकोपः अकृत्रिपक्रोधः, तेन हताः शत्रवो येन तम्, कयम्भूत: ? दमारम्भगभीरनादः विद्याभ्यासाय श्रमो दमः, दमस्यारम्भः दगारम्भः तस्मिन्' गभीरी नायो यस्य सः, पुन: अनजधैरभीतः रावणौरात् प्रस्तः ।
इन्होंने जैसे-तैसे (तथा) अपने स्वरूप (अन्त) को रक्षा की थी (सदुः) । महो प्रतापी विदुरके शस्त्रको घातकताको किसने नहीं जाना था ? ॥ ४० ॥
शत्रु रावणको सेना न तो (चन्द्रोदय विद्याधरके पुत्र) विराधके भीषण शस्त्रोंकी मारको सह सकी थी और न एक भी कदम जमकर लड़ सको यो क्योंकि इससे शत्रुता करके वन-यन मारे फिरनेके भयसे वह व्याप्त थी। घरके समान युद्ध में भी किसी एकको ही हुंकार नहीं चलती है।
विराट राजाके संहारके भयसे कांपती कौरव सेना न तो शत्रु (पाण्डवों)को मारको सम्हाल सकी थी, न भयंकर शत्रोंको सह सकी थी और न उटकर एक भी प्रतिरोध कर सकी थी। ठीक ही है युद्ध में भी घरके समान एक ही व्यक्तिकी नहीं चलती है ॥४१॥
अग्रज रावणको शत्रुतासे भीत और शिवाभ्यास (दम) के सतत प्रारम्भके कारण गम्भीरतासे बोलते विभीषणने विश्व विख्यात प्रभु रामके पास श्राकर बड़े प्राग्रहके साथ युद्ध करनेको प्रार्थना की थी क्योंकि वह जानता था कि रामका कोप सच्चा है और शत्रुओंका संहार करेगा।
१. बैग्ण यो अन्यांचास पलायनं तस्माद्भयेन व्याप्त।।..पैराटाद वीचार तस्माद्यनयं-प। ३.लेन-10
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
२६६
भारतीय:- अपातशत्रु तं नाथं युधिष्ठिरं प्रधनं सत्यकः सत्यकाभिधानः कौरवगृह्यो ननाथ, किं कृत्वा ? मन्दं समेत्य कथम्भूतः ? उच्चैराः प्रचुरधनः पुनः आरम्भगभीरनादः आरम्भे गंभीरो नादो यस्य सः, पुनः अग्रजः प्रधानवेगः विभीषणः भयंकरः पुनः अभीती निर्भयः ॥ ४२ ॥
स एप संभूयसमुद्यतात्मा विश्वोऽपि विश्वं भुवनं जिगीः । राजाध्यपेतो बहुशस्त्रपातो बभूव रागादिरिवात्मतन्त्रः ||४३||
7
स इति स एक विश्वति समस्तऽपि राजा आत्मतत्त्रो बभूव सज्जात किं कृत्वा ? पूर्व संभूय मिलित्वा कथम्भूतः ? समुद्यतात्मा पुनः विश्वं समस्तं भुवनं जगत् जिमीपुः जेतुमिच्छुः पुनः अध्यत: अभिन्न: अपृथक् प्राप्त इत्यर्थ । कश्मात् ? रागात् रणेऽर्थेऽनुरागन्त् " इष्टे वस्तुनि प्रीतिः राग" इति श्रुतेः पुनः बहुशस्त्रपातः प्रचुरत्पातः क इत्र आत्मतयो बभूव ? इरिव अ. नारायणस्तस्यापत्यम्, इः कामः यथात्नतन्त्रः, कस्मात् ? रागात् दृष्टे ग्वनितादिवस्तुनि प्रीतेः अथवा रागादिरिव अविद्योपप्लव इव कथम्भूतः ? पातः लज्जाया अध्यपेतः, कथम् ? बहुशो बहुकालमिति ॥ ४३ ॥ अध्यङ्गसंवारकमङ्गरागं स मन्यमानः कवचं प्रविष्टान् ।
प्रागेव मन्ये शरणं प्रविष्टान् ध्यायंस्तनुत्रं कथमाददीत || ४४ ||
अपीति मन्येऽहं बाने स विश्वोऽपि राजा तनु कवचं कथम् आददीत अङ्गीकुर्यात् किं कुर्वन् ? ध्यायन् चिन्तयन् कानू ? कवचं प्रविष्टान् गरेन्द्रान् कथम्भूतान् ? प्रागेव पूर्वमेव शरणं प्रविष्टान् कि कुर्वाणोऽपि ? अङ्गरागम् अङ्गारम् अङ्गप्रच्छादकं मन्यमानोऽपि इति ॥ ४४ ॥ चिरं निबद्धो नियमेन सोऽयं तीव्रासिधारत्रतबद्धचित्तः ।
कर्तुं यथेष्टं गुरुणा कथंचिदुपेक्षितः शिष्य इवोदिया || ४५||
चिरमिति - सोऽयं विश्वोऽपि राजा यथेष्ट स्वेच्छाचरणं कर्तुं विधातुमुदियाय उच्चमं कृतवान्, कम्भूतः ? नियमेन बीरनतेन चिरं बहुतरकालं निवद्धः सन्निरुद्धः कथम्भूतः ? तीव्रासिधाराव्रतबद्धचित्तः असिधारेव व्रतम् असिधाराव्रतं तीव्रं च तदसिधारायतं च तीव्र सिधाराव्रतं तेन वृद्ध चित्तं येन स तथोक्तः,
प्रारम्भ (प्रारम्भ ) से हो गम्भीरता पूर्वक बोलता, शत्रुओं की पराजय करता, अपनी अत्यन्त ( प्र ) वेशीलता ( जब: ) के कारण भयंकर तथा निर्भव ( श्रभीतः ) उत सत्यकि नामके राजाने धीरेसे ( मन्दं ) धर्मराज युधिष्ठिरके पास जाकर घोर संग्राम करनेकी प्रार्थना की थी ॥४२॥
इस प्रकार यह पूरा राजवर्ग अपने ग्राप ही उत्साहपूर्ण होकर पूरेके पूरे संकारको जीतने की इच्छा नाना प्रकारके शस्त्रों को चलाता हुआ मिल करके एकमेक हो गया था | तथा अपने-अपने स्वामीको भक्तिके कारण कामदेव (जरायलके पुत्र 'ई' काम ) के समान भ्रात्मनिर्भर हो गया था [ त्रिभुवनजयी, मनोभव और राजतन्त्र (बन्धन) से मुक्त कामदेव भी, उत्पन्न होते हो दहृथा घासकिके कारण लोकलाज ( श्रपातः ) को छोड़कर मनमानी (आत्मतन्त्र ) करता है ] ॥ ४३ ॥
शरीरके लेपको भी बदके भीतर घुसा शरीरका दूसरा आवरल समझने के कारण उक्त समस्त राजवर्ग तनुत्रको क्यों बारस करता ? क्योंकि इसका मन पहले ही शरणमें श्राये लोगों की कल्पनानें लीन हो गया था ॥ ४४ ॥
तीक्ष्ण धार युक्त तलवारके चलाने के लिए कृत संकल्प और लम्बे अरसे युद्ध के नियमोंके पालक, गुरुके द्वारा उपेक्षित शिष्य के समान राजवर्गको मनमानी करनेकी हिम्मत
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् पुनरपि कथम्भूतः ? कथंचिन्महत्ता कष्टेन गुरुणा उपेक्षितः, क इव ? शिष्य इव, यथोदियाय शिष्यः, कि कम् ? कत्तुम्, किम् ? यथेष्टम्, कथम्भूतः ? उपेक्षितः, फेन ? गुरुणा, कथम् ? कथंचित्, पुनः कयम्भूतः ? नियमेन परिभित कालेन तेन निबद्ध. निरुद्धः पुनस्तोत्रासिधारावतबचित्तः, असिधारेव व्रतम् असिधाराव्रतं तीने असिधारावते बद्ध चित्तं येन स योक्तः ॥ ४५ ॥ .
आस्थायुकः स्यन्दनमन्तरिक्षमापातुकरतोयनिवरशेषः . विपक्षयुद्धान्यभिलापुकोऽयं बेलोधनो ग्राह इबावभासे ॥४६॥
आस्थायुक्त इति--अयम् असो अशेषः समस्तो राजा स्यन्दनं रथम् दास्यायुक अधितिष्ठन् आवभासे शुशुभे, कथम्भुनः ? अन्तरिक्ष गगनम् आपातुक: आपतन्नुत्प्लवमान इत्यर्थः, विपक्षयुद्धानि शरणानि अभिलाकोऽभिल पन्, के इव ? ग्राह इव, यया जलचरनिशेयः, कयम्भूतः ? वेलोद्यतः वेलोच्छलिः, कस्य ? तोनियः समुद्रस्य, कथम्भूनो ग्राहः ? स्यन्दनं प्रबाहम आस्थायुकः पुनः अन्तरिक्षम् आपातुकः पुनः विपक्षयुद्धानि अभिलापुकः ।। ४६ ।।
भ्रमणमात्रेण परस्य भङ्गं ज्याघातमात्रेण नृपाभिधातम् । ते चक्रुरारोपितचापचक्राः स्त्रायासतन्त्र हि जयं निराहुः ॥४७॥
भूभनमात्रेणेति–ते नरेन्द्राः परस्य शत्रोः भङ्ग तेजोभिभवं भूभङ्गमात्रेण चत्रुः कृतवन्तः, मृषाभिभातं राजननं ज्याघातमात्रेण मो/विस्फा रमाय चक्रुः कृतवन्तः । कथम्भूताः ? आरोपितचापचका: कुण्डली कुनश रासनसमूहाः, युक्तमेतत्, हि यस्मात् कारणाग्निरानिर्वदन्ति, के ? विद्वज्जनाः, कम् ? जयन्, कयम्भूतम् ? स्वायासतन्त्रम् आत्मप्रयत्नाधीनमिति ।। ४७ ॥
स्थिते समर्थे सति दक्षिणाङ्गे वामोऽङ्गभावः प्रथमोऽग्रगोऽभूत् ! .
अकल्पभूयोपनतं विनेतुं जन्ये व्यवस्यन्निव जन्यमेपाम् ॥४८|
स्थित इति-एषां राज्ञां वामोऽङ्गभागः प्रथमोऽग्रगोऽभूत. क्व सति ? दक्षिणाङ्गे समर्थे स्थितेऽपि सति, कि कुर्वन्निव ? व्यवस्यन्निब निश्चिम्बग्निक, किम् ? जन्य वामोऽयमिति प्रतिकूलोऽयमिति जनापवाद विनेतु स्फोट यितुम्, क्व ? जन्ये समामे, कध-भूतं जन्यम् ? अल्पभूयोपन्तं न कल्पस्प भायोजकल्पभूयमसंकल्पत्वं तेन प्रवृत्तमिति ।। ४८ ॥ बड़ी मुश्किलसे पड़ी थी [चिरकालसे नियमोंके पालक और अभिधारा अलके लिए अभ्यस्त शिष्यको भी गुल्के द्वारा स्वतन्त्र कर दिये जानेपर भी स्वैराचार करनेकी हिम्मत नहीं पड़ती है] ॥४५॥
रथोंके ऊपर श्रारूद, प्राकाशमें उड़ते हुएके समान तथा ग्रुपक्षसे युद्ध करनेके लिए अत्यन्त उत्सुक यह समस्त राजसमूह, समुद्र के किनारेपर उछलकर आये मगरके समान शोभित हो रहा था [किनारे के पास उभरा मगर भी प्रवाह (स्यन्दन) के विपरीत चढ़ता है और पानी के भार ऐसी छलांग लेता है कि उड़ता-सा प्रतीत होता है ॥ ४६॥
धनुषको पूरा खींचकर आगे बढ़ते हुए इस राजसमूहले अपनी भृकुटिको टेढ़ा करके ही शत्रुको झुका दिया था और धनुषको ओरोकी फटकारफे द्वारा ही शत्रु को मार दिया था। उचित ही है, क्योंकि विजय अपने-अपने पुरुषार्थक ही प्राधीन है ॥ ४७ ॥
युद्धके प्रारम्भ होनेपर शरीरके सबल दक्षिण भागके रहते हुए भी धनुष खींचते समय योद्धानोंका बाँया भाग सबसे पहले प्रागेको ओर निकल आया था। इसपर कवि
1, सुपप्य मान यः।
-
-
.-
.
.
-m
re
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
द्राविनि बाह्वोरुरसः प्रथिनि प्रसर्पति स्याद्यदि शक्रचापम् ।
तदा कृतज्यं तदपि प्रभूणां नाकर्षणस्य प्रभवेदवैमि ॥४६॥
द्राविनीति---अमि जानेऽहं तदपि शक्रचापमपि न प्रभवेत् न समर्थ भवेद वास्य ? प्रभूणामाकर्षणस्य, कथम् ? तदा तस्मिन् काले युद्धामये, यदि चेत् स्यात् किम् ? वाचान् इन्द्रधनुः कथम्भूतम् ? कृतज्यं विहितप्रत्यञ्चम् क्व सति ? बहोः सुअयो: द्रानि सति पुनः किं कुर्वति सति ? प्रसर्पति प्रसरति सति तथा प्रथिनि राति विस्तीर्णत्वं सति काय ? उसो वक्षस इति शेषः १४९ ॥
३०१
पुरः प्रसस्त्रे धनुषा द्विषद्द्भ्यः पलायनं सूचयतेव पश्चात् ।
ज्या जम्मे भुजवीरलक्ष्मीं संवर्धयत्येव जयस्य दिष्टधा ॥ ५०||
पुर इति---पुरा पुरस्तात् धनुवासले प्रत किं कुर्वते ? सूचयत्रेव निवेदयतेव किन् ?
,
पलायनम् केभ्यः ? द्विषस्य त्रुभ्यः कथम् ? पश्चात् तथाऽपजग्मे असृतम् क्या ? ज्या मौर्या, किं कुर्वाणयेव ? संबर्द्धयत्येव वृद्धि नयत्येव काम् ? भुजवीरलक्ष्मीम् कथम् ? दिजोत्सवेन, कस्य ? जयस्येति ॥ ५०॥
तेऽपातयन्मार्गणमेष वाहं सोऽप्यश्ववारं हृदयं निषादी |
नान्योन्यपातानुगतं व्यमुञ्चन् विमार्गसम्पातभियेव बाणाः ॥ ५१ ॥
तं इति--ते नरेद्राः मार्गगं वाणन् अपातयत्, तथा एष मार्गणः वाहन अश्व अपातयत् सोऽपि वाह: अश्ववारम् अपातयद, तथा निषादी अश्वारः हृदयम् अपातयत् तथा न व्यमुन्चन् न तत्यजुः, के ? बाणाः शराः किम् ? अन्योन्यवातानुगतम्, कये ? विमार्गसम्पाभियेवेति शेषः ॥ ५१ ॥
गुणेन मुक्तं गुरुपर्वरितं मुखेन तीचणं प्रतिपक्षयम् ।
मर्माविदेषामिषुजालमायादपारिषद्यस्य तुलां जनस्य ॥ ५२ ॥
गुणेनेति - एषां नरेन्द्राणाम् शुजालं शश्रेणिः अपरारिपचस्य हेमोपदेवविवेक विकलस्य मूर्खस्य जनस्य तुलामायात्, कम्भूतपिजालम् ? गुगेन ज्या मुक्तम् अकृतं पुनः गुरुर्वरिक्तं गुरु च तत्पर्व गुरुपर्व तेन गुरुणा स्पूवन्धिना रिक्तं पुनः मुखे तीक्ष्णं पुनः प्रतिपक्षद्धं पश्चातुच्द्रिवद्धं कल्पना करता है कि बारंबार होनेवाले प्रकल्पनीय अपवाद (क्योंकि यह वाम = उलटा अंग है) का मार्जन करने के लिए ही उसने ऐसा किया था ॥ ४८ ॥
यदि इन्द्रधनुषपर ही ज्या चढ़ा दी जाती तथा वह भुजात्रों को लम्बाईसे भी ज्यादा fear तथा यक्ष:स्थलसे भी अधिक फैलता, तो भी युद्धके उल्लास में समस्त राजवर्ग के खोंचने के लिए वह पर्याप्त न होता ॥ ४६ ॥
शत्रुझोंके द्वारा किये जानेवाले भावी पलायनका संकेत करने के लिए ही योद्धाओंका धनुष, चलाये जानेपर आगेको फेल गया था। विजय शकुन रूपसे ज्या भी पीछेको फैल गयी थी मानो वीरोंकी भुजात्रों की लक्ष्मी ही बढ़ गयी थी ॥ ५० ॥
योद्धा बाराको बरसाते ( गिराते) में बाल पोको गिरा देता था, घोड़ा घुड़सवारको गिरा देता था और घुड़सवार वने हृदयको गिरा देता था। इस प्रकार एक दूसरेको गिराने की परम्परा होने से बोहा लोग दिनार्ग ( विपक्षियोंके मार्ग आकाश) में चले जानेकी श्राशंकासे बाणोंको नहीं छोड़ते थे । [अर्थात् खूब लाद कर बात चला रहे थे ] ॥ ५१ ॥
ज्या (गुर) से छोड़े गये, ज्याकी मोटी गाँठसे दूर अत्यन्त तीक्ष्ण प्रभागयुक्त, पीछे की ओर ( प्रति) पंखे लगाये हुए तथा शत्रुके मर्मस्थलपर श्राघात करते बागों का
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
विसन्धानमहाकाव्यम् पुनः मर्मावित् मर्म विध्यतीति तत्, अपारिषद्यो जनोऽपि कयम्भूतः ? गुणेन शास्त्राभ्यासादिना मुक्तः पुनः गुरुपर्वरिक्तः सूरिपरम्परया हीनः पुनः मुखेन तीक्ष्णः परुषः । शेषं सुगमम् ।।५२।
तान्प्रावृपेश्याम्बुदमासि पांशी मध्ये दृशं रुन्धति शब्दलक्ष्यः ।
शरोऽभिनत्पूगतिथानरातीको वा निषेद्वा भवितव्यतायाः ॥५३॥
तानिति-शरी बाणः तानरातीन अभिनत् भिनत्ति स्म, कयन्सुतान् ? पुतियान पुमानां पूरणाः मतिया: "बहुगगणनव-य लिया स्त्रियोक्तान सङ्घारणान्, कथम्भूतः ? शब्दलक्ष्यः शब्दवेध्यः, क्न सति ? पशिौ रेखो, कि कुर्वति सति ? दृशं दृष्टि रुन्धति सति, आवृगवति सति, क्व ? मध्ये, कथम्भूते पांशी ? प्राकृ याम्बुदभासि प्राधि नवः आवृषेण्यः स चासाबम्बुदश्च तस्येवं भाः सादृश्य यस्य स तस्मिन् मजलजलदसा इत्यर्थः, युनामेतत्, वायवा भवितव्यतायाः प्राप्तव्यतायाः, वो निषेद्धा, अपितु न कोऽपि ।।५३३॥
तथाविधेऽप्युद्यति धूलिजाले नृपा रिपून्यापुरभी यथास्वम् ।
सर्वस्य पूर्वानुभवोऽनुबन्धी को विध्वणन्मुह्यति नक्तमास्ये॥५४॥ तथेति-अमी नृपाः रिपून यथास्वं यथायोग्यं प्रापुः, क्व सति ? तथाविधे ताशेऽपि भूलिकाले उचलि ऊर्ध्वं गच्छति सति, सुक्तमेतत्, नवतं रात्री विष्वणन् भुजानः सन् आस्ये मुखे को मुह्यति भोहं गच्छति अपि तु न मोऽपि, सर्वस्य पूर्वानुभवः पूर्वसंस्कारः अनुबन्धी प्रेरक इति ॥५४॥
सधोभयेषामपि भूपतीनां चित्तात् प्रकोपश्चिरकालरूढः ।
परस्परं भार इवारतीणों जज्ञे लघुर्विश्रमदित्सयेव ।।५५||
तथेनिया तेनैव प्रकारेण उनयेषामपि द्वयेषामपि पतीनां नरेन्द्रःणां चित्तादवतीर्णः प्रकोपो जज्ञे जातः, कत्र ? विश्रमदित्येव विश्रमं दातुमिच्छयेव, कथम् ? परस्परमन्योन्यम्, कथम्भूतः ? चिरकालरूढः पुन. लघुः, क बाबतीगः ? भार इवेति ।।५५ ।
समूह प्रशिष्ट पुरुषको तुलनाको प्राप्त हुआ था। [असंस्कृत मनुष्य भी गुरणों से होन होता है, प्राचार्य (गुरु) परम्परा (पर्व) से शून्य होता है, कठोर वचन बोलता है, विरुद्ध मार्ग (प्रतिपक्ष) में लीन रहता है तथा तत्त्वके रहस्य (मर्म) को नहीं जानता है ] ॥ ५२ ॥
वर्षा ऋतुमें उमड़ते मेघोंके समान धने घले रंग युक्त धूल के छा जानेपर योद्धाओंको प्राँखें अपने प्राय मुंद गयो थीं। तो भी शत्रुकी पायाखको निशाना करके चलाये गये बारणोंने, कुण्ट के कुण्ड मात्रुओंको भेद दिया था। ठोक ही है, भवितव्यताको रोकने में कौन समर्थ है ॥ ५३॥
__उस प्रकारले दूलझा बम्पर छा जानेपर भो ये योमरामा यथायोग्य प्रकारसे अपने-मापने शत्रुको पा जाते थे। अचित ही है क्योंकि सबझा पुराना संस्कार प्रेरक होता है जैसे कि रातको भोजन करनेवाले किसी भी व्यक्तिको अपने मुँहके विषय में धोखा नहीं होता है ॥ ५४॥
दोनों पक्षों के राजाओंके मनमें भारशे समान बहुत समयसे जमा क्रोध इस घोर संप्राममें भी एक दूसरेको नाराम नेको इच्छाले हो उतर गया (बरस पड़ा) था और यह हलका प्रतीत होने लगा था ॥ ५५॥
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः ऋजुस्वभावाददातवृत्ताः स्वनाथनाम्नामिययुः कृताङ्काः ।
तूण मृधोयावनिमन्त्रणाय दूता इवान्योन्यचमू पृपत्काः ॥५६॥
ऋज्यिति-पृषत्काः बाणा: अन्योन्यदमित रेसरसेनाम् अभिय पुरभिगच्छन्ति स्म, कस्म ? मृधोद्यावनिरन्यगाय रणोद्यमनिमन्त्रणाय ना रणोत्सयनिमन्त्रणाय, कथम् ? तूर्णं झटिति, क इव ? दूता इव, कथाभुताः पृपल्लाः ? अददातवृत्ताः अवदातं दृतं येषां ते खण्डिरवृत्तय इत्यर्थः, वः स्मात् ? ऋजु. स्वभावात्. पुनः कयम्भूताः ? कृताशाः विहितचिह्नाः, केन ? स्वनाथ गाम्ना आत्मप्रवभिधानेन, कथम्भूता टूनाः ? अयादाततृताः शुद्धवृत्तयः । अन्यत्समानम् ।.५६ः।
छत्रध्वजानामितरेतरस्य दण्डास्तदावा दिपताधेचन्द्रः। नवप्रिययोद्भभियेव भूपैर्ने तत्यजेऽन्योन्यकृतं वधेऽपि ॥५७।।
छरेहि-तदा त स्मन् काले अर्द्धचौः अर्द्ध चन्द्राकारेः बाणः छनध्वजाना दण्टा अवादिषत, (अबाधिषत) छिनाः, कस्य ? इनरेतरस्य, तथा न तत्पजे न त्यक्तम्, किन् ? अन्योन्यकृतं कर्मव्यतिहारः, क. ? भूपैः, क्त्र सति ? वधेऽपि, कपेव ? नवप्रियत्वोद्धभियेव नूतनप्रेमभङ्ग भयेनेवेति भावः ॥५७ ।
ते सायकाः संयति संनिवृत्य कत्त प्रियाख्यानमपारयन्तः ।
स्वं साहसं पत्युररातिवगैभृत्या इवाख्यन्पतिताः पतद्धिः ॥५८||
त इति--ते मायकाः वाणाः साहसं नार्थ नाहमिति प्रत्ययलक्षणम् अत्यन् निवेदितवन्तः, कयम्भूतम् ? स्त्रमात्मीयम्, कस्य ? पत्युः स्वामिनः, कयम्भूना: सन्त: ? पतिताः, के सार्द्धम् ? अरासिवर्गः, किं कुर्वद्भिः ? पतदिनः, कि कुर्वन्तः ? अपारयन्तः अशक्नुवन्तः, शिम् ? प्रियास्यानं भवतां शत्रयो निपातिता अस्माभिरिति, का? संयति सङ्ग्रामे, कि कृत्वा ? पूर्व सन्निवृत्य व्याघुटध, दव यचा पतदिभररासिवर्गः सहपतिताः स्वं साहसं पत्युरादयन् कृत्याः संयति, कि कुर्वन्तः ? अपारयन्तः, किम् ? प्रियाख्यानम्, किं कृत्वा ? पूर्व सनिवृत्येनि ॥५८11
ध्रु वस्य शौर्यायतनस्य कर्तुं राज्ञा शिलाशासनमिच्छतेर । वक्षः स्वनामाक्षरमागंणाङ्क परोवरस्याक्रियताखिलेन ||५||
ध्रुवस्येति-अक्रियत कृतम्, कि कर्मतापानम् ? बक्षो हृदयम्, कथम्भूतम् ? स्वनामाक्षरमार्गणाका स्वकीयनामाक्षरोपलक्षितशरचिह्नम, केन ? अखिन राज्ञा समस्तेन नरेन्द्रेण, कस्त्र ? परोवरस्य
एक दूसरेको सेनाको युद्धरूपी महोत्सवका निमन्त्रण देनेकी इच्छासे ही उभय पक्षके योद्धायोंके बिलकुल सीधे, बिना चकर लगाये सोधे उड़ते हुए तथा अपने-अपने स्वामीके नागके चिह्नसे युक्त बाण इतके समान तेजीसे चले जा रहे थे ॥ ५६ ॥
___ उभय पक्षके द्वारा चलाये गये अर्धचन्द्राकार बाणोंने एक दूसरेके छत्रों तथा ध्वजानोंके दण्ड भी काट डाले थे। इसी प्रकार नूतन प्रीतिक टूटनेको शंकासे राजामाने मर जानेपर भी एक दूसरे के द्वारा किये गये [प्रहारों] को भी नहीं छोड़ा था [नूतन प्रेमी भी मर-मर करके भी एक दूसरेको नहीं छोड़ते हैं] ॥ ५७॥
युद्धस्थलीमें दिखाये गये अपने साहसके समाधाररूपी प्रिय कथाफो; उक्त प्रकारसे छोड़े गये बारए सेवकों की भांति लौटकर स्वामियोंसे न कह सके थे। क्योंकि जिन्हें वे लगे थे उन्हें मार कर सुढ़ाते हुए शत्रुधों के शरीरों में बिधे, वे बारण भी गिर गये थे। और इस प्रकारसे ही उन्होंने अपनी सफलताको प्रकट किया था ॥ ५८ ॥
१.नाधि-शुष्युपर ।
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
हिसन्धानमहाकाव्यम्
परस्परस्य किं कुर्वतेव ? इच्तेवाभिलषतेव, कि कर्तुम् ? शिलाशासनं शिलोत्कीर्णप्रशस्तिम्, कस्य ? ध्रुवस्य स्थिरस्य शौर्यायतनस्य शौर्यजीवस्य वीरश्री कीर्तनस्येत्यर्थः ॥ ५९ ॥
महीक्षितां दक्षिणबाहुदेशे शरक्षतेऽभूत्क्षतजप्रवाहः ।
वीरश्रयो लाक्षिकपादरागः क्रान्तः श्रमात्प्राप्त इवाभावम् ||६०||
महीक्षितामिति - महीक्षितां राज्ञां दक्षिणवाहुदेशे क्षतजनबाही रक्तप्रवाहः अभूत् संजातः क इवोत्प्रेक्षितः ? वीरश्रियो लाक्षिकपादराम इव लाक्षया रक्तो लाक्षिकः स वासी पादरागश्च लाक्षिकपादरागः, कथम्भूतः ? क्रान्तः संक्रान्तः सन् पुनः श्रमात् आईभवं द्रवत्वं प्राप्तः ||६०३१
नृपास्तिटेषु समुद्रतेषु चित्तेषु रत्नैर्मकरगणैश्च ।
द्विषां निचरूनुर्विशिखान्विरोधावेलाद्रिकूटेष्विव चक्रिणस्ते ॥ ६१ ॥
वृश इति नृपाः विरोधात् द्विषां शत्रूणां तिटेषु मुकुटेषु विशिखान् वाणान् निचतुः निखातवन्तः कथम्भूतेषु ? रत्नमंकरीगणैश्च निचितेषु रचितेषु पुनः समुन्नदेषु क इव ? चक्रिण इव, गया विरोधात् विशिखान् रिपि
राजा
इतीश्वराः केशवतो भवन्तः साधारणं प्राप्य रणं सलज्जाः । यावन्मनः स्थाम पुनः प्रजहुरप्यन्यसाम्यं महतां हि दैन्यम् ॥६२॥
पूर्वसधारणं
इतीति इति ईश्वराः यावन्मनःस्थाम मनोबलं तावत् पुनरपि प्रजह: प्रहरन्ति स्म किं कृत्वा ? नागरावरणं प्राप्य किं कुर्वन्त ईश्वराः ? भवन्तो जयमानाः कस्मात् ? केशवः केशवात् केशवगृह्या इत्यर्यः पुनः सलज्जाः युक्तवत् हि स्फुटं महतां सताम् अन्य साम्यं परोपमां दैन्यं दीनत्वं स्यादिति ||६२||
यावन्निमेषः पतितोऽपि नैकस्तावत्पपातेपुर सावसंख्यः |
न यावदेकः पततीपुरेषां सुताः परेषामपतनशेषाः ॥६३॥
स्थिर योद्धा तथा पराक्रमके भण्डार समस्त योद्धात्रोंने अपने से होन शत्रुनोंके वक्षःस्थलोंको प्रपने-अपने नामके लेखयुक्त वाणोंसे भेद दिया था । मानो अपनी विजयका शिलालेख लगाने की इच्छासे हो उन्होंने ऐसा किया था ॥ ५६ ॥
योद्धा राजाधोंकी दायीं भुजापर बारसका घाव होनेपर उससे रक्त बहने लगा था । यह बहता रक्त भी बड़ा परिश्रम करनेसे प्राये पसीनेसे विद्यले वीरलक्ष्मोके लाखसे रंगे पैरोंके रंग ( श्रालता) के समान शोभित हो रहा था ॥ ६० ॥
रत्नों तथा अनेक कलगियों (मकरी) से भरे हुए शत्रु राजाद्योंके ऊँचे-ऊंचे मुकुटों में योद्धा राजाने पैर के कारण बालोंको उसी तरहसे गाड़ दिया था जिस प्रकारसे चक्रवर्ती तरवर्ती पर्वत के शिखरोंको पार करता है [बेलात्रि भी ऊंचे होते हैं तथा रत्नों और मकरोंसे व्याप्त होते हैं ] ॥ ६१ ॥
श्री नारायणके पक्ष में प्राये प्रधान राजा लोग उक्त प्रकारके साधारण युद्धको करनेके कारण लज्जित थे फलत: इन्होंने अपने मन और तनकी पूरी दृढ़ता और साहसके साथ पुनः घोर प्रहार करना आरम्भ किया था । उचित ही है, क्योंकि दूसरेकी बराबरी करना भी महापुरुषोंके लिए दीनता दिखानेके हो समान है ॥ ६२ ॥
१. निचनुरिति प० ज०
1
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
३०५ यावदिति- एकोऽपि जमेपो वापस परितः साय असंख्यः संपादीतो बाणः (-तीतः असो इषुणिः ) पपात पतितः, एकोऽपोषुर्यावन्न पतति ताददेषां परेषां शत्रूणाम् अशेषाः समस्ताः सूताः सारथयोऽपतन् पतिताः ।।६३।।
हता हया न द्विषतां प्रतापा रथोऽवरुणो न मनोरथोऽभूत् ।
रिथ्ययोगेऽपि महारथत्वं नापत्सु यत्सीदति तद्धि धैर्यम् ।।६४||
हता इति–हया अश्वाः हताः न तु प्रापा हताः, केपाम् ? द्विपता शत्रूणाम्, रथः अवरुग्णो भग्नः मनोरथो भग्नो नामृत्. महारथत्वं महारथित्वं पौरपं जायते महतां द्विषताम्, बव सति ? वैरथ्यपोगेऽपि विनष्टो रयो येषां ते विस्थाः तेषां भावो वैरथ्यं तस्य योगे सति, युक्तमेतत्, आपत्सु सतीषु यन्न सीदति न कलेशाय जायते हि यस्मात्तद्धर्यम् उच्यते इति शेषः ॥६४॥
स्थानतूच्चैः पदतोऽवतेरुश्चापं सपत्ना जगृहुने खेदम् ।
तथा बदानोचितचेतसोऽपि दोषाभिमुख्येन गुणं निजघ्नुः ॥६॥
रथादिति-सपत्नाः शत्रवः रथादवतेरुरवतीर्णाः उच्चैः पदतः जनप्रशंसास्पदी भूताद्भुवनभ्रमणशोलात् यशसो नावते रः, तथा सपना: चापं धनुः जगृहुः गृहीतवन्तः नतु खेदं दैन्यम् तथा गुणं शौर्य 'सौण्डीर्यादिलक्षणं निजन्नुः निहतवन्तः, केन ? दोषाभिमुख्येनानीतितत्परतया, कथम्भूताः सन्तोऽपि ? अवदानोचितचेतसोऽपि अवदानं त्यागशौर्यान्यां विस्यातत्वम्, अवदाने उचितं योग्यं चेतो येषां ते नयोक्ताः, पोति विरुद्ध परिहियते, निजघ्नुः आस्फालयन्ति स्म, के ? ते सपत्नाः, कम् ? गुणं मौर्वीम्, केन ? दोषाभि मुख्येन दोषोर्भुजयोराभिमुल्यं प्रधानता देन, कथम्भूताः अपि ? अवदानोचितचेतसोऽपि अवदानस्य खण्डनस्योचितं चेती येषां ते तश्रोक्ताः ।। ६५।।
उल्काशरं शक्रधनुस्तडिज्ज्यं धना दधाना इव तत्कचित् । अधिज्पचापाः शरजालमुग्रं ते लोहितापक्रममभ्यमुञ्चन् ।॥६६॥
A
awana
जितने समयमें एक बार पलक भी नहीं झपते हैं उतनी देरमें मुख्य नायकने असंख्यात बारमोंकी वर्षा कर दी थी। जबतक इनका एक बाग जाके गिरता तबतक शत्रु राजाओं के सारथि प्रादि सबके सब ढेर हो जाते थे ॥ ६३ ॥
शत्रु राजाओंके घोड़े मारे गये थे किन्तु प्रताप तब भी बाकी था। केवल रथ हो खण्डित हुए थे मनोरथ ज्योंफे त्यों थे। और रथहीन होकर पैदल लड़ रहे थे तथापि महारथी कहलाते थे । वास्तवमें धीरज वही है जो घोर विपत्तिमें भी नष्ट न हो ॥ ६४ ॥
शत्रु राजा रथ टूट जानेपर रथसे उतर गये थे किन्तु उच्च पदकी मर्यादासे भ्रष्ट नहीं हुए थे । ऐसा होनेपर भी उसने धनुषको ही पकड़ा था खेवको नहीं। इस प्रकारसे त्याग तथा शौर्यमय चित्त होनेपर भी इन्होंने दोषोंमें लीन होकर अपने ही गुणोंको कैसे नष्ट कर दिया था यही प्राश्चर्य है ? [शत्रुनोंके काटने (पवदात) के अनुकूल (उचित) मनोवृत्ति के कारण (चेतसा) भुजाओं (दोष) के बलको प्रधानतासे अपने धनुषको मौवीं (गुण) को बार-बार फटकार रहे थे] अर्थात् भुजाओं (दोषों) में फंसाकर जीवा (धनुषको डोरी) को नष्ट कर दिया था ॥६५॥
*. स्पदीभूतलक्षणादभुवः-१० | २. सौण्डीय-गाम्भीर्यादि लक्षणम्-प० ज० ।
३९
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६
द्विसन्धानमहाकाव्यम् उल्केति-ते सपत्नाः शरजालं बाणसंहत्तिम् अभ्यमुञ्चन् शत्रु लक्षीकृत्य मुक्तवन्तः, कथम्भूताः सन्तः ? अधिज्यचापाः आरोपितशरासनाः, कथम्भूतं, शरजालम् ? उग्र सोढुमशक्यं पुनः लोहितापक्रम लोहमस्यास्तीति लोही, लोहिनो भावो लोहिता तस्या अपक्रमो यत्र तत् अथवा लोहितम्यापनमो यत्र तत् कथम् ? कचिन्महता कष्टेन, के इवाम्पमुञ्चन् ? धना इव मेघा यथा, किम् ? शरजालं जलमहम्, कथम्भूतम् ? उग्र तीव्र पुनः लोहितापक्रमम्, कि कुर्वाणाः? दधानाः घरन्त:, किम् ? शऋधनुः इन्द्रचापम्, कथम्भूतम् ? उल्काशरम उन्कैब शरो यत्र तत् तथोक्तमः पुनः तडिजन्य तडिदेव ज्या यत्र तत् ।। ६६ ।।
ते रोपणैरायतार्कभासस्तत्पादघाताविनयधेव । चिनश्चमूनां निहतैनिपेते भियोत्तरीयैरिव दिग्वधूनाम् ॥६७!!
त इति–ते नरेन्द्राः रोपणः बाणैः अर्कभासः सूर्यदीप्तीः आबुधत आच्छादिक्षवन्तः, बायेव ? तत्यादघातादिन यत्रेय तस्य सूर्यस्य पादाः तत्पादाः तत्तादानां घाता तत्पादघाता: तेभ्यो योऽबिनयः तस्मात् या अत् क्रोधस्तयेव, तथा निपेते निपतितम्. कै: ? बिह: ध्वजैः, कायाम् ? चमूनां शेनानाम्, पथम्भूतः ? रोपणनिहतः, कैरिव ? दिग्बना दिगङ्गनाना भिया भयेन उत्तरोथैरिव ।६७।।
तैरुत्तरङ्गाकुलितास्तुरङ्गा चातैः प्रवाहा इव वारिराशेः । स्थाश्च नुन्नाः परतोऽपसस्त्रः स्वं मन्यमाना इव दुनिमित्तम् ॥६॥
रिति--तुरङ्गाः अश्वाः परतः पश्चात् तैः सपत्नैः रोपणः नुन्नाः प्रेरता: मन्तः अपसस्त्र : अपसृतवन्तः, कयम्भूता.? उत्तरङ्गाकुलिताः उत्तरङ्गः पलायनं तेन आकुलिताः, के इव ? वारिराशेः समुनस्य प्रवाहा इव, कयम्भूताः बातेमाः, तथा रथा: परतः पश्चात अपसनः, कथम्भुलाः ? सपरनैर्नन्नाः पुनः स्वमात्मानं दुनिमित्तमिव मन्यमानाः ।।६८।।
हतः करेणुः पतितः पदातिभग्नो वरूथः शिबिरं निरस्तम् ।
भुवोऽभवद्विश्वममङ्गलोत्थं मारो निरुन्धभिव भूमिकम्पम् ॥६६॥
हत इलि-करेणुः हस्ती हतः, पदातिः भृत्यः पतितः, रथायरूपो २थगुसिग्नः, तथा शिबिरं सेना निवेशः निरस्तं नष्टम्. तथा भुवो भूभेः भारोऽभवत्, कि कुर्वनिय ? दिव्यं समरतम् अमङ्गलोत्थं भूमिऋम्पं निरून्निव निषेत्रग्निव ।।६९॥
शत्रुराजा अपने अपने धनुषकी डोरोको बड़ाकर लोहेकी शुद्धा (लोहिता) में सन्देह न होने के कारण अत्यन्त तीक्ष्ण और भयानक बालों को कैसे हो बरसा रहे थे जैसे इन्द्रधनुश्पर-से वजलपी याणको बिजलीको चमकरूपो ज्याफो धारण करनेवाले मेघ प्राकार (लोहित ) से गिरती उग्र जल [शर] धारको पृथ्वीपर छोड़ते हैं ।। ६६॥
उन्होंने अपने बारगोंकी बौछारसे सूर्य के प्रकाशको भी ढक दिया था क्योंकि उस (स्यं) के पैर (पाद किरण) लगनेके अपमानसे उन्हें नोच आ गया था। माशोंके द्वारा पाटे गये विविध सेनाओं के चिह्न (ध्वमाएं) भी ऐसे गिर पड़े थे जैसे भयके कारण दिशाओंरूपी बहुओंके उत्तरीय वस्त्र हो खिसक रहे हों ॥६॥
उक्त प्रकारसे बरसते शत्रुओंके बारणोंके द्वारा धारों फोरसे सताये गये दूसरी सेनाके घोड़े तथा रथ इनको अपने बुरेके पूर्वचिह्न समझकर वैसे ही भाग लिये थे जैसे प्राधीके आनेपर उडी लहरोले व्यान समुद्र की जलराशि किनारेसे टकरा कर लौटती है ॥६॥
हायी मर रहे थे, पदाति घड़ाधड़ गिर रहे थे, रय-रक्षक टूट गये थे और सेनाके शिविर उखड़ गये थे। इस प्रकार के प्रमंगलसे उत्पन्न सर्वव्यापी भूकम्पको रोकते हुएक समान सारा संसार हो गया था ॥६६॥
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोडशः सर्गः
ध्वनत्सु तूर्येषु शिवाङ्गनासु भेजे समङ्गस्यरवोद्यतासु ।
सशोणिता भूः परिणीयमाना कन्याऽभिषिक्तेव कषायतोयैः ॥७०॥
ध्वन सिसि– भूमिः भेजे रराज, केषु सत्सु ? तुषुवाचे ध्वनत्सुषुपिया शिवाङ्गनासु शृगाली गत्यरवोद्यतासु, गलस्यायं गल्यः स वासी रवस्तस्मिन्नुद्यतासु कथम् ? समं युगपत् कथम्भूता भूः ? यति सरलता के भेजे ? परिणीयमाना कन्येव कथम्भूता कन्या ? वषायतो: अभिषिचता के सत्सु ? तूप घ्वत्सु तथा शिवाङ्गनासु सभर्तृकासु कामिनी समङ्गस्वरवोद्यतासु मङ्गलमर्हति मङ्गल्यः स चासो खप्तेन सह वर्तमानं यत् कर्म तस्मिन्नुयतासु ॥७०॥
३०७
इत्युद्यतं राजकमन्यपक्षं प्रत्युद्ययास्कमुपेन्द्रगृह्यम् । स्वयन्तं सदनेऽमिमित्रं रणेऽम्पमित्रीण मुदारमाहुः ॥ ७१ ॥
इतीति वेन्द्रशृह्यं राजकं नारायणपक्षीयो नरेन्द्रसमूहः उद्यतं अन्यपक्षं प्रति उत्कन् उत्कण्ठितं सत् इति उक्तप्रकारेण उद्ययो उद्गम् युक्तमेतत् श्राहन्ति के ? सूरयः, कम् ? अभ्यमिश्रणं कि मनुष् ब्रुवन्ति ? अभिमित्रं हायस् क ? रखे सङ्ग्रामे कथम्भूतम् ? उदारम् किं कुर्वाणं सन्तम् ? स्वमात्मानं सदने गृहेऽर्पयन्तम् ।।७१।
स्वं पूर्वकार्य प्रविशद्भिरश्वैरमुक्तमार्गे रथकर्मभारैः | कृच्छात् कृताधैरिव जन्यभूमिः ॥ ७२ ॥
अतारि तिर्यङ्नरको
स्वमिति -- स्वमात्मीयं पूर्वकायमः ङ्गं प्रविशद्भिरश्वैर्वाजिभिः जन्यभूमिः सग्राममेदिनी अतारि अवतीर्णा कथम्भूतैः ? अगुक्तमार्गेः अत्यसंचरेः पुनः रथकर्मभारेः रकमंत्र भारो येषां तैः कपयारि ? कृच्छ्रात्, निर्मक, कथम्? सिक्कुच्छ्र । दित्यव्ययं विभक्तिप्रतिरूपकम् कष्टेन कथन्ता ? रोपयद्धा नराणां यः कोरः तेन बद्धा, कैरिवावारि ? कृतापैरिव विहितपापैः प्राणिभिर्यथा जन्यभूमिः कृच्छादुत्तो कथम्भूता ? निर्यनरकोपबद्धा विर्यचश्च नरकाश्च निर्यडनरकास्तैरुरबद्धा, कथम्भूतैः ? कृताद्यैः प्राणिभिः ? अमुक्तमगैः त्यक्ततम्य दर्शनज्ञानचारिवलक्षणपथिभिरथाथवा किं कुर्वद्भिरिव ? स्वमात्मीयं पूर्वकार्य अनेक प्रयोज्यलक्षणं शरीरं कर्मभारे फर्मसमूहैः प्रविशद्भिः ||७२||
रक्तरंजित युद्धभूमि रंगीन पानीसे नहलायी गयी और परियके लिए तैयार कन्या के समान लगती थी। क्योंकि रामेरियां बज रही थीं, इसके साथ-साथ विधारियोंके गलेसे (पत्र) 'हुथ' की तान लग रही थी [ महावर आदि श्रृंगारसे सज्जित कन्याके विवाह भी बाजे बजते हैं तथा सौभाग्यवती (शिवा) नारियाँ ( अंगना ) उत्साह के साथ मंगल गीत गाती हैं ॥ ७० ॥
राजा लोग दालहर
उपेन्द्र श्री लक्ष्ण अथवा श्रीकृष्ण के पक्ष के क्योंकि वे लड़ाईके लिए उत्सुक तथा तैयार भी थे। राजभवनमें सर्वदा सिके श्रागे-पीछे चलनेवाले (अभि-मित्र) और रानें अपनेको बलिदान करके भी शत्रुनों पर टूट पड़नेवालों (श्रम अभित्री) को हो, वास्तव उदार कहा जाता है ॥७९॥ रयोंके सबके भारसे दुहरे तथा अपने रास्ते को पकड़े जाते-जाते शरीरके अगले भागको तिरछे-तिरछे शत्रुसेना में पेड़ते हुए घोड़ोंने घोर पाषियोंके समान बड़े पटले बुद्धभूमिको पार किया था क्योंकि योद्धाओंके क्रोधके कारण इसमें बाधाएं ही बाबाएं थीं ( नर-कोप- बद्धा ) [ मोनाले विबुल, कर्मोके बन्धन से लदे और अपने-अपने पूर्वोत शरीरीको धारण करते हुए पापी जीव भी मोक्षके मार्ग सम्यक् दर्शन -ज्ञान-वारित्रको न
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् रथान्वसावेशविवृत्तचक्रान् रथ्याः सुखेनाचकृपुस्तुरङ्गाः।
सारथ्यभीषुभ्रमणानुकूलमाकृष्यते स्नेहवशेन सर्वेः ।।७३।।
रथेति-तुरङ्गा: सा. साषु प्रम खायर श्रमणानुकूलं यथासुखेन कृत्वा वसावेशविवृत्तचक्रान् वसा शरीरस्नेह ? तदावेशेन विवृत्तानि भ्रमणशीलानि चक्राणि येषां तान् रथान् आचकृपुरावन्तः, कयम्भूतास्तुरङ्गाः ? रथ्याः रथं वहन्तीति रथ्याः, युस्तमेतत्, सर्बो जनः स्नेह्यशेनाकृष्यते ।। ७३ ।।
ततोऽभ्यमित्रीयमिदं गरीयो राजन्यकं व्यातत धर्मलोपम् ।
गुणच्छिदापूर्वसरं परेप क्रोधाकुलानामविधिः कुतो वा ॥७॥
तत इति-ततो हस्त्यश्वरथक्षोभव्यावर्णनानन्तरम् इदं राजन्यकं राजयुत्रसमूहः धर्मलोपं दयाप्रधानस्य दूतस्य नाशं चापलोपं च भारत तनोति स्म, केषाम् ? परेषां शश्रूणाम्, कयम्भूतं धर्मलोपम् ? गुणच्छिदापूर्वसरम् औदार्यादिगुणच्छेदनानेसरं ज्यानाशपुर.सरं च, कथम्भूतं राजन्यकम् ? अभ्यमिश्रीयं शत्रुमभिलक्षीकृत्य स्थितं पुनः गरीयो गरिष्ठम्, युक्तामेतत्, वा शब्दोऽत्र संभावनाया विभाव्यते, तेनायमर्थः; क्रोधाकुलानामपि अविधिः कुतः स्यात्, अपितु विधिरेव स्यात् ।।७४।।
विद्यानवद्यैः कवचानि शस्त्रेस्तेन द्विधाभित्सत शात्रवस्य ।
सहस्रशः सन्तमसानि तीनिशीथस्य विवस्वतेव ॥७॥ विद्येति--तेन राजन्य न शस्त्रः तोमरकुन्तादिभिः शात्रवस्य शत्रुसमूहस्य कवत्रानि सन्ननानि अभित्सत भिन्नानि, कथम् ? द्विधा द्विखण्इं यथा भवति, कथम्भूतस्य ? सहस्रशः सहनसंख्यस्य शात्रवस्ये. त्यर्थः, कथम्भूतैः शस्त्रः ? विद्यानयद्यैः धनुविद्या पूर्तः, इव शब्दोऽत्रोपमार्थो दोशष्यः, केन के: कानोव ? विवस्वता सूर्ये तीवः सोम शक्यैः उौः किरणैः निशीथस्य रात्र: सन्तमसानि घतान्धकाराणीव ।।७५३
छोड़कर (अमुक्त) तिर्यत्र, नरक आदि दुस्तर गतियोंसे व्याप्त चौरासी लाख योनियोंसे (जन्य-भूमि) बड़ा तप करके ही पार पाते हैं ॥७२॥
रयोंमें जुते घोड़े सारथिको चाबुक जिधर जाती थी उधर ही उत्साहके साथ रथोंको खींच रहे थे। रयोंके पहिये , भी चर्बीका प्रोगन लगे रहनेके कारण हलके चलते थे। घोड़ों और पहियोंकी यह अनुकूलता भी ठीक थी क्योंकि स्नेहपाशमें पड़कर सभी खिचते पाते हैं ॥७३॥
उक्त प्रकारसे हस्ति अश्व-रथ सेनाके संघर्षके बाद शत्रुओंको लक्ष्य करके बड़ते हुए महान् राजकुमारोंने शत्रुनोंके व्रत-नियमादि गुणोंको खण्डित फरके उनको धर्मभ्रष्ट कर दिया था [अर्थात् ज्याको काटकर उनके धनुष (धर्म) को भी समाप्त कर दिया था ठीक ही है, क्योंकि कोषसे पागल लोगोंके लिए कुछ भी अकरणीय नहीं होता है ? अपितु वे सभी कर डालते हैं ।।७४॥
शस्त्रविद्याकी दृष्टिसे सर्वगुण सम्पन्न अपने शस्त्रोंको मारसे इन राजपुत्रोंने हजारों शत्रु राजाओंके कवचोंको उसी तरह टूक-टूक कर दिया था जैसे सूर्य अपनी तीक्ष्ण किरणोंके द्वारा रात्रिके गाढ़ अन्धकारको नष्ट कर देता है ॥७॥
१. मज्जेति तदावेशेन लेपनति । २. -मवधिरिति सुप्लुतरः पाठः । अयधि:--कार्याकार्य विधक इति । ३. धर्मस्य धनुष्काण्डस्येति ।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
करीव सोऽपानमुखच्छदोऽयं व्यपोढवर्मा युधि वैरिवर्गः । पतन्गृहीतासिररोधि बाणैर्नयैर्विनीपात इवावनीशैः ॥७६॥
३०६
करीवेति — सोऽयं वैरिवर्गः शत्रुसमूहः अवनीशैः भूपैः कर्तृभिः बाणः कृत्वा युधि सङ्ग्रामे अरोधि रुद्धः, कथम्भूतः व्यपोढवर्मा मुक्तकवचः पुनः अपात्तमुखच्छदः परित्यक्तमुखप्रच्छादनपटः क इव ? हस्तीव किं कुर्वन् ? पवन अवसंसमानः पुनः गृहीतासि स्वीकृतखड्गः क इव अरोधि वैरिवर्गः ? विनीपात वदुर्नय इव सन्निपात इत्यर्थः कः ? नयेः सामादिभिरिति ॥ ७६ ॥ निहत्य निख्रिगति तदीयां घृतः कथंचिन्नृपतिव्रजेन । प्रभावशास्त्रप्रयलेन तेन शमेन रागादिरिवारिसंघः ॥७७॥
7
निहत्येति — तेन नृपतिव्रजेन नरेन्द्रव्यूहेन कथम् ? कथंचिन्महता कष्टेन किं कृत्वा ? पूर्व निस्त्रिंशति खङ्गव्यापारं निहत्य कथम्भूताम् ? तदीयां शत्रुसम्बन्धिनीम् कथम्भूतेन नृपतियजेन ? प्रभावशास्त्रप्रवलेन प्रभावम् अस्त्रम् यस्य तत् प्रभावशास्त्रं दीप्त्यायत्तशस्त्रम् प्रकृष्टं बलं प्रबलम् प्रभावशास्त्रं प्रबलं यस्य तेन क इव धतः ? रामादिरिख, केन ? शमेन किं कृत्वा ? पूर्व निहत्य, काम् ? निस्त्रिशति निर्दयप्रवृत्तिम् कथम्भूताम् ? तदीयां रागादिसंबन्धिनीम्, कथम्भूतेन शमेन ? प्रभावशास्त्र जलेन प्रकृट भावो यस् तत् प्रभावं प्रभावं च तत् शास्त्रं च प्रभावशास्त्रम् तस्मात् प्रकृष्ट बलं यस्य स तयोक्तस्तेन कथम् ? कथंचित् ॥७७॥ ॥
7
अभूम शौर्यस्य पदं रणेऽस्मिन्नधाम धैर्य प्रथितं वयं तत् । अस्थामयुक्ता इति भूमिपानां समु (मो) ह्यते स्म द्वितयेन युद्धम् ॥७८॥
अभूमेति - समु (मो) ह्यले स्म मोहं दीयते स्म किम् ? युद्धम्, केन कर्ता ? द्वितयेन, केषाम् ? भूमिपानां नरेन्द्राणान्, कथम् ? इति कृत्वा दृश्यते यत: कारणात् वयमस्थामयुक्ता असामर्थ्य समन्विताः अभूम संजाताः तत्तस्मात् कारणात् प्रथितम् किम् ? धैर्यम् कथम्भूतम् ? पदं स्थानम् कस्य ? शौर्यस्थ, क्व ? अस्मिन् रणे सङ्ग्रामे न प्रयितम् न कीर्तितम् किम् ? धाम प्रतापलक्षणं तेजः, कथम्भूतं घाम, कस्य ? शौर्यस्थ, कथम्भूतं सत् अभूम ? स्तोकमिति शेषः ।
अथ भारतीय:-- समु (मो) ह्यते स्म सम्यक्प्रकारेण विद्यते स्म किम् ? युद्धम् केन ? भूमिपानां द्विश्येत कथम् ? इति कृत्वा दर्शयति- उत् कारणात् अस्याम स्थितवन्तः के ? वयम् कथम्भूताः सन्तः ? मुखके प्रावरण ( झिलमिली ) को उतारे, कवचहीन, तथा तलवार हाथमें लिये, लिये हो लुड़कते अतएव हाथो के समान गिरते हुए शत्रु राजानोंके समूहको दूसरे पक्ष के राजाश्रोंके बाणों द्वारा वैसे ही रोका गया था जैसे नीतिके श्राश्रयसे घोर पतन रोका जाता है ॥७६॥
दीप्ति, नियन्त्रण तथा शास्त्र ( प्रभावश प्रस्त्र ) को दृष्टिसे सर्वथा उत्कृष्ट राजाओं के समूहने प्रशमके समान शत्रुओंकी तलवारको गतिको मिटा करके किसी तरह वैसे बन्दी बना लिया था जैसे प्रशम राग-द्वेष, आदिको वशमें कर लेता है [प्रशम भी उत्कृष्ट निर्मल भावों तथा शास्त्र ( प्रभाव - शाख) ज्ञानके द्वारा पुष्ट होकर रागादिको कठोर प्रवृत्तिको रोक लेता है ] ॥७७॥
| क्योंकि उनके इस राम-रावण युद्धमें लड़ते हुए राजाओंों के युगल मूच्छित हो गये मनमें यह भाव श्राया था -- हममें दुर्बलता या अस्थिरता ( अस्थाम) आ गयी यो फलतः शूरता के मूल को हम प्रकट न कर सके और न प्रचुर (प्रसून) तेजका हो प्रदर्शन कर
१. प्रमादीतिः वर्ध नियन्त्रणम् अस्त्रं च तेषु नचलेन बलवत्तरेण नृपतिबजेनेति ।
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
युक्ता: मिलिताः, यतो यस्मात् कारणात् अभूम संजाताः, के ? वयम्, किम् ? पदम्, कस्य ? शौर्यस्य, तथा अधाम धृतवन्तः, के ? वयम्, किम् ? धैर्यम्, क्व ? अस्मिन् रणे, कथम्भूतं धैर्यम् ? प्रथितं विख्यातम् ॥७८॥
विभ्रत्सदाशाननिरूढदीप्ति गन्धारकोऽसि पतितोऽधिकधिः ।
समारुतिः किनरराजवन्द्यो जातोऽत्र भीमोहननाददूरः ।।७६।। ( चतुरर्थः ) विभ्रदिति-किं न रराज अपितु रराजव, फोऽसो ? स दाशाननिः अक्षयकुमारः अथवा मेवनादाभिधानो रावणपुत्रः, कथम्भूतः सन् ? गान्धारक: पृधिव्या मत्तत्यर्थः, पुनः कथम्भूतः ?
आगतः, कि कुर्वन ? ऊददीति धृतले जसम् असि खडं बिभ्रत दधानः, कथम्भूत: ? अधिकद्धिः
द्धिः पनः स मारतिः मया प्रारोनोपलक्षिता रुतिहितिः सह मारुत्या वर्तमानः, सप्राणध्वनि रित्यर्थः, पुनः बन्ध प्रशस्यः तथा जातः, कथम्भूतः ? भीमोहननाददूरः भियो भयात् मोहन मोहो यस्य स भीमोहनः भीमोहनश्वासी नादश्च भीमोहननाद: तस्माद् दूरः भयमोहध्यनिजितः, क्व ? अत्र रणे इत्येक पक्षः, तथा कि न रराज, अपि तु रराजेव, स मारुरि हनूमान्, किं कुर्वन् ? असि खङ्गं विभ्रत्, कयम्भूतम् असिम् ? शाननिरुव:प्ति शाणनिशितकान्तिम्, कथम् ? सदा सर्वकालम्, कथम्भूतः सन् ? पतित: गतः स्थित इत्यर्थः, अब ? अत्र रणे, तयाचारको परिष्यति, कोऽसौ ? समारुतिः, काम् ? गां पृथिवीम्, कथम्भूतः ? अधिवादिः, अन्यत् समम्, द्वितीयोऽर्थः ।
भय भारतीयो पक्षो-किन रराज अपितु रराजैव, कोऽसौ ? गान्धारको दुर्योधनः, किंभूतः ? असि मण्डला बिभ्रत, कयम्भूतः ? समारुतिः समानध्वनिः, अन्वत् समम्. जातः, कोऽसौ ? गान्धारकः, कयम्भूतः ? भीमोहननाददूरः, अत्र रणे तृतीयोऽर्थः । कि जातः अपितु न जाता, कोऽसो ? भीमो कोदरः, कयम्भूतः ? अदूरो निकटः, कस्मात् ? हननात् हतेः शत्रूणां हननं विहाय कार्यान्तरे तत्सरो जात इत्यर्थः, व ? अत्र रणे, कथम्भूतो न रराज ? बायः नरेन्द्राणां पूज्यः, अथवा नरराजस्यार्जुनस्य बन्द्य:, कथम्तः ? समारुतिः समेषु सर्वेषु प्राणिषु आरतिरभयध्वनिर्यस्य स तथोक्तः पुनः अधिकार्द्धिः अधिका ऋद्धिर्यस्य सः, कस्मात् ? पतितः स्वामिनो युधिष्ठिरात्, कथम्भूतः ? असि विभ्रत् धरन्, कथम्भूतम् असिम् ? सदाजाननिरूददीप्ति दाशा मृत्याः, आनः प्राणनम् आश्वासनमित्यर्थः, दाशानान् आनः दाशानः, सह दाशानेन वर्तन्ते सदाशाना निरूढा चासो दीप्निश्च निहलमोतिरुत्तेजिनकान्तिः सदाशाना
सके [इस कौरव-पाण्डव युद्ध में युद्धलीन उभय पक्षके राजाओंने भलीभांति (सम्यक् ) यह तर्क किया था (उह्यते स्म) कि हम पराक्रमके भागी हुए हैं (अभूम-क्रिया), लोकोत्तर (प्रथित) धैर्यको धारण किया है (प्रथाम) और मिलकर(युक्ताः) डटे रहे हैं (अस्थाम)॥८॥
१-इस राम-रावण युद्ध में अत्यन्त चमचमाती तलवारको लेकर कूद पड़ा वह दशानन का पुत्र (स दाशाननिः) प्रक्षयकुमार (मेघनाद) वश सुशोभित नहीं हुमा था ? अपि तु हुन्मा ही था क्योंकि वह पृथ्वी (i) का पालक (धारक) था, समृद्धिशाली था, उसको ध्वनि (रुतिः) प्रारष (मा) पूर्ण थो, तथा उसके हुंकार (नाद) में भय भी और मूर्छा (मोहन) का लेश भी न होनेसे (दूर) वह सबके लिए प्रशंसनीय था।
२-इस युद्ध में विद्याधरों (किन्नरों) के राजाओं द्वारा बन्दनीय वह पवनसुत (मारुतिः) खराद (शान) पर चढ़ाये जानेके कारण चमकती तलवारको लिये रहने के कारण अत्यन्त भयंकर (भीमः) और शत्रुसंहार (हनन) में लीन हो गया था। क्योंकि वह पृथ्वी (गां) को धारण करनेवाला (धारकः) था तथा अपने स्वामी (पतितः) से भी अधिक शक्तिशाली था।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
षोडशः सर्गः
३११
?
निरुदीतिर्यस्य स तथोक्तः उत्तेजितदीति खङ्गं विलोक्य यस्य दाशानां प्राणनमभूदित्यर्थः किं कर्तुम् ? धारक: घर्तुम्, काम ? गां पृथ्वीम् अथवा अह कष्टं ननाद जगर्ज, कोऽसौ ? भीमः कथम्भूतः दुरः दुष्टनिः, अत एव जातः, सोज्यौ ? भीमः कथम्भूतः ? स भारतिः समेषां सर्वेषां शत्रूणाम् मतिः आलापी यस्मात् सः क्व ? अत्र सङ्ग्रामे पुनः किन्नरराजानां प्रधानगन्धर्वाणां वन्द्यः स्तुत्य इति
७९॥
परेsपि ये विधृता नरेन्द्राः 'कैर्नावबुद्धं युधि नाम तेषाम् ।
यः कोऽपि दिग्देशकुलप्रमाणं वैवैक्ति राज्ञोऽपि परं स वेत्ति ||८०||
परे इति परेऽपि अन्येऽपि ये नरेन्द्राः यै: नरेन्द्रः विवृताः कस्याम् । युधि सङ्ग्रामे तेषां नरेन्द्राणां नाम केनावद्धम् अबगलम् अपितु न केनापि यः कोऽपि वैवेक्ति जानाति किम् ? दिग्देश कुलप्रमाणं दिशः पूर्वादयः देशा अङ्गकलिङ्गादयः, कुलानि इक्ष्वाकुसूर्यादीनां वंशाः दिशश्च देशाश्च कुलानि च तानि तथोक्तानि तेषां प्रमाणं तत् तथोक्तं परं केवलं वेत्ति कोऽसो ? सोऽपि पुरुषः कान् ? राज्ञो नरेन्द्रान् इति ॥८०॥
आपृच्छमाना इव नादयच्चानिरोद्धुकामा इव विप्रयोगात् ।
सोच्छ्वास कैरुच्छ्वसतां प्रियाणां प्राणा नृणां कण्ठगता बभूवुः ॥८१॥
?
आपृच्छमाना इति-नृणां प्रारणा असवः कण्ठगता गलस्थिता बभ्रुदुः संजाताः, कि कुर्वतां सताम् उच्छ्रयताम् कैः ? सोच्छ्वासकैः किविशिष्टा इवोत्प्रेक्ष्यन्ते ? आपुच्छमाना इव । प्रश्नं कुर्वाणा इव कस्मात् ? नादवस्वान्, कि विशिष्टा इव ? निरोद्धकामा इव निरोद्धमनस इव कस्मात् ? विप्रयोगात्, कासा ? प्रियाणां कामिनीनाम् ॥८१॥
३- शानदर चढ़ाकर सदैव चमकायी गयी तलवारको लेकर भारतमें कूदा ( अत्र पतितः ) गान्धारोका पुत्र दुर्योधन असीम विभूतिफा स्वामी होकर भी, समस्त प्राणियोंको रुलाकर ( श्रारुतिः) भी किन्नरों और राजाओंके द्वारा वन्दनीय होकर भी तथा अत्यन्त रुद्र (भीम) होकर भी क्या मृत्यु ( हनन ) के निकट ( श्रदूर) नहीं आया था ( जातः) । श्रर्थात् मारा हो गया था ।
४- सज्जनों (सतां ) की आशा और जीवन के द्वारा अपनी शोभाको बढ़ाती हुई पृथ्वीका (ii) पालक, वायुप्रधान ( मारुतिः) प्रर्थात् स्थूल और प्रभु धर्मराज से भी अधिक शक्तिशाली भोम तलवारको लेकर क्या मनुष्योंके राजाओं अथवा अर्जुनका भी पूज्य नहीं हुआ था । हर्ष है ( श्रह ) कि इस रामें कर्कश ध्वनिवाला यह भौम भी गरज पड़ा
धा ॥७६॥
इस में एक पक्ष के राजाओं द्वारा जो दूसरे राजा घेरे या मारे गये थे उनके नामको किसने जाना है । जो कोई इन राजाओं की विशा, अंग, वंगाकि देश और इक्ष्वाकु, पौरवादि वंशको भी जानता है वह ही बहुत जानता है क्योंकि अनगिनत राजाओोंके नामग्रान जानता असम्भव है ॥८०॥
लम्बी-लम्बी साँसें लेकर हाँफते हुए योद्धाओं के प्राण गलेमें प्राकर अटक गये थे । 'घर-घर' नाद के बहानेसे वे प्रशन करने के समान प्रतीत होते थे तथा अपनी-अपनी प्रियतtafat fasी कल्पनासे मानो प्रायोंको रोकनेका हो प्रयत्न कर रहे थे ॥ ५१ ॥
१. नावम् इति टीकासम्मतः पाठः |
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् असृग्वसामांसरसेन भम्ना मस्तिष्कमुन्मग्नकपालशल्कम् ।
आस्वाद्य तदाधिककल्पमल्पा लेभे रुचिभग्नमुखैः पिशाचैः ॥२॥
असृगिति-पिशाचैः अल्पा स्तोका रुचिः लेभे प्राप्ता, किं कृत्वा ? पूर्वमास्वाद्यालि ह्य, किम् ? तम्भस्तिष्क शिरोभेदः, कथम्भूतम् ? उन्मग्नकपालशल्क उम्मन्न कपाल शल्क येन तत्तथोक्त संभृतकपालखण्डमित्यर्थः, पुनः दाधिककल्पं दना संस्कृतं वस्तु दाधिकम, ईषसिद्धि दाधिकं दाधिककल्पं दाधिकसहशमित्यर्थः । किम्भूता रुचि: ? अमृग्वसामांसरसेन रक्तमांसस्नेह वशेन भग्ना, कथम्भूतैः पिशाचैः ? भन्न मुझेरपाटवबदनेः ॥८॥ भुवि दिशि दिवि कश्चिद्यः समज्ञा(ज्ज्ञा)नतृप्तः
सपदि हरिविधानं यातुधानः सुरो वा । परिततलुमनास्तं विक्रमं धाम धैर्य
विपुलपुलकिताङ्गस्तत्र तुष्टाव तुष्टः ॥८३॥ भुवीति-तुष्टाव स्तुप्तवान्, कोऽसौ ? स यातुधानो राक्षसः, कम् ? तं विक्रम तथा धाम प्रतापं तथा धैर्यम्, क्व ? तत्र सङ्ग्रामे, कथम्भूतः ? तुष्टः आनन्दवान्, पुनः विपुलपुलकिताङ्गः प्रचुररोमाञ्चितशरीरः पुनः परिततसुमनाः प्रसृतचेता, कथम्भुतं विक्रमादि ? हरिविघानं हरेर्नारायणात् विधानं क्रिया यस्य तत् सर्वम्, यः कश्चित् कश्च न तृप्तः अपितु तृप्त एव, केन ? मज्जा मज्जया रसादीनां सप्तघातूनां मध्ये पष्ठेन धातुविशेषेण, क्व नु ? भुवि भूमो दिशि आशायां दिवि गगने, वा अथवा तुष्टाव, कोऽसौ ? सुरो देवः, कम् ? तं विक्रमं धाम धैर्य च, कथम्भूतः ? तृष्टः पुनः परितत सुमनाः परितताः सुमनसो येन स तथोक्तः विस्तृतकुसुमः कृत पुष्पवर्ष इत्यर्थः, कथम्भूनः सुरः ? समज्ञानतृप्तः समं च तत् ज्ञानं घ समज्ञानं तेन तृप्तः स तथोक्तः, यः कश्चिदभूत्, बव ? भुवि दित्रि दिशीति शेषं सुगमम् ॥८३।।
इहावापत्कीति हरिदवधिमन्यत्र समया
निलिम्पानां वाला मम पतिरितीवोत्सवभरात । स्वदेहं नृत्यन्तं सह सुरवधूभिः परनृपा
विमानस्योत्सङ्गो ददृशुरधिकं विस्मितशः ॥४॥ ___ करीब-करीब जमे हुए दहीके समान और कालरूपी खप्पर में पूर्ण रूपसे भरे हुए मस्तिष्कके पदार्थको चखकर मुंह टेढ़ा करनेवाले पिशाचोंको इस नरसंहारमें बहुत कम प्रानाद आया था क्योंकि सफेद मस्तिष्कमें रक्त, चर्बी और मांस मिल जानेसे यह बेस्वाद हो गया या॥५२॥
जो राक्षस चर्बोसे सन्तुष्ट नहीं हुआ था उसका चित्त भी नारायण अथवा वानरोंके द्वारा कृत इस संहारको अकस्मात् देखकर शान्त हो गया था। उसके पूरे शरीर में जोरोंका रोमांच हो गया था और वह अत्यन्त तृप्त होकर नारायणशे पराक्रम, तेज तथा घर्यको सारी पृथ्वी, सब दिशाओं और प्राकाशमें प्रशंसा कर रहा था [हरिकी इस संहारलीलाको देखकर शम (सम) और विवेकको प्राप्त किसी देवके सारे शरीरमें निर्वेदका रोमांच हो पाया था। उसने पाकाशसे पुष्प वृष्टि की थी (परि-तत-सुमनाः) प्रौर शौर्य, प्रताप तथा दृढ़ताको तीनों लोकों, दशों दिशाओं तथा स्वर्गमें स्तुति करता चला जा रहा था] १८३॥
१. मालितीवृत्तम् ।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
RA
पोडशः सर्गः
३१३ इहेति-परनुपाः शत्रवः स्वदेहमात्मशरीरं नृत्यन्तं नटन्तं ददृशुः घटवन्तः, कथम् ? सह सादम्, भाभिः ? सुरवबुभिः विमानस्य देवयानस्योत्सने मध्ये, कथं यथा भवति ? अधिक प्रबलप्रवृत्ति, कथम्भूताः मन्तः? विस्मितशः आनन्दवशाद्विस्फारितलोचनाः, कस्मात् ? उत्सवमरात, कथम् ? इतीव हेतोः, अपमिति कृत्वा प्रकाश्यते-अवापत् प्राप्तवान्, कोऽमो ? मम पतिः स्वामी इह मध्यलोके हरिदवधि हरितो विशोऽवधिः सोमा यस्यास्तां सर्वाशामर्यादाम् फीत्तिम्, तथा चावापत् मम पति: निलिम्पानाम् अमराणां गालां देवाङ्गनाम्. क्व ? अन्यत्र परलोके, कयर ? समघात् क्षणात्' एव ।।८४।।
पतितसकलपत्रा तत्र कीर्णारिमेदा वनततिरिव रुग्णा सामजैमिरासीत् । निहतनिरवशेषा स्वाङ्गशेषावतस्थे कथमपि रिपुलक्ष्मीरेकमूला लतेय |८||
पतितेति--आसीत् संजाता, का? भूमिः, कथम्भूता ? रुग्णा भगवती, कैः ? सामजैः इस्तिभिः, कथम्भूता सजी ? पतितसकलपत्रा प्रशसमस्तवाहना पुनः कीर्णारिमेदाः कीरा प्रसृतमरीणां मेदो चस्या सर तथोक्ता भूमिः, केव ? वनततिरिव वनपङ्कितर्यथा, कथम्भूता ? पतितसकलपत्रा परिभ्रष्टसम्पूर्णच्छदा, कयम्भूता सती? सामः रुरणा भरता, तथा अवतस्थेचस्थिता, का? रिपुलक्ष्मीः, कथम् ? कथमपि महता कष्टेन, कथम्भूता ? निहनिरवशेषा निहतं निरव शेषं चतुरनं यस्याः सा तथोक्ता, कथम्भूता ? स्वाङ्गशेषा स्थानमेव शेषं यस्याः सा तथोक्ता, कैव ? एकमूला लतेव, कयम्भूता ? निहनिरवशेषा । निहतं निरवशेष फल कुसुमादि यस्याः सा तथोना । अन्यत् समन् । ८५॥
सामाजिकैपजनैः पिशिताशिवगैः शैलूपतामुपगतैश्च कान्धपात्रम् । नृत्यं शिवारुतमृदङ्गरवं निरूप्य संगृह्य वन्दिमविशशिबिरं हरीशाः ॥८६॥
द्विः सामाजिकैरिति--हरीशा: शिविरं स्कन्धावारं सेनानिवेशस्थानम् अविशन् प्रविः , किं कृत्या ? पूर्व हिरण्यादिभिः कृत्वा बन्दि बन्दिजनं संगृह्मादाय संतयेत्यर्थः किं कृत्वा ? पूर्व निरूप्य दृष्ट्वा, किम् ? नृत्यम्, कथम्भूतम् ? कसन्धानं कबघान्येव हण्डान्येव पात्राणि यत्र तत्, पुनः शिवारुत मृटङ्गरवम् शिवारुतमेव मृदङ्गरको यत्र सत्, के सद्भिः ? नृाजनैः सामाजिकैः सभ्भैः, तथा, कैः सद्भिः ? पिशिताशिवर्गच राक्षससमूहै:, कथम्भूतः ? शैलूपता नटस्वरूपमुपमतं ।
अधुना भारतीयः पक्ष -हरीशा यादवाः शिविरमविशन् । शेषं प्राग्वत् ॥८६॥
मरकर स्वर्ग गये और सुराङ्गनाओंके साथ स्वर्गके विमानोंमें विराजमान वीर राजाओंने अखें फाड़-फाड़कर अपने नाचते हुए मृत शरीरको युद्धस्थलीमें देखा था। (मरणके बाद स्वभाबसे हो थोड़ी देर तक उचकते-कूदते शरीरमें कवि कल्पना करता है कि) जो कि बड़ा मानन्द इसलिए मना रहा था कि उसके स्वामीने मध्यलोकमें दिग्दिगन्त तक व्याप्त कौतिको प्रात किया था तथा दूसरे हो क्षरण, स्वर्गमें जाकर सुरबालानोंको घरण किया था ॥४॥
टूटे-फूटे वाहनों (पत्र) से घ्याप्त तथा शत्रुओं को धर्वांसे लथपथ भूमि, जंगली हाथियों (सामजः) के द्वारा उजाड़ी गयी अटवीके समान प्रतीत होती थी [हाथियों के निकलनेपर जंगलके पेड़ोंपर पत्ते नहीं रहते हैं तथा भूतल बिट खदिरोंसे पट जाता है । समस्त सेनाके नष्ट हो जानेपर अकेली दची शत्रुत्रों की लक्ष्मी बड़े कष्टसे उस लताके समान खड़ी थी जिसकी जड़मात्र शेष रह जाती है [समस्त पत्ते, फूल-फालके नष्ट हो जानेपर लताको भी जड़का हो सहारा रह जाता है] ॥२५॥
.. तरक्षण एव प० ज० । शिखरिणीवृत्तम् । २. मालिनीवृत्तम् । १. वसन्ततिलकावृत्तम् ।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
बिसन्धानमहाकाव्यम् वाराङ्गना ननृतुरुत्पतिताः पताकाः कुन्तोत्रतैकधृतिराप तदा महर्थिम् । लक्ष्मीधरो निलयमुज्ज्वलदृश्यसेव्यः सश्रीधनं जयचिताश्ववलो विवेश |८७||
द्विः वाराङ्गना नन्तुरिति-वाराङ्गनाः विलासिन्यो नन्तुः नृत्यं चक्रुः, तथा पताका: उत्पतिताः उच्छिताः ऊर्गीकृताः, सदा तस्मिन् काले लक्ष्मीधरो लक्ष्मणः कुंपृथ्वीम् आप प्रामवान्, कथम्भूतः ? तीव्रतकभृतिः तीज्ञायामेका वृतिर्यस्य सः, तथा श्राप लक्ष्मीधरः, काम् ? महद्धिं महती चासो ऋद्धिश्च महद्धिः वाम्, तथा श्रीधनं श्रोरेव धनं यत्र तत्, जयम् आप, तथा निलयं गृहं विवेश प्रविटवान्, कथम्भूतः उज्ज्वलदृश्यसेव्यः उज्ज्वलद्भिः ऋश्वैः सेव्यः प्रभावकपिसेव्यः अथवा उज्ज्वल: कान्तिमान्, श्यो रूपवान्, सेव्यः सेवायोग्यः, स च तथोक्तः, पुनः चिताश्वबलः पुष्टयसैन्यः ।।
अथ भारतीय:-कुन्ती महद्धिम् आप लेभे, कथम्भूता मतैककृति:, कदा ? तदा, तथा लक्ष्मीधरो विष्णुः निलयं विवेश, कथम्भूतम् ? सश्रीवनंजय थियोपलक्षितेन धनंजयेन सह वर्तते इति सं ससम्पदर्जुनम् कथम्भूतो लक्ष्मीधरः ? चिताबवलः चिता अश्वा यस्य स पिताश्वः चिताश्त्रो क्लो वलभद्रो मस्य सः । शेष तुल्यम् ॥८७।। इति निघद्यविद्यामण्डनमण्क्षिपण्डिसमण्डळीमण्डितस्य षट्तकं चक्रर्तिनः श्रीमद्विग्यचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्दवासिनी देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सझळकलोद्भवहारचातुरीचन्द्रिकाधकीरेण मिण विरचितायां द्विसन्धानकवेर्धनञ्जयस्थ राघवपाण्डवीथापरनामः कायस्थ पदकौमुदीनाम
दधानायां टीकायाम्मरसमामथ्यावर्णनं नान घोडशः सर्गः ॥१५॥
पहले रुण्डरूपी अभिनेताओं (पात्र) का नृत्य देखकर तथा सियारियोंके रोनेरूपी मृदंगोंदी ध्वनिको सुनकर और चारणोंको पुरस्कार देकर अपने घरबारियों और परिजनों तथा नटोंके स्थानको प्राप्त राक्षसोंके साथ राघवेन्द्र अथवा यादवेन्द्रने अपने-अपने शिविरमें प्रवेश किया था ॥८६॥
__उस समय बाराङ्गना नाचने लगी थीं, विजय पताकाएं फहरा रही थीं। तीव्रतामें सबसे उत्तम, लक्षनीके निवास, उछलते-कूदते वानरों (श्य) के द्वारा सेवित लक्ष्मणजीने पृथ्वीको प्राप्त किया था तथा कान्ति, धन और जयकी पोषक अश्व सेनाके साथ अपने महा वैभवशाली गृहमें प्रवेश किया था [विजयी पाण्डव सेनाको बैजयन्तियाँ फहरा रही थीं, येश्याएँ नाच रही थीं। अपने ब्रतमें एकनिष्ठ महारानी कुन्ती ( व्रतकधृतिः कुन्ती ) को लोकोत्तर प्रतिष्ठा प्राप्त हुई थी। तथा श्री धनंजय और अश्य संचालनमें प्रवीण बलभद्र के साथ कान्तिमान (उज्ज्वल) दर्शनीय (दृश्य) एवं पूजनीय (सेव्य) लक्ष्मीपति श्रीकृष्णने अपने गृहमें प्रवेश किया था] ॥८॥ इति निर्दोष विद्याभूषण भूषित पण्डित मोके पूज्य घटसक चक्रवर्ती श्रीमान् एपिद्धत विनयचन्द्र गुरुके प्रशिप्य, देवनन्दिके शिष्य, सहकलाकी चातुर्य चन्त्रिकाके चकोर, नेमिचन्द्र-द्वारा विरचित कवि धनंजयके राघवपाण्डवीय नामसे ख्यात सिन्शन काव्यको पदकौमुदी टीका 'उभय संप्राम' ब्यावर्णन नामका
पोस्श सर्ग समात ॥१६॥
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः अथ संयुग सुतरसाप्तयुगमरिरपश्चिमो हरेः। कालमिव समधिरुह्य रथं तमकालचक्रगतिचक्रमाविरात् ॥१॥
(द्विः) अथ नायकव्यावर्णनानन्तरम् आविशत् प्रविष्टवान्, कोऽसौ ? अरिः, किम् ? संयुगं संग्रामम्, एयम्भूतोऽरिः ? अपश्चिमः आधः, कस्य ? हरेलक्ष्मणस्य राबण इत्यर्थः, कि वृन्त्वा ? तं लोकोत्तरं रथं समधिरुह्य, कथम्भूतं रथम् ? सुतरसाप्तयुगं सुतैः पुत्रः रसेन स्नेहेन आप्तं युगं धुरा यस्य पुनः अकालचक्रगतिचक्रम् अकालचक्रस्येव गतिर्ययोः तथामते चक्रे यस्य तं तथोक्तम्, कमिव ? कालमिद मृत्युमिव, कथम्भुतम् ? अकालचक्रगतिचक्रम् प्रलयकालप्रवृत्तिसमूहम् ।
भारतीयः पक्षः-शाविशत् हरेरपश्चिमोऽरिजरासन्ध इत्यर्थः । कम् ? संयुगम्, किं कृत्वा ? पूर्व समविरुह्य; वाम् ? रथम, कथम्भूतम् ? सुतरसामयुगं सुष्ठुनरतीति सुतरम् अतिप्लवमानं मनोवेग इत्यर्थः, सप्त्योरिदं सायम् आश्वम्, साप्त च तद्युगं व साप्तयुगं सुतरं साप्तयुगं यस्य तम् । अन्यत् सुगमम् ॥१॥
अशिरःशवं शरणमेष विशति कवचं बिभर्ति यः।
प्राणविनिमयमयं हि यशः सुलभं भवेदिति स वर्म नाददे ॥२॥ अशिर इतितः मरिः बर्म सन्नाहम् इति नाददे न जग्राह, किमिति एष: किम् अशिरः मानकरहितं शवं शरणं विशति, कोऽसावेषः ? य: कवचं बिति, हि यस्मात् यशः कि मुलभं भवेत् ? अयम्भूतम् ? प्रा विनिमयमयं प्राणानां विनिमयः परिवर्तनं तेन निवृत्तं माप विक्रयलभ्यमित्यर्थः ॥२३॥
तमधूममग्निमिव दृष्टिविषमिव विमुक्तकञ्चकम् ।
नागमिव विगतवक्त्रपट वलयर्जितं ददृशुरूजितं सुराः ॥३।। तमिति-सुराः देवाः तमरिम् अवमं निधूमम् अग्निमिव ददृशुः, पुनः दृष्टिविपं सर्पविशेषभिव दहणुः, कथम्भूतम् ? विमुक्तक चुम् अपास्तनिर्माकम्, तथा कमिव ? विगत वक्त्रपटम् अपाकृतबदनाभवादनम् अजितं प्रौढं वलेवजितं बलभदरहितं नागं गजमिव ददृशुः ।।३।।
[नायक वर्णनके उपरान्त प्रतिनायकका वर्णन करते हैं] पुत्रोंके स्नेह (रस) रूपी प्रोगन युक्त घुरावाले तथा प्रलय चक्रके समान अत्यन्त वेगवान रथके ऊपर घड़कर श्री लक्ष्मणके मुख्य शत्रु रावणने यमके समान युद्धभूमिमें प्रवेश किया था [अत्यन्त सरलतासे मागे बढ़ते (सुतर) घोड़ों (साप्त)की जोड़ीसे युक्त, प्रत्यन्त धेगवान रथके ऊपर दृढ़तापूर्वक सवार श्रीकृष्णको प्रथम शत्रु जरासंधने मृत्युके समान युद्धस्थवीमें प्रवेश किया था] ॥१॥
रावस अक्षा जरासंधने कवच नहीं पहिना था। इनका विचार था कि जो कवच धारण करता है वह (शिरस्त्राण अलग होने के कारण मस्तक-हीन) शवको शरण लेता है। ( जो कि स्वाभिमानके विरुद्ध है । और यशको मलिन करता है ) पोंकि पीरोंको प्रारमोंकी घाजी लगानेपर ही मिलनेवाले यश, कषच सुलभ कर देता है ॥२॥
1.ऽस्मिन् उद्गावृत्तम् । सलक्षणं हि सममादिमे सलधुको च न सजगुरुकै रथांदता । ग्याधिगत मनजला गयुताः सारखा अगौ चरणमकाः पठेन । [वृ० २० ६ ०.५।"]
२, बलेन सैन्येन रहितमिति ।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६
द्विसन्धानमद्दाकाव्यम्
तनुरक्षया परिणतेव कुपितमपि हेतिरूपताम् ।
यातमिव निशितशख (मत्र) मपि ज्वलनात्मतां गतमिवास्य चक्रिणः ॥ ४॥
तनुरिति — अस्य चक्रिणः तनुः शरीरं परिणतेव प्राप्तवार्द्धश्या वतितेय बभूवेति क्रियाध्याहार्य्या, कथम्भूता ? अक्षमा न विद्यते क्षमा यस्यां सा क्रोधरूपेत्यर्थः, कथम्भूता परिणता ? वार्द्धकवशात् अक्षया गन्तुमशक्ता तथा कुपितमपि हेतिरूपतां शस्त्रसारूप्यं यत्तं गतमिव निशितं तीक्ष्णं शस्त्र ( अस्त्र ) मपि ज्वलनात्मतां वह्निरूतां गतमिव ॥॥४॥
रुषायुधं विषमिवाहिरशनमिव तोयदोऽसृजत् ।
क्षौद्रपटलपतितैरिव तच्छरधैः शिरखनिवहैर्मही बभौ ||५||
स इति — मारिः आयुधं शस्त्रं रुषा कोपेन असृजत् मुक्तवान् कः कमिव ? अहिः रूपः विषमिव गरलभित्र पुनः अशनिवज्रं तोयदो मेघ इव तत्तस्मात् शिरस्त्र-निवहै. शिरांसि स्थायन्त इति शिरस्त्राणि तेपां हैः समूहैः मही मेदिनी बभी रेजे, कैरिव ? क्षोद्रपटलपतितैः मधुच्छत्रच्युतैः शरधैरिव मधुमक्षिकाभिरिव ॥ ५ ॥
दहनापाणिरमूर्थं विदधदरिसैन्यमाजजुः ।
वेदनं भयर समित्य शिरः पुरतः स दिव्यमधृतेव नाकिनाम् ||६||
दहुनेति - गोरिः घृतेव तत्रानिव किम् ? दिव्यम् कथम्भूतम् ? अशिरो न शिरो यस्य तदशिराः प्रतिद्वन्द्वरहितमित्यर्थः पुरतः अग्रतः केषाम् ? नाकिनां देवानाम्, कथम् ? इति कृत्वा प्रकाश्यते, भी मानो देवाः न वेद न वेदम्यहम् कम् भयरसम् कथम् ? आजनु राजन्म कि कुर्वन् ? अरिसेन्यम् अपमूर्द्धन् अपगतमस्तकं वित्तः सन् ? ज्वलनाणहस्त इति ॥६॥
सेनारहित तथा उद्धत इस शत्रु ( रावण जरासन्ध ) को युद्धके अनुरागी देवताओंोंने बिना धुएँको आके समान प्रथवा केंचुली छोड़नेके बाद बाहर आये 'दृष्टिविष' (जिसकी दृष्टिमें ही विष होता है) सौंपके समान अथवा बाहरके दाँतोंसे रहित हामीके समान देखा था ॥३॥
चक्रधारी अथवा चक्रवर्ती इस शत्रुका शरीर वृद्धा स्त्रीके समान श्रशक्त हो गया था । अथवा क्षमाहीन हो गया था । अत्यन्त क्रुद्ध होकर भी यह शस्त्र (हेति ) के समान ( पराधीन) हो गया था तथा तीक्ष्ण शस्त्रोंका ( लक्ष्यहीन ) प्रहार करके भी वह ( भभकती, किन्तु न जलाती) ज्वालाके सदृश प्रतीत होता था [बुढ़िया के शरीरमें भी सामर्थ्य नहीं रहती है, गुस्सा होनेपर 'हा, हा' (हा - इति) करने लगती है तथा तथा हथियार पास रहनेपर भी, प्रयोग न करके अपने मन ही मन जलती रहती है ] ॥४॥
जैसे सांप विषका वमन करता है अथवा जैसे मेघ वस्त्र बरसाते हैं उसी प्रकार रुष्ट हो कर यह शत्रु शत्र चला रहा था । बिखरे हुए शिरवालोंके कारण युद्धस्थलीकी वही दशा हो गयी थी जो मधुमक्षियोंके छत्तेसे गिरी मधुमक्खियोंके भूमिपर पड़े रहनेसे होती है ॥५॥ अग्निवाको हाथोंसे छोड़ते हुए इस शत्रुने प्रपने शत्रुत्रोंकी सेनाको बिना मस्तकका अथवा बिना नेताका कर दिया था। मैंने जन्मसे हो कभी भी भयका रसास्वादन नहीं किया है यही दिखाने के लिए इसने अपनी बेजोड़ (प्र-शिर) अथवा बिना मस्तकको दिव्य देहका रणके रसिया देवों के सामने रख दिया था । ( अर्थात् अपनेको मरा समझकर युद्ध में शुरु गया था ) ॥६॥
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३१७ अनुजं तु मृत्युमिव हन्तुममुमभिजिहानमारुधत् ।
तीव्रमन्धतमसमभ्युदय रथवाहनेन सवितेव केशवः ||७|| अन्विति--आरुषत् रुद्धवान्, कोऽसौ ? केशवो लक्ष्मणः, फम् ? अमुमरि रावणम्, केन कृत्वा । रखवाहनेन रथाश्वेन, अत्र जात्यपेक्षयेकवचनम्, किं कुर्वाणम् ? अभिजिहानं सम्मुखमागच्छन्तम्, कि कर्तुम् ? हन्तुम् , तथा मारुधत्, कः ? केशवः, कम् ? अनुजं विभीषणं कुम्भकर्ण वा, कि कुर्वाणम् ? अभिजिहानम्, कि कर्तुम् ? हन्तुम्, कथम्भूतं रावणं विभीषणं कुम्भकर्ण च ? तीव्र सोढुमशक्यम् कमिव ? मृत्युमिव, केः कृत्वा ? अभ्युदयः गजतुरगपदातिलक्षणाभिविभूतिभिः, क इवास्थत् ? सवितेव सूर्य इव, किम् ? अन्घतमसं धनान्धकारम्, कैः कृत्वा ? अभ्युदयः किरणसन्दोहलक्षणाभिविभूतिभिः, कि कुर्वाणं मृत्युम् ? अभिजिहानन्, किं कर्तुम् ? हन्तुम्, कथम् ? अनुजन्तु जन्तुं जन्तुमनु प्रतिजन्तुं, के: कृत्वा ? अभ्युदयैः उपर्युपरिदुःखसंपातलक्षारणः, कथम् ! तीव्र नियमिति ।
भारतीय पक्षः-अथारुधत्, कोऽसो ? केशवो नारायणः, कम् ? अK जरासन्यम्, केन कृत्वा ? वाहनेन, कि कुर्वन्तम् ? अभिजिहानम्, शेषं पूर्ववत
चिरमेष चेतसि निरुद्धमदितमिव मन्त्रमग्रतः ।
प्रेतपतितनृपकोपचयं निचितं पुनः परिमवादिवेक्षता चिरमिति-एषः केशवः उदित मुद्गलमुत्लुतमित्यर्थः, करि पुनरेशत व्याधुटयावलोकितवान्, कयम् ? अमतः पुरतः, कथम्भूतम् ? निरुद्धं नियन्त्रितम्, क्व ? चेतसि चित्ते, कयम् ? चिरं बहुतरकालम्, कमिद ? मन्त्रमिव पाड्गुण्यलक्षणमन्त्रमिय, कथम्भूतम् ? उदितमुद्गतं सन्तम्, चित्ते चिरं निरुद्धम्, तथा कमिवैक्षत ? प्रेत पतितपकोपचमिव पतिनाश्च ते नृपाश्च पतितनुपा: प्रेताच पतितनृपाश्च प्रेतपतितनुपाः तेषां कोपचयस्तम्, कथम्भूतम् ? निचितं पुजीकृतम्, कस्मात् ? परिभवादिति शेपः ।।८।।
प्रियसंगमात्प्रथमसङ्गमरिकृतमबोधि सोऽधिकम् ।
वृन्दमलघु सुहृदो महतां द्विषतां हि कीर्तिरतुला तु जायते । प्रियेति-अबोधि ज्ञातवान्, कोऽसौ ? स केशवः, कम् ? प्रथमसङ्गम्, कथम्भूतम् ? अधिकं पुनः अरिकृतं रिपुविहितम्, कस्मात् ? प्रियसङ्गमात् इष्टजनमेलापकात्. युक्तमेतत् महतां सताम् अलघुस्थूल वृन्द समूहः सुहृदो मित्रस्य भवति, तथा तु पुनजयिते, का ? अतुला कीर्तिः केन ? द्विषता शत्रुमा, कथम् ? हि स्फुटमिति ॥९॥
तेज, क्रोधान्य तथा तमोगुण प्रधान चतुर्विध सेनाके द्वारा मृत्युके समान संहार करनेके लिए आगे बढ़ते हुए इस रावणको तया इसके अनुज (कुम्भकरण)को लक्ष्मरपने अपने रथको बढ़ाकर उसी तरह रोक दिया था जिस प्रकार सूर्य उदयकालको फिरपोंके द्वारा घने काले अन्धेरेको समाप्त कर देता है [तेज' सेनाके द्वारा प्रत्येक प्राणीको (अनुजन्तु) ओर बढ़ती मृत्युके समान सामने प्राय जरासंधको श्रीकृष्णने रथके घोड़ोंके द्वारा रोक दिया था] ॥७॥
नारायणने चिरकालसे मन-ही-मन जलते हुए और सब सामने आये मन्त्रके समान पात्रुको देखा था। यह रावण अथवा जरासंध मरकर भूत हुए राजाओंके उस संचित कोपके समान था जो तिरस्कार होने पर फिर नया हो जाता है [मन्त्र भी सिद्ध होने के बाद मनमें रहता है और जगानेपर फल देता है तथा प्रेत भी बलि दिये जाने के बाद पुनः अवज्ञा होनेपर सताने लगता है] un
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८
दिसम्घानमहाकाव्यम् निजपौरुपं हि गुहाध्य कालजिह का संहतिः ।
भानुमत इव न हन्ति रुचिं धनदेहबन्धनमयीति नामवीत् ॥१०॥ निजेत्तिनामवीत् बध्नाति स्म, कोऽसौ ? केशवः, किम् ? कवचम्, कथम् ? पुरुषस्य निजपौरुष कवचं स्यात्, संवृतिः कस्य मचि दीप्ति न हन्ति अपितु सर्वस्य, कथम्भूता ? घनदेहदाधनमयी धनदेह एव बन्धनं तेन निर्वृत्ता मेघशरीरमयीत्यर्थः ।।१०11
उदयाद्विभूतिरिव भोगगतिश्वि नवाप्रसादतः ।
सर्वधतिरिव परं पुरुष जयदेवता गणसिथात स्वयम् ॥११॥ .. उदयादिति-जगदेवता जयश्रीः परं पुत्ष पुरुषोतमं स्वयं परप्रेरणमन्तरेणेव अवृत वृतवती, करम्भूता ? गणनि था गणक्ष्य पूरगा, फैव ? विभूतिवि, कस्मात् ? उदयात्, केव ? भोगगतिरिख भोग. विषया प्रवृत्तिरिय, कस्मात् ? नयात् भोगविषयाचा नीतेः, फेव ? सर्वतिरिव समस्तसन्तोष इव, कस्मात् ? प्रसादतो नयविषयाया. प्रसन्नताया इति ॥११॥
ध्वजमारोह गरुडोऽस्य रणमिव दिशतुरुच्चकैः ।
ध्मातुमिव कुपितवह्निमयं हृदि पाञ्चजन्यमदपूरि वैरिणः ।।१२।। ध्वजमिति-गरुड: अस्य विष्णा: ध्वजम् आरुरोह आरूढवान्, क इवोत्प्रेक्षित ? उच्चैरतिशयेन रणं सङ्ग्रामं दिदृक्षुरिव द्रष्टुमिच्छुरव, तथा अयं विष्णु: परिणी हदि पिताल मानुमिव सन्धुकितुमिव पाञ्चजन्यं शङ्खम् उदपूरि पूरितवान् ।।१२।।
निनदेन तस्य मिहिरस्य शरभ इव सम्मुखं रिपुः ।
प्राप्य कणपनिकरण रथं परतो युगद्वयसमस्यदुद्रवत् ॥१३॥ निनदेनेति-रिपुः शत्रुः फणपनिकरण बाणसमूहेन परसः पश्चात् युगद्वयसं मुगपरिमाणं यथा तथा रथम अभ्यदुद्रुवत् अपसारितवान्, किं कृत्वा ? पूर्व तस्य पाञ्चजन्यस्य निनदेन व्यनिना सम्मुखं प्राप्य, क हव ? शरभ इव, केन ? मिहिरस्प मेघस्य निनदेनेति ।।१३॥
शत्रुके साथ हुई इस पहली मुठभेड़को नारायणने प्रात्मीय जनोंसे होनेवाली स्नेह भेंटसे भी बढ़कर माना था, क्योंकि महापुरुषोंको मित्रमण्डली विशाल होती है। किन्तु उनकी अनुपम कीतिका प्रसार तो शत्रुके (बमनके) कारण ही होता है ॥६॥
अपना पुरुषार्थ ही मनुष्यका सच्चा कवच है। घनघटाके घिरनेसे सूर्य के समान किसीको कान्तिको एया प्रावरण (फवव) नहीं घटाता है ? अपितु घटाता हो है । इसलिए हो नारायणने युद्ध में कवच नहीं पहना था ॥१०॥
जिस प्रकार पुण्यकर्मके उदयसे अपने भाप विभूतिकी प्राप्ति होती है अथवा नीति मार्गके अनुसरणसे भोगोंको परम्परा चलती है अथवा चिसको निर्मलतासे सब प्रकारका धैर्य अनायास ही प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार सैन्यसनहसे घिरी पूर्ण विजयलक्ष्मीने अपने-आप ही परम-पुरुष विष्णुको परख दिया था ॥१॥
नारायणको गरुङ्गक चिह्नले युक्त ध्वजा प्राकाशमें फहरा रही थी मानो चिह्नका गरुद्ध युद्ध को देखने की इच्छासे हो ऊपर चढ़ गया था। बैरियोंको हृदयोलें धुंधाती क्रोधको अग्निको झपकनेके लिए हो नाराबरणने अपने शंखको फूका था ॥१२॥
शंखको ध्वनिको सुनकर रावण-जरासंध शत्रु उती प्रकार सामने मा गये थे जैसे
marwarananpanurunnr-rrrrrrrrrrrrrrrr
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३१६ स्वरुषा सहोच्छ्वसितस्तगतिरथ हरिश्च कम्पनैः ।
वस्य भुजमिव सदाशरथी रणशान्तिमिच्छुरिव केतुमच्छिदत् ॥१४॥ (द्वि:) स्वेति-अथानन्तरं स दाशरथिः रामो हरिश्व लक्ष्मणोऽपि कम्पनः वाणविशेषः तस्य रावणस्य भुजमिव फेत जम् अच्छिदत् छिन्नवान्, तिमिशिद ? नातिनियुरिट लिमित्र, कथम्भूतो रामो हरिश्व ? उच्छवधिभूतगतिः उच्छ्वसिता सुतस्य सारगतिश्चेष्टा येन स तथोक्तः, कथम् ? सह सार्द्धम्, कया ? स्वरुपा आत्मकोपेनेति ।
भारतीयः पक्ष:-तस्य जरासन्थाप, कशम्पूतो हरिः ? समाशरथी सती स्मीचीना आशा वाञ्छा येषां ते सदाशाः सदाशा रयिनो यस्य सः, कथम्सुतः ? उच्छ्वसितमतिः इच्छ्यविता सूतानां भटानां गतिर्येनेति ॥१४॥
घवलातपत्रमपि तस्य इतमपतदिन्दुमण्डलम् ।
द्रष्टुमुपगतगिवाजिगतः परुषं रिपुः प्रतिजगर्ज वर्जयन् ॥१५॥ घवलेति--हरिणा हतं तस्य परिगः धवलालपरमपि अपतत् प्रभ्रम, किमिवोत्प्रेक्षितम् ! इन्दुमण्डलमिव चन्द्रविम्ममिच, कयम्भूतम् ? अजि संग्राम द्रष्टुमवलोकितुमागनम् । अतः कारणात् रिपुः परुष कर्कश तर्जयन् तिरस्कुर्वन् प्रतिजगजं गजितवान् ।।१५।।
विमुखः फलं विधिरिवाशु खल इव कृतं स तं यशः ।
लोभ इस मद इवोपशमं गुरुशक्तिशस्त्रनान्नियोजयन् ।।१६।। ____ विमुख इति-अरु जत् तुनरोद. कोऽसौ स रिपुः कम् ? तं विष्णुम्, किं कुर्वन्निध ? शक्तिशस्त्रम् माशु शीघ्र नियोजयन्, कथम्भूतम् ? गुरु गरिष्टम्, क इवारुजत् ? विगुजओ विधिरिद फलम, तथा खुल इव कृतं दुर्जन इवोपकारम्, तया लोम इव यशः कात्तिम्, तपा मद इवोपशमम् ।
भारतीयः-स जरासन्धः तं नारायणम् शेषं प्राग्वत् ।।१६।।
मेघोंको गर्जनाको सुनकर हिरण प्रा जाते हैं । किन्तु कारणों की वर्षा पड़ते हो, इनके रथसे कोशों दूर तक सब विशानोंमें भागते नजर आये थे ॥१३॥
अपने क्रोधके साथ-साथ सारथीको गतिको भी बढ़ाते हुए तथा रगको शान्ति (समाप्ति) के इच्छुकके समान दाशरथि रामने तथा लक्ष्मराजे रावणको भुजाके समान उसके रथपर उठी हुई उसको ध्वजाको 'झम्पन' जातिके बारषोंसे काट दिया था।
अपने क्रोयके साथ-साथ दूतवृपतिक प्रगतिको करते हुए तथा सदाशयरथी पोद्धाओं [सदाश-रथो] से घिरे हरि कृष्णाने जरासंघकी प्राक्रमणके लिए उठी भुजाके समान ध्वजाको रण समाप्तिको इच्छाले सपनों के द्वारा काट दिया था ॥१४॥
नारायणके द्वारा प्राघात किये जानेपर उस (शत्रु रावण-जरासंध) का श्वेत छत्र भी गिर गया था। गिरता हुआ यह छत्र ऐसा बालम देता था कि चन्द्रमण्डल ही युद्ध देखनेके लिए उतर पाया है। इन गिरते ही शत्रु भी धमकाने के लिए कठोर गर्जना करने लगा था ॥१५॥
जिस प्रकार विपरीत देव पुण्य कर्म के फलको, दुष्ट पुरुष उपकारको, लोभ यशको मोर अहंकार प्रशान्तिको नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार विचार करके शत्रुके द्वारा वेगके साथ नारायणपर छोड़े गये 'शक्ति' नामके महान शस्यने उन्हें माहत कर दिया था ॥१६॥
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
निसन्धानमहाकाव्यम् विवशोऽपि चित्रमवलोकमयमवगमं च नामुचत् ।
येन तिमिरमभितो ददृशे कमलोदरेण विचिदे न वेदना ॥१७॥ विवश इति-चित्रमाश्चर्य विवशोऽपि परवशोऽपि सन्नवलोकं दर्शनमवगमं ज्ञानं घायं विष्णुनामुचन्न त्यक्तवान् तथाऽभितः सामस्त्येन तिमिरं येन कारणेन कमलोदरेण विष्णुना ददृशे दृष्टम्, तथा चकारेण पूर्वोक्तः प्रतिपेयोऽपि लभ्यते, तेनायमर्थ:-वेदना पीडा । न विविदे न ज्ञातेति ॥१७॥
विधुतव्यथः क्षणमवाप युधि न किमु माधवोहितम् ।
दाशरथिरविरतः प्रहरनिलयं कुलस्य सहसार रक्षसः ॥१८|| विधुतेति--हिनावाप अपितु प्रापैव प्राप्तवानेव, कोऽसौ ? दाशरथी रामः, कम् ? अहितं शत्रुम्, क्य? युधि सभामे, कथम् ? क्षणं मुहूर्त कम्, कथम्भूतः ? अविरतो निवृत्तः पुनः उमाघवः कोतिप्रियः पुनः विधुतव्यथः त्यतपोड:, किन ? कुलमा निलयं निनाम पहरन संहग्न्, कथम्भूतस्य ? सहसार. रक्षसः सहसारे रक्षोभिर्वर्तन इति सहसाररक्षाः तस्व सबलिष्ठराक्षसस्य रावणस्येत्यर्थः, अथवा बार प्राप रामः, कम् ? निलयम्, कि कुर्वन् ? प्रहरन्, काय ? रक्षसो रावणस्य, कथम् ? सहसा शीघ्रामिति ।
भारतीयः--उ अहो, कि नावाप कि न प्राप्तवान्; अपितु प्राप्तवान, कोऽसौ ? माधवो विष्णुः, किम् ? हितम्, क्य ? युधि, कयम् ? क्षणम्, कथम्भूतः? दाशरथिरविः दाशो धूर्तः कुशल इत्यर्थः, रथी सारथिः दानश्वासो रयी च दाशरथी दाशरयों रविर्यस्य 'सुविधावन प्रकाशनात् स तथोक्तः मतः कारणात् ररक्ष पालितवान्, कोऽसौ ? स माधवः, कम् ? निलयम्, कस्य ? कुलस्य, कि कुर्वन् ? सहसा शोध प्रहरन् । शेष तुल्यम् ।। १८६
सदृशौ चलेन समकालमधिकृतजयौ निजोद्धती ।
पुण्यदुरितनिचयाविव तौ व्यतिरेधतुर्न तु जवाद् व्यतीयतः ॥१६॥ सघशाबिति--तो जिगीषुप्रतिजिगीषू पुण्यदुरितनिचयो हव व्यतिरेधतुः परस्परं प्रतवन्ती व्यतिजघ्नतुरित्ययः, कथम्भूतौ ? सहशी समानी समानकक्षाबित्यर्थः, केन ? बलेन शरीरसत्त्वेन, कथम्भूती अधिकृतजयो अङ्गीकृतजयो, कथम् ? समकालं तुल्यसमयं यथा भवति पुन: निजोद्धती निजात्मीया उद्धतिर्ययो: तो तु पुनर्न वतीयतुः, न परस्परं गतो विरतो, कस्मात् ? जवादेगादिति ॥१९|| ।
शक्ति लगनेसे नारायण (श्री लक्ष्मण-कृष्ण) अशक्त हो गये थे किन्तु उनकी दर्शन और ज्ञानको शक्तिका लोप नहीं हुया था । पाश्चर्य यही है कि शक्तिके प्रभावसे नारायण चारों ओर अन्धकारको देखते थे किन्तु वेदना का अनुभव नहीं करते थे ॥१७॥
कोति (उमा)के स्वामी, युद्धमें लीन, अनुजफे प्राघातकी मार्मिक पीडाको दबाये हुए तथा बलवान् (सहसार) राक्षसोंसे घिरे रावणको पैतृक राजधानीपर प्रहार करते हए दाशरथि रामने क्या क्षण-भरमें ही शत्रुको नहीं घेर लिया था ?
जरासंधके प्रहारकी व्यथाको भूले, माधवने क्या क्षरण-भर हो में युद्धस्थली में अपना भला (हित) नहीं किया था ? अपितु किया ही था। कुशल नीतिमानों (दाशः) तथा सारथियों (रथी)में सूर्य (श्रेण्ड) श्रीकृष्णने सहसा भाक्रमण करके पाण्डव कुलके आधार (निलय) अर्जुनकी रक्षा को थी ॥१५॥
__ शारीरिक बलकी दृष्टि से एक समान, एक ही समयमें विजय प्राप्त करनेके लिए प्रयत्नशील और स्वभावते हो उद्धत वे दोनों [नायक (राम-कृष्ण) और प्रतिनायक
१. सुविधायन-प० ज० । सुविधान-प० मा ।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्ग:
३२१ विरथश्चिरेण विहितोऽपि विततधनुषामुना रिपुः ।
जातमिव बहुमुखं सुकृतं विविधं स मूलविभुजं व्यलङ्घयत् ॥२०॥ विरथ इति--स रिपुविपक्षः मूलविभुजं मुलरथं सुकृतमिव पुण्यमिव भ्यलङ्घयत् बतिक्रान्तवान्, कथम्भूतम् ? जातं समुत्पन्नं पुन: बहुमुखं प्रचुरकारणं पुनः विविथं नावाप्रकारम्, कथम्भूतः ? विहितोऽपि कृतोऽपि पुनः विरथः रथरहितः अमुना विभिर्ग:पुणा, कथम्भूतेन ? विततधनुषा भारोपितचापेन, कथम् ? चिरेण बहुकालम् ॥२०॥
अवलोकितुं हरिविघातमसह इव गन्तुमुद्यतः।
संख्यरुधिरमवलोक्य चिरं स मदादपप्तदिव तीव्रगुः सदा ॥२१॥ अवलोकितुमिति- तीव्रगुः सूर्यः पूर्व सङ्ख्यरुधिरं रणरक्त मिरं बहुतरकालम् अवलोक्य निरीक्ष्य सदा सर्वकालं मदादिव अपात्तत् पतितवान्, कथम्भूतः ? गन्तुमुद्यतः पुनः हरिविषातम् अवलोदितुम् असह इव असहमान इव ॥२१।।
स विपन्नबन्धुमुपदृश्य नपलनमशेषमंशुमान ।
दुःखजलमवतरीतुमिव प्रतिपश्चिमार्णवतटं व्यलम्पत ॥२२॥ स इति-सः अंशुमान् सूर्यः पश्चिमाणवतट पश्चिमसमुद्रतीरं व्यलम्बत अवलम्बितवान्, कि कर्तुमिव ? दुःखजलं दुःख मेव जलं तत् अवतरीतुमिब, कि कृत्वा ? अश्वेषं नृपजनं नृपतिलोकं विपन्नबन्धु पृतबान्धवम् उपदृश्य दृष्ट्वा ।।२२।।
सवितापि संहतिमियाय नियतदिवसातिलानः ।
हन्त किमु किल निषेकदिनं जगति व्यतिक्रमितुमक्षमो जनः ॥२३॥ सवितेति--सवितापि मूर्योऽपि संहति संहारम् इयाय गतवान्, कयम्भूत: ? नियत दिवसातिलङ्घन: निश्चितदिवसातिक्रमः, युक्तमेतत्, हन्त कष्टं किल लोकोक्तौ किमु बहो जगति लोके निषेकदिनं मृत्यु व्यतिक्रमित वितुमक्षमः असमर्थो जनः, यत्र यत्र सवितापि संहति प्रामवान्, तत्रान्ये जना निषेकदिनं व्यतिक्रमितुं कथमलं समर्था भवेयुरिति भावो विभावयते ॥२३॥ (रावण-जरासन्ध)] पुण्य तथा पायके सजीव देरके समान एक-दूसरेपर प्रहार कर रहे थे, तो भी उनमें से किसीका भी वेग रंचमात्र नहीं घट रहा था ॥१९॥
बहुत समय तक धनुष चलाकर इस नारायणके द्वारा रथहीन (खण्डित-रथ) किया गया भी वह शत्रु सब तरफसे खुले बहुमुख तथा लक्ष्य भेदनके लिए अनुकूल अवसरपर भी (विविध) मूलनायकके रथके सामनेसे निकल गया था और पुण्यको समानताको प्राप्त हुआ था क्योंकि पुण्यका फल भी अनेक (बहु) सापन (मुख) जुटा देता है तथा अनेक प्रकारसे सहायक होता है ॥२०॥
बहुत समय तक युद्ध में बहती रक्तधाराको देखकर प्रखर फिरणोंके सदेव स्वामी सूर्यका भी अहंकार (उष्मा) अपने-आप हलने लगा था। और नारायणके वधको (अथवा वानरों और यादवोंके संहारको) देखने के लिए तैयार न होनेके कारण ही उसने भी (प्रस्ताचलकी प्रोर) चलनेकी तैयारी कर ली थी ॥२१॥
___ समस्त राजाओंके प्रात्मीय-जनयुद्ध में मर चुके थे। ऐसे इन राजामोंको देखकर सूर्य भी दुखी होकर जलमें उतरने (डूबने) के लिए ही (प्रथवा अन्त्येष्टिके यादका स्नान करनेके लिए ही) पश्चिम सागरके किनारेकी मोर मुड़ गया था ॥२२॥
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् गतवत्यरौ तमनुमत्य परमपुरुषं महोदयः ।
व्याप्य निशिततमसंप्लवगैः स्थितमर्जुनप्रकृति तत्र राजकम् ॥२४॥ गतेति- राजकं सुग्रीवप्रभृतीनां राज्ञां समूहः तत्र रणे स्थितम्, किं कृत्वा ? तं परमपुरुषं मक्ष्मणं निशिततमसं निशितं तमो यस्य तं तीक्ष्ण तिमिरोपहतं विनष्टचेतनम् अनुमत्य शात्दा, कस्मिन् सति? घरी गतवति सति, कि कृत्वा स्थितम् ? महोदयः प्लवङ्गः वानरेः व्याप्य वेष्टयित्वा, कथम्भूतं राजकम् ? बर्जुनप्रकृति शुद्धस्वभावम् ।
भारतीयः- अर्जुनप्रकृति मध्यमाण्डवप्रधानं राजक स्थितम्, किं कृत्वा ? परमपुरुषं नारायण पूर्वम् अनुमत्य, किं कृत्वा व्याप्य, कस्याम् ? निशि रात्री, कथम्भूतं राजकम् ? असंप्लवगैः शिष्टवीरयागैः महोदयः ततें व्याप्तम् क्व सति ? असे गत बति ॥२४॥
न किलास्ति कोऽप्यवनिमानमवगत इतीरितोद्यमः ।
पादपरिगणनया भुवनं रविरेष मित्सुरिव दरमत्यगात् ॥२५॥ नेति-रविः सूर्यः दूरं यथा तथा अत्यगात् अतिशयेन गतवान् इबोत्प्रेक्षितः ? भुवनं जगत् पादपरिगणनया कृत्वा मित्सुरिब, कथम्भूतः? ईरितोद्यमः, कथमिति कृत्वा प्रकाश्यते, किल लोकोक्ती परामर्श च, न कोऽप्यस्ति, फथम्भूतः ? अवनिमानं भूमिमा अवगतः ज्ञातवान् ॥२५॥
सदृशोदयास्तमयवृत्तिरजनि तपनोऽनुरागतः ।
संपदियमिह विपच्च परं परिवर्तते नहि महीयसः स्थितिः ॥२६॥ सदृशेति-तपनः सुर्यः अनुरागतः अनुरागात् सदृशोदयास्तमयवृत्तिः सदृशी उदास्तमययो. त्तिर्यस्य स तथोक्तोऽजनि संजातः, एकरूपोजनीत्यर्थः, युक्तमेतत्, इह लोके परं केवलम् इयं संपद् विपन्च परिवर्त्तते महीयसः स्थितिर्न परिवर्तते हि स्फुटम् ॥२६॥
दिनकी समाप्ति (प्रतिलंघन) को निश्चित करनेवाला सूर्य भी (मस्त) विनाशको प्राप्त हुआ था। यही खेदको बात है कि संसारमें मृत्युको वेलाको टालने में कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं होता है ऐसा निश्चय है ॥२३॥
शत्रुके घले जानेपर परम प्रतापी वानरोंने यह जाना था कि परम पुरुष लक्ष्मण तोरण शक्ति लगनेके कारण अचेतन पड़े हैं। स्वभावसे सरल (अर्जुन-प्रकृति) समस्त राजा लोग यह जानते ही शोकमग्न होकर उसको घेरकर बैठ गये थे।
__अत्यन्त सम्पन्न तथा शिष्टवीरों (असंप्लवगैः) से च्याप्त (ततं) अर्जुनके अनुयायो (प्रकृति) राजाओंका समूह वात्रुमोंके लौट जानेपर रात्रिको परमपुरुष कृष्णको घेरकर जा बैठा था। तथा उनको सम्मतिको जाननेके लिए प्रतीक्षा करने लगे थे ॥२४॥
कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसने पृथ्वीको स्वयं नापा हो इस,लोकोक्तिसे प्रेरित होकर पुरुषार्थो सूर्य पगों (कदमों) से गिनकर पृथ्वीको नापनेके लिए ही दूर तक चला गया था [सन्ध्या समय सूर्यको किरणें (पाद) संख्यात रह जाती हैं और वह अस्त हो माता है ] ॥२५॥
सन्ध्याकालीन लालिमाके कारण सूर्य उदय और प्रस्तके समय एक समान स्वभाव (लालिमा, आदि) का धारक हो गया था। उचित हो है-संसारमें यह सम्पत्ति और विपत्ति ही खूब बदलती हैं किन्तु इससे महापुरुषोंकी स्थिति रंचमात्र भी नहीं बदलती है ॥२६॥
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः क्षतजप्रवाहनिवहस्य समरभुवि सर्पतो द्विषः ।
रागपटलमधिरूढमिव द्युतलानि सान्ध्यमरुणं बभौ महः ॥२७॥ क्षतजेति-साध्यं सन्ध्यासमुत्पन्नं महः तेज: बों रराज, कथम् ? अरुणम्, किमिवोत्प्रेक्षितम् ? द्युतलानि अधिरूढम्, क्षतजप्रवाहनिवहस्य रक्तपूरसमूहस्य रागटलमिव, कयम्भूतस्य ? समरभुवि रणभूमौ दिशः सर्पतो गच्छतः ।।२७।।
अथ वारुणीरुचिरभाजि न परममुनाम्बरस्थितिः ।
क्वापि रविश्वपतन्भविता तदितीव तद्गतमगामि सन्ध्यया ॥२८॥ अथेति-- अथ सन्ध्यावर्णनानन्तरं न परं केवलमभाजि सेविता वारुणी रुचिः पश्विमा दीप्तिः, केन? अमुना रविणा, तथाभाजि त्यक्ता, का ? अम्बरस्थितिः, तथा क्याप्यवपतन् भविता तदितीव भविष्यति रविः । अत्र लुप्तोपमा बोध्या । यथामुना मद्यपेनाभाजि सेविता, का ? वाहणी रुचिमंदिराभिलाषः, तथाभाजि भग्ना, का ? अम्बरस्थितिः वस्त्र स्थितिः, अमुना रविणा, तथा क्वाप्यवपतन भविता तत् ततोऽनन्तरमगामि गतम्, किम् ? तद्गतं रविगमनम्, क्या ? सन्ध्ययेति ॥२८॥
परतस्तमांसि पुरतोऽस्य सवितुरभवन्महोद्यमः।
दिग्विजयमधिकरोति किमु क्षभितं हि पश्चिममचिन्तयन्प्रभुः ॥२६॥ परत इति-अभवन् संजातानि, कानि ? तमांति अन्त्रकाराणि, कथम् ? परतः पश्चात् पृष्ठत इत्यर्थः, पुरतोऽग्रतोऽभवन्, कोऽसौ ? महोद्यमः, कस्य ? अस्य मवितुः सूर्यस्य युक्तमे सत्, उ अहो किमवि करोति, अपि तु नेति भावः, कोऽसौ प्रभुः, किम् ? दिग्विजयम्, कि कुर्वन् ? अचिन्तयन् अवितर्कयन्, किम् ? पश्चिमम्, कथम्भूतम् ? झुभितम्, कथम् ? हि स्फुटम् अकुटिलत्वमुपदशित मिति ।।२९॥
उपवन्यभूम्युपगिरं च दिवसमुपलाय वायत् ।।
प्राप तिमिरमृतमभ्युदयं किल कं न यापयति दुर्गयापना ॥३०॥ उपेति---प्राप प्राप्तम्, कि कर्तृ ? तिमिरम्, कम् ? अभ्युदयम्, कथम्भूतम् ? उरुं गरिष्ठम्, कि कुर्वन् ! वायत् अनिल मानम् ? किन ? दिवसम्. किं कृत्वा ? पूर्व मुपलाय लीनं भूत्वा, कथम् ?
समरभूमिमें बहते हुए शत्रुपोंके रक्तको धाराके पूरकी लालीको प्राकाश-पटलपर फैलाती हुईके समान सन्ध्याकालीन लालिमाकी कान्ति समस्त आकाशके तलमें व्याप्त हो गयी थी ॥२७॥
___ सन्ध्या समय सूर्य (रूपी मद्यप) के द्वारा केवल पश्चिम दिशाको कान्तिरूपी मदिरा वारुपी का ही प्रानन्द नहीं लिया गया था अपितु वह प्राकाश (कपड़ों) में भी न रह सका था। तब सूर्य (मद्यप) कहीं जाकर गिर गया होगा, यह सोचकर सन्ध्या (मद्यपकी खी) भी सूर्य (मद्यप) के रास्तेपर चली गयी थी ॥२॥
महा पुरुषार्थक [कारण प्रकाश] सूर्य प्रागे-आगे चला जा रहा था और इसके पीछे-पीछे अन्धकार बढ़ता जाता था। यह देखकर पश्चिम दिशामें क्षोभ फल गया था, क्योंकि समय पुरुष बिना संकाल्पके (अनायास हो) दिग्विजय कर डालते हैं ॥२६॥
बनोंके निकटकी भूमिमें तथा पहाड़ोंकी घाटियोंमें छिपकर दिनको काटनेवाला अन्वकार रात्रि होते ही विस्तारके शिखरपर पहुंच गया था। ठीक ही है। ऐसी कौन-सी
1. 'द्विषः' प्रासङ्गिक मविष्यति ।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् उपवन्यभूमि बने भवा बन्या सा चासो भूमिश्च तस्या अभ्यासः कान्तारसमीपमुपगिरं प गिरिसमोपे. युक्तमेतत्, किल लोकोक्ती, कं न यापयति नातिकामति दुर्गयाफ्ना दुर्गगमनिका ॥३०॥
धुमणी प्रतापिनि गतेऽस्तमभयचिरसङ्गमात्तमः।
श्लिष्यदिव घनमशेषमभृत्यलयः प्रियो हि खरदण्डतोषिणः ॥३१॥ द्युमणाविति-धभूत् संजातम्,किम् ? तमोऽन्धकारम्, किं कुर्वदिव? आश्लिष्यदिवालिङ्गदिव,कस्मात् ? अभयचि रसङ्गमात् निर्भयचिरकालसंसर्गात्, क्व सति ? द्युमणो मूर्य अस्तंगते, कथम्भूते द्युमणो ? प्रतापिनि प्रतापवति, कथम्भूतं तमः ? घनं पुनः अशे निखिला, युक्तमेतत्, खरदण्डतोषिणः वरदण्ड पमं तोषयतीत्येवंशील: सूर्यः तस्य प्रलयो हि प्रियो भवेत् तीव्रकर दानकुशलस्य राज इति ध्वनिः ।।३१॥
निजदुःसुतं कुलमिवाशु गुरुगृहमिवायथोद्यतम् ।
राज्यमिव समुदितव्यसनं भुवन परास्तमयबद्धतामसम् ॥३२।। निजेति-भुवनं जगत् परास्तं प्रक्षिप्तम्, किमिव ? निजदु:सुतं कुलमिव, आशु शीघ्रं यदि वा अययोद्यतम् अयथाचारम असदाचारं गुरुगृहमिव समुदितव्यसनं राज्यभिव, कथम्भूतं सद्भुवनम् ? परास्तम् अवबद्धतामसं तमस इदं वैकृतं तामसं बद्धं तामसं येन तत् ।।३२॥
कृतमुच्छ्रितं तदनुदात्तमघरतरमुच्चमादृतम् ।
क्वाप्यजनि न च विवेकमतिः कुनृपैकचेष्टितमिवाभवत्तमः ॥३३॥ कृतमिति-कृतं विहितम्, कि कमंतापन्नम् ? तत् उच्छ्रितम् अनुदात्तम् अधरतरं च उच्चम् उच्चैः, केन ? तमसेत्यध्याहार्यम्, तद्यथा प्रदर्श्यते यत् पूर्वम् उच्छ्रितम् उच्चं तदघरं कृतं यदधरतरं तत् उच्च कृतम्, तथा बजनि, किम् ? तमः, कथम्भूतम् ? आदृतमादरयुक्तम्, क्व ? क्यापि, न घाजनि का ? विवेवामति दबुद्धिः, तथाभवत् संजातम्, किम् ? तमः, किमिव ? कुनृपैकचेष्टितमिव, येन यदृच्छ्रितं तदनुदस्तं यदघरतरं तदुच्च कृतं क्वाप्यारतमजनि न च तस्य विवेकमतिविचारवुद्धिरजनीति ॥३३॥
पुरतः स्थितं परिचितं च निकटतिमिराहतेक्षणः ।
जात इव धनमदान्ध इव वचनापि कोऽपि न जनोऽभ्यचायत ॥३४॥ वस्तु है जिसका पार कठोर (जीवन) यात्रा न पाती हो ? अर्थात् पुरुषार्थी जीवन ही प्रभ्युदयका साधक है ॥३०॥
प्राकाशके मणिभूत अत्यन्त तेजस्वी सूर्यके अस्त हो जानेपर गाढ़ अन्धकार सर्वत्र व्याप्त हो गया था, मानो बहुत समय बाद मिलनेके कारण ही समस्त विश्वका निडर होकर गाढ़ प्रालिंगन करनेमें लीन था। और कमलोंके विकासक सूर्यको प्रलयपर आनन्द मना रहा था [मलिन मनोवृत्ति (तमः) के लोगोंको भी प्रतापी (खर) तथा प्रनाचारियोंको दण्ड देकर ही माननेवाले राजाका मात्र ही प्यारा लगता है] ॥३१॥
अन्धकार पटल में लपटा समस्त संसार शीघ्र ही उसी प्रकार हीन अवस्थामें जा पड़ा था, जिस प्रकार अपने कुपुत्रके कारण कुल, परम्परा-विरुद्ध अनाचारके कारण गुरुफुल और ईति-भीति विपत्तिके मा जानेपर कोई राज्य परास्त हो जाता है ॥३२॥
दुष्ट राजाके व्यवहारके समान अन्धकारने भी ऊँचे पदार्थको नीचा कर दिया था, नोचेसे नीचे पदार्थ बहुत ऊँचे प्रतीत होते थे तया कहीं पर भी ऊंच-नीच (कर्तव्यप्रकर्तव्य) का भेद समझमें नहीं पाता था ॥३३॥
१. 'दण्ड' इति मूलानुसारी।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३२५
पुरत इति — पुरतोऽग्रतः स्थितं वस्तु कोऽपि जनो नाभ्यचायत नेक्षितवान् तथाच परिचितं लब्धमनुभवगोचरमित्यर्थः क्व ? क्वापि कस्मिंश्चित् स्थाने, क इवोत्प्रेक्षित ? जात इव कथम्भूतः ? निकटतिमिरातेक्षणः आसन्ततिमिराभिभूतलोचनः तथा धनमदान्ध इवोत्प्रेक्षितः क्वचनापीति शेषः ||३४|| इति दिविमूढमिव तत्र गिरिषु दरिषु स्खलत्पतत् ।
व्याप हृतमिव तमस्तमसा तदशेषमग्रजवपूरणोद्यतम् ||३५|| इतीति--तम रूपालान् किमिवोत्प्रेक्षितं तमः ? तमसा कोपेन हृतमिव गृहीतमिव किं कुर्वत् ? पतत् अंशमानम्, कासु दरिषु गर्तासु तथा किं कुर्वत् ? गिरिषु पर्वतेषु स्खलत् किमिवोत्प्रेक्षितम् ? दिग्विमूढमिव भ्रान्तमिव का ? तत्र रणे, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण कथम्भूतमग्रजवपुः रणोद्यतम् पुनरशेषं समस्तम् ।
?
भारतीयः - तमः तत् अशेषं जगत् व्याप, कथम्भूतं तमः ? अग्रजवपूरणोद्यतम् अग्रजवं प्रमानवेगं पूरयति पुष्टीकरोति अग्रजवपूरणः, तत्र उद्यतम् उद्यमो यस्य तत् किमिवोत्प्रेक्षितम् ? तमसा हृतमित्र, शेषं प्राग्वत् ।। ३५ ।।
मिलिताङ्गदंपतिसुखाय सहितजनकीयनन्दनम् ।
व्योम्नि गमनमकृत त्वरितः स शनैरवाल्लघुरयाच्च मारुतः || ३६ ||
मिलितेति - स मारुतो मरुतोऽपत्यं पुमान् मारुतो हनुमान् पतिसुखाय लक्ष्मणसुखार्थं व्योम्ति गगने लघुरयात् शीघ्रवेगात् त्वरितगमनम् अकृत कृतवान् कथम्भूतात् लघुरयात् ? शनैरवात् प्रच्छन्दा ध्वनेः, कथम्भूतं गमनम् ? मिलिताङ्गदं मिलितः अङ्गदो यस्मिन् तत् पुनः सहितजनकोयनन्दनं सहितः जनकीयनन्दनः भामण्डलो यस्मिन् तत् ।
भारतीय:- स मारुतो वायुः व्योम्ति नभसि शनैरवात् मधुरध्वनेः मिलिताङ्गदम्पतिसुखाय संश्लिष्टदयिताप्राणनाथप्रमोदार्थं गमनम् भयात् वहति स्मेत्यर्थः कथं गमनम् ? सहितजनकोयनन्दनं जनानाम् इदं जनकीयं सहहितेन वर्तते सहितम्, जनकीयं च तनन्दनं च जनकीयनन्दनं सहितं जनकीयनन्दनं यस्मात् तत् कथम्भूतो मारुतः ? अकृतत्वरित: अकृतं त्वरितं वेगो येन सः पुनः लघुमंन्दः मयूरपिच्छभेदीत्यर्थः ॥३६॥
सम्पत्ति के अभिमान से प्रभ्धे ( तूर ) व्यक्ति के समान आँखोंपर छाये गाढ़ अन्धकार के कारण कोई भी व्यक्ति कहीं पर भी सामने रखे अथवा अत्यन्त परिचित पदार्थको भी नहीं देख पाता था [ सम्पत्तिके गर्वसे चूर व्यक्ति भी पुराने परिचित और सामने आये सुपरिचित सम्बधियों को भी नहीं पहचानता है ] ॥३४॥
दिशाओंके ज्ञानसे हीन व्यक्तिके समान रखभूमिमें पहाड़ोंपर लड़खड़ाते तथा अभिभूत तथापि युद्धके लिए तैयार अग्रज
"
गुफाओं में गिरते सर्वत्र व्याप्त अन्धकारने क्रोधसे (राम) के शरीरको भी प्रभावित कर दिया था [ पाण्डव पक्ष अन्धकारने प्रधान रूपसे (अ) युद्धके वेगकी ( जब) पूर्ति करने में ( पूरण) लगे तथापि श्रन्धकारके कारण निष्क्रिय परम ब्रह्म ( अशेष) कृष्णजीको भी प्रभावित किया था ] ॥३५॥
स्वामी (लक्ष्मी) को स्वस्थ करनेके लिए पवन के पुत्र हनुमानजीने शीघ्र
१. अशेषं ब्रह्माणमिति ।
२. मिथितं संष्टिं भङ्गं शरीरं यस्य सः जरासन्धः तस्य दम्पति ।
३. "ट शरीर स्त्री पुंस सुख निमित्तं" प० । ४ शरीररमणीरमण सुखनिमित्तं द० ।
४. प्राप्तवानूप० द० 1
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
विसन्धानमहाकाव्यम् भरतः स्थितः स खलु यत्र तदिदमथवातिरागतः ।
स्थानमसुखमलिनो न्यगदन्नलिनोदरं निशि निबद्धमीलनम् ॥३७॥ भरत इति-यत्र स्थाने भरत: कैकेयीनन्दनः स्थितः तदिदं स्थानं सः वातिः वातस्यापत्यं वातिः हनूमान् आगतः, कयम् ? खलु निश्चयेन कस्याम् निशि रात्री अथ स्थानगमनानन्तरम्, न्यगदत् कथितवान्, कोऽसौ ? वातिः, कम् ? नलिनोदरं लक्ष्मणम्. कयम्भूतम् ? निबद्धमीलनम् कश्यम्भूतः ? असुखमलिनः दुःखम्लानः ।
भारतीयः-अथवा स मारुतः न्यगदत् किम् ? तदिदं मलिनोदरं कमलकोशम्, कयम्भूतम् ? निबद्धमीलनं प्राममंकोषम्, कस्याम् ? निशि, पुन: कथम्भूतम् ? अलिनो भ्रमरस्य स्थानम्, कथं यथा भवति न्यगदत् ? असुखं दुःखं यत्र नलिनोदरे स्थितः, कः? सोऽलिः, कपम् ? भरतः तत्परतया कस्मात् ? अतिरागतः अत्यन्तप्रीतेः, कथम् ? खलु दियेतिध्याहार्यम् ? ॥३७॥
भुवि कोकनिष्ठ इव तत्र सहजपरिपीडनोऽभवत् ।
यः सः तपनपरितापगुणः स्वयमस्तमेत्य सह एवमुद्यतः ।।३।। द्विः भुवीति-लत्र तस्यां भुवि य: तपनपरितापगुणः तपनस्येव परितापगुणस्तपनपरितापगुणोऽभवत् संजात:, कपम् उद्यतः ? सहजपरिपीडनः सहजातः सहगो भ्राता लक्ष्मण: सहज परिपीडयतीति सहजपरिपीडनः, "नन्द्यादिभ्यः [ जै० म० २।१।१०६ ]" इति कर्तरि ल्युः, अकनिष्ठो महान्, कः? सः, असह इव इसहिष्णुरिव स्वयमस्तमेति, कथम्भूतः ? उद्यतः, कथम् ? एवं विनाशं सहज नेष्यामीत्यङ्गीकारे। ही अाकाशमें गमन किया था। किन्तु इनके प्रस्थानमें न तो शोर हुआ था और न वेगके कारण धक्का ही लगा था । गोकि यह प्रस्थान इन्होंने जनक-नन्दन भामण्डलके साथ किया था और अंगद भी (रास्तेमें) मिल गये थे।
__ जुटे हुए शरीरके धारक (मिलितांग) जरासंध दम्पतिके लिए विश्रामदायक तथा इनके हितैषी (स-हित) लोगोंके (जनकीय) आनन्दका कारण पवन प्राकाशमें धीरेधीरे चल रहा था। उसका वेग बहुत हलका था तथा वह जरा भी जल्दी नहीं कर रहा था ॥३६॥
प्रयाण के बाद जहाँ भरतजीके उस स्थानपर पहुंचते ही (प्रागतः) दुःख से मुरझाये उन पवनसुतने भरतजीको समाचार दिया था कि वे लक्ष्मणजी (शक्ति लगनेके कारण) रात्रिमें आँख बन्द किये (मूच्छित) पड़े हैं।
उक्त प्रकारसे शत्रुपक्षके (प्रथ) रातको सो माने पर (निबद्ध मीलनं) यह पाण्डव (भारत) श्रीकृष्ण (नलिनोदरं) के स्थानपर ना पहुंचा था तथा मित्रोंको जहाँ-जहाँ कष्ट था यह सब उनको बता दिया था क्योंकि उन सबपर उसका स्नेह था ॥३७॥
इस प्रकारसे (एवं) उस रणभूमिपर जो सगे भाई (सह-ज) पर भयंकर प्रहार हना था वह [रात्रिमें भी] सूर्यके प्रखर तापके समान जला रहा था। तथा परम पुरुषार्थी (उद्यतः) सबसे छोटेसे बेड़ा (प्रकनिष्टः) भाई उस प्रहारको सहने में असमर्थ (असह) के समान स्वयमेव अस्त-सा हो रहा है।
१..मरुत, वायु-बहुलं शरीरं यस्य स मारुतः भीमः । २. खलु दिवेति साध्याहार्यम्-द० । खलु दिवेति साध्याहार्यम्-ज० ।
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३२७ श्रय भारतीयः-तर भुवि कोकनिष्ठ इव चक्रवाकतत्पर इव सहजपरिपीडनो निसर्गपीडक: एनपरितापगुण: तपनस्य परितापगुणस्तपनपरितापगुणः सूर्यस्य सर्वव्यापी तापगुण इत्यर्थः, अभवत् स स्वयमस्तमेति, कयम्भूत: ? असहः, पुन: उद्यतः, कथम् ? एवं कोक विनाशं नेष्यामीत्यङ्गीकारेण । पत्र रात्रिविभागे भवितेति शेषः ॥३८॥
विनिवार्य तं निजकरण निशि गुरुतमोऽभिमातुलम् ।
प्राप विधुरपटुरभ्युदयं महसाञ्जनोऽस्य स तुतोष सङ्गतः ॥३६॥ विनिवार्येति-आजनो धञ्जनातचयो हनुमान् अभ्युदयम् पाप प्राप्तवान्, केन ? महसा तेजसा, किं कृत्वा ? पूर्व विनिवार्य सम्बोध्य, कम् ? तं भरतम्, केन कृत्वा ? निजकरेण स्वहस्तेन, कथं यथा भवति अभिमातुलं मातुलेन द्रोणेन सहेत्यर्थः, कस्याम् ? मिशि रात्री, तुतोष जहर्ष, फोऽसौ ? स मातुलो द्रोणनामा, कस्मात् ? सङ्गतः मङ्गाद, कस्य ? वस्याञ्जनम्य, कथम्भूत: आञ्जन: ? गुरुतमः गरीयान, पुनः विधुरपटुः दुःखहर्ता।
पथ भारतीय:-विधुश्चेंन्द्रः महसा तेजसाम् अभ्युदयं निशि रात्री प्राप, किं कृत्वा ? पूर्व विनिवार्य कि तत्तमः, केन कृस्था ? निजकरेण स्वकीयकिरणेन, कयम्भूतेन ? अभिमान अभिमेति विचि रूपम्, तृतीयायां परत आकारम्य लोपः, परिच्छेदकेनेत्यर्थः, कथं तमः ? गुरु धनम्, कथम्भूतो विषुः ? अपटुबंलिः, कथम्भूतमभ्युदयम् ? अतुल मनुपमम्, तथा प तुतोष, कोऽसौ ? जनः, कस्मात् ? यस्य विभोः सङ्गतः सङ्गात् ।।३९॥
स वामक्षु द्रोणोरुचितमुदयात्संमुखगते
विधौ रागोद्रेकं धृतवति तमोथैकनिलयः। कथंचिच्चित्तस्य स्थितिमिव विशल्यां प्रहितवान्
विहातुं शक्यात्मप्रकृतिरनुबद्धान हि सुखम् ॥४०॥ संसारमें जिस प्रकारसे यह निर्वाध घोर बमन हुआ है उसको सहने में असमर्थ वह महान् धर्मराज, अपने प्राप ही समाप्त-सा हो रहा है । यद्यपि सूर्य के समान प्रतापी है और [सत्यको प्रतिष्ठाके लिए] सतत प्रयत्नशील है।
रात्रिमें चक्रवाकोंपर जो स्वाभाविक महाविपत्ति (विरह) पाती है उसको न देख सकनेके कारण ही प्राकाशचारी अत्यन्त तेजस्वी सूर्य भी स्वयमेव अस्त हो जाता है॥३८॥
भरतके दुःखको हाथ फेर करके शान्त करने के पश्चात् रातमें ही महान संकट हरण हनुमान् (प्रांजनेय) बड़े वेगके साथ द्रोणाचलको प्रोर (अभिमातुलम्) बढ़ गये थे। बह द्रोणाचल भी इसको अपने ऊपर पाकर परम प्रसन्न हुमा था ।
पुण्याधिकारियों (महसां) के भी परम पूज्य तथा दुःखियोंकी (विधुर) सान्त्वनामें कुशल श्रीकृष्णजीने रातको ही मामाकी मोर जाते इसे हाथसे रोक दिया था। और वह (भीम) इसके सहवासमें सन्तुष्ट हो गया था और प्रभ्युदयको प्राप्त हुआ था।
अपूर्ण चन्द्रमा प्रकाशकारी (अभिमत) लम्बे-लम्बे अपने किरणोंके द्वारा घोर (गुरु) अन्धकारको दूर करके अनुपम (मतुलम् ) उदयको प्राप्त हुआ था। संसारके लोक भी इसके प्रकाशमें आनन्दित हुए थे ॥३६॥
१. दुःखस्फोटनदक्ष इत्यर्थः-प० .। २. विधुः श्रीवरसलान्छनः' श्रीकृष्णाः । चन्द्रपरो तृतीयोऽर्थः ।
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धान महाकाव्यम्
स इतितवा नियमार्थोऽयम् स द्रोणः विशल्यां विशल्या 'सुन्दरों मङ्क्षु शीघ्रं प्रहितवान् प्रस्थापितवान् कथम् ? कथञ्चित् महता कष्टेन कामिव ? चित्तस्य स्थितिमिव वव सति विवो देवे उदयात् रुचितं शोभितं तं रागोद्रेकं धृतवति सति कथम्भूते विषो ? सम्मुखगते, कथम्भूतों द्रोणः ? शोषैक निलयः अन्वयैमन्दिरम् युक्तमेतत् हि स्फुटम् आत्मप्रकृतिः सुखं यथा तथा विहातु ं त्यक्तु ं न शक्या न समर्था कथम्भूता सती ? अनुबद्धा ।
भारतीय:- स क्षुद्रस्तस्करादिजनः विशल्यां विगतं शल्यं यस्याः सा ताम् अशल्या स्थिति प्रहितवान् घृतवानित्यर्थः कस्य ? वित्तस्य कथञ्चित् किमिव ? तम इव कथम्भूतः ? सधैकनिलयः पापमन्दिर, वसति ? विधौ चन्द्रे उदयात् उचितं योग्यं रागोद्रेकं श्रुतवति कथम्भूतात् उदयात् ? क्षणोः स्वल्पात् कथम्भूतं रागोद्रेकम् ? वामं प्रतिकूलम् कथम्भूते विधी ? सम्मुखगते । शेषं प्राग्वत् ॥४०॥
३२८
विधुतोऽभ्युदितो दिगन्तरं परितस्ताररुचा तया ततः ।
निशि शक्त्युदयः पराद्युतिः कियतीनाम न इन्त्युपप्लवम् ॥४१
विधुत इति - शक्त्युदयः शक्तेरायुषविशेषस्योदयः परितः समस्त्येन दिगन्तरमाशान्तरालम् अभ्युदितः प्राप्तवान् कथम्भूतः सन् ? तया लोकोत्तरमा ताररुचा शुभ्रदीप्त्या विधुतः निराकृतः कस्याः ? ततस्तस्याः विशल्यायाः, कस्याम् ? निशि युक्तमेतत् नामाहो कियती परा उत्कृष्टा द्युतिः दीप्तिः कमु पप्लवमन्धतमसं न हन्ति, अपितु सर्वमेव इन्वोति ।
थम भारतीयः --- परितस्तारग्लपितवान् श्रच्छादितवानित्यर्थः कोऽसौ ? शक्त्युदय: सामर्थ्यादयः, किम् ? दिगन्तरम् कया कृत्वा ? तया मनोहरतया लोकप्रसिद्धया रुचा कान्त्या, कस्याम् ? निशि
जलपूरोंके एकमात्र केन्द्र उस द्रोणाचल पर्वतने उदयके पश्चात् ऊपर उठते तथा लाल-लाल कान्तिसे व्याप्त चन्द्रमाके सामने आते ही मनको स्वाभाविक स्थितिके समान गुणकारी विशल्या श्रौषधिको किसी तरह शीघ्र ही भेज दिया था । उचित ही है क्योंकि अपनी अनुरक्त (अनुबद्धा) सन्तान ( उपज ) को छोड़ना प्रासान नहीं हो होता है ।
अपने वंशका आधारभूत तथा शीघ्र ही उत्तेजित होनेवाले उस ( भोम) ने भी विधाता ( श्रीकृष्ण ) के सामने श्रानेपर उचित मात्रामें श्रावेशको किया था। तथा बड़े प्रयत्नसे मनको निःशंक स्थितिको पा सका था । अथवा ठीक ही है, चिरकाल से बंधा अपना स्वभाव प्रासानीसे नहीं छूटता है ।
चन्द्रमाका घोड़ा थोड़ा उदय हुआ था । अतः सामने आनेपर भी उसकी कान्ति लाल ही थी । परिणाम यह हुआ कि अन्धकारके समान पापोंके भण्डार क्षुद्र व्यक्ति ( चोरादि ) ने भी स्वाभाविक ( उचित) दिपरीत श्राचरणको छोड़कर बड़े प्रयत्नसे अपने मनको पापवृत्ति से बचाया था | क्योंकि अपना पुराना संस्कार छुड़ाना कठिन होता है ॥४०॥
सब प्रकारसे लक्ष्मणपर बढ़ो ( श्रभ्युदितः) शक्ति शस्त्रका प्रभाव उस विशल्या श्रौषधिके देते हो न जाने किस दिशामें उसी रातको बिलीन हो गया था । उत्कृष्ट प्रभावशाली जड़ी किस महारोगको नष्ट नहीं करती है ?
१. ओषधिमिति प्रकृतार्थ: 1
२. चन्द्रे यतः रात्रावेदौपधिः नीतः दत्तश्च ।
३. शिखरिणीवृत्तम् ।
8. रापितवान्- प० ज० ॥
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सगः
३२६
सुतः सन् ? अभ्युदितः समुत्पन्नः कस्मात् ? ततस्तस्माल्लोकोत्तराद्विधुतश्चन्द्रात् युक्तमेतन्नाम किती पराद्युतिः कं नोपप्लवं हन्ति अपितु सर्वमेव हन्तीति भावः ॥४१॥ परिमोहयमाणवाशयं व्यसनाम्भोधिभिवोचरंस्तमः ।
सुखरोचिरतः सलक्ष्मणः क्षणमुल्लाव इवोदतिष्ठत ॥ ४२ ॥
परीति- गोपत. अविरेण कालेन उदतिष्ठतािन् क इव ? उल्लाघ इव व्याधिमुक्तम् ? व गुहूर्तमेकम् कथम्भूतः ? सुखः ढहारी अथवा सुखरः सुखदः, किं कुर्वन् ? व्यसनमामि जाशयं चेतः परिषोयमाणं समोचकारम् उतरन् सन् चन्द्रः सलक्ष्मणः सह लक्ष्मण वर्तत इति सः परिपूर्णत्वात् । पामपूर्ववत्॥४२॥
भारतीय:-: दिवानाः ।
{
निजया रुपिपारुचा परनाल्योपधिपतिवरया ।
वायकानामधिकं रुरुचे न महस्त्रिसङ्गतिषु कस्य रुचिः ||४३||
विजेवियर नामक राजपुत्रा अधिकं रुरुचे शुशुभे किं कृत्वा ? पूर्व तं मात्र अथवा तं पतिमवाप्येति सम्बन्धः कथम्भूतया ? रुपाख्यान पुनः परमाशा उत्कृष्टबाच्या तु सर्वेषामपीतिशेषः ।
निजपूर्ववानिपूर्ण
युक्लमेल हरुन
नारायण (वि) से शक्तिका संचार रात में हो समस्त दिशाधों में व्याप्त हो गया था। इसके पेहर का भी फैल गयी थी । परब्रह्मकी प्रभा किस उपद्रवको चाय नहीं करती है ! अर्थात् लब उप मिटा देती हैं । चन्द्रासि विगु-वन्तराणों में व्याप्त हो गयी थी तथा इस मनोहर प्रकाश से रात्रि में लोगों को प्राप्त हो गया था। पूर्ण प्रकाश किस अम्यकारको दूर नहीं करता है ॥४१॥ अत्यन्त तो बोद्धा श्री लक्ष्नने इसे खाते हो चित्तको पूर्ण रूपसे सूच्छित करनेमें समर्थ शक्ति को तुरन्त वैसे हो शान्त कर दिया था जैसे गुणी व्यसनोंके सागरको पार कर लेता है। और क्षरा भरमें ही ऐसे उठ बैठे थे मानो कुछ हुआ ही न था ।
धूत, आदि वस सागरको पार करने के समान चितको मोह जाल में फँसाते हुए कलुषिर भावको श्री कृष्द्ने तत्काल सुखद कर दिया था और पाण्डव उत्साहित होकर उठ खड़े हुए थे ।
कान्त कान्ति पारण शत चिह्नमा चन्द्रमा भी सबको अचेत ( सुषुप्त ) करनेवाले सम्यकारको नाश करता हुआ और उसको बढ़ाता हुआ ऊपर था गया या ॥४२॥ श्रेष्ठ के द्वारा लायी गयी लक्ष्मणकी पहली कान्ति ( निजपूर्वया ) दुर्बला का सफेद ( पाच्छु ) होकर भी मनोहर लगती थी । तथा विशाल मनोबलको द्योतक थी । यह पाष्ड छवि भी ( दिलाई ) सुन्दर बनाको पाकर और जगमगा उठी थी। उचित ही है प्रतापियोंकी संगतिमें कौन नहीं चमकता है ?"
परनामा एवं औषधीश श्रीकृष्णपर अनुरक्त और प्रकृतिस्थ ( निजपूर्वया ) पाण्डवों के मनोहर प्रतापने जगन्मोहन (कान्त ) श्रीकृष्णको पाकर अपनी शोभाको प्रत्यधिक कर लिया था। ठीक है, प्रतापियोंके साथ रहकर कौन प्रतावी नहीं हो जाता है ।
१. वैतालीयं छन्दः
४२
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
Fiसन्धानसहावाल्यम्
अथ भारतीयः-परं केवलं आशया दिशा अधिकं रुरुचे, किं कृत्वा ? पूर्व तमोषधिपति चन्द्रमवाप्य, कथम्भूतं चन्द्रम् ? कान्तं कमनीयम्, कथम्भूतया ? निजपूर्वया निजमात्मीयरूपं पूर्वं यस्याः सा तथोक्ता तथा, पुनः रुचिरपाण्डुम चा लक्षणशुक्लदीप्त्या, पुनः वरया रमणीयया । शेषं प्राग्वत् ॥४३॥
स हरिभवोदयमुदीच्य जनश्चिरचन्द्रहासभयविह्वलितः ।
निजकृत्यनिर्वहणभारमितः समुदश्वसीन्निशि कवोष्णमसौ॥४४॥ स इति-सः असो जनः कवोरुताम् ईषद्रणं यथा तथा निशि रात्री समुदश्वसीत् समुच्छ्यसितवान्, कथम्भूतः ? निजकृत्यनिर्वहणभारमात्मकार्यनिर्वाहभारम् इतो गतः, कि कृया ? पूर्व नवोदयं हरि लक्षमणमुदीक्षावलोक्य, कथम्भूतो जनः ? निरचन्द्रहासभयविह्वलितः चिरं चिरमा चियतीति चिरः, पचारित्वादच्; अपक्षय इत्यर्थः, चन्द्रहास: खङ्गविशेषः, चिरः बन्द्रहासो यस्य सः चिरचन्द्रहामो रावणस्तस्माद्ययं तेन विह्वलितो विधुरितः ।
भारतीय-अभी सोऽयं जनः कोष्णं समुदश्वसीत् । किं कृत्वा ? पूर्वम् उदी क्ष्य, कम् ? हरिन्नवोदयं हरिति दिशि मवादयो यस्य तं चन्द्रमित्यर्थः, कस्याम् ? निशि, कथम्मूतः सन् ? चिरचन्द्रहास भयविह्वलितः चन्द्रहास: चन्द्रातपः चन्द्रज्योत्स्नेत्यर्थः चिरचन्द्रहासायं चिरचन्द्रासमयं तेन विह्वलितः, शेष पूर्ववत् ॥४४॥
दारुण्यमात्मन्यनुशय्य तीव्र स्वतापतप्तां दयया धरित्रोम् !
निभृत्य निर्वापयितुं हिमांशुव्याजेन शीतोऽभ्युदयादिवाकः ।।४।। दारुण्य मिति-हिमांशुव्याजेन चन्द्रस्वरूपेण स्वतापतप्तां धरित्री मेदिनी निपयितु सुयितुं शोनीकर्तुमित्यर्थः, दयथा पूर्वम् अनुशमय पश्चात्तापं गत्वा नित्य व्यापु य असो अर्क: सूर्यः अभ्युदयादिन
अपनी परम्परा ( पूर्वया ) के अनुसार निर्मल धवल कान्तियुक्त दिशाएँ सर्वोत्तम ( परं ) मनोहर चन्द्रमाका वरण करके सुशोभित हो उठी थीं। प्रकाशपुजके साथ रहकर कौन प्रकाशित नहीं होता है ? ॥ ४३ ॥
औषधि लाने के अपने कर्तव्यफे भारसे मुक्त तथापि चन्द्रहास नामके खङ्गको सिद्धिसे सम्बद्ध प्रकरणको स्मृतिसे विठ्ठल हनुमानजीने फिरसे चैतन्यको प्राप्त होते हुए मरणको देखकर उस रात्रि में प्रानन्दसे उरण साँस ली थी।
अपने कर्तव्यके निर्वाहमें पारंगत लथापि अकाल विनाशके घोतक फोरवराज के अट्टहाससे भीत और व्याकुल पाण्डव ( भीम ) ने नूतन प्रतापसे देदीप्यमान कृष्णको देखकर रात्रिमें ही साहसकी साँस ली थी।
दिन भर अपने-अपने कर्तव्यको पूर्ण करने में लगे लोग रात्रि में भी चन्द्रका उदयमें होते विलम्बके कारण हर तथा संकुचा गये थे। इन्होंने ही दिशाओं में निकलती चवनीको देखकर प्रानन्दकी सांस ली थी ॥४४॥
अपनेपर बीते दारुण दुःखको तीसताका ध्यान करके तथा अपने दुःखसे दुःही संसारको शान्त करनेके लिए हो करुए. रससे पूर्ण ठण्डे (निर्जीव और निरुत्साहित ) सूर्यवंशी (लक्षमण-भीम ) चन्द्रोदयके समान उदित हुए थे।
. प्रमिताक्षरा छन्दः-तलक्षणे , 'अमिताशा लाल सैक्षदिता'-इलि। २. पाण्डयसमूहः । ३. नूतनकान्तिदीप्तं हरि श्रीकृष्णमित्यर्थः । ४. ज्वेन्य- । ५. चिरः अपक्षयभूनश्चन्द्र यासोऽट्टहासो यस्य सः. चिरचन्द्रहासः कौरवाधिपतिस्तस्माद्यं । ६. -रस्ना चेत्यर्थः ।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३३१
अभ्युद्गतवानिव किमनुशय्य ? तीव्रं सोढुमशक्यम् आत्मनि दारुण्यं दारुणत्वम् कथम्भूतः ? शीतः शीतलः ॥४५॥
शनैः समारुह्य नमोऽनुरागं जहाँ शशी लोकहितोद्यतोऽपि । प्रायेण सर्वोऽप्यधिरूढ संपद्व्येपोढ पूर्वस्थितिरीदृगेव ॥ ४६ ॥
पनैरिति णोः पूनम ने समारुह्य अनुरागं जहो पक्तवान् कथम्भूतः ? लोकहितोचतोच, युक्तमेतत् य चन्द्रसम एव सर्वोऽप्यपढपूर्वस्थितिमुक्तर्वस्थितिर्भवति कथम्भूतः सन् ? अधिरूढसंपत् कथम् ? हि स्फुटं प्रायेण बाहुल्येन ॥४६॥
चन्द्रो वातः शीतकं चन्दनं च चोदेवासीदुष्णकं कामुकानाम् । निर्द्वन्द्वं वा चन्द्रमश्छद्मनाभू दे कच्छत्रं प्राभवं मन्मथस्य ॥४७॥
चन्द्र इति चन्द्रः जातो वायुः शीतकं कल्हारं चन्दनं श्रीखण्डने सर्वम् उष्णकं दाहकम् आसीत् सञ्जातम्, नेपालु ? कामुकानाम् कामिन्दाम् केषु सत्सु ? क्षोदेषु कामजनितपीडासु सतीषु वा अथवा अभूतम् किम् ? प्राभवं प्रतुत्वम् कस्य ? मन्मथस्य, कथम्भूतम् ? एकच्छत्रम् केन ? चन्द्रमश्छचना चन्द्रव्याजेन कथम्भूतं प्राभवम् ? निर्द्वन्द्वं विपक्षरहितम् ||४७||
माधवेन मधुना स्मरेण वा को गयेव महते च तोषितः ।
इत्यहं पुरवशः स्फुटन्निव स्वल्पतारकगणः शशी बभौ ||४८ ||
माघवेनेति — शशी चन्द्रः बभी रेजे, कीदृश: ? स्वरतारकगणः कथम्भूतः ? अवशः स्वाधीनः, पुनः युक्तिः कि कुर्वन्नित्र ? स्फुटन्निच, कम् ? गतिः, तदाह- माघवेन वरान्तेन मधुना मद्येन स्मरण कर मयेव महते मां विना कस्तोषितः अपि तु न कोऽपि ॥४८॥
अपने तेजसे लपायी गयो सृष्टिको दयापूर्वक ठण्डा करनेके लिए ही अपने तीक्ष्ण तथा दारुण प्रताप के लिए पश्चात्ताप करता सूर्य हो मानो ठण्डा होकर चन्द्रमाके रूपसे रात्रि में निकला था ॥ ४५ ॥
संसारका हित करने में तत्पर होते हुए भी चन्द्रमाने अनुराग ( लाली ) को प्राकाशमें ऊपर उठकर छोड़ दिया था । उचित हो है क्योंकि सभी समुन्नत अवस्थाको प्राप्त करके प्रायः इसी प्रकार पहलेको अवस्थाको छोड़ देते हैं ॥ ४६ ॥
safares जात होते ही प्रेमियोंके लिए शीतल चन्द्रमा वायु तथा अत्यन्त ठण्डा चन्दन भी गरम लगने लगा था । अथवा यों कहिए कि चन्द्रमाके व्याजसे कामदेवका एकच्छत्र राज्य हो गया था और कोई भी उसके ( कामदेवके ) सामने खड़ा होनेनें समर्थ
न था ॥ ४७ ॥
वसन्त ऋतु अथवा मदिरा अथवा कामदेव, इनमें से कौन मेरे समान है तथा मेरे बिना इनमें से किसका सन्तोष होता है ? ( अर्थात् किसीका भी नहीं ) इस प्रकारसे अहंकारमें मस्त, स्वाधीन होकर फैलता हुआ-सा चन्द्रमा थोड़े-से तारोंके साथ सुशोभित हो रहा था ॥ ४८ ॥
१. उपजातिश्छन्दः । २, टीकायां सम्पत् + अपोढ विग्रहकरणात 'द' मात्रं प्रतिभाति । मूलानुसारीविग्रहस्तु "सर्वोऽपि व्यपोष्ट इति । " ३ रथोद्धृतावृत्तम् ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
न विधुः स्मरशस्त्रशाणवन्धः स्वयमेष स्फुरिताश्च ता न ताराः।
मदनास्त्रनिशानवतिशल्काचयोऽसाविति मानिभिश्चकम्पे ॥४६॥ ऐति—मानिभिः का कैरिति कृत्वा मम्मे कम्पितम्, ममिति तत्राहि-दिधुश्चन्द्रो न भति, वः ? एपः, faहि भवति ? स्मरशस्त्रशाणबन्धः, कथा ? स्वयमात्मा, ता लोकप्रसिद्धाः ताराश्व न मन्ति, कषाभूताता ? स्फुरिताः, कितहि भवति ? कोऽसी मदनास्वनिशान लशकरचयमदनशास्त्रनिशानाग्निकणकिर इति ११४९।।
आत्मपादशरवं कुमुदौधं भानुतापितमवेत्य सवैरम् ।
हन्तुमभ्यधिकामिछुरिदेन्दुश्चक्रवाकमवपकमलं च ॥५०॥ अमेति--स इन्दुदचन्द्रः चक्राको पागलं च अधिक यथा भवति तथा अलपत् संसारिलदाम, कि मुर्दम्रिय ? वैवं हन्तृमिरज वाञ्छन्तिव, f करना: पूर्व कुमुझौध मनिकर बात्मवारशरणम् अवेत्य मन्वा, कथम्भूतमवेत्य भानुनापितमिति ॥५०॥
क्षीरधिप्लवकृतोद्गमैरिव प्लावितेऽशुभिरलिग्मदीधितिः ।
व्योम्नि मज्जनभवेन शक्तिः सश्वरम्भिव गतेन लक्षितः ॥५१॥ क्षीति-अतिग्मदीधितिरुपन्द्रः जनैरित्याहारीम, लक्षिा , नेम ? गतेन गमनेन, किं पनन् ? सवरन् प्रयतमाना, क इवोत्प्रेक्षितः ? शहित इन, केन ? मज्जमवेद, य? मोम्ति नसि, कधम्गुते ? अंशुभिः किरणः प्लादिने प्रलोडित, करितोशितः क्षोधिप्लाद कृतोद्गमैरिय क्षीरस मुद्रपूरविहितोपपत्तिभिरिवेति । ५१॥
भोगसागरपरिक्रमचौरा रागिणो जलपथे कृतकृत्यान् ।
अध्यरोहदिव जेतुमुदस्त्रश्चन्द्रमण्डलतरण्ड मनङ्गः ॥५२।। भोगेति-मनाङ्गः कवयः चन्द्रमाडलतरण्डम् अध्यरोधिय आरूढनानिव, कथम्भूतः ? उदात्र: उत्ताल शस्त्रः किर्तुम् ? रागिणः कानुकान् जेतुम्, स्थम्भूतान् ? योगसागरपरिश्रमचोरान् भोगसमुद्रमार्गतमा सन्, पुनः कृतकृत्यान् वृतापिना, का जेतुम् ? जल्पथे जलना ।।५२
यह चन्द्रमा नहीं है शापितु कामदेयके प्रस्त्रोंपर धार रखने के लिए शाग ( खराद ) का चक्र है। प्राकाशमें ये तारे नहीं खिले हैं बल्कि मदनके अस्त्रोंफो खरादपर बढ़ाने उड़े हुए भागोके पतंगोंका समूह ही है। वह सोचकर हो रूठी हुई फामिनियां काँप उठी थीं ॥ ४६॥
सूर्यके द्वारा सताये गये और अपने पदों ( किरणों ) पर आश्रित ( खिलनेयाले) कुमुद-समूहको देखकर बैरको बांधे चन्द्रमाने ( सूर्य के प्राश्रित ) चनयाझ-युगलों तथा कमलोंको अधिफसे अधिक सतानेको इच्छा की थी ॥ ५० ॥
क्षीरसागर के पूरके बहावके समान चन्द्रमाकी घयल किरणों के द्वारा प्राफाश व्याप्त हो जानेपर शान्त-शीतल किरणों का स्वामी चन्द्रमा स्थस्य शंका (कहीं सूब न जाऊँ ) में पड़ गया था। फलतः पूधनेके भयसे सावधानीपूर्वक जाता हुआ-सा वह देखा गया था ॥ ५१ ॥
१. औपच्छन्दसिक वृतम् । २. स्वागता वृत्तम् । ३. रथोद्धता वृतम् । ४. स्वाग वृत्तम् ।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३३३ परं न दृष्ट्वाक्रममाणमिन्दुं प्रपूरयामास पयोधिराशाः ।
लावण्यधामा च्युत्तमानसीमा रागोऽप्यसंभान्हदये जनस्य ॥५३॥ पमिति-- परं पलं पूरयामास पूरितवान्. फोऽसो ? पधिः समुद्रः, का! भाशा दिशः, किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट लोक्य, उन्न् ? इन्दु यर द्रम्, किं कुणिम् ? छाकमकारणमुक्यन्तम्. कायम्भूतः ? जापयामा पुनश्च्यु: मारसोग, हि कुर्वन् ? समान काम नः, बम निस्य हृदये । बागोऽपि मपुर , ना? अशा वा:, कि कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्वा, कम् ? इन्दुम्, ति: कुणिम् ? भाक्रममाणम्, में थम्भूतः ? वाम'. पुन: च्युटमा , कि हुन् ? नाम:, स्व ? अनस्य हो' ।।५३.
श्रणालिनेक्षणेन शुक्त्या प्रियवार्ता विधुमार विचन्त्यः ।
मधुरवपसेवथे। जाता हदि वध्यः समधातपरिचरेण ॥५४॥ श्रदहि--, ध्यः वामन्य नाम:, थम्भूताः ? समधातवः, थम् । चिया बहुतरकासम्, ? हुद हृदये. येव : मधुशायद, कुर्वन्स्य: ? पिबम: आस्वाद , म् ? जिपजाती बल्लमवात्तम्.ि बैर ? श्रवगा मलिना मिनिला, तथा पिपरयः ५.म् ? विधु' चन्द्रम्, न ? ईक्षणेन लोच. नेन, तथा शुवस्या यषणानचं मद्यम् पिन्त्यः ।।५४.)
रत्नाजिनेवाजिमरावशेषाद्विषादवद्वाष्पजलाविलानि ।।
श्रेणं सान्छवासारङ्गितानि सीधूनि योधाः समपाययन्त ॥५५॥ पलायति...मरायनर मपाय स्न, के : योधः धाध, पान ? धनि मद्यानि, किम् ? स्त्रैणं सदीरम्३षु ? ग्ला नेषु मारणमय यतं स्त्रान् ? विषादव, भस्मात् ? आजारावशेषाद थम्भूतानि नि ? बाप्पाथिलान अश्रुजलभिवाणि, पुनः समुच्छदातरङ्गितानि अनुच्छ्या तरङ्गा, संजःता येषु तानियोक्तानि ! ५५३५
जलमार्ग के विशेषज्ञों तथा भोगरूपी समुद्री यात्राझे डकैतों अर्थात् कामुकौंफो जोलनेके लिए ही शस्त्र उठाये हुए कामदेवने चन्द्र भण्डलरूपी छोटी-सी नौकापर सवार होकर प्रयाग किया था। जलमार्ग के विशेषज्ञ समुद्री बोरोंके समान कामुक भी अविवेकी ( उलयोरमेदः अतएव जड़मार्ग) जीवनके यापनमें पारंगत होते हैं ॥ १२ ॥
चन्द्रमाके ऊपर (कामदेवको ) आक्रमणको देख कर ही खारे ( लावण्य ) पानीका भण्डार समुद्र ही ज्वाररूपसे किनारोंके ऊपर नहीं पाया था और समस्त विशाओं में ही नहीं फैला या अपितु लोगों के मन में न सनाते हुए प्रेमने भी अपनी सब घाशाएँ ( अभिलाषाएं ) पर्ण कर ली थी क्योंकि चन्द्रमाके उदय (नाम) होते ही ज्वारके समान राषका भी प्रमाण या सोना नहीं रहती है तथा सारी हार हो सुन्दर ( लावण्यमय) प्रतीत होने लगती है ॥ ५३॥
मानो पोती बालेको सुनती, आँखोस चकिाका पान परती तथा शुक्तिके पानसे बासबको पोतो हुई बहूले हृदय में बहुत समय बाद, तीनों मधुरोंका सेवन करनेके कारण समस्त पातुओंज्ञा सामञ्जस्य हो गया था ॥ ५४॥
युद्धकालीन मानसिक त्रासके हावशेष स्तरूप विषादक सूचक प्रासुमोंसे मटमैले तथा
१. उपजातिश्रुत्तम् । २. औपच्छन्दसिक वृत्तम् । ३. -ययन्ते स्म । ४. चित्रकम्बलेपूपयुक्तः पाठः । ५. उपजातिसम् ।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
उत्पलस्य शशिनोऽप्यवतारारात्सौरभं हरतु कान्तिगुणं च । स्वयं क्व मदनः किल येन प्राप मोहनविधिं मधुवारः ॥ ५६ ॥
उत्पलस्येति-— किल लोकोक्तो वच कस्मिन् स्थाने हरतु कोऽसो ? मधुवारः मदिरा, किम् ? सौरमं परिमल, इस्य ? उपलक्ष्य कमलस्य तथा च हरतु कम् ? कान्धिगुणम्, कस्य ? शशिनी चन्द्रस्यापि रूपमा ? अवतारात् कोईथोः ? उत्पलशशिनोरिति ग्राह्यम् व स्वयं मधुवारो तथा व वर्त्त मदत घेन मदनेन प्राप को मधुवारः कम् ? मोहनविधि मोहक्रियाम् कथम् ? स्वयमत्यनेति ॥५६॥
3
इन्दोः प्रियस्यापि करात्रपातर्यदस्य वित्तस्य तथाद्र भावः । पूर्वापराधस्य विनेश्र्जन्मापरं जातमिवायलानाम् ||५७||
इन्दोरि—ि इन्द्राय राम्रपातः किरणानपातैः पूर्वापराधस्मृतयो विनेशुः विनष्टाः सवर विवस्थापितः तपासावैः ब्रह्मस्वरूपैः कस्य ? सदस्य तथा चित्तस्य मनसः आभा सदयनाथैः, अतत्व अवलनाम् अपरं द्वितीयं जन्म जातमिव ॥ ५७ ॥
प्रतिमिनविधुविमनसीधुपानादिव वदनं विशदारुणं वधूनाम् ।
श्रमजल लुलितयुकोपशानतशिरसः किल कामिनश्चकार || ५८ ||
प्रतीति- किलेति वाक्यालङ्कारे वधूनां कामिनीनां वदनं कामिनः कामुकान् कोपशङ्कान्तशिरसः कोपभ्रान्तिनग्रमस्तान् चकार कुतवत् कथम्भूतं वदनम् ? धमजललुलितभ्रु स्वेदजलन लुषितभ्रु पुनः विशदारुणं विशदं च तत् वहणं व विशदारुणम् कस्मादिव ? प्रतिमितविधुविम्व सीधुपानादिव अन प्रतिभावो विभाव्यते प्रतिबिम्बितचन्द्रविम्बाद्विशदं मच्चास्वादनादरुणं युगपद्द्द्वयोः पानाद्विशदारुणमिर्ति ॥५८॥
स्वच्छवृत्ति रसिकं मृदु चार्द्र तत्तथापि मधुमानवतीनाम् । aritaanदस्य विकारैर्मत्तमत्तमिव विललाप ॥५६॥
--
स्वच्छेति-उन्मधु मद्यं तथापि विललाप विप्रलापितदान् किमिवोत्प्रेक्षितम् ? रूपयोवनमदस्य लम्बी-लम्बी साँसों श्राघातसे तरंगित भदिराको योद्धाओंने रत्नजटित कम्बलोंपर बेडफर पिया था ॥ ५५ ॥
मदिरा कमलकी सुधि और चन्द्रमाको कान्तिको नीचा दिखा सकती है क्योंकि ये दोनों उतर जाते हैं । किन्तु मदिराको स्वयं स्थिति क्या है ? तथा मदन की क्या है ? क्योंकेि कारण हो मदिरापानका अवसर अत्यन्त मोहक हो जाता है ॥ ५६ ॥ चन्द्रमाकी किरणों ( करों ) के ऊपर पड़ने तथा वलभके नवक्षतों ( करा ) द्वारा, तथा मदिराको तुलसा और वित्तको सदयता के कारण कामिनियाँ प्रेनियोंके पुराने अपराधको भूल ही गयी थीं। मानो उनका दूसरा जन्म हो हो गया था ॥ ५७ ॥ चन्द्रमाको परछाँही से निर्मल कान्तियुक्त तथा मदिरा पीनेके कारण लाल एवं कान पसीने से गीली गीली भृकुटियुक्त बहुओं के झुके हुए मस्तकको देखकर कार्मियोंको ऐसा लगा था कि वे स्ष्ट तो नहीं हो गयी हैं ॥ ५८ ॥
१. स्वागता त्रृत्तम् । २. उपजातिश्छन्दः । ३. पुष्पिताप्रावृत्तम् ।
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३३५ विकारैः मत्तमत्तगिव, कासाम् ? मानवतीनाप्त, यद्यपि स्वच्छवृत्ति तथापि रसिक रसोऽस्यास्तीति रसिक रसवन तथा मृदुशरीरमार्दवविधायित्वात् तत्तयोक्तं तथा कार्दै द्रवरूपत्वात् तथोक्लाम् ॥५९॥
मानो व्यतीतः कलह व्यपेतं गतानि गोत्रस्खलितच्छलानि ।
गुरून्प्रहारान्मधु सन्दधीत क्षतं पुनः कामिषु तयिता ॥६०|| मान इति-गानो व्यतीतः प.लहं व्यपेतं तय गोमाससकानि नामालिनक्षमाः महानि तथापि मधु गुरुन् प्रहारान् सन्दधीत तत्क्ष कियद्वा स्यात् पुनः, केए ? सामु १:६० ।
परिपीडितमुक्तमङ्गनायाः परिरम्भेषु चिरादिव प्रियेग ।
हृदयोच्छ्वसितोष्मणा सहैव प्रतिसर्पत्कृचयुगामुन मज ॥६॥ परीति----ङ्गनायाः प्रशरूमङ्गमस्याः पामादित्य क्षमा माया मा कुचयुग्मं स्तनसानुम् उन्ममा नाम उन्नभितम्, कपम्भूतं कुजयुग्मम् ? परिसम्पु कालिङ्गपु प्रियण परिपीडित पश्चान्मुक्तम्, कि कुर्वदिव ? प्रतिसर्पदिव, कणम् ? चिरहित र कालेल, पम् ? सहैव सार्द्धमेव, केन ? हृट्योछ्वसितोष्णः ॥६॥
निरुत्तरां कर्तुमनिरत दोषी योषामुपालिप्सुरनेकमाणः ।
वाक्कमणोरन्यतरस्य मोहमन्यस्य रक्षत्पभवावबोधः ||६२।। . निरुत्तरामिति-अनिस्त चुचुम्ब, कोऽमो ? दोषी, काम् ! यं यां वरमाम् कि कर्तुम् ? निरुतरां बर्तन, शम्भूतो दोषी दोपवान् बल्लम: ? उपालिप्सुः प्रोभिः दिन् ? मागीपरचम, थम्भूतम् ? अनेक नानावित्रम् अथवा युक्तमत्त्, वाचन मणोर्मध्येरातरस्थ एदस्य नोहमा यस्याश्यामपरस्याकोशे ज्ञानं रक्षनीति ॥६२॥
in-rrr-mm
यद्यपि मदिरा अत्यन्त स्वच्छ थी, रसीली थी, कोमल (हरतो ) थी और शीतल भी तयापि मानवती ( रुष्ट ) नायिकाओं के सौन्दर्य, पौवाद और अहंकारले प्रावेशके कारण भारान्त उन्मतझे समान अनर्गल मालापका कारण हुई थी HE
धीरे-धीरे रोष शान्त हो गया था, कलह समाप्त हो गयी थी तथा दूसरे नायकनापिकाका नाम लेकर चिढ़ानेकी प्रक्रिया भी नहीं चल सकी थी। मदिराके मादेशमें कामी सुग्गल परस्पर में पूरो शक्तिसे उलझ रहे थे । ऐसी स्थिति दन्तक्षत और मसक्षतकी चिन्ता ही किसे थी । ६०॥
आलिंगनफे समय प्रोतमके द्वारा पहले दवाया गया और बादमें छोड़ दिया गया पाल्पारणाझी नायिकाका कुचयुगल हृदयके उच्छ व्यासकी उमा साथ-साथ फैलले हुए के समान ही काफी देर में ऊपर उठा था ॥ ६१ ॥
भनेक अपराधों के कारण दोषी प्रोतमने अपने अपराधोंडो क्षमा करानेकी इच्छासे प्रपनी प्रियताका खुम्बन कर लिया था ताकि यह कुछ वाहन सके । उधित हो है बचन और कर्ममें से किसी एकके मोहको दूसरेकी नाति छिा देती है ।। ६२ ॥
१. शिराप्त इति शेषः---५० ६०, स्वागतासृत्तम् । २. उपजाति रडू । ३. औपर छन्दसिक वृत्तम् । १, ४५जारित्तम् ।
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
मध्य स्थितं मण्डल मंबद्धं मित्र जिगीष्वोरित्र पीड्यमानम् । सन्देहभाव स्तनचकमासीत् साधारणं तत्रिययोहूर्तम् ॥ ६३ ॥
7
मध्येति---आसीत् सञ्जातं किम् ? तत् स्तनच कम्भूतम् ? सन्देहभावसंशयरूपम्, काम् । मुहूर्त क्षाम् कथम्भूतं सत् ? साधारणम्, कयोः ? प्रियको भयोः किंमिय ? जीवमित्रमिव कि क्रियमाणम् पम्पमान, कम्युतं सत् ? मध्यस्थितम् अन्तरालगत पुनः मन्दलधर्मवद्ध देशमंत्रद्धम् ||६३||
P
३३६
ני
आलिम गार्ड मधुरं ध्वनन्ती मुखे सुखं न्यस्य वधूः शिवस्य । विस्मृत्य कर्णान्तरमुन्मत्वादास्त्रे जपन्तीव बभौ रहस्यम् ||६४ || आदिगोभिरा ? बधुः कुर्वती ? गाऊमाणात कुजतो थं यथा भवति ? का ? पूर्व स्वारोप्य किम् सुखं पब ? मुले, कस्य ? प्रियस्य वल्लभस्य हि कुमुखे रहस्यं अतीव निष्यन्तीय, कि कृत्या ? विस्मृत्य किम् ? कर्णान्तरम् कस्मात् ? उन्मत्तत्वादुन्यत्तताया इति शेषः ॥६४॥
far nagaत्रयां प्रशमयितुं रसमुत्क्षित्र । अधिनिसनच्छलादजनि जनः सकलां गिलमिव ॥ ६५||
किम- अमित असं ? जनः किं कुर्व?ि उत्पयशिव संभवम्यात् ? मुखात् कर्तुमि ? प्रियां प्रशमथितुमिव ?यम् ? साङ्गोपाङ्गा सम चुम्बनं न विकले विरतिपते अविरत व्याजात् ।। ६५ ।।
कथम्भूतान् ? मधुरसियन
नाम् कत्मात्
नीरुतं च निखनं च स्वनियने अविरत व निच ते तयोको
दोनों प्रेमियोंके यिनके समय बीचमें दबा वर्तुलाकार स्वाभाविक स्तनचक्र क्षण भर के लिए सन्देहमें पड़ गया था क्योंकि यह दो विजेताओंके मध्यस्थ मित्रको स्थितिमें था [ मण्डल कर्ती भवनासे प्रेरित संघर्षरत दोनों पक्षोंका मित्र राजा जब संघर्ष रोकने के लिए मध्यस्थता है तो उसे दोनोंके श्राक्रसा सहने पड़ते हैं । तथा कुछ समय दोनों ही उसपर शंका करते हैं ] ॥ ६३॥
का गढ़ थालिन करते मधुर मधुर नाती ने उसके मुखमें अपना मुख डाल दिया था। और नन्दके प्रतिरेकमें सुव होकर फान तथा मुखका अन्तर भूलकर वह सुखमें हो सुप्त बात कहलो-सी लग रही थी ॥ ६४ ॥
मद्यपान के कारण रतिकेलिने मस्त प्रियाको शान्त करने के लिए उसके मुखमें सुख डालकर रति को पीते हुए के समान, प्रेमी ऐसा लगता था कि वह पुरीकी पूरी प्रियतमाको ही निगले जा रहा है । क्योंकि रति-सुखमें तीन प्रियाको भीमपुर गुनगुनाहट और लुम्बन शान्त हो गये थे ॥ ६५ ॥
अपने antart बाओंके विद्युत भारके कारण भारी, प्रेयसी प्रेमके विशाल शरीरमें समा गयी थी । किन्तु प्रकृतिले चंबल तथा सब प्रकार से छलिया प्रेमीके मनमें यह प्रेमिकाका शरीर कहाँ और कितना समाता है यही प्रथा ॥ ६६ ॥
५. अपत्र वुक्तम् लक्षणं गु-." --"अयुजि तन रा शुरू सत्र तत्रो गरौं” [ ৠ० २० ४। १ ] ।
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
स्तनजघनभरेण भूरिणा दयिततनौ दयिता ममौ गुरुः ।
पृथुनि निजचले बहुच्छले मनसि हि माति कियत्यसौ तनुः ||६६ ॥
स्तनेति — दयिता वल्लभा दयिततनो वल्लभमूर्ती ममी अवकाशं लेभे कथम्भूता ? भूरिणा गुरुणा स्तन जघन भरेण कुचनितम्बभारेण गुरुः, युक्तमेतत् हि यतः कियती तनुरसो माति क्व मनसि कथम्भूते ? पृथुनि विस्तीर्णे पुनः निजचले स्वतश्चपले, पुन: बहुच्छले प्रचुरप्रपञ्चे इति ॥ ६६ ॥
क्षेपयन्निव मुखामुखमानं मानसीं कलुषतां कुसुमेषोः । संविभाषिषुरिवासच मत्तश्चुम्बनेषु रमणः कणति स्म ||६७॥
क्षेपर्यान्नति – रमणो वल्लभः क्वणति स्म कूजति स्म किं कुर्वन्निव ? मानं क्षेपयन्निव त्याजयनिव चुम्बितुमहं कुशली भवामीत्यहङ्कारं क्षेपयन्निवेत्यर्थः केषु ? चुम्बनेषु कथं यथा भवति ? मुखामुखि भुखेन मुखेन आश्रित्य इदं प्रवृत्तं मानक्षेपणकर्म, किं कुर्वन्निव ? संबिभाषिषुरिव संभाषितुमिच्छति, काम ? कुसुमेपोः स्मरस्य मानसीं चित्तोद्भवां कलुषताम् कथम्भूतो रमण: ? आसवमत्तः ॥६७॥
कोपाश्रुभिः कालवणैः परीतः स्याद्वा स लावण्यमयः प्रियोष्ठः ।
कुतोऽन्यथा तं पितामुदन्या माधुर्यवत्प्रत्युत हन्ति तृष्णाम् ||६८ ||
कोपैति यः पूर्वं मधुरमधुरमिति कृत्वा स्वादितः स प्रियोष्ठ, अत्र प्रियोष्ठयोविकास्यत्वादेकवद्भावः । लावण्यमयो वा लावण्यनिर्मित इव स्यात् कथम्भूतः ? कोपाशुभिः कोपवशात् प्रवृत्तनेत्रजलैः परीतो व्याप्तः सिक्त इत्यर्थः कथम्भूतैः सद्भिः ? कालवणैः ईषत्क्षारैरत्र कोपासिकत्वाची पल्लवणत्वममृतमयत्वात् प्रचुरमाधुयं चास्ति "प्रियोष्ठोऽमृत" इति श्रुतेः, ईषल्लवण ( ेन) संस्कृतो मधुररसोऽमृतमेव स्यात् चिरंतनस्यास्वाद्यमानत्वात्केवलो हि मधुररसो विरसतां रसनायामुत्पादयति सचिरमास्वादने तस्य विरस्यमानत्वादितिभावः अन्यथा यद्येवं विधो न स्वरूपेण स्यात्तदा कुतः कस्नादुदन्या पिपासा तृष्णामभिलाषं हन्ति केषाम् ? कामुकानां, कि कुर्वतां सताम् ? माधुर्यवत् माधुर्यमिव प्रत्युत विशेषतः प्रियोष्ठ पिबताम् ।।६८।।
प्रथममधरे कृत्वा श्लेषं व्रणं निदधे वधू
रतिविनिमयः प्रीतेनायं कुतोऽप्यनुशय्यते । स्वयमिति भयात्सत्यंकारं प्रदातुमिवोद्यता
३३७
ननु च सबलाः कृत्ये नाम्ना भवन्त्यबलाः स्त्रियः ॥ ६६ ॥
प्रसव पीनेके कारण मत्त प्रेमी अपने मुखसे प्रियाके मुखपर चुम्बन करते-करते कूंज उठा था । मानो वह कामदेव के मनकी कालिमाको फेंकने की दृष्टिसे वार्तालाप ही करनेको तैयार था ॥ ६७ ॥
बहुत थोड़े नमकीन प्रेम-कोपके सुग्रोंसे भोगा प्रेमिकाका ओठ प्रत्यन्त सुन्दर ( हलका नमकीन होनेसे सुस्वादु ) हो गया था। यदि ऐसा न होता तो उसे पीनेवाले प्रेमियोंको ( प्रेमको) प्यास उसी प्रकार क्यों शान्त होती जैसी मधुर पानसे होती है ॥ ६८ ॥ प्रसन्न पतिदेव किसी कारण से प्रेम-क्रीड़ाके अपरिवर्तनको लेकर पश्चात्ताप न करें इस भयसे तथा ठीक तौरसे प्रतिफल देनेकी इच्छासे ही प्रेमिकाने स्वयं पतिका आलिंगन
१. स्वागता वृत्तम् । २. उपजातिश्छन्दः ।
४३
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
:३३८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् प्रथममिति-निदधे निखातवती, का? वधूः - कामिनी, कम् ? व्रणं दन्तक्षतम्, क्व ? अधरे दन्तच्छदे, कि कृत्वा ? पूर्व पाश्लेषमालिङ्गनं कृत्वा, कथं यथा भवति आलिङ्गनकर्म ? प्रथमं प्राक् , केवोत्प्रेक्षिता ? उद्यते वोद्यमवतीव, कि कर्तुम् ? प्रदातुम, कम् ? सत्यंकारम्, कस्मात् ? भयात्. कथम ? इति कृत्वा दर्शयति कुतोऽपि कस्मादप्यनुशय्यते पश्चात्तापयिषयोक्रियते, कोऽसौ ? अयमतिविनिमयः पुरुषसंभोगैसगुणस्य स्त्रियाः पुरुषायितसंभोगो द्विगुणस्त्रिगुणो वा स्त्रीपुरुषाश्रितसम्भोगैकगुणस्य पुरुषसद्भाषणाद्गुणोपाधिषस्थ विनिमयः, केन ? प्रतिन हृष्टेन वलनभेन, (वल्लभेन) कथम् ? स्वयमात्मना, युक्त. मेतत् ननु अहा भवन्ति, काः ? स्त्रियः, कथम्भूता ? अबलाः, केन ? नाम्ना भवन्ति, सबलाश्च, कब ? कृत्ये कर्मणीति ।।६९।
चित्तं चित्तेनाङ्गमङ्गन वक्रं वकणांसेनांसमयूरुणोरुम् ।
एक चक्र : सर्वमात्मोपभोगे कान्ताः पङ्क्तौ हन्त लजां ववञ्चः ॥७॥ चित्तमिति-चित्तं चित्तेन अङ्गम् अङ्गेन वक्र वफ्रेण अंसं स्कन्धं असेन स्कन्धेन ऊरुणा ऊरुम् अपि एतत्सर्वं च एकम् एकतां नातं चक्रुः कृतवत्यः, का: ? कान्तः क्व ? आत्मोपभोगे हन्त ही बवञ्चः त्यजन्ति स्म, कम् ? लज्जाम्, कस्यां सत्याम् ? पङ्क्तो अङ्गीकारे त्यमिति । ७०॥
सहस्थितं विस्मयपद शुक भात शुन्तः किं सहमा सखीव हा ।
कदापि दृष्टेव न संस्तुतेव च त्रपा कुतस्त्यं कुपितं नतभ्रवः ॥७१। सहेति-विस्मृतम्, किम् ? अङ्गम्, कथम्भूतम् ? सहस्थितम् एकत्रावस्थितम्, तथा गतम् अंशुक्र । क्षिप्तं वस्त्र सहजा "सखीव व्यत्येव लज्जा कि कदापि कस्मिश्चित्काले दृष्टेव आसीत् न पुनः संस्तुतेव परिचयमागतेदासीत् न कुपितं कुतस्त्यम्' ।।७१
विलोकभावेषु सहस्रनेत्रतां चतुर्भुजत्वं परिरम्भणेऽभवत् ।
समागमे सर्वगतत्वमिच्छवः सुदुर्लभेच्छाकृपणा हि कामिनः ॥७२॥ विलोकभावेष्विति-कामिनः कामुकाः सुदुर्लभेच्छाः कृपणा लम्पटाः अभवन् सजाता: कथम् ? कर लिया था तथा ओठको काट लिया था। इस प्रकार काम-क्रीड़ामें सबला खियाँ नाममात्रके लिए ही अबला थीं ॥६६॥
अपनी भोग-क्रियामें लीन कान्ताने प्रियके चित्तमें चित्त, शरीरमें शरीर, मुखमें मुख, कन्धेपर कन्धा और जंघेसे जंघा समस्त बातोंको एकमेक कर दिया था। चिन्ताकी बात इतनी ही थी कि इस समय सबकी श्रेणी में उसने केवल लजाको छोड़ दिया था ॥ ७० ॥
रतिके प्रतिरेकके कारण झपकी आँखोंवाली कान्ता क्यों एकमेक हुए अंगोंको नहीं भूली थी? क्या फिर उसका वख नहीं खिसक गया था ? अपितु ये दोनों बातें हुई थीं। हाँ, भली स्नेहमयी जोके समान केवल लज्जा ही न तो कहीं दिखी थी और न कहीं उसकी चर्चा हो पायो थो। फिरसे रुष्ट होनेको तो सम्भावना हो क्या थी ॥ ७१ ॥
कामी पुरुष स्तन, जंघादि उद्दीपन भावोंको देखनेके लिए हजारों आँखों चाहने लगे थे । आलिंगन करते समय दो भुजाओंसे तृप्ति न होनेके कारण चार भुजाएं चाहते थे।
१. पाधिगुणोऽयं-- द० ज० । २. हरिणी घृतम् । ३. ऐप्यमिति-- ५० द.। ४. शालिनी वृत्तम् । ५. सखीय नयन्तः धयस्येव विफला जाता, किं दृष्टेवासीत् कदापि कस्मिंश्चित्काले पुनर्न संस्तुतेव न पुनः परिचयभागनवासीत्तपा तथासति किं न पुनरिति सर्वत्र सम्बद्धा बोद्धव्य इति शेषः प. द. । 'सा' 'नतभ्रवः' इत्यनयोः पदयोः सम्बन्धोऽधों वा न कस्मिन्नपि टोका पुस्तके उपलभ्यते' । ६. वंशस्थवृत्तम् ।
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
127272
सप्तदशः सर्गः
३३९
हि स्फुटम् किं कुर्वः ? विलोकमावेषु स्तनजघन कक्षान्त शललक्षणेषु व्यपदार्थेषु सहस्रनेत्रताम् इच्छवः भिलषन्त तथा परिरम्भणे मालिङ्गने चतुर्भुजत्वं समागमे सम्प्राप्ती सर्वगत्॥७२॥ बद्ध्वासवे प्रेमवधूः प्रियेऽपि त्रप्तुं न धातुद्वयबद्धमैच्छत् ।
अगूढभावापि ततो विकल्पात्पम्याङ्गनेव द्विमनी बभूव ॥७३॥
बवेति---नैवावित का? वधूः किं कर्तुम् ? त्रप्तुं तृप्ति कर्तुम् आत्मनो लाजतुं त्रियस्य किं कृत्वा ? पूर्व वा नियन्त्रय किम् ? प्रेम, वद ? आपवे सुरायाम् अपि प्रयोगात् प्रिये बक्शे कदम्भूतं प्रेम ? धातुद्वयबद्धं तृप् प्रीणने पुष्कज्जायां चेति यथाक्रमेण निर्मितम्, तथा द्विमनीबभूव श्रद्विमनाद्विमनः बभूव द्विमनीबभूव चित्तद्वैतं गतादित्यर्थः का ? वधूः कस्मात् ? विकल्पादीपलब्धेः कस्मादपि विकल्पात् ? तत्रोऽपि प्रेम्णोऽपि कथम्भूता भूत्या ? अगूढभावा प्रकटभावा, केव द्विमनोव बभूव ? पण्याङ्गमेव वारवधूरिव । शेषं प्राग्वत् ॥७३॥
व्रीडावासः स्वान्तमङ्गं समस्तं कामार्त्तानां प्राप शैथिल्यमेका । स्वप्नेऽप्यासीन्नश्लथा बाहुपीडा युक्तं द्राघीयस्सु मूर्खत्वमाहुः ॥७४॥
व्रीडति — कामात्तनिां कामेन खार्ताः कामार्त्ताः तेषां कामिनां सम्बन्धित्वेन ब्रोडी लज्जा शैथिल्यं प्राप प्राप्तवती । तथा वासो वस्त्रं शैथिल्यं प्राप प्राप्तवत् । तथा स्वान्तं वितं शैथिल्यं प्राप समस्तम् अङ्ग शैथिल्यं प्राप । एका बाहुपीडा स्वप्नेऽपि रलया नाम संजाता, युक्तोऽयमर्थः, आहुर्वेदन्ति चारुचन्द्रचन्द्रिकाचकोरा विद्वांसः किम् ? द्राघीयस्सु दीर्घतरेषु मूर्खत्वं युक्तम् अतिदीर्घो मन्दबुद्धिरिति वचनात् ॥ ७४ ॥ रागं नेत्रे नैव चित्तं मुखं च खोणां पानान्मानजिहां जगाहे । पानोऽपि पाण्डुः कान्तास्योष्मस्वेदभावादिवौष्ठः ॥७५॥
१३
रागमिति - न केवलं नेत्रे एव रागं जगा है, कि कतु" ? चित्तम्, कथम्भूतम् ? मानजिह्यम् तथा च जगा, कि कतु ? मुखम् कम् ? रागम्, कासाम् स्त्रीणाम्, कस्मात् ? पानात् एकोऽप्योष्ठो वाऽभूत्, कथम्भूतः ? पाण्डुः शुक्लः कस्मादिव ? कान्तास्योष्यस्वभावादिव वल्लभवदनोच्छ्वासधर्मत्वादिव, श्रौर समागमके समय उद्यान, गुल्म, नदी तीर प्रादि सब स्थानोंपर जाना चाहते थे । उचित ही है क्योंकि कामार्त्त बड़े स्वार्थी होते हैं और दुर्लभ ( इन्द्रत्व, विष्णुत्व तथा सर्वच्यापकता ) पदार्थोकी इच्छा करते हैं ॥ ७२ ॥
पहले प्रसव पानमें श्रासक्त होकर फिर प्रीतमके प्रेममें विभोर होकर कुलबघूने क्या ( तृप् ) धातुके दोनों रूपोंको नहीं चाहा था ? [ श्रपितु चाहा था क्यों प्रासव पानमें उसे तृप्ति न थी और पति से प्रेम करनेमें त्रपा नहीं थी ] श्रतएव दोनों भाव स्पष्ट हो जानेसे तथा विकल्प न रहनेसे वह वेश्याके समान दोको चाहनेवालो ( हिमनी ) हो गयी थी ॥ ७३ ॥
कामातुर युगलोंकी लज्जा, कपड़े, अन्तरंगको रिरंसा ही शिथिल नहीं हुए थे श्रपितु समस्त अंग भी क्लान्त हो गये थे। थक कर सो जानेपर भी केवल भुजपाश ढीले नहीं पड़े थे । उचित ही है क्योंकि बहुत विशाल ( - काय ) मूर्ख ही होते हैं ॥ ७४ ॥
प्रेमासक्ति तथा लालिमा केवल नेत्रोंमें ही नहीं प्रायी थी श्रपितु अधरादि पानके कारण मानसे कुटिल खियोंके मुख तथा चित्तमें भी व्याप्त हो गयी थी। बार-बार पिये जाने पर भी केवल अधर ही के दो रूप ( द्विविधा ) हुए थे क्योंकि स्वरूपसे लाल होकर भी वह
१. उपजातिश्छन्दः । २. शालिनीवृत्तम् ।
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
विसन्धानमहाकाव्यम् कथम्भूतः सन् ? बद्धपानः श्वधरस्वरूपापेक्षया रक्तः पानवशात्पाण्डुश्चेति भावः ।।७।।
देहेषु भोगाय विभक्तिमागतैः प्राणेषु चैक्यं निजमेव कामिभिः । .
न वापि दृष्टा इव मानवृत्तयस्तत्पूर्वदृष्टा इव वल्लभाः परम् ।।७६।। देहेष्विति-न पर केवलमभूवन्, का ? मानवृत्तयः, का इव ? दृष्टा इव, के ? कामिभिः, क्व ? क्वापि कस्मिश्चित् स्थानेऽपि, तथा अभूवन्, काः? वल्लभाः कामिन्यः, कयम्भूता इव ? तत्पूर्वदृष्टा इव मानवृत्तिपूर्वदृष्टा इव, केः ? कामिभिः, कयम्भूतै ? शागतः काम् ? विभक्ति भेदम्, केषु ? देहेषु शरीरेषु, कस्मै ? भोगाय सकचन्दनानुशीलनाय, तथा चागतैः किम् ? ऐक्यमेकोभावं समरसीभावमित्यर्थः, कपम्भूतम् ? निजमात्माधीनम्, केष्वेव ? 'प्राणेष्वेव ।।७६।।
असंमनन्ती व्यवधानमणोरीचितिषः पक्ष्म कुचद्वयं च ।
चित्तव्यवायं परिरिप्सुरीशं प्राणप्रिया कान्तरिता प्रियेण ||७७॥ असंमनन्तीति—का प्रिया प्राणत् जिजीव अपितु न कापि, कथम्भूता सती ? प्रियेण अन्तरिता व्यवहिता, कि कुवंती सती? बसमनन्तो कनिच्छन्ती असूयन्ती, किम् ? पक्षम नेत्रपत्र रोम, कथम्भूतम् ? व्यवधानम्, कयोः ? अक्ष्णो लोचनयोः, कयम्भूता सती? ईचिक्षिषुः अवलोकितुमिच्छन्ती, तथा कि कुर्वती ? कुचद्वयं स्तनद्वयम् असंमनन्ती, कथम्भूतम् ? चित्तव्यवायं चित्तस्य व्यवायो यस्य तत् मनो व्यवधानमित्यर्थः, कथम्भूता सती ? परिरिप्सुरालिङ्गितुमिच्छन्दी, कम् ? नगिगामिति ॥७॥
तुलयन्निवोभयरसं मदिरां दयितोष्ठभप्यमिपिबन्दयितः ।
अधरस्य नाल्पमपि सीधुनि तन्मधुनोऽधरेऽधिकमलब्धरसम् ॥७॥ तुलयन्निति--तत् तस्मात् कारणात् दयितो वल्लभः अवरऽधिकं रसम् अलब्ध प्राप्तवान्, कस्मादधिकम् ? मधुनो मद्यात् सीधुनि मद्येघरस्य अल्पमपि रसं नालब्ध, कि कुर्वन् ? मदिरा तथा दषितोष्ठमपि अभि पिवन सन.कि कन्निव ? उभय रसं मदिराया दयितोष्ठस्यापि तलयनिवेति ॥७८।।
परस्परकी उष्ण श्वास लगनेके काररग सफेद भी हो गया था ॥ ७५ ॥
संभोगके लिए ही अलग-अलग शरीरोंका अनुभव करते हुए तथा प्रेमातिरेकके कारण स्वयमेव एक प्रारण हुए कामियोंमें, रूठना,ऐसा लगता था मानो पहले कभी उसे देखा-सुना ही नहीं है। और इसके बहुत पहलेसे ही उन्होंने केवल वल्लभाको ही देखासुना है ॥ ७६ ॥
सतत देखनेके लिए आतुर नायिका पलक मारनेके व्यवधानको भी नहीं सह सकती थी । गाढ़ प्रालिगनके लिए उत्सुक नायिका कुच युगलको हृदय-मिलनमें बाधक मानती थी। अतएव प्रियसे दूर हुई कौन प्रिया वहाँ जोषित थी ? अर्थात् कोई भी नहीं ॥ ७७ ॥
__तुलना करनेको दृष्टिसे ही प्राणवल्लभ मदिरा और प्रेमिकाके अधरके रसका पान कर रहा था। किन्तु मदिरामें उसको अधर रसका जरा भी स्वाद नहीं पाया था और अधरके पानमें मदिरासे बहुत अधिक स्वाद प्राया था ॥७८ ॥
-...--.-- १. प्राणेष्वप्राणेनिवित- ५०। २. इन्द्रवंशावृत्तम् तल्लक्षणं तु 'स्यादिन्द्रवंशारसपुनरिति (वृ० र० २।४८) । ३. उपजातिश्छन्दः । ५. प्रमिताक्षरा वृत्तम् ।
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः
३४१ घनयोः स्तनयोः स्मरेण तन्व्याः परिणाहं परिमातुमुन्नति च ।
रचितेव रसेन सूत्ररेखा नखलेखा विरराज कुङ्कुमस्य ।।७६॥ धनयोरिति-नखलेखा विरराज शुशुभे, केव ? सूत्ररेसेब, कथम्भूता ? स्मरेण मदनेन, रचिता विहिता, केन कृत्वा ? कुङ्कुमस्य रसेन, कि कत्तुम् ? तल्यास्तरुण्या धनयोनि विडयो: स्तनयोः परिणाई वत्तुंलत्वं तथा उन्ननिम् उत्सेधं परिमातुम् ॥७९||
इत्याशंसुर्नाभिगन्धं मृगाणामन्यद्रागं वीक्ष्य बालामुखस्य ।
नामोदो मे हा मृगस्यापि नाभेरित्यङ्कात्मव्यङ्गमाधादिवेन्दुः॥८॥ ___ इतीति-हा करम् इन्दुः चन्द्रः अङ्गात्मव्यङ्गं लाञ्छनस्वरूप कलङ्कम् आधादिव धृतवानिवोत्प्रेक्षितः नाभिगन्धं कस्तूरीम् आशंसुरिव इलाघमान इव, केषाम् ? मृगाणां हरिणानाम्, कि कृत्वा ? पूर्व वोक्ष्यावलोक्य, कम् ? अन्यद्रागम् अन्यश्चातो रागस्य अन्यद्रागस्तम् अपूर्वशोभाम्, कस्य ? बालामुखस्य नारीबदनस्य, कथमितिहेतोः कथमिति कृत्वा प्रदयते नास्ति कोऽसो ? आमोदा, कस्याः ? नाभः, कस्यापि ? मृगस्यापि, कस्य ? मे ममेति ॥८॥
ग्लानि मुक्तामण्डपे तन्तुजालं व्यासीदन्तचन्द्रकान्ताः करेण ।
राज्ञा भोगे सुनुवन्तोऽपरोधं रोर्बु चन्द्रेणाभिनुन्ना इवाभुः ॥१॥ ग्लानिमिति----आभुः प्रद्योतन्ते स्म, के ? चन्द्रकान्ताः चन्द्रकान्त मरणयः किं कुर्वन्तः ? व्यासीदन्तः गच्छन्त:, किम् ? तन्तुबालं तन्तुसमूहम्, केन ? करेण किरणेन पत्र जात्यपेक्षपैकवचनम्, एकैकेन करेण तन्तुमाल प्राप्य किरणसन्दोहं प्राप्नुवन्त इत्यर्थः, कस्मिन् ? मुक्तामाहपे मौक्तिकजनाश्रये, कथम्भूता: सन्तः ? सुन वन्तो बिन्दुशो जलं मुश्चन्तः, कथं यथा भवति ? अपरोध निरगलम्, कथम्भूता इवोत्प्रेक्षितः ? अभिनुन्ना इव सामस्त्येन प्रेरिता इव, केन ? चन्द्रेण किं कत्तुंम् ? ग्लानि श्रमं भोगे सुरतव्यापारे रोद्यम्, केषाम् ? राज्ञां नरेन्द्राणाम् ॥८॥
अरण्यवृत्तेदवासकर्मणः स पुष्पभाराहरणाच्च मारुतः ।
श्रमं विनिन्ये परिरम्य कामिनीस्तयोऽन्तरेणासुलभा हि तादृशः ॥२॥ स्तनोंके चारों ओर लगी नखक्षतकी रेखाएँ ऐसो प्रतीत होती थीं मानो कामदेवने तन्वी नायिकाके कठोर और सघन स्तनोंको गोलाई तथा ऊँचाई नापनेके लिए हो कंकुमसे रंगे सूतके द्वारा रेखाएँ खींच दी हैं ॥ ७६ ।।
यौवनके मध्यमें स्थित इस नायिकाके मुखको अभूतपूर्व कान्तिको देखे बिना ही चन्द्रमा पहिले कस्तूरी मृगोंकी नाभिकी सुगन्धिको प्रशंसा करता था। किन्तु इसे देखते बाद वह बोल उठा, "मुझे कस्तूरोको सुगन्धि अच्छी नहीं लगती" और इसी पश्चात्तापमें उसने कलंकको धारण कर लिया था ॥८० ॥
मुक्ता मालाओंसे सुसज्जित केलि-मण्डपमें अपनी किरणोंके जालको फैलाते हुए तथा बूंद-बूद करके अनवरत पसोजते हुए चन्द्रकान्त मणि ऐसे लगते थे मानो राजामोंकी भोग क्रियामें थकावट अथवा उदासीनताको दूर करनेके लिए हो चन्द्रमाने इन्हें पूर्ण प्रेरणा करके भेजा है ॥२१॥
१. औपच्छन्दसिकं वृत्तम् । २. शालिनी वृत्तम् ।
Panon
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अरण्येति-मारुतो वायुः कामिनी: श्रमं खेदं विनिन्ये परिस्याजितवान, किं कृत्वा ? पूर्व परिरभ्यालिङ्गच, कस्याः सकाशात् ? अरण्यवृत्तवनवतनात्तथोदवासकर्मणो जलस्थितिविधानात् तथा पुष्पभासहरणाच्च कुसुमनिकरानयनात् च एतेन मन्दत्वशं तलवसुरभित्वलक्षणस्त्रिभिर्गुण: श्रमं निराकृतवान् वातो नारीलिङ्गथेति भावो विभावितः युक्तमेतत्तयोऽन्तरेण तपश्चररणं विना तादृशः कामिन्योऽसुलमादुर्लभा भवन्ति, मशम ? हिरमिटि ..
इति विविधरतेन राजलोकै क्षणमिव न क्षणदा गतापि जज्ञे ।
शशिनि शशकदर्शनस्य शङ्कां स्वमनसि मानयितुं कृतत्वरेव ।।८३॥ इतोति-राजलोकः नरन्द्र जनैः, क्षणदा रात्रिः, विविधरतेन नानाप्रकारसम्भोगकोडया इति व्यावर्णनप्रकारेण क्षणमिव मुहर्त्तमिव गतापि न जज्ञे न ज्ञाता, कयम्भूता? कृतत्वरा विहितवेगा, किं कर्तुमिव ? मानयितुमिव संभावयिमिन, काम् ? शङ्का वितर्कम्, का? स्त्रमनसि स्वकीयचित्ते, कस्य ? शशकदर्शनस्य छ ? शशिनि चन्द्रे अत्र कलाङ्कनः संसर्गात् सकलङ्को जनो भण्यते इत्यास्ताम्, "कलङ्किनः कलङ्गदर्शनादेव सकलको जनो जायत" इति श्रुतेः, अयं शशो तावत् कलको लस्य शशकस्तावत् कलङ्क एव तस्यावलोकनात् यावत्सकलङ्को न भविष्यामि तावद्गमिष्यामोति स्वचेतसि कृत्वा गन्तुमुत्सुकेव कृतत्वरेति भावोप्युपन्यस्तः ।। ८३ ॥
लघु मोद्गमधुमणिरप्युदियादिति कान्तयोविरहकातरयोः ।
पततोश्च दोहदमिदं समभूद्विविधाथवा विषयिणां हि रुचिः ॥ ८४ ॥ लध्विति-समभूत् सनातम्, किम् ? इदं दोहदम्, कमिति कृत्वा प्रकाश्यते, मोद्गमत् मौद्गच्छत्, कोऽसौ ? धुमणिः सूर्यः, कथम् ? लघु शीघ्रम् कयोः ? कान्तः स्त्रीपुंसयोः, कथम्भूतयोः ? विरहकातरयोः वियोगभीतयोः, तथा च समभूत् किम् ? इदं दोहदम्, कमिति कृत्वा प्रकाश्यते । उदियादाक्रमतात् उद्गच्छतात्, कोऽसौ ? धुमणिः रविः, पाथम् ? लघु इति कयोः ? पततोः चक्रवाकयोः कथम्भूतयोः ? विरहकातरयोः, युक्तमेतदयया हि स्फुट विविधा रुचिः स्यात्, केषाम् ? विषयिणामिति ॥ ८४ ।।
वनवासी होकर ( मन्द ) पानोमें रहनेकी विधिको करके ( शीतल ) तथा पूजाके लिए फूलोंका चयन करके ( सुगन्धि ) आये हवाके झोकोंने कामिनियोंको चारों पोरसे घेर कर ( प्रालिंगन ) उनकी थकान ( पसीना ) दूर कर दी थी। उचित हो है क्योंकि वैसा तप ( वनवास, जलसमाधि और बलिदान ) किये बिना ऐसी कामिनियाँ कहाँ मिलती हैं ॥ २॥
उक्त प्रकारसे भांति-भांतिके भोगोंमें लीन राजाओंने कामोल्लासकी जननी पूरी रातको क्षण भरके समान जाते न जाना था। चन्द्रमामें कलंक ( शशक ) देखनेसे हम भी कलंकी हो जायेंगे, मनमें ऐसा भाव मानक कारण उन्होंने जल्दी को थी अर्थात् पूरी रातको क्षण मान लिया था ॥८३ ॥
__ अनागत विरहसे डरे प्रेमी-प्रेमिकाका अानन्द थोड़ा हो गया था तथा भोगाभिलाषा समाप्त हो गयी थी क्योंकि सूर्य निकल रहा था। किन्तु रात भरके विरहसे दुःखी चकवाचकथीको शीघ्र ही सूर्योदय होनेसे प्रानन्द हो गया था तथा मिलनकी कामना पूरी होनेकी प्राशा हो गयी थी। ठीक है विषयी लोगोंकी रुचियाँ अलग-अलग होती हैं ॥ ४ ॥
१. वंशस्थ वृत्तम्। २. पुष्पिताग्रावृत्तम् । ३. प्रमिताक्षरा वृत्तम् ।
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
'३४३
सप्तदशः सर्गः आश्लेषमन्तः क्वथनं प्रणामं कामोपदंशानि च चुम्बनानि |
दृष्ट्वाङ्गनानामसहा निसोढुं हासादिवासौ स्फुटिता प्रभासीत् ॥ ८५ ॥ आश्लेषमिति-आसीत् सज्ञाता, का ? असौ प्रभा प्रभातम्, कथम्भूता ? हासादिव स्फुटिता, कि कुर्वाणा ? असहा असहमाना संवरितुमसमर्या, किं कर्तुम् ? निसोटुम्, किं कृत्वा ? पूर्व दृष्ट्या कम् ? . आश्लेषमालिङ्गने तथा प्रणामं प्रणतिम्, कथं यथाभवति ? अन्तःक्वथनम् अन्तःकरणपाकं तथा च चुम्बनानि, कथम्भूतानि ? कामोपदंशानि कन्दर्पव्यञ्जकानि, कासाम् ? अङ्गनानां कामिनीनामिति ॥ ८५ ।।
अन्योन्यनिद्रावसरं प्रतीच्छवन्द्रं न सुप्वाप कृतावधानम् ।
अध्यात्मतत्त्वानि कषायिता जागयया ध्यायदिव स्मरस्य ॥६॥ अन्योन्यति-न सुष्वाप न शेते स्म, कि कत? द्वन्द्वं मिथुनम्, कथं यथा भवति ? कुतावधान विहिततत्परत्वं यथा, किं कुर्वत् ? प्रतीचछत् परस्परमभिलषदित्यर्थः कम् ? अन्योन्यनिद्रावसरं परस्परशयनप्रस्तावम्, कथम्भूतं ? कपायिताक्षं सरागलोचनम्, कया? जागयया उन्निद्रतया, किं कुर्वदिव ? ध्यायदिव स्मरदिव, कानि ? अध्यात्मतत्त्वानि परमार्थ रहस्यानि, कस्य ? स्मरस्य मदनस्य ॥ ८६ ॥ निधुवनमधुनिद्रामोदशेपैकभारं
पुनरुषांस स कामी योषितोऽङ्ग ललर्छ । रुचिमपि विदधेऽस्याः क्षामभावं विनीय
प्रशमयति न कं वा लङ्घना शेपदोषम् ।। ७ ।। निधुवनेति-ललक लावतवान्, कोऽसौ ? स कामो किम् ? अङ्गम्, कस्याः ? योषितः कामिन्याः, कस्याम् ? उपसि प्रभाते, कथाभूतमङ्गम् ? निधुवनमधुनिद्रामोदशेपैकभारं निघुवनं च मधु च निद्रा च निधुबनमधुनिद्राः सुरतमदिरास्वापास्तासां य आमोदो गन्धस्तस्य य: शेषः लेश: स एव एको भारी यस्मिस्तत् अपि शब्द: समुच्वयार्थः, विदधे चकार, ?क: ? स कामी, काम् ? विभिप्रीतिम्, कस्याः ? अस्या योषितः, कि कृत्वा, ? पूर्व विनीय अपाकृत्य, कम् ? क्षामभाव रतिश्रमम्, युक्तमेतत्, पुनः कं वाशेषदोष लवमाकर्ती न प्रशमयति अपितु सर्वमपि ॥८७ ॥
प्रेमिकाओंके विदाईके मालिंगन, मन ही मनको उदासी, अभिवादन, रतिके समयके उपदंश तथा चुम्बन आदिको बहुत समय तक देखकर और चुप रहनेमें असमर्थके समान सूर्य या प्रभात खिलखिलाता-सा निकल पाया था ॥ ५ ॥
रतजग्गा करके कामदेवके गूढ़ रहस्योंका पूरी तत्परताके साथ ध्यान करनेके लिए हा कामी मिथुन सोया नहीं था। एक दूसरेको सुलानेका प्रयत्न करते-करते इसकी आँखें लाल और किरकिरी हो गयी थी [ ध्यानी भो द्विविधाको सुलाकर, सर्वथा सावधान होकर और अाँखोंमें तीक्ष्ण ( कपूर आदि ) लगाकर रात भर जागता है । तथा प्रात्माके रहस्यको चिन्ता करता है ] ॥८६॥
कामलीला, कादम्बरी और जागरणके प्रानन्दके एक मात्र भारसे भारिल कामिनी को कायलताको भी उषा कालमें कामी लाँघ ( जीत ) गया था । अतएव कोमलांगोको थकानको दूर करके उसको प्रसन्न करनेका भी प्रयत्न कर रहा था। ठीक हो है लंघन
--
-
-
-
-
१. इन्द्रवज्रा वृत्तम् । २. मालिनी वृत्तम् ।
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् रात्रिवृत्तमलमेवमनूद्य त्वं वधूः खलु विलक्ष्य खलेति ।
हुंकृतैः प्रतिहितोऽपि सखीभिः स्त्रीरतान्यधिजगौ शुकशावः ।।८८॥ रात्रोति-अधिजगी बन्दादोत्, कोऽसो ?. शुकशाव: कोरपिल्लः, कानि ? स्त्रीरतानि, कथम्भूतोऽपि प्रतिहतोऽपि प्रतिषिद्धोऽपि, काभि: ? सखोभिः वयस्याभिः, कैः कृत्वा ? हुंकृतः, कमिति कृत्वा प्रकाश्यते, एवं च सति हे शुकशाब ! अलमनूद्य त्वं मा अनुवादोर्मा अनुवदः, कोऽसो ? त्वं भवान्, किम् ? रानिवृत्तं 'रजनोवृत्तान्तम्, हे खल ! तथा खलु विलक्ष्य मा विलक्षय मा लज्जयेत्यर्थः, कोऽसौ ? त्वम्, का ? वधूः कामिनोरिति ॥ ८८ ।। सूर्योऽभ्युदेष्यति कदाजिभरोऽथवेति
ध्यायन्निवाश्वनिवहः स्तिमितान्तरात्मा । पश्यनिवाक्षिभिरसूचय_सुमो
घोणापुटस्फुरणसूत्करणेवियोधम् || ८६ ।। सूर्य इति-असूचयत् निवेदितवान्, कोऽसो अश्वनियहः तुरङ्गसमूहः, कम् ? विद्योघं प्रभातम्, कै: कृत्वा ? घोणा पुटस्फुरणसूत्करणः नासापुटसञ्चरणसूत्करणः, कथम्भूतः ? ऊर्ध्व सुप्तः ऊर्ध्वनिद्राणः, क: कृत्वा ? अधिभिलोचनः, किं कुर्वग्निव ? पश्यन्निव कम् ? विरोधम्, पुनः कथम्भूतः ? स्तिमितान्तरात्मा निश्चलान्तरात्मा, किं कुर्वन्निव ? ध्यायनिव, कमिति कृत्वा प्रकाश्यते, कदा कस्मिन् काले अभ्युदेष्यति उद्गमिष्यति, कोऽसो ? सूर्यः, अथवा कदा भविष्यति कोऽसौ ? आजिभरः सङ्ग्राम इति ॥ ८९ ॥
नीत्वा पाश्नोभयेनापि निद्रा युद्धोत्स्वप्नेनेव नागा विबुद्धाः । शत्रोश्छत्रं हैममाशङ्कथ बालं हस्तावृत्त्याक्रष्टुमैच्छनिवार्कम् ॥९॥
नोत्वेति-नागा हस्तिनः, ऐच्छन् वाञ्छन्तिस्म, किं कमिव ? बालमर्क सूर्य हस्तावृत्या शुण्डादण्डपरावर्तन आक्रष्टुमिब, कि कृत्वा ? पूर्वमाशङ्कय, किम् ? छत्रम्, कथम्भूतम् ? हेमं हिरण्मयम्, कस्य ? शत्रोविपक्षस्य, कि विशिष्टा ? विबुद्धाः, केनेव ? युद्धोत्स्वप्नेनेव रणोद्गतस्वप्नेनेव, किं कृत्वा ? पूर्व नीत्वा समाप्य, कम् ? निद्रा स्वापम्, केन ? पार्वेन, कथम्भूतेन ? उभयेनापि द्वयेनापोति शेषः ॥ ९ ॥ ( अवमर्दन ) करनेवाला कौन-सा ऐसा दोष है जिसे शान्त नहीं करता है ? अर्थात् सर्व दोषी होनेके कारण मालिश करके प्रायश्चित करता है ॥ ७ ॥
____ 'रालको जो हुआ उसको पुनरावृत्ति रहने दो। हे खल ? तुम क्यों बहुओंको लज्जित कर रहे हो कह कर सखियोंके द्वारा 'हूँ-हूँ' करके रोके जाने पर भी तोतेके बच्चेने खियोंको रतिकेलिको कह डाला था ॥८॥
__'सूर्य कब उगेगा अथवा घमासान युद्ध कब होगा' स्थिर चित्तसे यही सोचते हुए के समान खड़े-खड़े सोये घोड़ोंके समूहने प्रोखोंसे देखे गयेके समान नथुनोंकी फुकारसे प्रातःकालकी सूचना दी थी [ ध्यानलीन, अन्तरात्मामें मान योगी भी कर्म संग्रामके अन्तमें शुद्ध प्रात्मा रूपी सूर्यके उदयको प्रतिभा करते हैं और मुक्त प्रात्मस्वरूपको साक्षात् प्रांखोंसे देखे गये समान करके कैवल्य प्राप्तिको सूचना श्वासोच्छवास मात्रसे देते हैं ] ॥ ६ ॥
दोनों करवट सो लेनेके बाद हाथियोंने स्वप्न में युद्धको ही देखा था और चौंककर
1. रजनी चेष्टितं ५० द० । २. स्वागता वृत्तम् । २. उद्भनिद्राण:--; उनिस नि-६० । ४. वसन्त-तिलका वृत्तम् । ५. शालिनी वृत्तम् ।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तदशः सर्गः . लक्ष्मी खलामुभयभागितया विलोला
स्वीकर्तुमेप गणिकामिव जागरूकः । संनद्य मुञ्च शयनं प्रधनं जयेति
स्तुत्यै परं हरिरबोध्यत सूतपुत्रैः ॥ ११ ॥ इति श्री सिन्धानकवर्धनञ्जयस्य कृतौ राघव-पाण्डवीये महाकाव्ये
रात्रिसम्भोगवर्णनं नाम सप्तदशः सर्गः ॥ लक्ष्मी मिति-अबोध्यत प्रबोधितः, कोऽसौ ? कर्मतापन्नः ? एष हरिविष्णुः, कैः क्रतुभिः ? सूतपुत्र घापातिकमङ्गलपाठकमुत्रः, कस्यै ? स्तुत्यै स्तवनाय, कमिति कृत्वा प्रकाश्यते, हे देव ! मुञ्च अपाकुरु । त्यजेत्यर्थः, किम् ? शपनं शय्यां तथा जय, किम् ? प्रचनं सङ्ग्रामम्, किं कृत्वा ? पूर्व सन्ना सन्नहनं कृत्या, कयम्भूतं प्रधनम् ? परं न्याय्यम्, अथवा परशब्देन केवलार्थो गम्यते, तेनायस्थंः परं केवलं स्तुत्य सूतपुत्रः हरिरबोध्यत इति लब्धम्, कयम्भूतो हरिः ? जागरूकः जागरणशीलः, कि कर्तुम् ? खलां प्रतारणपरा लक्ष्मी स्वीकत्तु म्. कया ? उभयमागितया निमीषुप्रतिजिगीषुद्वयजनितया, पुनः विलोलां चालाम्, कामित्र ? गणिकामिव वेश्याङ्गनामिव' ॥ ९१ ॥ इति निरवद्यविद्यामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलीडितस्य पट्तकचक्रवर्तिनः श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गशेरन्तेवासिनो देवनन्दिनाम्न; शिष्येण सकलकलोगवचारुचातुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां द्विसन्धानकबेधनञ्जयस्य राघचपाण्डबीयापरनाम्नः काव्यस्य पदकौमुदीनाम दधानायां टीकायां रात्रिसम्भोगव्यावर्णनं नाम सप्तदशः सगः ॥३॥
जाग गये थे। तथा वाल ( उशेयमान ) सूर्यको शत्रुओंका सोनेका छत्र समझकर सूंड बढ़ा दो थी तथा इसे झटककर खींचनेका प्रयास कर रहे थे ॥६॥
उभय पक्षों ( राम-रावण तथा पाण्डव-कौरवों ) की पोर झुकती और पलटती फलतः विलोल तथा गरिएकाके समान खल ( गुरण-दोषके विवेकहीन ) लक्ष्मीको अपनी बनानेके लिए सदैव जागरूक हरि ( राम-कृष्ण ) भी बन्दियोंके द्वारा जगाये गये थे। वे कह रहे थे हे विष्णो ! शय्याको छोड़िए, युद्धवेषको धारण करिए और विनाशक तथा परम भूतिके साधक संग्रामको जीतिए ॥ ११ ॥
इति निर्दोष विद्याभूषणभूषित पण्डितमण्डलीके पूज्य, घटतर्क चक्रवर्ती श्रीमान् पण्डित विनयचन्द्र गुरुके शिष्य---देवनन्दिके शिष्य, सकलकतावातुर्यचन्द्रिका-चकोर नेभिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनञ्जयके राबद-पापडवीय नामसे ख्यात, द्विसन्धान काष्यकी पदकौमुदी नामक
टीकामें राग्निसम्भोग वर्णन नामक सप्तदश सर्ग समाप्त ।
१. वसन्ततिलका वृत्तम् ।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
प्रभावै रोचनीयस्य भीतेवोदेतुमोजसः ।
प्रभा वैरोचनी यस्य वीतोच्छ्वासेव चावनिः' ॥१॥ ___ प्रभेति-इदानी कुलकेन व्याक्रियते, बभूवेति क्रियाध्याहार्या, बभूव सजाता, का ? वैरोचनी प्रमा भास्करीदीप्तिः, केव? भीतेव, कि कत्तुम् ? उदेतुम्, कस्मात् ? ओजसः प्रतापात्. कस्य ? यस्य पुंसः, कथम्भूतस्य ? रोचनीयस्य भासनीयस्य दीपस्येत्यर्थः, कः ? प्रभावः माहात्म्यैः, तथा च बभूव का ? अवनिमेंदिनी, केव ? वोसोच्छ्वासेव२ गतोवश्वासेवेत्यर्थः विषमपादाभ्यासो यमकः ॥१॥
तथापि स पुमानन्ते यद्वयवस्थितमाकुलम् ।
सहास्य यशसा शुभ्रं यद्वयवस्थित मा कुलम् ||२|| तथापीति-यद्यप्येवं यस्य प्रतापो विज़म्भते तथापि स पुमान् पुरुषो यत् यस्मात् कारणात् यद्यस्मात् पुरुषान्मा व्यवस्थित मातिष्ठत किम् ? कुलम्, कथम्भूतम् ? आकुलम्, कथम् ? सह पार्द्धम्, केन ? यशसा, क्व ? मन्ते अवमाने, कस्य ? अस्य पुंसः कथम्भूतं सत्कुलम् ? व्यवस्थितं विगतावस्था संजाता अस्य व्यवस्थित तारकादित्वादितच स्थिरास्थमित्यर्थः, पुनः शुभ्रम् । पादाभ्यासो यमकः ॥२॥
भवेयुरन्ते विरसाः समं देहा विभूतयः ।
राज्ञां माहंक्रिया भूवन्समन्देहाविभूतयः ॥३॥ भवेयुरिति-भवेयुः स्युः, के ? देहाः कायाः विरसाः, क्व ? अन्ते अवसाने, कथम् ? समं युगपत्, यतः यस्मात् तस्मात् मा भवन्तु, काः ? अहंक्रियाः अहङ्काराः, कथम्भूताः ? विभूतयो विनष्टा भुवः पृथिव्या उतिः प्रतिपालन याम्यस्ता विभूतयः, तथा मा भूवन का ? विभूतयः संपदः, कथम्भूताः ? समन्देहाः मन्दा पासावोहा च मन्देहा तया सह वर्तते इति समन्देहा: कार्पण्यवृत्तयः , केपाम् ? राज्ञा नरेन्द्राणामिति । पादाभ्यासो यमकः ॥३॥
प्रखर प्रतापी विष्णु ( राम-कृष्ण ) के माहात्म्यके कारण तथा उसके प्रज्वलित तेजके सामने सूर्यका प्रकाश उदयके समय ही डर गया था। तथा भयके कारण पूरी पृथ्वी को सांस हो रुक गयी थी ( क्योंकि सन्ध्या समयमें वायुका वेग रुक जाता है) ॥१॥
तो भी यह पुरुषोत्तम चिन्ताकुल हो उठा था। क्योंकि [महासमरके] अन्तमें उसे व्यवस्थित, परम शुद्ध और अपने यशके आधार फुल धर्मको अव्यवस्था ( संकर ) की आशंका हो उठी थो [ महायुद्ध के बाद ऐसा होता है इसीलिए गोतामें अर्जुन भी महाभारत से कांप उठा था ] ॥२॥
अन्तमें पृथ्वीके पालनमें असमर्थ ( भू-उति-वि ) होकर शरीर भो नीरस हो जाता है इसलिए राजाओंको राज्यलक्ष्मीका अहंकार नहीं करना चाहिए तथा इसकी प्राप्ति की अमिलाषाको भी मन्द ही रखना चाहिये ॥३॥
१. सर्गेऽस्मिनुष्टुप् वृत्तम् । २. बस्तस्थेवेत्यर्थः-८० ज०। ३. यः परोपकारावृत्तयः प० । परोपकारानिष्टा इत्यर्थः ६० । परोपकारनिष्टा इत्यर्थः ज. ।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४७
अष्टादशः सर्गः उत्तरेऽर्थे कृतार्थत्वं नान्तराले कृते परम् ।
लज्जालुप्तोत्तरीयेण नान्तरीयेण केवलम् ॥४॥ ___ उत्तर इति-न पर केवलमुत्तरेऽर्थे प्रयोजने कृते सति कृतार्थत्वं स्यात् अन्तराले मध्येऽर्थे कृते सति कृतार्थत्वं स्थात् युक्तमेतत् न केवलम् उत्तरीयेण वस्त्रेण लज्जालुवा स्यात् अन्तरोयेण अधोवस्त्रेणव स्यादिति । समपादादियमकः ॥४॥
स्थेयान्माहाकुलः स्वान्ते निजमालम्ब्य पौरुषम्
स्थेयान्माहा कुलः स्वान्ते भीतं मुञ्चति नान्तकः ॥५॥ स्थेयानिति-हा कटं मा स्थयात् मा तिष्ठतु अपितु तिष्ठत्वेव, कोऽसो ? माहाकुल: महन्च तत् कुलं च महाकुलं तत्र जातो माहाकुलः कुलीनः, कथम्भूतः सन् ? आकुलो व्यग्रः, क्व सति ? स्वान्ते आत्मावसाने, किं कृत्वा ? निज स्वकीयं पौरुषम् आलम्ब्य धृत्वा, स्थेयान् स्थिरतरः, क्व ? स्वान्ते चेतसि, युक्तमतत्, अन्तको यमः भोतं पुरुषं न मुञ्चति न त्यजति । विषमपादयमकः ॥५॥
स्थिरप्रकृतिरादेयः केषांचन न चश्चलः ।
पिङ्गलोऽप्यय॑ते काको मङ्गलार्थ न केनचित् ॥६॥ ___ स्थिरेति-स्थिरप्रकृतिः निश्चलस्वभावः कपांचन केषांचिन्न आदेयः आप्यायनीयो न भवति, अपितु सर्वेषामेव भवति, न चादेयश्चञ्चलश्चपलः, युक्तमेतत्, मङ्गलार्थपिङ्गलोऽप्युलूकोऽपि अर्यते पूज्यते न काको वायसः केनचित ॥६॥
असि भुजमहं धैर्य स मन्त्रिभ्योऽधिकोचितम् ।
गणयन्करवै शत्रु समं त्रिभ्योऽधिकोचितम् ॥७॥ असिमिति-करवं करोमि, कोऽसौ ? सोऽहं कम् ? शत्रुम्, कथम्भूतम् ? अधिकौचितं सोचितम्, केम्यः? त्रिभ्यः असिभुजधैर्येभ्यः, कि कुर्वन् ? गणयन् मन्यमानः कम् ? असि खङ्गं तया भुर्ज वाहं तथा धैर्यम्, कथम्भूतं त्रितयम् ? अधिकोचितं योग्यम्, केभ्यः ? मन्त्रिम्यः सचिवम्यः इति । समपादाम्यासो यमकः ७॥
raamananewww
mmarrrrrrr
जिस प्रकार केवल दुपट्टे ( उत्तरीय ) से ही शरीरको लज्जा नहीं ढकती है अपितु परिधान ( अधरीय ) भी आवश्यक होता है उसी प्रकार लौकिक कार्योंमें कृतकृत्य होनेसे ही जीवन चरितार्थ नहीं होता, जन्मान्तरको भी साधना आवश्यक है ॥४॥
___ महाकुलोंमें उत्पन्न लोगोंको भी अपने पुरुषार्थका सहारा लेकर अन्तरंगसे सुदृढ़ रहना चाहिए। और मनसे व्याकुल होकर कदापि नहीं रहना चाहिए क्योंकि अन्त समय पाने पर अन्तक ( मृत्यु) भीत पुरुषको भी नहीं छोड़ता है ॥५॥
सुदृढ़ स्वभावको धारण करना चाहिए और कभी भी किसोको चंचल प्रकृतिका अनुकरण नहीं करना चाहिए। लक्ष्मीके लिए उल्लूको भी पूजा की जाती है, पर कौएको कोई नहीं पूछता ॥६॥
___ सुयोग्य मन्त्रियोंकी अपेक्षा तलवार, भुजा और धैर्यको अधिक कार्यकरी मानकर __ इस त्रिगुटी ( असि, भुजा और धैर्य ) के द्वारा मैं शत्रुओंको सब तरफ ( समधिक ) से चाप
( कोचितम् ) दूंगा ॥७॥
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् नरघूर्णाविदाहेन न वाहानुमताद्रणात्
नाप्यद्य केशवक्लेशान्मत्कोपाग्निः प्रशाम्यति ॥८॥ ___ नरधूर्णेति-(दिः) अद्यापि साम्प्रतमपि न प्रशाम्यति न विध्यायति, कोऽसो ? मत्कोपाग्निः मम क्रोधवह्निः, केन ? रघूर्णाविदाहेन रधव एव ऊर्णा तस्कविहिन, तपा। प्रशाम्मत मकापालिः, कस्मात् ? रणाल, कयम्भूतात् ? हानुमतात् हनुमतोऽयं हानुमतः तस्मात् वा तथा न प्रशाम्यति मत्कोपाग्निः, कस्मात् ? केशवक्लेशात लक्ष्मणखेदात् ।
अथ भारतीयः--नरचूर्णाविदाहेन नरस्य अर्जुनस्य घूर्णाभ्रमणं विवाहः संक्लेशस्तैन, कथम्भूतात् रणात् ? वाहानुमतात् अश्वानामिष्टात्, केशवो नारायणः । अन्यत्सुगमम् ।।८।।
इत्यतो रावणो रोषसिद्धेस्ताम्यन्निवात्मनि ।
बहुधामागधैर्योऽसौ वीरैश्चक्री रणं ययौ ।।६।। इत्यत इशि---( द्विः ) ययौ गतवान्, कः ? असो चक्रो रावणः, किम् ? रणम्, कैः सह ? वीरैः, कथम्भूतः ? बहुबामा प्रचुरतापः, पुनः अगधैर्यः न मच्छतात्यगं स्थिरं धर्य यस्य सः, अथवा बहुधामागधैः बहुविधैर्वन्दिभिः, कस्याः सकाशात् ? अतोऽस्या रोषसिद्धेः को पसंप्रासः कथम् इत्युक्तप्रकारेण, किं कुर्वन्निव ? आत्मनि ताम्यन्निव तप्यमान इव ।
अथ भारतीय:-~य: जरासन्वनाम्ना प्रसिद्धः सः चको रणं ययौ, कै: सह ? मागधर्मगधदेशोद्भवैः क्षत्रियः, कि कुर्वनिय ? बघा बहरकारेण आत्मनि निजे असो लङ्ग ताम्यन्त्रिक आकाङ्क्षां कुर्वनिवेत्यर्थः कस्याः सकाशात् ? अतोऽस्था रोषसिद्धेः क्व ? अरोशनी कथम्भूताया रोषसिद्धेः ? अणोः लघोः ।। ९ ।।
जित्वारयः सुखं बन्धून्प्राध्वं कृत्य विचक्षणे ।
इति चित्तेऽमुना वैरं प्राध्नकृत्य विचक्षपो ॥१०॥ जिस्वैति-विचक्षणे हसितं विपूर्वकत्वात् क्षणु हिंसायामित्यस्य बातोः प्रयोगः उक्तं च-उपसर्गेण धात्वों बलादन्यत्र नीयते । विहाराहारनोहारप्रतिहारोपहारवत् ।। इति दसनात् । फेन ? अमुना रादणेन, भारतपक्षेजरासन्धेन, किं कृत्वा ? पूर्व प्राध्वंकृत्य बध्या, किम् ? बैरम्, क्व ? कृत्यविचक्षणे कार्यकुशले, चित्ते, कयम् ?
रघुवंशियोंकी फर्णा ( भूटियोंके बीच नाकके ऊपरके रोम ) में आग लगनेसे, अथवा हनुमान के साथ हुए घोर युद्धसे अथवा लक्ष्मरराजोको हुए अपार कष्टसे भी आज मेरी कोपाम्नि शान्त नहीं होती है [अर्जुन ( नर ) के भ्रमण ( घूर्णा ) तथा प्रतिशोधमें तपनेसे अथवा अश्व ( बाह ) सेनाको इष्ट घोर युद्धसे अथवा कृष्णजीको हुए परिश्रमसे भी आज मेरा क्रोध रञ्चमात्र कम नहीं हो रहा है ] ॥८॥
इस प्रकारसे रोषको पूर्णताके कारण मन-ही-मन जलतेके समान प्रचुर प्रतापी ( बहुधामा ), अचल धैर्यधारी (प्रग धर्यः) और चक्र से सजित रावण वीरोंको साथ लिये चल दिया था [ अपनी तलवार पर ( अस्तै ) सब प्रकारसे ( बहुधा ) विश्वास करते हुए ( ताम्यनिव ) के समान, मगध देशके प्रमुख वीरोंसे घिरा और शत्रु पर (अरौ ) थोड़े प्रयत्न द्वारा ( अणु ) ही अपने क्रोधको उतारनेके लिए रथपर सवार होकर जरासन्ध युद्धभूमिमें आ गया या ] ॥६॥
___ कर्तव्य और प्रकर्तव्यके निर्णयमें कुशल रावरप मन ही मन ( कृत्यविचक्षरणेचित्ते ) वैर बांधकर यह सोचकर हंस दिया था ( विचक्षणे ) कि हे शत्रुनो, तुम मेरे भाइयोंको जीतकर सुखसे बैठने की सोचते हो ? [ कार्यकुशल जरासन्धके चित्तमें भी वैरका
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः शत्रवः यूयं सुखं यया भवति तथा प्राध्वं तिष्ठत्, किं कृत्वा ? पूर्व बन्धून् बान्धवान् जिया। समपादाभासो यमकः ॥१०॥
पशुपच्छादयन्भीरूशूरानच्छादयं समम् ।
हृद्यस्वच्छादयन्धातोरस्त्रैः स्वच्छादयनमः ॥११॥ पशुवदिति-पशुवत् मीरून् शादयन् अम्पाजयन् शूरान् अय राषणः जरासन्धश्च समं युगपत् अच्छात् चिच्छेद, छो छेदने इति धातुः, तथा सः रावणः नमः गगनम् अस्त्रैः बाणः स्वच्छादयत् अतिशन छादयति स्म, किं कुर्वन् ? अयन् गच्छन्, कस्मात् ? धातोरभिप्रायात्, कथम्भूतात् ? अस्वच्छात् कुटिलात्, क्व ? हृदि चेतसोति । चतुष्पादशब्दयमकः ।।११॥
वक्षसासौ पुरोभागं तेजसादित्यमुर्वराम् ।
शस्त्रैरघुक्षतोयुक्तः कीर्त्या तस्तार दिङ्मुखम् ॥१२॥ वक्षसेति--रघुनलोयुक्तः रधुवघोद्यतः असो रावणः वक्षसा उरसा युरोभागं भटानामुपसरणं तस्तार, आदित्यं तेजसा प्रतापेन तस्तार, उर्वरा भुवं शस्त्रः तस्तार, कोया दिङ्मुखं तस्ताराच्छादितवान् ।
___भारतीयः- अघुक्षत “गुह संघरणे' धातोः रूपम्, संवृतवान् स जरासन्धः, कम् ? पुरोभागं पर पणम् क्व ? असो खड्गे, केन कृत्वा ? वक्षसा अत्र कोपाधिक्यं व्यज्यम्, 'कोपवक्ष्यो हि प्राणी अन्यदपि विस्मृत्यान्यदपि गृह्णातीति' श्रुतेः । तथा तेजसा आदित्यं शस्त्रवरामतः कारणात् अघुशत, किम् ? तारदिङ्मुखं विशददिग्वदनम्, श्या ? का, कथम्भूतः ? उद्युक्तः ॥१२॥
स हस्ताभ्यां चमूहस्तौ सहस्ताभ्यामपीडयत् ।
विभजिजपुः प्रतापाग्नी रिभ्रत्संधिसुतामिव ॥१३॥ स इति–अपीडयत् पीडितवान्, कोऽसौ ? स प्रतिविष्णुः कोसावयं रामणो जरासन्धश्च, को ? चमूहस्तो सेनापावों, काभ्याम् ? ताभ्यां लोकोत्तराम्यां हस्ताभ्याम् कथम्भूतः ? सहक्षमः, पुनः विधज्जिपु: प्रतिशोध दृढ़तर हो गया था। और वह सोचता था कि सम्बन्धी ( बन्धून ) शत्रुओंको जीतकर मौजसे रहूँगा ] ॥१०॥
रावस तथा जरासन्धने भीरु योद्धाओंको पशुनोंके समान अनायास ही संत्रस्त कर दिया था ( शादयन् ) और इसके साथ ही साथ चीरोंको इसने काटकर फेंक दिया था ( अच्छात् ) तथा प्राकाशको बारणोंको बौछारसे वैसा ही सब तरफसे ढंक दिया था (स्वच्छादयत्) जैसे मलिन ( अस्वच्छ ) विचारों ( धातोः ) के द्वारा हृदयको व्याप्त किया जाता है ॥११॥
रघुवंशियोंके बध ( क्षत ) के लिए तत्पर ( उद्युक्त ) रावणके वक्षस्थलको देखते ही शत्रुथोंका पलायन प्रारम्भ हो गया था, प्रतापके कारण सूर्य छिप गया था, शस्त्रोंके प्रहारसे पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी [ उद्यत जरासन्ध ने कोपोन्मत्त चितसे सैन्यके अग्नभागको तलवारमें छिपा दिया था, तेजसे सूर्यको पछाड़ दिया था और हथियारोंते पृथ्वीको पाट दिया था अतएव सर्वव्यात ( तार ) दिशाओंके अन्तको भी कीतिसे ढक दिया था ] ॥१२॥
समर्थ (सहः) रावरणने अपनी लोकप्रसिद्ध भुजाओंके द्वारा शत्रुसैन्यके दोनों पाश्वों (चमूहस्तौ) को चाप दिया था। मानो सन्धि करनेको भावनाको वह प्रतापकी ज्वालामें
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् पक्तुमिच्छु:, क्व ? प्रतापानो, कि कुर्वाणमिव ? संघित्सुता संघातुमिच्छुसां बिभ्रदिव विभ्राण हव । पादादि यमकः ॥१३॥
प्रापूरयन्नमस्त्रातः शिक्षामार्गेण मार्गणैः।
मापूरयं न भतातस्ते निर्याताः पुरोगतैः ॥१४॥ प्रापूरयदिति-प्रायूग्यत् प्रपूरितवान्, कोऽसौ ? प्रतिविष्णुः, किम् ? नमो गणनम्, कैः कृत्वा ? मार्गणः, कथम्भूतः सन् ? प्रातः पालितः, केन ? शिक्षामार्गेण, ते मार्गणाः न प्रायः न प्राप्तवन्त: अपि तु प्रापुरेव, कम् ? रयं वेगम्, कः ? सहपुरोगतैरनगणिः सह, कथम्भूताः सन्तः ? निपीताः, कस्याः सका. शात् ? भस्त्रात् इषुधेर्वाणगृहादित्यर्थः । विषमपादाभ्यासो यमकः ॥१४॥
प्रस्वापनास्त्रमसृजत्स तामसमयोदयम् ।
द्विषां तेनाकरोन्मोहं सतामसमयोदयम् ॥१५॥ प्रस्थापनेति-असृजन्मुक्तवान्, कोऽसौ ? स प्रतिविष्णु:, किम् ? स्वापनास्त्रं प्रकृनिद्राजनकशस्त्रम्, कथं यथा भवति ? अदयं निदर्यम्. कयम्भूतः ? तामसमयः कोपनिवृत्तः तथा अकरोत् कुतगन्, कः ? स प्रतिविष्णुः कम् ? द्विषां शत्रणा मोहम्, केन ? तेन प्रस्थापनास्त्रेण, कि विशिष्टानाम् ? सतां विद्यमानानाम, कथम्भूतं मोहम् ? असमयोदयम् अनवसरोद्भवमिति । समपादाम्यासो यमकः ॥१५॥
मत्तसुप्तामिव च तां तमोघमयोऽजयत् ।
शरभिन्नं धियारीणां तान्तमोघमयोजयत् ॥१६॥ मत्तेति–अजयत् जितदान्, कः ? स प्रतिविष्णुः काम् ? ता नमू सेनाम्, कामिक ? मत्तसुतमिव पूर्व मत्ता पश्चात्सुप्तामिव, कथम्भूतः सन् ? तमोघमयः अविवेकपापनिर्वृत्तः तथा अयोजयत् योजितवान्, कः स प्रतिविष्णु:, कम् ? अरीणाम् ओघं शत्रूणां समूहम्, कया? धिया बुद्धया कथम्भूतं सन्तम् ? तान्तं खिन्नम्, पुनः शरभिन्नमिति । समपादाम्पासो यमकः ॥१६।।
मुंज देना चाहता था ( बिभ्रजिषुः ) [शरीरमें जोड़ोंको धारण करनेवाले ( सन्धित्सुतां बिभ्रत् ) और अपनी क्रोधाग्निमें भुनता हुमा सा, वह समर्थ जरासन्ध अपनो लोक प्रसिद्ध पार्य सेनानॉके द्वारा शत्रुकी पार्श्व सेनामोंको चपेट रहा था ] ॥१३॥
शस्त्र शिक्षाकी शैलीका पालन करनेके कारण स्वयं सुरक्षित राबरण या जरासन्धने बारणोंको वृष्टिसे आकाशको पाट दिया था। तथापि इसको भस्त्रा ( तूणीर ) से निकले बारण पहले छोड़े गये बारणोंके समान तेजो ( रयं ) को क्या नहीं ए (प्रापुः) थे ? अर्थात् वे भी बहुत तेजीसे जा रहे थे ॥१४॥
तमोगुणप्रधान ( तामसमयः ) रावण और जरासन्धने निर्दयतापूर्वक ( अदयम् ) प्रस्वापन अस्त्रका प्रहार किया था। इसके द्वारा राम - और पाण्डव सेनाको असमयमें ही मूच्छित कर दिया था जो कि सज्जनोंके लिए बुरे समयके समान था ॥१५॥
तमोगुण और पापलीन प्रतिविष्णुने विष्णुको सेनाको वैसे ही जीत लिया था जैसे नशेमें उन्मत्त होकर सोये हुए व्यक्तिको परास्त किया जाता है। बालोंसे बिधे और खिन्न शत्रुओंके समूहको इसने, इस प्रकार बुद्धिबलसे फंसा लिया था ॥१६॥
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टावशः सर्गः
३५१ अरयो भौरवश्चक्रे जाताश्चित्रार्पिता इव ।
अस्यो भौरवश्वके व्याकुलस्त द्वधूकूलैः ॥१७॥ ___ अरय इति-भीरवः प्रस्ता अरयः चक्रे चक्रव्यूहे चित्रापिता इव जाताः तद्वधूकुलः शत्रुस्त्रीसङ्घः अरयो मन्दः भोरवो भयध्वनिः चक्के कृतः, कथम्भूतः ? व्याकुलः । विषमपादाभ्यासो यमकः ॥१७॥
अश्वोरसपतत्पत्तिः सुप्ताधोरणहस्तिका ।
सेनातिपद्धियेवाङ्गमक्षधूः सुप्तसारथिः ॥१८॥ अश्वेति-सेना अङ्गम् आक्षिपत् आक्षिप्तवती, कयेव ? भियैव भयेनेय, कथम्भूता सेना ? अश्वोरस. पतत्पत्तिः अश्वानामुरोग्रम् अश्वोरसं 'उरसोऽग्ने' [ज० सू० ४.२०१५] इत्ययं सान्तः, तेन पतन्तः पत्तयोयस्यां सा हयवक्षोग्नपतत्वदातिरित्यर्थः, पुनः सुप्ताधोरणहस्तिका सुता आधोरणा येषु ते हस्तिनो यस्यां सा निद्राणमहामत्तगजा, पुनः अक्षधूः सुप्तसारथिः अक्षयचक्रधाराकाष्ठं धूर्द्धरा अक्षश्व धूश्च अक्षधूः समाहारापेक्षया अभधुरि सुप्ताः सारथयो यस्यां सा ॥१८॥
ससास स स सांसासि यं यं यो यो ययं ययौ ।
नानन्नानन्ननोनौनीः शशाशाशां शशौ शिशुः ॥१६॥ समासेति-सः स पुरुषः ससास सुप्तवान्, कथं यथा भवति ? सांसासि सह अंसेन वर्तते असिर्यत्र स्वापकर्मणि तथोक्तं स स्कन्धखड्गं यथा भवति, यो यः पुमान् यं यं ययुम् अश्वं ययौ प्राप्तवान् तथा नानत् न श्वसिति स्म, कोऽसौ ? ना पुमान्, किं कुर्वन् ? सननन् स्वसन, कथम्भूतः ? अनोनीनोः अनो नावं नयतीति अनोनौनीः रथप्रवहणप्रेरकः, तया शिशुरज्ञः शशास प्लुतं गतवान् तथा शशी तनूकृतवान् काम् ? आशा वाञ्छामिति एकाक्षरपादः । ॥१९॥
द्राग्दानोच्छेदभीत्येव प्रासं शक्तिमसिं शरम् । पाशं परश्वधं शस्त्रीं ववर्षास्त्रमयो रिपुः ॥२०॥
प्रस्थापन प्रवके द्वारा कायर बनाये गये शत्रु चित्रमें लिखोंके समान पड़े थे । तथा उनकी पत्नियोंके झुण्डके झुण्ड व्याकुल हो उठे थे। तथा तेजहीन (अश्वः) होकर भयका चीत्कार ( भी-रवः ) कर उठे थे ॥१७॥
घोड़ोंको पीठ परसे सवार गिर रहे थे । हाथियोंके ऊपर महावत प्रादि सो गये थे। रथ सेनामें धुराके ऊपर सारथी सो गये थे फलतः चक्र चलना बन्द हो गया था। इस प्रकार पूरीकी पूरी सेनाने भीत होकर शरीरको झुका दिया था ॥१८॥
अन्वय-स स स-प्रस-असि ससास, यं यं-ययुं यो यो ययौ, न मनन अनो नौनी नानत्, शिशुः पाशा शशौ ( एवं ) शशास ]
प्रत्येक सैनिक कन्धे पर लटकी तलवारके साथ सो गया था। जिस-जिसने जिस किसी घोड़ेके पास जानेका प्रयत्न किया था वह स्वयं सांस लेकर भी रथके बाहकोंमें सांस नहीं पा सका था फलतः वह बच्चेकी भाँति युद्ध करनेकी प्राशाको दबाझर तेजीसे भाग गया था ॥१६॥
१. समाहारपक्षोऽयं-प० दः ।
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् द्रागिति-ववर्ष, कोऽसौ ? रिपुः शत्रुः, कम् ? प्रासं यष्टि तया शक्ति शस्त्रविशेष तथा असि सड़गं तथा शरं वाणं तथा पाशं परश्वधं परशुं तथा शस्त्रो छुरिकाम्, कथम्भूतः ? अस्त्रमयः, कयेव ? दानोच्छेदभीत्येव त्यागोच्छेदभोत्येव, शब्दच्छलात् खण्डनमेव ग्राह्यम्, द्वाक् शोघ्रमिति शेषः ।।२०।।
रैरोऽरिरीरुरूरारा रोरुरारारिरैरिरत् ।
रुरुरोरुरुरारारुरु रुरुरुररेरुरः ॥२१॥ राथिति-ऐरिरत् प्रेरितवान्. कोऽसो ? परिरी: अराः सन्त्यस्य अरि चक्रम् अरिणा रिणाति हिनस्ति रिपूनिति मरिरोः चक्रो प्रतिविष्णुरित्यर्थः, का: ? आराः शस्त्रविशेषसंज्ञकाः, कथम्भूता? उरूः बृहतीः कथम्भूतोऽरिरीः ? रैरः रायं राति इति रैरः द्रव्यदाता, पुनः रोरुः रोरवीति विचिप्रत्यये कृते सति रोरुरिति रूपं निष्पद्यते, अत्यर्थशब्दं कुर्वाण इत्यर्थः, पुनः, आरारिः अरीणां समूहः आरम् आरस्यारिः आरारिः शत्रुरागृष्टिरित्यर्थः पुनः महान लुथा यार गतान कोऽसो ? ऊरुः व्यापः, किम् ? अरुः वृणम्, कथम्भूतः करुः ? उरुः गरिष्ठः, तथा आर, कि कत ? उरो वक्षस्थलम्, किम् ? अरु व्रणं कस्य ? अरेः शत्रोः, कयम्भूतस्य ? हरूरोः रुरोरिव मृगविशेषस्येव ऊर्यस्य स रुरूह: तस्य रुरुरोरिति । एकाक्षरबन्ध इति ॥ २॥
याष्टीकन्ते स्मरव्यग्रा खेऽमरस्त्रीगुंताश्च ताः ।
याष्टीकं ते स्म व्यग्रास्तं प्रतीच्छन्ति नाभितः ।।२२।। याष्टो कन्त इति--ये वीरा: टोकन्ते लभन्ते, काः? ता अमरस्त्रीर्देवाङ्गनाः, कथम्भूताः सन्तः ? मृताः याश्च सन्ति, काः ? अमराङ्गलाः, कथम्भूता: ? स्मरव्यग्राः फन्दाकुलाः व ? खे गगने, तेन कारणेन ते वोरा न प्रतीच्छन्ति अपि तु प्रतीच्छन्ति स्मेवेत्यर्थः, कम् सं याष्टी के यष्टिः प्रहरणमस्य तं याटीकम् कयम् ? अभितः सामस्त्येन, कथम्भूताः सन्तः ? रज्यग्राः सूर्यवत् प्रधाना इति विषमपादयमकम् ॥२२।।
एका सर्वावसंग्राहः शिलेयं चालयन्नुरः । दिक्पालानां समाहारश्चलग्निव चचाल सः ॥२३॥
शखोंसे सुसजित शत्रुने भागते हुए अपने शत्रुओं पर प्रास (चौड़ी तलवार ) बरछी, तलवार, बाण, नागपाश, और तेजीसे मारनेवाले फरसे, कटारी प्रादिकी वर्षा की थी। क्योंकि उसे यही डर था कि संहार ( दान दा = दाने खण्डने च) रुरु न जाय ॥२०॥
[अन्वय-प्ररारिः रोरुः रेरः परिरोः उरुः प्राराः ऐरिरत, रुरूरोः अरे: उर: उरुः अरु: उरु: भार । ]
शत्रुओंके समूह ( रा ) का शत्रु ( प्ररि ) जोरसे गर्जनेवाला, कोष या घतकाप्रदाता और चक्रके द्वारा शत्रुनों [ 9 ] के संहारक [रीः] प्रतिविष्णुने बहुत मात्रामें 'भार' चलाये थे । जिनके द्वारा रूरू मृगके समान उरुयुक्त शत्रुका वक्षस्थल गम्भीर रूपसे आहत हुआ था। तथा उसे छेद कर अस्त्र निकल गये थे ॥२१॥
____ इस प्रकार से युद्ध में वीरगतिको प्राप्त योद्धा उन देवाङ्गनामोंको प्राप्त करते थे जो कामसे विह्वल होकर श्राफाशमें प्रतीक्षा कर रही थी। तथा सूर्यसे भी ऊपर [क्योंकि स्वर्ग ज्योतिष लोकसे बहुत ऊपर हैं] जाने के इच्छुक ये योद्धा भी क्या सर्व प्रकार से घोर यष्टि प्रहारकी इच्छा नहीं करते थे ? अपि तु करते ही थे॥२२॥
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टावशः सर्गः एक इति-चचालकोऽतो ? स प्रतियिष्णुः, कथम्भूतः ? एक एकाकी असहाय इत्यर्थः, कि कुर्वन् ? चालयन् स्वस्थानात चालयन्, किम् ? सरो वक्षः कथम्भूतं सत् ? शिलेयं शिलासमानं शिकया सदृशम् 'उपमानार्थे छ:' पुनः सर्वास्त्रसंग्राहः सर्वास्त्राणां सशाहोऽङ्गीकारो यस्य सः, किं कुर्वन् ? चलन् क्षोभं गच्छन्, क इव ? दिक्पालानां समाहार इव ॥२३॥
असन्क (असक्थ) मशिरोऽश्वीयं हास्तिकं चित्तमोहतः ।
पपात वञ्चन्न स्मासौ हास्तिकंचित्तमोहतः ॥२४॥ असमथेति-पपात पतितम्, किम् ? अश्यीयमश्यानामिदं बलम् अश्वीयम्, कथम्भूतम् ? असक्यम्, अ: सान्तः, अनठीवस्कम्, कस्मात् ? चित्तमोहतः वैचित्त्यात्, वपा पपात, किम् ? हास्तिकं हस्तिनामिद बलम्, कथम्भतम् ? अशिरो मस्तकहानम्, कस्मात् ? वित्तमोहतः तया हा कष्टं नास्ति स्म न सजातः, का ? असो अयं प्रतिविष्णुः, कि कुर्वन् ? बञ्चन् त्यजन्, कम् ? कञ्चित्, कथम्भूतः ? तमोहतः कोपवशः । समपादाभकम् ।।२४॥
अंसोत्सेधेन सोत्सेकत्रिमूर्ध इव केशवः ।
पापपाक इवामुष्य प्राभवत्पारिपन्थिकः ॥२५॥ अंसोत्सेधेनेति-प्रामवद् प्रकर्षण सञ्जातः, कोऽसौ ? केशवो विष्णुः, कथम्भूतः ? पारिपन्थिकः परिपथं तिष्ठति पारिपाथिकः प्रतिषेधक इत्यर्थः, कस्य ? अमुष्य प्रतिविष्णोः, क इव ? पापपाक इव, कथम्भूतः ? सोत्सेकः सगर्वः, के इवोत्प्रेक्षित: ? त्रिमूर्द्ध इव त्रिमस्तक इव, केन ? अंसोत्सेधेन स्कन्योछायेण ॥ २५ ॥
मणेः प्रत्युरसस्यासीत्सुपातीकुर्वता जगत् ।
रवेः सर्वपथीनेन तेजसेवोदयाचलः ॥२६॥ मणेरिति-आसोत् सञ्जातः, कोऽसौ ? विष्णुः, कयम्भूतः ? उदयाचलः, केन ? तेजसा प्रकाशेन, कस्य ? मणे, कथम्भूतस्य ? प्रत्युरसस्य उरसि स्थितस्य कोस्तुमस्येत्यर्थः, किं कुर्वता सता ? सुप्रातीकुर्वता सुप्रभातीकुवंता, कथम्भूतेन ? सर्वपपोनेन सर्वान् पप आप्नोतीति सर्वपक्षीनं तेन, किम् ? जगद्भुवनम्, फस्येव ? रवेरिव तेजसा सूर्यस्येवेति ॥२६॥
समस्त शस्त्रोंसे सुसज्जित अथवा समस्त शखोंका प्राघात सहने में समर्थ शिलाके समान वक्षस्थलो ताने हुए एकाको प्रतिनारायण चल पड़ा था। यह अकेला ही ऐसा लगता था जैसे समस्त दिग्पाल ही चल पड़े हो ॥२३॥
घोड़ों को सेना चित्त विभ्रमके कारण बिना जांघ की होकर गिर पड़ी थी। तथा हाथियोंको सेना मर्मस्थल में प्रहार होने के कारण मस्तकहीन होकर लुढ़क गयी थी। क्योंकि तमोगुणमय हो जानेके कारण इस प्रतिनारायणने किसीको भी नहीं छोड़ा था ॥२४॥
कन्धोंको ऊपर तानता हुआ, उत्साह और गौरवते व्याप्त तथा तीन मस्तक युक्त के समान नारायणने इस (प्रतिनारायण) के मार्ग को रोक लिया था अर्थात् परम विरोधी हो गया था। ऐसा लगता था कि नारायण, प्रतिनारायणके पापके परिपाक रूपसे ही प्रकट हुना था ॥२५॥
उर स्थलमें धारण किये गये कौस्तुभमणिके सब पोर फैलनेवाले तेजके कारण नारायण उदयाचलके समान हो गया था क्योंकि उदयाचलपर आये सूर्यका प्रकाश भी सब दिशाओं में फैल जाता है । और जगदमें सुप्रभात हो जाता है [नारायणके द्वारा नैतिकताका प्रभात हुआ था] ॥२६॥
४५
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
सिन्धानमहाकाव्यम्
वीरावैवारी व रविरिवोर्वराम् । विधोवरेर विवरे खोवावाविराववान् ||२७||
-
दोरेलिन प्रच्छादितवान् कोऽसी ? विष्णुः काम् ? उर्वरा पृथ्योम् कैः कृत्वा ? विशेष रैः तेजोमण्डलः, कथम्भूर्त: ? अविवरं निविड, कथम् ? स्फुटम् क इव ने रविरिव सूर्य इव कथम्भूतो विष्णुः ? दीरारिरारी बोराणामरीणां वैरं वृणोतीत्येवंशीलः सः वीररिपुवैरभञ्जकइत्यर्थः पुनः अवयावा त्रः अपराधलक्षणं तमोss ग्राह्यम् अवो वनति संभनन्तकोति वन्प्रत्ययः, “वन्या:" [ जै० सू० ४। ४४१ ] इति सूत्रेण वनिवरतो नकारस्याकारादेशे अवो वावेति सिद्धं रूपम्, अनीति तमोभ इत्यर्थः, पुनः विराववान् नभोरव्यनिमामिति ||२७||
astri पापापापोपपान्पयौ ।
नृननुनानिनोऽनेनास्तत्तत्तातोऽताततिम् ||२८||
"
य इति इयाय गतवान् प्राप्तवानित्यर्थः कः ? यः इनः स्वामी विष्णुरित्यर्थः कम् ? आर्य द्रोत्पत्तिस्थानं वज्रादीनां रत्नानां खनिमित्यर्थः कथम्भूतः ? अयेयायः अपेयः अयो यस्य सः अगम्यगमनः अक्ष्यप्रवृत्तिरित्यर्थः ' को बुद्धयते राजगति विचित्रामिति वचनात् अत्र संघो रेफस्थाने यो यकारः तस्य लोपो न कृतः प्रतिपालितवान् फोऽसौ ? इनः कान् ? नृन् पुरुषान् कथम्भूतः इनः । अनेनाः पापरहितः पुण्यवानित्यर्थः कथम्भूतान् ? पापापापन् पापादपापाः पापापापाः पापापापेषु उपपा येषां तान् अनपराधरक्षकादित्यर्थः पुनः अनूनान् प्रचुरान् तत् तस्मात् कारणात् असत विस्तारयामास, काम् ? आसति श्रेणी तत्तेषां नृणां कयम्भूतः सन् ? तात: पिता, केषाम् ? तत्तेषामेव तदित्यम्पयपदमिति ॥ २८ ॥ *
मैः शः समतां गोखुरैरिव । हस्तिहस्तक्रमैः कीर्णे मुसलोलूखलैखि ||२६|| जिते तमसा जेरे रेजेऽसामततेऽजिते ।
भासिते रदनारीमे मेरीनादरतेसिभा ||३०||
छिन्नैरिति--जेरे जीर्ण विनष्टम्, केम ? तमसान्धकारेण, क्व ? समीके सङ्ग्रामे कथम्भूते ? कीर्णे व्याप्ते कः ? शकैः खुरे, केषाम् ? अवंसाम् अश्वानाम्, कथम्भूतैः ? अस्त्रः छिन्नंः, कैरिव ? गोखुरैश्वि वीर शत्रुको वैरका शमनकर्ता ( बौरारि वंरवारी), अनीतिके अन्धकारका विनाशक ( श्रवोवा) गम्भीरस्वर में ललकारते हुए नारायणने अपने सघन (प्र-वियर) तेजमण्डल के द्वारा (विधोयरे :) युद्धस्थलोको निश्चित रूपसे वैसे ही व्याप्त किया था जैसे सूर्य पूरी पृथ्वीको करता है ॥२७॥
स्वयं प्राप्य श्रथवा गृढ़ताके कारण अगम्य (अयेयायः ) वह (यः) विष्णु रत्नोंकी खान (श्रा) को प्राप्त हुआ था ( इयाय ) । स्वयं पापों ( इनः ) से रहित होकर भी उस भगवान (नः) नारायणने पापोंसे बचे (अपाप ) हुए तथा शरणागत [ उपपा ] जनोंकी रक्षा की थी (पप) । और उस जगद्रक्षक (ताल) ने ही मानवों की (नून) विविध ( तत्तत् ) विशाल ( अनूनान् ) एवं समग्र श्रेणियों ( प्राततिम् ) का विस्तार किया था (आ) ॥२८॥
सर्वग्रासी ( को ) संग्राम में शस्त्रोंके प्रहारसे चोरी गयी घोड़ोंकी टायें गोरके समान हो गयी थीं । धौर शस्त्रोंसे काटी गयी हाथियों की सूड़े तथा पैर भूसल और
१. द्वयक्षरबन्धः । २. एकाक्षरपादयन्धः
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५५
अष्टादशः सर्गः तथा च कोणे, कैः ? हस्तिहस्तक्रमः शुण्डालशुण्डाचरणः, कैरिव ? मुसलोलूखलरिव हस्तिहस्तर्मुसलरिव ___ हस्तिक्रमहलू खलरिवेत्यर्थः, कथम्भूते ? तेजिते प्रदीप्ते, पुनः असामतते न विद्यते साम येषां वे असामानः
सकोपाः पुरुषाः असामभिस्तते विस्तृते, पुनः अजिते अनभिभूते, पुनः भासिते प्रकाशिते, पुनः बरदनारीभे न विद्यन्ते रदना येषां हे अस्दनाः अरोणामिमा अरोमा: अरदना अरोभा यत्र तस्मिन् तथोक्त, पुनः भेरीनादरते भेरोणां यो नादो ध्वनिस्तस्मिन् रते सक्के, तयाऽसिभा रेजे खड्गवाप्तिः कों' ॥२९-३०॥
गर्मायोढा इव हयाः पक्षात्यस्ता इव द्विपाः ।
उन्मत्ता इव तत्रासश्रमताः शस्त्रपाणयः ।।३१।। गर्भाप डेति---- प्रामन् समाताः, के ? हयाः, क इवोत्प्रेक्षिताः ? गर्भापोढा इत्र गर्भनिर्गता इव, तया भासन्, के ? द्विधाः हस्तिनः, क इवोत्प्रेशिताः ? पक्षात्यस्ता र कर्दनिर्गता इन, तथा आसन्, के ? शस्त्रपाणयः शस्त्रास्ताः सुभटाः, क एवोत्प्रेक्षिताः ? उन्मत्ता इव, पच ? तत्र रणे, कथम्भूता हयादयः ? |प्रता: श्रीरस्थालोति श्रीमान् विष्णुः श्रीमत इमे श्रमताः बासुदेवसम्बन्धिन इति ॥३१॥
अत्यध्वान्तां महोपायां चम्रमुत्सृज्य वैष्णवीम् ।
अत्यध्वा तां महोऽपायां वैरीयां तत्तमोऽविशत् ॥३२।। अत्येति-अविरत् प्रविष्टं, तत् लोकप्रसिद्धं तमः, काम् ? तां चमूम्, कयम्भूताम् ? बैरीयां वैरिणाभियं वैरीया तां वैशेयां शात्रवीम्, पुनः कथम्भूताम् ? महोपायां महसां तेजसा प्रतापलक्षगानामपायो विनाशो यस्यां ताम्, पुनः अत्यध्याम् अध्वानमतिकान्ताम्, 'गेरहवनः' जै० सू० ४।२६८७] इति असान्त. सूत्रेण नः सान्तः, किं कृत्वा पूर्व तमोऽविशत् ? उत्सृज्य विसृज्य परित्यज्य, काम् ? चमूम्, कथम्भूताम् ? वैष्णवों विष्णोरियं वैष्णवी तां पुनः महोपायां महान गयो यस्यास्ताम्, उपायः सामादिः पञ्चाङ्गमन्त्रो वा त्रिशक्तिलक्षणोऽग्राह्यः, पुनः अत्यवान्तां ध्वान्तमुत्साहोऽत्र ग्राह्यः न ध्वान्तमतिक्रान्ता अत्यध्वान्ता तां सोत्साहामित्यर्थः ॥३२॥ |
अयानि तव तिष्ठ त्वं गृहाणायुधमायुधम् । इत्येकवाक्यौ वैरेऽपि तावाहेता परस्परम् ।।३३।।
अोखली के सदृश पड़े थे । इस प्रकार समता भावसे रहित भटोंके द्वारा बनाये गये संघर्षके अपनो चरम सीमा पर पहुँच ( तेजित ) जाने तथा शत्रुनोंके हाथियोंके काटे गये दाँतोसे प्रकाशमान होनेपर भी विजयका निश्चय नहीं हुया था। (अजिते ) फलतः रमेरियाँ जोरोंसे बज रही थी तथा चलती तलवारोंकी चमकसे अन्धकार नष्ट हो गया था ॥२९-३०॥
लक्ष्मी के स्वामी विष्णुको ( श्रमतः ) सेना के घोड़ तुरन्त उत्पनोंके समान हो गये थे। हाथी ऐसे लगते थे मानो कीचड़में लोट कर पा रहे हैं। और हाथों में हथियार लेकर बदले योद्धा मदोन्मत्त ऐसे प्रतीत होते थे ॥३१॥ .
रात्रि अधया पराजयके अन्धकारने अत्यन्त उत्साह (ध्वान्त) पूर्ण और सामादि पांचों उपायोंमें परिपूर्ण नारायणकी सेनाको छोड़ कर, पथभ्रष्ट होकर भागती हुई (अत्यध्वां) और सर्वाङ्ग विनाशको प्राप्त (महोऽपाय) वैरी प्रतिनारायणको सेमा प्रवेश किया था ॥३२॥
१.३०समें इलोकगतात्यानतंबन्धः । २. विषमपादयमकम् ।
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अयानीति-अाह्वेतामाकारितवन्ती, को? तो विष्णुप्रतिविष्णू, कथम् ? परस्परमन्योन्यम्, कथम्भूतो Har: एकवाक्या वो, म सत्यारे : यऽपि कयमिति कृत्वा प्रकाश्यते तव भवतः यदि अयानि अगमनं तदा तिष्ठ आस्व त्वं गृहाण आयुधमायुधं अस्त्रमस्त्रमिति ॥३३॥
लोलध्वजौ वराजिवेलौ तद्वत्तयो रथौ ।
युद्धाम्बुधौ द्विनावं चेइन्योन्यमभिपातुकम् ॥३४।। लोलेति-तद्वत् द्विनाववत् स्यातामिति क्रियाध्याहार्या, को ? तयोः केशवप्रतिकेशवयोः रयो, कथम्भूतौ ? लोलध्वजो चलत्केतू, पुनः वहताजिवेली वहन्तो वाजिनौ वेला ययोः तो, कस्मिन् ? युद्धाम्बुधौ रणसमुद्रे, चेद्भवेत् . किम् ? द्विनावं द्वयोनावोः समाहारः, "नावोरात्" [जै० सू० ४।२।१०२ ] इत्यनेन सूत्रेण अः सान्तः, कशम्भूतम् ? अभिपातुकमभिपतनशीलम् अन्योन्यमितरेतरमभिगमनशोलम् ।।३४।।
स मेनेज्नेन सामर्थ्यमने युधि दिवौकसाम् ।
समेनेऽनेन सामर्थ्यमीयमानमरातिना ॥३५|| स इति--स विष्णुः सामथ्यं पौरुषं मेने ज्ञातवान्, क्व ? युधि सङ्झामे, कथम्भूते ? अग्ने भाविनीत्यर्थः, पुनः समेने समस्वामिनि, कि क्रियमाणं सामर्थ्यम् ? ईयमानं गम्यमानं प्राप्रमाणमित्यर्थः, केन ? अनेना
रातिना वैरिणा प्रतिविष्णुना सह, कथम्भूतम् ? अनेमसा पुण्यवतां दिवौकसां देवानाम् अयं श्लाघ्यम् । विषमपादयमकम् ॥३५॥
अरिरखं रणेऽस्राक्षीदाग्नेयं धीरदीधिति ।
अक्षान्ति हृदयेऽनेकां निःसहं लङ्घयन्यथा ॥३६॥ अरिरिति---अरिः शत्रुः रणे आग्नेयम् अग्निविकारम् अस्त्रं बाणम् अस्रामोत् मुक्तवान्, कथम्भूतम् ? धोरदीधिति स्थिरदोप्ति कथं यया भवति? मि.
सदसहम, यथाशब्दोऽत्र उत्प्रेक्षार्थोऽवगम्यते तेनायमर्थः, किं कुर्वन्निव ? हृदयेऽनेका प्रचुराम अक्षान्तिमक्षमा लक्षयन्निवातिकामयन्निव ॥३६॥
कोपा कश्चिज्ज्वलत्यस्य कनकाश्मस्य किं द्रवः ।
किं किंशुकवनं फुलं किं जिह्वा समवर्तिनः ॥३७।। कोप इति-जवलति दीप्तो जायते, कोऽसौ ? कश्चित् कोपः, कस्य ? अस्य पात्रो: कि द्रवः, कस्य ?
"मैं तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ। तुम शस्त्रको उठानो। मेरे सामने जमो।' घोर वैर होनेपर या इस प्रकारके समान वाक्यों द्वारा उन दोनों (नारायण और प्रतिनारापरण) ने एक दूसरेको ललकारा ॥३३॥
लहलहाती ध्वजारोंसे शोभित तथा जुते हुए घोड़ों रूपी तौर युक्त नारायण और प्रतिनारायणके रय, युद्ध रूपो समुद्र में उन दो नौकानों के समान लगते थे जो ध्वजा और पालसे युक्त होकर एक दूसरेपर आघात करनेके लिए बढ़ती हैं ॥३४॥
समान नायक (इन = नायक-प्रतिनायक) युक्त संग्रामकी पराकाष्ठामें उस नारायणने प्रतिनारायणको तुलनामें अपनी शक्तिको स्पष्टतया जाना था। तथा उसको इस सामर्थ्य की पापाचाररहित (पुण्यात्मा) देवोंने भी कामना की थी ॥३५॥
धीर गम्भौर एवं तेजस्वी शत्रुने युद्ध में अग्निवारणको चलाया था। मानो उसने अपने हृदयकी बहुमुखी अशान्ति या क्रोधको ही सहन न करके उछाल दिया था ॥३६॥
शत्रुका धधकता हुमा क्रोध रूप वह अग्निबारण ऐसा लगता था मानो स्वर्ण-पाषाण
१. ल सम्मुखगमनशीलमित्यर्थः । कथम् ? अन्योन्यमितरतरमिति शेषः प०, द०, ज० । २. धीर- . दीप्ति प० द.।
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५७
अष्टादशः सर्गः कनकाश्मस्य कनकस्य अश्मा कनकाश्मः "सरोनोऽश्मा यश: खुजात्यो:' [ जै० सू० ४।२१९६ ] इत्यनेन सूत्रेण अः सान्तस्तस्य तयोक्तस्य सुवर्णपाषाणल्य, कि फुल्ल पुष्पितं किंशुकवनं पलाशकाननम् । किं समदत्तिनो यमस्य जिह्वा रसना ? ॥३७ ।
इत्याशङ्कय चिराज्जज्ञे संतप्त रुकैः शिखी ।
दृष्ट्या शूरः पराच्छेदि भिदेयं भीरुधीरयोः ॥३८|| इत्येति-जने जातः, कोऽसौ कर्मतापन्न: ? शिलो दहनास्त्रम्, कै: ? भोरुको: भीतैः पुरुषैः, कपम्भूतः ? संतप्तः कथम् ? चिराद्बहुतरकालेन, कि कृत्वा ? पूर्वमाशङ्कय, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण', पराच्छेदि परिच्छिन्ना, का? इयं मिदा भेदः, कयोः ? भीरुधीरयोः, कैः कर्तृभिः ? शूरैः, कया कृत्या ? दृष्टया अवलोकनमात्रेणेत्यर्थः ॥३८॥
सामिभीलदही यचुः पाणिनीला हिणावलिः ।
नवपुष्करमस्याः किं न वपुष्करणं वपुः ॥३६॥ सामिमीलदिति--अहो आश्चर्यम्, अमिमीलत् विनिमेषितवली, का? सा द्विगावलिः गजराजिः, किम् ? चक्षुलोचनम्, कि कुर्वत् सत् ? मोलत् सङ्घचत्, कथम् ? सामि अद्धं तथा कि नामिमोलत् अपितु अमिमीलदेव, कि किम् ? नवयुष्करं शुण्डादण्डागं तथा वपुः शरीरं तथा करणमिन्द्रियं तथा वपुः ओजः पातूनां तेजः, कस्याः ? अस्या द्विपात्रलेरिति । पादादियमकम् ॥३९॥
अत्यन्तीना हयालीयं सालिलचिषत स्यदात् ।
निसर्गः कश्चिदस्यास्ति सक्तस्यान्यस्य चाङ्गिनः ॥४०॥ अत्यन्तो नेति-अलिलहिषत लामिष्टवती, का ? सा इयं हयालो हपपङ्किः , कस्मात् ? स्यदात् वेगात्, कथम्भूता ? अत्यन्तोना गच्छन्ती युक्तमेतत्, अस्ति कः ? निसर्गः स्वभावः कश्चित् कस्य ? अङ्गिनः शरीरिणः, कथम्भूतस्प ? शक्तस्य समर्थस्य अन्यस्य' भोरोरिति । निशेष्ठ्यः ॥४०।।
रवेरावरणं चापी कुर्वाणः शरणं शरैः।
कृष्णो मेघो जगोंच्चाप्योपककुभं भुवः ॥४१॥ रवेरिति--जगर्ज गजितवान्, कोऽसो ? कृष्णो विष्णुः, कि कृत्वा ? पूर्व व्याप्य, किम् ? उपककुभं प्रतिदिशम्, 'गिरिनदीपोर्णमासी' [जे० सू० ४।२।११२.] इत्यनेन सूत्रेणाकार: सान्तः । कथम्भूतः ? चापी पिघल कर फैल गया है, अथवा पलास-वन चारों प्रोरसे फूल पड़ा है, अथवा पापीपुण्यात्मादिमें समदृष्टि यमराजको जिता हो लपलपा रही है ॥३७॥
___इत्यादि प्रकारसे विकल्प करनेके बाद, तपाये गये अथवा डरे हुए भीर लोगों ने बड़ी देरमें यह जाना था कि यह अग्नि बारप है किन्तु शूर-वीरोंने देखकर हो इसे पहचान लिया था। तथा इस प्रकारसे भीरु और धीरका अन्तर स्पष्ट कर दिया था ॥३॥
प्राग्नेय अस्त्रके तेजके कारण उस गजसेनाने प्राधी (सामि) आँख बन्द करतेकरते आँखें ही बन्द कर ली थी। क्या इस गजसेनाकी सूंड संकुलित नहीं हुई थी ? अवश्य हुई थी। साथ ही साथ इन्द्रियाँ, शरीर और तेज (वपुः) भी संकुचा गये थे ॥३६॥
वेगके साथ भागती हुई अश्वपंक्तिने अग्निको तेजीसे पार करनेको इच्छा की थी। [इसमें क्या प्राश्चर्य है ] क्योंकि घोड़ेकी यह (फाँद जाना) प्रकृति ही है। और यही स्वभाव किसी भी सामर्थ्य युक्त दूसरे देहधारीमें देखा जाता है ॥४०॥
१. -ण तथा सति पस प०, ६० । २. शक्तस्य विशेषरूपेण ग्राममिति ।
NANAGwwLMAN
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् धनुष्मान्, कि कुर्वाण: रवेः सूर्यस्यावरणं शम्भनं कुर्वागः, के. शरैर्वाणः, कथम् ? उच्चरतिशयेन, तया कुर्वाणः, किम् ? भुको भूमेः शरैः शरणं विदारणम्, अत्र लुप्तोपमा ज्ञातव्या, क इव ? कृष्णो नोल: मेष इस जलघर इव, किं कृत्वा ? पूर्व उपककुभं व्याप्य, कि कुर्वाणः ? रवेरावणं कुर्वागः, के: कृत्वा ? शरैः जल तथा कुर्शणः, किम् भुवः शरणम्, कै: ? शरैल कयम् ? उच्चैः, कयम्भूतः ? चापो इन्द्रधनुर्युक्त इति ॥४१॥
अमरिष्यज्जनः पूर्व धूमध्यामाग्निशङ्कया।
विद्युत्वन्तं धनं वीक्ष्य नामोच्यच्चेत्स विग्रुषः ॥४२॥ अमरिष्यदिति-अमरिष्यत् कोऽसौ ? जनः, कयम् ? पूर्वम्, कया ? धूमध्यामाग्निशङ्कया धूमध्यामलवह्निधान्त्या, कि कृत्वा ? पूर्व वीक्ष्यावलोक्य, कम् ? धनं मेवम्, कथम्भूतम् ? विद्युत्वन्तं तडिद्युक्तं चेदि नामोक्षात्, कोऽसो ? सघनः काः । विद्युमो जलविन्दून् ॥४२॥
भूरिरभ्रमरो रेभी कोऽनेकानीककाननम् ।
काकालिकी किलाकाले नोपापापोऽपिनापपुः ॥४३॥ [पादब्यक्षरी] भरिरति -किलशम्शे लोकोको अत्र, कः ? अभ्रभरो मेधसमूहः न उपाप न व्याप्नोति स्म, अपि तु सर्वोऽपि, foम् ? अनेकानोककाननं प्रचुरसैन्य कान्तारम्, कथम्भूतः ? भूरिः प्रचुरः, पुनः रेभो ध्वनिमान्, छ ? अकाले समय तया का मालिको विद्युत् नोपाप अपि तु उपाप, किम् ? अनेकानोककाननं तया का आपोऽपि जलापनि नापयुनं पोत वत्यः अपि तु आपपुः किमने कानोककाननम् ।।४३॥
रणमकार्णवं कर्तुमारेभेऽभ्रं शने रसन् ।
अभूद्वह्विरपां घोरैरारेमे भ्रंशनै रसन् ॥४४॥ [समपादयमकम्] रणमिति-पारे प्रारब्धवत्, कि कर्तृ ? अभं मेवः, कि कत्तुम् ? रणं सग्राम-भूमि कम्, कथम्भूतम् ? एकार्णवं तथाभूत्सं नातः, कोऽसौ ? वह्निः, कि कुर्वन् ? रसन् वदन, कथम् ? शनैर्मन्दम्, क्व सति ? आरेभे गर्ने, कयमभूह्निः ? असन् अविद्यमानः, करभूवह्निः ? भ्रंशनैः संघट्टनैः, कासाम् ? अपां जलानाम्, कथम्भूतः ? पोरैः भधानकः, इत्यनेन विद्युत्पातादिति भावः ॥४४।।
धनुषधारी नारायणने मेघ-बारणोंको घर्षाके द्वारा सूर्यको ढंक दिया था तथा पृथ्वीको फोड़ (शरण) दिया था। तथा युद्ध गर्जना करते हुए इसने काले बादलके समान समस्त दिशाओंको झंकृत या व्याप्त कर दिया था [कृष्ण मेघ भी सूर्यको छिपा देता है तथा मूसलाधार वृष्टिसे भूमिको विदीर्ण करता हुआ नरजता है तथा सब विशालोंमें छा जाता है] ॥४१॥
अग्नि बारणके कारण लपटें छोड़ती अग्निको शंकासे पहले हो अधमरे लोग बिजली चमकाते भयंकर मेधको देखकर [वज्रके भयत्ते] हो मर गये होते, यदि इस (भेष बाणके वादल) ने तुरन्त वृष्टि न कर दो होतो ॥४२॥
[मेघवासके कारण] विविध सेनामों रूपी जंगलपर कौन-सी उत्कट मेयघटा गरजती हुई नहीं पायी थी ? वर्षाऋतु न होनेपर ( अकाले ) भी कौर-सो वर्षाकालीन बिजली नहीं चमकी थी ? और यह सैन्यरूपी जंगल क्या वर्षाकालीन जलसे प्लावित नहीं हुआ था? [अर्थात् समराङ्गण सर्वथा वर्षा ऋतुमय हो गया था] ॥४३॥
रुक-रुककर गरजते मेघोंने समरस्थलीको विशाल समुद्र बनाना प्रारम्भ कर दिया
१. -'द' पुम्दझे 'धूममध्याग्निशंकया' इति पाठो वर्तते । तत्र टीकायामपि 'धूममध्यापिनशंकया धूममध्यामलवशिक्या' इति पाठ दृश्यते । २. -पकौ ग्राह्यान द
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः नागाननागा गगने सज्जाजिः सासृजोऽसृजत् । रिपुः प्रपपरु: पापाः परपारपरम्पराम ॥४॥
[यक्षरपादः ] नागानिति-रिपुः शत्रुः नागान् सन् िअसृजत् मुत्रान्, कथम्भूतान् ? सासृजः सरुधिरान्, कस्मिन् ? गगने, कषाभूतः ? सज्जाशि: प्रगुणितरणः, पुनः अनागा अनपराधः तथा प्रपपरुः प्रपरितवन्तः, के ते? मामा, काम् ? परपारपरम्पराम् गरं विप्रतिवरन्ति “कर्मण्यम्" [ज० सू० २६२११] इत्यनेन सूत्रेणाण, परपारा; शत्रभृत्याः परवाराणं परम्परा परपारपरम्परा तो विष्णुपदातिश्रेणिमित्यर्थः, कथम्भूता नागाः ? पापा: पापमूर्तय इति शेषः ॥४५||
जलवेणीति संतुष्य तत्राणादित सा इसम् ।। विष्णोश्वमूर्विभाज्याहिं तत्रासादित साहसम् ॥४६॥
[द्वितोयचतुर्थपादयमकम् ]| जलवेणीति-तत्र रणे आदित गृहोसवतो, का ? चमू: सेना कम् हसमुल्लासम्, कि कृत्वा ? पूर्व संतुष्य, कमिति ? जलवेणोति नागान् जलधाराप्रवाहभ्रान्ति दधानानवलोक्य तुष्टेति भावः, कस्य चमू ? विष्णोः तत्रास, का ? सा चमूः, किं कृत्वा ? पूर्व विमान्य ज्ञात्वा, कम् ? अहि सर्पम्, कथम्भूतम् ? मासादित. साहसं यासादितं प्राप्त साहसं प्राणनिरपेक्ष कर्म येन तं तथोक्तम् ॥४६॥
अधोऽधः पेतुरानीलॉल्लेलिहानान्कृशानवः ।
वर्षतो विषमम्मोदानशनेरिव राशयः ॥४७॥ अघ हति-पेतुः पतिताः, के ? कृशानवोज्नयः, कथम् ? अबोधः अधस्तादधस्तात, कान् ? लेलिहानान् सन्,ि कथम्भूतान् ? आनीलान् मा सामस्स्येन कृष्णान्, कि मुर्वतः पुना इन, पेतुः कथम् ? बधोऽषः, कान् ? अम्मोदान् मेघान्, कयम्भूतान् ? भानोलान् सामस्त्येन कृष्णान् सजलत्वात्, कि कुर्वतः ? वर्षतः, किम् ? विपं जलमिति ॥४७॥
वर्माण्याप्रपदीनानि दीनानि विभिदुः सदा । दुःसदा भुजगोपाया गोपाया दुर्मुखे वृथा ॥४॥
[शृङ्खलायमकम् ] था। तथा मूसलाधार वृष्टिके लगातार पड़नेसे तड़कती हुई बिजलीका प्रातप और उद्योत भी फैल गये थे ॥४४॥
संग्रामके लिए सर्वथा तैयार शत्रुने प्राकाशमें नागपाशोंको छोड़ दिया था। तथा नागपक्षके इन पापी नागोंने भी रक्तरंजित होकर (सासृज) पापविमुख अर्थात् पुण्यात्मा (अनागाः) नारायणके सैनिकोंको दूर तक फैली पंक्तियोंको सब तरफसे घेर लिया था ॥४५॥
नागपाशोंसे ज्याप्त समरस्थलीमें नामोंको जलकी धारा समझकर नारायणकी सेना सन्तुष्ट हो कर हँसने लगी थी। किन्तु थोड़ी ही देर में इन्हें साहस तथा वेग युक्त सांप समझ कर डर गयी थी ॥४६॥
अग्निको उगलते अत्यन्त काले नागोंके समूह धीरे-धीरे पृथिवीपर पा रहे थे । और वज्र या बिजलोको विपुल राशि युक्त मेघोंके समान नारायणको सेनापर विषको बरसा रहे थे [काले और उमड़ते बादल भी जल (विष) को घनघोर वृष्टि करते हैं] ॥४७॥
5. साहसं यन्त्र नाहन चेदं कार्य मिस्त्रनुएचरितप्रत्ययः आसादित साहसं थेन तं तथोक्तमिति शेषः ----प.,दु०,ज ।
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् वर्माणोति-दिभिदु: भेदितवन्तः, के ? भुजगोपाया: सर्पव्यापाराः, कानि ? वर्माणि सन्नहनानि, फथम्भूतानि ? आप्रपदीनानि माप्रपदं प्राप्नुवन्ति "आप्रपदम्" जि.सू० ३।४।१३४] इत्यनेन सूत्रेण खः । आगुल्फप्राप्तानीत्यर्थः, पुनः दीनान क्षीणानि, कथम् ? सदा सर्वकालम, कथम्भूता भुजगोपायाः ? दुःसदा दुर्गम्याः, युक्तमेतत्, स्यात्, का? गोपाया रक्षा, कथम् ? व्या एवमेव निष्फलेत्यर्थः, दुमुंखे दुर्ज इत्यर्थः ॥४८॥
सर्पवेणी विसर्पन्ती दानधारेव दन्तिनः ।
कटयोराकुला भेजे शृङ्खला पादयोरिव ॥४९॥ सर्पवेणोति-भेजे शोभिता, का ? सर्पवेणी पन्नगश्रेणिः। कि कुर्वन्तो ? विसर्पन्ती विज़म्भमाया, कयोविषये ? दन्तिनो गजस्थ कटयोः कपोलयोः, केव ? दानधारेव, कथाभूता सतो ? वाला व्यग्रा तथा पादयोः विसर्पन्ती सती शृङ्खलेब भेजे शुशुभे ॥४९॥
नागायत्तं सुजित्याभिर्नमोऽभूदिव दारितम् । नागायत्तं सुजित्याभिर्मायाभिर्नोदितं जनः ॥५०॥
[पादयमकम् ] ___ नामेति-नभो गगनं दारितमिव छिन्नमिव अभूत् सनातम्, काभिः ? सुजित्याभिः सुमहबल:, कायम्भूतं सत् ? नागायत्तं सर्पाचोनं तया न नामा यदपि वगायद् गीतवान्, कोऽसौ ? जनो लोकः कम् ? तं प्रतिविष्णुम्, कयम्भूतम् ? आभिर्मायाभिः कोटिल्यः तं शत्रु सुजित्य पराजित्य उदितम् ।।५०॥
दददेऽदोऽदरिद्रोरिरदिरोद्रोऽरुरादरी । दूरादरं दरं दद्रुरार्द्रा दद्रुर्दरोदरी ॥५१॥
[ धारवन्धः ] ददद इति–ददे दत्तवान्, कोऽसौ ? बरिः शत्रुः किम् ? अद एतदरुत्त्रणम्, कथम्भूतः ? अदरिद्रः पुण्यवान्, पुनः कथम्भूतः ? अद्विरोद्रः अद्रिरिव रौद्रः पर्वतवद्भयानकः इत्यर्थः, पुनः पादरी 'आदरवान्, तथा
सदेव कठिनाईके साथ रोको जाने योग्य नामोंको प्रवृत्तिने नारायणके सनिकोंके परों तक लटकते कवचोंको फोड़ दिया था। और जोर्ण-शीर्ण कर दिया था। ठोक ही है क्योंकि दुर्जनके समान साँपका प्रतिरोध भी व्यर्थ है [सदंब दुष्टतापूर्ण भेदिये भी सर्वथा प्रहरियोंसे घिरे किलोंमें घुस जाते हैं। और सुरक्षाको नष्ट करके सब बल नष्ट कर देते हैं ] ॥४॥
__कुटिलता तथा चंचलताके साथ फैलती हुई नागोंको श्रेणियाँ हाथियोंके मस्तकपर मदजलको धाराके समान लगती थीं। तथा तेजोसे पैरोंमें पहुंचकर शृखलाकी शोभाको प्राप्त हुई थीं ॥४६॥
सको श्रेरिणयोंसे व्याप्त प्रकाश, सरलतासे विजयको साधक इनके द्वारा विदारण किया समान हो गया था । इस प्रकारसे उठे हुए उस प्रतिनारायणको क्यों लोगोंने प्रशंसा नहीं की थी ? [अपितु को हो] क्योंकि उसने इन छलोंके द्वारा प्रासानीसे विजय पा ली थी ॥५०॥
(अन्वय-प्रदरिद्रः, अगिरौद्रः, प्रादरी परिः अद् अहः दददे। परं दरं दूरात दछुः । प्रादा दरी दव:)।
१. दरं अस्यास्ति दरो । समन्तात् दरी आदरी, सर्वथामयनानिति व्याख्या प्रकरणानुसङ्गिनी ।
-
-
-
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
३६१ दददे छिन्नवान्, किम् ? दरं भयम् कस्मात् दुरात्, कपम् ? भरमत्यर्थ तथा दददे ररक्ष, कोऽसौ ? दरी भयवान्, किम् ? दरं भयं तथा ददर्भयं गताः, के ? आर्द्राः आर्द्रा भयवशात् स्वेदजलकणाविवाङ्गाः तया च दगंताः, के ? आर्द्राः का? दरो: कन्दरा इति ॥५१॥
प्रौर्णवीदथ सौपर्णः कीर्णपर्णः फणाभृतः ।
कृष्णोदीर्णोऽर्णवम्याग्निस्तरङ्गानिव पूर्णतः ॥५२॥ प्रोर्णवोदिति-यथारप्रीढिदर्शनानातरं सौपर्णो गरुडः फसाभृतः सर्पान् प्रौर्ण वीत् प्रच्छादितवान, कयम्भूतान् फणाभृतः ? घूर्णतः भ्रमतः, कथम्भूतः सौपर्णः ? कोर्णपर्णः प्रसारितपक्षः, पुन: कुष्णोदोर्णः विष्णुप्रेरितः, क इव प्रौर्णवोत् ? 'अग्निरिख, कान् ? अर्णवस्य सन्द्रस्य धूर्णत: तरङ्गान् ॥५२॥
अरुणत्फाणिनगणानुच्चचार समुद्धृतान । सोऽन्त्राणीव रुषा करन्नुच्चचार समृद्धृतान् ॥५३॥
( समपादयमकम् ) अरुणदिति---अरुणत् रुद्धवान्. दोऽसौ ? स सौपर्णः, कान् ? फणिनगणान् फणिनामिमे फाणिनाः ते च ते गणाश्च तान् सर्पसमूहस्तियोच्चचार ऊवं भक्षितवान् कः ? स सौपर्णः, कान् ? फणिनगणान् कथम्भूतान् ? हृतान् गृहीदान, पुनः, उच्चपारसमुद्धृतान् उच्चैर्गमनसमुक्षिप्तान, कया ? रुषा कोपेन, किं पुर्वाण इस ? आकर्षनिव, कानि ? अन्त्राणि, कयम्भूतः सौपर्णः ? समुसहर्षः ॥५३॥
गरो गिरिगुरुगौरैररागैरुरगैररम् । मुमुचेऽमी चम्सुच्चाममाचाममुचोऽमुचन ॥५४॥
(चतुरक्षरबन्धः) गर इति--रगैः सः गरो गरलं मुपचे मुक्तः, कथम्भूतो गरः ? गिरिगुरुः पर्वतगरिष्ठः, कथम्भूतैः उरगैः ? गौरः शुभ्रः, पुनः, अरागः दुष्टैः निस्नेहरित्यर्थः, कयम् ? अरमत्यर्थम्, अमी उरगाः चमू सेनाममुचन् मुक्तवन्तः, कथम्भूताम् ? उच्चाम्, कथम्भूताः सन्तः ? आचाममुचः भक्षणमुक्ताः, कथम् ? अमा युगपत् ।।५४।।
सर्वथा विभव सम्पन्न, पर्वतके समान कठोर और उग्र तथापि नारायण से भीत शत्रुने इस भीषण प्रहारको किया था। दूरसे ही उसने बहुत कुछ भय दिखाया था। तथापि वह भोत ( दरी ) था और भयजन्य पसीने आदिका अनुभव कर रहा था। [अथवा भयसे नम गुफाओं में चला गया था] ॥५१॥
प्रतिनाराधरण द्वारा नागपाश चलाये जाने के बाद नारायणके द्वारा छोड़े गये और पंख फैलाकर उड़ते गरुड़ों (सोपों) ने शत्रुके नागोंको वैसे ही दबा दिया था जिस प्रकार समुद्र में लगी बडवाग्निको लहरातो हुई समुद्र की लहरें दबा देती हैं ॥५२॥
उस गरुड्ने नारायणको सेनाके ऊपर उड़ते (समुद्रघृतान्) नागोंको पंक्तियोंको रोक दिया था तथा उनको ऊपरसे रौंदता हुआ चला था (उच्चचार)। तथा इस प्रकार मरे हुए नागों (हतान्) को प्रांतोंको तरह क्रोधसे खींचकर चबा गया था (उच्चचार) तथा प्रसन्न (समुद) या ॥५३॥
(अन्वय-गोरः, अरागैः, उरगः, गिरिपुरुः, गरः, अरम् मुमुचे। प्राचाममुचः अमी उच्चां च अमा अमुचन् ।)
1. -य कान् ? तरङ्गान् , किं कुर्वतः ? घूर्णतः, कस्याग्निः १ अर्णवस्य समुद्रस्य बड़वानल इत्यर्थः ।
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
आधुनानः करं भानुरापतन्मण्डल स्थितिम् । प्रयोगं गारुडं प्राप्य नागदष्टोऽश्वसीदिव ॥ ५५॥
अधुनातन इति-असत् उल्ललास | फोऽसौ ? भानुः सूर्यः, कि कृत्वा ? पूर्वं गारुडं गरुडकू प्रयोगं प्राप्य किं कुर्वन् ? मण्डलस्थिति परिवेषम् आपतन्नागच्छन्, पुनः करं किरणम् बाधुनानः कम्पयन् क व अश्वसीत् ? नगदष्टः स्व सर्पदष्टपुरुष इव किं कृत्वा ? पूर्वं प्राप्य कम् ? प्रयोगम्, कथम्भूतम् ? गारुडम्, कुर्वन् ? आपतन् काम् ? मण्डलस्थिति मन्त्रचक्रम्, किं कुर्वाणः करं हस्तं आधुनानः ॥५५॥ सदिक्षाममायासीत्पक्षिराजो रुरुत्सया ।
सदिदं क्षाममायासीच्चिन्तयेवाहि मण्डलम् ||५६ ॥
स इति----स पक्षिराजो गरुडो दिक्षां दष्टुमिच्छाम् अयासीत् प्राप्तवान् कया ? रुरुत्सया रोद्धुमिच्छया, कथम् ? अमा युगपत् तथा श्रायासीत् सेवमनुभवति स्म किम् ? इदमहमण्डलं सर्पवृन्दम् कथेय ? चिन्तयेव कथम्भूतं सत् ? श्रामं मत् क्षणं सदिति ॥ ५६ ॥
पायांचक्रिरे नागा नैव नागान्महानृपाः ।
निस्तुदन्नपि चच्वा तान्गरुत्मान्पर्णवायुना ||५७ || वनेऽपूरि रिपूदेव नेयताक्षक्षतायने ।
पूताने ककनेता पृ रिक्षकर्यर्यकारि ॥ ५८ ॥ ( गतप्रत्यागतं द्विकलम् ) ( युग्मम् )
पलाशञ्चक्रिर इति---पलायांचक्रिरे पलायिताः, के ? नागाः सर्पाः नैव पलायांचक्रिरे महानृपाः नरेन्द्राः, तथा अपूरि आयो ? त्य? ते नेव, कव ? धने रणे, केन कृत्वा ? पर्णवाना पक्षवातेन किं कुर्वन् अपि ? निस्तुदन्नपि कान्तान् नागान् भोगिनः कया ? चा, कथम्भूते बने ? नेयताक्षशतायते नेयाः रथास्तानि चक्राणि अक्षाश्चक्रभ्रमणहेतुकाष्ठांनि क्षतानि खण्डितानि अतानि मार्गाः, नेयानां तानि नेयदानि नेयतानामक्षाः नेयताक्षा नेयतार्थः क्षतानि अयनानि मार्गा यत्र तत्तथोक्तं तस्मिन् उक्तं च प्राप्ये गम्ये पदार्थे च रथे नेयः प्रवर्ततेः विस्तारे जनके चक्रे तच्छन्दोऽप्यभि
1
गरुड़ के भक्षणसे बचे अत्यन्त निर्मम श्वेत नागोंके द्वारा विपुल मात्रामें ऐसा गरल वमन किया गया था जो पहाड़ों को भी भारी पड़ता [फोड़ देता ] । गरल वमन करनेके साथ ही साथ (श्रमा) ये नारायणकी श्रेष्ठ सेवाको छोड़कर भाग गये थे ॥ ५४ ॥
साँप द्वारा काटे गये पुरुष समान नागपाशोंसे ढका गया सूर्य गरुड़ प्रयोगको प्राप्त करके फिर चमक उठा था तथा किरणों (कर) को फैलाता हुआ पूर्णवृत्त रूपको प्राप्त हुआ था [सर्प-दष्ट व्यक्ति भी विषापहार मन्त्रका प्रयोग होते ही साँस लेता है तथा हाथ हिलाने लगता है और फिर अपने वर्ग में लौट धाता है ] ॥५५॥
पक्षियोंके राजा गरुड़ने प्रतिनारायण द्वारा छोड़े गये नागोंको रोक देनेकी इच्छा से चारों प्रोर दृष्टिको दौड़ाया था । इसकी दृष्टि उठनेके साथ-साथ ही मड़राता नाग समूह चिन्ता कारण बिलकुल क्षीण हो गया था ॥५६॥
( अन्वय-पूतानेक - कनेता, पूः गरुत्मान् नेयताक्ष-क्षताऽयने रिक्षकरि-श्रर्यकक्षरि वने चच्या निस्तुदन्नपि तान् नागान् वायुना । रिपुदेव अपूरि । महानृपाः नैव पलायाश्चक्रिरे । नागाः पलायाञ्चक्रिरे ) ।
श्रनेकानेक प्राणियों के पावक विष्णु (क) के वाहन गरुड़ने चोंचते बिना काटे या खाये उड़ते-उड़ते ही, अपने पंखोंकी वायुके द्वारा ही शत्रुके द्वारा छोड़े सर्व समूहको उस वनमें
1
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः धोयते।' इति। पुनः कथम्भूने ? रिक्षकर्यर्यकारी रिक्षाश्च ते करियश्च रिकरिणः हिलगमा मन्वहस्तिन इत्यर्थः, अर्य ऐरावणः _ अर्राण सह भो अन्ति गति प्राप्नुवन्ति विचित्रत्यये लुप्ते सति अर्थकक्षरः ऐरावणस्पर्धाबद्धाः इत्यर्थः, रिक्षकरिणः अर्थकक्षरो यत्र तत् रिक्षक र्यकक्षः तत्र, उक्तं न स्वामिनि नीरदे सूर्ये प्रधानेऽपि व वस्तुनि । देवदन्तिनि बै दक्षरर्यशब्दोऽभिधीयत' इति : कचभूतो गरुत्मान् ? पूतानेककता को विष्णुः पूता अनेके येन स पाने कः पवित्रितविश्व जन इत्यर्थः, पूराने कश्चासौ कश्व पूतानेकक: नेता वाहकः पूतानेककस्य नेता पूतानेक नेता, पुन. पः पवते पूः विपि रूपम्, पवमान. प्यमान इत्यथः ।।५७-५८॥
इति मोघं बभूवारिमन्त्र युद्धमयुक्त यत् ।
प्रागनालोस्तिस्यास्मिन् मन्त्रस्यावसरः कुतः ।।५९।। इतौति--बभूव सजातम् । किम् ? तम्मन्त्रयुद्धम्, कशम्भूता ? मोघं रिलम् कथम् ? इत्यप्रकारेण यत् अयुक्त प्रयुक्तवान् कः ? औरः प्रतिविष्णुः, युक्तमेतत्, अस्मन् शत्रो प्राक् पर्वमनालोचितस्य प्रमाणनयनिक्षेपः न विचारितस्य मन्त्रस्य कुतः कस्मादवमरः प्रस्तावः स्यादपि तु नेत्यर्थः ।।५९।।
अविस्मरम्पराघातमित्थं कस्यचिदस्मरत् ।
यदर्थ यतते शूरः तदर्थ विस्मरेतकथम् ॥६॥ अविसरनिति-अस्मरत् कस्यचित् कञ्चितिवन्तितवान् इत्यर्थः । कोऽसो ? अरिः, किं कुर्वन् ? अविस्मरन्, कम् ? पराघात परेषायाधात्तं शत्रुवर्धम् ? कयम् ? इत्यमुक्कप्रकारेण, युक्तमेतत्, यदर्थ यन्निमित्तं यतते यत्नपरो भवत्, क: ? शूरः तदर्थं स घासावर्थश्च तदर्थः तम् कथं विस्मरेत् ॥६०॥
ननूधसि पोऽस्तीति कुण्डोनीनां फलं भवेत ।
समेत्य मुक्तनात्मीयं तत्संभुक्तं मया श्रनन ॥६१।। नन्विति-ननु भवेत् न पुनः स्यात्, किम् ? फलम्, कासाम् ? कुण्डोनीनां गवाम्, कयमिति ? ऊबसि फ्योऽस्तीति अतः कारणात् समेत्य मिलित्वा यद्धननात्मोयं भुक्तं तत्संभुक्तमुच्यते तच्च म्या प्रतिविष्णुना भुक्तमिति ॥६॥
रणे प्राणाः सदातिथ्यं प्रीणितास्तथ्यमर्थिनः । निःशेषास्तस्य ते मेऽस्य भुक्तशेषा: हि कीतयः॥६॥
उड़ा दिया था, जिसमें रथोंके पहियोंकी हालके द्वारा रास्ते खुद गये थे और बड़े-बड़े बालों वाले (रीक्ष) ऐरावत (अर्य) के समान विशाल हाथी धूम रहे थे । इस प्रकार सर्प ही भाग खड़े हुए थे, बड़े-बड़े राजा स्थिर थे ॥५७-५८॥
शवते जो मन्त्रयुद्ध (अग्निबाण, आदिके द्वारा) चलाया था वह उक्त प्रकारसे निष्फल हो गया था । नारायणके साथ चल रहे युद्ध में विविध दृष्टियोंसे विचार किये बिना हो चलाये गये मन्त्रयुद्धको सफलताकी संभावना भी कैसे हो सकती थी ॥६॥
दूसरेफे घोर प्रहारको न भूलकर प्रतिनारापरणके भट इस प्रकारसे कह रहे थे 'बोरके द्वारा जिस प्रयोजनकी सिद्धिका प्रयत्न किया जाता है उसे कैसे भुलाया जाय ?' ॥६॥
अण्डके समान विशाल थन युक्त गायोंका यही फल है कि उनके ऊधस (थन) में दूध होता है । इस प्रकार हमने अपनी जिस सम्पत्तिका सबको बाँटकर उपभोग किया है वही हमारा पवित्र उपभोग है ॥६१॥
१. 'प्रहारम् सुप्ठुतरः ।
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिंसन्धानमहाकाव्यम्
रण इति तस्यास्य मे मम रणे मङ्ग्रामे ते प्राणा मातिथ्यं भजन्ते कथम् ? सदा सर्वदा तथा नि:शेषाः समस्त अर्थिनो याचकाः प्रीणिताः सन्तर्पिताः । कथम् ? तथ्यं परमार्थतः युक्तमेतत् हि यस्मात् भवेयुः, काः ? कोर्तयः कथम्भूताः ? भुक्तशेषः काछेषास्वास्थकाः भुक्तादुद्धृताः कोऽयमर्थः ? भुक्तं द्रव्यशरीरादि यास्यति कर्तयः स्वास्नवो भवन्ति ॥ ६२ ॥
भुज्यतेऽवारपारीणं मयैकेनार्जितं यशः ।
३६४
सोऽयं लोभो गुणो वस्तु सहभोगो न सह्यते ॥ ६३ ॥
भुज्यत इति यदेकेन एकाकिना मया भुज्यते अनुभूयते किं कर्मतापन्नम् ? यशः, कथम्भूतं सत् ? अर्जितम्, पुनः अवारपारोणं पारावारगामि सोऽयं लोभः कार्पण्यं गुणां वास्तु यतः कारणात् सहभोगः शत्रुणा सह मिलित्वा भोगो न सह्यते न सोढुं शक्यते भयति ॥६३॥ अरावणञ्जगद्विश्वं करवै तदविष्णु वा ।
न योक्तव्याजरासन्धं वागतोऽन्या न वर्तते ॥ ६४ ॥
अरावणमिति --- करवै करोमि किम् ? तत् जगत् भुवनम् कथम्भूतम् ? अरावणं रावणहीनं वाऽथवा reष्णु लक्ष्मणवर्जितम् कयम्भूतं जगत् ? विश्वं समस्तम्, इतोऽस्याः प्रतिज्ञायाः न वर्ततेऽन्या बागू वाणी, कथं यथा भवति ? असन्धम् अप्रतिज्ञम् कथम्भूता सती वाणी ? न योक्तव्या व्येव् संवरणे व्यानं व्यम् " आत: कः " [ जै० सू० २२३ ] इत्यनेन सूत्रेण कः, संदरणमित्यर्थः नयेदोक्तं व्यं यथा सा तथोक्ता नीतिप्रतिपादितसंवरेणेत्यर्थः पुनः कथम्भूता ? अजरा नूतनेति ।
अधुना भारतीयः -- तत्तस्मात् कारणात् करने, किम् ? जगत् कथम्भूतम् ? अविष्णु नारायण होन वायवा अजरासन्धम्, कि कुर्वन् ? अणन् गर्जन् वा ? अरी कथम्भूतं जगत् ? विश्यं निखिलम् इतः प्रतिज्ञाया अन्या वाग् न वर्तते न च योक्तव्या न योजनीयेति ||६४ ||
इति चक्रस्य तत्कालमध्यगादभियोगतः ।
अकालचक्रं लोकोऽयमध्यगाभियो गतः । ६५||
इसीतितत्तस्मात् कारणात् अध्यगात् स्मृतवान् कोऽसो ? प्रतिविष्णुः, कम् ? कालमवसरम्, याचकोंकी समस्त इच्छात्रोंको प्रेमपूर्वक पूर्ण करनेवाले मेरे प्रारण समाप्त होकर, निश्चित हो स्वर्ग प्रातिथ्यको प्राप्त करेंगे। किन्तु तब भी भोगों से बची हुई मेरी कोति यहाँ स्थायी होगी तथा उसका कभी अन्त नहीं आयेगा ॥ ६२ ॥
सु केलेके द्वारा ऐसे विशाल यशका उपभोग किया जा रहा है जिसका श्रोर-छोर ही नहीं है । यह भले ही लोभ हो या गुण हो किन्तु दूसरेके साथ यशका सहभोग सह्य नहीं है ॥६३॥
नायक और प्रतिनायक क्रमशः यही करते थे कि समस्त संसार बिना रावरणका अथवा बिना रामका करता हूँ। इसके सिवा दूसरी प्रतिज्ञा ( सन्ध ) ही नहीं है और न नीतिशास्त्र के व्याख्यानकी घोटमें ( नयोक्तव्या ) कोई नयी ( अजरा ) व्याख्या करके ही इस शपथको तोड़ा जा सकता है।
श्रीकृष्ण और जरासन्ध भी शत्रुपर ( श्ररौ ) गर्जते हुए ( श्रपन) निखिल विश्वको बिना जरासन्ध या बिना कृष्णका करनेके लिए सन्नद्ध थे । तथा इस प्रतिज्ञाके शब्दों या अर्थ में परिवर्तनके विरुद्ध थे ॥ ६४ ॥
इस प्रकार से बड़ा प्रयत्न करनेपर प्रतिनायकको उस समय चक्रके प्रयोग के अवसर -
१. -षाः भुक्तशेषाः तास्तथोक्ताः भुक्ता उद्धृताः ज० । २. मवेयुरिति शेषाः – ५० ज० ।
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
३६५ कस्य ? चक्रस्य । कस्मात् ? अभियोगत: उधमात्, कथम् । इत्युक्तप्रकारपेक्षया तथा अध्यगात् ज्ञातवान् कोऽसो ? अयं लोकः किम् ? अकालचक्रं कथम्भूतः सन् ? गतो नियतः, कस्याः सकाशात् ? अभियः अभयादिति ॥६५॥
तथायुधिष्ठिरन्तारं कोा बलमधिष्ठितम् ।
चिन्तागृहप्रवेशैकप्रारम्भो राममाविशत् ॥६६॥ नथेति--तथा प्राविशत् प्रशिध्वान्, कोऽसौ ? निन्तागृहप्रवेश प्रारम्भः चिन्तैत्र गृहं चिन्तागृह चिन्तागृहस्य प्रवेशश्चिन्तागृहप्रवेश: चिन्तागृहप्रवेशस्य एकः प्रारम्मो यस्य सः तमोक्तः, कम् ? रामं राघवम्, कथम्भूतम् ? रनारं क्रोडन्तम्, कया सह ? कोा , पुनः अधिष्ठितम् कम् ? बलं सैन्यम्, कयम्भूतम् ? आयुधिष्टि प्रकृष्टानि आयुधानि आधुधिष्ठानि, “तमेष्ठावति शायने" [जै. गू० ४।१।११४ ] इत्यनेन सूत्रेणेष्ठप्रत्ययः आयुधिष्ठानि अस्य सन्न वायुधिष्ठि "ठेनापतः" [जै. सू० ४.१।४१ ] इत्यनेन सूत्रेण इन् अतिनिशितास्त्रयुक्तमित्यर्थः ।
___ अथ भारतीयः-रामं तय आविशत्, कम् ? युधिष्ठिरम् कथम्भूतम् ? बलम् बलभद्रं अधिष्ठितम्, पुनः, कोया वारम् उच्चम्, शेषमशेष प्राग्वत् ।। ६६॥
असुग्रीवाभियोगामिनाशं नारि पौरुषम् ।
विदधेनाकुलं सैन्यमनाशं न रिपौ रुषम् ॥६७॥ (समपादयमकम्) अमुग्रो वेति--न विदधे न कृतवत्, कि कर्तृ ? सैन्यम्, किं कर्म ? पौरुषम्, कयम्भूतं सत् ? आकुलं व्यग्नम् तथा न विदधे, कि कतृ? सैन्यम्, काम् ? रुषम्, कब ? नरि, कथम्भूते ? रिपो शो कथम्भूतं पौरुषम् ? अनाशम् अनश्वरम्, कथम्भूतं सैन्यम् ? अनाशं न विद्यते आशा यस्य तत् अवाञ्छम् अभिलाषं कलत्रपुत्र दो अलोभितया स्वस्थम्, पुनः, असुग्रोवाभियोगातं सुग्रोवस्याभियोगः सुग्रोवाभियोगः न सुग्रीवाभियोगोऽपुग्रोवाभियोगः असुग्रोवामियोगेन ऋतम् असुग्रीवाभियोगार्तम् असुग्रोवोद्यमादितम् इति ।
भारतीयः पक्ष:- विदधे न चकार किं कर्तृ? नकुलस्येदं नाकुलम्, कि कर्म ? पौरुषम्, कयम्भूतम् ? अनाणम् अनश्वरम्, स्व ? नरि, कथम्भूते ? रिपो, तथा न विदधे, कि कर्तृ ? नाकुलं सैन्य काम् | रुषम्, कथम्भूतं सत् ? अनाशमवाञ्छम्, पुनः कयम्भूतम् ? असुनोवाभियोगात ग्रीवायामभियोगो येषां ते प्रीवाथियोगा: असवत्र ते ग्रीवाभियोगाश्च असुग्रीवाभियोगास्तैः ऋतम् असुग्रीवाभियोगात कण्ठगतप्राणादितमित्यर्थः ॥६७॥ की स्मृति पायी थी। किन्तु निखिल विश्व अभयको प्राप्त करके यम (काल) के चक्रके प्रहारकी समाप्तिको जान सका था ॥६५॥
और निर्मल कोतिके साथ खेलते ( रन्तारम् ) तथा तीक्ष्ण शस्त्रोंसे सज्जित (प्रायुधिष्ठि) सेनाके स्वामी रामका चिन्ता रूपी गृहमें प्रवेशका प्रारम्भ हो गया था [ सत्य के कारण सबसे उन्नत ( तारं ). बलरामके साहाय्ययुक्त तथा प्रकृत्या मनोहर युधिष्ठिरका भी चिन्ता-गृहमें प्रवेशका मुहूर्त प्रारम्भ हो गया था ] ॥६६॥
__ श्रीरामने सुप्रीवको सतत कर्मठताके कारण निःशंक और चिरस्थायी पुरुषार्यको शत्रुफे विरुद्ध किया था। तथा घर-द्वारको चिन्तासे मुक्त सेनाको निराकुल कर दिया था। क्या शत्रुपर क्रोध नहीं किया था ? ।
श्रीकृष्णने शत्रुके विरुद्ध नकुलका ऐसा पराक्रम कराया था जिससे उसको सेनाको विजयको प्राशा ही समाप्त हो गयो थी। शत्रुपर नकुलको क्रोध अनश्वर था तथा उसके प्राण प्रोवामें आ गये थे ( असु-ग्रीवा-अभियोगात ) ॥ ६७ ॥
१. दन्-१० । २. सैन्यश्चेति सुष्टुतरः । ५. आतं--दः ।
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् योऽपि ना हनुमानाजेर्जुष्टो मेरिरवो गतिः । नोऽरुजे तीर्थनीत्याथोऽसौ सहायकमस्तुत ॥६॥
(गोमूत्रिकागर्भश्लोकः) य इति-अब उ अहो अस्तुन प्रायितवान्, कः ? असावेष हनुमान, किम् ? सहायक मित्रसमूहं योऽपि आसोत् क: ? ना पुरुषः हनुमान् कथम्भूनः ? जुधः प्रोतः, कस्पा: ? आजेः सङ्ग्रामस्य कथम्भूतः ? भेरिरवः गभीररवः पुनः पुनरपि कथम्भूतः ? मतिः, कल्य ? रुजे सभङ्गाय, केषाम् ? म: अस्माकं भङ्गमदेतुं न ददात्यस्माकमित्य, कया कृत्वा ? तीर्थ नीत्या १ञ्चाङ्गमन्त्रेणेति ॥६॥
गोमुत्रिकागर्भश्लोकन भारतीय पक्षोऽप्यभित्री ते अस्य श्लोकस्य धतुरोऽपि पादान अधीको लिखित्वा पश्य गोमुत्रिकारूपगर्भः इलोकः समुत्पद्यते स यथा
011
तो
थं
त्या
हा
योऽर्जुनोऽसौ स रुष्टोऽपि नाभेजे हायतीरिह । नुरथेकमनीवोमा नागत्यास्तु तथोतिजे ॥६९॥
(अन्वय-प्राजेर्जुष्टः, भेरिरवः, तीर्थनोल्या नः अरुजे गतिः यः ना हनुमान, अय असौ अपि सहायकम् प्रस्तुत उ)
युद्धमें तल्लीन, भेरियों के समान गरजता तथा पंचांग मन्त्रणाके द्वारा हमारी विपत्तियोंका परिहारक जो यह हनूमान् नामका महापुरुष है उसने भी अपने सहायकोंकी प्रशंसा की थी [ भारत पक्षमें शिखरयुक्त अर्थात् 'पर्वतोंके स्वामी भी हनूमान्को जगह हो सकेगा ] यही आश्चर्य है ॥ ६८॥
(अन्यय-असौ रुष्टोऽपि यः अर्जुनः स इह प्रायतीः न भेजे ? हा । तथा ऊतिजे अगत्या नु: उमा अर्थकमनीव नास्तु । )
तलवारके प्रयोगसे दूर को धनुषधारी अर्जुन था क्या उसने इस युद्ध में उज्ज्वल भविष्यको नीव नहीं डाली थी ? अपितु अवश्य डाली थी। इस प्रकार के रक्षात्मक युद्ध में थोड़े अनौचिल्यके कारण पुरुषको कीति क्या कमनीय उद्देश्यके लिए नहीं होती है ? अपितु होती ही है। यो पिना हनु
माना जे र्जुशे मेरि र वो पति
नो र जे तीर्थ नी त्या यो ___सौ स
हा य क म
स्तुत
१. -त: अगति:--दि. ज. । २. जे भङ्गाय दि० ! --जे भयाय दि.।
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६७
अष्टावशः सर्गः
य इति यः सोऽर्जुनः लोकप्रसिद्धः, हा कष्टं ना भेजे नाश्रितवान् ? का ? मायोरुत्तरफलानि, कस्मिन् ? इह रणे, व सति ? असी खड़गे सति कथम्भूतोऽपि ? रुष्टोऽपि तथा नास्तु न भवतु, का ? उमा कोतिः कस्य ? नुः पुरुषस्य अगत्या अनोत्या वव सति ? इह रणे, कथम्भूते ? ऊतिजे रक्षाजाते, इब शब्दोऽत्र यथार्थत्राची यथा मा कांतिः जायते कथम्भूता कोत्तिः ? अर्थकमनो अर्थात् कंपनी द्रव्यमनोहरा ॥ ६९॥ हस्तच्युतास्माकम्पं मीलिताक्षं बलं जलम् ।
वाताहतमिवोत्सृज्य न स्म वेद क्रियान्तरम् ॥ ७० ॥
हस्तेति न वेद रूम न जानाति स्म न वेदितवदित्यर्थः क्रि कर्तृ' ? बलं सैन्यम्, कि कर्म ? क्रियान्तरम्, किं कृत्वा ? पूर्वमुत्सृज्य परित्यज्य कम् ? आकम्पम् कथम्भूतं सत् ? हस्तव्युदस्तास्त्रं करगलितfs शस्त्रम्, पुनः कथम्भूतम् ? मोलिताक्षं सङ्कुचितलोचनम् किमिव न स्म वेद क्रियान्तरम् ? जलमिव कृत्वा ? पूर्वमुत्सृज्य ऋम् ? याकम्पम् कथम्भूतं सत् ? वातामिति ॥ ७० ॥
दरतेशविभीमोऽस्मिन्निति वेपथुमीयुषि ।
त्रस्तं युद्धे परं सैन्यं विजगाहे विभीषणः ||७१ ||
रक्ष इति -- विजगाहे विलोडितवान् कोऽसौ ? विभीषणो रावणानुजः किम् ? सैन्यम्, कथम्भूतम् ? स्तम् ? अस्मिन् युद्धे कथम्भूते वेपथुं कम्पं ईयुषि गतवति कथम् ? इत्युक्तप्रकारापेक्षया, कथम्भूतः ? दूरक्षेशविभीमः दुःखेन रक्ष्यते दूरक्षः धर्तुमशक्या इत्यर्थः दूरक्षश्चासावीशश्च दूरक्षेशः दूरक्षेशेन विभीमः दूरक्षेशविभीमः दुर्धररावणभयानक इत्यर्थः कथम्भूतं तत्सैन्यम् ? परमुत्कृष्टमिति ।
भारतीय:--- विजमाहे कोसो ? भोमः किम् ? परमन्यत् सैन्यम् कथम्भूतं सत् ? त्रस्तम् क्व ? अस्मिन् युद्धे, कथंभूते ? वेपथुम् ईथुषि कथम् ? इत्युक्तप्रकारापेक्षमा पुनः कथम्भूते ? सूरक्षे दुष्टरक्षे, कथम्भूतं सैन्यम् ? शत्रि शवान्यस्य सन्ति शत्रि मृतकयुक्तं कथम्भूतो भोमः ? विभोषणो रौद्रः ॥ ७१ ॥ अजित्वान्यं श्रिया विष्णोर रिरंसोरसी सरत् ।
संमुखं चक्रमुद्योतैररिरंसोरसीसरत् ||७२ || ( समपादयमकम् )
अजित्वेति-- अलीसरत् प्रेरितवान् कांऽसो अरिः प्रतिविष्णुः किम् ? चक्रम्, किं कृत्वा ? पूर्वमजित्वा अनभिभूय, कम् ? अन्यं विष्णुम् किं कुर्वत् ? सरत् गच्छत् के ? अंतोग्नी स्तम्वासी, कथं यथा भवति ?
सेनाने कपिनेके सिवाय और दूसरीको उस समय नहीं जाना था । उसके हाथोंसे शस्त्र गिर गये थे, आँखें बन्द कर ली थीं तथा दह हवासे बरसाये गये पानी के समान वायुरोगसे पीड़ित होकर अचेतन ( जड़म् ) हो गयी थी ॥ ७० ॥
उक्त प्रकारसे घोर कम्पको करानेवाले इस दारुख युद्धमें दुष्ट राक्षसराज रावण से सर्वथा डरे हुए विभीषखने डरते-डरते दूसरे (रामकी) सेना में प्रवेश किया था । [ ( अन्वय-- दूरक्षे, शवि वेपथुमीयुषि अस्मिन् युद्ध विभीषरणः भीमः त्रस्तं परं सैन्यं विजगाहे । ) बड़ी कठिनाई से श्रात्म-रक्षा योग्य, शवोंसे पटे हुए, श्रतएव सर्वथा कँपा देनेवाले इस महाभारतमें अत्यन्त भयंकर भीम पाण्डवने डरी हुई शत्रुकी सेना पर आक्रमण कर दिया था ] ॥ ७१ ॥
( श्रश्वय - श्रन्यं श्रजित्वा श्रंसोरसि उद्यतैः संमुखं सरत् श्ररिः श्रिया श्ररिरंसो विष्णोः चक्रम् प्रसोसरत् । }
शत्रुपर विजय पाये बिना हो कन्थों और छातोको फुलाकर विष्णु के सामनेसे १. दु: दुष्टात् रावणात् विशेषेण मीति गतः इति सुष्टुतरः ।
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
द्विसन्धानमहाकाव्यम् संमुखम्, कैः ? उद्योतः प्रकाशः, कस्यां सोरसो ? विष्णोः, कथम्भूतस्य ? अरिरंसोः अक्रोटितुमिच्छोः, कया सह ? प्रिया लदम्येति ॥७२॥
स प्रभाविक्रमं भूमेः कामुको नमयन् परान् । वामोऽथ चक्र वक्रोऽरिः प्रमुमोच न विक्रमम् ।।७३।।
( गूढचतुर्थपादः ) स इति-- अथ चक्रग्रहणानन्तरं स अरिः प्रतिविष्णुः चक्रं प्रमुमोच प्रयुक्तवान्, कथम्भूतम् ? प्रगविक्रम प्रभजनशीलवृत्ति, कि कुर्वन् प्रमुमोच ? नमयन् नम्रीहुन्, कान् ? परान् स्तब्धवृत्तान् शत्रन्, कथम्भूतोऽरिः ? भूमेः कामुकः कामो, पुनः वामः प्रतिकूलः, पुनः वक्र: कुटिलः, स आर: विक्रम पराक्रमं न प्रमुमोच ॥७३॥
सोरुपैः सुसंसने सीरिसीरासिरासरत् ।।
सा ररास रसा सारा सुराः सस्रसिरेऽसुराः ॥७४॥ ( अक्षरबन्यः ) सोरिति-सुसंसने संकुचितम्, के: ? चनः किरणैः, कस्य ? सस्रः सूर्यस्य तथा आसरत् विजम्भते स्म, कोऽसो ? सोरिसोरासिः सीरो हलं एव असिः खड्गो यस्य सः सीरासिः स चासो सोरो हलबसे बलभद्रः तथा ररास ध्वनितवतो काऽसौ ? सा रसा पृथ्वो, कथम्भूता ? सारा सारभूता तथा सस्रंसिरे पतिताः, के ? सुराः देवाः तया सासरे, * ! असुराः दानवाः ॥७४॥
अरथाश्वं हरियुद्धमध्यवासादसिन्धुरम् ।
वीच्यास्त्रं विदधत्सैन्यमध्यवासादसिंधुरम् ।।७५।। ( समाययमकम् ) अरथेति-अध्यत्रासात् गृहीतवान्, कोऽसौ ? हरिविष्णुः कम् ? असि खड्गम्, कथम्भूतम् । धुरं प्रधानम्, कि कुर्वन् ? विदधत् कुर्वन्, किम् ? युद्धं रणम्, कस्मात् ? अध्यवासात् निश्चयात्, किं कृत्वा ? . पूर्व वीक्ष्यावलोक्य किम् ? अस्त्रं चक्रम्, किं कुर्वत् ? विदवत् किम् ? सैन्यम्, कथम्भूतम् ? अरयापवं रथवाजिहोनम्, पुनः असिन्धुरं गजरहितम् ।।७५॥ गुजरनेवाले शत्रु ( जरासन्ध और रावण ) ने लक्ष्मीके संग विलाससे विमुख नारायणके चक्रको चलाये जानेको प्रेरणा दी थी॥ ७२ ॥
___ अधिकसे अधिक पृथ्वीको जीतनेके लिए पातुर, विपरीतगामी और कुटिल शत्रु प्रतिनारायणने भी अत्यन्त तीक्ष्ण तथा कार्यकारी चक्रको तेजीके साथ छोड़ दिया था। जिसे देखकर शत्रु स्तब्ध रह गये थे क्योंकि उसने विक्रमको नहीं छोड़ा था ॥ ७३ ।।
( अन्वय--सन: उस्त : सुसंसल, सोरि सोरासिः प्रासरत्, सा सारा रसा ररास, सुराः असुराः सत्र सिरे।)
सूर्यकी तीक्षण किरणे पूरा तौरसे छिप गयी थी, हलधर ( बलराम ) को हलरूपी तलवार चारों ओर वार कर रही थी, रत्नगर्भा समग्न पृथ्वी ही चीत्कार वर उटी थी तथा सुर और असुर दोनोंका ही मान मर्दन हो गया था । ७४ ।।
(अन्वय-हरिः असि वीक्ष्य धुरं अस्त्रं अध्यवासात युद्ध विदधत, सैन्यं अ-रथाश्वं असिन्धुरं विदधत् )
नारायणने दारुण खड्ग-युद्धको देखकर सर्वश्रेष्ठ अस्त्र ( चक्र ) को ही उठा लिया था । तथा युद्धको करते हुए शत्रुसेनाको बिना रथोंको, बिना घोड़ोंको और बिना हाथियोंको कर दिया था ७५॥
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६९
अष्टादशः सर्गः . आज्ञासमापनीयेन विष्णुनैवास्त्रमैच्यत ।
तेनैव वद्यशः केन निःशेष समभुज्यत ७६।। आज्ञेति-ऐक्ष्यतावलोकितम्, किम् ? अस्त्रं चक्रम्, केनैव ? विष्णुनैव. कथम्भूतेन ? आज्ञासमापनीयेन प्रतिज्ञानिर्वाहकेन, युक्तमेतत्, तेनैव विष्णुनैव तद्यशस्तस्य विष्णोः यशस्तद्यशः निःशेषं समस्तं केन समभुज्यत केन संभुक्तम् अपितु न केनापीति ।।७६।।
न तद्भुजतटं गच्छन्न रराज स्यदारुणम् ।
अर्कोऽञ्जनादिपर्वेद नरराजस्य दारुणम् ।।७७।। (सम्पादयमकम् ) नेति-न न रराज अपितु रराजव द्वो नजो प्रकृतमयं गमयत इति श्रुतेः । कि कत ? तत् चक्रम् , कि कुर्वत् ? गच्छत्, किम् ? भुजसलं, कथम्भूतम् ? दारुणम्, कस्य ? नरराजस्य, कयम्भूतम् चक्रम् ? स्यदारुणं स्वदे वेगेऽरुणं लोहितमित्यर्थः, क इव रराज ? अर्क इव, कि कुर्वत् ? गच्छत्, किम् ? जनाद्रि पर्व अनगिरितटमिति ।।७७॥
भियेदमिति नेकोऽपि जज्ञे तत्केशवः परम् ।
यस्यां समगमच्चक्र बोढा भारं हि बोधति ॥७॥ भियेति-इदमितिकृत्वा एकोऽपि जनो न जज्ञे न ज्ञातदात्, किम् ? चक्रम्, कया? भिया भयेन परं केवलं जज्ञे ज्ञातवान्, कोऽसौ ? स केशवः, किम् ? तच्चकम् अगमत् गतम्, किं यत्त ? चकम् ? अंसं स्कन्धम्, कस्य ? यस्य केशवस्य, युक्तमेतत्, कोषति जानाति, कोऽसो ? योढा वाहकः, कम् ? भारम्, कथम् ? हि स्फुटम् ॥७८॥
उत्तमोऽपरतो दुःखमुत्तमोऽभ्युदयोऽन्यतः ।
आसीदतिक्रम तस्मिन्नासीदति रवाविव ॥७९॥ (अद्धपादादियमकम्) उत्तम इति-आसीत्, किम् ? दुःखम्, कथम्भूतम् ? उत्तमः उद्गतान्धकारम्, कथम् ? अपरतः पृष्टतः तथा आसोत कोऽसौ ? अभ्युदयः, कथम्भूतः ? उत्तमः उत्कृष्टः अन्यतोऽग्रतः, क्व सति ? तस्मिन् चक्रे, किं कुर्वति सति ? अतिक्रमम् आसीदति आगच्छति, कस्मिन्निव ? रवाविव सूर्य इवेति ॥७९॥
अपनी प्रतिज्ञाके सफल निर्वाहका उस नारायणने ही इस अस्त्र (चक्र ) के चमत्कारको जाना था। उनके सिवा इस अस्त्रके सम्पूर्ण यशका दूसरा औन उपभोग कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं कर सकता है ।। ७६ ॥
( अन्वय-नरराजस्य दारुणं भुजतट, अञ्जनाद्रि पर्व अर्क इय गच्छन् स्यदारुणं तद(अस्त्रं) न न रराज ?)
नरलोकके श्रेष्ठ नारायण झोषण भुजामें, भाये उस प्रत्यन्त वेगशाली तथा अग्निज्वालाके समान लाल चक्रको अद्भुत शोभा नहीं नहीं हुई थी ? अपितु वह अंजनगिरिके तटपर पहुँचे सूर्यके समान देदीप्यमान हुआ था ॥ ७७ ॥
___ यह चक्र है, और कितना भयानर है यह एक भी व्यक्तिको पता न लगा था। केवल नारायण हो-ने इसके महत्त्वको समझा था, क्योंकि वह उसके कन्धेपर था । उचित हो है वाहक ही वस्तुके भारको जानता है ॥ ७॥
सूर्यके समान अकस्मात् उड़ते हुए चक्कके चलते रहने पर उसके पीछे सर्वत्र फैले अन्धकारके समान दुःख छा जाता था। और उसके प्रागे-मागे सर्वोत्तम प्रकाश फैल जाता था ।। ७६॥
४७
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् चक्र दुःसहमालोक्य चक्रन्दुः सहसारयः। (अर्द्धपादादियमकः ) मृतोत्पन्नेव साश्वा साश्वासा सा वैष्णवी चमूः ॥८॥
( शृङ्खलायमकः) अरयः दुःसहं दुद्धंग चक्रमालोक्य सहसा शीनं चक्रन्दुः क्रन्दिप्तवन्तः । तथा सा वैष्णवी पमः मृतोत्पन्नेवासोत् पूर्व मृता पश्चाल्लब्ध जन्मेव कथम्भूता ? साश्वा सहया, पुनः साश्वासा' आश्वासवती ॥८०॥
हस्तच्युते गते कापि कीदृशोऽप्यनुशेरते ॥
साम्राज्यमूलेऽतीतेऽपि तादवस्थ्यं ययौ रिपुः ॥८॥ हस्तच्युत इति-कोदृशोऽपि पुरुषाः अनुशेरते पश्चात्तापं कुर्वन्ति, स्व सति ? वस्तुनि हस्तच्युते करपतिते पुन: क्व ? ववापि गते असो रिपुः शत्रुः तावस्थ्यं ययौ गतवान्, क्व सति ? साम्राज्यमूले हस्त्यश्वरथपैदासिहेतुभूते चक्रेऽतोतंऽपि लोचनगोचरमतिकान्तेऽपि ॥१॥
कृपया नापि मोहेन हस्तप्राप्तं हि दुस्त्यजम् ॥
किन्तु शत्रत्तरप्रौढि शुश्रषुः स व्यलम्बत ॥८२॥ ___ कृपयति-हि यस्मात् कारणात् न स्यात् किम् ? वस्तु, कथम्भूतम् ? दुस्त्य जम्, कया ? कृपया तथा न स्याहस्तु दुस्त्यजम्, केनापि ? मोहेनापि, कथम्भूतं सत् ? हस्तप्राप्तं करगतं किन्तु यलम्बत कालयापनां चकार, कः ? यि, कथम्भूरा हन् : सुम्यूः रगतुमिच्छु:, काम् ? शत्तरप्रोदि शत्रोरुत्तरकालोनशामर्थ्यम् द्वयोः श्लोकयोदृष्टान्तालङ्कारः ।।८२॥
अत्यन्तकोऽपकारेण निरास्थन्न तदानवम् । अत्यन्तकोपकारेण निरास्थं न तदानवम् ।।८३॥
(मुरजबन्धः गोमूत्रिकासमृद्गकम् ) अत्यन्तक इति-न निरास्यत् न निक्षिप्तवान्, कोऽसो ? अत्यन्तको विष्णु:, किम् ? तदानवम् अनोः इदम् मानवं रथस्येदं चक्रमित्यर्थः, केन कृत्वा ? अपकारेण, कथम्भूतेन ? अत्यन्तकोपकारेण अतिशयेन कोपकारिणा, कथम्भूतं चक्रम् ? निरास्थं चञ्चलम्, पुनः नतदानवं नता दानवा येन तत् ॥८३।। -- ---
आते हए चक्रको देख शत्रुसमुह एकाएक चीत्कार कर उठा था क्योंकि उसकी मार बड़ी कठिनाईसे झेली जा सकती थी। किन्तु अश्ववाहिनी प्रधान नारायणकी सेना मरके जी उठी थी तथा उसे अपनी विजयका भरोसा हो गया था ॥ ५० ॥
कैसा भी साहसी पुरुष हो किन्तु कोई वस्तु हाथसे गिर जाय और कहीं चली जाय तो पश्चात्ताप करता है। किन्तु साम्राज्यके मूलाधार हस्ति-प्रश्व-पदाति-रथके चक्र द्वारा समाप्त कर देनेपर भी शत्रु ज्योंका त्यों रह गया था अर्थात् जड़ हो गया था ॥२१॥
जिस पदार्थका छोड़ना असम्भव है यदि वह हाथको पहुँचमें पा जाय तो दयाको प्रार्थनाके कारण या मोहके उदयसे भी विलम्ब नहीं किया जाता है, तथापि नारायरपने विलम्ब किया था क्योंकि वे शत्रु के उत्तर देनेको कुशलता या डोंगको सुनना चाहते थे ॥८२॥
(अन्वय--अत्यन्तकः निरास्थं, नत-दानवं तत् प्रानव अत्यन्तकोपकारेण अपकारेण न निरास्थत् । )
परम पुरुष नारायणने न रुकनेवाले और दानवोंको भी पराजित करनेमें समर्थ उस • सा सहाइतेन वर्तमानाः प• ज०। २. -तिलहाणेऽतीतेऽपि प० ज० ।
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
व्यापिपदव्यापिपद्मोऽसौ रूचोरू चोभपीवरौ । तौ भुजौ भूभुजौ पूर्वं वाचो वाचोद्धुरो विभुः ||८६४||
३७१
( गतानुगतिक बन्धः )
व्यापिपदिति-- पूर्वं प्रथमम् उवाच उक्तवान् कोऽसो ? असावेष विभुर्लक्ष्मणः कथम्भूतः ? उद्धुरः चत्कटः, कया ? वाचा वाण्या पश्चात् व्यापिपत् व्यापारितवान् कः ? सलक्ष्मणः को? तो. भुजी बाहू, कथम्भूतो ? भूभुजी भुवं भुज्जाते इत्येवंशोलौ तथा व्यापिपत् कः ? सः को ? रुक्षोरु कर्कशोरू, कथम्भूत
पीवरी क्षोभपुष्टी, कथम्भूतः सन् ? व्यापिवद्मः व्यापी पद्मो यस्य स तयोक्तः प्रतिषेत्रको राम्रो यस्येत्यर्थः ।
भारतीय:- पूर्वमुवाच कः असावेष विभुर्नारायणः कथम्भूतः ? उद्धुरः, कथा ? वाचा तथा पश्चात् व्यापिपत् कः ? सः, को? तो भुनो, कथम्भूतौ भूभुजी तथा रूझोरू, कथम्भूतो ? क्षोभपोवरी, कथम्भूतः सन् ? व्यापिपद्मः व्यापिनी पद्मा यस्य सः कामव्यापारचतुरा लक्ष्मीर्यस्येति ॥ ८४ ॥
भोगः स एव सा संपन्नम हानिश्च यस्यते ।
सीतापणेऽपवादो मे न महानिश्वयस्य ते ||८||
( समपादयमकम् )
भोग इति - हे दशानन ! स एव भोगों दशाङ्गलक्षण चक्रिणोऽर्द्धचक्रिणोऽपि तस्य सम्भवात् उक्तं च "सैन्यनाट्यनिधि रत्न भोजनान्यासनं शयनभाजने परम् । वाहनेन सममित्यभीप्सितं भोगमा स दशाङ्गमीस्वरः ॥” सैव संपल्लक्ष्मी:, तथा न स्यात्, कोसोवादी सति ? सीतार्पण जानकीदाने, कस्में ? मे मह्यम्, किं कुर्वाणाय ? यस्यते यत्नं कुर्वते वाघवा न स्यात् का? हानिश्च कस्य ? ते तच कथम्भूतस्य ? महानिश्त्रयस्य गृहीतशेढ प्रतिज्ञस्व अतएव मम नमस्कुरु ।
भारतीयः - हे जरासन्ध ! सोकापणे भूमिदान में नारायणायेति । अन्यत्समम् ||८५ ॥
रथ (अनु) के चक्र नहीं छोड़ा था, यद्यपि शत्रुके अपकारीके द्वारा इसे ( नारायणको ) अत्यन्त कुपित हो जाना चाहिए था ॥ ८३ ॥
( श्रन्वय -- उद्धरः व्यापिपद्म, रुक्षोरु: सौ विभुः पूर्वम् उवाच वाचा क्षोभपोवरी तौ भू-भुजौ भुजौ व्यापिपत् 1 )
अत्यन्त उद्धत तथापि राम (पद्म) के वशीभूत और कर्कश जंघाधारी इस स्वामी ( लक्ष्मरण ) ने पहले शत्रुको शब्दोंसे हो ललकारा था और वचनोंके साथ हो क्षोभके कारण तनी और पृथ्वीके भोग में समर्थ अपनी दोनों भुजानोंका व्यापार भी किया था [ संसारके उद्धारक लक्ष्मीसे सर्वदा अनुगत भगवान् ( कृष्ण ) ने पहले वचन कहे थे और बोलने के साथ-साथ कर्कश जंघाधारी क्रोधमें सबसे प्रबल, उन दोनों शत्रु भूपतियोंने भुजाओंको चला दिया था ] ॥ ८४ ॥
हे रावण ! जिसके दशों प्रकारके भोग तदवस्थ हैं तथा विभवपर माँ नहीं आती उस तुम्हें नमन करनेमें क्या हानि है ? यदि तुम सोतालोको मुझे वापस कर दोगे तो तुम्हारी कोई शकीति नहीं होगी क्योंकि तुम दृढ़ तथा उदार निश्चय करनेवाले हो । [ हे जरासन्ध तुम्हारे समस्त भोग तथा लक्ष्मी कृष्णके सामने न होने पर भी रंचमात्र नहीं घटेंगे । तथा भूमि ( सोता ) सुभे वापस कर देनेसे तुम महान् निश्चय करनेवाले हो कहलाओगे ॥ ८५ ॥
१ स मामिति शेषः । प० ज० ।
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
प्रत्याहतं सुराजानन्नामकीर्तिरिति स्म सः । प्रत्याह तं सुरा जानन्कथाक्षेपेण शात्रवः || ८६ ॥
(विषमपादयमकम् )
प्रत्याहेति - - प्रत्याह स्म प्रत्युत्तरं गोचरीकृतवान्, कोऽसौ ? स शत्रुरिति विगृह्य स्वार्थे णः शात्रवः प्रतिविष्णुः, कम् ? तं विष्णुम् किं कुर्वन् ? नेन् श्वन् केन ? कयाक्षेपेण कथम्भूतः सन् ? सुराजा शोभना राजा च राजा नीतिज्ञ इत्यर्थः कथम्भूतम् ? प्रत्याहृतम्, किं कुर्धन् ? जानन् कथमिति ? नमकीतिरिति त्रैलोक्यकण्टककीर्तनमिति कन्भूतः सन् ? सुराः कोमलध्वनिरिति ।
भारतीय:- नामको तिरिति जरासन्धको निमिति शेषं सुगमम् ॥ ८६ ॥
रजश्छलेन दुर्दानं सुदानाः कृपयासवः । दृष्टोऽपन्थास्त्वया मार्ग दावाग्निर्नापि लङ्घते ||७||
रज इति — रजोऽविवेकलक्षणं दुर्दानं स्यात्, केन ? छलेन छद्मना तथा असवः प्राणाः सुदामाः स्युः, कद हा अतः कागदकाम कोssो ? वयन्याः, कम् ? मार्गम्, कथम्भूतः सन् ? दृष्टः त्वया तथा दावाग्निरपि न लङ्घत इति ॥८७॥
त्रास विरूपरेखा वा छायाया यदि वा हतिः ।
मानिनः शठ मन्यन्ते तृणायापि न नायकम् ||८||
त्रास इति है श ! न मन्यन्ते के? मानिनः, कम् ? नायक नेवारम्, कस्मै ? तृणायापि यदि चंद्रद्यते त्रास जनं वा अथवा विरूपरेखा रोहत्वं वा बा छायाया लोकव्यवहारस्य हतिः तथा मानिनो मानं ज्ञानमस्ति येषां ते मानिनः ज्ञानिनः परीक्षकाः न मन्यन्ते, कम् ? नायक प्रधानरत्नम्, कस्मै ? तृणाद्यापि यदि विद्यते त्रास भङ्गः वा विरूपरेखा अयोन्दर्य वा छायायाः कान्तिविशेषस्य हतिः ॥८८॥
( अन्य - - नामकीतिः सः शात्रवः सुराः कथाक्षेपेण प्रत्याहतं जानन् तं सुराजानं इति प्रत्याह स्म । )
निन्दनीय ख्यातिका पात्र अथवा अपने विचित्र नामके कारण हो ज्ञात वह शत्रु रावण या जरासन्ध यह जानता था कि वार्तालापकी समाप्ति होते ही वह मृत है फलतः aatraani भांति उसने लागेके वाक्य कहे थे ॥ ८६ ॥
कपट करके यदि कोई धूल भी माँगे तो वह देना दुष्कर है और कृपाके लिए प्राण भी देना सुन्दर हैं । तुम्हारे द्वारा दिखाया गया मार्ग ( नमन ) विपरीत मार्ग है । उसपर उसी तरह नहीं चला जायेगा जैसे दवाग्निमें नहीं चला जाता है ॥ ८७ ॥
घरे दुष्ट, स्वाभिमानो व्यक्ति यदि दबाये जायें, प्रथवा उनके अनुरूप रंचमात्र प्राकृति भंग हो, अथवा उनकी परछाईंका भी पददलन हो तो वे अपने नेताको भो तिनका बराबर नहीं मानते हैं [ रत्न- पारखी लोग नायक मपिमें यदि रंचमात्र दरार हो या शौन्दर्यजनक रेखा हो या चमकमें कमी हो तो उसे घास-फूसके बराबर भी नहीं कूतते हैं ] ॥ ८८ ॥
५. 'सुराजानम्' विग्रहः सुष्टुतरः । २. सुरक्षा अभिभूतः इति सुराः ।
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७३
अष्टादशः सर्गः शिश्रीपतोऽन्यमीयैि पारावारीणमात्मनः ।
यशः संकुचति व्याप्तं किं वा नेनार्जयिष्यते ॥६॥ शिश्रोपत इति--संकुचति संकोचं प्राप्नोति, कि कत्तु ? यशः, कस्य ? शिश्रीषतः सेवितुमिच्छोः पुरुषस्य, कम् ? अन्यमपरं जनं शत्रुमित्यर्थः, कल्यै ? ईसाय वद्धि तुमिच्छाथ, किम् ? यशः, कस्य ? आत्मनः, कथम्भूतम् ? व्याप्तं प्रसृतम्, पुनः कथम्शूलम् ? पासवारोणं पारावारमलामि अत एव वाथवा किमनेन परसेवनेनार्जयिष्यते अपि न किम्पोति ॥९॥
विधुरास्ते पापेतः पराश्रये च ये स्थिताः । विधुरास्ते त्रपापेतः पूष्णो नास्योइये रविः ॥६॥
(विषमपादयमकम् ) विधुरिति- पुरुषाः विधुगाः भीतः ये द पराश्रो स्थिताः, कथम्भूताः सन्तः ? असापेतः अपामपयन्ति विप् पिति कृति सुक् अपापेत इति सिद्ध रूपं निर्ला इत्यर्थः, युक्तमेतत्, आरले तिष्ठति, कोऽसौ ? विघुश्चन्द्रः, यव ? उदये, यास्य ? पूष्णः सूर्यस्य, कथम्भूतः सन् ? पापेतः अज्जात्यतः तथा नास्ते न तिष्ठति, कोऽसौ ? रविः सूर्य: कत्र ? अस्य विधोश्चन्द्रस्योदये ॥१०॥
मा झाप्यस्मि निरस्त्रोऽहं हस्तेनास्त्रं हि मुच्यते ।
ततस्तलप्रहारेण मुञ्चास्त्र क्राथयामि ते ॥६॥ ____ मेति-माज्ञाथि हे विष्णो मा युध्यतां त्वया बल्मि भवामि, कोऽसौ ? अहम्, कयम् ? निरस्त्रोऽस्य. रहितः, हि यस्मात् कारणात् मुच्यते कि कर्मतायन्नम् ? अस्त्रम्, केन ? हस्तेन, ततस्तस्मात् मुव कोऽसो ? त्वम्, किम् ? अस्त्रं चक्र ते तवा तलाहारण करतलघातेन क्राययामि हन्मि ॥२१॥
इत्याकर्ण्य तमुत्साहं साहंकारं सुरावली ।
सुरावलीला साशंसं साशं संप्रशशंस तम् ॥१२॥ इतीति---सुरावली देवश्रेणो सं लोकोत्तरं प्रतिविष्णुं संप्रशशंम प्रशंसितवती, कथम्भूतम् ? साहंकार सगर्वम्, किं कृत्वा ? पूर्व तम् उत्साहं आकर्ण्य श्रुत्वा, कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण, पुनः साशंसं प्रशंसम्, पुनः
दुसरेकी सेवा करनेकी इच्छा करनेवालेका सारे लोकमें व्याप्त तथा प्रासमुद्र गीत यश भी घट जाता है । तब परसेवा या नमनको करके अभ्युदयके लिए प्रयलशील व्यक्तिको क्या मिलेगा ? ॥८॥
वे महाभीर हैं और लिर्लज्ज हैं जो दूसरों के सहारेसे जीवन यापन करते हैं। सूर्यके उदय हो जानेपर शान्ति और त्रिवलिको छोड़फर भी चन्द्रमा ( विधुः ) रहता है (प्रास्ते )। किन्तु प्रतापी सूर्य इस ( चन्द्रमा ) के उदय होनपर कदापि नहीं रुकता है ॥१०॥
मैं निरन ( खाली हाथ ) है ऐसा मत समझो, क्योंकि मैं हाथके द्वारा हो तुम्हारे शस्त्रको बेकार कर दूंगा। अपने चक्रको छोड़िये । मैं करतलके प्रहारसे ही उसे तोड़े देता हूँ॥६१॥
प्रतिनारायणके इस साहसको सुनकर युद्ध देखने पायो तथा सुराके प्रभावसे विनोदलीन देवपंक्तिने स्वाभिमानको न छोड़नेवाले शत्रु का गुणानुवाद करते हुए ( साशंसं ) तथा प्राशाके साथ ( साशं ) इसको प्रशंसा की थी ॥ १२॥
१. निपरिवेपरहित इति यावत् ।
--.-
.-
.
-
.--
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
द्विसन्धानमहाकाव्यम् साशं सवाञ्छम्, कयम्भूता सुरावलो ? सुरावलोला' शोभनो रावो यस्याः सा सुरावा मधुरध्वनि लोला क्रीडा यस्याः सा ९२॥
शौयं ह्रीश्च कुलीनस्य स्वे नुः समागलाञ्छनम् । वस्थितीवोक्तये भेयः स्वेनुः सद्मार्गलाञ्छनम् ॥१३॥
(समपादयमकम्) शौर्यमिति-स्नु नन्ति स्म, काः ? भेः, कथम् ? रामार्गलाञ्छनं मन्दिरार्गलोल्लङ्घनम्, कस्य ? उक्तये उक्तिनिमित्तम्, कवं शौर्य पौरूष, होश्च लज्जा चेति द्वे स्वै आत्मीये स्यातां तथा स्यात् किम् ? वसु द्रव्यम्, कि स्यात् ? सन्मार्गलाञ्छनं संश्वासो मार्गश्न सतां सत्पुरुषाणां वा मार्ग: सन्मार्गस्तस्य लाञ्छनम, कस्य ? कुलीनस्य नुः पुंसः ।।९।।
गाथका माथकावन्धः सजगुः स्थाम सजगुः । राशिराशिश्रवभाग वन्दिना गुणवन्दिनाम् ॥१४॥
(गतागतबन्ध:) गायकेति-गाथकाः मङ्गलपाठकाः गाथकाबन्धैः सत् समोचीनं स्थाम वलं जगुर्गायन्ति स्म तथा वन्दिना नागरिकाणां राशि: समूहः नामाभिधानम् आशिश्नवत् आश्रावितवान्, कथम्भूतानां वन्दिनाम ? गुणवन्दिना गुणस्तबनशीलानां कथम्भूतो राशिः ? सज्जगुः सज्जा गीर्वाणो यस्य स मधुरवचन इत्यर्थः ॥१४॥
देवैविमानशालायामास्थितैमत्तवारणीम् ।
रणरङ्गस्तयोस्तत्र पूर्वरङ्ग इवाभवत् ।।१५।। देवैरिति-तयोः विष्णु प्रतिविण्योः तन्त्र युद्धे रणरङ्गोऽबत संजातः. क इस ? पर्वरङ्ग इन कै ? विमानशालायां मत्तबारणों मत्तालम्बनम् आस्थितैः देवः देवरित्या षष्ठयर्थे तृतीया ॥१५॥
नामोचितेन चक्रान्तं दोष्णवत्योनुचद्धरिः ।। नामोचि तेन च क्रान्तं धैर्य जगति वैरिणा ॥१६॥
(विषयपादयमकम्) नामेति-हरि: विष्णुः आवयं भ्रमयित्वा चक्रान्तं चक्रस्वरूपम् अस्थम् अमुचत् मुक्यान्, केनावर्त्य ? दोषणा बाहना, कथम्भूतेन दोषणा ? नामोचितेन कीर्तनयोग्येन तथा तेन वैरिणा प्रतिविष्णुना जगति क्रान्तं प्रसृतं धैर्य नामोचि न त्यक्तम् ।।९६॥
शिष्टाचार पालन के मुख्य लक्षण शौर्य और लज्जा ही कुलीन पुरुष ( नुः ) के सगे (स्वे) धन ( वसु ) हैं। इसको घोषणा ( उक्तये ) करनेके लिए ही मन्दिरांचलके परिपाच ( अर्गला ) को पार करके दूर तक सुनाई देनेवालो भेरियाँ बज उठी थीं ॥३॥
मंगलचिोंने उत्तमसे उत्तम गुण-गाथाएं बनाकर भटोंकी दृढ़ताका व्याख्यान किया था। तथा शौर्य, श्रीवाय मादि गुणों के पुजारी एवं मधुर तथा लयादि युक्त बागीके धनी बन्दियोंकी श्रेणीने वोरों के नाम लेकर पुणगान किया था ॥ १४॥
युद्ध दर्शनार्थी एवं विमानशालाके जोपर जमे हुए देवोंके लिए नारायण-प्रतिनारायणका युद्ध प्रेम ऐसा लगा था मानो वे किसी अभिनयका 'पूर्वरंग' देख रहे थे॥६५॥
नारायणने 'यथा नाम तथा गुण' भुजाको घुमाकर चक्रका प्रहार कर दिया था। १. सुरया भवलीला विनोदशीलेति ।
२. -त्तम्, कथमितीव, कथमिति कृस्वा प्रकाश्यते शौम । प. द. ० । अस्मिन् श्लोके एकस्मिन् पादे सन्मार्गला छनमिति पाठोऽपेक्षितः व्याख्याकारमतेन ।
ana
nemamrrr-------rrrrrr
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७५
अष्टादशः सर्गः
तेनार्जितात्मशिरसा श्रीः कथं सा बहिः शिरः । इतीोत्सृज्य सोम्याङ्गमाङ्गतोऽग्रहीत् ॥६७॥
तेनेति--तेन वैरिणा आत्मशिरसा निजमस्तकेन श्री अजिता सा श्राः कथं वहिः शिरः शिरसो बहिः इतीव हेतोः यत: कारणात् स विष्णुः अन्याङ्गमुत्सृज्य मुक्त्वा उत्तमाङ्गं मस्तकम् अग्रहोत् जग्राह ॥९७॥ ग्रीवा हते तरतन्त्री वैरराजे समन्ततः । धुनी सधातुस्यन्देव वै रराजे समं ततः ||१८|| (समपादयमकम् ) ग्रीति - ततः शिरच्छेदानन्तरं वरती सबन्दी र कति ? वैरराजे प्रतिfast हते सति कथम् ? समन्ततः सामस्त्येन कथम् ? स्फुटम् केव रराजे ? स घातुनिस्यन्दो वैरिकप्रवणा धूनी नदीव, कथम् ? समं युगपत् ९८
वै
इत्यधानि द्विषन्देवैर्दिव्यघानिषतानकाः ।
जित्वावानि स्थितोऽनवदमोघानि स नारदः ||६|
इतीति - विष्णुना द्विषन् वैरो अधानि हतः कथम् ? इत्युक्तप्रकारापेश्वया देवैः दिवि गगने आनका: पटाः अघानिषत आहताः स लोकप्रसिद्धः नारदः ब्रह्मपुत्रः अनर्त्तीत् नटितवान् कथम्भूतः ? अमोघानि निःफलानि अघानि पापानि जित्था स्थितः ॥९९॥
सत्रा संभ्रमसंपातैः सत्रा भ्रमरैश्चिता ।
ता माल्य मालिकाः पेतुस्तामाल्य इव नाकतः ॥ १०० ॥
1
सठि —ता माल्यमालिकाः पुष्पमालाः नाकतः स्वर्गात् पेतुः पतिताः कथम्भूताः ? सभासं समयं संभ्रमसंपातैः संभ्रमेण संपातो येषां तंः भ्रमरैः चिताः पृष्टाः कथम् ? सभा सार्द्धम् कथम्भूता इव ? तामाल्य व समालसुमनोनिर्मिता इव ।। १०० ।।
किन्तु रावरा या जरासन्ध रूपी शत्रुने सारे संसार में फले हुए अपने दुःसाहसको नहीं हो छोड़ा था ॥ ६६ ॥
अजित किया था इसलिए वह छोड़कर उसने केवल उत्तमाङ्ग
शत्रुने राजलक्ष्मीको अपने शिर ( मस्तिष्क ) शिरसे बाहर कैसे होगी । इस काररणसे ही अन्य अंगों को ( शिर ) को ही श्राक्रान्त किया था ॥ ६७ ॥
arre हुए प्राघात कारण शत्रुका मस्तक कट जानेके बाद सब तरफ बिखरती हुई और रक्त बहाती हुई नसें देखकर ऐसा लगता था कि किसी नदीसे गेरुफा घुला पानी बहाती हुई धाराएं फूट पड़ी हैं ॥ ६८ ॥
५. सम्पम् इति यावत् ।
२. साय यज्ञाय इसे इति सा ।
इस प्रकार से नारायणने शत्रुका वध किया था। और देवताओंने आकाशमें पटह बजाये थे । पोंको जीतकर श्रात्मस्वरूपमें लीन, जोक में विख्यात नारद मुनि भी सफलता के उल्लास में नाच उठे थे ॥ ६६ ॥
तमालके पुष्पोंसे गुंथी हुई के समान वे यशकी मालाबोंकी लड़ियाँ फरफराती हुई कसे गिर रही थीं । अत एव उल्लास और वेगके साथ लपकते हुए और इनके ऊपर मड़रा रहे थे ॥ १०० ॥
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अदृक्षतामुभौ सेन्द्रविशेषेण जगविपन् ।
पौरुषं पुरुषायत्तं मरणं हि विधेर्यशम् ||१०१॥ अक्षेतामिति-हेन्द्रः उभी विष्णुप्रतिविष्णू अदृक्षेतां दृष्टो तयोमध्ये जगद्विषन् प्रतिविष्णुः विशेषेण दृe:, युत्तमेतत् स्यात्, किम् ? पौरुषं पुरुषायत्तं पुरुषप्रयत्नाधीनं मरणं विधेशमघोनं हि स्फुटमिति ॥१०१।।
शुद्धां शुद्धान्तवसतिं संगतः कर्मसङ्गतः ।
मुख्योद्यावो ददे ख्यो वाष्पेण व्यञ्जलं जलम् ||१०२|| शुद्धामिति--ददे दत्तवान्, फोsi : मुरुपोधावः मुख्याना स्वाभाम् उद्यावः राजौसमूहः, किम् ? जलम्, कथम्भूतम् ? यजलं योऽजलयः परिमाण यस्य तत्, केन ? वाष्पेणाश्रुणा, कयम्भूतः ? मुख्यः प्रधानः, पुन: कमरङ्गतः क्रियासम्बन्धात् शुद्धां पवित्रां शुद्धान्तवप्ततिम् अन्त.परमन्दिरनिवास सङ्गतः प्रासः ॥१०२।।
पुरो रिपोरपारोऽपि तत्तत्तापातपोऽतपत् । विवेशेवावशोऽवेशो नृमानं मानिनीमनः ।।१०३॥
(यक्षरपादबन्धः ) __पुर इति–उत्तापातपः संतापात: अतपत् जज्वाल, कस्मात् ? पुरोहितः तत् तस्मात् रिपोः शत्रोः तथा तु पुनः असो उत्तारातपः मानिनोमनः विदेश प्रविष्टवान्, कयम्भूतोऽपि ? क्यारोऽपि पुनः अवश: अपराधीनः, पुनः प्रवेशः अव समस्त्येन गत ईशा यस्य सः निःस्वामिका, कमिव ? नृमानमिव पुरुषाभिमानमिव ॥१३॥
हरिः क्रान्तमतं भूतगरिमान्तगतं वत । चरित्सुं तत्र तष्ट्वा तमरिणान्तरतप्यत ॥१०४॥
( अश्वप्लुतमुरजनन्धादितुरगरन्यादिः) । हरिरिति - बत खेदे अतप्पत स्वयं तप्यते स्म हरिः विष्णुः कथम् ? अन्तः अन्तःकरणे, किं कृत्वा ? तत्र रणे अरिणा चक्रेण तं प्रतिविष्णुं तष्ट्या हत्वा, कथम्भूतम् ? 'वरित्सुं हन्तुमिच्छुम्, पुनः भूतगरिमान्तगतं भूतगरिमावसानगतं भूतव्यापारव्यातिविपर्ययं प्राप्तमित्यर्थः, पुनः क्रान्तमतम् अनुक्तकारिणम् ॥१०४॥
संसारका शत्रु बनकर आये उस प्रतिनारायणका विमर्ष करके स्वर्गके इन्द्रोंने दोनों बातें देख ली थी कि पुरुषार्थ करना मनुष्यके वशको बात है और मृत्यु दैवके प्राधीन
पुण्यकर्मके फलस्वरूप सुरक्षित अन्तःपुरमें अाकर विशिष्ट रानियोंके समूहमें भी प्रधानताको पार्टी और शिष्ट कर्मकाण्डको जाता पटरानियोंने अपने आँसुओंके जलके द्वारा ही मृत पतियोंको तीन अञ्जलियाँ दी थौं ॥ १०२॥
(पुर: रिपोः तत् उत्ताप-आतपः प्रातपत् तु, पारोऽपि अवश: प्रवेश नृमानमिव मानिनीमनः दिवेश।)
पहले लो महान् शत्रु ( नारायण ) के उत्कृष्ट अातंकका वह अपार तेज भभक उठा था किन्तु बादमें विवश तथा नायकहोन मनुष्य के सम्मानके समान यह, मानिनी रानियोंके मनमें प्रवेश कर गया था ॥ १०३ ॥
लौकिक विभवको चरम सीमाको प्राप्त, अपने ही दुराग्रहपर प्रारूढ़ तथा नारायणपर आघात करनेके लिए उद्यत उस शत्रुका चक्रके द्वारा वध करके भी राम या कृष्णको मन ही मन अनुताप हुया था ॥ १०४ ॥
१. विरित्सु ज०।
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
३७७ सत्यतो विभया व्यूहे समुत्पत्या महोरसा । सत्यतो विभया व्यूहे समुत्पत्या महोरसा ॥१०५।।
(समुद्गकगोमूत्रिकामुरजादिवन्धः) सत्यत इति---व्यू हे परिणीता, का ? आ लक्ष्मीः, केन ? पत्या स्वामिना विष्णुनेत्यर्थः, कस्मात् ? अतः प्रतिविष्णु यात्, कक ? व्यूहे रणे, कयम्भूता? सतो समोचोना, पुनः विषया विगतविधुरा, पुनः महोरसा तेजोरसा, पुनः समुत्सहर्षा, कथम्भूतेन पत्या ? महोरसा विस्तीर्णवक्षसा, कया विष्णुना लक्ष्मीब्यूहे ? विभया विशिष्टप्रभया प्रतापेनेत्यर्थः, किं कृत्वा ? पूर्व सत्यतः सत्यात् एनं प्रतिविष्णु जेष्यामीति निश्चयात् व्यूहे समुत्पत्यागत्य ॥१०५॥
बलिमानर्चयावेद्य बलिमानर्च संयुगे ।
निर्ययौ भृतलोकं तं निर्ययौ भृतलोचितम् ॥१०६॥ बलिमिति-आनर्च पजितवान्, कोऽसौ ? बलिमान बलिनोऽस्य सन्तीति बलिमान विष्णुरित्यर्थः, कम् ? भूतलोकं भूतसमूहम्, का ? संयुगे रणे, किं कृत्वा ? पूर्वमावेद्य संकल्प्य तं प्रतिविष्णु कमावेद्य ? बलिम्, कया कृत्वा ? अर्चया पूजया, कयम्भतम् ? भूतलोचितम् अवनोतलयोग्यम्, कथम्भूते संयुगे ? निर्ययो निर्गतः ययुरश्वो यस्मात्तस्मिन् निरश्वे तुरङ्गारहिते तदनन्तरं निर्ययो निर्गतवान् कोऽसौ ? विष्णुः, फस्मात् ? रणात् ॥१०॥
याहतेशाते सीता साह तेजोधिके रिपौ।
व्याहते श्वसितै रागं प्राह तेन स्म संयुता ॥१०७॥ याहतेति-अह कष्टं प्राह स्म प्रोक्तवती प्रकटितवती, का ? सा सोता जानको कम् ? रागं प्रीतिम्, कैः कृत्वा ? श्वसितैः कथम्भूता सतो? देन रामेण संयुता संयुक्ता, क्च सति ? रिपो प्रतिविष्णो व्याहते सति कथम्भूते ? तेजोषिके प्रतापाधिके याहता खिन्ना कयम् ? ते कस्मात् ? ईशात् स्वामिनो रामं विनेत्यर्थः ।
भारतीय:-प्राह स्म, का? सोता भूमिः,कम् ? राग कथम्भूता? तेन विष्णुना संयुता,कैः कृत्वा रागं प्राह स्म ? त्रसितः, क्ष सति ? रिपो व्याहते सति, कथम्भूते ? तेजोधिके अह कष्ट याहता खिन्ना, कथम् ? ऋते, कस्मात् ? ईशात् प्रतिविष्णोरित्यर्थः ॥१०७४
( महोरसा विभया पत्या, व्यूहे समुत्पत्य सत्यतः महोरसा, विभया, सती समुत प्रा अतः व्यूहे ।)
विशाल वक्षस्थलधारी, अलौकिक प्रभाके स्वामी नारायणने युद्ध में आगे बढ़कर उचित मार्गसे पीन पयोधरधारिणी, निर्भय, सती और प्रमुदित विजयलक्ष्मीको प्रतिनारायणसे छीन लिया था ॥ १०५ ॥
(बलिमान नियंयौ संयुगे, भूतलोचितम् तं बलि अर्चया अावेद्य भूतलोक प्रान निर्ययौ ।)
अश्वसेना बिहीन उस घोर संग्राममें बलवान् सैनिकों के स्वामी नारायणने, पृथ्वीतलपर सबते श्रेष्ठ उस ( प्रतिनारायण ) की बलिको विधि-विधानपूर्वक समर्पित करके पंच महाभूतोंको पूजा की थी। और युद्धसे बाहर चले गये थे ॥१०६॥
(तेजोधिके रिपो व्याहते, ईशात, ऋते याहता सा सीता तेन संयुता, श्वसितैः रागं प्राह स्म, अह ।)
नारायण ( राम-कृष्ण ) से अलग हो जानेके कारण खेद-खिन्न वह सीता ( भूमि) अत्यन्त उन शत्रु प्रतिनारायणके मारे जानेपर स्वामीसे मिल गयी थी। और धीरे-धीरे मुक्तिकी साँसें लेकर अपने रागको प्रकट कर रही थी॥१०७॥
४८
namain
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
कौरव
गतिमुच्छेत्तम दुर्योधनपाटवम् ।
ये ते सख्येन विक्रान्ताः स स्वां तेभ्यो ददौ भुवम् ॥१०८॥
कौरवीमिति - ये विभशेषणादयो रावणबान्धवाः कर्त्तारः अदुर्दत्तवन्तः किम् ? योघनपाटवं युद्धपटुत्वम् किं कर्तुम् ? उच्छेत्तुम् काम् ? गतिम् कथम्भूताम् ? कौरवों कुत्सितो रवः कुरवः कुरवाज्जाता कौरवी तां निर्दयत्वेन समुत्पन्नामित्यर्थः तथा विक्रान्ताः संयोजिताः के ? ते विभीषणादयः केन ? सख्येन मित्रत्वेन तथा च ददौ दत्तवान्, कोऽसो ? स विष्णु, काम् ? भुवं पृथिवीम्, केभ्यः ? तेभ्यो विभोषणादिभ्यः, कथम्भूतां भुवम् ? स्वामात्मीयामिति ।
भारतीय:- ये कौरवों कुरूणामिमां कौरवों गति उच्छेत्तुं सञ्जाताः, कयम् ? अदुर्योधनपाटवं न विद्यते दुर्योधनस्य यस्मिन् कौरव गतिच्छेदनकर्मणि तद्यथा भवति विक्रान्ताः, के ? ते पाण्डवाः केन ? सरूपेन तेभ्यः पाण्डवेभ्यः स विष्णुः स्वां भुवं ददौ ॥ १०८॥
सरोवरजो राज्यं धर्मपुत्रोऽथ फल्गुनः ।
भीमtear रुद्धार लब्ध्वासी द्वैरतः प्रभोः ॥ १०६॥
३७८
स इति--अथ स्वभूमिदानानन्तरम् आसीत् संजातः कः ? स रक्षोवरजः रावणलघुभ्राता, कथम्भूतः ? धर्मपुत्रः प्रतिपन्नपुत्रः कस्य ? प्रभोः रामस्य किं कृत्वा ? पूर्व राज्यं लब्ध्वा प्राप्य कथम्भूतं राज्यम् ? भीमोहतापरुद्वारि भयमोहतापैः रुद्रा अरयो यस्मात् श्रासविह्वलता 'संताप निरुद्धशत्रु इत्यर्थः कस्मात् ? वेरतो वैरात् कथम्भूतःत् ? फल्गुनः तुच्छात् निःसारात् ।
भारतीयः --- आसीत् संजातः कः ? धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः अथ समुच्चयार्थः तथा फल्गुनोऽर्जुनः तथा भीमो भीमसेनः कथम्भूतः ? रत: आसक्तः प्रीत इत्यर्थः कस्य ? प्रमोर्नारायणस्य, कथम्भूतः ? सरक्षः सह रक्षया वर्त्तते इति सरक्षः, किं कृत्वा ? पूर्व लब्ध्वा किम् ? राज्यम्, कयम्भूतम् ? अवरजः अवगतं रजो यस्य तत् मनोमलरहितमित्यर्थः पुनः हतापरुद्धारि हवा दुर्योनादयो मारिताः केचिदपरुद्धाः जीवावशेषं घृता अरयो यत्र तत् निष्कण्टकमित्यर्थः, कथम् ? वे स्फुटमिति शेषः ॥ १०९ ॥
3
जिन लोगोंने रावणकी पापपूर्ण वृत्ति ( कौरवी ) को समाप्त करनेके लिए रामके साथ लड़ने में युद्ध कुशलता दिखायी थी वे मित्ररूपसे रामके द्वारा माने गये थे और उन्हें नारायणने जोती हुई भूमि वो थी [ दुर्योधनकी कुटिलतासे बढ़ी कौरवोंकी प्रनीतिको समाप्त करनेके लिए जिन्होंने मित्ररूपसे पाण्डवोंका पक्ष लिया था उन्हें कृष्णजीने राज्य दिये थे ] ॥ १०५ ॥
( श्रथ स रक्षोवरजः प्रभोः फल्गुनः वैरतः राज्यं लब्ध्वा भीमोहतापरुद्धारि। धर्मपुत्रः प्रासीत् । )
इस प्रकारसे रावणका वह छोटा पाई विभीषण नारायरण के निस्सार वैरके कारक, रावके राज्यको प्राप्त करके भय, मोह और तापसे त्रारण करनेवाला धर्मपुत्र हो
गया था।
( श्रथ तापरुद्धारि सरक्षः स धर्मपुत्रः, फल्गुनः भीमः प्रवरजः राज्यं लब्ध्वा प्रभोः रतः वै श्रासीत् । )
इसके बाद शत्रुके मर जानेसे या वशमें हो जानेके कारण श्रात्मरक्षाको प्राप्त वह युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम उत्पातों ( रज ) से रहित विशाल राज्यको प्राप्त करके निश्चय से कृष्णजीके भक्त हो गये थे ॥ १०६ ॥
१. रुद्ध विपक्षमित्यर्थः । प० द० ज० । २. - ता घोरवरटमन्नयनादयो अ- प० द०
२. तत् एनोमल - प० द० 1
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
३७९ ततो विधातुमन्येषां निश्चक्रामवसुं धराम् । आत्मीयां रक्षितुं चक्री निश्चक्राम वसुंधराम् ॥११०॥
(समपादयमकम् ) तत इति-ततो विभोषणाय पाण्डवेभ्यश्च राज्यसमर्पणानन्तरं निश्चक्राम निर्गतवान्, कोऽसो ? चक्री लक्ष्मणो नारायणश्च, किं कर्तुम् ? अन्येषां शत्रणां घरां पृथिवीम् अवसुं निव्या तथा निश्चक्रा निर्धाटकविषयां विधातुं कर्तुं तया आत्मीयां स्वकीयां वसुंधरां पृथिवी रक्षितुम् ॥११॥
हरितो हरितो बिभ्युराभ्यो राभ्यो विनारयः। तेऽभ्यस्तेभ्यः स्वदेशेभ्यः केवलं केवलन्न वा ॥१११।।
(गतागतबन्धः) हरित इति-बिम्युः भोताः, का ? हरितो दिशः, कस्मात् ? हरितो विष्णोः केवलं परम्, के तेऽरयो नावलन्न व्यावृत्ताः अपि तु सर्वेऽपि, काभ्यः ? आम्यो दिग्भ्यो दाऽथवा अबलन् तेभ्यो लोकविख्यातेभ्यः स्वदेशेभ्यः, कथम् ? बिना, कम्यः ? राभ्यो द्रव्येभ्यः, कथम्भूता: सन्तः ? अम्यो निर्भयाः, अत्र भावो विभाव्यते स्वकोयस्वकीयद्रव्याणि परित्यज्य दिग्भ्यः स्वदेशेभ्यो वा 'निवृत्य विष्णुभयभीता: यत्र स्वजीवरक्षा तत्र गताः शत्रवः, 'स देशो यत्र जीभ्यते' इति वाक्यात् ॥११॥
__ आशिश्रियन्नदीनाथो गङ्गा सिन्धुश्च केशवम् । आशि श्रियं न दीनाथो दिग्भीता तेन विभ्रता ॥११२॥
(विषमपादयमकम् ) आशिश्रियदिति-आशिश्रियत्सेवते स्म कः ? नदीनाथो मागधो देवः वरतनदेवः प्रह्लरदनदेवश्प, कम् ? केशवं तथा अशिश्रियत्, का? गङ्गा गङ्गादेवो तथा सिन्धुश्च सिन्धुदेवो ब, कम् ? केशवं विष्णुन, अथो शब्दो आनन्तर्यायवाची, म आशि न व्याप्सा अपि तु व्यानव, का? दिग, केन ? तेन विष्णुना, कयम्भूतेन ? श्रियं बिभ्रता, कय भूता दिग् ? दोना, पुनः भोतेति ॥११२॥
विभीषण तथा धर्मराजको राज्य समर्पण करनेके बाद चक्रधारी नारायण ( लक्ष्मण एवं कृष्ण ) शत्रुओंको शासन ( चक्र)-विहीन और सम्पत्ति रहित भूमिको अपनी सम्पन्न राज्यभूमि बनानेके लिए तथा उसको व्यवस्था और रक्षा करनेके लिए निकल पड़े थे ॥ ११०॥
(हरितः हरितः बिभ्युः, राभ्यः विना के ते अरयः न केवल प्राभ्यः अवलत् । तेभ्यः स्वदेशेभ्या अभ्य: के न अवलत् । )
नारायणसे समस्त दिशाएं उर गयो घों । और विषयभोग (रा) सम्पति को छोड़ र शत्रु लोग केवल सब दिशाओंसे ही नहीं भागे थे अपितु अपने-अपने देशोंसे भी कोन नहीं भागा था, अर्थात् सब देश भी छोड़कर चले गये थे ॥ १११ ॥
शासन चक्रको स्थापित करनेके लिए निकले नारायण ( मागध वरतनु, प्रलादन देवों) को नदीनापने सेवा की थो तथा गंगा और सिन्धुको अधिष्ठात्री देवियोंने भी उसका स्वागत किया था। लक्ष्मीके स्वामी नारायणके द्वारा दीन तथा भीत कौन-सो विशा व्याप्त नहीं की गयी थी? अर्थात सभी दिशाएं प्रगत हो गयी थीं ॥ ११२॥
1. निर्धाटकाविषयां -५० । निद्धाटकाविषयी -द० । निध्वारकाविषयां -अ.। "ततः चको अन्येषां निश्चको अवसुं धरां आत्मीयो वसंधुरा विधातुं ( एवं ) रक्षितुं निश्चक्राम" इत्यन्धयानुसारी न्याख्या सुष्टुतरेति । २. निवृस्य -प० ६० ।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८०
द्विसन्धानमहाकाव्यम् वाजीभविपिनेऽयेये जीनारावे रजोमये । भरादपेतै राजोने विवेपेऽरिशतैरपि ॥११३॥
(अर्धभ्रमः) वाजीभेति-विवेपे कम्पितम्, कै: ? अतिशतैरपि, कथम्भूतः ? भरादपेतैः भरात् रणतत्परतायाः अपेतः अपगतः, क्व ? बाजीमविपिने तुरङ्गमगजरणे, कथम्भूते ? अयेये अगम्ये, पुन; जोनाराव क्षीणशब्दे, पुनः रजोमये धूलिनिर्मिते वा, पुन: राजोने शत्रुहीने । अस्य श्लोकस्य चतुरोऽपि पादान् अधोऽयो लिखित्वा पूर्वापरक्रमेण वाचनमा अर्द्धभ्रमलक्षणो विधो जायते ॥११३॥ यथा
पिने ये ।
ते | रा | जो
| पि
न नाम प्रतिसामन्त सुः के संघवृत्तयः । ननाम प्रतिसामं तं प्रकृत्या प्रातिकूलिकः ।।११४॥
(विषमपादयमकम् ) नेति-नामाहो संघवृत्तयः सङ्घ वृत्तिर्येषां ते सङ्घवृत्तयः सामयायिकाः क्षत्रियाः, के न प्रेस के नो अस्ताः अपितु सर्वेऽपि, कथम् ? प्रतिक्षामन्तं सामन्तं सामन्तं प्रति प्रतिसामन्नम् असत्व ननाम नमस्कृतवान् कोऽसौ? प्रातिकूलिकः प्रतिकूलं वर्तमानः, कम् ? तं विष्णुम, क्या ? प्रकृत्या स्वभावतः, कथं यथा भवति ? प्रतिसामं यथोपशममिति ॥११४॥
कमन्यं यः समुन्न तमकरोत्करदा मतः । गम्भीरां वार्षिविततिमकरोकरदामतः॥११॥
(समपादयमकम् ) ___ कमिति-य: अकरोत् कृतवान्, काम् ? यावितत्ति समुद्रविस्तारम्, कथम्भूताम् ? करदां करं ददातीवि करदा तां सिद्धायदाम् कथम्भूताम् ? गम्भीराम् अतः कारणात् कान्यं तं करदं नाकरोत् अपितु
नायक राजाके मर जानेसे अपने दायित्वसे मुक्त सैकड़ों शत्रु घोड़ों और हाथियोंके घनमें जाकर भी कांप रहे थे । यधपि जंगल दुर्गम था। उसमें प्राचाज भी नहीं पहुँचती थी और चूल उड़ रही थी ( अर्थात् छिपे व्यक्तिको देखा भी नहीं जा सकता था) ॥ ११३ ॥
संघ बनाकर रहनेवालोंमें कौन ऐसा संघ था जिसका एक-एक सामन्त न डर गया हो ? स्वभावसे नारायणके विरुद्ध चलनेवाले भी सन्धि करनेको इच्छासे इसके सामने झुक गये थे ॥११४ ॥
हर्षपूर्वक माने गये नारायणने समुद्र तक फैली वसुन्धराको कर देनेवाली बना दिया १. सामुदायिकाः-० ८० ।
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
३८१ कुतवानेव, कथम्भूतः सन् ? समुत्सहर्षः, पुनः करदा करदात्रा मतः इष्टः करदेत्यत्र तृतीया बोध्या स्विपि प्रत्यये बातो धातोरित्याकारलोपः ॥११५॥
त्रस्तेऽविवरास्तेऽत्र केशवेन नवेऽशके । तेपे चारु रुचापेते नाधुते न नतेऽधुना ॥११६॥
(गतप्रत्यागतम् ) ब्रस्त इति ना सम्स्तं न मतेपे न तप्तम् अपितु न तप्तमेव. कोन ? केशवन विष्णुना कथं यथा भवति ? चारु सर्वश्रेष्ठम्, क्य ? दात्र जगति, कत्र ? अरो शात्रो, कथम्भूते ? जस्ते मोते, पुनः अवरास्ते अवराः अपराः शत्रवः आस्ताः क्षिप्ता येन तस्मिन्, अवता अः विष्णुः अस्य वरो अवर: अज्येष्ठः बलभद्रः तेन अस्तः अवरास्तः तस्मिन्, पुनः नवे नूनने, पुनः मते नम्र ॥११६॥
समजन्यायतोऽन्यान्मोसमजन्यायतोऽवयन् । समजन्यत हीनारेः समजन्यतयायतिः॥११७॥
(पादमतप्रत्यागतबन्ध:) समजन्येति-समजनि समातः, कोसो ? विष्णुः, कि कुर्वन् ? अवयन् मानन्, कान् ? अन्यान् शत्रन्, कि कुवंतः ? आयतः आगच्छतः, केन ? गोसम शन्यायतः गोसमूहन्यायेन तथा समजन्यत संजनिता कृतेत्यर्थः, का ? आयतिः उत्तरं फलम्, कयम्भूता? हीना क्षीणा, कस्य ? अरेः 'यत्रोः, क्या का ? समजन्यतया समानरणतया ॥१७॥
लूनं खलीकृतं नैव कृष्टं न द्विगुणीकृतम् ।।
तथापि यानेशालेयवेत्राणि ददिरे फलम् ॥११॥ - लूनमिति-तथापि ददिरे दत्तवन्ति, कानि ? यानेशालेयक्षेत्राणि यानानि हस्त्यश्वादीनि यानानाम् ईशाः यानेशाः यानेश्वराः आलिविद्यते येषां ते आलेयाः शत्रवः यानेशाश्च ते आलेयाश्च या शालेयाः तेषां क्षेत्राणि तानि तथोक्तानि, किम् ? फलं यद्यपि क्षेत्रं लनं छिन नैद खल कृतं खलं धान्यमर्दनभूमिः अखलं था। अतएव ऐसा कौन बचा था जो इसके सामने नत न हुमा हो या कर न देने लगा हो ? ॥ ११५॥
(अत्र त्रस्ते, प्रवरास्ते, नवे, अशके, चारुरुचापेते, नाधुते अरौं अधुना केशवेन न तेपे।)
लोको डरे हुए, स्वमेव हीन ( प्रवर ) बने, नूतन किन्तु असमर्थ शत्रुपर भी नारायणने अब क्रोध नहीं किया था क्योंकि उसकी सुन्दर कान्ति समाप्त हो चुकी थी और वह ललकारको भी नहीं सह सकता था ॥ ११६ ॥
( मोसमजन्यायत: आयतः अन्यान् अवयन, समजन्यतया अरेः क्षोणा प्रायतिः समनन्यत ।)
गायों के समान झुण्ड बनाकर पाते हुए शत्रुनोंको जानकर हो नारालगने बराबरीके संघर्षको तैयारी करके शत्रुके पुण्यको ही क्षीण कर दिया था ॥ ११७॥
यद्यपि झटक दिये गये थे किन्तु दुष्टोंके समान व्यवहार नहीं किया गया था, साम्राज्यमें खोंच ( मिला ) लिये गये थे किन्तु दूसरा दण्ड नहीं दिया गया था अतएव
.. -तं न नपेतो न नतप्रासं अपितु न प्राप्तभेष, केन-द० । २ नमपेतो न नतप्राप्त अपितु प्राप्त मेव, कंन - ज० । अशक, रुचापेते, आधुते इत्यादि शब्दानां व्याख्या प. अ. द. पुस्तकेषु नास्त्येव ।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् सखलं कृतं खलीकृतं तथा कृष्टं कर्षणीकृतं न द्विगुणीकृतं म द्विव हितमिति सम्बन्धः । प्रकारान्तरमाहतथापि ददिरे, कानि ? शालेयक्षेत्राणि, किम् ? फलम्, क्व ? पाने प्रयाणे यद्यपि शालेयक्षेत्र लून नेर खलीकृतं कृष्टं न द्विगुणाकृतमिति सम्बन्धः ॥११८॥
अमरः खचरश्चक्रमत्रसत्समनद्ध तम् । कश्च पश्यञ्जगच्चक्रमत्र सत्समनद्धतम् ॥११९।।
( सयपादयमकम् ) अमर इति-अमरो देवः खबर विद्याधरो वा कः समनद्ध सन्नद्धवान् अपितु न कोऽपि, किं कुर्वन् । तं प्रतिविष्णुम् अत्र लोके हतं व्यादितं पश्यन् अबलोकमानः तथा जगच्चक्रं समनत् उच्छ्वसत् सल्लसदित्यर्थः तथा चक्रम् अत्रसत् उद्वेगमगच्छत् पश्यन् सन् ॥११९।।
येऽमी मायामयायामाः शाङ्गमारोप्य तैरयम् ।
शरैः शशार शूरोऽरीन्प्राप्य शेलमहागुहाः ॥१२०॥ य इति-अयं शूरो विष्णुः शशार हतवान्, कान् ? अरीन् शवन, कैः कृत्वा ? तैः शरैः बाणः, कि कृत्वा ? पूर्व शाङ्ग' पनुरारोप्य, किं कृत्वा ? पूर्व शैलमहागुहाः विजयार्द्धपर्वतबृहत्कन्दराः प्राप्य येऽमी शरा: मायामयायामा मायानिमितदैर्ध्या: अभूवन् ॥१२०॥
कन्याहेमपुरो लेभे मायी यायात्र कातरे । शुद्धयानपेतो यामायानयं यावो यमचत ॥१२॥
(अर्धभ्रमगर्भश्लोकः ) कन्येति-लेभे प्राप्तवान्, कः ? स विष्णु: का: ? कन्याहेमपुरस्तनयासुदर्णपुराणि, कपम्भूतः ? मायी मायावान्, पुनः याया मतिशयन मनशोला, फ्व ? अष रणे, पुनः कातरे भोरी शुवधानपेटः अपरित्यक्तः यं कातरमक्षत हतवान् स विष्णुः, कथम्भूतः सन् ? यातः प्राप्तः, किम् ? अयं भाग्यम् । अयः शुभावही रथादिके स्वामी शत्रुनोंके राज्योंने भी इसे उपायन प्रादि दिये थे [फोड़ कर फिर दुबारा न जोता गया अथवा काटकर खलियान भी न किया गया था तो भी शालिके खेतों ने पहुँचने पर फल दिये थे। ] ॥ ११८॥
(अत्र तं हतं पश्यन् अमरः खचरः कः चक्रं अनसन् समनद्ध, जगत् चक्र अत्रसत् समनत् ।)
उस प्रतिनारायणको मरा देखकर, देवताओं या खेचरोंमें कौन ऐसा था जो नारायणके चक्रका भय न मानकर लड़नेको तैयार होता? सारा संसार ही ( रावण-कसके ) भयसे मुक्त होकर शान्तिको साँस ले रहा था ॥ ११६ ॥
धनुष पर चढ़ाकर विजयार्ध पर्वतको महागुफामें छोड़े गये, जो मायासे निर्मित विशालताको प्राप्त होते थे, उन बापोंके द्वारा इस महाबली नारायगने शत्रुओंको भगा दिया था ॥ १२० ॥
( शुद्धधानपेतः, अनयंयातः, याया, मायो अत्र यं अक्षत कातरे फन्याहेमपुर: लेमे यां प्रायान् । ]
श्राचार-विचारको शुद्धिसे युक्त, मांगलिक विधिका कर्ता और मायापति नारायण
१. सर्वस्मिन्नपि पुस्तके ( प० ६० ज० ) द्विगुणाकृतमित्येवान पाठो दृश्यते । २. 'सन्' पदस्याधः प० द० ज० पुस्तकेषु नास्ति ।
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः विधिरित्यमरः, किं कुर्वन् ? बायान् आगच्छन्, काम् ? यो शुद्धिमिति, अस्य श्लोकस्य चतुरोऽपि पादानघोऽयो लिखित्वार्धभ्रमणबाचनयार्थभ्रमगर्भश्लोकः समुत्पद्यते ।।१२१५
मा
पे | तो । या । मा | या
इदानी स एव अर्द्धभ्रममर्भश्लोकोऽभिधीयते ।
समाशु गादेमे न्यापीद्ध्यायन्क्षमातले ।
हेयानयामयाकारोमयापेतो यतोऽत्रपु ॥१२२।। . : कमिति-आशु शीघ्र कं रिपुं नारेभे आरब्धवान् अपितु सर्वपि उत्सुकीकृतवान्, कोऽसौ ? विष्णुः, कया कृत्वा ? तया ताशब्देन लक्ष्मीरभिधीयते तया लक्ष्म्या, कथम्भूतः ? न्यायो नोतिमान्, कि कुर्वन् ? अयन् गच्छन् प्रवत्र्तमान इत्यर्थः, क्य ? क्षमातले पृयितीतले, कया ? इदया दोप्त्या प्रतापेनेत्यर्थः, पुनः हेयानयामयाकार: हेयश्चासावनयश्च हेयानयः हेयानय एव आमयः हेयानयामयः हेयानयामयस्येवाकारो यस्य कि हि तदाभासो गृहोत: तद्वत्तीवत्वादिति भावः, अथवा हेयाः शत्रवः आनाः प्राणा: याम उपरमवृत्तिः हेयानाम् आनाः हेयानाः हेयानानां यामः हेयानयामः हेयानयामं याति प्राप्नोति, आत इत्यनेन सूत्रेण का हेयानयामयः हेयानयामय इवाकारो यस्य सः तथोक्तः, अथवा हेयाः परित्याज्या: मानाः प्राणाः हेयाश्च ते मानाश्च हैयानाः हेयानयन्ते प्राप्यन्ते हेयानयाः विधि कृते रूप सिद्धम्, आ कोत्तिः, हेयानया चासो बाघ हेयानया हेयानयया निर्वृत्तः हेयानयामयः हेयानयामय आकारो यस्य स तथोक्तः, उक्तं च 'मर्यादायां श्रियां कोल्माकार: कथ्यते बुधः' पुन: अमयोपेतः न मा अमा तया अमया अलक्ष्म्या दारिद्रयण अपेतः परित्यक्ता, पुनः यतः यलपरः उद्यमी, कथम् ? अत्रपु अलज्ज निःशङ्कम् ॥१२२॥
श्रीधीनीतिस्थितिप्रोतेरुद्धतिरुचितोदिति । एषोऽजैषीद्विषोरोष रुद्ध्वेति रुचितोदिति ॥१२३।।
( च्युतयोगवाहनिःकण्ठ्यः , समपादयमकम् ) इस दिग्विजयमें चलता हुआ जिस पर वार करता या वह भीरु होकर इसे कन्या, सोना और नगर भेंट करके शुद्धिको प्राप्त करता था ॥ १२१ ॥
(हेयानयानमारः, यतः, अपुः, न्यायो, अ-मयापेतः क्ष्मातले अयन् इद्धया तया कंन प्राशु रेभे ।)
त्याग करने योग्य, निकृष्ट नीतियों रूपी महामारीका रोधक अथवा शत्रु ( हेय ) के प्राणों ( प्रान ) को ऊर्ध्वगति ( यामया ) का कर्ता { कारी)। अथवा जिसका रूप ( आकार ) परित्याज्य ( हेय ) प्राणों ( प्रान ) से प्राप्त ( या ) कौति ( प्रा ) मय है, सदैव प्रयत्नशील, लजालु, न्यायकर्ता और लक्ष्मीसे वेष्टित नारायणने दिग्विजयमें पृथ्वी की परिक्रमा करते समय जगमगाती लक्ष्मीके द्वारा किसको तुरन्त उत्सुक नहीं बनाया था ॥ १२२ ॥
१. यस्य साक्षान हेयानयामया इवाकारो यस्य किं-१०द।
-vvvvv
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् श्रीति-अजैषीत् जितवान्, कः ? एषः विष्णुः, कान् ? द्विषः शत्रून्, कथम् ? अदिति बखण्डम, कि कृत्वा ? रुचितोदिति इद्धोदयं यथा भवति रोष कोपः रुद्ध्वा संवृत्य, कथम् ? इत्युक्तप्रकारापेक्षया श्रीधीनीतिस्थितिप्रीतः श्रीप्रमुखानां प्रीतेः उचितो योग्यः, पुनः उद्धेतिः उत्खातशस्त्रः ।। १२३ ॥
श्रीतः सुरकुलं हीनमत्रासीदक्षमोहितम् । तात्त्रं तु वृत्ततः क्षिप्तमत्रासीदक्षमोहितम् ।।१२४।।
( समपादयमकम् ) श्रीत इति–सुरकुलं देववृन्दम् अक्षमोहितं अक्षेषु' स्पर्शनादिष्यिन्द्रियेषु मोहितं निविवेक तथा श्रीतः श्रियः सकाशात् हीनम् अत्र लोके आसीत् संजातम् । अत्रायं भायः विष्णोविभूतिमालोक्य स्वां विभूति विनिन्द्य सुरकुलं सचिन्तया लज्जितं बभूव इत्यर्थः । तु पुनः क्षात्रं क्षत्रियसमूहः वृत्ततः वृत्तात् क्षिप्तम् आचरणात् च्युतम्, पुन: अक्षमोहितं न विद्यते क्षमाया भूमेः ऊहितं वितर्कणं यस्य तत्, अवासोत् त्रस्तं स्वां मेदिनी विहाय पलायनं चकारेत्यर्थः ॥ १२४ ।।
सर्वकर्मीणमूलचं दूतमुद्युक्तविक्रमम् ।
अहित्याश्वमपि म्लेच्छस्त्रीराज्यं तमशुश्रवत् ॥१२॥ सर्वेति-अशुश्रुवत् श्रावयति स्म, कि कत्तू ? आश्वमपि अश्वबलमपि, किम् ? म्लेच्छस्योराज्यं म्लेच्छाः क्षत्रियाः म्लेच्छा एव स्त्रियः म्लेच्छस्त्रियः म्लेच्छस्त्रीणां राज्यम्, कमशुश्रुवत् ? तं विष्णुम्, कि कृत्वा ? सर्वकर्मीणं सर्वकार्यसमर्थम्, ऊर्ध्वशं भाविकार्यदर्शकम्, उद्युक्तविक्रमं प्रयुक्तपराक्रम, दूर्त प्रहित्य प्रेष्य, तथा आश्वमपि सर्वकर्राणम् ऊर्ध्वम् ऊज़ जानुनी यस्य व्याघ्रीवादिति ज्ञ: जानु शब्दस्य ज्ञादेशः तथा उद्युक्तविक्रम सर्वविशिष्टपादम् ॥ १२५ ॥
प्रजिघ्युः पार्वतीयाश्च चामरं दन्तमौपधिम् ।
चित्तेन कार्मणेनापि द्विषन्तो न तमद्विषुः ॥१२६॥ प्रजिघ्युरिति-प्रजिघ्युः प्रस्थापितवन्तः । के ? पार्वतीयाः पर्वतोद्भवा मन्नयनादयः, किम् ? चामरं दन्तं
सम्पत्ति ( श्री ) शिक्षा (धी ) न्याय ( नोति), स्थायित्व और प्रेमके लिए शस्त्र उठानेवाले एवं उचितकारी इस प्रखर तेजस्वी नारायणने समस्त (अदिति ) शनोंको' अपने रोषसे ही कीलित कर दिया था और जीत लिया था ॥ १२३ ॥
(अत्र अक्षमोहितं, सुरकुलं श्रीतः हीनं प्रासीद, अक्षमा ऊहितं ततः क्षिप्तं क्षात्रं प्रत्रासीत।)
विश्वमें इन्द्रियोंके विषयभोगोंमें लोन देवकुल भी इसको लक्ष्मीके कारण हीन हो गया था। हार जानेके कारण पृथ्वी या राज्यको चिन्तासे मुक्त अतएव राजधर्मसे गिरा क्षत्रिय कुल इससे डर गया था ॥ १२४ ॥
म्लेच्छ रानियों द्वारा शासित राज्योंने सब प्रकारके वाहन - ( कर्म ) योग्य, पुष्ट उन्नत जंघा (ज) युक्त प्रशिक्षित चाल ( विक्रम ) वाले घोड़ोंकी भेंटसे साथ, सब कार्य करनेमें समर्थ, पागेको जाननेवाले तथा प्रसिद्ध पराक्रमी दूतोंको भेजकर नारायणको समर्पण का समाचार दिया था ॥ १२५ ॥ ___ पहाड़ी राजानोंने नारायणकी सेवामें चामर, हस्ति-सिंह दन्त और विविध जड़ी१. -पु इन्द्रियेषु मोहितं स्पर्शनरसनध्राणनक्षुःश्रोत्रव्यापारेषु निर्विवेकमित्यर्थः--५० ८० ज० । २. -मं समर्थविशिष्ट-प० द० ज०।
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
३८५ तथौषधि घ तथा चित्तेन द्विषन्तोऽपि नाद्विषुः न विष्टवन्तः, कम् तं विष्णु केन ? कार्मणेन कथंभूतेन ? कर्मणा प्रयुक्तेनेत्यर्थः ॥ १२६ ।।
समयाचक्रिरे खेयं केरिमूलं यदम्बुधीन् । समया चक्रिरेखेयमलध्या सामवायिकैः ॥१२७||
(विषमपादयमकम् ) समयेति–के शत्रवः समयावक्रिरे कालयापनां कृतवन्तः अपितु न केऽपीत्यर्थः, यत् यस्मात् कारणात् खेयं खननीयं खनितव्यम्, किम् ? अरिमूलम्, शत्रुमूलम्, कथम् ? समया समीपे, कान् ? अम्बुषीन समुद्रान्, युक्तमेतत्, इयं चक्रिरेखा चक्रवर्तिमर्यादा सामवायिकैः सैनिकैरलङ्घया ॥ १२७ ।।
समयासीदसौ जन्यं समयासीदसौजन्यम् । समयासीदसौ जन्यं समयासीदसौजन्यम् ॥१२८||
(सर्वपादयमकं गोमूत्रिकाकारम् ) सपीतिमा सागातील सत्यनारेण गतवान् कः ? असावयं विष्णुः, किम् ? जन्यं रणं तदा समयासीत् प्रयत्नविषयीकृतवान्, कोऽसौ ? विष्णुः, किम् ? असौजन्यम् अमंत्री तथा समयासीत् प्राप्तवान् कः ? असी विष्णुः, किम् ? जन्यमपवादम्, क्व असौ खङ्गे, कथम्भूमं जन्यम् ? जनादनपेतं अन्यम्, कथम्भूतो विष्णः, समयासीदयं भाज्यवहो विधिः असिः खङ्गः सङ्गतमयं यस्याऽसौ समयः समयश्चासावसिश्च समयासिः समयासिना इन्दतीति इदेः विपि कृते सति सिद्धं समयासीत् इति रूपम् । सङ्गतभाग्यवहविधिना खङ्गेन प्रतापीत्यर्थः । १२८॥
व्यधादरीणां द्वोपेषु जयस्तम्भस्थिति व्यधात् । व्यघाटेलावने धैर्यादण्डोऽस्य मधु भव्यधात् ॥१२६।।
(आद्यन्तयमकम् ) व्यवादिति--दण्ड: सैन्यं द्वीपेषु जयस्तम्भस्थिति व्यधात् कृतवान्, कस्मात् ? अरीणां व्यधात् ताडनात् तथा व्यषात् आस्वादितवान् कः ? दण्डः, किम् ? मधु मधुरसम्, क्व ? वेलावने, कस्मात् ? धैर्यात, कथम्भतात ? भव्यधात् कल्याणधारकात्, कस्य दण्डः ? अस्य विष्णोः ।। १२९॥ बूटियां भेजी थीं । यद्यपि उनके मनमें द्वेष था तो भी प्राचरणसे उन्होंने नारायणके प्रति शत्रुता नहीं दिखायी थी ॥ १२६ ॥
___ कौन ऐसे राजा थे जो शरणापत होने में विलम्ब करते ? क्योंकि चारों समुत्रों तकके शत्रुओंको जड़ें खोदकर फेंकनी थीं। चक्रवर्तीकी इस राज्यसीमा ( रेखा ) का कौन सैनिक उल्लंघन कर सकता था? ॥ १२७ ॥
( असौ जन्यं समयासीत्, असौजन्यं समयासीत्, समयासीत् प्रसौ, प्रसौ जन्य, जन्यं समयासीत् ।)
इस नारायणने युद्धको सम्यक् प्रकारसे चलाया था। दुष्टता या माततायीपनका प्रयत्न करके प्रतिरोध किया था। और मंगलदायिनी ( समया ) तलवार ( प्रसि ) से देदीप्यमान ( इदि ) इसने खनके विषयमें फैले जनापवाद (जन्य ) को समाप्त कर दिया था ॥ १२८ ॥
दमन करके ( व्यधात् ) शत्रुनोंके द्वीपोंपर इसकी सेनाने विजय-स्तम्भ बना दिये थे ( व्यधात् । तथा कल्याणकारी ( भव्य ) होनेके कारण इसके शासन ( दण्ड ) ने समुद्र तटके वनोंमें साहस और निश्चितताके साथ मधुका स्वाद लिया था ॥ १२६ ।।
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
इत्यादाय दिनेः कैश्विदिशो दण्डधनं नृपः । सदयोध्यामतो रागाद्ययौ द्वारवतीं पुरीम् ॥ १३०॥
इतीति--द्विः । अतः अततीति अत् विवपि कृते सति रूपं सिद्धं तस्मात् विजृम्भमाणात् रागात् प्रोतेः नृपो लक्ष्मणः काम् ? पुरीम् । किमाख्याम् ? अयोध्याम् कथम्भूताम् ? द्वारवतीम् किं कृत्वा ? दिशो दण्डनम् आदाय गृहीत्वा के ? कैश्चिद्दिनः कथम् ? इत्युक्तप्रकारेण कथम्भूतं दण्डधनम् ? सत् समीचीनम् अव्यभिचारीत्यर्थः ।
३८६
भारतीयः - नृपः कृष्णः सदयोध्यां सती चासो अयोध्या च सदयोध्या योदुमशक्या वां शत्रुभिरलङध्याम् पुरीं अथवा द्वारवतों रागात् ययौ कथम्भूताद् रागात् ? अध्यामतः विशदात् कथम्भूतो नृपः सदयः सानुग्रहः । शेषं सुगमम् ॥१३०॥
वियोगे लघुम्नुत्तुङ्गमानीताशार्थमात्मजम् ।
सा तं मातेव संवोढुं मुदामान्त्यपि नाशकत् ॥ १३१ ॥
वियोग इति - नाशकत् न शक्ता का ? सा पुरी, किं कर्तुम् ? आनीताशार्थम् आनोतदिन्द्रव्यं तं विष्णुं संयोम्, कथम्भूतम् ? कि कुर्वती सत्यपि ? मुद्दा सन्तोषेण अमान्त्यपि स्वाप्यवकाशमलभ मानेत्यर्थः । केव ? मातेव जननीव, किं कर्तुम् ? दो कम् ? आत्मजं पुत्रम् कथम्भूतम् ? आनोवाशार्थम्, आहृताभिपितार्थम्, पुनः लघुम्, क्व ? वियोगे, पुनः कथम्भूतम् ? उत्तुङ्गम् क्व ? संयोगे किं कुर्यती सत्यपि ? मुदा हर्षेण अमान्यपि ॥१३१॥
अवाष्टभञ्जनाश्चारुशेषाभिस्तं चमूः पुरम् ।
प्रवाष्टभनाश्वारुराज्ञया न तृणान्यपि ॥१३२॥
( विषमपादयमकम् )
अवाष्टभनिति---जनाः चारुशेषाभिर्मनोहराशीर्वादैः तं विष्णुम् अवाष्टभन् अवटुब्धवन्तः स्तुतवन्त इत्यर्थः तथा चमूः सेना पुरम् पुरीं अदाष्ट व्याप्तवती तथा च न आरुर्नगतवन्ति क्रानि? तुणान्यपि, काः ? भञ्जना: आमर्दनक्रियाः, कया ? आज्ञया आदेशेन ||१३२ ||
इस प्रकारसे कुछ ही दिनोंमें समस्त दिशाओंोंकी समीचीन व्यवस्था करके तथा सम्पत्तिको लेकर प्रतिदिन बढ़ते ( अतः ) गृहप्रेमके कारण राजा ( राम ) अनेक तोरणोंसे सज्जित अयोध्यापुरीको लौटे थे [ इस प्रकारसे प्रतिदिन बढ़ते रागके कारण राजा ( कृष्ण ) शत्रुनोंके द्वारा अनाक्रमणीय शिष्टपुरी द्वारकाको लौटे थे । अथवा स्पष्ट ( श्रव्यामतः ) रागके कारण परम कारुणिक राजा कृष्ण ) द्वारकापुरीको लौट पड़े थे ] ॥ १३० ॥
बिछुड़नेके समय छोटे किन्तु लौटनेके समय लम्बे-चौड़े तथा समस्त दिशाओंकी सम्पत्ति के साथ लौटे पुत्रको हर्षसे प्रफुल्लित माता जिस प्रकार गोद में नहीं उठा सकती है, उसी प्रकार जाते समय हलके और लौटते समय दशों दिशाओंोंके विभवसे लदे सर्वोपरि ( उत्तुङ्ग ) चक्रवर्ती राजा ( राम कृष्ण ) को सुविस्तृत किन्तु उत्सव में मस्त प्रयोध्या या द्वारका भी नहीं सम्हाल सकी यी ॥ १३१ ॥
मनोहर स्वागत या श्राशिष वचनोंके द्वारा नागरिकोंने उस नारायणकी स्तुति की थी । विजयी सेनाएँ पूरी नगरीमें फैल गयी थीं। और राजाकी श्राज्ञा हो गयी थी कि तृरणों को भी न रौंवा ( भञ्जन ) जाय ( श्रारुः ) ॥ १३२ ॥
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
प्रविश्य पुरमाराध्य चक्रमारुह्य विष्टरम्
परं मित्राणि देशाय नामुञ्चतदनुस्मृतिम् ॥१३३॥
प्रविश्येति – विष्णु विष्टरमासनमामा चक्रम् आराध्य प्रपूज्य पुरं प्रविश्य मित्राणि देशाय परं केवलं अमुञ्चत् मुक्तवान् तदनुस्मृति मित्रानुस्मरणं नामुञ्चत् ।।१३३।।
एकमुक्तिमलुब्धं च कुलोपकरणं हितम् ।
सामाधिकमसाधुं च राज्यभारं बभार सः ॥ १३४ ॥
३८७
एकभुक्तिरिति--स विष्णुः राज्यभारं बभार श्रुतवान् पुष्टि निनाय कथम्भूतम् ? अलुधिं न विद्यते लुब्र्यित्र सः तं निर्लोभ तथा च एकभुक्तिम् एकानुभवगोचरमिति विशेषः परिह्रियते, अनुब्धि विमोहहीनं तथा एकभुक्तिम् एकस्य भुक्तिः रक्षा यस्य तमेकच्छत्रमित्यर्थः पुनः हितं हितोपकरणं कुलोपकरणं भूमि च्छेदकरम् इति विरोधः परिहियते हितं सुखदं कुलोपकरणं वंशोपकारम् पुनः सामाधिकं साम्ना अधिकम् असाधुं न चेतो रङ्गकमिति विरुद्धं परिहियते सा लक्ष्मीः माज्ञानं पञ्चाङ्गमन्त्रः ताभ्यामधिकम् असाधुम् अः विष्णुः तस्य साधु मनोहरम् ॥ १३४ ॥
नानेटसहितादोहि स्वयं गौर्वसु भूपतिः ।
नाष्ट सहिताऽदो हिस्थानं तीर्थान्तरात्परम् || १३५ ॥
(विषमपादयमकम् )
नानेति - स्वयमात्मना अोहि दुग्धा का ? गौर्मेदिनी, किम् ? वसु द्रव्यम्, कथम्भूता सती ? नानेष्टसहिता विविधाभिलषितयुक्ता, पुनः हिता हितदायिनी तथा नानेष्ट न प्रापितवान् कोसो ? भूपतिविष्णुः, किम् ? अद एतद्वसु, कि नानेष्ट ? स्थानं कथम्भूतम् ? परमन्यत् कस्मात् ? तीर्थान्तरात् धर्मसमवायिनः कार्यसमवायितः पुरुषास्तीर्थम् एकस्मात्तीर्थादपरं तीर्थ तीर्थान्तरं तस्मात्तथोक्तात् कथम् हि ? स्फुटम् ॥१३५॥
राजधानी में प्रवेश करके नारायणने चक्ररत्नकी पूजा की थी। श्रीर राजसिंहासन पर बैठकर केवल मित्र राजानोंको अपने-अपने देश जानेके लिए विदा किया था। तो भी उन (मित्रों ) को स्मृतिको अपने पास ही रखा था ॥ १३३ ॥
नारायणने राजभारको ऐसे बहन किया था कि [ उसमें लोभ न था तो भी लोग एक बार खा पाते थे, सबके लिए हितकारी या तो भी भूमि या वंश बँटते जाते थे और समाधि द्वारा चलाया जा रहा था किन्तु दुर्जन बहुत थे ] एकछत्र ( भुक्ति ) होनेपर भी htarfan बढ़ानेका लोभ न था, सबके लिए सुखद था तथा वंशोंकी वृद्धि हो रही थी और लक्ष्मी ( सा ) तथा ज्ञान ( मा ) खूब बढ़नेसे नारायण (श्र ) के लिए वह प्रिय ( साधु ) था ॥ १३४ ॥
fafas प्रकारके अभिलषितोंसे भरी और मंगलमयो भूमि स्वयमेव विभव दे रही थी । यह राजा भी इस स्वयं प्राप्त सम्पत्तिके द्वारा ( सुव्रत या नेमि ) के धर्म ( तोर्थ ) को छोड़कर किसी दूसरे स्थानको नहीं चाहता था ॥ १३५ ॥
१. विरुद्धं प १० द० ज० ।
२. र्थः कथम्भूतं सन्तं ? हितं किल कथम् ? कुछोप - प० द० ज० ।
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम् स्वपुरग्रामवायत्तं वस्त्रादिक्षञ्जनं जनम् । स्वपुरमा मता यत्तं भूपास्तस्याधिकारिणः ॥१३६॥
(विषमपादादि-यमकम् ) स्वपुरीति-भूपाः अदिक्षन् दिष्टवन्त: किम् ? स्वपुरपामतायत्तम् आत्मनगरपामसमूहाधीनं बसु द्रव्यम्, कस्य ? तस्य विष्णोः नथः र स्वपुः सुष्छु यान्ति स्म ययोक्तन्यायेन रक्षितवन्त इत्यर्थः, के ? अधिकारिणो नियोगिनः, कम् ? तं जनं जनम्, कस्य ? तस्य विष्णोः, कथम्भूताधिकारिणः ? अग्राः उत्तमाः पुनः मताः इटाः ॥१३॥
परस्परमपश्यन्तः सामन्ता ददृशुः प्रभुम् ।
नमन्तस्तं नवोत्थानं भानुं दूरस्थिता इव ॥१३७॥ परस्परमिदि-सामन्ताः तं प्रभुं विष्णु ददृशुः दृष्टवन्तः, कथम्भूताः ? दूरस्थिताः, कमिव ? भानुमिव सूर्यमिव, कि कुर्वन्तः ? नमन्तो नमस्कुर्वन्त: अपश्यन्तः अनिरीक्षमाणाः, कथम् ? परस्परमन्योन्यम्, कथम्भूतं प्रभुं भानुं च ? नवोत्थानं नूतनोक्ष्यमिति ॥१३७॥
निजतो हि घराराधी सदा नाम रवी रुचा।
वेधसा जनितो भूयो योगे वेगनयेन सन् ॥१३८॥ निजत इति-हि स्फुटो नामाही जनितः, कः कर्मतापनः ? सन् सज्जन: विष्णुः, केन ? वेघसा ब्रह्मणा, कथम् ? भूयः, पुनः केन कृत्वा ? वेगनयन, क्व सति ? योगे समाधी सति, कथम्भूतेन वेगनयेन ? निजतः स्वाधीनेन, कथम्भूतः ? रविः सूर्यः कया? रुचा दीप्त्या, कथम्भूतः ? घराराधी घरां राध्यतीति इत्येवंशील: भूमिविवर्द्धकः, अथवा परां राघ्नोतीत्येयं शील: भूमिसं सिद्धिकारकः, कथम् सदा सर्वदा । प्रतिलोमानुलोमेन' द्वैतम् ॥१३८॥
सन्नयेन गवे गेये यो भूतो निजसाधवे । चारुवीरमना दास धीराराधहितोऽजनि ॥१३६॥
यतः नारायणके प्रधान लोकप्रिय अधिकारी जनताको भलीभांति ( सुसे रक्षा फरते थे ( अपुः ) फलत: उसके सामन्त राजा भी अपने अपने नगरों और प्रामोंसे होनेवाली प्रायको जनता ( जनं ) का घन मानते थे और उनके विकासमें ही व्यय करते थे ॥१३६॥
नूतन अभ्युदयको प्राप्त चक्रवर्ती राजा नारायणके साथ सामन्त राजा लोग नवोदित सूर्यके समान दूरसे ही साक्षात्कार करते थे। नमस्कार करने में लीन सामन्त लोग प्रापसमें एक दूसरेको ओर दृष्टि भी नहीं डालते थे ॥१३७॥
देवरूपी प्रजापतिने अपने तेजके द्वारा सूर्यको बनाया था, जो सदैव विना नागाके पृथ्वोकी पाराधना करता है । तथा योगमें स्थित उसने ही अपने नीति प्रवाहसे साधु राजाको सृष्टि की थी जो अनादि कालसे जगत्को व्यवस्था करता पाया है ॥१३॥
१. लोम द्वैतम्-६० ज०।
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टावशः सर्गः
३८९
सदिति-यो विष्णु भूतः समुत्पन्नः, कथम्भूतः ? गेयः स्तुत्यः, कस्यै ? गवे भमये, केन कृत्वा ? सन्नयेन समीचीननीत्या, कथम्भूताय गवे ? निजसाधवे निजाः साधवो यस्याः सा तस्य तथा अजनि सजातः, कथम्भूतः ? चारुवीरमनाः चारयो अव्यभिचारिणो ये वीराः सुभटास्तेषु मनो यस्य सः, पुनः कथम्भूतः ? अदासपीराराघहितः दो छेदन इत्यस्य प्रयोगः, अः विष्णुः अद्यतीति अदः, आदः का इत्यनेन सूत्रेण कः, विष्णुशत्रुः रामायणपक्षे रावण: भारतपक्षे जरासन्धः, अदमस्यति कर्मण्यणित्यनेन सूत्रेण, अदासः विष्णुशत्रुक्षेपक इत्यर्थः, धीराः निःक्षोभाः आराः शस्त्रविशेषसंज्ञकाः आरा दधतीति आराधाः, आतः क इत्यनेन सूत्रेण कः, आराघरा इत्यर्थः, अदासाश्च ते धोराश्च आराधाश्च ते अदासधीराराघा अदासधीराराधा हिता यस्य, तेषु तेभ्यो वा हितस्तथोक्तः ।।१३९॥
स्वपत्यं विधिनिग्राहं स्वपत्यन्तेऽकरोद्विषाम् । आजिजीवाभि कृत्वा नमाजिजीवारवाहतम् ॥१४॥
(प्रथमपदयमकम् ) स्वेति-अकरोत् कृतवान्, कः ? विष्णुः स्वपत्यं शोभनमपत्यम् ' आज्ञाविधायिनं पुत्रमित्यर्थः, कथम्भूतम् ? विषिनिग्राहं देवविध्वंसकम्, व सति ? स्वपत्यन्ते स्वस्वामिविनाशे, केषाम् ? द्विषां शत्रणां तथा आजिजीव प्राणानधारयत्, किम् ? अपत्यम्, किं कृत्वा ? पूर्व कृत्वा, किम् ? तमधि तं विष्णुं स्वामिनं कृत्वेत्यर्थः, कथम्भूतं विष्णुम् ? आजिजीवारवाहतम् आजे वो यस्मात् स आजिजीवः आरवः सर्वव्यापी ध्वनिः आजिजीवश्चासावारवश्च आजिजीवारवः आजिजीवारवेण आहतः स तयोक्तः तं रणोल्लासगभोरध्वनिजर्जरितमिति ।।१४०।।
अमा रण महामात्रैर्महाब्रह्मैरमारणम् । अध्यायन्कविभिः काव्यमध्यायन्कर्म चाकरोत् ॥१४१॥
(पादयमकम् ) अमेति-अकरोत् कृतवान्, कः ? विष्णुः, किम् ? कर्म कायं किं कुर्वन् ? अध्यायन् अभिगच्छन्, कम् ? रणम्, कथम् ? महामात्रः हस्तिसाधनकैः अमा सह, किं कुर्वन् ? अध्यायन् परामृशन्, किम् ? महाब्राः महाब्रह्म येषां ते महाब्रह्माः महाब्रह्मणोराष्ट्रेभ्य इत्यनेन सूत्रण टस्तस्तभोक्तः जितेन्द्रियैः पुरुषः अमा सार्द्धम् अमारणम् अहिंसां तथा चाध्यायन्, किम् ? कविभिरमा साकं काव्यम् ॥१४१॥
जो नारायण उत्कृष्ट नीतिका प्रवर्तक होनेके कारण समस्त उस लोकके लिए स्तुत्य है जिसके साधु ही सगे हैं, वही नारायण सदाचारी घोर पुरुषोंका स्नेही होने के कारण विष्णुके (अ)विरोधियों ( रावरण-जरासंध ) के मर्दक, धीरजशाली और चक्र ( पार ) के धारकोंका कल्याणकर्ता बन गया था ॥१३॥
शत्रुओंके अपने-अपने प्रभुत्रोंका अस्त हो जानेपर नारायणने इनके ऊपर अपनी प्रभुताको स्थापित किया था जो कि देवका भी निग्रह कर सकती थी। युद्ध ( माजि ) में होनेवाले जीवोंके शोर (पाराव) को समाप्ति करके शत्रु मण्डलपर अधिकार जमा कर वह सुखसे जी रहा था ॥१४०॥
नारायण प्रधान मन्त्रियोंके साथ युद्धका प्रतीकार सोचता था, बड़ी वय (महामात्र) के विद्वानोंके साथ अहिंसा तत्त्वको विवेचना करता था, विपुल धन व्यय करनेपर सुलभ कवियों के साथ काव्यचर्चा करता था तथा समस्त कार्योको शाखके अनुसार करता था ॥१४॥
१. स्वस्य पत्यं प्रभुत्वं प्रासंगिकम् ।
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
द्विसन्धानमहाकाव्यम् अर्थानपेक्षानद्रादीकाले करणमात्रिकान् ।
स पौरानङ्गहारांश्च नमक्रमकटोकरान् ।।१४२।। भनिति-स विष्णुः काले सहये यथोचितसरे अपेक्षान् अर्थान् अद्राक्षीदवलोकितवान् तथा करणमात्रिकान् अधिकारिणः अद्राक्षीत् तथा पौरान नगरनिवासिन अद्रासीत् तथा अङ्गहारान् अद्राक्षीत् कथम्भूतान् ? नमत्क्रमकटोकरान् नम्रोभवच्चरणनितम्बहस्तान् ॥१४२।।
ततसारतमास्थासु मुभावानमितारधीः । धीरताभिनवाभासु सुस्थामा तरसातत ॥१४३।।
(सर्वगतप्रत्यागतम् ) ततसारंति-आतत विस्तृतवान्, कः ? स विष्णुः, कान् ? सुभावान् सुष्टुपरिणामान् कासु ? ततसारतमास्थासु विस्तृतसारतमप्रतिज्ञासु, कथम्भूतासु ? धीरताभिनवाभासु धीरताभिनबा आभा यासा तासु तथोक्तासु निःक्षोभ वत्तरुणप्रतापासु, कथम्भूतः स विष्णुः ? सुस्थामा बलीयानिति कयम् ? तरसा शीघ्रम्, कथम्भूतः अभितारधीः अभिगता तारधीर्यस्य सः सकलशास्त्ररसास्वरसरसिकबुद्धिरित्यर्थः, पुनः ॥१४३।।
क्षयलोभविरामहेतवः प्रकृतीनामभवन यत्र यः।
रिपुमध्यकृतास्य केवलं परवध्यः परकीयतां ययुः ॥१४४॥ क्षयेति-~-यत्र विष्णो नाभवन्न साताः क्षयलोभविरागहेतवः क्षयो बलाभावः, लोभः सर्वेषु पदार्थेषु व्यामोहः, बिरामः अनुरागाभावः, क्षयश्च लोभश्च विरागश्च क्षयलोविरागा, क्षयलोभविरागाः, क्षयलोभविरागाश्च ते हेतवश्च ते तथोक्ताः, कासाम् ? प्रकृतीनां दुर्गाध्यक्षधनाध्यक्षसेनापतिपुरोधोमन्त्रिदैवज्ञलक्षणानाम् । आसां विपरीततया स्वरूपं निरूपयति क्षीणा हि प्रकृतिरकिञ्चित्करा जायते, लुब्धा खलु तमेव पति ग्रसते अहेरपत्यभक्षणयत, लुग्धस्य विरक्ता सती राज्यभङ्गाय जायते इति, एतेन राजनि प्रकृतेः स्वाधीनता कयितेति, तथा यः अध्यकृत अधिकृतवान्, कम् ? रिपुं शत्रु यः शत्रोः स्वामी बभूवेति भावः । एवं सति केवलं परं ययुगताः, काः ? परवचः अन्यकामिन्यः, काम् ? परकीयतां पराधोनत्वम्, कस्य ? अस्य विष्णोः अत्र विष्णोः परनारीसोदरत्वं प्रदर्शितमिति भावः ।।१४४॥
वह उचित और निश्चित समयपर राजकाजको देखता था, याचकोंको सुनता था, अधिकारियोंसे प्रतिवेदन लेता था, नागरिकोंसे मिलता था तथा शिक्षित और पादविन्यासमें पटु नर्तकोंका नृत्य देखता था जिसमें फमर भौर हाथोंका लोच दर्शनीय होता था ॥१४२॥
___ स्वयं प्रास्था ( सम्यग्दर्शन )में दृढ़ और विपुल ( तार) दुद्धिको प्राप्त नारायणने स्थिरताको नयी ज्योतिले दैदीप्यमान मूल तत्त्व (सारतम ) में श्रद्धाको बढ़ानेवाले लोगोंमें, पवित्र भावोंका बड़ी तेजीसे संचार कर दिया था ॥१४३॥
जिसके राज्यमें प्रजाको क्षय, लोभ, अप्रीतिके कारणोंका सामना नहीं करना पड़ता था, जिसने केवल शत्रुनोंका दमन किया था और दूसरोंकी पनियां हो जिसके राज्यमें परकीया दूसरोंकी पत्नी थी अर्थात् कोई परखीपर दृष्टि नहीं डालता था ॥१४४॥
१. भत्व तरुण प.द० ज० । २. चैतालीयं छन्दः।
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टादशः सर्गः
___३९१ चम्याजिस्थिरया धरानमननिश्चिन्तस्थितोऽनश्चरन्
• प्रज्ञान स्थिति कर्मजातमवनिस्वामी सुखानां कृते । मत्वामा सचिवैरिहत्यमवसि स्थानं सतामचितौ तौ जैनौ चरणौ प्रजाशमकृतौ रत्यास्तुतेन्द्रस्तुतौ ॥१४५॥
(षडरचक्रगर्भम् ) चम्बेति-अवनिस्वामी विष्णुः जैनौ चरणो अस्तुत स्तुतवान्, कथम्भूतौ चरणो ? प्रजाशमकृती प्रजानां शमं शान्ति कुरुत इति स्वि एतौ तथोक्तो, पुनः इन्द्रस्तुतो, पुनः अचितौ पुनः सतां सत्पुरुषाणाम् अवसि अक्षयं स्थानम् आस्पदम्, किं कुर्वघ्नस्तुत ? कर्मजातं कार्यसमूह चरन्नभुवन्, कथं यथा भवति ? अनः सोल्लासम् अन प्राणन इत्यस्य धातोः अस्प्रत्ययातः पयोगः, किंग यत्रामा कति हाशिये कायम्भूतं कर्मजातम् ? इहत्यं इह लोकोद्भवम्, पुनः कथम्भूतम् ? प्रज्ञानस्थिति, किं कृत्वा ? पूर्व मत्वा विचार्य, कथम् ? सचिवः अमात्यः अमा सार्द्ध कथम्भूतः सन् ? घरानमननिश्चिन्तस्थित: धरानमनेन पूर्व निश्चिन्तः पश्चात् स्थितः मेदिनीप्रीकरणनिश्चिन्त इत्यर्थः, कया ? आजिस्थिरया समामस्थिरया चम्बा सेनया षडरचक्रगर्भम् ।।१४५॥
नीत्या यो गुरुणा दिशो दशरथेनोपात्तवानन्दनः
श्रीदेव्या वसुदेवतः प्रतिजगन्न्यायस्य मार्ग स्थितः । तम्य स्थायिधनंजयस्य कृतितः पादुष्पदुच्चैर्यशो
माम्भीर्यादिगुणापनोदविधिनेवाम्भोनिधीलङ्घते ॥१४६॥ नेत्येति-त्रिः । तस्य लक्ष्मणस्य यशः अम्भोधीन् समुद्रान् लङ्घते, केनेव ? गार्भीयादिगुणापनोदविधिनेव, कथम् ? उच्चरतिशयेन, किं कुर्वत् ? प्रादुष्षत् प्रचुरीभवत्, कस्याः सकाशात् कृतितो विधानात्, कस्य ? जयस्य, कथम्भूतम् ? स्थायिधनं यो नन्दनः पुत्रः स्थितः, क्व ? मागें, कस्य ? न्यायस्य, केन सह ? दशरथेन गुरुणा पित्रा, किं कुर्वतो न्यायस्य ? अवतो रक्षतः, कथम् ? प्रतिजगत् लोकं प्रति कथम्भूते मार्गे ? वसुदे कथम्भूतो नन्दनः ? नीत्या दिशः ककुभः उपात्तवान् गृहीतवान्, कथम्भूतया नीत्या ? श्रीदेव्या प्रिया दीव्यति विलसतीति श्रीदेवी तया ।
अथ भारतीयः-तस्य विष्णोर्यशः कत्तु लङ्घते, कात् ? अम्भोनिधीन्, केनेव ? गाम्भीर्यादिगुणा
युद्ध में डटनेवाली सेनाके द्वारा समस्त पृथ्वीको वशमें करके निश्चिन्त हुए और प्रासमुद्र धराके स्वामी नारायणने, भव्योंके द्वारा पूजनीय, इन्द्र के द्वारा स्तुति किये गये और प्रजामें सुख एवं शान्तिके कारण जिनेन्द्र देवके लोकमान्य चरणोंकी श्रद्धा और प्रेमके साथ स्तुति की थी। तथा अक्षय ( अवसि ) पदके भण्डार ( स्थान ), सम्यग् ज्ञानके कारण लौकिक ( इहत्यं ) अनुष्ठानोंकी परम्पराको भी वह मन्त्रियोंके विमर्ष करके अपने और प्रजाके सुखोंके लिए सहर्ष ( प्रना ) करता रहता था ॥१४॥
जिस नारायणने लक्ष्मीको क्रीडाभूमि ( देव्या ) नीतिके द्वारा दशों दिशाओंपर अधिकार किया था, जो पिता दशरथके द्वारा मानन्दवर्द्धक, संसारके रक्षक और न्यायको सम्पत्तिदाता मार्गपर लगाया गया था, जिसके विजयरूपी पुरुषार्थके कारण स्थिर सम्पत्ति बढ़ी थी और जिसका यश गाम्भीर्य, प्रादि शिष्ट गुणोंके साथ खेलता हुआ समान चारों समुद्रोंको लांघ गया था।
१. शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९२
द्विसन्धानमहाकाव्यम् पनोदविधिनेव कथम्भूतं यशः ? स्थायि स्थिरतरम्, कथम् ? उच्चैरविशयेन, किं कुर्वत् ? प्रादुष्पद, कस्याः सकाशात् ? कृतितः विधानात्, कस्य ? धनंजयस्यार्जुनस्य यः स्थितः क्व ? मार्ग, कस्य ? जगन्यायस्य, कथम्भूतः ? वसुदेवतः प्रति वसुदेवस्य प्रतिनिधिः वसुदेवेन सदृश इत्यर्थः, पुनः कयम्भूतः ? नन्दनः समृद्धः, कया ? श्रीदेव्या पुनरपि कथम्भूतः ? उपात्तवान्, काः ? दिशः, कया ? नोत्या, कति संख्योपेता ? दश तथा रथेन स्यन्दनेन च, कथम्भूतेन ? गुरुणेति । अथ ग्रन्थकारपक्षोऽभिधीयते-तस्य धनंजयस्य कृतितः कृतेः प्रादुष्यत् स्थायि यश: कत्तुं लङ्घते, कान् ? अम्भोनिधीन्, केनेव ? गाम्भोर्यादिगुणापनोदविधिनेव । कथम् ? उच्च: यः श्रीदेव्या मातुनन्दनः पुत्रः स्थितः, क्व ? जगन्न्याय कयम्भूतः ? वसुदेवतः प्रति वसुदेवस्य पितुः प्रतिनिधिः, पुनः कथम्भूतः ? दिशः उपदेशान् उपात्तवान्, कस्याः? नीत्या नोतः, केन ? गुरुणा, किमाथ्येन ? दशरथेनेति ॥१४६।।
इति निरवद्यवि धामण्डनमण्डितपण्डितमण्डलीडितस्य षट्तर्कचक्रवर्तिनः श्रीमद्विनयचन्द्रपण्डितस्य गुरोरन्लेवासिनो देवनन्दिनाम्नः शिष्येण सकलकलोद्भवचारुचासुरीचन्द्रिकाचकोरेण नेमिचन्द्रेण विरचितायां सिन्धानकवेधनंजयस्य राषधपाण्डवीयामिधानस्य महाकाव्यस्य पदकौमुदीनामदनानायां टीकायां नायकाभ्युदयरावण
जरासन्धवधन्यावर्णनं नामाटादशः सर्गः ॥१८॥
समाप्तोऽयं ग्रन्थः ।
श्री देवीके नन्दन और वसुदेवको प्रतिमूर्ति जो नारायण (कृष्ण) संसारमें न्यायके ही मार्गपर प्रारूढ़ था, जिसने पवित्र राजनीति और विशाल रथके द्वारा दशों-दिशामोंके स्वामित्वको प्राप्त किया था, धनञ्जय अर्जुनके पराक्रमके हेतुसे उसका स्थायी यश फैला था तथा गम्भीरता प्रादि समस्त गुणोंको क्रीडस्थली होनेके कारण उसकी कीति समुद्र के पार चली गयी थी।
___ श्री देवी ( माता) और वसुदेव ( पिता) के न्यायशाल प्रेमी जिस पुत्रको दशरथ गुरुने नीतिपूर्वक साहित्यकी दिशा प्राप्त करायी थी। उस धनञ्जय कविकी कृति (द्विसन्धान काव्य )के कारण स्थायी कीति हुई है। गाम्भीर्य, माधुर्य, प्रसाद, आदि काव्यके गुरगोंके द्वारा वह समुद्रोंकी गहराई, निर्ममता, प्रादि गुणोंको भरपूर हँसी करती है।
निर्दोषविद्या भूषण भूषित; पंडितमण्डलीपूज्य, षट्तकचक्रवर्ती श्रीमान्, पण्डित विनयचन्द्रगुरुके प्रशिष्य, देवनन्दिके शिष्य, सकलकला चातुरी-चन्द्रिका चकोर नेमिचन्द्र द्वारा विरचित कवि धनञ्जयके राघव-पाण्डषीय नामले ख्यात द्विसन्धान काध्यकी पदकौमुदी टीकामें नायकाभ्युदय वर्णन नामका
भष्टादश सर्ग समाप्त ॥१८॥
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ar]
अग्रतो भव शुभे पथि १००१० अजरोऽव निवृत्तचेष्टित ४३२ अजित्वान्यं श्रिया त्रिष्णोः १८१७२ अज्ञातचरितं शत्रु ९१४ अत्यन्तीना हवालीयम् १८४० अत्ययान्तां महोनायाम् १८३२ अत्यन्तकोऽपकारेण १८८३ अत्र समेता मृदुरसमेता ८/३० अत्र स्तुताधिकमनोजवधू- ८५२ अत्रान्तरे शरछन- ७।१ अत्रासनक्रमक ऐश्वनावि८२२ अथ कदानुवशा नु ८१ अथ जातु न योवनोदये ४|१ are वानराधिपतिभिः १२/१ अव वनमनुकूलमङ्गनाभि: १५/१ अथ वारुणोरुचिरभाजि १७।२८ का संयुगं सुतरसातयुगम् १७११ अथाभवत्स दशरयोग्रविक्रमः २।१ अथापरागोऽप्यपरागतां १९ अथास्य राज्ञः प्रियधर्मपत्नी ३११ अर्थान् प्राणान् स्वान् विनयन्ते
१३११८ अदृश्यपारापतनाभिहेतुषु १।२७ अक्षेता भी सेन्द्रः १८/१०१ अध्यासीना निश्चला ८ १० मध्वान्तेऽसौ चेतसि वैरं १३३ व्यधिजलमधिकुङ्कुमं बभौ १५/३९ अधिरुह्य जनेन पश्यता ४२६ अधिष्ठितोऽस्त्रविद्यामि- ९३४ अधोऽधः पेतुरानीलान् १८०४७ ar कोऽपि वरुणोऽपि कुबेरो १०।३४
अन्तःपुरे राजनि राजधान्यां ३ । १७ अन्तरङ्गमनुभावमाकृतिः १०/२३ अन्वेति रत्नोल्लसितेन्द्रचापः
८१८
५०
श्लोकानुक्रमणिका
अन्यदा रस मिर्वक्षवं १०११ अन्यदा साहसगते ९।११ अन्यात्मदर्श मुखमीक्षमाणा ८३८ अन्तर्बहिः संप्रतिकालरात्री
१३।३५
अन्योन्यनिद्रावसरं प्रतीच्छत्
१७३८६ अन्योन्यमुत्पीडयतोः सखीव
१६१२३
अनन्यसाधारणरूपकान्तिषु १।३९ अनारतं तिसृषु सतीषु २।१४ विषय रातवाना ८४ अतुजं तु मृत्युमिवहन्तुम् १७२७ अनुजग्मुरेनमनुकूलतया १२/२ अनुकूलफलासु भूभुजा ४ ४३ अनुद्धतान् युवजरतः २२६ अनूरहसमुपैति मन्त्रं १३०४१ अनेकमन्तर्वणवारितात १।२३ अप्यङ्गसंवारकमङ्गरागम् १६।४४ अप्यज्ञात्वा रावणावायशक्ति
११।२१ अप्रारम्भात्कार्यमकोशलाद्वा ११।३ अपसले जनंरत्राः ९८४७ अपाण्डुरं रागनिबद्धमङ्ग- ३।५ अपि चामी करिकुलैः ७५२ अपि चरिकया द्विषोऽभवन् ४।३९ अपि दूरमपैष्यती प्रदेश १३।३१ अपि यस्य जगाम मुद्रया ४ ३८ श्रभ्यादते कार्यजं योनिजं वा १११९
अभ्येत्य निर्भत्स्यं जगाद ५१२३ अभिमुखमवलम्बितोऽम्बुना
१५/३७ अभिपेचकं निपतता हरिणा १२/२३
अभिवृद्धिमियति विप्रियै- ४ १९ अभिषेक जलप्लवेन सा ४।२७
अभूत्प्रकाशं विपिनं प्रचारः ५१४४ अभूद्गुरुहुरुपदेशशूमतः रा६ अभूम शौर्यस्य पदं रणेऽस्मिन् १६७८
अमर: खचरदचक्रम् १८।११९ अमरिष्यञ्जनः पूर्वम् १८१४२ अमा रणं महामात्रः १८१४१ व्यमुतश्च पुष्पायनं १२।१७ अमुत्र मकरः करविरचिता ८ २४ अमुनाभिशयन्धनं रुदन् ४।४९ अयम गावगभोरगुरुर्गुर्ण - ८२ मयानि तव तिष्ठत्वम् १८।३३ अनपेक्षानद्राक्षीत् १८१४२ अरण्यवृत्ते रुदवासकर्मणः १६८२ अरथाश्वं हरिर्युद्धम् १८०७५ अरयो भीरवश्च १८/१७ अरान् घटीयन्त्रगतान् १।१३ अरावण जगद्विश्वम् १८६४ अरिरस्त्रं रणेऽलाक्षीत् १८:३६ अरुणत्काणिनगणानुच्च १८५३ अलङ्घितव्योमग धार्यभूमिम् १६।४
ree इव गतं कुतोऽपि चित्तं
१५।२८
अलीककलहाकृष्ट- ७/३८ भव्यक्तभावोऽयमलब्धदेह - ३१८ भव्यालोलायमानो यश- १३।४ वचनमभिशय्यमन्यु - १५/१३ अदचिसकुसुमावशिष्टवृत्तं १५८ अवन्यायपथं चीप्सन् ७ ९१ अवलोक्य तं कलकलं मुमुचु
१२/४४
अवलोकितुं हरिविघातमसह
१७।२१
अवाष्टभञ्जनाश्चारु- १८/१३२ अवायत्तुरगमवाहितं गर्ज २११८ अविलिप्ततामोदा- ७१७९
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसन्धानमहाकाव्यम्
आनीलं द्विपमधिरा रामभद्रः
आपृच्छमाना इव नादयस्वान्
१६८१ आपातुं जलमिदमिन्द्र- ८८ गामिणस्य नियतिः ७१ आमण्डलीभूतशरासनस्य ३।३८ आवारितो मध्यगत: ५१३५ आरावं दिशि दिशि तं निशम्य
अविस्मरम्पराधातम् १८१६० अश्वोरसपतत्पत्तिः १८१८ अशिरः शत्रं शरणमेष विराति
१७२ अशेषमाकीर्णमुपैति ६:४६ अशोकसप्तच्छवनागकेशरैः १।२८ अस्त्यशक्यमपि दूरमर्जुनः १०११७ मस्त्राणि यन्त्रमुक्तानि ९।३७ अस्ति नानाप्रकारोऽसौ ७।२६ अस्याम्बुधेर्यातनिवृत्तमार्गे ८१२८ अस्मिन्नद्रावितस्थाने ७३२ असुग्वसामांसरसेन भग्ना १६६८२ असत्यसन्धाः परलोकवञ्चका:
११४८ असत्कमशिरोऽश्वोयम् १८०२४ असि भुजमहं धैर्यम् १८१७ असुग्नीवाभियोगार्तम् १८१६७ असुसरां सुतरां स्थितिमुन्नता-८८३ असूययाऽऽगम्य निशाम्य १११९ असंस्तुतं प्राप्य ततो ५६३२ असंमनन्ती व्यवधानमणो:
१७७७ अहो परमरौद्रत्व- ७५९ अहो रूपमहो कान्ति- ७१८३
मालिङ्गमिव लामिः ७१९४ आलिङ्गय गाद मधुरं ध्वनन्ती
१७६४ आलीउपदविन्यास- ९।४३ आश्लेषमन्त: क्वथनं प्रणामम
१७.८५ आश्रयस्त्वमसि सर्वलघूनां १०१६ आश्रमः सर्वशास्त्राणा- ७७० आशङ्कसे चेत्परिभावमर्थ- ५।२५ आशा मुक्ता बन्धनेनेव ६३४९ आशीतिका वर्षवरा: ३१५ आशिश्रियन्नदीनाथः १८१११२ आशुशुक्षणिरिवाशु स १०।१४ आस्थायुकः स्यन्दनमन्तरिक्षम्
१६.४६ आस्येषु जिह्वा हृदयेषु हस्तान्
१६६२६
इरयाकूतं तस्य भीमोहितस्य
१२२२ इत्यादाय दिनैः कैश्चित् १८१३० इत्याशङ्कय चिराज्जज्ञे १८०३८ इत्याशंसुर्नाभिगन्धं मुगाणाम्
१७८० इत्युक्तासी तस्य विरार्ग १३६३६ इत्युक्तऽस्मिन्पादमुपात्तं १३।२१ इत्युच्चक: स्तुतिशतं १२०५१ इत्युद्यतं राजकमन्यपक्षम् १६७१ इत्युपायमविचार्य तदार्य: १०३२ इत्येतस्मिन्नुक्तवत्येतदेवं ११:१३ इतस्ततः संविवरीषता ६१९ इतस्ततोऽभ्रंलिहशृङ्गकोट्यो
२. इति किमपि विकोपितास्तरुण्यः
१५.३१ इति उपलविलासिनी १५:१६ इति चक्रस्य तत्कालम् १८१६५ इति तस्य निशम्य १०४१ इति दिग्विमूढमिव तत्र १७१३५ इति प्रतापादवगाढयो- ६।१४ इति मोघं बभूव वारिः १८५९ इति रतिमनयानुरुध्यमानो २२३४ इति वनमभितो विहृत्य १५।३३ इति विनययन्नुच्चस्तब्धा- ३।४३ इति विविधरतेन राजलोकः
१७१८३ इति स पृतनां दृष्ट्वा- ५।६९ इति स मरुतः शक्त्यास्तोकं
[ ] आकृष्टचापं द्रुतमुक्त बाणम् १६।१४ आकृष्य हस्तं विधृतं ८१४३ आकारमादाय विनीतवेषं ५।१६ आक्रीडशलाः कुलपर्वतास्ते
आज्ञासमापनीयेन १८७६ आत्मपादशरणं कुमुदौघम्
१७१५० आत्मैव स्वयमवधार्यते १४११३ आदी बालाश्चिक्षिपुस्तस्य शेषा
८५० मादित्सया मानधनस्य ५।५३ आदिप्रजापतिः स्याच्चे ७१७३ आधुनानः करं भानु: १८१५५ आन्वीक्षिकी शिष्टजना- ३२५
इच्छातिमङ्गेन न रन्तुकामं ५५ । इत्यं तेन ब्यापृतनेत्रेण ८११९ इत्थं हिरण्यकशिपूदयपक्षपाती
१२।५२ इत्यर्जुनोना मनसा प्रसन्नः ८।३४ इत्यधानि द्विषन्देवैः १८.९९ . इत्यद्रिकुम्ञान्सरित: ५५४९ इत्यतो रावणो रोष- १८९ इत्यपायवदुपायवन्नयै- १२१ इत्यस्य बाबमभिनन्द्य १११४१ इत्याकर्ण्य तमुत्साहम् १८१९२
इति सङ्कयां निशमयन्सुहृदः
१।२९ इतीदमभिधाय तां १३१४४ इतीदमाकर्ण्य स पावनंजये.
११॥३१ इतीरयित्वाहितकम्पवेग ५।३० इतोश्वरा: केशवतो भवन्तः
१६६६२ इदमन्यच्च कलयन् ७१९०
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
इदं मया नयमपदिश्य २०१९ इदमित्यनुशिष्य मेदिनी- ४।२१ इदमेवमनादिगोचरं ४५० इन्दो: प्रियस्यापि कराग्रपात:
१७१५७ इन्द्रो विभूत्या स बृहस्पतिर्वा ३१२ इयत्तया वक्तमहं न शक्नः १६।२५ इन्विमर्देऽमुनता ६९ इह किंपुरुषा; पश्य ७।४२ इह भान्ति मण्डपभुवः १२।१५ इह सकतं तरणितप्तमिदं १२०१५ इहावापत्कीति हरिदवधिमन्यत्र
१६५८४ इहैव जम्बूतरुमालवालवत् ११०
[3] उक्तेन पौनापुनिकेन किं वा
१३३२ उच्छ्वासाद्विविधभर लधुं १४०२० उच्चरंहाः प्रतापेन ९।१८ उत्कण्यं मौर्वोनिनदं नृपाणाम्
१६२० उत्कार्तस्वररच्योऽपि १४।१० उत्कीर्णा इव कुलपर्वता ५१६५ उत्कीर्णैरिव विधुभिमुख- १४॥९ उत्खातरोपणमिदं निजमेव
१२०४७ उत्तमोऽयरतो दुःखम् १८७९ उत्तुङ्गश्यामलकुचा ९:१९ उत्तरेऽर्थे कृतार्थ त्वम् १८।४ उत्प्रेक्षणे लक्ष्यविधी ३।३७ उत्पलस्य शशिनोऽग्यवतारात्
श्लोकानुक्रमणिका उद्युक्तानामुदधिमहत्त्वस्तुत्या
एभिः शिरोभिरति- १११३८ ८113
एवं चूदाताडितपादं ३१३९ उद्योतितदिशः पश्वा ७४४
एवं नानाक्षत्रियवर्गे: १४।२६ उदधमदिव तत्पराभिमर्शा-१५२० एवं वाक्यं विष्टरविष्ट- १३३१५ उदयाद्विभूतिरिव भोगगतिः एष चारगुणोन्मुक्त- ७५७ १७.११
एषा कटाक्षपातेन ७८९ उदर्कसक्लेशभरं स्वयं १।१४ एषा पदफलाशालि- ७.५१ अदाशं बहुगतुङ्ग । ५:१८
गुपपुष्मिन विलसति मुक्ताउन्नतोऽसि विशदोऽसि १०।२६
८1११ उन्नेतुं तपनवितापमङ्गनानां
एषा विलासभावेन ७।७४ १४।११
[ ] उन्मग्नशख श्रमफेनयुक्त- ५।३६ अंसान्तविश्रान्तमूचान्तचक्र- ८६४२ उन्मील्य रूप सह सामि ८।४४ अंसोत्सेधेन सोत्सेका १८।२५ उभयपार्श्वगतान्ति शिता- ५१६८ उपकर्ण्य तथा नरेश्वरं ४॥३० उपवन्यभूम्युपगिरं च १७५३० कृत्याकृत्येष्वन्यदीयेपु योज्पे उपवनमभिरामवल्लभां १३१३७ १११२७ उपवीणयन्दृषदि सिद्धपदं १२।३३। कृत्वा सपर्या कुलदेवताभ्यो उपसान्त्यय कृत्यमात्मन- ४११६ उपाददे परसुखदुःखचिन्तया २६९ कृत्वोच्चरथ वेगेन ९:४१ उरसा निपीडव भुजयो- १२१३९
कृतातिपातावधिको ६२ उरः श्रियः स्थलकमलं २।२
कृतपाणिपीडनविधिः प्रथम उल्काशरं शक्रधनुस्तडिज्ज्यम् १२१४०
कृतमुच्छ्रितं तदनुदात्तम् १७:३३ []
कृतार्थसारान् व्यवहारघोषिणो ऊर्जस्वलः पर्वतभित्सिवक्षा-३।३२
११३५
कृतावतारायतिपुण्य-१८ ऊठवान्यदपि मण्डलिक १०।४४
कृपया नापि मोहेन १८१८२ [ऋ]
कृषोदलं कृषिभुवि वल्लवं २०१६ अजुप्रकारेषु गुणेषु ५।६०
क्वचनातिपातमटवीमटवी १२१८ ऋजुस्वभाधादवदातवृत्ताः
क्व नूपो भरतोऽमराचितो ४८
क्रमशोऽतिजगाम नर्मदां ४।४२ ऋजूपकारिनिजि ९।४४
कडजकिजल्कगन्शन्धः ७.१४ ऋतं वचो-विसमुदितं २।२७
कर्णाजास्तेन विलूनपुष्करा ऋषिकोटिभीत इति जन्य भिया
६।२४ १२।३०
'कथमपि नमयन्त्युपेत्य १५४९ [ए]
कथा तदोयां स निशम्य ५/२२ एकभुक्तिमलुब्धिं च १८११३४ कदाचित्कृतनेपथ्यं ९५८ एकः सर्वास्त्रसंग्राहः १८।२३ कन्याहेमपुरो लेभे १८।१२१ एतान् प्रवालविटपान् ८९ कपोलयोमूनि पादयोस्तं एनां घनकुचोच्छाय-७२८७
३१२२
उत्पलायत लोलामः ७.५ उत्सनगौरबकुल: ९।१२ उद्गिरग्निव सन्ताप- ९।१४ उद्दीपितोऽर्यमायाभि- ९।२१ उदधृतापाण्डुरश्याम- ११४८ उद्दिन्दूनां मुहुरनुबद्धं ८।१७ उद्यकक्षा गोपुरशालध्वजमाला
१३८
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
कम्बुग्नीवालघुश्रोणिः ७६७ कमन्यं यः समुन्न-१८५११५ कमला च दलान्तरसव-४।२८ कमाशु न तयारेभे १८।१२२ । कर्णश्रुति गच्छति तूर्यनादे १४।३३ कर्मोपायं प्रक्रम तत्फलामि
१०१४ करपार्थामधुरा न १५ करतलपिहितं प्रियाननं १५।४० करीव सोऽपात्तमुखच्छदोऽयम्
१६७६ कल्लोलाः सपदि समुद्धृता ८१६ कल्लोलैरिह जलधेः ८।२६ कल्याणनिक्वणा वीणा ९९ कलपुत्रमित्राणि ९।३८ कलमलिकुलकोकिला प्रलापं
१५६ कलोगमानामधिदेवते २०३१ कस्यात्यन्तं भिन्न मेकान्ततो वा
११३८ कान्तोन्नतस्तननितम्वनिपीडनेन
१५६४६ कामिपरीता मधुविपरीता ८३१ कायस्य त्वचि कठिनस्य १४।१९ कार्यस्यादौ यः प्रयुक्ते ११७ काष्ठां गिलन्तोव भुवं ५।२७ किञ्चित्पूर्वप्रियाबाल्यं ७८० किमतिविपिनमन्तरे नदी १५।२९ किमभुक्तमनुष्ठितं जन-४४ किमु मधुरसितां मुखात्प्रियाम्
१७.६५ किमु मे भुजेन भुवनस्य १२१५ किमु विलुलितकुङ्कुमावलि
१५४२ कि मर्यादामेष जलात्मा ८.१४ कि व्यायामो यो विहीनः १०१५ कि विग्रहणोभयजन्मनाशा---
१०॥४० किंशुकाकुलभूमीनां ॥६९ कुकाव्यबन्धे यतिवृत्त-११४७ कुचयुगमतुलं कुतोऽस्य भारः
१५:१२
द्विारा महाविमा कुमारभूत्याकुशलः स तस्मि-३६
गतारिपुत्रा सगुणा ॥४९ कुपितमवचनं शिरःप्रणामः गलगण्डपट्टितमदच्छुरितां १२०३४ १५/३२
गजा नियन्तन्करशीकरोत्करकुर्वन्स्वरं हस्त उदारवृत्तिम् १६।१५
गजेषु नष्टेष्वगजेष्वनायकं ६।३० कुलजं शमिनं बहुश्रुतं ४।४१ । गर्भापोढा इव ह्याः १८॥३१ कुलपर्वताः कुलपराभवतः १२।१३ गरो गिरिगुरुगोरः १८.५४
शासनोदीरितचेतसश्चला १३१६ गाग्राहिताः प्रतिजवर्जल-१४॥३९ कुसुमं धनुर्मधुलिहोऽस्य १२।२७ गायका गाथकाबन्धैः १८०९४ कुसुममिषुचयो गुणोऽलिमाला
गाढाकल्पकनिष्ठत्वं ७१९२ १५।५
गुणेन मुक्तं गुरुपर्वरिक्तम् १६॥५२ केपि वृष्णिकुलजाः १०।१५ गुणेन लोक निनदेन छा६ केशवो बलदेवश्च ९।५०
गुणोऽखिलो वसु च २५ श्येन कुर्वती मुक्त–७७७
गोखुराहत इवायमेको १२ कोऽपि क्षोभीभूतलकेशवारी
गौरक्षिकामिमा स्रष्टुं ७७८२ १११२८ कोटिशः कुञ्जरवलं ९।४५
घनसारसुगन्व्ययाचितं ४।४० कोपरक्तकपिलालसदृष्टि- १०।२२
धनयोः स्तनयोः स्मरेण तव्याः कोपाश्रुभिः कालवर्गः परोतः
१७७९ १७।६८
घाताय कतुं द्विषतां प्रवीरः कोपः कश्चिज्ज्वलत्यस्य १८०३७
१६।२२ को वा कविः पुरमिमां ११५० कोरवी गतिमुच्छेत्तुम् १८५१०८
च्युताधिकारा इव चिन्तयाकुला [क्ष ]
१४५ क्षत्रजप्रवाहनिधहस्य १७१२७
चकम्पिरे किंपुरुषा ५३३१ क्षणभङ्गुरमङ्गमङ्गिनां ४६
चक्रं दुःसहमालोक्य १८५८० क्षयलोभविरागहेतवः १८।१४४
चतुर्दशद्वन्द्वसमानदेहः ३३३३ क्षीरधिप्लवकृतोद्गमैरिव १७१५१
चन्द्रो वातः शीतकं चन्दनं च क्षुपविपिन लतान्सरे १५।१८
१७४७ क्षेपन्निव मुखामुखिमानम् चन्दनस्यन्दसान्द्राङ्गी ९।२० १७।६७
चमरा व्यजनेन योजयन्ति ४।५४ [ग]
चम्बाजिस्थिरया घरानमनगृह्वापीषु सोपान-९।२६
१८।१४५ ग्रीवाहते क्षरत्तन्त्री १८१८
पलत्परिमलासक्त-७४१ ग्लानि मुक्तामण्डपे धन्तुजालम् ।
चलत्पताकामुबद्ध ९।५१ १७५८१
चित्तं वित्तनाङ्गमङ्गेन वक्त्रम् गतवत्यरी तमनुमत्य १७।२४
१७७० गतेन राजहंसीय-७८८
चिरं निबद्धो नियमेन सोध्यम् गता हयेभ्योऽप्यसवो-६१४३
१६.४५ गतावशिष्टेषु बलेषु ६।१५ चिरन्तने वस्तुनि १।३
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९७ प्रभावित मान्ने तया हरीणां कलहायमाना
।
रमेष चेतसि निरुद्ध मुदितम्
१७१८ बरस्य युद्ध्वा स पपात ६१३६ रानवस्थाननियोगखिन्न१४२७
तथाहि भोगाः स्तनयित्लु- ६।४५ तयोभयेषामपि भूपतीनाम्
श्लोकानुक्रमणिका वं जीविकाकृत्य ५१२० त्वं हिमादिरपि तां १०१५ स्वमिहात्थ यथा तथा सनो
१०४२ त्वं श्रीमहामङ्गल कुम्भकर्ण
११३६ तच्चकैकं यन्मुखेनककेन ११३५ तत्पार्वे गतधृतिमत्स्य १४॥२३ तत्याज पुत्रो विनयं ३१३४ तत्संहारो मा स्म भूद्वन्धुताया:
१११४० तत्सर्व वा रम्यमल्पाल्पमेव
तद्यातव्यं तत्प्रकृत्यानुकूल्यं
[3] त्रध्वजानामितरेतरस्य १६०५७ उन्नः शाः समोकेऽस्त्रः १८।२९ ओत्कारच्छातजठर- ७१०
तद्वानेयद्विपमदमरुद १४॥३० तदाशशंसे रणभूमिरेषाम् १६३२ तदितो निरूपय पयोधरयो
१२॥१४ तदेव गाम्भीर्यमदः १४॥३४ तदेव संदर्शनसंकथाः १३।३९ तद्देशभीताधररागसङ्गात् १६२ तन्मध्य हरिकुलनायक-१४।२४ तनुरक्षया परिणतेव कुपितम्
१७१४ तेनाजितात्मशिरसा धीः १८०९७ ततुं नटन्त्याः किल काचकुट्टिमे
न्ययोविरिन्धं विनिशम्य ६५ वलत्यमुष्मिन्कुपिते ६॥३३ याचक्ररुद्धं स्थितमङ्गमेव १६।२१ जायते च भवतः पतिरुच
१०१२८ नघनं निबच्य बसनेन १२६३६ जघन्यवृत्ति पुरि यत्र ११४३ नडेषु बाह्येष्वपि ११३८ जनमाकलस्व भुवि १२।१२ जयश्रियं दक्षिणमंसमंसलो ६।३ । जलवेणीति संतुष्य १८६४६ जलपरिचर्यरुत्सूत्रत्वं १५:४५ जलाशयं दिशि दिशि २।२३ जातं रपरणोपेते ९.१६ जानामि किञ्चित्वपया ५।१७ जाने हि मृत्स्नाऽभ्यवहारमात्र ३१७ जिगाय षड्विधमरि- २०११ जित्वारयः सुखं बन्धून् १८५१० जीवाभिघातं कृतधर्मपीडम्
ततसारतमास्थासु १८१४३ ततो विधातुमन्येषाम् १८।११० ततोऽभ्यमित्रीयमिदं गरीयो
१६७४ ततो यदूनां बलमप्यवस्थाम् १६॥३० ततो गमीरश्चरितैरगाव- ५५० ततोऽधिके तादृशि १७ ततो बलेन बाल्येऽपि ९:३९ ततो वनं देशमनेकमेव ५११ ततः समीपे नवमस्य विष्णोः
ततः प्रयुक्त कुटि ६१ तराश्चकाङ्क्ष स्मरमोहहेतुं
तमधूममग्निमिव दृष्टिविषम् १७३ तमुधीक्ष्य नवोदयस्थितं ४।३३ तमुदीक्ष्य शैलमुपयन् रभया
१२॥३५ तमूर्जसारावणिमन्यपेतो १६११ तयोः पतन्त्यः शरपञ्जरान्तरं
तृणको तुककङ्कणोचितां ४४८ त्यजतो न जहाति ४.५ अस्तेराबबरास्तेऽत्र १८५११६ त्रिदिवेच्छया व्रतमिहत्यजनः
१२।२८ त्रासो विरूपरेखा वा १८१८८ वेपे नृपाणां ८०५५ त्वामभ्युपैतु पुनरभ्युदयाय ४।५५
ततः स्फुट पञ्चकमीक्षमाणी
६४७ ततः समाधिष्विव तौ ६।४ ततः सुमित्रोदयहेतुभूता ३२९ तथाचार्य चर्यापरिणत - १२१५० तथा द्विपेन्द्रास्तुरगाः ६।४४ तथा तं वीक्ष्य वियति ७४४ तथायुधिष्ठिरन्तारम् १८८६६ तथावधूतोऽपकृति ५।३३ तथावस्थं समालोक्य ९१३० तथाविधेश्युद्यति धूलिजाले
१६१५४ तथा विराधितं ९१२ तथा वैषं तेषां कुसुमरश्चित
१५॥४९
तरवो न सन्त्यफलिनो १।२४ तरलयसि दृशं किमन्यचेता
१५।२७ तुलयनिवोभयरसं मदिराम्
१७७८ तव पूर्वजेन यदुनोपनताः १२।११ तस्यानूनमिति श्रुत्वा ७८४ तस्यावतंसोत्पलपत्रमंत्रों ५।१३ तस्या विशेषेण कृताभिलाषा
५.१२ तस्मिन्कालेऽनुजोपायात् ७।२० तस्मिन्काले जरासन्धी १ वस्मिन् काले लीलया ३१४१
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
३९८
तस्मिन् सुते तत्क्षणजातमात्रे
३।१२ तनव चेतोनयनेन्द्रियेषु ५।१४ तादृशं प्रशमितं ननु १०८ तान्त्रावृषेण्याम्बुदभासि पांशी
द्विसन्धानमहाकाव्यम् धमणो प्रतापिनि गते १७३१ दशाननोद्दीपनमात्रहेतो-१३।३० दशां दधानाः खलु- १६१५ दष्टदन्तच्छदं बद्ध ९।४६ दृष्टवान्न स दशास्यतेजसो
१०१३३ दष्टाधरं तिष्ठतु सम्प्रहारः ८।४१ दहनास्त्रपाणिरपमूध विदधत्
१७६ दारुण्यमात्मन्यनुशय्य १७।४५ दारुणाकारोऽयमुताहो १३५ दिदृक्षमाणस्य जनस्य ८४७ दिदृशुरातमिव ६.२८ दिधक्षवे लोकमरातिसेनम्
देहेषु भोगाय विभक्तिमागत:
१७७६ ध्वनत्सु तूर्येषु शिवाङ्गनासु
१६७० ध्वजमारुरोह गरुडोऽस्य रणमिव
१७।१२ घनुगुणग्राहिपु नम्रवृत्तिषु २४० धवलातपत्रमपि तस्य हतम्
१७४१५ ध्रुवस्य शौर्यायतनस्थ कर्तुम्
तीक्ष्णो नादः साधयेद्यन्नदोयान्
१११८ • तोरद्रुमेषु करिण: पटमण्डपेषु
१४१३८ तीवोद्धवं क्रुद्धमनैकसन्यम् १६:३९ तुलितरमनमोपनी विकं १५।३६ तेजिते तमसा जेरे १८०३० तेऽपातयन्मार्गणमेष वाहम् १६.५१ ते रोपणेरावृषतार्कभासः १६।६७ तेषु प्रहेषूच्चगतेषु ३।११ तेषां धनुमण्डलितं यशो न
धोरन्तुं गां गत्वा स ८१२७
दिनानि लब्ध्वा ववृधे ३।२१ द्विपदन्तपत्रमदमौक्तिकवधतः
१२२२ दिवि दुन्दुभिः प्रणिननाद
१२४२ दिशि विदिशि परस्परं न दृष्टं
१५/२ दिशः प्रसेदुविमलं नभोऽभूत्
३.१४ दोन्यस्त हस्तमधिष्ठायुकमीषत्
१३.१२ दीप्तान्तरङ्गा शिखिनारणीव
न्याय्यं सुखावहमहो भुवि २।३० न्यूना वाणी नोपकुर्याज्जडाना
११२३ नृणामसीनां वसुनन्दकानां ५।४० नृपति तमवेक्ष्य तापसाः ४.४४ मृपहेतुरगान् पश्य ७६१ नृपो नृपत्वं न शराः ६।२९ नृपास्तिरीटेषु समुन्नतेषु १६६६१ नुपी रुषाऽपातयता ६८ न कानि कुम्भासुरभावमाजी
ते सायकाः संयति संनिवृत्य .
१६।५८ तैरुत्तरङ्गाकुलितास्तुरङ्गाः
१६४६८ तं सत्यकोपाहतशत्रुमुच्च:
१६।४२ तं द्रोणसंशब्दनमादधानं ३।३५ तं विलोक्य सहदेवविक्रम
१०१९ तं समुद्रविजय प्रतापतः १०१२० तां श्रीवर्धू ८१५४
[व] दृष्ट्वा दम्याऽशृङ्खलबन्धन
१३७ दददेऽदोऽदरिद्रोऽरि १८०५१ दन्तान्तरसमासक्त- ७.१५ विषि मित्रमति हितप्रिये ४१७ द्विषतां भयेन सुहृदां १२३४३ द्विषन्मारीचोद्यप्रबल १११३७ द्विषो जगद्विलयभया २०१० द्राग्दानोच्छेदभीत्येव १८२० द्राधिम्नि बाह्वोरुरसः प्रथिम्नि
दीप्त्यानिष्टं यस्य निष्टव्यमारं
दीप्त्यारविन्दिनं लोकं ७२ दुर्ग राष्ट्र तीर्थमरण्यं १३१२ दुःखमोचन मिष्टस्थ ७२२ दुर्जनेऽप्यनुनयः स्वभावतः
१०७ दूरक्षेशविभोमोऽस्मिन् १८७१ देव कि बहुनानेन ७२६४ देवावदातवितता ७१२८ देदाङ्गनापदन्यास-७१४३ देवैविमानशालायाम् १८१५ देशकालकलया बलहीनः १०१३०
न किलास्ति कोऽप्यनिमानम
१७२५ नखः कुरषकन्छार्य: ७।६८ न गुणर्वधूभिरभितो ८१५६ न तद्भुजत गच्छन् १८७७ न न्यूनानां भीतिरनूनादिति
१३।२५ न नाम प्रतिसामन्तम १८११४ न निजोन परोऽस्ति ४२० ननूधसि पयोऽस्तीति १८०६१ न पुनरिदमई करोमि १५।२४ नमस्यया संप्रति कुम्भकर्णम्
१६।१२ नयस्य शौर्यस्य धनस्य १११३५ नयस्याबद्यस्य व्यपनयमुखेन
१३।३४
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्याणभागेष्विषुभिविभिन्नाः
१६।२७ नरपूर्णाविदाहेन १८८ न विक्रमः शरभनिपातसन्निभः
२२०
[५]
म विधुः स्मरशस्त्रशाणबन्धः
१७१४९ न विषादितया यदागमत् ४१३४ गष्टं भीतः स्थितं धीर: ९।४८ न सोडबराषितरोद्रहेतिः १६४१ न संममे दिशि दिशि २।४ नागाननागा गगने १८।४५ नागायत्तं सुजित्याभिः १८५० नातिनामन्ति सरितो ७:३३ नायोऽभ्युपेत्य दिनयन १०४६ नानामामः पांसुलो दीर्घसूत्रः
१११२० नानेष्टसहितादोहि १८।१३५ नापत्यपाते प्रतियुज्य ५५२८ मामाददानः १रुषं परेषां ५।६४ नामोचितेन चक्रान्तम् १८२९६ नालं न्यधित्सद् भुवि ३६१३ निकटसुलभमुद्गम विहाय १५:१० निचितमलकमल्पमौक्तिक
१५६४१ निजतो हि धराराधी १८:१३८ । निजदुःसुतं कुलमिवाशु १७।३२ निजपौरुष हि पुरुषस्प कवचम्
१७।१० निवुवनमधुनिद्रामोदशेषकभारम् |
१७८७ निनदेन तस्य मिहिरस्य शरभ
१७।१३ निपीडघासनमावेद्य ९।१५ निपीय रक्तं सुरपुष्पवासितं
६।३७ निर्बद्धोच्चरावतमुच्छीकरसेक
श्लोकानुक्रमणिका
३९९ निषेकदिवस: ९४२
प्रभाव रोचनीयस्य १८१ निहत्य निस्त्रिशतिं तदीयाम् प्रमत्तानेकपालोल- ९॥३३ १६७७
प्ररोपयन्नयभुवि २०२२ निगमानिनदः शिखण्डिनां ४।४६ प्रवालमुक्ताफलशङ्खशुक्तिभिनिजपूर्वया रुचिरपाण्डुरुचा १७४४३
प्रविश्य पुरमाराध्य १८४१३३ नीत्वा पार्वेनोभयेनापि निद्राम्
प्रशमय रुषितं प्रिये प्रसीद १५।२२ १७१९०
प्रस्वापनास्त्रमसृजत् १८।१५ नीत्या यो मुरुणा दिशः १८।१४६ प्रसह्य ताम्यां परलोक-६२२ निरुत्तर कर्तुमनिस्त १७१६२ प्रसाथ पाक्षवधिरोप्य ६३८ निवेदयद्भ्यः सुतजन्म ३३१६ प्रदुषि स्थितिमति यत्र २।२८
प्राणान्कृत्वान्यत्र कथंचित्तव
१३१२३ पृथ्व्याः पाताललङ्कान्तः ९१३ प्राप्तव्योमासङ्गमोघं १४:३२ पृथु विहितवता वनं १५।३ प्रापूरयन्नभस्त्रातः १८.१४ प्रकोपनिर्मीलितरक्तलोचनं ११४२ प्रियमद इदमेतदित्यपूर्व १५६४ प्रजिध्यु: पार्वतीयाश्च १८५१२६ ।। प्रियसंगमात्प्रथमसङ्गमरिकृताए प्रणयकलहकेतवं प्रणाम १५७ प्रियेषु गोत्रस्खलितेन- १३१ प्रणिपतदिव वारि पादयो-१५॥३५ प्रौढे मन्त्रिणि तद्राज्यं ९:१० प्रत्याहतं सुराजानन् १८१८६ प्रौर्णवीदथ सौपर्ण: १८१५२ प्रतिकत्तु परीभावं ॥२१ पजरे किल करोति कि शुक: प्रतिनिनदमयासीद्देवतूर्य- ६५१
१०।२९ प्रतिमितविधुविम्बसीधुपानात् प्रति
पटलः पटक्षौमदुकूलकम्बलं १७५८
२३३ प्रतिरोप्यतां तदियमत्र शिला
पटुः सुघटविस्तार • ७१६५ १२।४५
पणवा: प्रणिनेदुराहता ४।२२ प्रथममधरे कृत्वाश्लेषम् १७१६२
पतत्रिनादेन भुजङ्गयोषितां ६।१६ प्रथमस्तनयोऽभिषिच्यतामिति
पतितस्तरोः शकुनिविष्टिचितः
१२।२६ प्रपासभासार्थनटाश्रमबजे- १।१८ ।
पतिमंगाणां गजबृहितेन ५।५१ प्रभजनाकुलाशोक-७६०
पतितसकलपत्रातत्र कीर्णारिमेदा प्रभविष्यतः कलियुगाद्भयतो
१६३८५
पद्मपाणिरशोकानिः ७६६ प्रभिन्न कक्षीबति लोल- ६१८ पद्मरागप्रभाजालं ७१४९ प्रभावतो बाणचयस्य मोक्तरि पद्यस्योदर्कसन्ताप ७।३
पदघातजासदार मुक्तवरं १२।३७ प्रभावितारातनयस्य वीर्यम् पक्षप्रयोगे निपुणं ३।३६ १६.३५
पथिपाण्डुराजकुलवृद्धिमतः१२१९ प्रभा विमानं समुपेत्य ५।४२ । पथि पथि परिरक्षतो दिगन्ताप्रभाविरामस्य सपलसन्ततेः १५१७ १३१३८ प्रभाविशारदं वीयं ७४२७ पथि सोऽवरजोऽग्रज ४॥५१
४१२
निश्वासमुष्णं वचनं निरुद्धं ५।८ निशम्याकान्तजमत: ७१६ निःशेषोऽप्यधिवृषि १४।१४
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
४००
द्विसन्धानमहाकाव्यम् पथः श्रमं नेतुमपेतभार- १४॥३६
[ब] पयसि भयमवेत्य योषितां १५॥३४ मध्यासवे प्रेमवधू प्रियेऽपि पयोषरभराक्रान्त-७१३४
१७१७३ परतस्तमांसि पुरतोऽस्य १७१२९
बभुः पुराणाः स्फुटिता ५।५५ परतो नतं जघनपाष्णि- १२०१६
बभौ महल्लोहितसम्भृतं ६:४२ परितः पतद्भुजगपंक्तिरसौ
बलिमानर्चयावेद्य १८१०६ १२१४१
बलेन य: स्वयमनिलोऽपि ॥२९ परदारमहाविष्टः ९१४०
बलीयसोऽपि द्विषतां निहन्तुपरभृतशुकसारिकाविरवाः १५।२१
बहुतिधमवलोक्य नाथमानं परस्पर देगितमाप्नुवन्तो १६०२४ १५।२५ परस्परमपश्यन्तः १८.१३७ ___ बहुधातुगणाकीर्णान् ७।५५ परिचितमभिगम्य लीलया १५१८ जो वायुमयं जवंजवमयं १४१३१ परिनया बहुभरणेन च २३ बिभ्रत्सदाशाननिरूढदीप्तिम् परिमोहयमाणमाशयम १७४२
१६.७१ परिपीडितमुक्तमङ्गनायाः१७६१ बुद्धिसत्वबलभाग्ययोग्यता परिषजति परसरं समेत्य १५।१९
बोधातिरेकाय सरस्वतीय ३१३
दोधाम्भोधो यः समाधीन्दुवृद्ध परिहृषितमुखं कुचद्वयं १५१४४ परिहतैरिह तैः कृतबुबुदैः ८५
१२।४९ परेऽपि ये यैविधूता नरेन्द्राः
[भ] १६१८० परोत्तापनशीलस्य ९।२५ भ्रूभङ्गमात्रेण परस्म भङ्गम् परं न दृष्ट्वाक्रममाणमिन्दुम्
१६.४७ १७१५३
भटा जुहूराणरयद्विपं नृपाः ११३७ परं वचित्या पुरि देवदारु १३६ भयाद्यदेवोद्गतमजनानां ६।४८ । पलायांचक्रिरे नागा १५।५७
भवेयुरन्ते विरसाः १८३ पश्यन्निव पुरःशत्रु- ९।३१
भरतः स्थितः स खलु यत्र १७:३७ पशुवच्छादयन्भीरून् १८३११ भान्त्येतस्मिन्मणिकृतरङ्गा-८१७ पादघातविहितं चिरभाग-१४।३७ भियेदमिति नेकोऽपि १८१७८ पुरतः स्थित्तं परिचितम् १७॥३४ ।। भीमः क्रमात् धर्महरः ३।२८ पुरी पयोधीन् कुलपर्वतानपि भुज्यतेऽवारपारीणम् १८१६३ १।११
भुवस्तलं प्रवपति संभ्रमन् २०१५ पुरो रिपोरपारोऽपि १८५१०३
भुवि दिशि दिशि कश्चित् १६६८३ पुरोहितावर्तितजातकर्मा ३३१९
भुवि कोकनिष्ठ इव तत्र १७:३८. पुरः प्रसने धनुषा द्विषद्भ्यः भुवि पुष्पमपुरि गुल्फकं ४॥२५
भूजमस्यवावहायसश्चत् ५१४१ पुष्पं प्रवालमखिलं स्ववनस्य भूर्जायते प्रदेशेऽस्मिन् ७४५ १५१५०
भूरिरभ्रमरो रेभो १८०४३ पूर्व परं ज्योतिस्पार्घ्य देवं ३।२० भूरिस्तम्बेरमेकान्ते ७।३०
भेत्तुं नारिः शक्यतेऽरातिगृह्या
११२६ भोगसागरपरिक्रमचीरान्१७।५२ भोगः स एव सा संपन् १८५८५ भोजकाः सुखनिबद्धसम्पदः
१०.१३ मुगनाभिज परिमलं १२१९ मृत्वा जीवित्वैव च यस्मिन्
१३२१९ मृदुराश्वाराजननः ७।२९ मङ्गलमुक्त्या मृदुगलमुक्त्या
८.३३ मज्जनेषु मनो गूढं ९।१७ मतङ्गजानामधिरोहका ६।४१ मासुभवि चमूम् १८१६ मत्तवारणमारुह्य ९७ मदच्युतानीरदनादबृहिता १४४ मदोत्तमाद्रेयबलेभसारे १४०२५ मध्यस्थितं मण्डलधर्मबद्धम्
१७६३ मध्यस्थवृत्तमपि वञ्चति १५१४७ मधुरमभिहितो न भाषते १५:३० मन्दरागः स्वयं साक्षान् ७१५६ मन्दोदर्यामिच्छसि चित्तव्यतिपातं
१३१२० मनोभिरामप्रमदां विशन्ती ८।३५ मणे: प्रत्युरसस्यासीत् १८१२६ मम यदि युवति विशङ्कसेन्या
१५।२३ महाकुचभराष्ट- ७।११ महानिवेशं कुचभारमेका ८।३९ महीक्षिता दाक्षणबाहुदेशे १६१६० मही समूहन्तमिवाक्षिपन्तं ५।२६ मा ज्ञाप्यस्मि निरस्त्रोऽहम् १८०९१ मातङ्गप्रभृतिपदाभिघातघूतः
१४।१७ मातरिश्वकवृत्तेऽस्मिन् ९।२४ माधवेन मधुना स्मरेण वा
१७/४८ मानो व्यतीतः कलह व्यपेतम्
१७६०
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
मायूरं गतयुतन प्लवं १४।१२ मिलिताङ्गदं पतिसुखाय १७/३६ मुखकृतकपटाः प्रमत्तभित्ताः
५१६७
[य]
यत्रोद्वेगे मूर्छति शोकेन यमस्त्री १३।९
विधिषु २८
यद्दूरं निकटतरं हयाः १४ १५ पदपायि पयः सुतेन ४।१० यद्यप्युक्तं दूतमवध्यं हृदि १३/२४ यशस्य प्राभयं लोकरूढं ११।१० यदा व्यरित्सदरिमदित्सदेष २।२१ यद्वातकी यबलिभस्तरङ्गी ८२३ यदि रजतयाविना नृपाः ४१५३ यदीदृशमिदं रूपं ७१८६ यदेष राज्ञः प्रथमं परिग्रह
१०१४३ ययुविदेशं विदिशं ६।१२ यशोऽवकाशस्य विधित्सया ६७ यस्यां नाथाः सप्रभावा- ११।१ यस्य द्विषां शृङ्खलखङ्कृतानि
१०/३९
यस्याः समीपेम्बुनिषि- ८ २९ यः पूतनामादरमुक्तवृत्ति २०१३६ यः साम्राज्यं प्राज्य मध्यक्षमेषां ११।२९
या कौशल्या रूपशीलेन २।३२ यावन्निमेषः पतितोऽपि १६०६३ याष्टीकन्ते स्मरव्यप्रा १८।२२ याहतेशादृते सीता १८ १०७ युक्ता: कुशलताभोगे- ७३६ युगबद्धमिमं भरं भुव ४३१२ येश्मी मायामयायामाः १८/१२० ये कुन्त्यां अननमिताविभास बन्तो
१४।७ येन धीरुद्धता मुक्ता- ९।१३ योऽवः स्थितोऽशोकतरोरभाडीत्
१२।४८ योऽन्यमर्थमणमप्यतिक्रम- १०/३५
५१
लोकानुक्रमणिका
योऽपि ना हनुमानाजे: १८०६८ योऽयेयाययियायायम् १८|२७ योऽर्जुनोऽसौ स रुष्टोऽपि १८/६९ योseमणोऽपि स एवं १३ २६ योनलोभ र मितः कदनेषु १० १८ यो लङ्केशीत्या मतिमायाद्दिशि
१०।३७
यौवनं तय न वैकृतं १०/३
[र]
रक्षोपायः शक्यते केन कत्तु
११।१२ रजश्छलेन दुर्दानम् १८१८७ रत्ना जिनेष्वा जिमरावशेषात् १७३५५
रथप्रयुक्तस्य यस्य ६।२५ रथाङ्गनामा विरही १४६ स्थानिमेऽन्ये च समम् १६ । १७ रथान्नतूच्चैः पदतोऽयतेः १६।६५
रयान्वसावेशविवृत्तचक्रान् १६०७३ रथेषु तेषां जगतीभुजां ६ । २० रथो वरूथस्य यस्य वाजी १६८ रणमेकार्णवं कर्तुम् १८१४४ रणे प्राणाः सदातिथ्यम् १८१६२ रम्यभावोदयादिक्षु ७।५३ रम्याः पदार्था इव ५६३ रविमण्डलोत्थित इवान्य- १२१३ खेरावरणं चापी १८०४१ रसेषु हेमे कुसुमेषु कुङ्कुमे १०३४ रागादेः सह वसतोऽपि तापवृते
FY18
रागं नेत्रे नैव वित्त मुखं च १७/७५
राजां सरेणुः कलुषः स्वभावो १६१९
राज्ञस्तथा सुप्रजसः कुलस्य ३।३० राजसन्दर्शने व्याषी ७२४ रात्रि वृक्षमलमेवमनूद्य श्वम् १७१८८ रुद्धं शिलोत्कीर्ण - ५१६२
४०१
रूपमेष तब शीलमुवारं १०।२४ रोऽरिरीरुरूरारा १८२१ रोमराजिलतावृद्धे ७१७५
[ल ]
लक्ष्मी खलामुभयभागितया
लघु मोद्गमद्धुमणिरप्युदियात्
१७१८४
लिपि स संख्यामपि ३।२४ रूनम्लानमृणालाभ- ७१८१ लूनं खलीकृतं नैव १८५११८ लोकातिरिकमनयोर्बल- ६ ५२ लोको वितपमानेन ९।२३ लोलध्वजो वहद्वाजि - १८३४
१७।९१
[ व ]
व्य ं परानानतपूर्वकायाः १६३२८ वृत्तस्कन्धः पत्रसमृद्धः १३ १६ व्यवादरीणां द्वीपेषु १८ १२९ व्यापिपद् व्यापि पद्मसी १८१८४ व्रततिषु गहना कापिलानं
१५।१४
वक्रशीलां ब्रुवोरेव १७८ वक्रोक्तिमुत्प्रेक्षणमङ्गबन्धं ८४५ वक्षसास पुरोभागम् १८३१२ वज्रावतं धनुर्मित्र- ९३५ वणिक्पथे खनिषु २१३ वर्धीभिविमथितमग्र - १४।१६ वधूगृहे व घर किरातवामनं २।१७ बनराजों वालोष्ठ- ७७६
रिरिव १८५८ वप्राणां रम्यतालक्ष्मीः ७११८ वर्माप्यापदीनानि १८४८ वरमिह ततः स रामो- १०/४५ वरूथिनो लङ्घनमन्यसंन्यम् १६ ॥ ३६ वन्तुङ्गो वर्धनमिच्छ १०३३८ यानि मुष्टेरगतानि ५५८ सुनोपचितेन सम्भवेदिह ४।१८ are मेयमुपयं कर्णयोः १०।११ वाजीभ विपिनेयेथे १८११३
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विसत्त्यानमहाकाव्यम् वादयितारं प्रियदयितार ८३२ बिलासमावेन विलम्बमानं ५।४ शवाः शिवानां मुखतीय-६।४० वाराङ्गना ननृतुरुत्पतिताः पताकाः विलोकभाचेसु सहस्रनेत्रताम् शरधाराभिवर्षेण ७।२३ १६८७
१७७२
शरप्रवाहदुर्गेऽस्मिन् ७.५८ विकाशः कोऽपि कान्तीनां ७७२ विलोलने वेष कुशाग्रवृत्तिषु १६४१ शरेण चूडामणयः ६१२१ विक्षिप्तपुष्पशयनाः ७.६७ विश्वन वारिणा तस्मिन् ७।१७ शरैः समस्तः स्वरदूषणो रिपुः विगणय्य परस्य चात्मनः १११३९ विश्लेषणं वेत्ति न ५।१० विगणय्य तदेवमहसो ४६११ विशद यशोऽखिलदिशं १२।४
शशिनस्तुला समुपयाति १२६१० विचित्ररत्नप्रतिभाविशालं विशक्षीरनितां चञ्चु ७१३ शस्पर्क हरितग्रास-७.५० १४:३५
विशालकूटा: सुखवासहेतवः १।२४ शाङ्ग पिनाकं धनुरिन्द्रचा विजयाय जय स्वमादितो ४.१३ ।। विशी पहारा हतकोशेखराविद्यानवध: कवचानि शस्त्र:
१२९
शाङ्गाणि चापानि समुरिक्षपन्तविशुद्धवंशानि गुणानतानि ५५७
५.३९ विद्याबलेन विभवन १९५३४ विशेषौरिव पत्रिभिस्तयो;
शान्तारावे सारिकाद्यप्रवेशे विद्याधराधिगुरुणा ७1८५
११२ विदेहसङ्कल्पजसम्भवाया: ८६६ विसारिभिः स्नानकषाय-१०१२ मालस्य हम्य॑स्य च गोपुरस्य विधिना खलु दीयतेऽखिलं ४।१७। विहाय सारमुद्वेग ७.९३
८४६ विधुतव्यथः क्षणमवाप युधि विहाय स्वानि समानि ९।२७
शिथिलय हृदयं न मेऽनु. १५:२६ १७१८ विहाय चापव्यवहारमन ५२
शिशोषतोऽन्यमीत्साय १८१८९ विधुतोऽम्युदितो दिगन्तरम् विहिताखिलसत्त्वरक्षण ४४१४
शिप्टै रक्षितं दण्डनीत्या१७४१ वोचिबाहभिरालिङ्ग- ७७
१०४ विधुरास्ते पापेत: १८०९० घोडावासः स्वान्तमङ्गं समस्तम्
शीतोऽम्भःकरिणा ७९५ विधूय लीलाम्बुजमुत्पलाशं ८।४० १७/७४
शुद्धं निसर्गण कलङ्कबद्धम् १६७ विनिपासितं विनिहित १२२६ वीभत्सं रणरुचिरङ्गदोजित
शुद्धां शुद्धान्तवसतिम् १८४१०२ विनिरूप्य स दर्पणे जरां ४३
१४.२२
शौर्यात्तस्थितिविषमाभयादवोत्थं विनिवार्य तं निजकरण १७१३९ धीरारिदैरवारी वै १८२७
१४८ विनीतदेषमाकारं ७६९ वेगिनीमिह पश्यामि ७१६२
शौर्य ह्रीश्च कुलीनस्य १८९३ विभीषणाभ्युन्नतकुम्भकर्ण-८1५१ ।। वेगोऽत्येति प्रतिदिश- ८।१५
श्रव्याणि वाचालतयैव ५५१८ विमुक्तं दूरमभ्रान्त-७९ वेलया विहितकार्यसाधनं १०१२५
श्रवणाञ्जलिनेक्षणेन शुक्त्या विमुखः फलं विधिरिवाशु १७११६ धेरायते मे मतिरस्ति ५।२९
१७:५४ वियति सिद्धगणोऽप्युपवीण- वरं तु कार्म समुपेत्य ५७
श्रवणेषु मृदङ्गनिस्वना-४.२४ ६५०
वैशाखोन्मथनोरकम्पाद् ७४४७ वंशावतारं जगतीपतीनां ५५४६
अवसि शिरसि कृत्स्न-१५:१५ वियोगे लघुमुत्तुङ्गम् १८१३१
श्रिया विलोलो भरतो ३।४० विवयं यः प्रियमहिषी २०१२
॥ श]
श्रियं जगद्बोधविधी ११ विवशोऽपि चित्रमवलोकमयम् श्वासानुबन्धात्परिताप-५५९ श्रीदशाहकुलजाः किल १०1१२ १७१७
श्लथं द्विरेफाकुलपुष्पभारं ८:३७... धीधीनीतिस्थितिप्रीते: १८।१२३ विवर्तितानतिकठिना १२५
शह्वानकारावमयो पतीनां ५१४८ श्रीपार्थः सपदि हरिस्तथा १४०१ विवांसि भान्बोरिव ६।१३
शङ्खा निनेदुः पटहा- ५५४ श्रीमत्तरलतोपेताः ७:४६ विविधानि वसूनि वाहनं ४।१५ शत्रूणां दण्टकक्षेत्र-७।३१ श्रीमतां श्रुतवता १०१२ विरथश्चिरेण विहितोऽपि १७२० शनैः समारुह्य नभोऽनुरागम् श्रीवधूहरणवैरबन्धतः १०९ विरामभूमिः कमनीयतायाः ५४३ १०४६
श्रीवाग्देव्योर्वक्षसि वाचि१३।१४
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीतः सुरकुलं हीनम् १८११२४ श्रुत्वा भग्नान्त १३।२७
[स]
स्कन्धस्था मदकरिणः १४१२ स्तनतापसून भवनननलं १२।१८ स्तनजघनभरेण भूरिणा १७१६६
स्तनभारोधिकगुरु- ९१६ स्त्रीणां शुक्लः सामिकटाक्षः
१३।१२
स्थाने मातुलपुत्रस्य ७२५ स्थलकमलपरागविरागः
१५।१७
स्थिते समर्थ सति दक्षिणाङ्ग
१६।४८
स्थिर प्रकृतिरादेयः १८१६ स्थिर समुद्रसमुद्रस कौतुका- ८/२० स्थिराक्षरान्तं युधिशब्दपूर्वम् १६/३३
स्थेयान्माहाकुलः स्वान्ते १८/५ स्नेहान्ती क्षणमुत्कटाक्षा ५।३७ स्मरात वारुणीभूत- ७४० स्वकुलं समलंकृतं गुणे - ४१५२ स्वगोचरं जल्पमधिस्त्रि- ८१४९ स्वच्छवृत्तिरसिकं मृदु चार्द्रम्
१७५९ स्वजाति कार्याणि निरूप्य ५|३४ स्वजीविते निर्विजसे ५।२४ स्वम्मलमान्तरङ्गमखिलं ८११६ स्वमर्पयन् गुरुमधिदेवतामिव २७ स्वयं समानम्य शरासनानि ५१५९ स्वप्नेन सोमं निशि वीक्ष्य ३।१० स्वपत्यं विधिनिग्राहम् १८११४० स्वयं परान्नामयसीति- १६३१८ पुरातात्तम् १८ १३६ स्वपूर्वकार्य प्रविशद्भिवः
१६।७२ स्वषा सहोच्छ्वसितसूतगतिः
१७।१४ स्वस्यारेश्वायोधयन्मित्रमित्रं ११।११
लोकानुक्रमणिका
स्विन्नवान् स हरिचन्दन- १०।१६ स्वैरज्जनानन्दनमाशुकार; १६/३४
स एष संभूय समुद्यतात्मा
१६५४३
A
कलत्रमुपेक्ष्य सत्कुलं ४३५ घनागमो निजशुचिः १२१७ सङ्क्रोडिलें स्यन्दनचक्रजातं
५१४७
सङ्ग्रामरङ्गं शवनृत्यरम्यम् १६।६
सञ्जानकी नाशमतेरपेता ३१२७ सज्जाम्बवः क्षोभणमभ्यगच्छन् १६/४०
स जातिमार्गे १४ स सब्जिहीर्षन्निव जीवलोकं
५५२
सत्यतो विभया ब्यूहे १८ १०५ सत्यग्रेस र सीतापहारि ९५ सा संभ्रमसंपातैः १८१००
तिर्यमन्वक्पुरतश्च ६१११ सतीं श्रुतस्य १२ सदृशोदयास्तमय वृत्ति रजनि
१७१२६
सदृशी बलेन समकालमधिकृत
१७।१९ सद्गुणास्तव नृपैः १०४ सदरीमुखेन नतकुब्जतनुः
१२।३८ सदिक्षाममायासीत् १८/५६ सदुरामकोदण्डो ९।४९ स घृतव्यजनेन जनेन ८०४८ सन्तापवद्दिनं जातं ९/२८ सन्तिष्ठन्ते सान्त्वमात्रेण १११२५ सन्दिग्धेऽस्मिन्सत्पथे ११।२४ सुन्नयेन गये गये १८१३९ स नवाजिपु लब्धविक्रम: ४ ३१ सनिवर्त्य समन्वितान् ४।३७ सपदि न तदवेयुषी १५१४३ सपताकमुदात्तनायकं ४।२३ स परेण सदा जितां महीं ४१३६
४०३
सपुष्पशय्याजगती लतागृहाः १।२२
स प्रभाविक्रमं भूमेः १८७३ स प्राज्ञमाहाकुलशूरसङ्ग ३२३ सबलाकिका नवतृणा १२/२१ सश्रूयुग्मं वैरविरुद्ध १३/२२ सम्भाषणेनापि न मे ५।२१ समन्ततोऽप्युद्गतधूमकेतवः ६ । १७ समजन्यायतोऽन्यान् १८/११७ समयासीदसौ जन्यम् १८१२८ समयाचक्रिरे खेयम् १८१२७ समागधैर्योऽनुगतः सहायैः १६१५ समातुलानीतनयैः स्वबन्धुभिः
१३।३३
समासयदसौ लोपं ९३६ समुद्गिरन्तो नु शफान् ५।६१ समुच्छ्रिते यत्परिधी १४२१ समुत्पतन्तो दिवि रेणवो - ६ । ३९ समुन्नताम्भोजकुलाभिनन्द्यां
८१२५
समुद्र हा न्यायं विदषद- १४/२९ स मैनेऽनेन सामर्थ्यम् १८३५ समं द्विषन्तः शुकसारिकाभि
३।१८ सर्पवेणी विसर्पन्ती १८१४९ सर्वकर्मणमूर्ध्वज्ञम् १८११२५ सर्वत्र विषयेऽमुष्मिन् ७।६३ सर्वज्ञमभ्यर्च्य महामहेन ३४९ सर्वस्यास्मिञ्जन्मनि जातस्य १३।१७
सर्वस्वा दुर्योधनेनार्जयित्वा ३।४२ सर्वः कुमारः सुकुमारमूर्तिः ३१३१ सरक्षोवरजी राज्यम् १८।१०९ सरसीजलप्लवहिमस्तमसो
१२/४६
सरसीह मज्जति करिण्यलिनां १२।२०
सरितः सरितो नगान् ४/४५ स रुषायुधं विषमिवाहिः १७/५ स रोपणान्पञ्च मथि ५।११ लाक्षिकपदन्यासाः ०।३९
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________ द्विसन्धानमहाकाव्यम् माम्नारब्धे शात्रवे किं 1919 साम्ना मित्रारातिपाती 11 // 17 सामजा मदवशान्मतिहीना सव्यात्युक्षी नाउिविमुक्तै-१३१२८ वानराणां पतिएनसेनः 16 / 37 स वामङ्क्ष द्रोणोतरितम् 17440 सवितापि संहृतिमियाय 1723 स विपन्नबन्धुमुपदृश्य 17 / 22 स विषाणविधूतरोषसं 4147 स वैरिणा श्रीमदनेन 857 स यात्रवाणां हृदि शल्यमुहरन् 6.28 स धोशलोदोर्णबलेन प्रजिहानः सेनैवं विरचितपार्यवाजि 14121 . सेव्यायामानरहिताः 754 संकतेषु प्रियोपेता 9 / 22 सोऽयं नगर्याः परिखायमाणो 8021 सौदामिनीदामचितेव 545 सौन्दव्यंवय्येऽप्यवरोषवर्ग 133 संतप्तस्तपनमरीचिभिः 14 / 18 संविधाय बहुमानमुच्चक-११२७ संरम्भिणाशान्वनवेन मुक्तः सामाजिकैपजनैः पिशिताशिवर्ग: 16586 सामिमीलदहो चक्षुः 1839 सारङ्गद्ध संगतसत्त्वरथयुक्तं 1 / 10 सारङ्गः कृतमणिमण्डन- 1415 सिञ्चतिरिव लावण्य- 7.12 सितासिताम्भोरुहसारितान्तरा: श२६ सिन्दूररेणुः करिकर्णताल- 5 / 43 सुग्रीवः सपदि पराक्रमेण 9152 सुनिचितमपि शून्यमाभासते 13 / 40 सुवर्णमय्यः शुधिरत्नपीठिका 225 सुरभिवितरितुं प्रसूनमेका संहरन्निव भूतानि 9 / 32 ह] स सदसि हृषीकेशनोच. 858 स सागरावर्तधनुर्धरो पार३ ससास स स सांसासि 1819 स सूर्यहास किमसिं 6 / 27 / उस्रस्र: सुसंसले 1874 स हस्ताम्यां चमूहस्तौ 18013 सहस्थितं विस्मृतमङ्गमंशुकम् 17171 सहसा वल्लकोहस्ता 78 स हरिनवोदयमुदीक्ष्य 17144 स्रस्ताः सजः शिथिलतानि 15 / 48 साकृतोच्छसितावश्यं 9 / 21 साक्षादलयो दिवसो न सोऽयम् 16 / 10 साधुन्यायेज्यमत्युच्च-७६ सान्ध्यं रागे रत्नमयूखंविधान हता ह्या न द्विषतां प्रतापा 16164 हतः करेणुः पतितः पदातिः सुरासुरातिक्रमविक्रमस्य 56 सुसाहायतया सुसहायतया 8453 सुहज्जन क्रशयति यः 2 / 24 सुहृदयमसुदेयं प्रेम मेऽन्योऽन्य 13642 सूता नृपाणां युषि 5 / 56 सूर्योऽभ्युद्देष्यति कदाजिभरः 17189 सेनां विष्णोरयरमयों 1343 हतकपादं युषि तस्य 626 हरितो हरितो बिम्युः 18111 हरिः क्रान्तमतं भूत 181104 हरिणा जिनाभिषवणोन्मनसा 12 // 32 हरिविष्टरमध्यमास्थितः 4129 हस्तच्युतास्त्रमाकम्पम् 18170 हस्तच्युते गते स्वापि 1881 हस्तं पाणे हृदयं स्थिरत्वे 16 / 3 हिममुष्णहतस्य यत्सुखं 49 हृतोऽपि चित्ते प्रसभं श६ सानुवृत्तोरुसम्भोगा 735