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________________ ३७५ अष्टादशः सर्गः तेनार्जितात्मशिरसा श्रीः कथं सा बहिः शिरः । इतीोत्सृज्य सोम्याङ्गमाङ्गतोऽग्रहीत् ॥६७॥ तेनेति--तेन वैरिणा आत्मशिरसा निजमस्तकेन श्री अजिता सा श्राः कथं वहिः शिरः शिरसो बहिः इतीव हेतोः यत: कारणात् स विष्णुः अन्याङ्गमुत्सृज्य मुक्त्वा उत्तमाङ्गं मस्तकम् अग्रहोत् जग्राह ॥९७॥ ग्रीवा हते तरतन्त्री वैरराजे समन्ततः । धुनी सधातुस्यन्देव वै रराजे समं ततः ||१८|| (समपादयमकम् ) ग्रीति - ततः शिरच्छेदानन्तरं वरती सबन्दी र कति ? वैरराजे प्रतिfast हते सति कथम् ? समन्ततः सामस्त्येन कथम् ? स्फुटम् केव रराजे ? स घातुनिस्यन्दो वैरिकप्रवणा धूनी नदीव, कथम् ? समं युगपत् ९८ वै इत्यधानि द्विषन्देवैर्दिव्यघानिषतानकाः । जित्वावानि स्थितोऽनवदमोघानि स नारदः ||६| इतीति - विष्णुना द्विषन् वैरो अधानि हतः कथम् ? इत्युक्तप्रकारापेश्वया देवैः दिवि गगने आनका: पटाः अघानिषत आहताः स लोकप्रसिद्धः नारदः ब्रह्मपुत्रः अनर्त्तीत् नटितवान् कथम्भूतः ? अमोघानि निःफलानि अघानि पापानि जित्था स्थितः ॥९९॥ सत्रा संभ्रमसंपातैः सत्रा भ्रमरैश्चिता । ता माल्य मालिकाः पेतुस्तामाल्य इव नाकतः ॥ १०० ॥ 1 सठि —ता माल्यमालिकाः पुष्पमालाः नाकतः स्वर्गात् पेतुः पतिताः कथम्भूताः ? सभासं समयं संभ्रमसंपातैः संभ्रमेण संपातो येषां तंः भ्रमरैः चिताः पृष्टाः कथम् ? सभा सार्द्धम् कथम्भूता इव ? तामाल्य व समालसुमनोनिर्मिता इव ।। १०० ।। किन्तु रावरा या जरासन्ध रूपी शत्रुने सारे संसार में फले हुए अपने दुःसाहसको नहीं हो छोड़ा था ॥ ६६ ॥ अजित किया था इसलिए वह छोड़कर उसने केवल उत्तमाङ्ग शत्रुने राजलक्ष्मीको अपने शिर ( मस्तिष्क ) शिरसे बाहर कैसे होगी । इस काररणसे ही अन्य अंगों को ( शिर ) को ही श्राक्रान्त किया था ॥ ६७ ॥ arre हुए प्राघात कारण शत्रुका मस्तक कट जानेके बाद सब तरफ बिखरती हुई और रक्त बहाती हुई नसें देखकर ऐसा लगता था कि किसी नदीसे गेरुफा घुला पानी बहाती हुई धाराएं फूट पड़ी हैं ॥ ६८ ॥ ५. सम्पम् इति यावत् । २. साय यज्ञाय इसे इति सा । इस प्रकार से नारायणने शत्रुका वध किया था। और देवताओंने आकाशमें पटह बजाये थे । पोंको जीतकर श्रात्मस्वरूपमें लीन, जोक में विख्यात नारद मुनि भी सफलता के उल्लास में नाच उठे थे ॥ ६६ ॥ तमालके पुष्पोंसे गुंथी हुई के समान वे यशकी मालाबोंकी लड़ियाँ फरफराती हुई कसे गिर रही थीं । अत एव उल्लास और वेगके साथ लपकते हुए और इनके ऊपर मड़रा रहे थे ॥ १०० ॥
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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