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________________ २७ प्रधान सम्पादकीय १८.२२, ४.६ ) में द्विसन्धानको उद्धृत किया है ( एगलिंगसंस्करण, पृष्ठ ९७,४०९,४३५ )।" काव्यका सही शीर्षक है-राघव-पाण्डवीय : प्रत्येक पद्यमें दो अर्थ है, प्रथम अर्थ महाभारत कथानकसे सम्बद्ध है और दुसरा रामकथाको व्यक्त करता है ।" चूंकि जैनाचार्योने ब्राह्मण लोक-साहित्य ( profane literature ) का अनुकरण किया है, और हम जनोंके मेघदूतसे परिचित है, यह कल्पना निरर्थक नहीं होगी कि धनंजयचे राघव-पाण्डवी यकी कथा कविराज नामक किसी ब्राह्मण कविसे ली है। कविराजका समय धाराधीश मुंजके बाद होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपने संरक्षक जयन्तोपुरीके कामदेवकी तुलना मुंजा( मृत्यु ९९६ में हुई ) से की है । वर्धमानका काल ११४७ है । अतएव भण्डारकर कविराज और धनंजयको सन् १९६ और ११४७ के बोच रखते है, "यदि अनुकारणकी कल्पनाको सत्य माना जाये तो कविराजको धनंजयसे अवस्था में बड़े होना चाहिए । भण्डारफरने पाठकके मतपर भी विचार किया है । उन्होंने लिखा है : ऐसा कोई प्रमाण नहीं जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि श्रुतकीति और धनंजय एक है। परन्तु समकालीन पम्पके पुत्र के समयके माधारपर पूर्व निर्णीत समय सही बैठता है और निष्कर्ष दो व्यक्तित्वों और काव्योंको पृथक् स्वीकार करने के विपरीत नहीं पहुँचता।" भण्डारकरके मतको समीक्षा आर० जो० भण्डारकर अपने मतकी अभिव्यक्तिमें अत्यन्त सावधान रहते है। उन्होंने धनंजय और श्रुतकीतिको एक मानने में पूर्ण स्वीकृति ध्यक्त नहीं की। उनका यह दृष्टिकोण एक सामान्य कयनके रूपमें स्वीकार किया जा सकता है कि जनाचार्योंने अपने कथा-साहित्यमें ब्राह्मण कथा-साहित्यका अनुकरण किया है, परन्तु धनंजयने कविराजका अनुकरण किया है। यह तथ्य किसी विशेष प्रमाणपर आधारित होना पाहिए । यहाँ भी भण्डारकर आग्रह करते हुए दिखाई नहीं देते, क्योंकि वे कहते है, "यदि अनुकरणको कल्पना सही है।" यदि धनंजयने किसीका अनुकरण किया है तो अब यह कहा जा सकता है कि उनके समक्ष दण्डोका द्विसन्धान रहा होगा जिनका उल्लेख एक नीचेके पद्यमें किया गया है। भण्डारकरका यह निष्कर्ष सही है कि कविराज मुंज ( ९९६ ई. ) के उत्तरवर्ती और धनंजय ११४७ ई० के पूर्ववर्ती रहे होंगे। नये तथ्योंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि धनंजय भोजके पूर्ववर्ती होंगे और कविराजका समय बारहवीं पशताब्दीके अन्तिम चरणमें नियोजित किया जा सकता है। पाठक द्वारा स्वमतकी पुनरुक्ति प्रो० मेक्समूलरके उत्तरमें के० बी० पाठकने १९७० में "द जैन पोइम राघवपाण्डवीय ए रिप्लाई टू प्रो० मेक्समूलर" शीर्षक एक और शोधपत्र प्रकाशित किया { "द जर्नल आव द बाम्बे ब्रांच आव द रायल एशियाटिक सोसाइटी जिल्द २१, पृष्ठ १,२,३, दम्बई १९०४) उन्होंने अपनी पूर्व विचारधाराको बागे बढ़ाते हुए कहा कि तेरदाल शिलालेखके माघनन्दि सैद्धान्तिक श्रवणबेलगोलके शिलालेख नम्बर ४०में उल्लिखित किये गये हैं। उन्होंने यह बताया कि पम्पके पच श्रवणबेलगोल शिलालेखमें भी पाये जाते है। ध्रुतकीर्ति विद्य और देवकीर्ति ( मृत्यु शक सं० १०८५) साथी-समकालीन होना चाहिए। उन्होंने अधोलिखित गणना सम्बन्धी तथ्य हमारे समक्ष प्रस्तुत किये हैं १. तेरदाल शिलालेख शक सं० १०४५ में श्रुतकीर्ति विद्यका उल्लेख करता है परन्तु राघवपाण्डवीयके रचयिताके सन्दर्भ में यह मौन है। २. अभिनव पम्प शक सं० १०६७ में थुतकीर्ति अविद्या के काव्यका उल्लेख करता है। ३. श्रवणबेलगोल शिलालेख (नं. ४०, शक सं० १०८५) अभिनव पम्पके पद्योंको श्रुतकोति विद्यके पद्य रूपमें उल्लेख करता है और श्रुतकीर्ति की पहचान तेरदाल शिलालेखमें उल्लिखित श्रुतकीर्तिसे करता है। इन कारणोंसे पाठक इस निष्कर्षपर पहुँचे कि श्रुतकीर्तिका अन्य शक सं० १०४५ में लिखा नहीं गया जना कि शक सं० १०६७ और १०८५ के बीच वह एक प्रसिद्ध काव्य माना जाता था। यह भी उल्लेखनीय
SR No.090166
Book TitleDvisandhan Mahakavya
Original Sutra AuthorDhananjay Mahakavi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1970
Total Pages419
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Poem
File Size16 MB
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