________________
द्विसन्धान महाकाव्य है कि पम्प उसे विद्वत्ताका आश्चर्यकारी नमना मानता है जिससे श्रुतकीर्तिने सुप्रसिद्धि अर्जित की। इन कथनोंसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पम्प केवल एक जनकाव्यसे परिचित थे और वह था सभी द्वारा प्रशंसित राघवपाण्डवोय । पाठकने यह भी देखा कि वर्धमान (वि० सं० ११९७ अथवा शक सं. १०६२ ) किस प्रकार अपने गणरत्नमहोदधिमें धनंजयके राघवपाण्डवोयका अनेक बार उद्धरण देते हैं और किस प्रकार चालुक्य नृपति जगदेवभल्ल द्वितीय (शक : 247)गा स.कालीन दुर्गासिंह पह कहता है कि धनंजय राघवपाण्डवीयको रचनासे बृहस्पति हो गये। यह कथन श्रुतकीर्तिके ग्रन्थके सन्दर्भमें होना चाहिए जिनका समय शक सं० १०४५ सिद्ध है। ऐसी कल्पना निरर्थक सिद्ध होगी कि अल्प समयमें शक सं. १०४५ और १०६२ के बीच समान शीर्षक वाले द्वयर्थक काव्य दिगम्बर जैन सम्प्रदायके दो कवियोंने रचे होंगे। यदि ऐसा होता तो श्रुतकीर्तिका अन्य शक सं० १०६० में विद्वत्ता की आश्चर्यकारी कृतिके रूपमें माना जाना समाप्त हो जाता। अतएव यह स्पष्ट है कि धनंजय श्रुतकीर्तिका द्वितीय नाम था
और उनके ग्रन्यका रचनाकाल शाक सं० १०४५ से १०६२ के बीच निर्धारित किया जा सकता है । पाठकके मतको दुर्बलताएं
यह स्वीकार कर लिया गया है, जैसा हमने अभी देखा, कि तेरदाल, कोल्हापुर और श्रवणबेलगोल शिलालेखोंमें उल्लिखित श्रुतकीति यही है जिन्हें पम्पने उद्धृत किया है। पम्पने और तेरवाल शिलालेख ( शक सं० १०४५-११२३ ई.) ने उन्हें प्रवो कहा है। परन्तु कोल्हापुर शिलालेख में उन्हें ११३५ ई. के आचार्यके रूपमें उल्लिखित किया गया है । पम्पने राघव-पाण्डवीयको उनसे सम्बन्धित माना है । विद्वानोंके बीच उसे आश्चर्यजनक इसलिए नहीं स्वीकार किया गया था कि यह द्वयर्थक काव्य है बल्कि इसलिए कि वह गत-प्रत्यागत प्रकारका था । पाठकने कुछ तथ्यहीन तर्क प्रस्तुत किये है, परन्तु उन्होंने 'धनंजयका दूसरा ।। नाम श्रुतकीति है' यह सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं दिया। अतएव वह स्वीकार्य नहीं। यह उक्त तथ्योंसे स्पष्ट है कि भोज धनंजय और उनके द्विसन्धान से परिचित था। वह और उनका अन्य स्पष्टतः श्रुतकीति और उनके राघवपाण्डवीयसे भिन्न है, परन्तु राघवपाण्डवीय प्रकाशमें नहीं आया है। हाँ, कविराज कृत राघवपाण्डवीय अवश्य प्रसिद्ध है, पर इन दोनोंसे वह भिन्न है । धनंजय पर राघवाचारियरके विचार
एस० ई० व्ही. वीर राघवाचारियरका निघण्टुक धनंजयका काल The date of Nighan tuka Dhananjaya शीर्षक एक लेख जर्नल आव द आन्ध्र हिस्टोरिकल रिसर्च सोसायटी, भाग २, नंबर २, पृष्ठ १८१-८४, राजमुंद्रो, १९२७ में प्रकाशित हुआ था। उनका उद्देश्य द्विसन्धान महाकाव्य अथवा राघव पाण्डवीय और धनंजय निघण्टु अथवा नाममालाके रचयिता धनंजयका काल निर्णय करना था ।
सुबन्धु और बाणमें श्लेष काव्य रचनेका एक विशेष गुण प्रसिद्ध है, परन्तु उनमें कोई भी द्वयर्थी कवि नहीं अर्थात् किसीने भी ऐसा काव्य नहीं रचा जो दो कथाओं अथवा सिद्धान्तोंको लिए हुए समानान्तर रूपसे समूचे काव्यमें दो व्याख्याओंको उपस्थित कर सके। राघवपाण्डवीयके रचयिता कविराज ( ६५०. ७२५ ई.) द्वयर्थी प्रबन्ध लिखने में पूर्ण दक्ष हैं। निघंटुक धनंजय, जो द्विसन्धान कान्यके समक। इ, मो उनके इस गुणको पुष्टि करता है । दशरूपककार धनंजयसे वे भिन्न है। निघंटुक धनंजयकार राजशेखर (८८०-९२० ई.) और जैन ( श्रीदेवी और वासुदेवके पुत्र, देखिए द्विसन्धानकाव्य १८, १४६ ) से पूर्ववर्ती हैं जब कि ब्राह्मण कलीन ( विष्णके पत्र और मंजका दरबारी कवि ) दशरूपककार धनंजय राजशेखरका उत्तरवर्ती है। 'प्रमाणमकलंकस्य' पद्य के अतिरिक्त दो अन्य अधोलिखित पद्य (निघंटु २.४९-५०) भी उद्धृत मिलते है ( नाममालाके ज्ञानपीठ संस्करणमें अनुपलब्ध )
जाते जगति वाल्मीको शब्द: कविरिति स्मृतः । कवी इति ततो व्यासे कवयश्चेति दण्डिनि ।। कवयः कवयश्चेति बहुत्वं दूरभागतम् । विनिवृत्तं चिरादेतत्कालो जाते धनंजये ।।